Monday, December 28, 2015

पट्टीदारी की झगड़ा ऐसे ही सुलझता है

शहरों में बसते जा रहे भारत के नौजवानों को ये बात शायद ही समझ में आएगी। क्योंकि, शहरी इंडिया के पास तो पड़ोसी से झगड़ा करने की छोड़ो उससे जान-पहचान बढ़ाने के लिए भी शायद ही वक्त होता है। इसलिए गांव में पट्टीदारी के झगड़े में एक—दूसरे की जान लेने पर उतारू लोग और अचानक एक-दूसरे को भाई बताने वाली बात कम हो लोगों को समझ आएगी। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देते-देते अचानक उनके घर पहुंचने और फिर उनकी नातिन के निकाह में शामिल हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे वही गांव-घर वाली पट्टीदारी याद दिला दी है। पट्टीदारी मतलब की पीढ़ी पहले एक ही रहे लोगों के बढ़ते परिवार का गांव में एक साथ रहना। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का हाल भी तो कुछ इसी तरह का है। गांव में ऐसे ही भाई-भाई के बीच बंटवारा होता है। पीढ़ियां बढ़ते बंटवारा भी बढ़ता जाता है। और इस बढ़ते बंटवारे के साथ घटता जाता है एक दूसरे से प्रेम। घटती जाती है संपत्ति। फिर बढ़ता है झगड़ा। और फिर एक दूसरे की जान लेने से भी नहीं चूकते हैं गांववाले। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का हाल भी 1947 के बाद से कुछ ऐसा ही रहा है। जाहिर है हिंदुस्तान बेहतर हो गया। ज्यादा तरक्की कर गया। पाकिस्तान अपने नालायकों को काम में नहीं लगा सका। तो बड़े भाई की तरक्की से जलन बढ़ती चली गई। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के मामले में ये जलन बढ़ने की बड़ी वजह हिंदू होना और मुसलमान होना हुआ। और ऐसा हुआ कि लगने लगा कि ये झगड़ा कभी सुलझ नहीं सकता। अभी भी यही लग रहा है कि ये झगड़ा कभी नहीं सुलझेगा। भले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के घर तक बिना किसी औपचारिक कार्यक्रम के भारतीय प्रधानमंत्री चले गए हों। भले नवाज की नातिन की शादी में उसे आशीर्वाद, तोहफे भी दे आए हों। लेकिन, हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा जिस तरह का है। वो इसी तरह की गैरपरंपरागत सोच से सुधर सकेगा।

भारतीय प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का होना पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए शायद सबसे माकूल हो सकता है। पाकिस्तान की नजर में देखें, तो उनके लिए नरेंद्र मोदी सबसे बड़े दुश्मन चेहरे के तौर पर दिखते हैं। ये वो चेहरा है जिसे दिखाकर हाफिज सईद जैसे आतंकवादी पाकिस्तान के लोगों को हिंदुस्तान के खिलाफ लड़ने के लिए आसानी से तैयार कर पाते हैं। मोदी के दौरे के बाद हाफिज सईद ने तुरंत जहर उगला कि इस यात्रा ने पाकिस्तान की आम जनता का दिल दुखाया है। मोदी का तहेदिल से स्वागत करने के नवाज शरीफ को पाकिस्तान की जनता को सफाई देनी चाहिए। निश्चित तौर पर पाकिस्तान की जनता के मन में हिंदुस्तान के लिए ऐसे बुरे ख्यालात बिल्कुल नहीं हैं और न ही हिंदुस्तान की जनता के मन में ऐसे बुरे ख्यालात पाकिस्तान की जनता के लिए हैं। एक छोटा सा मौका बनता है और दोनों देशों के लोग अपनी पुरानी यादें लेकर बैठ जाते हैं। लेकिन, ज्यादा तनाव के माहौल में हमें वो आवाज तेज सुनाई देती है। जो गोली चलवा देता है। ऐसे में हाफिज सईद जैसे आतंकवादियों की नजर से पाकिस्तान के उसी सबसे बड़े दुश्मन चेहरे का बिना किसी औपचारिक बुलावे के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के घर नातिन की शादी में पहुंचना हाफिज सईद जैसों की आतंकवादी, अलगाववादी बुनियाद पर तगड़ी चोट करता है। हालांकि, इस अप्रत्याशित, अनौपचारिक लाहौर यात्रा का कांग्रेस का विरोध परेशान करता है। कांग्रेस बार-बार यही तो चिल्लाकर कहती रही है कि बीजेपी आएगी, तो पाकिस्तान के साथ जंग करेगी। और जंग हिंदुस्तान के हक में नहीं है। अब कांग्रेस कह रही है कि नरेंद्र मोदी की ये यात्रा एक कारोबारी के हितों को बेहतर करने की है। न कि भारत के हितों को बेहतर करने की। अब ये तो हो सकता है कि कोई कारोबारी नवाज शरीफ से मुलाकात कराने में माध्यम बना हो। लेकिन, ये कौन यकीन मानेगा कि इस तरह की यात्रा किसी कारोबारी के हित को बेहतर करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। जनता दल यूनाइटेड और आम आदमी पार्टी की प्रतिक्रिया भी इस गैरपरंपरागत राजनय पर बेहद परंपरागत रही। दोनों ने ही इसकी आलोचना की है और प्रधानमंत्री मोदी पर व्यंग्य किया है। विदेश नीति के मामलों में शिवसेना की प्रतिक्रिया पर कान देना उचित कम ही लगता है। अच्छी बात ये है कि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस पर प्रधानमंत्री की तारीफ की है। इस मामले में संतुलित प्रतिक्रिया रही है वामपंथी पार्टियों की। मोहम्मद सलीम और सीताराम येचुरी दोनों ने ही प्रधानमंत्री के इस दौरे को बेहतर कहा है। लेकिन, सभी को इस बात की आशंका है कि ये कहीं फोटो अपॉर्चुनिटी ही बनकर न रह जाए। और ये आशंका बेवजह है भी नहीं। लेकिन, इतनी आशंकाओं के बीच अगर ये दौरा हो गया, तो निश्चित तौर पर भविष्य के ये सुखद संकेत हैं।

