Wednesday, June 28, 2017

नोएडा की सबसे ऊंची सड़क पर नीचे जाती राजनीति

नोएडा के सबसे बड़े बुनियादी ढाँचे का लोकार्पण करने भी @MYogiAdityanath नहीं आ रहे। हालाँकि, इसका लगभग काम @yadavakhilesh के ही शासनकाल में पूरा हो चुका था। क़रीब आधा पुल लखनऊ से ही लोकार्पण करके अखिलेश ने खोल दिया था। दरअसल कोई भी मुख्यमंत्री प्रदेश के सबसे चमकते शहर नोएडा आने से डरता है। डर उस अन्धविश्वास का है कि जो यहाँ आया, उसकी सत्ता गई। ख़ैर, अपना घर-गाँव रहते मायावती नहीं आईं। फिर भी २०१२ में सत्ता से बेदख़ली हो गई। २०१७ में लखनऊ रहकर नोएडा की सारी योजनाओं का लोकार्पण करते अखिलेश भी चले गए। योगी आदित्यनाथ साधु हैं, फिर भी सत्ता जाने के मोह से उबर नहीं पा रहे हैं। ख़ैर, ये तो पहली बात हुई। दूसरी जरूरी बात ये कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ख़ुद तो आ नहीं रहे हैं। अच्छा होता कि इस सड़क का ज़्यादातर काम जिस अखिलेश यादव के कार्यकाल में पूरा हुआ था, उन्हें भी बुला लेते। हालाँकि, राजनीति में ये कोई नहीं करता। हर सरकार आने के बाद पहले की सरकारों के पूरे किए काम को लोकार्पण करके अपना बना लेती है। लेकिन, मुझे लगता है कि जिस तरह से सोशल मीडिया के जरिए हर छोटी-बड़ी बात सबको पता हो जाती है, उसमें ये गुन्जाइश बहुत रह नहीं जाती है कि किसने क्या किया और किसने क्या श्रेय ले लिया। 
आधी खुली नोएडा एलिवेटेड सड़क पर
छोटे दिल वालों की ही राजनीति बड़ी होती जा रही है। आज शाम ५ बजे उत्तर प्रदेश के उद्योग मंत्री सतीश महीना इसे आम जनता के लिए खोल देंगे। कुछ समय बाद जनता को न योगी याद रहेंगे, न ही अखिलेश यादव। लेकिन, अगर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी लोकार्पण में आमन्त्रित कर लेते, तो इस बड़े दिल की राजनीति को लोग हमेशा याद रखते। मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ससम्मान पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस लोकार्पण में बुलाएं, तो उनकी छवि बड़ी होगी, उनके समर्थक बढ़ेंगे। उत्तर प्रदेश की जनता की नजरों में भी सम्मान ही बढ़ेगा। होना तो ये चाहिए था कि आदित्यनाथ और अखिलेश यादव मिलकर इसका लोकार्पण करते। लेकिन, योगी अभी हाथ आई सत्ता जाने से डर रहे हैं, तो कम से कम पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश के आने से जब भी अखिलेश के हाथ सत्ता आती, तो नोएडा को लेकर लोगों का अन्धविश्वास भी खत्म होता।

Monday, June 26, 2017

नौकरी में भागते रहने का सुख !

