Monday, December 31, 2012

वो जीना चाहती थी और मैं भी चाहता हूं कि वो जिंदा रहे



यहां उस लड़की की उसल तस्वीर लगाना चाहता हूं
अब धीरे-धीरे उस लड़की की कहानियां दबे-छिपे लोगों के सामने आ रही है। दरअसल ये एक ऐसी कहानी है जिसे हर कोई जानना चाहता है। सुनना चाहता है। उस दर्द से दोबारा कोई न गुजरे ऐसा इस देश में ही नहीं दुनिया चाहने वाले लगभद पूरे ही हैं। वो, लड़की एक ऐसी कहानी बन गई है जिसक चर्चा, बातचीत हर कोई कर रहा है लेकिन, सच्चाई ये है कि बातचीत हम उसकी तो, कर रहे हैं। उसे जिंदा रखने की कसमें खा रहे हैं। उसके मरने से पूरे समाज के जिंदा होने की आशा भी जगा चुके हैं। मैं ये दरअसल इसलिए कर रहा हूं कि उसकी असल पहचान किसी को नहीं पता। अजीब टाइप के प्रतीकों के जरिए उसकी पहचान बनी हुई है। कोई उसे दामिनी कह रहा है तो, कोई निर्भय, वेदना या जाने क्या-क्या। अब सवाल यही है कि जिसके नाम पर सारा देश जग गया है। उसको हम मारने पर तुले हुए हैं। हम पता नहीं किस वजह से उसकी पहचान खत्म करने पर तुले हुए हैं।

टीवी संपादकों की संस्था ब्रॉकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (BEA) ने सहमति बनाई कि हम उस सामूहिक दुष्कर्म की शिकार लड़की की निजी स्वतंत्रता को बचाए रखेंगे। और, इसके लिए उन्होंने ये तय किया कि जंतर-मंतर  और देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले आंदोलनों को तो, दिखाएंगे लेकिन, उस लड़की के नाम, चेहरे को लोगों के सामने नहीं लाएंगे। उस लड़की के परिवार के लोगों की पहचान नहीं दिखाएंगे। ये सहमति उनके अतिपरिपक्व पत्रकार मन को शायद ठीक लगती होगी। लेकिन, मैं जब अपने मन को टटोलता हूं तो, मुझे लगता है कि ऐसा करना दरअसल उस लड़की की निजी जिंदगी में दखल देने से कहीं ज्यादा ये लगता है कि सरकार के स्थायित्व पर ज्यादा टकराहट न हो। लगभग सारे न्यूज चैनलों, अखबारों ने अपने हिसाब से उसका कुछ नाम रख लिया है और देश की जनता से अपील कुछ इस अंदाज में कर रहे हैं कि सरकारी दूरदर्शन भी उनके सामने पानी भरता दिखे। सवाल यही है कि वो, क्या चाह रहे हैं कि देश एक ऐसी घटना के नाम पर जो, जागा है वो, फिर सो जाए। बल्कि मुझे तो लगता है कि सरकारी उदारवाद की नीति से घुटता वर्ग जो, यथास्थिति वादी हो चुका था। जो, जागा था लेकिन, आंख बंदकर सोए होने का नाटक कर रहा था सिर्फ इस बेवजह की उम्मीद में बुरी घटनाएं सिर्फ बगल से छूकर खबरों में आकर निकल जाएंगी। इस घटना ने उसे डराया है। और, इस डर ने उसे निर्भय होने का एक मंत्र दे दिया है लेकिन, ये निर्भय मंत्र आखिर कब तक काम आएगा। जिस लड़की की शहादत के बाद देश में ऐसा करने वालों के खिलाफ एक ऐसा माहौल बना है जो, सीधे और तुरंत कार्रवाई की स्थिति पैदा कर रहा है। उसी लड़की की पहचान हम क्यों मारने पर तुले हैं।

ये कहानियां आनी शुरू हो चुकी हैं कि उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक गांव से वो लड़की देश की राजधानी आई थी। उस लड़की के पिता के साक्षात्कार नाम बिना बताए अखबारों में छप चुके हैं। पिता ये बता चुका है कि उस लड़की की पढ़ाई के लिए उसने खेत बेच दिया। छोटे भाइयों को पढ़ाना उस लड़की का सबसे बड़ा सपना था। इस सबकी बात हो रही है लेकिन, जो असल वजह है इन सब बातों की यानी वो लड़की। उसकी पहचान या कहें उसे जिंदा रखने से हम डर रहे हैं। क्या अभी भी उसके सा हुआ दुष्कर्म उसके मां-बाप, भाई-बहन के माथे पर कलंक जैसा है। आखिर क्यों हम डर रहे हैं उसकी पहचान जाहिर करने से। आखिर क्यों उस लड़की का चेहरा इस देश की सारी लड़कियों के लिए संबल, ताकत नहीं बन सकता। क्यों उस लड़की का नाम इस देश में महिलाओं के खिलाफ किसी भी तरह के अपराध के खिलाफ एक हथियार नहीं बन सकता। पाकिस्तानी मलाला को तालिबानियों ने गोली मार दी थी। वो, लड़कियों की शिक्षा का बीड़ा उठा रही थी। एक तालिबानी सोच ने उस लड़की को खत्म करना चाहा। ईश्वरीय ताकत या प्रकृति जिसे भी मान लें उसने मलाला को तालिबानी सोच के खिलाफ जिंदा रखा। आज वो, दुनिया में महिलाओं की ताकत और तालिबानी सोच के खिलाफ एक बहुत बड़ी पहचान बन चुकी है। फिर हमारी ये बहादुर लड़की दिल्ली ब्रेवहर्ट के प्रतीक नाम से ही क्यों नहीं जानी जा सकती।

