Wednesday, December 22, 2021

कांग्रेसियों के पूर्वजों के अलावा किसी ने देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ न किया !

हर्ष वर्धन त्रिपाठी



किसी भी बहस में कांग्रेसी प्रवक्ता या सामान्य बुद्धिजीवियों का भी सबसे बड़ा हथियार संघ या भाजपा के खिलाफ यही होता है कि आजादी की लड़ाई में आपके पूर्वजों ने क्या किया? वैसे तो इसका सबसे आसान जवाब यही है कि जब कांग्रेस आजादी की लड़ाई लड़ रही थी तो पार्टी नहीं थी जिसे चुनाव लड़कर एक परिवार को सत्ता सौंपनी थी, देश की आजादी का सपना लिए हर कोई कांग्रेस के साथ था, लेकिन इससे बात समझ आएगी नहीं। बुद्धि कुंद हुए लम्बा समय हो चला है।

अब थोड़ा आसानी से समझिए। बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के बड़े नेता थे। "स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच" स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे। इस नारे को देने वाले नेता बाल गंगाधर तिलक को कांग्रेस के वो नेता बर्दाश्त नहीं कर सके थे, जिनके आगे बढ़ते, परिवार में सिमटते कांग्रेस की दुर्दशा हुई थी। उस समय नरम दल, गरम दल करके कांग्रेस के नेताओं को चिन्हित किया जाता था। उसी नरम दल और गरम दल में से सत्ता दल बनाने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी और 1939 में सुभाष चंद्र बोस को बाहर करने के बाद से सत्ता दल गांधी जी की सरपरस्ती में बेहद मजबूत हो चला था। गरम दल बाहर हो चुका था और नरम दल, सत्ता दल वाली कांग्रेस में अपनी स्थिति बचाए रखने में लग गया था। दरअसल, 1905 के बंग भंग आन्दोलन ने बाल गंगाधर तिलक को राष्ट्रीय नेता बना दिया था। तिलक कहते थे कि भीख मांगकर अधिकार नहीं मिलता। अधिकार पाने के लिए लड़ना पड़ता है। तिलक चाहते थे कि कांग्रेस सिर्फ प्रस्ताव पास करने वाला संगठन न बनकर जनता के लिए लड़ने वाला सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधि संस्थान बने। इन्हीं सब वजहों से बाल गंगाधर तिलक ऐसे कांग्रेसी नेता बन गए थे जिन्हें अंग्रेज "भारतीय अशान्ति का पिता" कहते थे।

तिलक ने मांडले जेल में रहकर गीता रहस्य लिखा, जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। तिलक ने वेद काल का निर्णय जैसी पुस्तकें भी लिखीं। तिलक को हिन्दू राष्ट्रवाद का जनक भी कहा जाता है। 1 अगस्त 1920 को मुम्बई में तिलक का निधन हो गया और 27 सितम्बर 1925 को डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। 1925 मतलब आजादी मिलने के करीब 22 साल पहले। और संघ ने कोई पार्टी नहीं बनाई सत्ता दल कांग्रेस के मुकाबले सत्ता पाने के लिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाया देश बनाने के लिए। आजादी के बाद सत्ता पाने के लिए उस समय कोई दल बना लेना इतना कठिन भी न था, लेकिन सत्ता कैसे बना बिगाड़ सकती है, इसका अनुमान इससे लगाइए कि अंग्रेजों की सत्ता के दौरान भी वही बड़े कांग्रेसी नेता बन सके, जिन्हें अंग्रेजों ने चाहा। इसलिए जब अगली बार कोई सत्ता दल कांग्रेसी, सत्ता के साथ बढ़ा बुद्धिजीवी या फिर सामान्य पत्रकार अंग्रेजों से किसके पूर्वज लड़े वाला सवाल उछाले तो, उसके सामने बस एक नारा दीजिएगा "स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच"

