Monday, December 31, 2007

हरामीपना सर्च मारोगे तो, जॉर्ज बुश की जगह मुशर्रफ का नाम आएगा

जैसी घटनाएं साल भर घटती रहती हैं उसी समय अगर वो सब उसी तरह से गूगल अंकल के सर्च इंजन में जुड़ जाए तो, कौन सा शब्द खोजने पर क्या मिल सकता है। ये मैंने 2007 जाते-जाते खोजने की कोशिश की है।

हरामीपना सर्च मारोगे तो, जॉर्ज बुश की जगह मुशर्रफ का नाम आएगा

हिंदुत्व की वकालत करने वाले सबसे बड़े नेता को खोजोगे तो, लाल कृष्ण आडवाणी की जगह नरेंद्र मोदी का नाम आएगा

विहिप का वजूद अब कहां बचा है ये जानने की कोशिश करोगे तो, राम की अयोध्या के आसपास कहीं नहीं मिलेगा। अब वो राम के पुल से पार उतरने की कोशिश करते दिखेंगे, तमिलनाडु से लंका के बीच कहीं

सांप्रदायिक हमला सर्च करोगे तो, एम एफ हुसैन ‘फटी पेंटिंग’ के साथ नहीं अब तसलीमा नसरीन ‘द्विखंडिता’ के साथ मिलेंगी

सबसे बड़े ब्लैकमेलर खोजोगे तो, मुशर्रफ के साथ लेफ्ट पार्टियों के नेता नजर आएंगे

बरबाद सड़कें खोजोगे तो, अब बिहार में नहीं बंबई में मिलेंगी

दलित उत्थान प्रणेता के बारे में जानना चाहोगे तो, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जगह अब सुश्री मायावती की जीवनी और फिल्में दिखेंगी

चाणक्य खोजोगे तो, कलजुगी चाणक्य सतीश चंद्र मिश्रा का नाम आएगा

स्टिंग ऑपरेशन की खोज करने पर आजतक या स्टार न्यूज की जगह अब लाइव इंडिया चमकेगा

राजनीतिक विरासत सर्च मारोगे तो, सोनिया, राहुल गांधी के साथ मुस्कुराती दिखेंगी और पड़ोसी पाकिस्तान में बेनजीर खुदा के घर से बिलावल को आसिफ जरदारी की हिफाजत में देख खुश हो रही होंगी

नरसंहार खोजने पर गुजरात की जगह नंदीग्राम का नाम चमकता दिखेगा

शैया पर पड़े भीष्म पितामह खोजने पर अटल बिहारी वाजपेयी नजर आएंगे


आप सभी को Happy new year 2008

Saturday, December 29, 2007

बीएसपी, बीजेपी की सरकारें बनाने में मदद कर रही है!

राष्ट्रीय राजनीति में मायावती की बड़ा बनने की इच्छा बीजेपी के खूब काम आ रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बुरी तरह से पटखनी देने वाली मायावती देश के दूसरे राज्यों में बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता आसान कर रही हैं। जबकि, केंद्र में भले ही मायावती कांग्रेस से बेहतर रिश्ते रखना चाहती हो। राज्यों में बहनजी की बसपा कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी कर रही है।

गुजरात के बाद हिमाचल की सत्ता भी सीधे-सीधे (पूर्ण बहुमत के साथ) भारतीय जनता पार्टी को मिल गई है। गुजरात में जहां मोदी सत्ता में थे लेकिन, मोदी के विकास कार्यों के साथ हिंदुत्व का एजेंडे की अच्छी पैकेजिंग असली वजह रही। वहीं, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में थी और उसके कुशासन की वजह से देवभूमि की जनता ने दुबारा वीरभद्र पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा। और, उन्हें पहाड़ की चोटी से उठाकर नीचे पटक दिया।

दोनों राज्यों में चुनाव परिणामों की ये तो सीधी और बड़ी वजहें थीं। लेकिन, एक दूसरी वजह भी थी जो, दायें-बायें से भाजपा के पक्ष में काम कर गई। वो, वजह थी मायावती का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा। उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई मायावती को लगा कि जब वो राष्ट्रीय पार्टियों के आजमाए गणित से देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आ सकती हैं। तो, दूसरे राज्यों में इसका कुछ असर तो होगा ही। मायावती की सोच सही भी थी।

मायावती की बसपा ने पहली बार हिमाचल प्रदेश में अपना खाता खोला है। बसपा को सीट भले ही एक ही मिली हो। लेकिन, राज्य में उसे 7.3 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि, 2003 में उसे सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही वोट मिले थे। यानी पिछले चुनाव से दस गुना से भी ज्यादा मतदाता बसपा के पक्ष में चले गए हैं। और, बसपा के वोटों में दस गुना से भी ज्यादा वोटों की बढ़त की वजह से भी भाजपा 41 सीटों और 43.8 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है। कांग्रेस को 38.9 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 23 सीटें ही मिली हैं।

गुजरात में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि उसमें मायावती की पार्टी को मिले वोट बहुत मायने नहीं रखते। लेकिन, मायावती को जो वोट मिले हैं वो, आगे की राजनीति की राह दिखा रहे हैं। गुजरात की अठारह विधानसभा ऐसी थीं जिसमें भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर चार हजार से कम था। इसमें से पांच विधानसभा ऐसी हैं जिसमें बसपा को मिले वोट अगर कांग्रेस के पास होते तो, वो जीत सकती थी। जबकि, चार और सीटों पर उसने कांग्रेस के वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाई।

इस साल हुए छे राज्यों के चुनाव में भाजपा को चार राज्यों में सत्ता मिली है। हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में भाजपा ने अकेले सरकार बनाई है जबकि, पंजाब में वो अकाली की साझीदार है। कांग्रेस सिर्फ गोवा की सत्ता हासिल कर पाई और बसपा को उत्तर प्रदेश में पहली बार पांच साल शासन करने का मौका मिला है।

2008 में होने वाले चुनावों को देखें तो, दिल्ली में कांग्रेस की सरकार दो बार से चुनकर आ रही है। सत्ता विरोधी वोट तो कांग्रेस के लिए मुश्किल बनेंगे ही। बसपा भी यहां कांग्रेस के लि मुश्किल खड़ी करेगी। दिल्ली नगर निगम में बसपा के 17 सभासद हैं। मध्य प्रदेश बसपा, भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। शिवराज के नेतृत्व से लोग खुश नहीं हैं और शिवराज सिंह चौहान, मोदी या फिर उमा भारती जैसे अपील वाले नेता भी नहीं हैं। वैसे, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव भी अगले साल ही होने हैं। और, दोनों ही राज्यों में भाजपा के लिए सरकार बनाना बड़ी चुनौती होगी।

गुजरात चुनावों में भारी जीत और हिमाचल में मिली सत्ता के बाद भले ही लाल कृष्ण आडवाणी और दूसरे भाजपा नेता दहाड़ने लगे हों कि ये दोनों जीत 2009 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी के संकेत हैं। ये इतना आसान भी नहीं दिखता। क्योंकि, पंजाब और उत्तराखंड में मिली जीत के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को मात खानी पड़ गई थी।

जाति प्रथा से बची हुई है सभ्यता!

जाति प्रथा सभ्यता बचाने में मदद कर रही है। ये सुनकर अटपटा लगता है। जाति प्रथा को ज्यादातर सामाजिक बुराइयों के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है। लेकिन, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मानव शास्त्र विभाग के अध्यक्ष और प्रसिद्ध समाज मानवशास्त्री प्रोफेसर वीएस सहाय का एक शोध कह रहा है कि जाति प्रथा की वजह से ही भारतीय सभ्यता इतने समय तक बची रही है। वो कहते हैं कि भारत और चीन को छोड़कर दूसरी सारी सभ्यताएं इसीलिए नष्ट हो गईं। लेकिन, वो जिस जाति प्रथा की बात करते हैं वो, पिता से बेटे को तभी मिलती थी जब बेटा पिता के ही कर्म करता था। वो, पेशा आधारित जाति प्रथा की वजह से सभ्यता बचने की बात खोजकर लाए हैं। पूरी खबर यहां पढ़ें

Thursday, December 27, 2007

मुसलमानों दुनिया को बचा लो

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की आज शाम 6 बजकर 16 मिनट पर हत्या कर दी गई है। बेनजीर जबसे पाकिस्तान लौटी थीं तबसे ही उनकी जान पर खतरा था। बेनजीर की वापसी के समय ही उन पर एक जोरदार आत्मघाती हमला हुआ था। कराची में हुए हमले में करीब दो सौ लोग मारे गए थे और पांच सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे। भगवान का शुक्र था कि उस दिन के हमले में बेनजीर बच गईं। लेकिन, पाकिस्तान में जिस तरह के हालात को वहां बेनजीर, नवाज शरीफ ने पाला पोसा और अब जिसे मुशर्रफ पाल-पोस रहे हैं, उसमें ये खबर देर-सबेर आनी ही थी।

पाकिस्तान में आतंकवादी कितने बेखौफ और मजबूत हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज जिस हमले में बेनजीर की जान गई, उससे कुछ देर पहले ही पाकिस्तान के एक और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के काफिले पर भी धुआंधार गोलियां चलाई गईं थीं। शुक्र था कि काफिले में नवाज शरीफ उस समय शामिल नहीं थे। इस हमले में भी चार लोग मारे गए। बेनजीर पर हुए हमले में बीस से ज्यादा लोगों के मरने की खबर आ चुकी है। पिछली बार जब कराची में हुए भीषण आत्मघाती हमले में बेनजीर किसी तरह बची थीं तो, उसके बाद उन्होंने मुशर्रफ के कई करीबी लोगों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने बेनजीर की हत्या कराने की कोशिश की।

लेकिन, मुशर्रफ शायद ये तय कर चुके हैं कि पाकिस्तान को जहन्नुम में तब्दील करके ही मानेंगे। अभी बेनजीर हमारे बीच नहीं हैं और इस समय वो काबिले तारीफ काम कर रही थीं। वो, पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की कोशिश में लगी हुईं थीं। लेकिन, बार-बार उन पर ये आरोप लग रहे थे कि बेनजीर ने पाकिस्तान की सत्ता पाने के लिए बेनजीर ने मुशर्रफ से समझौता कर लिया था। ये अलग बात है कि अपने वतन पाकिस्तान लौटने क बाद जब उन्होंने अपनी पैठ राजनीतिक तौर पर मजबूत करने की कोशिश शुरू कीं तो, मुशर्रफ को ये बेहद नागवार गुजरा। लेकिन, नवाज और बेनजीर पाकिस्तान की जनता के सामने भरोसा ऐसा खो चुके थे कि उन्हें मुशर्रफ और नवाज, बेनजीर में ज्यादा फर्क नजर नहीं आ रहा।

पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसे हालात जो, पिछले करीब साल भर से बने हुए थे। आज बेनजीर की हत्या के बाद खुलकर सामने आ गई है। कराची, लाहौर, इस्लामाबाद, रावलपिंडी में पीपीपी के समर्थक गाड़ियों को फूंक रहे हैं। गृह युद्ध जैसा नजारा दिख रहा है। लोग पुलिस को देखते ही उनके ऊपर हमला बोल रहे हैं। मुशर्रफ ने अपनी तानाशाही सत्ता बचाने के लिए जेहादियों, आतंकवादियों से लड़ने में अमेरिका का साथ तो दिया। लेकिन, मुशर्रफ दहशतगर्दों को अपना दुश्मन बना बैठे जिन्हें खुद मुशर्रफ पिछले कई सालों से पाल रहे थे।

अब हालात बहुत कुछ मुशर्रफ के भी हाथ में नहीं हैं। लाल मस्जिद में सेना और तालिबान समर्थित कट्टरपंथियों के बीच हुई जोरदार लड़ाई के बाद ये साफ भी हो गया था। यहां तक कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा से लगा पूरा क्षेत्र तो ऐसा हो गया है जहां पूरी तरह से तालिबान और कट्टरपंथियों, जेहादियों का समानांतर राज चलता है। यही वजह है कि पाकिस्तान आज पूरी दुनिया के लिए दहशत बन गया है।


भारत में हुए हर हमले के तार पाकिस्तान से सीधे या फिर घुमा फिराकर जुड़ ही जाते हैं। अभी पिछले कुछ दिनों से देश के कई राज्यों में जो हमले हुए हैं। उनमें सीधे तौर पर हूजी का नाम आ रहा है। जो, बांग्लादेश और पाकिस्तान से ही चलाया जा रहा है। भारत में लश्कर और दूसरे पाकिस्तान से चलाए जा रहे आतंकवादी संगठनों के स्लीपर सेल होने की बात लगातार साबित होती रहती है। लेकिन, कभी भी पाकिस्तान ने भारत को आतंकवादी हमले से उबरने में, आतंकवादी हमले करने वाले गुनहगारों तक पहुंचने में मदद नहीं की।

भारत का मोस्ट वांटेड अपराधी मसूद अजहर हो या फिर दाउद इब्राहिम। सभी के बारे में ये पुख्ता खबर है कि वो, पाकिस्तान में छिपे बैठे हुए हैं। लेकिन, जब भी भारत सरकार ने पाकिस्तान से आतंकवादियों को वापस करने की मांग की तो, पाकिस्तान हमेशा वही घिसा-पिटा सा जवाब देकर टाल देता है। भारत-पाकिस्तान जिस तरह से विभाजन के बाद बने। उससे दोनों देशों के बीच घृमा की राजनीति नेताओं की जरूरत सी बन गई। हाल ये है कि पाकिस्तान को गाली देकर भारत में और भारत को गाली देकर पाकिस्तान में बड़े मजे से कोई बेवकूफ भी तालियां बटोर लेता है। बेनजीर, शरीफ, मुशर्रफ ने क्या किया। या भारत-पाकिस्तान ने पहले कितनी बार लड़ाई लड़ी, अब इस पर चर्चा करना बेमानी हो गया है।

नवाज शरीफ ने और बेनजीर की पार्टी के महासचिव रियाज ने मुशर्रफ पर बेनजीर की सुरक्षा में कोताही का आरोप लगाया। लेकिन, सच्चाई यही है कि खुद मुशर्रफ भी आतंकवादियों के निशाने पर हैं। क्योंकि, इस्लाम के नाम पर जेहादी तैयार करने वाले आतंकवादी संगठनों का सबसे बड़ा दुश्मन अमेरिका मुशर्रफ का दोस्त है। और, इन जेहादियों के कुकृत्यों का बुरा असर ये है कि भारत से लेकर दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी आतंकवादी घटना के लिए हर मुसलमान दोषी माना जाता है। अब ये जिम्मेदारी पूरी तरह से मुसलमानों की ही है कि वो किसी भी तरह से दुनिया को बरबाद होने से बचा लें।

एक कौम की हिफाजत की लड़ाई के पाक काम का दावा करने वाले आतंकवादियों की वजह से अब तक सबसे ज्यादा मुस्लिम कौम के लोगों ने ही जान गंवाई है। भारत की चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि लश्कर और दूसरे आतंकवादी संगठनों के साथ अल कायदा की कुछ गतिविधियों की भी खुफिया रिपोर्ट आने लगी है। और, पाकिस्तान में मुशर्रफ से लड़ने और अपनी ताकत बढ़ाने के लिए आतंकवादी भारत में अपने कैंपों को और मजबूत करना चाहेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन से लेकर विपक्ष के नेता आडवाणी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक ने बेनजीर की हत्या पर गहरा शोक जताया है जो, लाजिमी है। लेकिन, अब भारत के लिए चुनौतियां इतनी बढ़ गई हैं कि भारत के नेताओं को भारत को सुरक्षित करने के लिए एक साथ आना होगा।

Sunday, December 23, 2007

राष्ट्रीय राजनीति और नरेंद्र मोदी


नरेंद्र मोदी फिर से गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए हैं। औपचारिक तौर पर मोदी 27 दिसंबर को शपथ ले लेंगे। अब मीडिया में बैठे लोग अलग-अलग तरीके से मोदी की जीत का विश्लेषण करने बैठ गए हैं। वो, अब बड़े कड़े मन से कांग्रेस को इस बात के लिए दोषी ठहरा रहे हैं कि कांग्रेस मोदी के खिलाफ लड़ाई ही नहीं लड़ पाई।

खैर, कोई माने या ना माने, गुजरात देश का पहला राज्य बन गया है जहां, विकास के नाम पर चुनाव लड़ा गया और जीता गया। विकास का एजेंडा ऐसा है कि गुजरात के उद्योगपति चिल्लाकर कहने लगते हैं कि कांग्रेस या फिर बीजेपी में खास फर्क नहीं है। फर्क तो नरेंद्र मोदी है। अब सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी विकास का ये एजेंडा लेकर राष्ट्रीय स्तर की राजनीति कर सकते हैं।

मेरी नरेंद्र मोदी से सीधी मुलाकात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी। पहली बार मोदी को सीधे सुनने का मौका भी मिला था। खुटहन विधानसभा में एक पार्क में हुई उस रैली में पांच हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ सुनने के लिए जुटी थी। खुटहन ऐसी विधानसभा है जहां, आज तक कमल नहीं खिल सका है। और, मोदी की जिस दिन वहां सभी उस दिन उसी विधानसभा में उत्तर प्रदेश के दो सबसे कद्दावर नेताओं, मुलायम सिंह यादव और मायावती की रैली थी। ये भीड़ उसके बाद जुटी थी।

मोदी ने भाषण के लिए आने से पहले विधानसभा का समीकरण जाना। और, मोदी के भाषण का कुछ ऐसा अंदाज था कि जनता तब तक नहीं हिली जब तक, मोदी का हेलीकॉप्टर गायब नहीं हो गया। मोदी ने कहा- देश के हृदय प्रदेश को राहु-केतु (मायावती-मुलायम) का ग्रहण लग गया है। मोदी ने फिर गुजरात की तरक्की का अपने मुंह से खूब बखान किया। और, उसके बाद वहां खड़े लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ लिया। मोदी ने कहा- उत्तर प्रदेश के हर गांव-शहर से ढेरों नौजवान हमारे गुजरात में आकर नौकरी कर रहे हैं। लेकिन, मुझे अच्छा तब लगेगा जब किसी दिन कोई गुजराती नौजवान मुझसे आकर कहे कि उत्तर प्रदेश में मुझे अपनी काबिलियत के ज्यादा पैसे मिल रहे हैं। मैं अब गुजरात में नहीं रुके वाला।

साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों के बूते सत्ता का स्वाद चखने वाला मोदी उत्तर प्रदेश के लोगों को गुजरात से ज्यादा तरक्की के सपने दिखा रहे था। मोदी ने फिर भावनात्मक दांव खेला। कहा- हमारे यहां गंगा मैया, जमुना मैया होतीं तो, क्या बात थी। हमारे यहां सूखा पड़ता है पानी की कमी रहती है लेकिन, एक नर्मदा मैया ने हमें इतना कुछ दिया है कि हमारा राज्य समृद्धि में सबसे आगे है।

लेकिन, मोदी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने धीरे से एक जुमला सुनाया कि हमारे कांग्रेसी मुख्यमंत्री मित्र सम्मेलनों में मिलते हैं तो, उनसे मैं पूछता हूं कि सोनिया और राहुल बाबा के अलावा आप लोगों के पास देश को देने-बताने के लिए कुछ है क्या। उन्होंने कहा कि असम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने मुझसे कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं। असम के लोगों को काम नहीं मिल रहा है। बांग्लादेशी लेबर 30 रुपए रोज में ही काम करने को तैयार हो जाते हैं और, उनकी घुसपैठ भी बढ़ती ही जा रही है। मोदी ने बड़े सलीके से घुसपैठ का मुद्दा विकास के साथ जोड़ दिया था।

उत्तर प्रदेश की खुटहन विधानसभा में मोदी का भाषण सुनने वाले गुजरात के विकास से गौरवान्वित होने लगे थे। मोदी ने कहा- मैंने कांग्रेसी मुख्यमंत्री से कहा आपकी थोड़ी सीमा बांग्लादेश से सटी है तो, आप परेशान हैं। गुजरात से पाकिस्तान से लगी है और मुझसे मुशर्रफ तो क्या पूरा पाकिस्तान परेशान है। जाने-अनजाने ही उत्तर प्रदेश के लोग विकास से गौरवान्वित हो रहे थे और पाकिस्तान, बांग्लादेश की घुसपैठ की समस्या उनकी चिंता में शामिल हो चुकी थी।

ये थी मोदी कि कॉरपोरेट पॉलीटिकल पैकिंग। जिसके आगे बड़े से बड़े ब्रांड स्ट्रैटेजी बनाने वालों को भी पानी भरना पड़ जाए। यही पैकिंग थी जो, ‘जीतेगा गुजरात’ नाम से आतंकवाद, अफजल, सोहराबुद्दीन के साथ विकास, गुजराती अस्मिता को एक साथ जोड़ देती है। ये बिका और जमकर बिका।

और, मोदी की इस कॉरपोरेट पैकिंग को और जोरदार बना दिया, मोदी के खिलाफ पहले से ही एजेंडा सेट करके गुजरात का चुनाव कवरेज करने गए पत्रकारों ने। ऐसे ही बड़े पत्रकारों ने मोदी को इतना बड़ा कर दिया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ये बयान देना पड़ा कि मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी मोदी के डर से की गई है। ज्यादातर बहस इस बात पर हो रही है कि मोदी आडवाणी के लिए खतरा हैं या नहीं। दरअसल इसमें बहस का एक पक्ष छूट जा रहा है कि क्या देश में लाल कृष्ण आडवाणी से बेहतर प्रधानमंत्री पद के लिए कोई दूसरा उम्मीदवार है। जहां तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बात है तो, ये जगजाहिर है कि वो कोई ऐसे नेता नहीं हैं जो, लड़कर चुनाव लड़कर देश की सबसे ऊंची गद्दी तक पहुंचे हों। मनमोहन जी को ये भी अच्छे से पता है कि सोनिया की आंख टेढ़ी हुई तो, गद्दी कभी भी सरक सकती है।

मैं भी गुजरात चुनाव के दौरान वहां कुछ दिनों के लिए था। दरअसल गुजरात में मोदी के खिलाफ कोई लड़ ही नहीं रहा था। नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे कुछ मीडिया हाउस। कुछ एनजीओ, जिनमें से ज्यादातर तीस्ता सीतलवाड़ एंड कंपनी के जैसे प्रायोजित और सिर्फ टीवी चैनलों पर दिखने की भूख वाले लगते थे या फिर नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद से परेशान और फिर मोदी की ओर से परेशान किए गए बीजेपी के ही कुछ बागी।

मोदी जीत गए हैं। सबका उन्होंने आभार जताया। साठ परसेंट गुजरातियों ने वोट डाला। और, उसमें से भी बीजेपी को करीब पचास परसेंट वोट मिले हैं लेकिन, मोदी ने कहा ये साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की जीत है। मोदी ने हंसते हुए कहा कि नकारात्मकता को जनता ने नकार दिया है। गुजरात के साथ मोदी फिर जीत गए हैं। केशुभाई और मनमोहन सिंह की बधाई स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि चुनाव खत्म, चुनावी बातें खत्म। अब मोदी गुजरात के राज्य बनने के पचास साल पूरे होने पर राज्य को स्वर्णिम बनाने में जुटना चाहते हैं।

नरेंद्र मोदी के अलावा बीजेपी में एक और नेता था जो, हिंदुत्व, विकास की कुछ इसी तरह पैकेजिंग कर सकता था। लेकिन, उनकी समस्या ये है कि वो, उमा भारती का भी बीड़ा उठाए रखते हैं। और, उमा भारती को लगता है रामायण, महाभारत की कथा सुनाकर और हर किसी से जोर-जोर से बात करके बीजेपी कार्यकर्ताओं का नेता बना जा सकता है। उमा भारती ने भी दिग्विजय के खिलाफ लड़ाई लड़कर उन्हें सत्ता से बाहर किया। लेकिन, बड़बोली उमा खुद को संभाल नहीं पाईं और खुद मुख्यमंत्री होते हुए भी दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं से लड़ती रहीं। बहाना ये कि दिल्ली में बैठे नेता उनके खिलाफ राजनीति कर रहे हैं।

मोदी कभी भी राज्य के किसी नेता के खिलाफ शिकायत लेकर दिल्ली नहीं गए। राज्य बीजेपी के नाराज दिग्गज नेता दिल्ली का चक्कर लगाते रहे, मोदी के खिलाफ लड़ते रहे और मोदी गुजरातियों के लिए लड़ाई लड़ने की बात गुजरातियों तक पहुंचाने में सफल हो गए। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी बीजेपी की दूसरी पांत के सभी नेताओं से बड़े हो गए हैं। लेकिन, आडवाणी के कद के बराबर पहुंचने के लिए अभी भी मोदी को बहुत कुछ करना होगा।

मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी जैसे आगे की रणनीति बनाने वाले नेता के लिए पांच-सात साल का इंतजार करना ज्यादा मुश्किल होगा। लाल कृष्ण आडवाणी 80 साल के हो गए हैं। और, मोदी सिर्फ 57 साल के हैं। बूढ़े नेताओं पर ही हमेशा भरोसा करने वाले भारतीय गणतंत्र के लिए मोदी जवान नेताओं में शामिल हैं। और, आडवाणी बीजेपी को सत्ता में लौटा पाएं या नहीं, दोनों ही स्थितियों में 2014 में आडवाणी रेस से अटल बिहारी की ही तरह बाहर हो जाएंगे। साफ है 2014 के लिए बीजेपी के सबसे बड़े नेता की मोदी की दावेदारी अभी से पक्की हो गई है।

Friday, December 21, 2007

गुजरात के गांवों-शहरों के बीच विकास का संतुलन

(गुजरात चुनाव के दौरान ही मैं जामनगर में एक दिन था। जामनगर की ब्रास इंडस्ट्री की परेशानी, उसकी सरकार से उम्मीदों, सरकार ने उनके लिए क्या किया। ये सब जानने-समझने के क्रम में एक इंडस्ट्रियलिस्ट ने यूं ही कहा कि अब सोचिए छोटे-छोटे काम तो यहां शहर के आसपास के गांवों में बसे लोग घर से ही करके दे जाते हैं। मुझे गुजरात के विकसित गांवों की तरक्की की वजह समझ में आ रही थी।)

ब्रास इंडस्ट्रीज के लिए मशहूर जामनगर शहर से करीब पांच किलोमीटर दूर गांव है नया नागना। गांव तक संकरी पक्की सड़क है। लेकिन, गांव के अंदर अभी भी सड़कें कच्ची ही हैं। करीब पांच हजार लोगों की आबादी का गांव है। गांव की गलियां बहुत चौड़ी नहीं हैं। लेकिन, ज्यादातर घर पक्के हैं। ये सीधे-सीधे तो गांव ही है लेकिन, दरअसल ये गांव जामनगर शहर के ही तीनों इंडस्ट्रियल एरिया का ही हिस्सा है।

नया नागना गांव में मैं जिस घर में गया दो मंजिल का पक्का मकान था। ग्राउंड फ्लोर पर सिर्फ एक कमरा था जो, रहने के लिए था। एक बड़े कमरे में और बाउंड्री वॉल के अहाते में तीन-चार मशीनें ली हुईं थीं जिनसे ब्रास को काटकर छोटे-छोटे पार्ट्स बनाने का काम हो रहा था। करीब नौ लोगों के परिवार की तीन महिलाएं भी पुरुषों के साथ ब्रास पार्ट्स बनाने में जुटी थीं। मशीन चला रहे धर्मेंद्र ने बताया पिछले पांच सालों से उनका परिवार यही कर रहा है। और, परिवार का एक सदस्य औसतन सौ रुपए तक घर में ही ये काम करके कमा लेता है।

नया नागना की पांच हजार की आबादी में से सत्तर प्रतिशत की आजीविका का साधन शहर की ब्रास इंडस्ट्री ही है। और, जामनगर के आसपास के सौ गांव नया नागना जैसे ही ब्रास इंडस्ट्री से ही कमाई करते हैं। जामनगर के एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट ने मुझे बताया कि जामनगर के तीनों (दो पुराने, तीसरा नया बना है) इंडस्ट्रियल एरिया और शहर में कुल मिलाकर करीब पचास हजार वर्कर काम करते हैं। जबकि, आसपास के गांवों में एक लाख से ज्यादा लोगों की रोजी इसी ब्रास इंडस्ट्री से चल रही है।

साफ है गुजरात के गावों ने, शहरों के साथ विकास का अद्भुत संतुलन बना रखा है। वो, बड़ी आसानी से शहरों की तरक्की में से अपने हिस्से का विकास कर ही लेते हैं। यही वजह है कि गुजरात में तरक्की शहरों की बपौती नहीं रही है।

Thursday, December 20, 2007

गुजरात के एक गांव की कमाई है 5 करोड़ रुपए

(गुजरात चुनावों में मैं सौराष्ट्र इलाके में करीब हफ्ते भर था। गुजरात के गांवों में विकास कितना हुआ है। ये जानने के लिए मैं राजकोट के नजदीक के एक गांव में गया। और, मुझे वहां जिस तरह का विकास और विकास का जो तरीका दिखा वो, शायद पूरे देश के लिए आदर्श बन सकता है।)

गुजरात में राजकोट से 22 किलोमीटर दूर एक गांव की सालाना कमाई है करीब पांच करोड़ रुपए। इस गांव के ज्यादा लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती ही है। कपास और मूंगफली प्रमुख फसलें हैं। गांव में 350 परिवार हैं जिनके कुल सदस्यों की संख्या है करीब 1800।

छोटे-मोटे शहरों की लाइफस्टाइल को मात देने वाले राजसमढियाला गांव की कई ऐसी खासियत हैं जिसके बाद शहर में रहने वाले भी इनके सामने पानी भरते नजर आएं। 2003 में ही इस गांव की सारी सड़कें कंक्रीट की बन गईं। 350 परिवारों के गांव में करीब 30 कारें हैं तो, 400 मोटरसाइकिल।

गांव में अब कोई परिवार गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। इस गांव की गरीबी रेखा भी सरकारी गरीबी रेखा से इतना ऊपर है कि वो अमीर है। सरकारी गरीबी रेखा साल के साढ़े बारह हजार कमाने वालों की है। जबकि, राजकोट के इस गांव में एक लाख से कम कमाने वाला परिवार गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। कुछ समय पहले ही गरीबी रेखा से ऊपर आए गुलाब गिरि अपनी महिंद्रा जीप से खेतों पर जाते हैं। गुलाब गिरि हरिजन हैं। गुलाब गिरि की कमाई खेती से एक लाख से कम हो रही थी तो, उन्हें गांव में ही जनरल स्टोर खोलने में मदद की हई।

गांव के विकास की इतनी मजबूत बुनियाद और उस पर बुलंद इमारत बनाई आजीवन गांव के सरपंच रहे स्वर्गीय देवसिंह ककड़िया ने। दस साल पहले गांव के खेतों में पानी की बड़ी दिक्कत थी तो, ककड़िया ने एक आंदोलन सा चलाया और गांव के आसपास 45 छोटे-छोटे चेक डैम बनाए। गांव के ही 40-50 लोग एक साथ डैम बनाने का काम करते थे। अब चेक डैम के पानी से आसपास के करीब 25 गांवों के खेत में भी फसल हरी-भरी है।

राजसमढियाला गांव को गुजरात के पहले निर्मल ग्राम का पुरस्कार तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के हाथों मिला था। ये पुरस्कार स्वच्छता के लिए मिलता है। गांव के विकास की कहानी इतनी मजबूत है कि तेजी से तरक्की करते शहर फरीदाबाद से आया विशंभर यहीं बस गया है। वो, गांव के एक व्यक्ति का जेसीबी चलाता है। महीने के छे हजार तनख्वाह मिलती है जो, पूरी की पूरी बच जाती है। खाना-पीना भी गांव में ही होता है। लेकिन, अंग्रेजी माध्यम का स्कूल न होने से परिवार को फरीदाबाद ही छोड़ आया है।

इतना ही नहीं है इस गांव के लोग ताला भी नहीं लगाते। लेकिन, इधर कुछ फेरी वालों की हरकतों की वजह से कुछ लोग ताला लगाने की शुरूआत कर रहे हैं। गांव का अपना गेस्ट हाउस है। पंचायत भवन खुला हुआ था। राशन की दुकान में तेल के ड्रम खुले में रखे थे। गांव के लोग पुलिस थाने में शिकायत लेकर नहीं जाते। गांव की लोक अदालत ही सारे मामले सुलझाती है।

गुजरात देश का सबसे ज्यादा तेजी से शहरी होता राज्य है। दरअसल गुजरात के गांव वाले सिर्फ शहरी रहन-सहन ही नहीं अपना रहे। कई साल पहले से उन्होंने इसके लिए अपनी कमाई भी बढ़ाने का काम शुरू कर दिया था। अब राजसमढियाला गांव के नई पीढ़ी के कई लोग राजकोट फैक्ट्री लगा रहे हैं। शहरों में घर खरीद चुके हैं। साफ है गांव-शहर के बीच विकास का संतुलन इससे बेहतर और क्या हो सकता है। लेकिन, गांव में व्यापार, खेती का माहौल ऐसा है कि गांव में ज्यादा पढ़े-लिखे लोग कम ही मिलते हैं। गांव में स्कूल भी दसवीं तक का ही है। ऊंची पढ़ाई के लिए कम ही लोग बाहर जाते हैं क्योंकि, कमाई तुरंत ही शुरू हो जाती है।

गांव में विकास के नाम पर नेता वोट मांगने से डरते हैं। विकास में ये सरकारों की भागीदारी अच्छे से लेते हैं। लेकिन, अपनी मेहनत से खुद विकास करते हैं। यही वजह है कि चुनावों के समय भी इस गांव में कोई भी चुनावी माहौल नजर नहीं आया। न किसी पार्टी का झंडा न बैनर। गांव बाद में एक साथ बैठकर तय करते हैं कि वोट किसे करना है। और, अगर किसी ने वोट नहीं डाला तो, पांच सौ रुपए का जुर्माना भी है।

(ये लेख दैनिक जागरण के चुनाव विशेष संस्करण में छपा है)

Wednesday, December 19, 2007

दिलीप जी आपको टिप्पणी चाहिए या नहीं?