सारी बात तो, सोच बदलने की ही है। अगर दुष्कर्म की शिकार लड़के प्रति नाम छिपाने की सोच इस समाज में जिंदा है तो, उससे दुष्कर्म करने वालों को तो ऑक्सीजन मिलती ही रहेगी। फिर कैसे दुष्कर्म की शिकार कोई लड़की पूरी ताकत से दुष्कर्म करने वालों को दुष्कर्म साबित कर सकेगी। क्यों आखिर कोई लड़की उस तरह से अपनी चोट से उबर नहीं सकती, अपने सामाजिक अपमान से उबरने का काम नहीं कर सकती जैसे किसी को भी सरेआम पीटा जाता है, हत्या की कोशिश की जाती है या फिर हत्या ही कर दी जाती है। लेकिन, हम सोच बदलने के बजाए सारी ताकत इस बात पर लगा रहे हैं कि उसकी पहचान न जाहिर हो। फिर सोच कैसे बदलेगी। अगर सोच बदलने के इस देश के सबसे बड़े आंदोलन की वजह बनी उस लड़की की मौत के बाद हम- हमारी सरकार, हमारी मीडिया, हमारा समाज -उसकी पहचान को भी मार देना चाह रहे हैं। काफी हद तक मार भी दिया है। अभी आंदोलन जल रहा है। कुछ-कुछ लोग जंतर-मंतर पर अभी जुटे हैं। कड़ाके की सर्दी में भी लोग उस लड़की पहचान जिंदा रखने के लिए जुट रहे हैं। लेकिन, मीडिया (पत्रकारिता) और मंत्री (सरकार) तो, तय कर चुके हैं कि उसकी पहचान जगजाहिर न होने देना ही उसके प्रति असली श्रद्धांजलि है।

लेकिन, मुझे लगता है कि इन सारे लोगों की उसकी इच्छा की दरअसल कोई फिक्र नहीं है या ये कहें कि वो, इससे अनजान हैं। अब सोचिए कि जो लड़की अपने सबसे बुरे हाल में भी जीना चाहती थी। उसे हम- हमारी सरकार, हमारी मीडिया, हमारा समाज - मार देना चाह रहे हैं। वो, जिंदा रहना चाहती थी। और, मैं भी चाहता हूं कि वो, जिंदा रहे। किसी भी स्वस्थ समाज के लिए ये जरूरी है कि वो, अपनी बुराइयों को दूर करे। और, किसी बुराई के शिकार को समाज में सम्मान से जीने का मौका दे। दुष्कर्म के मामले में हमारे समाज की गिरी सोच की वजह से उसकी शिकार लड़की पहचान छिपाने की पारंपरिक समझ पत्रकारिता, सरकार और समाज को है। लेकिन, ये समझने की जरूरत है कि अगर हम इस पारंपरिक समझ को बदल नहीं सके तो, समाज कहां से बदलेगा और दुष्कर्म कैसे रुकेंगे। मैं सरकार से अपील करता हूं कि दुष्कर्म की शिकार उस लड़की के असल चेहरे को सबके सामने लाए और उसे इस देश में महिलाओं पर होने वाले अपराध के खिलाफ एक चेहरा बनाए। सरकार जिस हाल में है और जो कर रही है वो, सबके सामने है। मैं तो मानता हूं कि स्थिति ऐसी हो गई है कि देश में सरकार है ऐसा अहसास ही नहीं होता। फिर सरकार ये क्यों नहीं करती कि उसे महिलाओं पर होने वाले अपराध के खिलाफ एक चेहरा बना दे। उसके नाम से दुष्कर्मियों या महिलाओं के खिलाफ अपराध पर ऐसी सजा का एलान करे कि वो, जिंदा रहे। मरने के बाद भी जिंदा रहे। क्यों नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में ये प्रस्ताव भारत सरकार की तरफ से जाए कि हम जाग गए हैं दुनिया को जगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ उसे अपना ब्रांड अबैसडर बनाए। दुष्कर्मियों के वहशीपन के बाद वो जिस हाल में थी उसमें वो, जिंदा भी रहती तो, शायद इसी मकसद से कि दुष्कर्म करने की दोबारा कोई सोच न सके। फिर उसे क्यों मारने पर तुले हैं हम- हमारी सरकार, हमारी मीडिया, हमारा समाज। 

Monday, December 24, 2012

इस सरकार का फर्मा ही बिगड़ा हुआ है!