नवाज शरीफ के जन्मदिन की बधाई इसका माध्यम बन गई। संयोग से नवाज भी उसी दिन जन्मे हैं जिस दिन भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को सुधारने का बेहतर अध्याय लिखने की कोशिश करने वाले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन रहा। संयोग ये भी है कि पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का भी जन्मदिन यही है। इस पर तरह-तरह की आ रही प्रतिक्रियाओं के बीच सोशल मीडिया पर एक वीडियो गजब वायरल हुआ है। इसमें एक पाकिस्तानी चैनल की न्यूज एंकर इस दौरे पर रिपोर्टर से सवाल पूछती है। रिपोर्टर इसे एक बड़ी दुर्घटना जैसा बताता है। तौबा तौबा से रिपोर्टर अपने लाइव की शुरुआत करता है। खत्म भी वहीं करता है। दरअसल ये उस जड़ भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को भी दिखाता है। जिसमें ऐसे किसी भी राजनयिक रिश्ते के लिए जगह ही नहीं है। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह से गैरपरंपरागत राजनय के लिए जाने जा रहे हैं। इसकी शुरुआत उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को शपथ ग्रहण में आमंत्रित करके कर दी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने एक समय अलगाववादी रहे सज्जाद लोन से मुलाकात करके और बाद में उसे पीडीपी-बीजेपी की सरकार में मंत्री बनवाकर भी इसी तरह के गैरपरंपरागत राजनय का उदाहरण दिया था।

जिस परंपरागत खांचे में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के रिश्ते को देखा जाता है और माना जाता है कि दोनों देशों के रिश्ते कभी ठीक नहीं हो सकते। वही परंपरागत खांचा ये भी कहता, साबित करता था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जम्मू कश्मीर में कभी नहीं बन सकती और वो भी पीडीपी के साथ तो कभी नहीं। लेकिन, ये हुआ। भारतीय राजनीति के लिहाज से मुख्यत: हिंदुओं की पार्टी बीजेपी और मुख्यत: मुसलमानों की पार्टी पीडीपी की साझा सरकार जम्मू कश्मीर में बन गई। बीच-बीच में आ रही मुश्किलों के बावजूद काम भी कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस दौरे को पाकिस्तान में काफी तारीफ मिल रही है। बिलावल भुट्टो ने भी इसे अच्छा कदम बताया है। पाकिस्तान के मीडिया ने भी इसे सराहा है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि अमेरिकी मीडिया में भी इसे सकारात्मक कहा जा रहा है। चौंकाने वाला मैं इसलिए कह रहा हूं कि बार-बार यही कहा जाता है कि अमेरिका ही है, जो नहीं चाहता कि भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सामान्य रहें। अब अगर ये अमेरिकी दबाव है कि मोदी-शरीफ मिल रहे हैं, तो इसे क्या कहा जाएगा। यही न कि हमारी जरूरत अब अमेरिका की भी जरूरत बन रही है। आलोचना के लिए भले कांग्रेस इस दौरे की आलोचना कर रही है। लेकिन, ये आलोचना दरअसल इसलिए भी है कि मोदी का ये दौरा यूपीए सरकार के दस सालों की विफलता को और साफ तरीके से देश के लोगों को दिखा रहा है। दस साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद विनम्र मनमोहन सिंह पाकिस्तान नहीं जा सके। तथ्य ये भी है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह का जन्मस्थान पाकिस्तान में ही है। जबकि, भारतीय जनता पार्टी और अभी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो आक्रामक शैली के नेता हैं। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी के बाद मोदी ही पाकिस्तान जा पहुंचे। और ये इतना भी अनायास नहीं था। इससे पहले दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बैंकॉक में मिल चुके हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान जा चुकी हैं। विदेश मंत्रालय के पत्रकारों को दिए भोज में सुषमा स्वराज ने हम पत्रकारों को बताया कि कैसे नवाज की मां ने कहा कि बेटी तू मुझसे कम से कम वादा करके जा कि भारत पाकिस्तान के रिश्ते की गाड़ी पटरी पर ले आएगी।