मेरी पहली नौकरी प्रयाग महाकुम्भ में वेबदुनिया के साथ
ये सलाह अनुभव से उपजी है और सभी के लिए है। लेकिन ख़ासकर पत्रकारों के लिए। ये सही है कि हम पत्रकार या तो दिल्ली, मुम्बई जैसी बड़ी जगह या फिर अपने राज्य की राजधानी या फिर अपने जिले के ही धाँसू पत्रकार बनना चाहते हैं। इसमें से किसी भी एक मोह से उबर पाना बेहद कठिन होता है। मैं मूलत: प्रतापगढ़ से हूँ। पैदाइश के बाद हमारी पूरी बनावट इलाहाबाद की देन है। सबसे कठिन फैसला था, इलाहाबाद छोड़ना। बहुत कड़ा मन करके ये फैसला लिया था। आज उस फैसले पर मुग्ध होने जैसा भाव रहता है। फिर कानपुर, देहरादून, मुम्बई होते अभी दिल्ली टिका हूँ। हालाँकि, मैं ठहरना दिल्ली ही चाहता था। पहली बार ११ जुलाई २००१ को दिल्ली आकर गिरा था। लेकिन, दिल्ली निरन्तर भगाती रही। उसी भागने में ऊपर लिखे शहरों में रहना हुआ। आत्मीय सम्बन्ध बने। कानपुर और मुम्बई दोनों ही शहरों को लेकर मन में अच्छा भाव नहीं था। लेकिन, कानपुर में ग़ज़ब के आत्मीय सम्बन्ध बने और समझ भी बेहतर हुई। ईमानदार विश्लेषण ये कि  हर शहर ने मुझे बेहतर होने में मदद की और सबसे बड़ी बात कि समझ का दायरा बहुत बड़ा कर दिया।
हिन्दुस्तान इतनी विविधता वाला देश है कि यहां आप एक छोटी सी 2-4 दिन की यात्रा में एक पर्यटक की तरह कहीं घूम-टहलकर तो आ जाते हैं। अपने फेसबुक पन्ने के लिए कुछ अच्छी तस्वीरें जुटा लेते हैं। लेकिन, उस जगह से जुड़ाव बहुत कम हो पाता है। हिन्दुस्तान को समझने, पक्का हिन्दुस्तानी बनने के लिए जरूरी है कि हर कोई, हर किसी की भावना को समझे। कानपुर, मुम्बई और देहरादून ने मुझे ये समझने में मदद की। मुम्बई मुझे बहुत परेशान करता था। यहां तक कि 4 साल रहने के बाद लगभग विद्रोही अन्दाज में मैंने मुम्बई छोड़ा था। लेकिन, ये भी सच है कि उन 4 सालों में मिली, सहेजी अच्छी यादों की वजह से आज भी मुम्बई जाने का मन होता है। यही हाल देहरादून और कानपुर को लेकर भी है। इस लिहाज से ज्यादा जगहों पर रहना नहीं हो सका। इसीलिए नए पत्रकारों को मेरी ये सलाह है कि पढ़ाई पूरी होते ही पहला मौका मिलते ही बैगपैक करके अपने शहर, अपनी राजधानी और देश की राजधानी से जितना दूर जा सकते हैं, चले जाइए। इससे देश के और नजदीक पहुंचेंगे। लिखने, पढ़ने, समाज को समझने के लिहाज से अद्भुत, सकारात्मक बदलाव होगा।
कम से कम, जीवनसाथी पक्का कर लेने और बच्चों के जिन्दगी में आने तक तो ये प्रक्रिया जितनी तेजी से पूरा कर सकते हों, तो करिए। सच बता रहा हूं, उस भगान लेने के दौरान के अनुभव जिन्दगी में कमाल की समझ, मिठास विकसित करते हैं। और पत्रकार के लिए तो ये जरूरी है कि वो देश के हर हिस्से के लोगों की समझ को थोड़ा बहुत तो समझ सके। वरना अपने शहर, अपनी राजधानी और देश की राजधानी के लिहाज से पूरी समझ बनाएगा। फिर मुश्किल आजीवन रहेगी। दूसरे काम करने वालों के लिए भी ये बहुत सुखद अनुभव देने वाला हो सकता है। लेकिन, पत्रकार के लिए ये सबसे जरूरी सबक के जैसा है। ये किताबी ज्ञान तो है नहीं, अपने निजी अनुभव से सीखा है, इसलिए सकारात्मक परिणाम का दावा भी पक्का है।