बैरिकेड के पीछे छिपी सरकार, राजपथ से इंडिया गेट तक खड़ी जनता से मुंह छिपाती सरकार
सवाल - दिक्कत कहां हैं? अगर सरकार के मुखिया से लेकर हर कोई एक ही बात कह रहा है कि बलात्कार/दुष्कर्म की शिकार लड़की के साथ न्याय होगा। प्रधानमंत्री के भी तीन बेटियां हैं। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के भी तीन बेटियां हैं। वो, भी चिंतित हैं। फिर क्यों राजपथ से लेकर जनपथ तक जनता बवाल कर रही है। पगलाई भीड़ क्यों असामाजिक तत्वों को सरकार की छवि खराब करने का मौका दे रही है। क्यों, इस जनता को देश के राहुल बाबा की ये बात समझ में नहीं आ रही कि आखिर कोई कानून काम करे इसके लिए समय चाहिए होता है। ऐसे थोड़े  न होता है कि सत्ता के प्रतिष्ठानों को घेरकर भीड़ कोई कानून बनवा ले या कोई बना बनाया कानून लागू करना ले।

सवाल वही कि दिक्कत कहां हैं? जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राष्ट्र के नाम संबोधन कर दिया। सबको तो पता है देश ही नहीं दुनिया को भी। आखिर कहां अपने प्रधानमंत्री बोलते या बोल पाते हैं। मतलब उन्होंने इसे इतना महत्वपूर्ण तो समझा ना कि इस पर राष्ट्र के नाम संबोधन किया। अब और क्या करें? वो, भी तब जब पुराने जमाने के निकट संबंधी और एक समय तक ताकतवर राष्ट्र के मुखिया पुतिन भारत की यात्रा पर हैं। फिर भी समय निकालकर वो, बोले ना। और, क्या करें आप ही बताइए ना। क्यों, ये लौंडे लपाड़ों की टीम चाहती है कि उनके कहे से देश चलने लगे। अरे, जाओ स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पूरी करो। सिस्टम में आओ। सिस्टम के जैसे बन जाओ। तब बताना कि देश कैसे चलता है। कानून कैसे बनता है। चले आते हैं। बेवजस सरकार की छवि खराब करते हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो, रोने लगी हैं। वो, भी तो महिला हैं। उनके साथ केंद्र भेदभाव करता है। पुलिस का नियंत्रण देश के गृहमंत्री के पास और गाली शीला दीक्षित को। इसीलिए उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित ने कह दिया कि कम से कम पुलिस कमिश्नर को तो बर्खास्त कर दो। संदेश जाएगा। संदेश तो जा रहा है। लेकिन, फिर सवाल वही कि दिक्कत कहां हैं? अब तो, सरकार के साथ मीडिया घराने भी ये संदेश चलाने में जोर शोर से लग गए हैं कि आंदोलन हुड़दंगियों के हाथ में चला गया है। अपने बच्चों/परिवार के लोगों को घर में बुला लीजिए। बेचारी सरकारी पुलिस दमन तो कर रही है असामाजिक तत्वों का। अगर आपने अपने बच्चों/परिवार के लोगों को घर वापस नहीं बुलाया तो, फिर दोष मत दीजिएगा सरकार और सरकारी पुलिस को कि इस सर्दी में क्यों पीटा, क्यों सिर फोड़ा, क्यों ठंडे पानी से नहला दिया? लेकिन, जब सब इतने समझदार हैं तो, फिर सवाल वही कि दिक्कत कहां हैं?

जवाब जानने के लिए सिर्फ एक जिम्मेदार व्यकित के बयान अच्छे से सुन लीजिए। ये हैं देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे साहब। विनम्रता इनकी पहचान हैं। दरोगा से गृहमंत्री तक बन गए। इन्होंने क्या कहा जब इनसे पूछा गया कि वो, छात्रों से सीधे जाकर क्यों नहीं मिल सकते।

Shinde to cnn ibn: if we meet students today, tomorrow we may have to meet maoists" #shame

Shinde: Tomorrow 100 Adivasis will be killed, can the govt go there?"#shame

 