दिलीप मंडल ने एक बहस शुरू की और और अभय तिवारी उस बहस में खम ठोंककर खड़े हो गए हैं। वैसे अभय जी, दिलीपजी की तरह एक पक्ष को लेकर उसी पर चढ़ नहीं बैठे हैं। लेकिन, सलीके-सलीके में वो अपनी बात कहते जा रहे हैं। इन दोनों लेखों पर टिप्पणियां भी खूब आईं हैं। और, ज्यादातर टिप्पणियां दिलीप जी के निष्कर्षों के आधार पर ही हैं। पोस्ट और टिप्पणी मिलाकर इतना मसाला तैयार हो गया कि टिप्पणीकार ने भी एक पोस्ट ठेल दी।

मैंने जब दिलीप जी की ब्लॉग को लेकर नए साल की इच्छाएं देखीं थी। उसी समय मैं लिखना चाह रहा था लेकिन, समय न मिल पाने से ये हो नहीं सका। और, इस बीच अभय जी बहस आगे ले गए। दिलीपजी को सबसे ज्यादा एतराज ब्लॉगर मिलन पर है। लेकिन, सबसे ज्यादा टिप्पणियां इसी पक्ष में आई हैं कि ब्लॉगर मिलन होना चाहिए। मैं भी ब्लॉगर मिलन का पूरा जोर लगाकर पक्षधर हूं। समीर जी के मुंबई आने पर पहली बार किसी ब्लॉगर मिलन की वजह से ही मुंबई में तीन साल में पहली बार मुझे थोड़ा सामाजिक होने का भी अहसास हुआ।

अनिलजी और शशि सिंह को छोड़कर पहले मैं किसी से कभी नहीं मिला था। अभय जी से ब्लॉग के जरिए ही संपर्क हुआ और फोन पर एकाध बार बात हुई थी। अनीताजी से दो बार वादा करके भी मैं IIT पवई में हुए ब्लॉग मिलन में कुछ वजहों से शामिल नहीं हो पाया। मैं वहां ब्लॉगर्स के साथ सबसे कम समय रहा। लेकिन, प्रमोद जी, बोधिसत्व जी, यूनुस, विमल, विकास से इतनी पहचान तो हो गई कि आगे मिलने पर मुस्कुराकर मिलेंगे। प्रमोदजी और बोधि भाई के बारे में और नजदीक से जानने की इच्छी भी जागी है।

जहां तक चमचागिरी/ चाटुकारिता की दिलीपजी की बात है तो, बस इतना ही जानना चाहूंगा कि किस संदर्भ में कौन सी तारीफ चमचागिरी/चाटुकारिता हो जाती है। और, ज्यादातर ऐसा नहीं होता कि अपने लिए की गई साफ-साफ चमचागिरी भी अच्छी लगती है लेकिन, दूसरे की सही की भी तारीफ चाटुकारिता नजर आने लगती है।

और, दिलीपजी जहां तक तारीफ वाली टिप्पणियों से ब्लॉग को साहित्य वाला रोग लगने की बात है तो, लगने दीजिए ना। उस तरह के साहित्यकार आप ही के कहे मुताबिक, पांच सौ के प्रिंट ऑर्डर तक सिमटकर रह जाएंगे। वैसे आपके ब्लॉग पर भी ई मेल से सब्सक्राइब करने और फीड बर्नर से कितने लोगों ने सब्सक्राइब किया है, का बोर्ड लगा दिख रहा है।

हां, साधुवाद-साधुवाद का खेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, अगर पूरी पोस्ट पढ़कर एक ही पाठक किसी के ब्लॉग की ज्यादातर पोस्ट पर टिप्पणी कर रहा है तो इसमें क्या हर्ज है। क्या किसी अखबार के नियमित पाठक और किसी टेलीविजन चैनल के नियमित दर्शक नहीं होने चाहिए। दिलीप जी ये बदल-बदलकर दर्शक खोजने के चक्कर में हम पड़े तो हम सब की रोजी-रोटी भी मारी जाएगी।

अप्रैल में मैंने ब्लॉग शुरू किया था। शुरू में तो मैंने अपने दोस्तों को ही बताया और सिर्फ उन्हीं की टिप्पणियां आती थीं। जाहिर है ज्यादातर लोग तारीफ ही करते थे। धीरे-धीरे लगातार लिखते-लिखते नई-नई टिप्पणियां आने लगीं। और, उन नई टिप्पणियों के जरिए नए लोग दोस्त भी बन गए। अभी मुंबई में मिले दस-बारह ब्लॉगर को छोड़ दें तो, ज्यादातर टिप्पणी करने वाले ब्लॉगर/पाठक से मैं मिला भी नहीं हूं। मुझे तो टिप्पणी चाहिए अब दिलीपजी की वो जानें। तो, सब लोग जरा जमकर टिप्पणी करना। बहुत अच्छा भी चलेगा।

हां, आपकी पोस्ट पर भुवन की एक टिप्पणी मेरी भी चिंता में शामिल है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुछ-कुछ लोगों का ब्लॉग कॉकस बन जा रहा हो। वैसे मेरा अनुभव ये भी बताता है कि बिना कॉकस बनाए सफल होना मुश्किल हो जाता है। आप तो, ज्यादा अनुभवी हैं।

जहां तक आपके नए साल के अरमानों की बात है तो, मेरी राय ये रही। आगे जनता की मर्जी

हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो -- क्या खूब
हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो -- बहुत खूब
विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए -- आपकी सोच हकीकत में बदले
ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो -- लेकिन, इतना न हो जाए कि अमर्यादित रिश्ते बनाने तक बात पहुंचने लगे
ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो -- ये आशंका ही बेवजह है क्योंकि, ब्लॉगिंग के लिए कोई प्रिंटिंग प्रेस या टीवी चैनल खोलने की जरूरत नहीं होती
ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो -- माफ कीजिएगा, आपकी ये इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। पहला मौका मिलते ही हम फिर मिलेंगे और इस बार हम भी लिखेंगे, ब्लॉगर मिलन पर
नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु -- आप सचमुच बहुत अच्छा सोचते हैं लेकिन, थोड़ा और अच्छा सोच सकते थे

Tuesday, December 18, 2007

बिना ‘कॉकस’ बनाए ‘बहुत बड़ा’ बनना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है

मैं रविवार को ओम शांति ओम देखकर आया। पूरी मसाला फिल्म है। मुझे जो सबसे अच्छा लगा वो इस फिल्म का साफ-साफ संदेश। संदेश ये है कि सफलता तो अकेले मिल सकती है। लेकिन, बहुत सफल होने के लिए या फिर बहुत बड़ा बनने के लिए हर किसी को एक कॉकस तैयार करना ही होता है। बिना इसके बात एक जगह पर जाकर रुक जाती है।

बेहद घिसी-पिटी पुनर्जन्म पर बनी ओम शांति ओम में कुछ भी ऐसा खास नहीं है। जिसे देखने के लिए दर्शक सिनेमा हॉल तक जाए। लेकिन, फिल्म में मायानगरी का हर स्टार नजर आ रहा है(भले ही एक झलक ही)। इसमें एक चीज जो बड़े अच्छे से फिल्माई गई है वो, है मायानगरी के अंदर की माया। बस इसी माया की झलक दर्शकों को कहीं भी बोर नहीं करती। कहानी कहीं-कहीं भौंडी कॉमेडी भले ही दिखे लेकिन, दर्शक उसमें उलझा रहता है।

शाहरुख खान एक और कोशिश में काफी सालों से लगे हुए हैं। वो, ये कि जिस तरह से तीस सालों से भी ज्यादा की पूरी पीढ़ियां अमिताभ को हीरो मानती हैं। वैसे ही आगे आने वाली पीढ़ी हर तरह के रोल में सिर्फ एक नाम ही जाने। वो, फिर DDLJ से निकला रोमांटिक हीरो शाहरुख हो या फिर ‘YO’ जेनरेशन का SRK। पुरानी पीढ़ी पान खाए गले में स्कार्फ बांधे अमिताभ को डॉन मानती होगी। लेकिन, आज के जमाने के बच्चे तो, चमड़े की जैकेट में जहाज में उड़ते शाहरुख को ही डॉन मानते हैं। कुल मिलाकर शाहरुख पुराने अभिनेताओं की छाप को हल्का करके अपनी छाप छोड़ने के अभियान में सफल हो रहे हैं। ओम शांति ओम उसी को आगे बढ़ाती कहानी है।

इस काम में शाहरुख की मदद करते करण जौहर और फराह खान जैसे लोग। जिन्हें अपना बनाया ब्रांड (SRK) खुद को ब्रांड नंबर वन बनाने के लिए चाहिए। ओम शांति ओम में करण जौहर का डायलॉग कि हीरे की समझ जौहरी को हाती है लेकिन, हीरो-हीरोइन की समझ तो जौहर ही कर सकते है। बताया ना फिल्म मायानगरी की अंदरूनी कहानी है तो, अपने एक खास ‘चरित्र’ की वजह से राजू श्रीवास्तव की बिरादरी के लिए आइटम बनने वाले करण ये मौका कैसे छोड़ सकते थे।

फिल्म में जो भी अभिनेता-अभिनेत्री जिस खेमे में हैं। उन्हें एकदम उसी तरह दिखाने का साहस करण-शाहरुख-फराह की सफलतम तिकड़ी ही कर सकती है। फिल्म में पुराने जमाने के ज्यादा अभिनेताओं का मजाक उड़ाया गया है। फिल्म में मनोज कुमार जिस तरह से पिटे वही, शायद उन्हें ज्यादा अपमानजनक लगा होगा। लेकिन, फिल्म ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इस तिकड़ी में भी ये दुस्साहस नहीं है कि वो अमिताभ की हैसियत पर हमला कर सकें। शायद यही वजह थी कि फिल्म में अमिताभ का ‘WHO O.K.’ पूछना भी इन्हें अच्छा लगा। इस तिकड़ी ने अभिषेक बच्चन और अक्षय कुमार को इंडस्ट्री का नंबर दो की रेस में लगा हीरो भी बता दिया है। ठीक उसी तरह जैसे किसी राजनीतिक पार्टी में बड़े नेता नंबर एक की कुर्सी पाते ही नंबर दो की मजबूत लाइन खड़ी कर देते हैं जिससे उनकी सत्ता को जल्दी चुनौती न मिल सके। तो,बहुत सफल होना है तो, अपना कॉकस तैयार करना शुरू कर दीजिए।

Friday, December 14, 2007

वाइब्रैंट गुजरात नरेंद्र मोदी प्राइवेट लिमिटेड


(पहले चरण के चुनाव होने से पहले मैं हफ्ते भर तक गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में था। राजकोट, भावनगर, अलंग पोर्ट, जामनगर और इन शहरों के आसपास मैंने चुनावी नजरिए से गुजरात को समझने-जानने की कोशिश की। इसके बाद मुझे गुजरात एक ऐसी कंपनी की तरह लगा जिसे सीईओ नरेंद्र मोदी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिलाने की कोशिश में लगे हैं। और, यहां के लोगों के लिए ये चुनाव काफी हद तक कंपनी की पॉलिसी तय करने वाले बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चुनाव जैसा ही है। इसीलिए गुजरात के एक बड़े वर्ग को मोदी के खिलाफ कही गई कोई भी बात यहां के विकास में अड़ंगा जैसा लगता है।)


वाइब्रैंट गुजरात के विकास में किस तरह की रुकावटें आ रही हैं। गुजरात जैसी तेजी से मुनाफा कमाने वाली कंपनी (राज्य) में क्या कुछ किया जा सकता है जिससे यहां विकास की रफ्तार और तेज हो सके। राज्य बनने के बाद से (पब्लिक से प्राइवेट कंपनी बनने) वाइब्रैंट गुजरात में किस सीईओ (मुख्यमंत्री) की पॉलिसी सबसे ज्यादा पसंद की गई। ये सब मैंने जानने समझने की कोशिश की।

नरेंद्र मोदी की कुर्सी पर मुझे कोई खतरा नहीं दिखता है। गुजरात के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स (विधानसभा) में मोदी के इतने मेंबर्स शामिल हो जाएंगे जो, मोदी को फिर से गुजरात का प्रॉफिट बढ़ाने के लिए उन्हें सीईओ और चेयरमैन (मुख्यमंत्री) की कुर्सी सौंप देगा।

बाइब्रैंट गुजरात का साल दर साल प्रॉफिट 15 प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ रहा है। वाइब्रैंट गुजरात में काम करने वाले कर्मचारियों (आम जनता) को हर साल अच्छा इंक्रीमेंट मिल रहा है। पूरे गुजरात में सड़कें-बिजली-पानी सब कुछ लोगों को देश के दूसरे राज्यों से अच्छे से भी अच्छा मिल रहा है। गांवों में भी कमोबेश हालात देश की दूसरी कंपनियों (राज्यों) से अच्छे हैं।

वाइब्रैंट गुजरात में हर कोई अपना इंक्रीमेंट बढ़ाने के लिए जमकर काम करने में लगा हुआ है। सीईओ की पॉलिसी ऐसी हैं कि शेयरहोल्डर्स (आम जनता, किसान), उसमें पैसा लगाने वाले इंडस्ट्रियलिस्ट और FII (NRI) सब खुश हैं। हर किसी को यहां अच्छा मुनाफा दिख रहा है। ऐसा नहीं है वाइब्रैंट गुजरात लिमिटेड में इसके पहले के सीईओज ने बहुत कुछ न किया हो। लेकिन, नया सीईओ (मुख्यमंत्री) तुरंत फैसले लेता है। यूनियन (केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, कांशीराम रांणा, भाजपा संगठन, विहिप) पर रोक लगा दी गई है। हर कंपनी की तरह वाइब्रैंट गुजरात में भी ऊपर के अधिकारियों की सैलरी तेजी से बढ़ी है। लेकिन, खुद को साबित करके आगे बढ़ने का मौका सबके पास है। लेकिन, कंपनी के सीईओ नरेंद्र मोदी से पंगा लेकर यूनियन (केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, कांशीराम रांणा, भाजपा संगठन, विहिप) के लोगों से हाथ मिलाने की कोशिश की तो, फिर मुनाफा तो छोड़िए मूल पूंजी भी जा सकती है।

भारतीय शेयर बाजार के बाद अकेले तौर पर सबसे ज्यादा विदेशी निवेश वाइब्रैंट गुजरात में ही आ रहा है। नरेंद्र मोदी अब तक 75 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के निवेश की बात करते हैं। सीईओ की कार्यशैली से कंपनी (गुजरात राज्य) में पैसा लगाने वाले इतने खुश हैं कि राजकोट में मुझे एक इंडस्ट्रियलिस्ट ने ये समझाने की कोशिश की बोर्ड ऑफ डायरेक्टर (विधायक) अलग-अलग व्यक्ति को चुनने के बजाए पार्टी (बीजेपी में नरेंद्र मोदी या कांग्रेस में सोनिया गांधी) को ही बोर्ड ऑफ मेंबर्स में हिस्सेदारी मिल जाए। फिर पार्टी (विधानसभाओं में हिस्सेदारी के आधार पर) जिसे चाहे अपने हिस्से का बोर्ड ऑफ डायरेक्टर (विधायक) नॉमिनेट कर दे।

नरेंद्र मोदी के कंपनी हित में लिए गए कड़े फैसलों (तानाशाही) से उसमें पैसा लगाने वाले खुश हैं। क्योंकि, इस कंपनी (गुजरात राज्य) से जुड़े किसी काम के लिए सबको खुश नहीं करना पड़ता। सीईओ या फिर उनके पसंदीदा बोर्ड मेंबर्स (विधायक) और सीईओ के प्रशासनिक अधिकारियों (IAS अफसरों) के जरिए बिना किसी रोक-टोक के हो सकता है। FII’s (NRI) तो नरेंद्र मोदी को ही दुबारा सीईओ और चेयरमैन देखना चाहते हैं। राज्य में 500 से ज्यादा FII (NRI) वाइब्रैंट गुजरात में कितना भी पैसा लगाने के वादे के साथ शेयरहोल्डर्स से अगले पांच सालों के लिए फिर से नरेंद्र मोदी को सीईओ और चेयरमैन बनाकर उनकी पॉलिसी पर मुहर लगाने को कह रहे हैं।

कांग्रेस (पहले के सीईओ) के गुजरात को मोदी (नए सीईओ) ने वाइब्रैंट गुजरात बना दिया है। अब गुजरात को पहले चलाने वाले लोगों (कांग्रेस) की नई पीढ़ी के साथ कुछ देसी निवेशक (सूरत के कुछ हीरा व्यापारी) कह रहे हैं कि नया सीईओ गुजरात को खराब कर रहा है। इससे लंबे समय में कंपनी के मुनाफे पर असर पड़ सकता है। नए सीईओ के परिवार के कुछ बुजुर्ग भी (भाजपा, संघ, विहिप के नेता) कह रहे हैं कि जब से इस बच्चे को कमान सौंपी गई ये फैसलों में किसी की सुनता ही नही। लेकिन, अब शेयर होल्डर्स (जनता) इनकी सुनते नहीं दिख रहे।

बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स और पैसा लगाने वाले सब कह रहे हैं कि सीईओ कंपनी (गुजरात राज्य) की भलाई के लिए कड़े फैसले ले सके, इसके लिए सीईओ और उसके पसंदीदा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के पास 51 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सेदारी (विधानसभा में 93 से ज्यादा सीटें) होनी चाहिए। कंपनी का मुनाफा देखते हुए इस बात के पूरे संकेत दिख रहे हैं कि शेयरहोल्डर्स फिलहाल किसी नए सीईओ को कमान सौंपने के पक्ष में नहीं दिखते। क्योंकि, कंपनी की तरक्की में वो फिलहाल किसी तरह का ब्रेक नहीं लगाना चाहते।

ये अलग बात है कि अगर इस बार नए सीईओ को कमान मिली तो, परिवार के किसी भी सदस्य (भाजपा, संघ, विहिप) के पास एक भी शेयर (अधिकार) नहीं बचेंगे। कंपनी में 51 प्रतिशत शेयरों की हिस्सेदारी के साथ सारे फैसले लेने के अधिकार कंपनी की पहली एजीएम (नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही) में फिर से सीईओ बने नरेंद्र मोदी को सौंप दिए जाएंगे।

Thursday, December 13, 2007

लाल कृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मतलब

भाजपा ने आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी को अपना नेता घोषित कर ही दिया। लोकसभा चुनाव हारने के बाद और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तबियत खराब होने के बाद ही ये ऐलान हो जाना चाहे था। लेकिन, कुछ पार्टी की आतंरिक खराब हालत और कुछ अटल बिहारी वाजपेयी की आजीवन भाजपा का सबसे बड़ा नेता बने रहने की चाहत। इन दोनों बातों ने मिलकर आडवाणी की ताजपोशी पर बार-बार ब्रेक लगाया। उस पर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले आडवाणी के बयान की वजह से संघ के बड़े नेताओं की नाराजगी कुछ बची रह गई थी।