Monday, June 19, 2017

मोदीराज में रायसीना पहाड़ी पर एक दलित के विराजने का मतलब

भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए प्रस्तावक के तौर पर दस्तखत करने के लिए मुख्तार अब्बास नकवी के यहां जाना था। कमाल की बात ये थी कि उनमें से किसी को भी नहीं पता था कि दिल्ली की सबसे ऊंची और सम्वैधानिक तौर पर देश की सबसे ऊंची रायसीना पहाड़ी पर विराजने के लिए वो लोग किसके नाम पर मुहर लगाने जा रहे हैं। ज्यादातर सांसद लालकृष्ण आडवाणी के ही पक्ष में सहानुभूति रख रहे थे। लेकिन, राष्ट्रपति बनाने के लिए सांसदों की सहानुभूति नहीं, उनके मतों की जरूरत थी। और वो मत पार्टी के तय उम्मीदवार के ही पक्ष में जाना तय था। सांसद मुख्तार अब्बास नकवी के घर पहुंच रहे थे और ठीक उसी समय 11 अशोक रोड में भाजपा मुख्यालय पर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बताया कि रामनाथ कोविंद एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे। बिहार के राज्यपाल को राष्ट्रपति बनाने की नरेंद्र मोदी और अमित शाह की इस योजना की जानकारी किसी को नहीं थी।
भारतीय राजनीति नरेंद्र मोदी और अमित शाह को आगे कैसे याद करेगी ? एक शातिर राजनीतिक जोड़ी के तौर पर ? उनकी योजना से बाहर काम करने वाले हर नेता का खात्मा करने वाली जोड़ी के तौर पर ? भारतीय जनता पार्टी को देश की चक्रवर्ती पार्टी बनाने के तौर पर ? हिन्दू एकता के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले नेता के तौर पर ?
अगर इतिहास में आज मुझे इस जोड़ी को दर्ज करने को कहा जाए, तो मैं इस जोड़ी को इन सारे जवाबों के मिश्रण के तौर पर याद करूंगा। भारतीय राजनीति में इस जोड़ी को एक क्रूर राजनीतिक जोड़ी के तौर पर याद किया जाएगा। और इसलिए भी कि इसी राजनीतिक जोड़ी ने भारतीय जनता पार्टी को भारत की सर्वशक्तिमान पार्टी कैसे बना दिया। 31 मई को अमित शाह गुजरात के छोटा उदयपुर विधानसभा में बूथ कार्यकर्ताओं के साथ थे। छोटा उदयपुर में अमित शाह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ, विस्तारक के तौर पर थे। अमित शाह की महत्वाकांक्षी विस्तारक योजना के तहत गुजरात में 48000 विस्तारकों को राज्य के सभी 48000 बूथ पर जाना था। इसी के तहत छोटा उदयपुर विधानसभा के बूथ पर अमित शाह लोगों के दरवाजे पहुंचे। छोटा उदयपुर विधानसभा में अमित शाह का विस्तारक के तौर पर जाना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि, यहां से कांग्रेस का विधायक 8 बार से चुना जा रहा है। आदिवासी बहुल इस इलाके में कांग्रेस की अभी भी मजबूत पकड़ है। अमित शाह सबसे कठिन काम खुद चुनते हैं। इसी कठिन काम चुनने में जब उन्होंने उत्तर प्रदेश चुना था, तो वहीं रामनाथ कोविंद भी उन्हें मिले थे।
अमित शाह ने कहाकिनरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते बीजेपी ने 120 सीटें जीतीं, अब मोदी जी प्रधानमंत्री हैं, इसलिए हम 150 सीटें जीतेंगे।