बस यही दोनों दरअसल जवाब हैं। इस सरकार का फर्मा ही बिगड़ा हुआ है। फर्मा मतलब सांचा। इस सरकार में जो, कुछ भी निकलेगा। आंड़ा तिरछा ही निकलेगा। अब बताइए साहब छात्रों से गृहमंत्री, प्रधानमंत्री या परम प्रधानमंत्री सोनिया गांधी इसलि नहीं मिलना चाहते कि फिर माओवादियों से भी बात करनी पड़ेगी। पहले तो, ये कि छात्र कहां लैंडमाइन बिछा रहे थे। कहां ये हैंडग्रेनेड दाग रहे थे। कहां ये पुलिस, सेना के जवानों की गाड़ी उड़ा रहे थे। हां, अगर ऐसे ही इन्हें चिढ़ाते रहे तो, ये सब ये करने लगेंगे। दूसरी बात ये कि अगर बात करने से माओवादी भी सुधर सकते हैं तो, बात क्यों नहीं करोगे। घोषित/अघोषित आतंकवादियों और उनको पालने वालों से तो, अकसर लाल कालीन बिछाकर बात करते रहते हो। बौरा गए हो क्या। 100 आदिवासी मर जाएं। किसी भी वजह से और देश का गृहमंत्री, वहां तक जाने लायक घटना इसे नहीं समझता। क्यों बने हो मंत्री। मौज करने के लिए। सिर्फ अच्छे-अच्छे कपड़ों में PIB कांफ्रेंस हॉल में बैठकर मीडिया को संबोधित करने के लिए। परेड लेने के लिए। दुनिया घूमने के लिए। इस मौके पर भी जिस सरकार में एक साहसी नेता नहीं है जो, राजपथ/जनपथ पर आकर अपनी बात अपने लोगों से कह सकता। इसीलिए लगता है कि सरकार का फर्मा ही खराब हो चुका है।

फर्मा खराब न हो चुका होता तो, आखिर सरकार क्यों इंतजार करती रहती कि असामाजिक तत्व आकर शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन में शामिल हो जाते। दरअसल संदेह तो, ये होता है कि बड़े समय बाद मनमोहन नीति के आवरण से निकली जनता इतना ज्यादा जाग चुकी है कि सरकार को लगता है कि ऐसे तो, जनता ही सचमुच देश चलाने लगेगी और उसका लोकतंत्र के आवरण में राजशाही चलाने का सपना गड़बड़ाने लगेगा। इसीलिए पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में भी सरकार ने यही किया। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन को सत्ता का आंदोलन, संघ का आंदोलन साबित करने की कोशिश की। और, आखिर में अरविंद केजरीवाल के पार्टी बनाने को सत्ता की भूख करार कर दिया। दरअसल मैं ये बात मानता हूं कि इस देश की जनता जब जागती है तो, उसे आंदोलन करने के लिए कभी किसी आपया बाप की जरूरत नहीं होती है। आजादी से लेकर अब तक बात करें तो, आजादी की लड़ाई के नेता भले ही पूरी तरह से गांधी-नेहरू बन गए। लेकिन, सच्चाई ये है कि जागी जनता को किसी नेता की जरूरत नहीं रही। बाद में जेपी आंदोलन के नाम से जो जाना गया वो, सत्ता परिवर्तन की लड़ाई भी तो, ऐसे ही शुरू हुई थी। आखिर में इसे बंदरों (नौजवानों) का आंदोलन समझने वाले जयप्रकाश नारायण को नेता बनकर आगे आने की जरूरत लगी। दरअसल अभी भी मसला वही है। परेशान देश झूठमूठ का आंख बंद करके सोने का नाटक करने से थक-पक चुका है। उसने आंखें खोल ली है। और, कोई नेता बनना चाहे तो, थोड़ा सा त्यागी बनकर इस अपार ऊर्जाशक्ति का नेता बन सकता है। इतिहास में अमर हो सकता है। लेकिन, मुश्किल यही है कि सरकार से लेकर राजनीति के हर पायदान पर नेता गायब हो गए हैं।



 
सरकार रही नहीं। कम से कम लोकतंत्र वाली तो रही नहीं। और, तानाशाह होने भर की ताकत नहीं है। ये बीच वाली सरकार है। बीच वाली मतलब समझ रहे हैं ना। वर्ना शांतिपूर्वक खड़े हजारों नौजवानों के बीच आने से ये भला क्यों डरते। जवाब ये है कि दिक्कत यहां है कि ये समझ ही नहीं रहे। ये समझ ही नहीं रहे कि क्रांति ऐसे ही होती है।

अंत में- वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने कॉस्टीट्यूशन क्लब में एक सवाल खड़ा किया था कि आखिर इस देश में सीमा पर लड़ने वाली सेना से ज्यादा आंतरिक सेना क्यों है। उसका जवाब मिल रहा है। यही सबसे बड़ा सवाल है इस देश के सामने। यही सबसे बड़ी दिक्कत भी है इस देश के सामने।

Saturday, December 22, 2012

क्रांति ऐसे ही होती है!