फिर जरूरत (वजह) क्या थी बिना किसी मौके के आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की। अभी लोकसभा के चुनाव तो हो नहीं रहे थे। गुजरात के चुनाव चल रहे हैं और गुजरात में जिस तरह से मोदी की माया में ही पूरे राज्य में बीजेपी का चुनाव प्रचार चल रहा है। सहज ही लाल कृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी मोदी के बढ़ते प्रभाव से जुड़ जाता है। और राष्ट्रीय मीडिया ने इसे बड़ी ही आसानी से जोड़ दिया कि मोदी केंद्र की राजनीति में प्रभावी न हो पाएं इसके लिए गुजरात चुनाव के परिणाम आने से पहले ही आडवाणी की उम्मीदवार पक्की कर दी गई। लेकिन, अगर आडवाणी की उम्मीदवारी के ऐलान के समय पार्टी कार्यालय के दृश्य याद करें तो, आसानी से समझ में आ जाता है कि मोदी कहीं से भी नंबर एक की कुर्सी के लिए आडवाणी को चुनौती देने की हालत में नहीं थे।

दरअसल लाल कृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पक्की करने के पीछे असली खेल भाजपा में नंबर दो की लड़ाई में भिड़े नेताओं ने किया। मुस्कुराते हुए राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी का पत्र पढ़कर सुनाया। जसवंत सिंह हमेशा की ही तरह आडवाणी के पीछे खड़े थे। अरुण जेटली काले डिजाइनर कुर्ते में चमकते चेहरे के साथ नजर आ रहे थे। लेकिन, इस पूरे आयोजन में सबसे असहज और खुद को सहज बनाने की कोशिश में दिख रहे थे मुरली मनोहर जोशी। राजनाथ के ऐलान के बाद जोशी ने आडवाणी को मिठाई खिलाई, गुलदस्ता भी दिया।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को भीतर से जानने वाले ये अच्छी तरह जानते हैं कि नंबर दो की कुर्सी को छूने भर के लिए मुरली मनोहर जोशी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भाजपा में एक चर्चित किस्से से आडवाणी-जोशी के बीच चल रहे शीत युद्ध को आसानी से समझा जा सकता है। किस्सा कुछ यूं है कि एक बार जोशी के संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद से कुछ नाराज लोग आडवाणी के पास मुरली मनोहर की शिकायत करने पहुंचे तो, आडवाणी ने उन्हें जवाब दिया कि इलाहाबाद भाजपा के नक्शे में शामिल नहीं है। ये बात कितनी सही है ये तो पता नहीं। लेकिन, दोनों नेताओं के बीच रस्साकशी लगातार चलती रही थी। आडवाणी स्वाभाविक तौर पर अटल बिहारी के बाद कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्य नेता थे तो, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के सर संघचालक रहते जोशी ने संघ के दबाव में नंबर दो का दावा बार-बार पेश करने की कोशिश की।

जोशी जब अध्यक्ष बने तो, उसके बाद के चुनावों में एक पोस्टर पूरे देश भर में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय से छपा हुआ पहुंचा था। इसमें बीच में अटल बिहारी की थोड़ी बड़ी फोटो के अगल-बगल जोशी और आडवाणी की एक बराबर की फोटो लगी थी और नारा भारत मां की तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर। अब तो ये नारा भाजपा कार्यकर्ताओं को याद भी नहीं होगा।

खैर, आडवाणी ने पूरे देश में अपने तैयार किए कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल बिछाया कि दूसरे सभी नेता गायब से हो गए। उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक सिर्फ आडवाणी के कार्यकर्ता ही पार्टी में अच्छे नेता के तौर पर स्वीकार्य दिखने लगे। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, दिल्ली में मदन लाल खुराना, विजय गोयल, वी के मल्होत्रा, बिहार में सुशील मोदी, मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा, राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत, महाराष्ट्र में प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे, उत्तरांचल में भगत सिंह कोश्यारी, कर्नाटक में अनंत कुमार, गुजरात में केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा और नरेंद्र मोदी के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में गोविंदाचार्य, उमा भारती, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे नेता थे जो, देश भर में भाजपा की पहचान थे। और, इन सभी नेताओं की निष्ठा कमोबेश आडवाणी के प्रति ही मानी जाती थी।

कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं की तनी लंबी फौज होने के बाद आडवाणी कभी भी ‘मास अपील’ (इस अपील ने भी भारतीय राजनीति में बहुत भला-बुरा किया है) का नेता बनने में वाजपेयी को पीछे नहीं छोड़ पाए। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद आडवाणी का ग्राफ बहुत तेजी से ऊपर गया। लेकिन, इसके साथ ही देश में हिंदूत्व के उभार के साथ एक आक्रामक तेवर वाले नेताओं की भी फौज खड़ी हो गई। साथ ही आडवाणी के ही खेमे के नेताओं में आपस में ठन गई। बीच बचाव करते-करते माहौल बिगड़ चुका था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे जनाधार वाले नेता कल्याण सिंह ने पार्टी से किनारा कर लिया। गोविंदाचार्य को अध्ययन अवकाश पर जाना पड़ा। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह से दस साल बाद सत्ता छीनने वाली तेज तर्रार नेता उमा भारती मुख्यमंत्री तो बनीं लेकिन, जल्द ही उनके तेवर पार्टी के लिए मुसीबत बन गए। मदन लाल खुराना आडवाणी को ही पार्टी में होने वाले सारे गलत कामों के लिए दोषी ठहराने लगे। प्रमोद महाजन का दुखद निधन हो गया जो, भाजपा के साथ देश की राजनीति के लिए भी एक बड़ा झटका था। साहिब सिंह वर्मा का सड़क हादसे में निधन हो गया। इस बीच ही आडवाणी को मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्ष नजर आने लगे। और, आडवाणी संघ सहित भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के भी निशाने पर आ गए।

राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद आडवाणी ने खुद को पार्टी की सक्रिय भूमिका से अलग कर लिया। और, सच्चाई ये थी कि उनके अपने खड़े किए नेता अब प्रदेशों में या फिर देश की राजनीति में अब उनके साथ थे ही नहीं। राजनाथ सिंह की अध्यक्षी में उत्तरांचल और पंजाब में भाजपा सत्ता में आई लेकिन, उत्तर प्रदेश में मिली जबरदस्त पटखनी ने पूरे देश में भाजपा का माहौल खराब कर दिया। संघ, विश्व हिंदू परिषद की नाराजगी ने रहा सहा काम भी बिगाड़ दिया।

कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी जो, खुद को एक परिवार की तरह पेश करती है। एक ऐसा परिवार बनकर रह गई जिसमें घर का हर सदस्य अपने हिसाब से चलना चाह रहा था और घर के मुखिया, दूसरे सदस्यों को कुछ भी कहने-सुनने लायक नहीं बचे थे। संघ के बड़े नेता मोहन भागवत फिर से इस कोशिश में जुट गए कि किसी तरह भाजपा को उसका खोया आधार वापस मिल सके। भोपाल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ही आडवाणी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना था लेकिन, अटल बिहारी बीच में ही बोल पड़े कि वो फिर लौट रहे हैं।

आडवाणी भी ये नहीं चाहते थे कि आज की तारीख में देश के सबसे स्वीकार्य नेता की असहमति के साथ वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनें। सारी मुहिम फिर स शुरू हुई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में जिस तरह से भाजपा का संगठन जिस तेजी से खत्म हुआ है उसमें ये जरूरत महसूस होने लगी कि पार्टी को किसी एक नेता के पीछे चलना ही होगा। गुजरात में मोदी ने जिस तरह से संगठन के तंत्र को तहस-नहस किया है। और, अपना खुद का तंत्र बनाकर केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा, सुरेश मेहता और दूसरे भाजपा के दिग्गज नेताओं को दरकिनार किया है। उससे भी पार्टी और संघ को आडवाणी को नेता बनाने की जरूरत महसूस हुई।

संघ ने आडवाणी की उम्मीदवारी पक्की करने से पहले आडवाणी को मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को साथ लेकर चलने का पक्का वादा ले लिया। गुजरात में मोदी के प्रकोप से डरे भाजपा के दूसरी पांत के नेता भी आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का निर्विवाद उम्मीदवार मानने के लिए राजी हो गए। नरेंद्र मोदी तो कभी भी इस हालत में नहीं रहे कि दिल्ली की राजनीति में वो आडवाणी के कद के आसपास भी फटकते। वैसे भी गुजरात के बाहर मोदी का साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों का फॉर्मूला तो काम करने से रहा। लेकिन, आडवाणी के लिए राह बहुत मुश्किल है। गोविंदाचार्य और उमा भारती जैसे कार्यकर्ताओं के प्रिय नेता पार्टी में आने जरूरी हैं। कल्याण सिंह में अब वो तेवर नहीं बचा है। उत्तर प्रदेश में दूसरा कोई ऐसा नेता बन नहीं पाया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ तालमेल बिठाना मुंडे के लिए मुश्किल हो रहा है। और, अब शायद ही आडवाणी में इतनी ताकत बची होगी कि वो फिर से सफल रथयात्री बन सकें जो, अपनी मंजिल तक पहुंच सके। लेकिन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अजब-गजब बयान से इतना तो साफ है कि भाजपा का तीर निशाने पर लगा है।

Wednesday, December 12, 2007

विनोद दुआ की समस्या क्या है?

विनोद दुआ वरिष्ठतम और देश के सबसे काबिल पत्रकारों में से हैं। उस पीढ़ी के पत्रकार हैं जब टीवी ठीक से पैदा भी नहीं हुआ था। नए दौर का टेलीविजन न्यूज आया तो, विनोद दुआ स्टार और उसके बाद फिर एनडीटीवी पर अच्छे और अलग तरीके के शो लेकर आए। उनके शो में कुछ हटकर होता है। और, नए लोगों के लिए बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इधर, एनडीटीवी पर उनका खबरदार एक ऐसा शो है जो, लोगों को खबरें देने के साथ बहुत कुछ सीखने-समझने वाला शो है।

लेकिन, हाल के दिनों में खबरदार और चुनाव के दौरान गुजरात की यात्रा में विनोद दुआ कुछ ऐसा बर्ताव करते नजर आए। जो, खास तौर पर एक ऐसे पत्रकार, जिसको देख-सुनकर एक पूरी पत्रकार पीढ़ी जवान हुई हो, से उम्मीद नहीं की जाती। गुजरात में नरेंद्र मोदी के कारनामों की कलई खोलना और उसके पक्ष में तर्क रखना एक निष्पक्ष पत्रकारिता का तकाजा है। जरूरी है कि मोदी जैसे लोगों के खिलाफ मुहिम चलाई जाए। लेकिन, विनोद दुआ जैसे वरिष्ठ पत्रकार का ये सवाल कि आप मोदी को वोट देंगे या अच्छे आदमी को। जिससे दुआ साहब ने सवाल पूछा- उसका जवाब था मोदी ने विकास किया है, अच्छा आदमी है। फिर दुआ साहब का सवाल था- मोदी के आदमी को वोट देंगे या अच्छे आदमी को। अब ये तर्क का विषय हो सकता है लेकिन, मेरा सवाल ये है कि क्या बीजेपी से लड़ने वाला एक भी प्रत्याशी अच्छा नहीं हो सकता।

मैं भी अभी गुजरात से ही लौटकर आया हूं। नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ते-लड़ते विनोद दुआ जैसे बड़े पत्रकारों ने ऐसा हाल कर दिया है कि गुजरात के लोग मानने लगे हैं कि नेशनल मीडिया गुजरात को बदनाम करने की कोशिश में लगा हुआ है। कोई एक पूरा राज्य अगर ये मानने लगे कि लोकतंत्र का एक स्तंभ पत्रकारिता ही उन्हें देश की मुख्य धारा से काटने में लग गया है तो, फिर ये सोचने वाली बात है (इस पर फिर से तर्क आ सकते हैं कि पूरा राज्य ऐसा मानता तो, मोदी को पूरे वोट मिलते लेकिन, लोकतंत्र में बहुसंख्या जिसके साथ रहती है, उसी को जनादेश माना जाता है)। मोदी के खिलाफ लड़ाई में विनोद दुआ जैसे पत्रकार बीजेपी के किसी भी फैसले के खिलाफ मुहिम सी चलाते दिखते हैं। किसी भी राजनीतिक दल के फैसलों पर टिप्पणी करना पत्रकार का धर्म है। जनता उसे देखे और तय करे कि क्या सही है क्या गलत।

बीजेपी के खेमे से एक और खबर आई कि लाल कृष्ण आडवाणी बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। ये बहुत समय से अपेक्षित खबर थी। इसके पीछे कुछ दूसरे कारण हो सकते हैं लेकिन, जैसा नेशनल मीडिया बता रहा है कि मोदी से डरकर आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया। ये समझ में नहीं आया। मैं मानता हूं और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मोदी की अपील भी देख चुका हूं। गुजरात के बाहर मोदी के विकास राग को सुनकर लोग खुश हो सकते हैं। लेकिन, गुजरात के बाहर के किसी राज्य में मोदी कभी भी इतने बड़े नेता नहीं हो पाए कि वो लाल कृष्ण आडवाणी की बराबरी कर पाएं।

इस खबर पर विनोद दुआ खबरदार कार्यक्रम में बार-बार दर्शकों को यही बताते रहे कि हम आपको बता दें कि लाल कृष्ण आडवाणी अभी प्रधानमंत्री बने नहीं हैं उन्हें सिर्फ अपनी पार्टी की ओर से उम्मीदवार बनाया गया है। अब ये क्या बताने की जरूरत है कि कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार में बीजेपी का नेता प्रधानमंत्री कैसे हो सकता है। न तो मध्यावधि चुनाव हुए और न ही आडवाणी ने कांग्रेस ज्वाइन किया। साथ ही ये भी कि आडवाणी अभी से भगवान का आशीर्वाद मांगने लगे हैं। दुआ बार-बार ये भी कह रहे थे कि आडवाणी इस अंदाज में लोगों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं जैसे वो प्रधानमंत्री बन गए हों। अब मुझे समझ में नहीं आता कि एक नेता जो देश का उप प्रधानमंत्री रह चुका हो। देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता हो उसकी क्षमता पर इस तरह से संदेह करना क्या किसी पार्टी के प्रवक्ता जैसा व्यवहार नहीं है।

Sunday, December 02, 2007

‘आजा नच ले’, इट्स अ बेस्ट एवर इंडियन म्यूजिकल ड्रामा

दस साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों और डेलीगेसीज में लड़कों के कमरे में (शायद देश भर के छात्रावासों के कमरों में) एक साथ 3 पोस्टर नजर आते थे। ब्लैक एंड व्हाइट पोस्टर मधुबाला का, जिसमें मधुबाला के माथे से एक लट आंखों से थोड़ा बगल से होकर लटक रही होती थी। उससे सटकर एक कलर्ड पोस्टर होता था। काफी कुछ मधुबाला जैसी दिखने वाली माधुरी दीक्षित का। माधुरी दीक्षित का अंदाज भी काफी कुछ मधुबाला जैसा ही होता था। और, उसी से सटा नीली आंखों वाली विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय का। मधुबाला एक पीढ़ी पुरानी, माधुरी उस दौर की और ऐश्वर्या आने वाली पीढ़ी की सबसे खूबसूरत और सबसे ज्यादा लोगों की पसंद वाली हीरोइन की पहचान जैसी थीं।

नंबर एक अभिनेत्री माधुरी ने आज से 5 साल पहले जब संजय लीला भंसाली की देवदास में ऐश्वर्या के साथ काम किया तो, दोनों के एक साथ थिरकने वाले गाने पर पूरा देश थिरका था। साथ ही एक चर्चा ये भी चल पड़ी थी कि माधुरी दीक्षित की नंबर वन की विरासत को संभालने के लिए ऐश्वर्या पूरी तरह तैयार हैं। फिर माधुरी ने परिवार बसा लिया। पति के साथ न्यूयॉर्क में बस गईं। 5 सालों तक मीडिया, मायानगरी से किनारा सा कर लिया। दो प्यारे बच्चों की मां बन गईं और लगा कि माधुरी का दौर पूरी तरह खत्म हो गया। लेकिन, कमाल ये था कि इन 5 सालों में कई प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों के आने के बावजूद एक भी अभिनेत्री ऐसी नहीं आई जिसे बिना किसी बहस के नंबर एक कहा जा सके।

और, माधुरी दीक्षित की 5 साल बाद बड़े परदे पर वापसी के साथ दो बातें हो गईं। एक तो ये कि देश की नंबर वन हीरोइन की सीट खाली नहीं है। माधुरी से ये ताज छीनने के लिए दूसरी अभिनेत्रियों को अभी बहुत दम लगाना पड़ेगा। दूसरी ये कि हॉलीवुड से मुकाबला करते बॉलीवुड में आने वाले दिनों में बिना गाने की सफल फिल्में बनाना अभी बहुत दूर की कौड़ी है। मनमोहिनी मुस्कान वाली माधुरी की ‘आजा नचले’ भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे अच्छी म्यूजिकल ड्रामा फिल्म बन गई है।

मेरे नजरिए से ‘आजा नचले’ के बारे में मैं पहले साफ कर दूं कि ये फिल्म अभिनय के लिहाज से बहुत अच्छी नहीं है। ऐसा नहीं है कि अभिनय करने वाले कमजोर है। फिल्म की कहानी ही कुछ ऐसी है। हां, अच्छा हुआ कि माधुरी को नृत्य सिखाने वाले गुरुजी फिल्म में बहुत कम देर के लिए थे। वरना फिल्म की कलेक्शन बरबाद करने में उनका योगदान बढ़ जाता। गुरुजी के दुनिया से ऊपर उठने के बाद ही फिल्म चलनी (दर्शकों को अच्छी लगनी) शुरू हुई। इरफान जैसे अभिनेता के पास फिल्म में करने के लिए कुछ खास नहीं है। रणवीर-विनय ने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है। लेकिन, भेजा फ्राई से आगे निकलने के लिए किसी बहुत बेहतरीन स्क्रिप्ट की उन्हें सख्त दरकार होगी। कोंकणासेन ने भी अपने हिस्से का बेहतर काम किया है।

‘आजा नचले’ मैं उन लोगों को खास तौर पर देखने को कहूंगा जो, माधुरी, माधुरी की मुस्कान, माधुरी के नृत्य के चाहने वाले हैं। पूरी फिल्म माधुरी के आसपास ही घूमती है। माधुरी का हर अंदाज कुछ खास दिखता है। एकाध नजदीक के दृश्यों को छोड़ दें तो, ये समझ पाना मुश्किल होगा कि ये 2 बच्चों की 42 साल की माधुरी है। और, माधुरी थिरकना शुरू करती हैं तो, शायद किसी के लिए भी ये याद करना असंभव सा हो जाता होगा।

खैर, मैं फिर से लौटता हूं आज के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों और डेलीगेसीज में लड़कों के कमरे में। अलग-अलग कमरे में मधुबाला, माधुरी जमी हैं। लेकिन, ऐश्वर्या की फोटो हर दूसरे कमरे में बदल रही है। कहीं ऐश्वर्या की जगह प्रीती जिंटा हैं, कहीं करीना कपूर, कहीं सुष्मिता सेन, कहीं लारा दत्ता, कहीं, प्रियंका चोपड़ा, कहीं बिपाशा बसु, कहीं ... । लिस्ट लंबी है। अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन महानायक हो गए। इस बेरहम इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा समय तक नंबर एक अभिनेता बने रह गए। अभी भी नए जमाने के अभिनेताओं की तुलना उन्हीं के बाद शुरू होती है। फिर भी, शाहरुख खान ने अब नंबर एक का खिताब लगभग छीन ही लिया है। अब सवाल ये है कि क्या अभिनेत्रियों में एक भी अभिनेत्री नहीं है जो, 5 साल खाली रहने के बाद भी नंबर एक अभिनेत्री का खिताब ले सके। आप भी ‘आजा नचले’ देखकर आइए। फिर बात करते हैं।

Saturday, December 01, 2007

धन्य हो सेक्युलर इंडिया की धर्मनिरपेक्षता के पहरेदारों!