Tuesday, December 07, 2021

एक चित्र से भारतीय राजनीति का असली संकट सामने आ गया

 हर्ष वर्धन त्रिपाठी


मेधा, प्रतिभा के मामले में विश्व के किसी भी देश के मुक़ाबले बेहतर खड़ा भारत उद्योग, आधुनिक तकनीक के मामले में विश्व की अगली क़तार में खड़े देशों के मुक़ाबले क्यों खड़ा नहीं हो पाता है, यह प्रश्न हम भारतीयों को खूब चुभता है। हाल के दिनों में यह प्रश्न बड़ा और अधिक चुभने वाला हो गया है। ट्विटर की सीईओ जैक डोरसी के त्यागपत्र देने के बाद भारतीय पराग अग्रवाल ने ट्विटर सीईओ की कुर्सी सँभाली तो यह प्रश्न तेज़ सुनाई देने लगा। इसी बात की भी चर्चा खूब हुई कि हम भारतीय एक भारतीय के ट्विटर या गूगल का सीईओ बनने को तो बड़ी उपलब्धि के तौर पर बताते हैं, सीने तमग़े की तरह सजाते हैं, लेकिन कू जैसा विशुद्ध स्वदेशी सोशल मीडिया हमारी चर्चा, गर्वानुभूति का कारण नहीं बन पाता है। सतही विश्लेषण के लिहाज़ से देखें तो हम यह कह सकते हैं कि दरअसल, हम भारतीय विदेशी मान्यता मिलने के बाद ही गर्वानुभूति कर पाते हैं, लेकिन यह अर्धसत्य है। पूर्ण सत्य दूसरा है और वह पूर्ण सत्य सामने आया देश के बड़े और तेज़ी से बढ़ते उद्योगपति गौतम अदानी की पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हुई मुलाक़ात का चित्र सामने आने के बाद। चित्र में ममता बनर्जी और गौतम अदानी, दोनों एक दूसरे को सम्मान पूर्वक हाथ जोड़े दिख रहे हैं। और, होना भी यही चाहिए। देश की नीति बनाने वालों और देश की नीति के आधार पर देश में उद्योग लगाने, रोज़गार के अवसर तैयार करने वालों के बीच ऐसा ही सद्भाव का रिश्ता होना चाहिए और वह रिश्ता सार्वजनिक होना चाहिए, लेकिन देश का दुर्भाग्य रहा कि सार्वजनिक तौर पर नेता और कारोबारी के रिश्ते को ग़लत तरीक़े से स्थापित कर दिया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से 2014 तक देश के किसी भी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर कारोबारियों से अपने रिश्ते के बारे में ज़ाहिर नहीं किया। 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहाकि कारोबारियों से मेरा रिश्ता पर्दे के पीछे कुछ और सार्वजनिक तौर पर कुछ और नहीं रहेगा। यही होना भी चाहिए, सरकार और कारोबारी में रिश्ता होना बुरा नहीं है। बुरा होता है पर्दे के पीछे इस रिश्ते का होना और सामने सरकार में बैठे लोगों का कारोबारियों को गाली देना। इसे बेशर्म राजनीति कहते हैं, जिससे उद्यमिता, रोज़गार, विकास कराहता है और कुछ लोग अट्टहास करते है। अब ऐसे में गूगल, ट्विटर, माइक्रोसॉफ़्ट या ऐसी दूसरी कंपनियाँ भारतीय कारोबारियों की भला कैसे हो पातीं। 

कंपनी भी सरकारी ही सम्मान पाएगी, इस मानसिकता को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर बहुतायत प्रधानमंत्रियों ने खाद पानी देकर पोषित किया।  कल्पना कीजिए कि एयर इंडिया टाटा के ही पास रहती तो देश में उड्डयन के क्षेत्र में अगुआ हवाई कंपनी विश्व की अगुआ कंपनियों की क़तार में खड़ी होती, भले ही कोई अमेरिकी या किसी और देश का नागरिक हमारी भारतीय उड्डयन कंपनी के सीईओ की कुर्सी पर बैठा होता, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। एयर इंडिया का टाटा से सरकारी और फिर टाटा का होना इस देश के सबसे बड़े संकट के मूल को बताता है। इसी का परिणाम रहा कि भारतीय प्रतिभा, मेधा विश्व की दूसरी कंपनियों में सीईओ के तौर पर कमाल करती रहती है, लेकिन भारतीय कंपनियाँ विश्व में कम ही कमाल करती रहीं। भला हो देश की नातियों में औद्योगिक सुधार के मामले में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहाराव का कि, भारतीय कंपनियों में विश्व की महत्वपूर्ण कंपनियों में शामिल होने का साहस जगा। उदारीकरण ने सिर्फ़ विदेशी कंपनियों को भारतीय बाज़ार में आने का अवसर नहीं दिया, उदारीकरण की ही वजह से भारतीय कंपनियाँ विश्व बाज़ार में मज़बूती से खड़ी हुईं। टाटा से लेकर अंबानी, अदानी आज विश्व भर में अपना दम दिखा रहे हैं, लेकिन इस सबके बावजूद भारत में अंबानी, अदानी को लेकर राजनीतिक, सामाजिक चर्चा का स्तर बेहद ख़राब है। देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी सूट बूट की सरकार कहकर भले ही नरेंद्र मोदी पर हमला करते दिखते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि दरअसल राहुल गांधी इस देश के उद्यमियों पर, उद्यमिता की भावना पर चोट कर रहे हैं। और, यही चोट सभी विपक्षी नेता कर रहे हैं। यह अलग बात है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब की कांग्रेस सरकारें हों या फिर महाराष्ट्र की शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार हो, सभी को अंबानी, अदानी का निवेश चाहिए। इसके बावजूद कृषि क़ानूनों के विरोध के दौरान पंजाब और हरियाणा में अंबानी, अदानी की संपत्तियों का नुक़सान होता रहा और पूरा विपक्ष इसे हवा देता रहा। 