हिंदुस्तान में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री होना अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री होने से भी माकूल वजह है। पूर्ण बहुमत की सरकार है। संसद के अलावा देश में भी मोदी के समर्थक ऐसे हैं कि उन्हें भक्त कहा जा रहा है। पाकिस्तान को इस लिहाज से समझना जरूरी है कि रावण की तरह पाकिस्तान के भी दस सिर हैं। इसलिए जहां नवाज शरीफ से इस तरह की बातचीत जरूरी है। वहीं आतंकवाद, उग्रवाद वाले चेहरों से उसी भाषा में निपटना भी पड़ेगा। इसके भी संकेत लाहौर जाने के कुछ ही घंटे पहले काबुल में वहां की संसद का उद्घाटन करते प्रधानमंत्री मोदी ने दे ही दिए थे। अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर अजित डोभाल की मौजूदगी पाकिस्तान की गलत हरकतों से भारत की सुरक्षा को आश्वस्त करती है। और पाकिस्तान को डराती भी है कि ये हमारी हरकतों के बारे में सब जानता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो भारतीय प्रधानमंत्री पाकिस्तान की धरती पर पाकिस्तानी सेना के हेलीकॉप्टर में नहीं यात्रा करते। इस यात्रा के बाद विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप का ट्वीट काफी कुछ कहता है। विकास स्वरूप ने लिखा- काबुल में सुबह का नाश्ता, लाहौर में चाय और दिल्ली में रात का खाना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनय के अनूठे दिन को पूरा करके वापस लौटे। और यही तो प्रधानमंत्री रहते डॉक्टर मनमोहन सिंह ने सपना देखा था। फिर से कह रहा हूं ये पट्टीदारी का झगड़ा है। ऐसे ही सुलझेगा। इस मसले पर ऑस्ट्रेलिया के SBS रेडियो ने भी मुझसे फोन पर बातचीत की।

Saturday, December 19, 2015

सम्वेदनहीन विपक्ष

#JyotiSingh #JusticeForNirbhaya #JusticeJuvenileDebate लोकसभा टीवी पर चर्चा में शामिल हुआ। विषय था कि विपक्ष ने कांग्रेस की अगुवाई में राज्यसभा के बचे 3 दिन में जरूरी बिल की मंजूरी की इजाजत दे दी है। चर्चा में जाने से पहले जब इस पर पढ़ा, तो भौंचक रहा गया। सहमति के बिलों में कई महत्वपूर्ण बिल थे ही नहीं। सबसे दुखद सम्वेदनहीन रवैया रहा सांसदों का The Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Bill, 2014 पर। ये वो बिल है जो 16-18 साल के किसी युवक-युवती के अपराधी होने पर उनके खिलाफ भी वयस्कों के यानी देश के सामान्य कानून के लागू होने की बात करता है। लेकिन, सरकार की लगातार कोशिश के बावजूद कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष पता नहीं क्यों इस बिल को मंजूरी देने के बजाए इसे फिर से सेलेक्ट कमेटी को भेजना चाहता है। अगर ये बिल मंजूर हो जाता तो निर्भया का बलात्कारी/हत्यारा जेल से नहीं छूटता। ये देश के सांसदों की संवेदनहीनता है। उस पर दिल्ली पुलिस ने कमाल किया है कि बेटी के बलात्कारी/हत्यारे को छोड़ने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे ज्योति सिंह के माता-पिता को गिरफ्तार कर लिया। दुर्भाग्य है देश का। ज्योति के माता-पिता ने कहा है कि हम हार गए, वो जीत गया। मुझे लगता है कि सचमुच हम हार रहे हैं। 16 दिसंबर के बाद एक चैतन्य दिखा देश हार रहा है। स्वस्थ समाज हार रहा है। इस हार को जीत में बदलना जरूरी है। हिंदुस्तान की आत्मा जीवित रहे। इसके लिए जरूरी है। हर हाल में जरूरी है। कुछ सांसदों को उनकी पार्टी को जीवित रखने के लिए देश की आत्मा को मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