बड़े समय से ये बात कही जाने लगी थी कि उदारवाद/ग्लोबल विलेज की नीति के जमाने में भारत में पैदा हुए वर्ग की जवानी, मस्ती, मैकडोनल्ड, पिज्जा और डर्टी पिक्चर में ही बीतने वाली है। लेकिन, शायद ऐसा कहने वाले लोग ये भूले थे कि ऐसा होता नहीं है। हर आने वाली पीढ़ी पहले वाली से ज्यादा संवेदनशील, तेज और तरक्की पसंद होती है। हां, हो सकता है कि वो, बेवजह हर समय चौराहे पर नारे लगाते न दिखे। लेकिन, जब जरूरत पड़ेगी तो, निश्चित तौर पर वो, सड़क से संसद तक होगी और ज्यादा आक्रामक होगी। ये बात सरकारें भूल जाती हैं। या यूं कहें कि सत्ता में रहते-रहते उन्हें याद ही नहीं रहता कि सत्ता में आने का रास्ता क्या होता है। जनता क्यों सत्ता देकर मालिक बना देती है। वो, इसलिए तो, बिल्कुल नहीं कि दुष्कर्म के खिलाफ देश जब गुस्से में खड़ा हो तो, उस पर सरकार पानी की बौछार फेंके, आंसू गैस के गोले फेंके और लाठियां बरसाकर सर तोड़ दे।

जिस तरह से आज इंडिया गेट से रायसीना हिल्स तक गुस्से में नौजवान दिख रहा है। वो, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन के समय होने वाली आपसी चर्चा को बल देती दिख रही हैं। बात होने लगी है कि क्या अचानत जनता सरकार को जूतियाने के मन बना लेगी और सरकारी पुलिस के भरोसे बैठी सरकार का दम उसी के आंसू गैस के गोले से फूलेगा। कई दिनों से हम लोग ये चर्चा कर रहे थे कि दिल्ली में हुई वहशी दुष्कर्म के इतने बड़े मुद्दे पर अन्ना हजारे का अब तक कोई बयान नहीं आया लेकिन, आज का ये प्रदर्शन देखकर मुझे लगता है कि अन्ना हजारे तो प्रतीक भर थे। मनमोहन के उदारवाद वाली पॉकेट पॉलिटिक्स से उस दौर में पैदा हुआ नौजवान उकता गया है। उस बहाने पैदा हुए सिस्टम से उसे उल्टी आने लगी है। और, इसीलिए जरूरी ये है कि अन्ना से मिली ऊर्जा देश के नौजवान हर जगह का सिस्टम सुधारने में लगाएं। मुश्किल ये है कि ग्लोबलाइजेशन की नीति ने ऐसा हम सबको निकम्मा बना दिया था कि खून में भ्रष्टाचार घुसा सा दिखने लगा था। कई बार मैंने दिल्ली के रेडियो स्टेशनों पर अन्ना आंदोलन के समय ये बहस होते सुनी कि क्या बिना भ्रष्टाचार के हम जी भी सकते हैं। और, वो सब बड़े मजाकिया अंदाज में होता था।

विजय चौक पर रायसीना हिल्स को घेरे खड़े आंदोलनकारी
बड़ी मुश्किल तो ये होती है कि ऐसे आंदोलनों की समीक्षा इस तरह से होने लगती है कि इस आंदोलन की ताकत पिछले आंदोलन से ज्यादा थी या कम। अन्ना के आंदोलन में तो ये भी चर्चा होने लगी थी भ्रष्टाचार के खिलाफ ये लड़ाई सिर्फ सवर्ण लड़ रहे हैं। न पिछड़े हैं, न दलित हैं, न मुसलमान। खैर, बाद में ऐसा बोलने वालों की बुद्धि कुछ तो ठीक हुई ही होगी। और, सरकारों को डर भी लगने लगा था। लेकिन, इस सरकार को अब ज्यादा डरना चाहिए। क्योंकि, ये अब जागी जनता है। न इसे 'आप' की जरूरत है न किसी 'बाप' की। और, मुझे लगता है कि कल एक लड़की जिस तरह से राष्ट्रपति के गलियारे तक दौड़ती चली गई थी उससे लाल पत्थरों के भीतर बैठे लोग डरने लगे होंगे। और, आज सत्ता के असल प्रतीक रायसीना हिल्स- नॉर्थ, साउथ ब्लॉक और राष्ट्रपति भवन को जिस तरह से नौजवानों ने घेर रखा है उसने जरूर इन्हें ज्यादा डराया होगा।


Tuesday, December 18, 2012

फांसी!