लेकिन, ये अमित शाह को भी अच्छे से पता है कि गुजरात में राजनीतिक तौर पर हालात इधर बहुत बिगड़े हैं। इसलिए मोदी के मुख्यमंत्री के प्रधानमंत्री बन जाने भर से बीजेपी को गुजरात में 150 सीटें नहीं मिलने वाली। हार्दिक पटेल पहले से ही पूरे राज्य में पाटीदारों को लगातार ये समझाने में लगा हुआ है कि बीजेपी पाटीदारों का भला नहीं कर रही। लेकिन, पाटीदारों में बीजेपी के गहरे धंसे होने से हार्दिक पटेल बहुत कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन, गुजरात में दलितों का एकजुट होना बीजेपी के लिए चिन्ता की वजह हो सकती है। जिग्नेश मेवानी दलितों के साथ मुसलमानों को लाकर भारतीय जनता पार्टी के लिए मुसीबत बनने की कोशिश कर रहा है। ऊना में दलित उत्पीड़न पूरे देश में दलितों को एक साथ लाने में मदद कर रहा है। सहारनपुर में भीम आर्मी का मजबूत होना भी बीजेपी के लिए बुरे संकेत की तरह है।
इस सबके बीच में गुजरात विधानसभा का चुनाव इसी साल के अन्त में होना है। ऐसे में 150 सीटें हासिल करने के लिए जरूरी है कि गुजरात में हिन्दू एकता का बीजेपी का आधार मजबूत बना रहे। और इसके लिए पिछड़े वर्ग से आने वाले प्रधानमंत्री के साथ दलित का राष्ट्रपति बनना बीजेपी के लिए सोने पर सुहागा जैसा दिखता है। रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं। उम्मीदवारी घोषित होने के बाद जिस तरह से नीतीश कुमार की प्रतिक्रिया दिखी है, उसमें जेडीयू का साथ आना लगभग तय है। चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव, रामविलास पासवान पूर्ण समर्थन दे चुके हैं। मुलायम सिंह यादव भी मोदी के उम्मीदवार के साथ ही रहेंगे। कोविंद उत्तर प्रदेश के कानपुर से आते हैं और कोली समाज से आते हैं। इसलिए मायावती के सामने भी विरोध का विकल्प बचता नहीं है। पहली प्रतिक्रिया में मायावती ने भी समर्थन के संकेत दे दिए हैं। कुल मिलाकर सीपीएम महासचिव सीतीराम येचुरी को छोड़कर अब तक आई सारी प्रतिक्रियाएं सकारात्मक रही हैं। 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपना आधार मजबूत करने के लिए रायसीना पहाड़ी पर किसी दलित के पक्ष में खड़ा है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत लगातार हिन्दुओं के लिए एक कुंआ, एक मन्दिर, एक श्मशान की बात कर रहे हैं। अब एक गैर स्वयंसेवक दलित के रायसीना पहाड़ी पर विराजमान होने के संघ और मोदी के फैसले से संघ की बात का वजन दलितों में और बढ़ेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए हिन्दू एकता का आधार और मजबूत होगा। देश में दलित-मुसलमान आन्दोलन को मजबूत करने की इच्छा रखने वालों पर रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी वज्रपात की तरह है। मोदी-शाह यूं ही नहीं, आज की तारीख की सबसे खतरनाक राजनीतिक जोड़ी है। इस जोड़ी ने एक दलित को रायसीना पहाड़ी पर चढ़ा दिया है, अब दलित भला किसी और की कहां सुनने वाला है।
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