तसलीमा नसरीन ने सीपीएम नेता गुरुदास दास गुप्ता को फोन करके कह दिया कि वो अपनी विवादित किताब द्विखंडिता से वो लाइनें हटा देंगी जो, मुस्लिम समुदाय के लोगों को आहत कर रही हैं। गुरुदास दास गुप्ता पूरे जोश के साथ टीवी चैनलों पर प्रकट हुए और कहा कि तसलीमा का ये कृत्य समाज के हित में है। जिन लोगों को तसलीमा की उन लाइनों से कष्ट पहुंचा था। अब उन्हें शांति मिली है। कोलकाता में अब शांति हो जाएगी। दरअसल कोलकाता में शांति की बात कहते समय गुरुदास दास गुप्ता के चेहरे पर जिस तरह के संतोष का भाव था उससे, साफ देखा जा सकता था कि लेफ्ट के नेता अपने गढ़ (पश्चिम बंगाल), वोट बैंक (मुस्लिम) और धर्मनिरपेक्षता (अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण) की रक्षा करने में सफल होते दिख रहे हैं।

कई मुस्लिम संगठनों ने भी तसलीमा के फैसले को उचित बताया और कहा कि अब शांति हो जाएगी। जमायते उलेमा हिंद के मोहम्मद मदनी भी खुश हैं। मदनी ने कहा कि अब तसलीमा कहीं भी रह सकती हैं। जैसे भारत उनकी जागीर हो वो, उसके जागीरदार और तसलीमा उनकी गुनहगार प्रजा। ऐसी गुनहगार प्रजा जिसने गुनाह कबूल कर लिया हो। और, उसे उसके गुनाह के लिए बड़े दिल के राजा ने माफ कर दिया हो।

एक और बयान आया MIM के सांसद असादुद्दीन ओवैसी का। शायद ये अकेला बयान था जो, ईमानदार था। ओवैसी के कृत्य जायज-नाजायज हो सकते हैं। लेकिन, तसलीमा के किताब से लाइनें हटाने के फैसले पर ओवैसी का बयान ईमानदार था। ओवैसी ने कहा- तसलीमा मौकापरस्त हैं। वो सिर्फ इसलिए पन्ने हटाने पर राजी हुई क्योंकि, तसलीमा को लगने लगा था कि भारत के दरवाजे उनके लिए बंद होने वाले हैं। ओवैसी का मानना है कि तसलीमा भविष्य में फिर ऐसे बयान दे सकती हैं जिससे देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ जाए। अब क्या ये देश ओवैसी लोगों की बपौती है कि तसलीमा को देश का दरवाजा बंद होता दिख रहा था।

तसलीमा ने अपनी किताब द्विखंडिता से चार विवादित पन्ने हटा दिए। अब तसलीमा किसी की भावना को आहत नहीं करना चाहती हैं। ये वही तसलीमा हैं जिन्हें दुनिया भर में अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतिनिधि माना जाता है। और, भारत को दुनिया के धर्मनिरपेक्ष देशों का नेता। लेकिन, कांग्रेस सरकार और लेफ्ट के नेताओं के तसलीमा के मामले पर दोगले रवैये ने इन लोगों की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की कलई खोलकर रख दी है। तसलीमा ने किताब के विवादित पन्ने हटाने के साथ ही धर्मनिरपेक्ष भारत पर जोरदार तमाचा जड़ दिया। तसलीमा ने कहा मुझे समझौता करना पड़ रहा है। मैंने वो किया जो, मैंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं किया था।

हाल ये है कि बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठिये मजे से पश्चिम बंगाल में वहां की नागरिकता लेकर रह रहे हैं। बांग्लादेश में रहने वाले अपने भाई-बंधुओं से मिलने के लिए ये घुसपैठिये निरंतर बाड़ फांदकर आते-जाते रहते हैं। इनके पास बातचीत करने के लिए बांग्लादेश का मोबाइल नंबर होता है। इनके पास पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से जारी राशन कार्ड होता है। और, इतने से लेफ्ट सरकार के खिलाफ हर उठने वाली आवाज को दबाने के लिए हर कर्म-कुकर्म करने का इनको लाइसेंस मिल जाता है। वैसे मुसलमानों के हितों पर हमेशा सजग दिखने वाली लेफ्ट सरकार तसलीमा की नागरिकता के खुले विरोध में है।

ये महज संयोग तो नहीं हो सकता न कि कोलकाता में तसलीमा की खिलाफत में हिंसा उसी समय हुई जब, नंदीग्राम में सुनियोजित सरकारी (लेफ्ट कैडर प्रायोजित) नरसंहार के खिलाफ पूरा देश एक स्वर से आवाज उठा रहा था। 15 सालों बाद कोलकाता में इतना हिंसक विरोध हुआ कि कर्फ्यू लगाना पड़ा। कोलकाता के हर एक गली-मुहल्ले में लाल सलाम का कब्जा जैसा है। ऐसा कब्जा कि लेफ्ट कैडर की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि कोलकाता में हिंसा करने वाले लोग लेफ्ट के समर्थक ही थे।

कोलकाता में जिस दिन हिंसा हुई थी। टीवी चैनलों पर काफी समय तक ये साफ नहीं हो पा रहा था कि ये सब नंदीग्राम के विरोध में हो रहा है। रिजवानुर की मौत के विरोध में या फिर तसलीमा को निकाल बाहर कर देने के समर्थन में। कर्फ्यू लग गया तो, साफ हुआ कि ये सब तसलीमा के विरोध में हो रहा था। धर्मनिरपेक्ष, मुस्लिम हितों की रक्षक लेफ्ट सरकार ने तसलीमा को बंगाल से निकाल बाहर करने में कोई देरी नहीं की। केंद्र में बैठी दूसरी धर्मनिरपेक्ष सरकार को भी तसलीमा की जान बचाने के लिए सांप्रदायिक भाजपा! के शासन वाला राज्य राजस्थान ही मिला।

राजनीति का मौका मिल गया था लगे हाथ दो और सांप्रदायिक भाजपाई सरकारों! ने तसलीमा का सुरक्षा का जिम्मा मांगा। लेकिन, दो धर्मनिरपेक्ष (कांग्रेस और कॉमरेड) सरकारों को ये कैसे पचता कि जिनको वो सांप्रदायिक बताते रहे हैं उसे तसलीमा की सुरक्षा का जिम्मा देकर उन्हें धर्मनिरपेक्ष बनने का मौका कैसे दे देते।

खैर, तसलीमा के बयान के बाद पिछले कई दिनों से तसलीमा की जान किसी तरह बचाए घूमती खुफियां एजेंसियों को भी थोड़ी राहत मिली होगी। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा- जो, भी शांति कायम करने में मदद करे उस कदम का स्वागत है। दरअसल तसलीमा को मुस्लिम कट्टरपंथियों से सुरक्षित रखना जिस तरह से सरकार के लिए मुश्किल हो रहा था उसमें निश्चित तौर पर कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के लिए इससे राहत की बात क्या हो सकती है।

वैसे कांग्रेस के नेता इस बात पर बोलने से बच रहे हैं कि सरकारों का दुमछल्ला बन चुकी केंद्रीय खुफिया एजेंसी सीबीआई ने जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट कैसे दे दी। सीबीआई कुछ इस तरह से काम कर रही है जैसे उसे बनाया ही गया है नेहरू-गांधी परिवार और उनके दरबारियों को हर मुश्किल से बाहर निकालने के लिए। क्वात्रोची के मामले में सीबीआई के कृत्य तो अब देश के ज्यादातर लोगों को पता चल चुका है।

एक बार फिर सीबीआई ने दिखा दिया कि ये एक ऐसी एजेंसी बन चुकी है जो, किसी भी मामले को बरसों तक खींच सकती है। और, उसके बाद सरकार, सत्ता में बैठे लोगों के मनमुताबिक, फैसले सुना देती है। सीबीआई इतने सालों में उस जसबीर सिंह को नहीं खोज पाई जिसे सीएनएन-आईबीएन ने खोज निकाला। और, सिर्फ खोज ही नहीं निकाला। जसबीर का बयान भी टीवी पर चला कि उससे सीबीआई ने कभी कोई पूछताछ नहीं। ये वही जसबीर सिंह है जो, जगदीश टाइटलर के खिलाफ सिखों के नरसंहार का मुख्य गवाह है। अब सीबीआई चैनल से ही जसबीर सिंह को खोजने के लिए मदद मांग रही है। अब क्या कोई तुक बनता है इस एजेंसी को बनाए रखने का।

सवाल तसलीमा की किताब से 4 पन्ने निकलने और जगदीश टाइटलर को सीबीआई की क्लीन चिट मिलने भर का नहीं है। सवाल ये है कि इस तरह भारत किस धर्मनिरपेक्षता का दावा कर सकता है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट किस तरह की धर्मनिरपेक्षता की रक्षा में जुटे हैं। क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ सत्ता बचाने तक की बची रह पाती है।

Thursday, November 29, 2007

ये असली हिंदुस्तानी हैं, ये हार नहीं मानेंगे

कई दिनों से मैं सोच रहा था कि जानवरों से भी बदतर कर्म करने वाले लोगों पर क्या लिखा जाए। जिन्होंने गुवाहाटी में अपनी ही बहन की इज्जत सरे बाजार नीलाम कर दी। जिन्होंने एक पल के लिए भी ये नहीं सोचा कि जो वो कर रहे हैं वो, तो खुद उनकी मां-बहन के साथ हो सकता है। भीड़तंत्र में वो कौन सी पिपासा मिटाना चाहते थे। मुझे पूरा यकीन है जिन नीच लोगों ने असम में एक 16 साल की लड़की को निर्वस्त्र किया, उनमें ये साहस नहीं होगा कि वो जिस समाज का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, उसके सामने भी सीना तानकर ये कह सकें कि मैंने अपने समाज की भलाई के लिए ये सब किया। और, वो भला किस समाज के हितों की रक्षा करने सड़क पर उतरे थे।

गुवाहाटी में ऑल आदिवासी स्टूडेंट एसोसिएशन ऑफ असम के छात्र आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्ज दिए जाने का मांग को लेकर शनिवार को रैली कर रहे थे। उस दौरान जो हादसा हुआ उसे पूरे देश ने देखा। 16 साल की एक लड़की को कुत्सित मानसिकता के लोगों ने निर्वस्त्र किया और उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया। शर्मनाक ये है कि ये सब मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के आवास से सिर्फ एक किलोमीटर की दूरी पर हुआ। फिर भी उस लड़की को बिना कपड़ों के आधा किलोमीटर तक अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा और पुलिस उस लड़की की मदद के लिए नहीं आ सकी।

एक तो मुझे लगता है कि अब संविधान से आदिवासी शब्द को पूरी तरह हटा दिया जाना चाहिए। ये असली हिंदुस्तानी हैं। इन्हें आदिवासी कहकर क्यों राजनीति करने की कोशिश की जा रही है। आज तक मुझे देश के किसी भी हिस्से में एक भी घटना ऐसी सुनने को नहीं मिली कि कहीं आदिवासियों ने तथाकथित सभ्य समाज के लोगों के साथ कोई भी ऐसी हरकत की हो। हां, सभ्य समाज के पहरेदारों ने जरूर बार-बार इन असली हिंदुस्तानियों के साथ छलावा किया, धोखा किया है। अखबारों-टीवी चैनलों में भी मानवता को शर्मसार कर देने वाली तस्वीरें जमकर चलीं लेकिन, आज जब मैंने कोशिश की ये देखने कि किसी अखबार में मुझे इसकी खबर मिल जाए तो, इंडियन एक्सप्रेस के अलावा किसी भी अखबार में ये खबर मुझे नहीं मिली।

इंडियन एक्सप्रेस की खबर पढ़ने के बाद मेरा ये भरोसा और पक्का हुआ कि ये असली हिंदुस्तानी हैं ये हार नहीं मानने वाले हैं। सरकार, मीडिया किसी के सहारे की इन्हें जरूरत नहीं हैं। इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने उस लड़की के घर जाकर उससे और उसके परिवार वालों से बातचीत की। और, लड़की का पहला जवाब था। मैं इस घटना के बाद और मजबूत हुई हूं। मेरा सबसे पहला लक्ष्य दसवीं की परीक्षा पास करना है। अगले साल उसकी बोर्ड की परीक्षा है। वो, लड़की कम से कम ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करना चाहती है। जिसके बूते वो, तथाकथित सभ्य समाज के लोगों से अपने हक की लड़ाई आसानी से लड़ सके। गुवाहाटी से 240 किलोमीटर सोनितपुर जिले के एक छोटे से गांव से वो जागरुक लड़की अपने समाज के लोगों को हक दिलाने की रैली में शामिल होने गई थी। शनिवार को होने वाली रैली के लिए वो लड़की अपने भाइयों और साथियों के साथ सारी रात सफर कर गुवाहाटी पहुंची थी।

इतने मजबूत इरादों वाली लड़की का अपने समाज में तो आदर्श बनना तय ही था। ऑल आदिवासी महिला समिति की नेता लता लाकड़ा साफ कहती हैं कि ये लड़की आदिवासी समाज (असली हिंदुस्तानी) के दावे को और मजबूत करती है। लड़की के पिता को चिंता है कि अगर उनके तीन बेटों को नौकरी नहीं मिली तो, आठ बीघे जमीन पर धान की खेती से इतने बड़े परिवार का जीवन कैसे चल पाएगा। लड़की की मां पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन, पढ़ी-लिखी मांओं से ज्यादा समझदार है। अपनी बेटी के साथ खड़ी है, कह रही है- मुझे ये पता है कि मेरी बेटी के साथ बहुत बुरा हुआ। लेकिन, मुझे गर्व है कि उसने बहादुरी के साथ लड़ाई लड़ी है।

पिछले तीन दिनों से उस लड़की के घर पहुंचने वालों की लाइन लगी हुई है। वो, देखना चाहते हैं कि बांस के तीन कमरे के छोटे से घर में उसे इतने मजबूत हौसले कहां से मिले। उस लड़की ने ये भी बताया कि भीड़ के नरपिशाचों ने उसके साथ मानवता को शर्मसार कर देने वाला काम किया। लेकिन, निर्वस्त्र अवस्था में सड़क पर आधा किलोमीटर भागी लड़की को एक स्थानीय दुकानदार भागीराम बर्मन ने अपनी शर्ट उतारकर पहना दी। साथ ही उसे पुलिस तक पहुंचने में भी मदद की। बर्मन भी उसी समाज से है।

पिछले कई दिनों से लगातार मैं इस विषय पर लोगों के आक्रोश भरे, चेतावनी देने वाले लेख पढ़ रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था मैं क्या लिखूं। आज उस लड़की के बयान ने मेरा मानस साफ कर दिया कि ये असली हिंदुस्तानी हैं ये, हार नहीं मानेंगे। ये अपनी लड़ाई जीतकर दिखाएंगे। लोग मार-काट की बात कर रहे हैं। वो, लड़की ग्रेजुएट होने की बात कर रही है। अपने हक को लेकर वो कमजोर नहीं हुई है। और, मजबूत हुई है। वो, अपना हिस्सा छीनने आ रही है। वो, दूसरों की मां-बहन की इज्जत लेने की बात नहीं कर रही। तथाकथित सभ्य समाज के लोगों अपनी इज्जत, अपनी असली पहचान बचानी है तो, इन असली हिंदुस्तानियों को गले लगा लो। इनसे माफी मांगो। इनके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाओ, प्रायश्चित करो। इनका हक जो, बरसों से तुम छीनकर खा रहे हो इन्हें वापस दो।


(इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता से लड़की के परिवार वालों ने निवेदन किया कि कृपया लड़की का असली नाम न छापें। मेरी आप सबसे अपील है कृपया अब उस लड़की की वो तस्वीर न दिखाएं जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया है।)

Wednesday, November 28, 2007

महिलाओं को कम समझना बंद कीजिए

दया चौधरी पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की पहली महिला जज बन गई हैं। सीनियर एडवोकेट दया को एडीशनल जज नियुक्त किया गया है। 88 साल के हाईकोर्ट के इतिहास में ये पहली बार है जब कोई महिला जज बनी है। दया चौधरी पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट बार की पहली महिला प्रेसिडेंट और केंद्र सरकार की एडीशनल सॉलीसिटर जनरल भी रह चुकी हैं।