ये मांग पहले भी उठी थी। लेकिन, दिक्कत तो ये है कि अतिमानवतावादी लोग तो, अब मृत्युदंड की सजा के ही खिलाफ दुनिया में मोर्चा मजबूत कर पा रहे हैं। ऐसे में ये मांग कितनी सफल हो पाएगी, पता नहीं लेकिन, इतना तो, तय है कि दिल्ली में जिस तरह से एक लड़के के साथ रहते कुछ कुकर्मियों ने उस लड़की के साथ दुष्कर्म किया उसके बाद निजी तौर पर मुझे लगता है कि सरकार को और न्यायपालिका को इस बारे में कुछ सोचना चाहिए कि इसकी सजा क्या मौत की सजा से कम हो सकती है। न्यायपालिका भी इसलिए जोड़ रहा हूं कि सरकार कैसे सोचती/करती है। वो, तो इसी से साफ हो जाता है कि दिल्ली में हुए दुष्कर्म के मुद्दे को बीजेपी ने सदन में उठाया तो, कांग्रेसी मंत्री राजीव शुक्ला की हंसी के साथ जवाब देने की कोशिश करते जो, तस्वीरें दिखीं उसने फिर ऐसा अहसास कराया कि हमारी सरकार तो, हर समय हमारे साथ दुष्कर्म कर रही है। और, ऐसा किया ये बताने पर हंस रही है।

इसी साल जुलाई में कुछ इसी किस्म की गुवाहाटी की घटना पता नहीं कितने लोगों को याद है। बड़ा हंगामा हुआ था। लेकिन, क्या सरकार की हनक वो बन रही है कि ऐसी घटनाएं न हों। मुंबई में 2007 की आखिरी रात की पार्टी के बाद की घटना तो, क्या लोगों को याद होगी। इसमें राजनीति ऐसी जुड़ी थी कि लगा कि मराठी मानुष ऐसे क्यों सोचता है।  वैसे, बड़ी विचित्र स्थिति होती है। दुष्कर्मी पुरुषों के पौरुष की पीड़ा उनको सत्कर्मी मानकर शादी के बंधन में बंधने वाली महिलाओं या प्राकृतिक संयोग से रिश्ते में आई महिलाओं को भी उतनी ही झेलनी होती है।

Wednesday, December 12, 2012

12 साल में कितना बदल गया हिंदू!

विश्व हिंदू परिषद याद है ना। अरे, वही इलाहाबाद वाले अशोक सिंघल जी जिसके अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे। अपना घर भी एक शोध संस्थान को दे दिया है। गजब के समर्पित व्यक्ति हैं। सिंघल  साहब के बाद गुजरात के एक डॉक्टर प्रणीण तोगड़िया उसकी कमान संभाल रहे थे। जरूरत से ज्यादा उग्रता लिए तोगड़िया साहब की अगुवाई में विहिप सबसे पहले तो, गुजरात से ही गायब हो गया। कहा जाता है कि गुजरात में हुए दंगों में मोदी सरकार से ज्यादा भूमिका विश्व हिंदू परिषद की थी। खैर, ये नरेंद्र मोदी का कमाल था। मोदी ने सिर्फ विपक्षी राजनीतिक दलों को ही नहीं। अपने विचार से जुड़े संगठनों को भी सत्ता के रास्ते में रोड़ा बनने पर उखाड़ना शुरू कर दिया। लेकिन, ये अचानक मैं क्यों याद कर रहा हूं। दरअसल एक समय में राम मंदिर आंदोलन या देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीतिक हावी हुई तो, विहिप, बजरंग दल में काम करने वाले बीजेपी से भी ज्यादा उसकी राजनीति में प्रभावी दिखने लगे। कई भगवाधारी बाबा विहिप के प्रभाव से लोकसभा, विधानसभा का टिकट पाकर वहां भी धर्म ध्वजा फहराने लगे।


महाकुंभ 2013 का प्रतीक चिन्ह
दरअसल ये अचानक मुझे याद इसलिए आया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद महाकुंभ 2013 का लोगो जारी किया है। हालांकि, इसमें महाकुंभ होने जैसा कहीं से भी दिख नहीं रहा है। क्योंकि, कुंभ तो, हर साल होता है। जबकि, महाकुंभ हर 12 साल पर होता है। प्रयाग के 2001 वाले महाकुंभ से मैं शुरुआती दिनों  वाले पत्रकार के तौर पर जुड़ा था। और, मुझे याद है कि सुबह के स्नान से रात की लीला के कवरेज करने के अलावा एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था। विश्व हिंदू परिषद का पंडाल। उसी पंडाल में 2001 के महाकुंभ में धर्म संसद हुई थी। बड़ी महत्वपूर्ण धर्म संसद थी। मुझे याद है कि मैंने धर्म संसद पर दूसरे पत्रकारों की तरह नजर गड़ा कर रखी थी। महत्वपूर्ण साधु-संतों महंतों का जमावड़ा विश्व हिंदू परिषद के पंडाल में लगा रहता था। लेकिन, 2013 के महाकुंभ में शायद ही किसी को विहिप के पंडाल की उतनी फिक्र बने। शायद ही कोई धर्म संसद हो और अगर हो भी तो, शायद ही उसका कुछ असर प्रदेश, देश की राजनीति पर बन पाए। वजह क्या हो सकती है। 12 साल में इतनी जबरदस्त अप्रासंगिकता। कहा जाता है कि समय के साथ सबको चलना ही होता है अगर, समय के साथ याद रहना है तो। नरेंद्र मोदी से बेहतर उदाहरण शायद ही इस बात का कोई हो। नरेंद्र मोदी हिंदू हृदय सम्राट थे। 11-12 सालों में मोदी विकास के प्रतीक बन गए। इसका चुनावी परिणाम तो, 20 दिसंबर को ही पता चलेगा। लेकिन, सर्वे-संकेत तो, मोदी की शानदार जीत की बात कह रहे हैं। और, इलाहाबाद के अखबारों में विहिप की खबर कहीं नहीं हैं। हां, नए महामंडलेश्वरों के अलग नगर बसाने की खबर जरूर है। सही है गंगा, यमुना, सरस्वती में 12 साल में बड़ा पानी बह गया।

Tuesday, December 11, 2012

रिश्वत लेने-देने में बुराई क्या है?