Wednesday, December 09, 2015

सिर्फ दिखावे का न रह जाए कारों पर रोक का फैसला

नए साल की नई सुबह दिल्लीवालों के लिए अजीब सी मुश्किल लेकर आएगी। अरविंद केजरीवाल की सरकार ने अभी एक फैसला लिया है। या यूं कहें कि फैसला लेते हुए दिखना चाहती है अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार। दिल्ली की सरकार ने एक जनवरी 2016 से दिल्ली की सड़कों पर कारों की संख्या घटाने के लए एक सबसे आसान तरीका लागू करने का फैसला किया है। वो फैसला है कि सम-विषम संख्या पर खत्म होने वाली कारों को अलग-अलग दिन चलने की इजाजत होगी। दिन भी तय हो गए हैं। शून्य, दो, चार, छे, आठ पर खत्म होने वाली कारें मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को चलेंगी। जबकि, एक, तीन, पांच, सात और नौ पर खत्म होने वाली कारें सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को चल पाएंगी। रविवार को सभी को कार चलाने की इजाजत होगी। ये फैसला अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली के बेहद खतरनाक हो चुके प्रदूषण को कम करने के लिए किया है। फिर मैं क्यों कह रहा हूं कि केजरीवाल की सरकार सिर्फ अच्छा फैसला लेते हुए दिखना चाहती है। मैं क्यों अरविंद के इस फैसले के साथ पूरी मजबूती से खड़ा नहीं हो रहा। दरअसल, ये फैसला लागू हो ही नहीं सकता। ये समझ में आने की ही वजह से शायद अब केजरीवाल ने ये कहा है कि अगर लोगों को परेशानी होगी, तो वो फैसला वापस ले लेंगे। सच्चाई ये भी है कि इस पर फैसला लेने में जितनी देरी हुई है। उसके लिए दिल्ली की राज्य सरकार के साथ केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है। कारों की संख्या सीधे-सीधे घटाकर शायद ही दिल्ली के खतरनाक हो चुके प्रदूषण को सरकार इतनी तेजी से कम कर पाए। उसके लिए जिस तरह की योजना बननी थी। वो नहीं बनाई गई। कमाल तो ये है कि अभी दिल्ली सरकार के फैसले को देर आए दुरुस्त आए नहीं कह सकते। दिल्ली में प्रदूषण की असली वजह पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर का बढ़ना है। 2.5 माइक्रोमीटर से छोटे कण स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक होते हैं। और इसी की दिल्ली की हवा में अधिकता हो गई है।

अच्छी स्वस्थ हवा के लिहाज से समझें, तो पीएम 2.5 का शून्य से पचास तक होना बहुत अच्छा होता है। पचास से सौ के बीच में होना भी हवा के लिए अच्छा ही है। पीएम 2.5 के सौ से एक सौ पचास के बीच में होने का मतलब है कि बुजुर्गों, बच्चों और बीमार लोगों के लिए हवा मुश्किल बढ़ाएगी। एक सौ पचास से दो सौ के बीच अगर हवा में पीएम 2.5 हैं, तो इसका सीधा सा मतलब हुआ कि इस हवा में स्वस्थ रहने की गुंजाइश कम है। दो सौ से तीन सौ के बीच पीम 2.5 का होना स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। जबकि, तीन सौ के ऊपर मतलब सिर्फ और सिर्फ बीमारियां देने वाली हवा। और दिल्ली की हवा बेहद खराब है ये जानने-समझने वाले भी शायद ही जानते-समझते होंगे कि दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 की मात्रा तीन सौ के ऊपर है। और वो भी लगातार। फिलहाल इसके कम होने के संकेत भी कम ही हैं। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि मुंबई शहर में भी हवा में पीएम 2.5 की मात्रा दो सौ से तीन सौ के बीच है। अब फिर से बात दिल्ली में लागू होने वाले कार प्रतिबंध की। वैसे तो प्रदूषण घटाने के लिए किसी भी अप्रिय फैसले का स्वागत होना चाहिए। लेकिन, थोड़ा समझना जरूरी है कि कारों पर सम-विषम वाला प्रतिबंध लगाने से कितना फायदा होगा और कितनी मुश्किलें लोगों को झेलनी होंगी। मुंबई में मार्च 2015 तक के आंकड़ों के मुताबिक 25 लाख से ज्यादा मोटरसाइकिल और कारें हैं। यानी दो करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले मुंबई की आदत सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने की बहुत अच्छी है। ये अलग बात है कि मुंबई की लोकल में लटकते दिखते लोग साफ बताते हैं कि मुंबई का सार्वजनिक परिवहन लगातार बढ़ते दबाव को झेल नहीं पा रहा है। इस पचीस लाख में कारें सिर्फ आठ लाख हैं। बाकी दोपहिया वाहन हैं। मुंबई में जगह की कमी से इतनी मोटरसाइकिल और कारों को झेलना ही शहर के लिए मुसीबत बन रहा है। मुंबई में हवा में प्रदूषण का स्तर दो सौ से तीन सौ के बीच में रह रहा है। और ये भी चार पहिया या दोपहिया का मोह मुंबईकर में हाल ही में तेजी से बढ़ा है। वो भी तब जब मेट्रो भी एक रास्ते पर मुंबई में भी पहुंच गई है। मुंबई की लोकल में पहले से बेहतर हवादार और ज्यादा लोगों को ले जाने वाले डिब्बे लग गए हैं। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि लंबे समय से सार्वजनिक परिवहन के लिए मशहूर मुंबई के लोगों को भी अब सार्वजनिक परिवहन में यात्रा कर पाना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि, सार्वजनिक परिवहन की जबर्दस्त मारामारी के बाद भी अब उसमें यात्रा कर पाना ही संभव नहीं रहा। इसलिए इस बात को सफाई से समझना होगा कि कारों की संख्या या फिर दोपहिया वाहनों की संख्या बढ़ने का सीधा सा मतलब ये तो हो सकता है कि शहर में सार्वजनिक परिवहन की पूरी व्यवस्था नहीं है। लेकिन, इसका दूसरा पहलू ये भी हो सकता है कि उस शहर विशेष में उससे ज्यादा सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था कर पाना ही संभव नहीं है। मुंबई शहर के उदाहरण से इसे बेहद आसानी से समझा जा सकता है।