दरअसल, उद्योग और उद्योगपति विरोधी माहौल बनाने में सबसे आगे रहने वाले कम्युनिस्टों ने भारत में विकास की चर्चा को भी इतने ख़राब तरीक़े से प्रस्तुत किया और स्थापित भी कर दिया कि उद्योग, विकास, सड़क, पुल, बांध के पक्ष में खड़े लोगों को जन सरोकारों के ख़िलाफ़ बता दिया गया। कांग्रेसी और समाजवादी मानसिकता के नेताओं ने उसे अपने राजनीतिक लाभ के लिए चलते रहने दिया। निजी कंपनियों को हेय दृष्टि से देखना और सरकारी कंपनियों को नेताओं की सुख-सुविधा के लिए दुरुपयोग करना, इसने भारत में उद्योगों, उद्योगपतियों को बड़ा होने से कितना रोका है, इसका आजतक कोई ठीक-ठीक अध्ययन भी नहीं हुआ है। जबकि, यह स्थापित तथ्य है कि जिस देश की निजी कंपनियाँ बड़ी हुई हैं, उसी देश की विश्व नेता के तौर पर भूमिका मज़बूत हुई है। चीन और भारत की कोई तुलना नहीं हो सकती क्योंकि, चीन विशुद्ध तानाशाह देश है, जिसने अपने नागरिकों के अधिकारों का हनन करके उन्हें बंधक बन रखा है, लेकिन चीन आज अमेरिका के मुक़ाबले खड़ा है तो इसकी सबसे बड़ी वजह यही रही कि पिछले कुछ दशकों में चीन की कंपनियाँ हर क्षेत्र में विश्व की अग्रणी कंपनियों में शामिल हो चुकी हैं। टाटा से लेकर मित्तल तक और अब अंबानी, अदानी समूह की कंपनियों की बढ़ती शक्ति विश्व पटल पर भारत की बढ़ती शक्ति के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन कम्युनिस्टों का दुष्प्रचार और आजकल कम्युनिस्ट सलाहकारों से घिरे कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अंबानी, अदानी पर हमला करके देश के हर उद्यमी को संदेह के घेरे में डालने की लगातार कोशिश की है। इसका दुष्प्रभाव कितना बड़ा हो गया है कि ममता बनर्जी जब गौतम अदानी से मिलती हैं तो उद्यमिता विरोधी तंत्र के पत्रकार सक्रिय हो जाते हैं और लोगों से कहते हैं कि नज़र रखिए कि किस नेता की आर्थिक नीतियाँ कैसी हैं। कमाल की बात यह भी है कि यही तंत्र अकसर रोज़गार, युवाओं के लिए नये अवसरों पर बड़ी-बड़ी बातें करता रहता है, लेकिन यह प्रश्न भी तो पूछा जाना चाहिए कि रोज़गार, युवाओं के लिए नये अवसर आख़िर कैसे बनेंगे। सबको रोजगार चाहिए, उसके लिए उद्योग चाहिए और इसके लिए उद्यमी भी चाहिए, नेता रोजगार दे सकता है, उद्योग लगा सकता है। नेता अच्छी नीति बना सकता है, जिससे उद्यमी के लगाए उद्योग में खूब रोज़गार मिले। दुर्भाग्य से इस सामान्य सी बात को भारतीय नेताओं ने देश को समझने दिया। उद्योगपति की साख उसके लगाए उद्योग से और नेता की साख उसकी लाई नीतियों से ही होनी चाहिए। नेता और उद्योगपति के बीच रिश्ता भी सार्वजनिक होना चाहिए। सार्वजनिक तौर पर उद्योगपति को चोर कहना और पर्दे के पीछे चंदा मानने से ऐसी कंपनियाँ नहीं खड़ी होंगी और हम भारतीय यह चर्चा करते रहेंगे कि भारतीय प्रतिभा, मेधा जब विश्व की बड़ी कंपनियों को चला सकती है तो भारत में बड़ी कंपनियाँ खड़ी क्यों नहीं होती हैं। दरअसल, ममता बनर्जी और गौतम अदानी के एक चित्र ने भारतीय राजनीति और मानसिकता का बड़ा संकट सार्वजनिक कर दिया है जो अकसर पर्दे के पीछे ही रहता है। 

(यह लेख दैनिक जागरण में छपा है)

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