कौशिक बसु किसी को याद हैं क्या? अरे वही वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार जो, अब विश्व बैंक में यही काम कर रहे हैं। उन्होंने एक प्रस्ताव दिया था कि रिश्वत देने को कानूनी कर दिया जाए। उस समय उनके प्रस्ताव का बड़ा मजाक बना था। लेकिन, अब लग रहा है कि मल्टीब्रांड रिटेल में #FDI लाने में लगी सरकार वॉलमार्ट के बहाने देश में ये पुण्य कार्य भी कर ही डालेगी। खैर, सरकार मुझे लगता है कि एक हाथ आगे जाएगी। कौशिक बसु का प्रस्ताव ये था कि रिश्वत देने को कानूनी कर दो। लेकिन, रिश्वत लेने वाले को पकड़ो इसमें मदद ये होगी कि रिश्वत देने वाला कानूनी छूट मिलने से रिश्वत लेने वाले को पकड़वाने में मदद करेगा। इसी प्रस्ताव का समर्थन इंफोसिस के चेयरमैन नारायणमूर्ति ने भी किया था। अब ये अलग बात है कि इसका खतरा ये कि काम बन गया तो, रिश्वत देने वाला किसी को बताएगा नहीं। और, काम कुछ गड़बड़ हुआ तो, पुलिस में रपट। खैर, सरकार मुझे लगता है कि विकसित होने का ये अवसर छोड़ेगी नहीं।

अमेरिका और वॉलमार्ट दोनों ये बता चुके हैं कि उनके कानून के मुताबिक, लॉबीइंग या रिश्वत गलत नहीं है। भले ही इस आरोप में जांच भी वही लोग कर रहे हैं। इंडिया CFO भी निलंबित कर दिया है। अपनी सरकार अपमानित सा महसूस कर रही है। लग रहा है कि क्या बात है हम ऐसे कैसे विकसित हो पाएंगे अगर विकसित देशों जैसे कानून भी हमारे यहां लागू नहीं हुए। तो, माना जाए कि नॉर्थ ब्लॉक से भले देश की नीति बदलने में कौशिक बसु का प्रस्ताव उपहास बन गया। अब विश्वबैंक में बैठकर बसु को मुस्कुराने का मौका मिलने ही वाला है। कानून न जाने के बाद ये तय हो जाएगा कि रिश्वत लेना-देना बुरा नहीं है। बस उसका हिसाब संसद में और कमीशन बाहर सलीके से दे दो। #BRIBE #WALMART #RETAIL

Saturday, December 01, 2012

संपादकीय सत्ता!

सुधीर चौधरी और समीर अहलूवालिया की गिरफ्तारी मीडिया के हित में है या लंबे समय में सरकार इसे ही 'आधार' (वो, वाला आधार नहीं जिससे सब्सिडी सीधे खाते में मिलेगी, वो, वाला आधार जिससे मीडिया को सब्सिडाइज्ड करने में मदद मिलेगी) बनाकर संपादक, संपादकीय सत्ता, मीडिया को निपटाने का प्रयास करेगी। सुधीर चौधरी के कृत्य पहले से इतने जगजाहिर हैं कि चाहकर भी कोई पत्रकार उधर खड़ा शायद ही दिखे। फिर BMW से चलने वाला संपादक बनने के बाद शायद सुधीर ने दूसरे पत्रकारों-संपादकों को कुछ अजीब किस्म का जंतु भी समझ लिया होगा। उसका भी दुष्परिणाम है कि एक भी व्यक्ति कम से कम सुधार के पक्ष में बात करने से रहा।