इसी को थोड़ा और अच्छे से समझने के लिए मुंबई से सिर्फ डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे शहर की स्थिति भी समझने की कोशिश करते हैं। पुणे शहर बड़े शहरों में वायु प्रदूषण के लिहाज से रहने के लिए सबसे बेहतर शहरों में है। उस पुणे शहर में कार-दोपहिया वाहनों की संख्या मुंबई से ज्यादा हो गई है। यहां करीब इकतीस लाख वाहन हैं। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि सिर्फ कार-मोटरसाइकिल कम कर देने से हवा में प्रदूषण इतना कम नहीं होने वाला। हां, पुणे में मुंबई के लिहाज से रहने वालों की संख्या और जगह का फर्क बहुत ज्यादा है। पुणे मुंबई के लिहाज से ज्यादा बड़े क्षेत्रफल में बसा हुआ है। पुणे 710 वर्ग किलोमीटर में बसा है। जबकि, शहर की कुल आबादी एक करोड़ से भी कम है। क्षेत्रफल के लिहाज से मुंबई सिर्फ 603 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बसी हुई है। लेकिन, यहां की आबादी सवा दो करोड़ से ज्यादा है। इसी से समझा जा सकता है कि मुंबई के लोगों के पास इतनी कम जगह में अपना वाहन रखने का विकल्प ही नहीं है। दिल्ली 1484 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। और यहां की आबादी एक करोड़ अस्सी लाख से ज्यादा है। दिल्ली के इतने बड़े क्षेत्रफल के कारण ही यहां लोगों को अपना वाहन रखना जरूरी लगने लगता है। हां, दिल्ली का खराब सार्वजनिक परिवहन होना भी इसकी एक बड़ी वजह है। हालांकि, मेट्रो आने के बाद ये सुधरा है। दरअसल यही सबसे बड़ी वजह है कि व्यवस्थित शहर की परिकल्पना हमने की ही नहीं है। इसीलिए अभी भी ये मुश्किल खत्म करने के बजाए सरकारें सिर्फ इस खतरे को थोड़ा और सरकाने तक ही फैसले ले रही हैं।

इसको थोड़ा और समझते हैं। अब अगर मुंबई के मुकाबले दिल्ली की बात करें, तो दिल्ली में हवा में प्रदूषण का स्तर तीन सौ से चार सौ के बीच है, जो बेहद खतरनाक है। और यहां कुल वाहनों की संख्या करीब नब्बे लाख है। ये संख्या कार और दोपहिया मिलाकर है। इसमें सिर्फ कारें ही तीस लाख हैं। इसका कतई ये मतलब नहीं है कि दिल्ली के लोग सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करना पसंद नहीं करते। दरअसल दिल्ली की बसों की सेवा ही इतनी खराब है। और दिल्ली के ऑटो और मुंबई के ऑटो-टैक्सी के अंतर पर किस्से तो सब जानते ही हैं। जैसे ही दिल्ली वालों को सार्वजनिक परिवहन का एक बेहतर विकल्प मेट्रो के तौर पर मिला। दिल्ली की ज्यादा मेट्रो लाइनों पर यात्रियों की संख्या अपनी क्षमता से ऊपर यात्रियों को लाने-ले जाने का जरिया बन गई। यानी दिल्ली की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इतनी दुरुस्त नहीं है। अब ऐसे में अचानक प्रदूषण घटाने के लिए लिया गया कारों पर प्रतिबंध का ये फैसला तुगलकी फैसले की ही श्रेणी में आता दिख रहा है।


कारों पर प्रतिबंध लगाकर प्रदूषण कम करने के सरकार के फैसले को चुनौती ऑटो इंडस्ट्री के लोग देने लगे हैं। सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति के चेयरमैन आर सी भार्गव का कहना है कि उनकी पेट्रोल कारें ना के बराबर ही पीएम 2.5 निकालती हैं। अलग-अलग समय पर आए शोध भी साफ कहते हैं कि दिल्ली के प्रदूषण में भागीदारी कारों के धुएं की बहुत कम है। मई 2014 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिल्ली को दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बता दिया था। वायु प्रदूषण बढ़ाने में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी सड़कों की धूल और एनसीआर क्षेत्र में हो रहे धुआंधार रियल एस्टेट कंस्ट्रक्शन की है। पचास प्रतिशत वायु प्रदूषण इसी वजह से है। एनसीआर क्षेत्र में हजारों रियल एस्टेट प्रोजेक्ट हैं। जो लगातार बढ़ते जा रहे हैं। सबसे खतरनाक बात ये है कि नियम कानून को ताकत पर रखकर तैयार हो रहे ये घर दरअसल मांग से बहुत ज्यादा हैं। ये इससे समझ में आ जाता है कि सिर्फ नोएडा में ही करीब डेढ़ लाख घर हैं जिनके खरीदार नहीं हैं। लेकिन, बिल्डर नए प्रोजेक्ट की शुरुआत करते हुए घर खरीदने वालों को फंसाता जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा सके, तो बहुत बड़ी कामयाबी वायु प्रदूषण रोकने में मिल सकती है। वायु प्रदूषण में तेईस प्रतिशत हिस्सेदारी उद्योगों की है। वायु प्रदूषण के अलावा ये उद्योग ही हैं। जिनकी वजह से यमुना काली हो गई है। अब बात गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण की। ये करीब सात प्रतिशत है। और ये पूरी सात प्रतिशत सिर्फ निजी कारों या दोपहिया से होने वाला वायु प्रदूषण नहीं है। इसमें बस, ट्रक, टैक्सियां भी शामिल हैं। अब इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि मैंने लेख की शुरुआत में ही ये क्यों कहाकि दिल्ली सरकार का ये फैसला सिर्फ फैसला लिया गया है। ये दिखाने के लिए किया गया लगता है। निश्चित तौर पर दिल्ली की हवा का हाल बेहद खराब है। इतना कि तुरंत ढेर सारे कड़े फैसले लेने की जरूरत है। जिसमें से एक वाहनों की संख्या पर रोक लगाने का भी है। लेकिन, वायु प्रदूषण की बड़ी वजहों पर सरकार कुछ नहीं सोच रही है। दिल्ली और केंद्र सरकार को ये तुरंत सोचना होगा। 