मुम्बई की बारिश और पानी की कमी

टेलीविजन के जरिए मुम्बई को देखते लोगों को लग रहा होगा कि मुम्बई पूरा बारिश में भीगा/डूबा हुआ है। लेकिन, ऐसा है नहीं। बारिश हो रही है, लगभग रोज ही। लेकिन, ऐसी भी झमाझम वाली नहीं हो रही है। हां, इतनी बारिश जरूर हो रही है कि मुम्बई के लिए रेल या सड़क, किसी भी रास्ते से जाते चारों तरफ नदियां, जलाशय लबालब भरे मिलेंगे। इतना पानी बरस चुका है। प्रकृति ने साल भर के लिए पानी का इन्तज़ाम कर दिया है। इसे सम्भालने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है मुम्बईकरों। लबालब भरे पानी के समय जल संरक्षण की सोचना/करना चाहिए। वरना मार्च आते फिर पानी पानी चिल्लाओगे। ये मसला कितना गम्भीर है, इसका अन्दाजा इससे लगाकि 3 दिन ठाणे में रहते 2 दिन पानी समय से नहीं आया। 

Sunday, June 18, 2017

समन्दर किनारे की ताजगी और गन्दगी

वर्सोवा में सफ़ाई का कमाल देखने चला गया। समन्दर किनारे तो अच्छा ही लगता है। लेकिन जो वर्सोवा बीच सफ़ाई की मिसाल बताया जा रहा है, उसकी ये तस्वीरें दिखीं। मन दुखी हो गया। पढ़ा था कि किसी एक व्यक्ति की कोशिश से वर्सोवा बीच गजब का साफ हो गया है। लेकिन, वो लगता है कि मामला अस्थाई टाइप का ही था। साफ समन्दर किनारे कुछ पल भी बिताना ताजगी का अहसास देता है। ऐसी गन्दगी में ताजगी का अहसास भी गन्दा हो जाता है।

Saturday, June 17, 2017

मुम्बई मेट्रो: घाटकोपर से वर्सोवा

मेट्रो शानदार साधन, सुविधा है। मेट्रो सुन्दर, उसके स्टेशन सुन्दर और इसमें यात्रा करते यात्री भी सुन्दर ही दिखते हैं। मुम्बई में घाटकोपर से वर्सोवा की मेट्रो की सवारी भी ऐसा ही अहसास देती है। मेट्रो के बाहर की ये तस्वीर उसी ख़ूबसूरती को और बढ़ाती दिखती है। लेकिन, पहाड़ी के नीचे आती नीली छतों वाली ये तस्वीर उतनी ख़ूबसूरत नहीं है। बल्कि, ये मुम्बई या कहें कि हर बढ़ते शहर की लाइलाज बीमारी है। अवैध झुग्गी-झोपड़ी। मुम्बई की लोकल के किनारे तो जैसे झुग्गी ही स्वाभाविक दृश्य है। अब मेट्रो को इन्हीं झुग्गियाँ के बीच में से अपना रास्ता बनाना पड़ रहा है।


मुम्बई मेट्रो में ये निर्देश देखकर समझ आया कि मुम्बई लोकल जिन्दाबाद थी, है और रहेगी। हालांकि, मेट्रो बची रहे, इसके लिए ये बेहद जरूरी है। निर्देश हिन्दी और मराठी में ही लिखे हैं। क्योंकि, ये तो साफ है कि मराठी या हिन्दी समझ रखने वालों के अलावा तो कोई मच्छी लेकर तो मुम्बई में आने-जाने से रहा। और सबसे अच्छी इस निर्देश के साथ लगी हुई ये तस्वीर। 






दिल्ली मुम्बई हर तरह से अलग है। सोचिए मेट्रो भी अलग हो गई है। दिल्ली मेट्रो में सीट के नीचे पैर पसारने का जुगाड़ है। मुम्बई मेट्रो में घर, सड़क की तरह मेट्रो में बैठे भी "सकेते म समधियान" टाइप मामला। मुम्बई पसरने का मौक़ा मेट्रो में भी नहीं दे रही है।

Friday, June 02, 2017

क्या सीता के श्राप से मुक्त होने वाली है अयोध्या ?