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट में एक महिला जज की नियुक्ति इसलिए भी मायने रखती है कि ये दोनों ही राज्य लड़के-लड़कियों के मामले में सबसे खराब अनुपात रखते हैं। पंजाब और हरियाणा से कन्या भ्रूण हत्या के भी बड़े मामले सामने आते रहे हैं। देश में लड़के-लड़कियों का सबसे खराब अनुपात इन्हीं दोनों राज्यों में है। पंजाब और हरियाणा में 1000 लड़कों पर सिर्फ 704 लड़कियां हैं। जबकि, देश में 1000 लड़कों पर 933 लड़कियां हैं।

पंजाब और हरियाणा की ही तरह चंडीगढ़, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तरांचल में भी लड़कों के मुकाबले लड़कियां कम हो रही हैं। अमीर राज्यों के साथ ही दिल्ली के पॉश इलाके साउथ दिल्ली में कन्या भ्रूण हत्या सबसे ज्यादा होती है जो, साफ दिखाता है कि ज्यादा पढ़े-लिखे और समृद्ध भारत को लड़कियां कम पसंद हैं। इसका दुष्परिणाम भी सामने आता दिख रहा है। अगर यही हाल रहा तो, 42 साल बाद करीब 3 करोड़ लड़के कुंआरे रह जाएंगे।

सिर्फ केरल ही अकेला राज्य है जहां लड़कों से ज्यादा लड़कियां हैं। केरल में 1000 लड़कों पर 1058 लड़कियां हैं। देश में सामाजिक संतुलन बने इसके लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लड़कियों को समाज में आगे बढ़ने का मौका मिले। अब ये आश्चर्य की ही बात है कि 88 साल से पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट को एक लायक महिला वकील नहीं मिल पाई थी जो, जज बन सकती। दया चौधरी जैसे उदाहरण शायद लोगों को कन्या भ्रूण हत्या से रोक पाएं और भारत संतुलित विकास कर सके।

Tuesday, November 27, 2007

उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा के विधायक, नेता सिर्फ गुंडागर्दी कर रहे हैं

उत्तर प्रदेश में मायाराज के दरबारी सत्ता के मद में पगला गए हैं। 5 साल के लिए मायावती को प्रदेश की जनता ने सत्ता दी थी कि वो स्थिरता के साथ प्रदेश को उसकी खोई प्रतिष्ठा वापस लौटाए। मायावती ने सत्ता में आने के बाद प्रदेश से गुंडाराज, जंगलराज खत्म करने का भरोसा दिलाया। लेकिन, अब हाल ये है कि मायाराज में सत्ता में शामिल लोगों के अलावा किसी की भी इज्जत सुरक्षित नहीं है।

मायावती की बसपा के 3 नेताओं के काले कारनामे की वजह से प्रदेश के लोगों का डर अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि एक और विधायक ने बसपा के जंगलराज को और पुख्ता कर दिया। इस बार मामला और संगीन है। वाकया बनारस का है। एक महिला का पति दूसरी शादी कर रहा था। उसे रोकने के लिए महिला कुछ पत्रकारों को साथ लेकर शादी में पहुंच गई। लेकिन, महिला को अंदाजा नहीं था कि मायाराज में लोकतंत्र खत्म हो चुका है।

महिला के पति की दूसरी शादी में बसपा के विधायक शेर बहादुर सिंह भी मौजूद थे। पहले महिला को स्टेज से धक्का दिया गया। और, जब पता चला कि महिला पत्रकारों को लेकर आई है, शेर बहादुर सिंह के अहम को चोट लग गई। विधायक और उनके आदमियों ने पत्रकारों को पकड़कर पीटना शुरू किया। कैमरामैन, रिपोर्टर सबको 5-6 आदमी एक साथ मिलकर पीट रहे थे। राइफल, पिस्तौल के बट से पत्रकारों को पीटा गया पत्रकारों के शरीर पर खून के जमे हुए निशान बता रहे हैं कि उनकी किस बेरहमी से पिटाई की गई है।

लेकिन, मायाराज में बसपा विधायक की गुंडागर्दी इतने पर ही खत्म नहीं हुई। विधायिका बेलगाम थी तो, फिर सत्ता चलाने वालों के लिए ही कानून की रखवाली करने वाले पुलिस वाले कैसे पीछे रहते। थाने में विधायक के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने पहुंचे पत्रकारों को फिर से पुलिस ने दौड़ाकर पीटना शुरू कर दिया। लेकिन, मायावती के अपने गुंडाराज, जंगलराज में आतंक के काले कारनामे अभी और बाकी थे। चोट खाए, गुस्साए पत्रकारों ने मायावती का पुतला फूंकने की कोशिश की। तो, मायावती की निजी पुलिस की तरह काम कर रही उत्तर प्रदेश पुलिस आपे से बाहर हो गई। फिर से पत्रकारों को पीटा गया।

यहां सवाल सिर्फ पत्रकारों के पिटने का नहीं है। सवाल ये है कि क्या बसपा के राज में बसपा के नेताओं विधायकों और पुलिस वालों को कानून को ठेंगे रखने का हक मिल गया है। कानूनन कोई भी व्यक्ति एक महिला से शादी करने के बाद दूसरी महिला से शादी नहीं कर सकता जब तक कि उसको तलाक न मिल जाए। लेकिन, बसपा विधायक के प्रिय व्यक्ति पहली बीवी से बिना तलाक के ही दूसरी शादी कर रहे थे। इस तरह से विधायक शेर बहादुर सिंह भी कानून तोड़ने को दोषी हुए। उसके बाद तो विधायक ने कानून की ऐसी धज्जियां उड़ाईं जो, उत्तर प्रदेश के इतिहास में काले कारनामे में दर्ज हो गया है। लेकिन, पता नहीं अब इन घटनाओं को काला कारनामा माना भी जाता है या नहीं।

इसके बाद सरकारी खानापूरी करने के लिए विधायक शेर बहादुर सिंह, सीओ संसार सिंह और इंस्पेक्टर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। लेकिन, साथ ही पत्रकारों के खिलाफ भी कई मामले दर्ज कर दिए गए। अब जब पत्रकारों के खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया है तो, साफ है विधायक और दूसरे आरोपियों पर कोई कार्रवाई क्यों की जाएगी। 3 साल के शासन के बाद मुलायम राज में रहना दूभर हुआ था। अब बसपा का हाथी तो पूरे उत्तर प्रदेश को ही जंगल बनाकर उसे बरबाद करने पर जुटा गया है। उत्तर प्रदेश का अब राम भला करें।

देश भर में फैलने की तैयारी में उत्तर प्रदेश की ‘माया’

मायावती अब दिल्ली पर अपना कब्जा मजबूत करना चाहती हैं। मायावती इसके लिए पूरी तरह तैयार भी हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के लिए सत्ता पाने में तुरुप के इक्के जैसा चलने वाले सतीश चंद्र मिश्रा अपने यूपी फॉर्मूले का इस्तेमाल देश के दूसरे राज्यों में भी करना चाहते हैं। जिस तरह की रणनीति सतीश मिश्रा तैयार कर रहे हैं उससे ये साफ है कि अगले लोकसभा चुनाव में कई राज्यों में स्थापित पार्टियों की हाथी की दहाड़ सुनाई देगी।

कार्यकार्ता और वोटबैंक के लिहाज से उर्वर महाराष्ट्र में मायावती ने 25 नवंबर को एक बड़ी रैली कर दी है। महाराष्ट्र मायावती की योजना में सबसे ऊपर है। देश की राजधानी दिल्ली भी मायावती की योजना में ठीक से फिट बैठ रही है। कांग्रेस और बीजेपी के लिए चिंता की बात ये है कि पिछले नगर निगम चुनावों में दिल्ली में बसपा के 17 सभासद चुनकर टाउनहॉल पहुंच गए हैं। दिल्ली में दलित वोट 19 प्रतिशत से कुछ ज्यादा हैं। और, उत्तर प्रदेश से सटे होने की वजह से यहां के बदलाव की धमक वहां खूब सुनाई दे रही है।

बसपा के संस्थापक कांशीराम की जन्मभूमि पंजाब मायावती के लिए अच्छी संभावना वाला राज्य बन सकता है। मायावती ने महाराष्ट्र से पहले यहां भी एक सफल रैली की। 1984 में जब देश भर में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की बयार बह रही थी तो, बसपा पहली बार संसद में पहुंची थी। पंजाब ऐसा राज्य है जहां देश की सबसे ज्यादा दलित आबादी (28.31 प्रतिशत) रहती है।

पंजाब के बाद देश में सबसे ज्यादा दलित (25.34 प्रतिशत) हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। यही वजह है कि हिमाचल में बसपा ने सभी 68 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। अब इसे मायावती की अति ही कहेंगे कि मायावती ने कांगड़ा में एक विशाल रैली में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी तय कर दिया। इस राज्य में अब तक मायावती को कोई बड़ी सफलता भले न मिली हो। लेकिन, विधानसभा चुनावों में तैयार जमीन लोकसभा चुनावों में मदद दे सकती है।

दिल्ली से ही सटा हरियाणा एक और राज्य है जिस पर बहनजी की नजर है। 19.75 प्रतिशत दलितों का होना भी मायावती को बल देता है। इस राज्य में 1998 में बसपा को एक लोकसभा सीट भी मिल चुकी है। हरियाणा में भी उत्तर प्रदेश से गए लोगों की बड़ी संख्या है। खासकर फरीदाबाद, सोनीपत और पानीपत में।

उत्तर प्रदेश से सटे मध्य प्रदेश में तो मायावती अच्छी स्थिति के बाद पार्टी के कद्दावर नेता फूल सिंह बरैया के पार्टी छोड़ने से फिर शून्य पर पहुंच गई है। लेकिन, 15 प्रतिशत के करीब दलितों का वोटबैंक किसी कांग्रेस-बीजेपी के अलावा किसी एक दलित नेता का विकल्प मिलने पर फिर से जिंदा हो सकता है। मध्य प्रदेश में बसपा को 1996 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटें (8.7 प्रतिशत) मिली थीं। 1998 में तो 11 विधायक बसपा के थे। फिलहाल मध्य प्रदेश में मायावती को बसपा का झंडा उठाने के लिए कोई दमदार नेता नहीं मिल रहा है। मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ में भी मायावती अपना प्रभाव जमाने की कोशिश कर रही हैं।

इसके अलावा दक्षिण भारत में तमिलनाडु है जो, देश के राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका सकता है। ये अकेला राज्य है जहां मायावती को सर्वजन हिताय का नारा ओढ़ने (उत्तर प्रदेश के फॉर्मूले को इस्तेमाल करने) की जरूरत नहीं है। ये वो राज्य है जो, स्वाभाविक तौर पर दलित आंदोलन की जमीन है। पेरियार ने इसी जमीन पर ब्राह्मणवाद (सतीश चंद्र मिश्रा सुन रहे हैं ना) के खिलाफ प्रभावी आंदोलन खड़ा किया था। लेकिन, मायावती की मुश्किल इस राज्य में ये है कि 19 प्रतिशत से ज्यादा का दलित वोट अब तक करुणानिधि को अंधभाव से नेता मानता रहा हैं। और, उत्तर भारत से एकदम अलग शैली की राजनीति भी मायावती की फजीहत करा सकती है। लेकिन, मायावती तैयार हैं। बसपा का पहला राज्य कार्यालय चेन्नई में खुल चुका है। जिला स्तर पर भी समितियां बनाई जा रही हैं। 30 दिसंबर को चेन्नई में रैली कर मायावती भारत के दक्षिण दुर्ग में प्रवेश करने की पूरी कोशिश करेंगी।

मायावती जिस तरह से बदली हैं। उसे देखकर लगता है कि मायावती भारतीय राजनीति में बड़े और लंबी रेस के खिलाड़ी की तरह मजबूत हो रही हैं। लेकिन, मायावती की राजनीति की नींव ही जिस जातिगत समीकरण के आधार पर बनी है उससे, कभी-कभी संदेह होता है। साथ ही ये भी कि बसपा अकेली ऐसी पार्टी है जिसकी विदेश, आर्थिक, कूटनीतिक और रक्षा मसलों पर अब तक कोई राय ही नहीं है। उद्योगपति अभी भी मैडम मायावती से मिलने में हिचकते हैं। ये कुछ ऐसी कमियां हैं जो, मायावती को देश का नेता बनने से रोक सकती हैं।

Monday, November 26, 2007

महाराष्ट्र में ‘माया’ फैल रही है

हाथी की दहाड़ अब उत्तर प्रदेश के बाहर भी सुनाई देने लगी है। लोकसभा चुनाव के लिए मायावती पूरी तरह तैयार नजर आ रही हैं। उनके प्रमुख सिपहसालार सतीश चंद्र मिश्रा लोकसभा चुनाव के लिए 7-8 राज्यों में हाथी को दौड़ाने की रणनीति बनाने में लग गए हैं। मुंबई के छत्रपति शवाजी पार्क में हुई रैली उसी योजना का एक रिहर्सल थी। मायावती को भले ही महाराष्ट्र के नेता ये कहकर नकार रहे हों कि ये उत्तर प्रदेश नहीं लेकिन, मायावती की रैली में उमड़ी भीड़ ये साफ मान रही है कि दलितों को एक राष्ट्रीय नेता मिल गया है। और, ये दलित नेता ऐसी है जिसकी रणनीति में ब्राह्मण और पिछड़ी जातियों में दबा कुचला तबका सत्ता की सीढ़ी की तरह काम करने को तैयार दिख रहा है।

मायावती जिन राज्यों में बसपा का समीकरण काम करते देख रही हैं उनमें महाराष्ट्र सबसे ऊपर है। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र में हुई पहली बड़ी रैली ने साफ कर दिया है कि रामदास अठावले को अब अपना ठिकाना बचाने के लिए कुछ और जुगत करनी पड़ेगी। RPI के ज्यादातर कार्यकर्ता मानते हैं कि अठावले दलितों का सम्मान बचाने में कामयाब नहीं रहे हैं। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की कर्मभूमि होने की वजह से मायावती के लिए यहां दलितों को अपने पाले में खींचने में ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। राज्य के 35 जिलों में बसपा की जिला समितियां काम करने लगी हैं। दलितों की 11 प्रतिशत आबादी मायावती की राह आसान कर रही है। महाराष्ट्र विधानसभा में नीले झंडे का प्रवेश होता साफ दिख रहा है।

मायावती अब एक परिपक्व राजनेता की तरह बोलती हैं। शिवाजी पार्क में उन्होंने किसी पार्टी, जाति के लिए अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया। दलितों को वो समझा रही थीं कि दूसरी जातियों को अपने साथ लो और सत्ता का सुख भोगो। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का गारंटी कार्ड सतीश मिश्रा यहां भी मैडम के बगल में ही था। मायावती सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा दे रही थीं।

मायावती ने कहा- झुग्गियां नहीं चलेंगी लेकिन, अगर उनकी सरकार आई तो, बिना घर दिए किसी की झुग्गी नहीं टूटेगी। विदर्भ से मायावती की रैली में अच्छी भीड़ आई थी। किसानों की आत्महत्या पर उन्होंने राज्य सरकार को लताड़ा। कहा- मेरे राज्य में कोई किसान आत्महत्या नहीं करता।

मायावती सबसे पहले मुंबई में पैठ जमाना चाहती हैं। उन्हें पता है कि यहां से पूरे राज्य में संदेश जाता है। मायावती जानती हैं कि उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके जादू का सबसे ज्यादा अंदाजा है। इसलिए वो उत्तर प्रदेश से आए करीब 25 लाख लोगों को सबसे पहले पकड़ना चाहती हैं। यही वो वोटबैंक है जिसने पिछले चुनाव में शिवसेना-भाजपा से किनारा करके कांग्रेस-एनसीपी को सत्ता में ला दिया। मुंबई में हिंदी भाषी जनता करीब 20 विधानसभा सीटों पर किसी को भी जितान-हराने की स्थिति में है। जाति के लिहाज से ब्राह्मण-दलित-मल्लाह-पासी-वाल्मीकि और मुस्लिम मायावती को आसानी से पकड़ में आते दिख रहे हैं।

अब अगर मायावती का ये फॉर्मूला काम करता है तो, रामदास अठावले की RPI गायब हो जाएगी। और, सबसे बड़ी मुश्किल में फंसेगा कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन। कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में कांग्रेस के साथ बड़ी संख्या में हिंदी भाषी हैं साथ ही दलित-मसलमानों का भी एक बड़ा तबका कांग्रेस से जुड़ा हुआ है। एनसीपी की OBC जातियों में अच्छी घुसपैठ है। साफ है, हाथी महाराष्ट्र में घुस चुका है लेकिन, ये जंगली हाथी नहीं है जो, पागल होकर किसी भी रास्ते पर जाकर उसे उजाड़ दे। ये मायावती के नए सामाजिक समीकरण को समझने वाले गणेशजी के प्रतीक हैं। सब इनकी पूजा कर रहे हैं। अब ये देखना है कि मायावती के आदर्श डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की दीक्षाभूमि में हाथी का कैसा स्वागत होता है।

पाकिस्तानियों को मुशर्रफ, बेनजीर, नवाज किसी पर भरोसा नहीं


(पाकिस्तनियों को लगता है कि सत्ता जिसके भी हाथ में रही उसने सिर्फ पाकिस्तान को बरबार किया है। पाकिस्तान में आपातकाल लगने के बाद मैंने लिखा था कि दुनिया के लिए खतरा बन चुके पाकिस्तान की नई पीढ़ी किस तरह से मुशर्रफ का विरोध कर रही है। लेकिन, आज एक चौंकाने वाली बात मुझे जो जानने को मिली कि पाकिस्तान के नौजवानों को जितने बेइमान मुशर्रफ लगते हैं। उतने ही बेइमान बेनजीर, नवाज जैसे दूसरे नेता भी लगते हैं। पाकिस्तान के लोग मानते हैं अब इस देश को बचाने का रास्ता एक ही है कि बच्चों को सही सबक सिखाया जाए और बेहतर तालीम दी जाए।