Saturday, December 05, 2015

राजनीति में खेलिये, क्रिकेट में क्यों खेलते हैं नेताजी?

भाजपा सांसद युवा मोर्चा के अध्यक्ष और #BCCI सचिव @ianuragthakur बड़ी मासूमियत से भारत-पाक सीरीज के पक्ष में बोल रहे हैं। उनके कहे का लिंक भी लगा रहा हूं। जो उन्होंने बार-बार ट्वीट किया है। जो वो कह रहे हैं वो इतना सीधा मासूम नहीं हैं। वो सीधे एक पक्ष हैं। इसलिए उनकी बात को गंभीरता से उतना ही लिए जाने की जरूरत है जितना सरकार उद्योग संगठनों की सुनती है और जैसे सुनती है। क्रिकेट जैसा उद्योग चूंकि सारे दलों के नेता मिलकर चलाते हैं। इसलिए ये चलता रहे। फिर चाहे भारत के पाकिस्तान से मानवीय और औद्योगिक रिश्ते कितने ही खराब रहें। क्योंकि, उससे सीधे-सीधे नेताओं का कुछ बुरा नहीं हो रहा। अब अगर पाकिस्तान से हमारे राजनयिक कारोबारी संबंध बेहतर नहीं हो रहे, तो क्रिकेट खेलकर कौन सी डिप्लोमेसी हो जाएगी। मैं निजी तौर पर किसी भी प्रतिबंध का विरोधी हूं। लेेकिन, अनुराग ठाकुर की मासूमियत में मुझे सारी पार्टियों का क्रिकेट कनेक्शन पैसे के ढेर पर भारतीय जनमानस की खिल्ली उड़ाता दिखता है। इसीलिए जब अनुराग कहते हैं कि सोशल मीडिया से ही हर बात तय नहीं की जा सकती। तो मुझे लगता है कि ये उस पार्टी का नेता कह रहा है जिसके पूर्ण बहुमत में #SocialMedia का बड़ा हाथ है। जिस सरकार के नेता, मंत्री, सासद से लेकर छोटे नेता तक सोशल मीडिया पर बड़े से बड़ा हो जाना चाह रहे हैं। उस पार्टी के सांसद का ये कहना कि सबकुछ सोशल मीडिया से ही तय नहीं होना चाहिए। उस चेहरे को बेनकाब करता है। जिसमें सबके हित छिपे हुए हैं। फिर से कह रहा हूं कि मैं निजी तौर पर प्रतिबंध के खिलाफ हूं लेकिन, अब तय होना चाहिए कि भारत के नेताओं को धनधान्य से भरपूर रखने के लिए क्रिकेट डिप्लोमेसी हो रही है या फिर सचमुच इससे भारत-पाक के रिश्ते कभी सुधरते हैं। इसलिए फिलहाल तो मैं #NoCricketWithPakistan कह रहा हूं। क्रिकेट डिप्लोमेसी की आड़ में नेताओं की अमरबेल की जड़ में मट्ठा पड़ना जरूरी है। पत्रकारिता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए ही मैंने अनुराग ठाकुर के बयान का लिंक भी लगाया है। लेकिन, ये नेताजी लोग राजनीतति खेलते क्रिकेट क्यों खेलने लगते हैं। इनके बयान को सुनकर ये सीरीज कराने की आतुरता भी समझ में आएगी।