अपुष्ट खबरें ये भी आ रही हैं कि जिस सौदे को 100 करोड़ ले जाने के चक्कर में ये जेल चले गए। उस खबर पर कहीं-कहीं 20-25 करोड़ बन भी गए। इस सवाल का बस जवाब मिलना मुश्किल हो रहा है कि अभी सफाई कितनी और कैसे हो कि संपादक, प्रेस की व्यक्ति हित नहीं देश हित वाली सत्ता की छवि लौट पाए। एक विकल्प ये था कि जी ग्रुप विचारे और साफ सुथरी छवि वाले संपादक लाए। लेकिन, मुश्किल तो, ये है कि अगर खुद जी के लिए ही ये दोनों रणबांकुरे संपादक सारी कसरत कर रहे थे। तो, जी किनारा कैसे कर लेगा। डर है तो, बस इसी बात का कि छोटी दलाली के लिए छुटभैये चैनलों की कुछ दिनों की दलाली और फिर बंदी से पहले ही मीडिया की विश्वसनीयता खतरें में थी। और, मीडिया में भी अजीब सा ठहराव है। पत्रकार पूरी तरह से नौकरी ही करने लगे हैं। ऐसे में अगर कहीं जी जैसा बड़ा ग्रुप खबर छोड़ कुछ और करने लगा या फिर निपट गया तो, वैश्विक मंदी के दौर में क्या हो सकता है। ढेर सारे सवाल हैं जिसका जबाव खोजना, समझना मुश्किल है। सुधीर के जेल जाने की खबर पर कुछ प्रतिक्रिया मैंने फेसबुक पर दी थी उसको भी यहां चिपका रहा हूं। शायद कुछ और साफ हो सके


Gd news for media. Sudheer chaudhari & sameer ahluwalia arrested. Hope now zee find out any credible editor. #yellowjournalism #media #Coal

बिकने वाले या बिके हुए ये तो, बड़े कम पत्रकार अभी भी हैं। अभी एक दिन एकदम से इलाहाबाद से दिल्ली आया एक पत्रकार मिला। जिसे मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी पढ़ाया भी था। उसने कहा कि सर अब मैं यहां काम कर रहा हूं तो, समझ में आ रहा है कि ...जैसा मीडिया दिखता है वैसा है नहीं। सच्चाई भी यही है। लेकिन, मैंने उससे यही कहाकि तुम कम से कम ये मत सोचो डेढ़ दशक के बाद मुझमें ये वृत्ति या मुझसे वरिष्ठों में ये वृत्ति आए तो, समझ में आती है लेकिन, कम से कम तुम लोग इस वृत्ति को पीट के पटरा कर दो। पत्रकारिता चल रही है चलेगी जब ज्यादा दलाल बढ़ेंगे तो, ऐसे ही पुलिस उनके चेहरे लाल करेगी तो, मेरा और हर सही पत्रकार का चेहरा खुशी से लाल होगा। और, ये बेहूदगी की बात है कि जिसे मौका नहीं मिला वही ईमानदार है। दूसरों पर ईमानदारी का दबाव बनाने में भले धीरे-धीरे कमी आती हो लेकिन, ज्यादातर पत्रकार अभी भी दमदार हैं। कम से कम मैं जितने भी लोगों के साथ अखबार-टीवी में काम करके आया हूं। उस अनुभव के आधार पर।


एक समय में हिंदी में विश्वसनीय खबरों और सिर्फ खबरों का चैनल जी न्यूज और ग्रुप का दूसरा जी बिजनेस आज ब्लैकमेलिंग मामले में अपने संपादकों की गिरफ्तारी पर सफाई के लिए मीडिया के सामने एक ढंग से विश्वास के साथ हिंदी बोलने वाला व्यक्ति नहीं खोज पाया। सफाई के लिए मीडिया के सामने आए आलोक अग्रवाल जो, पता चला CEO हैं। हिंदी पत्रकारों के सवालों के जवाब या जी की सफाई मांगने पर दाएं-बाएं देखने लगे। फिर अनुवादित हिंदी में पक्ष रखा। लेकिन, पत्रकारों को ये हिदायत की भरोसा अंग्रेजी वाली रिलीज पर ही करना। वाह रे हिंदी ..... मीडिया में ... #ZEENEWS #YELLOWJOURNALISM #MEDIA #COALGATE #MEDIAGATE


और, कोई वजह होती तो, सरकारी दमन के खिलाफ अपने संपादकों के साथ किसी मीडिया हाउस का खड़े होना पत्रकारीय मानदंडों को और ऊपर उठाता। लेकिन, अभी जी ग्रुप अगर इसी तरह अड़ा रहा तो, शायद पत्रकारीय मनदंड धव्स्त ही हो जाएंगे। #zeenews #yellowjournalism #media


मैं निजी तौर पर बेहद खुश हूं कि दलाली के जरिए पत्रकारिता में किस ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता है और वहां क्या हश्र होता है ये साफ हुआ है। क्योंकि, हम तो सीधे पत्रकारिता करके ही कितनी भी ऊंचाई तक जा सकते हैं और शायद दलाल पत्रकारिता के दौर में थोड़ा मुश्किल हो रहा था हमारे जैसों का ज्यादा ऊंचा जाना। मुझे अपने ऊंचे-नीचे जाने से कोई खास परेशानी नहीं है। परेशानी ये है कि मीडिया के शिखर पर दलालों का समूह सम्मान पाने लगा है। शायद ये खत्म होगा या थोड़ा तो, कम होगा ही। #yellowjournalism #media #Coal



 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...