पाकिस्तान के बिगड़े हालात का अंदाजा मुझे लगा कुछ पाकिस्तानी नौजवानों की मेल के जरिए। कुछ महीने पहले पाकिस्तान के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए मैंने याहू पर पाकिस्तान मस्ती जोन में रजिस्टर किया था। उसके बाद मैं शायद ही कभी इस ग्रुप की मेल पढ़ता था। लेकिन, आज इस मेल में तीन मेल एक-दूसरे के जवाब में जो लिखा गई उसे पढ़कर मुझे लगा कि इसे दुनिया के हर आदमी को पढ़ना चाहिए इसलिए मैं वैसे का वैसे ही पेश कर रहा हूं।)


naraaz_pakistan wrote:
BEHKI BEHKI BATAIN AIK PAGAL PAKISTANI KI


Tera pakistan hay na mera pakistan hay. yea uska pakistan hay jo sadaar-e-pakistan hay. 60 saaloo say pakistan ka khoon choosnay waalay 6 lakh bheriaay is mulk ka wajood taak khatam karkay daam laingay. 16 karor aawam aik taaraf zaati mufaad aik taraf. yea musharaf ko baadshah kio nahi bana daitay siyaah karay yea safeed aanday day yea bachay koi rooknay waala nahi ho ga president bhi Chief of army staff bhi aur chief justice bhi. sabsay pehlay pakistan ka matlab hay kay sabsay pehlay zaati mufaad aur meri kursi pehlay tu kisy ki samjh may nahi aaya, aub samajh may aaya. Aafreen hay sirf aik shakhs ki khaatir jaab zaroorat parti hay aain ki dhaajia ura di jaati hain. Aur salute hay army kay (kutay say ziaada wafaadar) generaloo ko jinho nay sirf salute maarna seekha zehaan say soochna nai gheraatmandi ko topi may
daal kar pehaan li hay.

pakistan may emergency laagi hay yea media aur aadlia par shaab khoon maara gaaya hay. Aub humain samjh jaana chiay haawas iqtaadar kia hoti hay? Is mulk ka naam islami jamhoria Pakistan kay bajai Azaad Khiaal Martial Law pakistan or musharafistan. is say samjh may yea aata hay haalaat kharaab sirf parweezi hukoomat ko tool dainay kay liay ki gai taakay AAQA (America) kay maaqaasid poray kiay jaa sakay khuch aur begunahoo ka khoon bhaaya ja sakay. Dukh hay hum 16 karor ki booli sirf 16 Afsaaro nay laagai hoi jo humaay kabhi america tu kabhi birtish ko baich rahay hay yea phir apni hi inteligence kay aaqobat khaanoo may takhta maashq banay howay hain aur kisy kay maa baap biwi bachoo ko koi haaq haasil nai unko pata bhi
chalay wo zinda hay yea maar gai kisy judge nay pehli baar bera uthaaya tu agencies aur musharaf ko itna bura laga kay unko haata dia.

Yea wahi media hay jisay mainay independance di hay baqool baadshah salaamat pakistan aur zairay lab apnay khilaaf likhnay kay liay nahi di aazadi judicary ko aazadi di hay maagar aapnay khilaaf faisloo kay liay nahi kia aandhair naagri aur choopat raaj hay jiskay gaalay may phaanda aagaya phaansi usko dainy hay aur agencies ko 90 Aaraab lootnay waaloo ko steel mill saastay daamo beechnay waaloo ko aawaam ko dhaakia gaalia dainay waalay minister ko khuch nai kehna. haam murda qoam hain koi baahar say nai aaiy ga baachaanay. America aub emergency kay nifaaz paar jhoota wawela karay ga 2 din pehlay General Faalan apni behaan ka rishta le kar aaya tha musharaf kay pass.

Emergency lagnay kay baad condoleza rice taabsaray say inkaar china jaa kar tabsaara karo gi sab pata tha. Kia humaaray mulk may venezvella waalay haalaat paida ho rahay hain jaha CIA nay plotting ki Hugo chavez ko nikaal kar khud hookumat karnay ki maagar kia humaaray pass wo media hay jo ultaay howay taakhtay ko seedha kaarday kia wo awaam hay jo maazooll aur arrested saadar ko waapis lay aiy maagar ham saawal yea hay ham laai kisko yeha tu haar shaakhs ka daaman phaata howa hay kahi laachari say kahi corruption say kiski jhooli may daalaay yea zimadaari. Mubaarak musharaf tumhay aub khiaal karna american agenday ki taakmeel may waziristaan saawat maata
balochistan deeni madarsoo par qaatlay-aam aaraam say ho. Aub tu na koi aadliaa hay na aawaam na leader. sikaast khoorda fauj nay pehlay wazeeristan aur phir swaat may hatiaar daalnay kay baad aik baar phir apnay hi capital ko faatah karlia. 6 lakh ki fauj may aik shakhs bhi pakistan ka waafadaar nahi hay. may halaaf na lainay waalay judges ki aazmat ko salam karta ho aur uthaanay waaloo paar laanat bhaijta ho. aur jaab AAQA ko aitraaz nahi tu haam kon hotay hain taanqeed karnay walay pichli daafa AAQA nahi chaatay thay tu raat ko phone kardia is daafa chaatay hain tu daabi aawaz may muzaamat kar rahay hain aur imdaad jaari rahay gi ka naara.

In pakmastizone@ yahoogroups. com, Ricky Azmi wrote:
I certainly understand and respect your views. Magar humare mulk ka sab se bada masla yehi hai ke we get frustrated and make decisions based on our own liking and disliking, and then we turn to sources who we all know too well, ke na tou unho ne kal kabhi kuch kiya tha pakistan ke liye, aur na hi karenge, aur shayed kar bhi nahi karsakte. Wo suna hai na aapne..something like.."Khuda ne aajtak badli nahi
uss qaum ki haalat, na ho jisko khayaal khud aap apni haalat ke
badalne ka"....

Musharaf se peecha churayenge, tou kiya mulk sambhaljaayega? I dont think so. I think before we get too critical about country's leadership, the most important thing is to find ways to develop sense of responsibility and civics in our children, youth....then only we have some hope to look forward to a decent'modern' leadership. Warna Musharaf nahi tou Bhutto, Bhutto nahi tou, Nawaz, Nawaz nahi tou
shayed Altaf...magar ye drama sirf inhi characters tak limited rahega, aur Pakistan ki dhajiyan udti rahengi..aur hum sab, kalki tarha, aajki tarha....humesha ki tarha...kehtay rahenge..... Pakistan Zindabad.... Ye watan Tumhara hai, Tum ho Pasbaan Iske.....Pitty and Pathetic.... !
Ricky Azmi, Member PakMasti Zone
Jersey, Britain



A silent member...... Qaiser Majeed
I do agree with your comments 100%. We all Pakistanis should develop
sense of responsibility and civics in our children to make our
Pakistan better in future. May Allah help us to act on what we say....
(Amin)

Sunday, November 25, 2007

बाबूजी कानून मत बताइए

नियम-कायदे तोड़ना और उसी से तरक्की की कोशिश करना हमारे मिजाज में गजब का रच बस गया है। हाल ये है कि भ्रष्टाचार की हमें इस तरह आदत पड़ गई है कि इसके लिए हमने ढेर सारे तर्क-कुतर्क भी ढूंढ़ लिए हैं।

आज मैं अपने मोहल्ले की दुकान से स्प्राइट लेने गया। वैसे तो मैं कोई भी कोल्डड्रिंक नहीं पीता हूं। लेकिन, जब पेट साफ न हो रहा हो या फिर किसी पार्टी में तेल से भरा खाना ज्यादा खा लेने से पेट अजीब भाव दिखाने लगे तो, मैं कोल्डड्रिंक पी लेता हूं। और, ये मेरा भ्रम ही होगा लेकिन, मुझे लगता है कि कोल्डड्रिंक पी लेने के बाद पेट की सफाई बड़ी अच्छी हो जाती है।

खैर, मोहल्ले की दुकानवाले से मैंने स्प्राइट मांगा। बोतल पर MRP 20 रुपए लिखी हुई थी। 20 रुपए देने लगा तो, उसने 22 रुपए मांगे। मैंने कहा इस पर तो 20 रुपए लिखा है। उसने कहा तो, क्या बाबूजी हम कुछ न कमाएं। मैंने कहा कंपनी तो तुम्हें इस पर कमीशन देती ही है। फिर उसके पास जवाब तैयार था और इस बार पहले से तीखा जवाब था। बाबूजी कानून मत बताइए और जब आप इस तरह के सवाल कर रहे हैं तो, फिर इसे ठंडा करने में हमें जो बिजली का बिल देना पड़ता है। वो, कौन भरेगा। उसकी दुकान में फ्रिज भी कोल्डड्रिंक कंपनी का दिया हुआ लगा था।

मैंने कहा तुम्हारी दुकान में तो, फ्रिज भी कंपनी का ही दिया हुआ है। उसने फिर अचानक पैंतरा बदला। दुकानदार ने कहा साहब बहुत चोर कंपनियां हैं ये। अब दो-चार रुपए कमा लेता हूं इसलिए रखता हूं नहीं तो, ये सब सामान तो इस्तेमाल ही नहीं करना चाहिए पीने लायक थोड़े ना होता है। इसी बीच उसके मुंह से निकल गया बिना ठंडा किया लेना हो तो, ले लीजिए। मैं भी 2 रुपए ज्यादा न देने पर अड़ा था। मैं 20 रुपए में ही बोतल लेकर आ गया।

ये दुकानदार भ्रष्ट होने के लिए अजीब तर्क गढ़ रहा था। एक कंज्यूमर चैनल में काम करने के नाते मुझे अच्छे से पता है कि MRP पर ही बेचने वाले को कंपनियां कमीशन देती हैं। ये दुकानदार महाशय ज्यादातर दूध, दही, मक्खन जैसी चीजें बेचते हैं। उसमें भी हर आधे किलो के पैकेट 50 पैसे और एक किलो के पैकेट पर 1 रुपए ज्यादा उसे ठंडा रखने के नाम पर ले लेते हैं। शायद भ्रष्टाचार हमारी आदत में शामिल हो गया है। और, हमें लगता है कि अपनी तरक्की के लिए दूसरों से जरूरत से ज्यादा पैसे वसूल लेने से ही बड़ा आदमी बना जा सकता है।

Friday, November 23, 2007

अपंग सरकारों की गलत नीतियों से फिर मजबूत हो रहे हैं आतकंवादी

आज उत्तर प्रदेश के 3 शहरों में एक साथ फिर धमाके हुए। कम से कम 15 लोगों के मारे जाने की खबर हैं। सैकड़ो घायल हुए हैं। इस बार के हमले लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद की जिला कचहरियों में हुए। ये इत्तफाक ही नहीं है कि तीनों ही अदालतों में आतंकवादियों के खिलाफ मामलों की सुनवाई चल रही है। लखनऊ की अदालत में तो अभी कुछ दिन पहले ही तीन आतंकवादियों को वकीलों के गुस्से का शिकार होना पड़ा था। ये तीनों आतंकवादी राहुल गांधी या फिर दूसरे किसी नेता को अगवा कर देश की अलग-अलग जेलों में बंद 52 आतंकवादियों को छुड़ाना चाहते थे।

लखनऊ में वकीलों ने पेशी के समय इन्हीं तीनों आतंकवादियों की पिटाई कर दी थी। माना जा रहा है कि आज के धमाके करके आतंकवादी ये संदेश देना चाहते हैं कि कोई भी कहीं भी हो वो हमले कर सकते हैं। सबसे ज्यादा लोग वाराणसी की अदालत में हुए धमाके में मारे गए हैं। यहां एक और बहुचर्चित मामले की सुनवाई चल रही है। भाजपा विधायक अजय राय के भाई अवधेश राय की एक दशक पहले हुई हत्या के मामले में आज अजय राय की गवाही होनी थी। इस मामले में मऊ के माफिया विधायक मुख्तार अंसारी मुख्य आरोपी हैं। ये वही मुख्तार अंसारी हैं जो, सपा शासन के दौरान भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के भी आरोपी हैं। इसके अलावा मुख्तार पर मऊ में दंगे भड़काने और दंगे के दौरान नंगी रिवाल्वर लेकर कई गाड़ियों के काफिले के साथ खुलेआम दहशत फैलाने का भी आरोप है। पहले से भी इस बात की चर्चा होती रही है कि इन माफियाओं के संबंध दाऊद और आतंकवादी संगठनों से हैं।

पिछले कुछ समय से देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई कट्टरपंथी घटनाओं को भी अगर साथ रखकर देखें तो, साफ-साफ दिखता है कि किस तरह आतंकवादी धीरे-धीरे फिर सिर उठा रहे हैं। वो, इतने मजबूत हो गए हैं कि टीवी चैनलों को मेल भेजकर बताया और उत्तर प्रदेश की तीन जिला अदालतों में बम धमाके करा दिए।

वैसे तो, उत्तर प्रदेश के इन तीन शहरों और कोलकाता में कोई रिश्ता नहीं दिखता है। लेकिन, मैं कोलकाता में दंगे जैसे हालात की वजह जानकर हैरान रह गया था। कोलकाता में कट्टरपंथी मुस्लिम तसलीमा को बंगाल से बाहर भगाने की बात कह रहे थे। मझे लग रहा था कि ये नंदीग्राम का गुस्सा है। लेकिन, नंदीग्राम की आड़ में आतंकवादी ताकतें कोलकाता को कबाड़ बनाने में सफल हो गईं। और, घुसपैठी बांग्लादेशियों को अपने वोटबैंक के तौर पर तैयार करने वाली सीपीएम की सरकार इतने बड़े खतरे से आंखें मूंदे बैंठी रही। हाल ये है कि बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल से कई ऐसे रास्ते हैं जिसके जरिए लोग धड़ल्ले से आर पार आते जाते रहते हैं। यहां तक कि कई इलाकों में तो लोग बांग्लादेश का सिमकार्ड तक इस्तेमाल कर रहे हैं।

महाराष्ट्र के मालेगांव में धमाके, हैदराबाद के धमाके, हैदराबाद में तसलीमा के ऊपर हमला, कोलकाता मे तसलीमा के सिर पर ईनाम रखने वाला मौलवी। ये सारी ऐसी घटनाएं थीं जो, पूरी तरह से सोची समझी साजिश थी। इन सबको एक के बाद एक अंजाम दिया गया। लेकिन, सवाल ये कि देश भर में चल रही आतंकवादी हरकतों की जानकारी केंद्र सरकार को किस तरह से है। और, अगर इस खतरे की पूरी जानकारी है तो, इस मामले पर कड़ी कार्रवाई करने से क्यों बच रही है सरकार। क्या सिर्फ इस डर से कि मुसलमानों का वोटबैंक उसके हाथ से निकल जाएगा।

मुझे समझ में नहीं आता कि जमीन-जायदाद, हत्या, अपहरण के मामले में अदालतें समय लेते-लेते इतना समय ले लेती हैं कि न्याय के इंतजार में कई पीढ़ियों की जिंदगी खत्म हो जाती है। लेकिन, देश की अदालतें आतंकवादियों को सजा देने में इतना समय कैसे ले सकती हैं। आज आतंकवादियों ने सिर्फ इस बात पर हमला बोला है कि वकीलों ने उनके साथ मारपीट की और उनका केस लड़ने से मना कर दिया। कम से कम अदालतों को देश की सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामले पर फैसला सुनाने में तो जल्दबाजी दिखानी ही होगी।

कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गृहमंत्री शिवराज पाटिल और गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल को तो देखकर ही लगता है कि ये सोए-सोए से रहते हैं। धमाके के बाद श्रीप्रकाश जायसवाल शांति भाषण दे रहे थे और आतंकवादियों से लड़ने की उम्मीद प्रदेश की जनता से कर रहे थे। उनके बयान में आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का एक भी शब्द नहीं फूटा। कांग्रेस और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति खेलने वाली पार्टियों ने संसद में पोटा कानून का विरोध इस तरह से किया था जैसे वो उनकी राजनीति ही खत्म कर दगा।

ये तुष्टीकरण की राजनीति ही है कि सुप्रीमकोर्ट से सजा सुनाए जाने के बाद भी संसद पर हमले का दोषी अफजल गुरू अब तक फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सका है। मानवाधिकार संगठन अफजल गुरू के पक्ष में जनमत बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें आतंकवादी हमले में मारे गए निर्दोषों के मानवाधिकार नजर नहीं आते। और, पूरी यूपीए सरकार चुपचाप अफजल को बचाने की मुहिम पर आंख मूंदे बैठी है। तसलीमा को बचाने के लिए सरकारों को तसलीमा को देश भर में भगाकर रखना पड़ रहा है। हम किससे डरे हुए हैं। इतने डरे लोगों को सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश के भाग्य का फैसला करने का हक कैसे दिया जा सकता है। ऐसे में सचमुच लगता है कि इस नजरिए के साथ सत्ता में बैठे लोगों के हाथ में देश है तो, देश का भगवान ही मालिक है।

Monday, November 19, 2007

नंदीग्राम में वामपंथियों का नंगा नाच जारी है

गुजरात दंगों जैसा ही है नंदीग्राम का नरसंहार। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के चेयरमैन जस्टिस एस राजेंद्र बाबू ने ये बात कही है। राजेंद्र बाबू कह रहे हैं कि जिस तरह से नंदीग्राम में अल्पसंख्यकों पर राज्य प्रायोजित अत्याचार हो रहा है वो, किसी भी तरह से गोधरा के बाद हुए गुजरात के दंगों से कम नहीं है। लेकिन, मुझे लगता है कि गुजरात दंगों से भी ज्यादा जघन्य कृत्य नंदीग्राम में हुआ है। नरेंद्र मोदी में भी कभी ये साहस नहीं हुआ कि वो उसे सही ठहराते लेकिन, बौराए बुद्धदेव तो इसे सही भी ठहरा रहे हैं।