Friday, December 04, 2015

राज्य में नेता की कमी बीजेपी की सबसे बड़ी मुश्किल

ये नरेंद्र मोदी का प्रभाव है या कहें कि उनके प्रभाव का विरोधियों में डर है कि हर चुनाव के बाद ये चर्चा होने लगती है कि मोदी का प्रभाव घटा या नहीं। इससे भी आगे बढ़कर विरोधी कहते हैं कि नरेंद्र मोदी की लहर खत्म हो गई है। और समर्थक कहते हैं कि मोदी लहर जारी है। वैसे तो ये बहस कभी खत्म ही नहीं हुई। लेकिन, अब ये ताजा बहस शुरू हुई है नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव नतीजे आने के बाद। हालांकि, जिस तरह से ठीक स्थानीय निकाय, जिला पंचायत चुनाव के पहले पटेलों ने आंदोलन शुरू किया था। उससे तो दिल्ली की मीडिया ने ये निष्कर्ष साफ तौर पर निकाल लिया था कि अब बीजेपी के गुजरात में साफ होने की शुरुआत हो जाएगी। ऐसा हो नहीं सका। गुजरातियों की पहली पसंद अभी भी बीजेपी ही है। गुजरात की सभी छे महानगरपालिका में कमल का ही कब्जा है। जिला पंचायतों में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है। इकतीस में से तेईस जिला पंचायतें हाथ की पकड़ में आ गई हैं। तालुका पंचायतों मे भी कांग्रेस बेहतर स्थिति में रही है। एक सौ तिरानबे में से एक सौ तेरह हाथ की पकड़ में हैं। लेकिन, बड़े शहरों की तरह नगर पालिकाओं में भी अभी बीजेपी कांग्रेस से बहुत मजबूत है। छप्पन में से बयालीस सीटों पर कमल खिला है।

इन आंकड़ों के आधार पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थक कह सकते हैं कि गुजरात में अभी भी उनका कब्जा बरकरार है। तर्क ये भी आ सकता है कि जिला पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव विधानसभा या लोकसभा चुनाव के संकेत नहीं दे पाते हैं। बीजेपी समर्थकों का ये तर्क उत्तर प्रदेश के संदर्भ में तो ठीक हो सकता है। जहां अभी हुए जिला पंचायत चुनावों में बीजेपी तीसरे नंबर पर रही। लेकिन, गुजरात के संदर्भ में ये बिल्कुल सही नहीं है। क्योंकि, गुजरात में स्थानीय निकाय, जिला पंचायत और विधानसभा, लोकसभा के चुनाव नतीजे लगभग एक जैसे ही आते रहे हैं। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी है कि गुजरात में सीधी लड़ाई है। सीधी लड़ाई का मतलब ये कि भाजपा और कांग्रेस के अलावा कोई तीसरा है ही नहीं। पहले बिंदु पर बात करें, तो नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भारतीय जनता पार्टी राज्य में कभी कोई चुनाव नहीं हारी है। यानी करीब चौदह सालों तक गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को किसी चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ा है। इस लिहाज से गुजरात में करीब डेढ़ दशक में जिला पंचायत चुनावों में हुई हार भारतीय जनता पार्टी की पहली हार है। महानगर पालिका में 2010 में बीजेपी ने 443 सीटें जीतीं थीं जो, 2015 में घटकर 389 रह गईं। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 100 सीटें मिलीं थीं जो, 2015 में बढ़कर 176 हो गईं। नगर पालिका की बात करें, तो 2010 में बीजेपी ने 1245 सीटें जीतीं थीं। जो, 2015 में 1199 हो गईं। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 401 सीटें मिलीं थीं। वो बढ़कर 2015 में 674 सीटें हासल कर ले गई। अभी तक फासला बीजेपी के पक्ष में ज्यादा बना हुआ है। लेकिन, जिला पंचायत में 2010 में बीजेपी ने 547 सीटें जीतीं जो, 2015 में घटकर 367 रह गईं। कांग्रेस दोगुने से ज्यादा पहुंच गई। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 244 सीटें मिलीं थीं जबकि, अभी के चुनाव में कांग्रेस को 596 सीटें मिली हैं। अगर पूरे स्थानीय निकाय चुनाव के लिहाज से देखें, तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच का फासला लगभग नगण्य है। सिर्फ 2% का अंतर। बीजेपी 48%, कांग्रेस 46%। भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में रह गई ये सिर्फ दो प्रतिशत की बढ़त नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए कितने खतरनाक संकेत दे रही है। ये समझने की जरूरत है। 2010 में बीजेपी ने स्थानीय निकाय के चुनाव में 83 प्रतिशत सीटें जीत लीं थी। 323 में से 269 सीटें। 2015 में बीजेपी के हिस्से की 44% सीटें कम हो गईं। सिर्फ 126 सीटें मिलीं। 2010 में बीजेपी ने जिला पंचायत के चुनाव में 24 जिला पंचायतों में 547 सीटें जीतीं थीं। 2015 में 31 जिला पंचायतों में कांग्रेस ने 596 सीटें जीत लीं हैं। आठ जिले ऐसे हैं जहां जिला पंचायत चुनाव में बीजेपी का खाता तक नहीं खुला है। और सबसे बड़ी बात ये कि अहमदाबाद में छत्तीस हजार लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया है। इसका मतलब ये हुआ कि गुजरात भी विकल्प खोजने लगा है। और इस विकल्प खोजने में अगर कांग्रेस ने खुद को ताकतवर नहीं बनाया तो, गुजराती किसी और की तरफ भी 2017 तक देख सकता है। हालांकि, ये भी साफ है कि ये विकल्प हार्दिक पटेल कतई नहीं है। खुद हार्दिक पटेल के गांव में भाजपा जीती है। और अहमदाबाद में हुए चुनाव में पटेल बहुल वॉर्डों में भाजपा ने 43 सीटें जीतीं हैं जबकि, कांग्रेस ने सिर्फ 9 सीटें। निष्कर्ष साफ है कि हार्दिक पटेल, पटेलों का नेता नहीं बन पाया। और पटेल मोटे तौर पर अभी भी बीजेपी के ही साथ हैं।


ये भी निष्कर्ष निकलता है कि मोदी की लहर अभी भी कायम है। और ये बात सच है कि भारतीय जनता पार्टी के हालात अभी भी अगर बेहतर हैं, तो उसके पीछे नरेंद्र मोदी का दो दशक से ज्यादा मुख्यमंत्री के तौर पर बेहतर काम है। स्थानीय निकाय और जिला पंचायत चुनावों को जब तक मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के कामकाज की समीक्षा माना जा रहा था। तब तक सचमुच बीजेपी के पक्ष से लोग खिसकते दिख रहे थे। लेकिन, जब राष्ट्रीय मीडिया में ये बहुतायत चलने लगा कि बिहार में मोदी लहर की समाप्ति के एलान के बाद अब गुजरात से भी मोदी वाली बीजेपी गायब होने जा रही है। समीक्षा इस बात की भी होने लगी कि संघ की प्रयोगशाला में अब भगवा रंग फीका पड़ने लगा है। इसने जबर्दस्त बदलाव किया। और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष से खिसकते उन गुजरातियों को वापस खींचा जो, डर रहे थे कि गुजरात की स्थानीय निकाय चुनाव की हार भी केंद्र में नरेंद्र मोदी के विकास के एजेंडे को ध्वस्त करेगी। इस डर ने विकास के एजेंडे पर पिछले दो दशक से ज्यादा समय से मोदी के साथ खड़े गुजरातियों को एक कर दिया। इसलिए ये विश्लेषण की गुजरात में जिला पंचायत चुनावों में कांग्रेस की बढ़त मोदी की कमजोरी के संकेत हैं। ये पूरी तरह से निराधार है। हां, इतना जरूर है कि इस पंचायत, स्थानीय निकाय चुनाव से बीजेपी और खासकर मोदी-शाह की जोड़ी को बड़ा सबक लेने की जरूरत है। अगर वो चाहते हैं कि विकास के एजेंडे पर देश 2019 में उनके साथ खड़ा रहे। बिहार चुनाव नतीजों से ये बात समझाना कठिन था। लेकिन, अब गुजरात से ये बात मोदी-शाह को आसानी से समझ में आएगी। वो बात ये है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह को राज्यों में नेतृत्व खोजना होगा। शिवराज सिंह, रमन सिंह और वसुंधरा राजे के ऊपर चाहे जितने तरह के आरोप लगें। लेकिन, इतना तो तय है कि मजबूत नेता राज्य में होने से वो खुद ही ऐसी बहुत से हमलों को निष्प्रभावी कर देता है। जो कमजोर नेतृत्व होने पर सीधे मोदी-शाह को झेलना होता। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस पैमाने पर बेहद कमजोर नेता साबित हुई हैं। अगर मोदी-शाह का हाथ मजबूती से न हो, तो शायद ही वो मुख्यमंत्री निवास में अब तक टिक पातीं। गांधीनगर से आने वाली खबरें बताती हैं कि मुख्यमंत्री राज्य को ठीक से संभाल नहीं पा रही हैं। पाटीदार आंदोलन को कितने खराब तरीके से नियंत्रित करने की कोशिश की गई। ये पूरे देश ने देखा। इसलिए जरूरी है कि 2017 के पहले नरेंद्र मोदी और अमित शाह गुजरात के लिए बेहतर सेनापति खोज लें। अच्छा होगा कि नए साल में नया सेनापति नियुक्त किया जाए। जिससे नए सेनापति को भी समय मिल सके। यही रणनीति दूसरे चुनाव वाले राज्यों के लिए भी करनी होगी। अच्छी बात ये है कि असम के लिए भारतीय जनता पार्टी की रणनीति काफी स्पष्ट और बेहतर दिखती है। बंगाल में काफी कुछ हलचल दिख रही है। और खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उस पर नजर रखे हैं। लेकिन, बेहद महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व भ्रम की स्थिति में ज्यादा दिख रहा है। ये बेहतर है कि अभी के यूपी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी अमित शाह के भरोसेमंद ही हैं। और अच्छी बात ये भी है कि लंबे समय के बाद बीजेपी को उत्तर प्रदेश में लड़ने-भिड़ने वाला अध्यक्ष मिला है। इसलिए बाजपेयी को एक और कार्यकाल देना बेहतर रणनीति हो सकती है। लेकिन, लगे हाथ अमित शाह को उत्तर प्रदेश में नए नेताओं की एक पूरी फौज तैयार करनी होगी। तभी उत्तर प्रदेश की लड़ाई लड़ने में आसानी हो पाएगी। नरेंद्र मोदी की लहर है और फिलहाल बहुत तेजी से खत्म होती नहीं दिख रही। लेकिन, पहले बिहार विधानसभा और अब गुजरात स्थानीय निकाय, जिला पंचायत चुनाव ने ये साफ कर दिया है कि मोदी लहर को राज्यों में मजबूत रखने के लिए राज्यों में मजबूत सेनापति चाहिए। और वो चिंता दिल्ली से बैठकर नहीं की जा सकती। बाहरी बनाम बिहारी का नारा सबक देने के लिए काफी है। 

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