दरअसल नंदीग्राम में स्थिति उससे भी ज्यादा खराब है जितनी राजेंद्र बाबू कह रहे हैं। लेफ्ट के गुडों का नंगा नाच अभी भी खुलेआम चल रहा है। बंगाल की बुद्धदेव सरकार अब सीआरपीएफ को काम नहीं करने दे रही है। सीआरपीएफ के देरी से आने का रोना रोने वाले बुद्धदेव के बंगाल के डीजीपी अनूप भूषण वोहरा ने सीआरपीएफ के डीआईजी को कहा है कि वो वही सुनें जो, राज्य पुलिस का स्थानीय एसपी (ईस्ट मिदनापुर) एस एस पांडा कह रहा हो। यानी केंद्र सरकार की ओर से राज्य में कानून व्यवस्था बनाने के लिए भेजी गई सीआरपीएफ पूरी तरह से राज्य पुलिस के इशारे पर चलेगी।

ये वही राज्य पुलिस है जो, लेफ्ट कैडर के इशारे के बिना सांस भी नहीं लेती। सीपीएम कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर नंदीग्राम के निरीह किसानों की हत्या करने वाली पुलिस अब जो कहेगी वही सीआरपीएफ के जवानों को करना होगा। सीआरपीएफ के डीआईजी आलोक राज ने राज्य पुलिस से नंदीग्राम और आसपास के इलाके के अपराधियों की एक सूची मांगी थी अब तक सीआरपीएफ को वो सूची नहीं दी गई। आलोक राज ने कहा पुलिस का इतना गंदा रवैया उन्होंने अपने अब तक के कार्यकाल में नहीं देखा है।

सीआरपीएफ के 5 बेस कैंपों को हटाकर दूसरी जगह भेजा जा रहा है। ये वही बेस कैंप हैं जिन्हें बनाने के लिए सीआरपीएफ को लेफ्ट के अत्याधुनिक हथियारों, बमों से लैस गुंडों से छीनने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था। इतना कुछ होने के बावजूद सीपीएम महासचिव की बेशर्म बीवी और सीपीएम पोलित ब्यूरो की पहली महिला सदस्य बृंदा करात टीवी चैनल पर नंदीग्राम के मसले पर इंटरव्यू के दौरान नंदीग्राम में महिलाओं के साथ हुए बलात्कार की तो चर्चा भी नहीं करना चाहतीं। और, वो इसी इंटरव्यू के दौरान बेशर्मी से हंसती भी दिख जाती है।

वहीं एक दूसरे चैनल पर सीपीआई नेता ए बी वर्धन नंदीग्राम को गुजरात से भी गंदा बताने पर भड़क जाते हैं। इन बेशर्मों को ये नहीं दिख रहा है कि नंदीग्राम के एक स्कूल में 1,200 से भी ज्यादा किसान शरण लिए हुए हैं। ये लोग भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी के सदस्य हैं। अब स्कूल का हेडमास्टर सीपीएम के दबाव में उन्हें स्कूल खाली करने को कह रहा है। कमेटी के 38 से ज्यादा सदस्य अभी भी लापता हैं। आशंका हैं कि गांव में कब्जे के दौरान सीपीएम कैडर ने इन लोगों की हत्याकर उनकी लाश कहीं निपटा दी है।

Sunday, November 18, 2007

दुनिया के 200 अच्छे विश्वविद्यालयों में एक भी भारत का नहीं है

इलाहाबाद में मैं जब तक था एक बड़ी गलतफहमी थी कि भारत की पढ़ाई दुनिया के दूसरे देशों से बहुत अच्छी है। शहर में डेढ़-दो लाख लड़के-लड़कियां ज्ञान पेलते दिखते थे। साल भर में 10-20 अपने जानने वाले IAS-PCS हो जाया करते थे। तब लगता था कि दुनिया के किस देश में यहां से ज्यादा पढ़े लिखे लोग होंगे। हर दूसरे लड़के के पास डबल MA की डिग्री होती थी। सब कुछ झमाझम था। लेकिन, इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाता था तो, मन मंछ टीस उठती थी कि किसी विदेशी विश्वविद्यालय से तुलना करके उसकी नकल भारत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय को क्यों बताया जाता है।

इसकी साफ वजह अब समझ में आ गई है। ब्रिटेन की प्रतिष्ठित लीग टेबल में 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की इस सूची में चीन के 6 विश्वविद्यालय शामिल हैं। एशिया में चीन के अलावा जापान, सिंगापुर, हांगकांग, ताइवान और दक्षिण कोरिया के भी विश्वविद्यालयों को भी इस सूची में जगह मिल गई है।

यहां तक कि दुनिया भर में आपनी धाक जमाने वाला भारत का कोई IIT भी इस सूची में नहीं है। जबकि, इससे पहले एक साथ सारे IIT को मापने से उन्हें इस सूची में जगह मिल जाती थी। गनीमत बस इतनी है कि IIT दिल्ली और IIT मुंबई को दुनिया के 50 सबसे अच्छे तकनीकी संस्थानों में जगह मिल पाई है। लेकिन, ये दोनों भी 37वें और 33वें नंबर पर हैं। जबकि, चीन का सिंगहुआ विश्वविद्यालय 17वें नंबर पर है।

दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की इस लीग लिस्ट में हमेशा की तरह ही अंग्रेज दुनिया का दबदबा कायम है। अमेरिका और ब्रिटेन के विश्वविद्यालय उच्चतर शिक्षा में सबसे आगे हैं। ये बात लगातार सामने आ रही है कि भारत के अच्छे संस्थानों में पढ़ाने के लिए अच्छे अध्यापक नहीं मिल रहे हैं। देश के विश्वविद्यालयों में शोध की हालत बिल्कुल ही खराब है। ऐसे में मनमोहन जी कहां से करिएगा शिक्षा क्रांति। और, उच्चतर शिक्षा की हालत सुधारने बिना तो तरक्की सबको नहीं मिलने वाली। कुछ अंबानी, टाटा, बिड़ला को भले मिल जाए।

अमीरों की दिल्ली पैसा, दारू और कार के पीछे भाग रही है

दिल्ली के लोग जमकर पैसा कमा रहे हैं। जमकर दारू पी रहे हैं और सड़कों पर तेज रफ्तार से कारें भगा रहे हैं। दिल्ली सरकार की ओर जारी ताजा आंकड़े ये बता रहे हैं। दिल्ली में एक व्यक्ति की औसत कमाई सालाना 61,676 रुपए हो गई है। अब दिल्ली सिर्फ गोवा से ही पीछे रह गई है। गोवा में लोगों की प्रति व्यक्ति कमाई सालाना 70,112 रुपए है।

कमाई बढ़ी तो, इसका जश्न मनाने के लिए दारू तो जरूरी है। और, दिलवालों की दिल्ली ने जमकर दारू पी। लेकिन, जश्न मनाने में थोड़ी कमी रह गई और दिल्लीवाले साल भर में एक लाख से काफी कम करीब 78,000 बोतल शराब ही पी पाए।

दिल्ली के लोगों ने इस साल करीब 16 लाख कारें खरीदी हैं। जो, पिछले साल से डेढ़ लाख ज्यादा हैं। अब दिल्ली वाले कमा ज्यादा रहे हैं तो, फिर बस या दूसरे पब्लिक ट्रांसपोर्ट से क्यों यात्रा करें। अपनी कार से चलते हैं, जमकर दारू पीते हैं तो, थोड़ी बहुत दुर्घटनाएं तो हो ही जाती हैं। लेकिन, 2,167 लोग दिल्ली की इस रफ्तार के चक्कर में अपनी जान गंवा बैठे।

Saturday, November 17, 2007

अमीरों का देश भुक्खड़ भारत!

दुनिया के भुक्खड़ देशों में भारत नेता बन गया है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स (दुनिया के भुक्खड़ सूचकांक)
पर भारत की हालत इतनी पतली है कि नेपाल, पाकिस्तान भी हमको लंगड़ी मारकर आगे निकल गए हैं। 119 विकासशील देशों (भारत अभी भी विकासशील है) में भारत 96वें नंबर पर है।

भुक्खड़ देशों की सूची में पाकिस्तान हमसे 8 नंबर ऊपर 88वें नंबर पर है। जबकि, नेपाल 92वें पर है। बांग्लादेश के लोगों को भी भारत से ज्यादा खाने-पीने को मिल रहा है। म्यांमार और श्रीलंका जहां के आंतरिक हालात बेहद खराब हैं वो, भी हमसे बहुत आगे हैं। म्यांमार इसी लिस्ट में 68वें और श्रीलंका 69वें नंबर पर है।

इस खबर पर जब मेरी नजर पड़ी, उसी दिन मैं अपने चैनल पर फोर्ब्स मैगजीन की एक खबर उत्साह के साथ चलाकर घर लौटा था। फोर्ब्स मैगजीन की ताजा लिस्ट के मुताबिक, सबसे अमीर सिर्फ 3 भारतीयों की कुल संपत्ति चीन के 40 अमीरों की कुल संपत्ति से बहुत ज्यादा है। भारतीय मूल के 3 अमीर हैं एल एन मित्तल (इनको हम या दुनिया के लोग भारतीयों के साथ क्यों जोड़ते हैं पता नहीं), मुकेश अंबानी और उनके छोटे भाई अनिल अंबानी। इन तीनों की कुल संपत्ति मिलाकर करीब 160 अरब डॉलर है। जबकि, चीन के 40 अमीरों की कुल संपत्ति 120 अरब डॉलर ही है।

मैंने भी अतिउत्साह में उस खबर को अच्छे से चलाया और लिखा 12 चीनियों पर भारी 3 हिंदुस्तानी। लेकिन, जब मैंने भुक्खड़ भारत की ये पहचान मिलाई तो, चीनी ड्रैगन भारतीय हाथी को निगलता नजर आया। चीन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 47वें नंबर पर है। यानी उस लिहाज से अगर भारत में 10 हिंदुस्तानी भूखे सोते होंगे। तो, सिर्फ 1 चीनी ऐसा होगा जिसे खाना नहीं मिलता होगा।

इन आंकड़ों को देखकर ज्यादा चिंता इसलिए भी होती है क्योंकि, ये सर्वे ऐसे लोगों पर किया गया जो, एक डॉलर से भी कम पर पूरा दिन बिता देते हैं। चिदंबरम-मनमोहन की जोड़ी के हर दूसरे दिन देश की तरक्की के भाषण मेरा खून जलाने लगे हैं। भारत की इस भुक्खड़ पहचान ने मेरा सारा जोश ठंडा कर दिया है।

इस देश में अभी और कितने किसान मरेंगे

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री चिदंबरम देश को तरक्की की राह पर ले जाने का लगातार दावा करते दिखते हैं। 9-10 प्रतिशत की विकास दर अब भारत पा सकता है। इस बारे में अर्थसास्त्री-बाजार के जानकार लोगों को टीवी-अखबारों के जरिए ज्ञान दर्शन कराते रहते हैं। लेकिन, इस खबर पर चर्चा कम ही होती है कि आखिर संपन्नता के कुछ टीले बनाकर देश को 10 प्रतिशत की भी विकास दर मिल जाए तो, उसका क्या मतलब होगा।

कभी-कभी वित्त मंत्री खेती-किसानों की चर्चा आने पर कह देते हैं कि देश का विकास अच्छे से हो इसके लिए जरूरी है कि कृषि विकास दर 4-4.5 प्रतिशत हो। अभी ये 2.5 प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन, ये विकास दर कैसे हासिल होगी इस बारे में शायद ही कभी सरकारों की तरफ से कोई ठोस फॉर्मूला सुनने में या हो। हाल ये है कि देश के किसान कर्ज के बोझ में दबकर ऐसे आत्महत्या कर रहे हैं कि अब उनका मर जाना भी इस देश में खबर नहीं बन पाता।

अभी तीन दिन पहले नासिक के एक और किसान ने आत्महत्या कर ली। देश के सबसे संपन्न राज्यों में से एक महाराष्ट्र में ही नासिक है। दुनिया भर के अमीरों को धूल चटाने वाले अंबानी, टाटा, बियानी, गोदरेज जैसी बड़ी जमात इसी राज्य में पाई जाती है। लेकिन, महाराष्ट्र ही देश का ऐसा राज्य है जहां के विदर्भ में दो जून की रोटी न जुटा पाने से किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राज्य के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख यहां आकर पैकेज का ऐलान करते हैं और अखबारों-टीवी चैनलों की सुर्खियां बन जाते हैं लेकिन, पैकेज के ऐलान के समय पहले पन्ने की सुर्खियों वाले किसान की आत्महत्या की खबर अगले ही दिन सातवें-आठवें पेज पर छोटी सी छपकर रह जाती है।

किसानों के हालात इतने खराब हैं कि 1997 से 2005 के बीच डेढ़ लाख से ज्यादा किसान आत्हमत्या कर चुके हैं। यानी हर रोज 50 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। ये किसी भी त्रासदी से मारे गए लोगों से ज्यादा है। सबसे ज्यादा ध्यान देने की बात ये है कि देश के बीमारू राज्यों के अगुवा बिहार और उत्तर प्रदेश में किसानों की आत्महत्या का एक भी मामला सामने नहीं आया है। आत्महत्या करने वाले किसानों में दो तिहाई संपन्न राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक के अलावा आंध्र प्रदेश, केरल और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के थे। साफ है संपन्न राज्यों में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई भी इसकी एक बड़ी वजह दिख रही है।

किसान ज्यादातर उन्हीं राज्यों में आत्महत्या कर रहे हैं जहां कैश क्रॉप का चलन है। यानी ऐसी खेती जो व्यवसायिक दृष्टि से की जाती है। जैसे विदर्भ में कपास की खेती। इस तरह की खेती के लिए किसान बड़ी रकम कर्ज के तौर पर लेता है और एक बार कर्ज न चुका पाने पर वो उसी जाल में ऐसा फंसता है कि जान गंवाने के बाद ही मुक्ति मिल पाती है। सिर्प महाराष्ट्र में ही 2005 में 3926 किसानों ने आत्महत्या कर ली। यानी हर रोज 10 से ज्यादा किसान जान गंवा बैठे। खेती में 4 प्रतिशत की विकास दर की उम्मीद जता रहे चिदंबरम सुन रहे हैं क्या।

Wednesday, November 14, 2007

दो बूढ़े वामपंथियों के अहं की लड़ाई में बरबाद हो रहा है बंगाल

रिजवानुरहमान की मौत के बाद पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु का बयान- इस मामले में राज्य सरकार ने सही समय पर सही कदम नहीं उठाया।

नंदीग्राम और सिंगूर मामले पर राज्य सरकार सलीके से लोगों को समझा नहीं पाई- ज्योति बसु।

पुराने वामपंथी लकीर के फकीर हैं। वो, समय के साथ खुद को बदल नहीं पा रहे हैं- बुद्धदेव भट्टाचार्य

बंगाल के नौजवानों को रोजगार की जरूरत है और वो बिना पूंजी के संभव नहीं। पूंजी के लिए पूंजीवादियों का सहारा लेना ही होगा। ये समय की जरूरत है- बुद्धदेव भट्टाचार्य


पिछले कुछ महीने में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के बीच हुए अघोषित शीत युद्ध की ये कुछ बानगियां हैं। कैडर के दबाव और स्वास्थ्य की मजबूरियों ने ज्योति बसु पर बुद्धदेव को कुर्सी देने का दबाव तो बना दिया। लेकिन, ये बूढ़ा वामपंथी अभी भी बंगाल पर अपना दखल कम नहीं होने देना चाहता। और, बंगाल की राजनीति को नजदीक से समझने वालों की मानें तो, इन दो बूढ़े वामपंथियों के अहम की लड़ाई में बंगाल बरबाद होता जा रहा है।

ज्योति बसु ने हर उस नाजुक मौके पर बुद्धदेव के हर फैसले को गलत ठहराने की कोशिश की। जब बुद्धदेव को बचाव की जरूरत थी। इसी रस्साकशी का परिणाम था कि दो दशकों ज्योति बसु के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली ममता सिंगूर के मुद्दे पर ज्योति बसु के घर चाय-नाश्ता मंजूर कर लेती हैं। लेकिन, बुद्धदेव से मिलने को भी तैयार नहीं होती हैं।

बंगाल में सीपीएम कैडर के खिलाफ सीपीएम का ही कैडर खड़ा है। इस बात में तो कोई संदेह हो ही नहीं सकता कि SEZ और जमीन के बहाने लड़ाई के जो तरीके इस्तेमाल हो रहे हैं वो, ताकत राज्य में सीपीएम कैडर के अलावा किसी और के पास नहीं है। बुद्धदेव हिंसा में माओवादियों का हाथ होने की बात कह रहे थे। लेकिन, रिपोर्ट साफ बताती है कि माओवादी कहीं नहीं हैं। माओवादी तरीका जरूर अपनाया जा रहा है।

कोलकाता में ये चर्चा आम है कि सबसे ज्यादा हिंसा बुद्धदेव का विरोधी खेमा ही कर रहा है। अब ये बताने की जरूरत तो नहीं है कि मुख्यमंत्री के अलावा राज्य में दूसरे किस वामपंथी नेता को कैडर का अंधा भरोसा हासिल है। दोनों बूढ़े वामपंथियों की लड़ाई में बंगाल बरबाद होता जा रहा है। और, अब लेफ्ट नेताओं को भी लगने लगा है कि इस लड़ाई में दुनिया के अकेली सबसे ज्यादा समय तक चलने वाली लोकतांत्रिक सरकार इतिहास बन सकती है। यही वजह है कि करात इस बार खुलकर बुद्धदेव के साथ खड़े हो गए। लेकिन, कुल मिलाकर बरबादी तो बंगाल की ही हो रही है। बंगाल के लोग अब तो जाग जाओ।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...