अयोध्या में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ
किम्वदन्ति है कि जब सीता को अयोध्या छोड़ना पड़ा तो, उन्होंने कहाकि जो अयोध्यावासी उनके ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ नहीं खड़े हो पा रहे हैं उन्हें समृद्धि-खुशहाली नहीं मिल सकेगी। सवाल ये है कि क्या सीता के श्राप से अयोध्या कभी मुक्त नहीं हो सकेगी। या फिर अयोध्या के लिए सीता के श्राप से मुक्त होने का समय आ गया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या में हैं, इसलिए अयोध्या फिर से खबरों में है। लेकिन, सवाल ये है कि क्या अयोध्या सिर्फ विवादों की वजह से ही खबरों में रहेगी या फिर खबरों से आगे भी भगवान राम वाली समृद्ध अयोध्या अस्तित्व में आएगी। ये तो सच है कि अब देश 1992 से बहुत आगे निकल चुका है। मंदिर-मस्जिद अब वोट तो तैयार नहीं कर पा रहा है। पिछले चुनाव ज्यादातर विकास के मुद्दे पर ही हुए हैं। तो क्या अयोध्या को भी विकास के मुद्दे पर देखे जाने का वक्त आ गया है। अयोध्या विवाद की वजह से केंद्र और राज्य सरकार ने इस छोटे से कस्बे टाइप के शहर को छावनी बना रखा है। बावजूद इसके सालाना करीब 60 लाख रामभक्त अयोध्या चले आते हैं। 60 लाख सालाना मतलब 5 लाख लोग हर महीने मतलब हर दिन करीब 15 हजार लोग अयोध्या आते हैं। लेकिन, ये संख्या अयोध्या में लगने वाले रामनवमी, सावन मेले की वजह से बड़ी दिखती है। इस लिहाज से रामलला के दर्शन के अनुमानित आंकड़े तो बेहद निराश करने वाले हैं। प्रतिदिन 3-4 हजार श्रद्धालु ही तम्बू कनात में विराजमान रामलला के दर्शन करने आते हैं। पूरी ताकत से जय श्रीराम का नारा हर फुर्सत में लगाने वाले भी जाने कितने लोग रामलला विराजमान के दर्शन कर सके होंगे। इसका अन्दाजा इसी से लग जाता है कि रामलला विराजमान के नाम पर सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के खाते में 5-8 लाख रुपए महीने के ही जमा हो पाते हैं। यानी कुल जमा साल भर में रामलला विराजमान के खाते में 60 लाख से एक करोड़ रुपए के बीच में कहीं रकम जमा हो पाती है। औसतन ये रकम 70 लाख के आसपास ही होती है।
अयोध्या के तम्बू कनात वाले रामलला की हैसियत उनके भक्तों ने साल के 70 लाख की कर रखी है। राम दरिद्रों के देवता हो गए हैं। दरिद्र भक्तों के दरिद्र देवता। और इसी से दरिद्र उत्तर प्रदेश। ये दरिद्रता का चक्र क्या सीता के श्राप का परिणाम है। दूसरा तथ्य देखिए, भगवान विष्णु के ही अवतार माने जाने व्यंकटेश बालाजी तिरुपति मन्दिर में हर रोज भक्तों का चढ़ावा करीब 3 करोड़ का होता है। सिर्फ तिरुपति बालाजी न्यास की आमदनी की बात करें तो, मन्दिर न्यास को 2600 करोड़ रुपए की कमाई हुई। इसमें प्रतिदिन औसतन 3 करोड़ के लिहाज से चढ़ावा, 600 करोड़ रुपए सालाना टिकट की बिक्री और 800 करोड़ रुपए जमा रकम पर ब्याज के तौर पर मिला। तिरुपति दर्शन के लिए जाने वालों की ताकत ये है कि तिरुपति के लिए दिल्ली से सीधी उड़ान है। और आज की तारीख में दिल्ली से तिरुपति जाने वाली एयर इंडिया और स्पाइस जेट की टिकट 13000 रुपए से 58000 रुपए तक की है। इसके अलावा चेन्नई और बैंगलुरू देश के ज्यादातर बड़े शहरों से सीधी उड़ान से जुड़े हुए हैं। अयोध्या जाने के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ उड़कर पहुंचा जा सकता है। लेकिन, शायद ही इक्का दुक्का श्रद्धालु होंगे जो, रामलला विराजमान के दर्शन के लिए लखनऊ उड़कर पहुंचते होंगे। जबकि, तिरुपति पूरी तरह से और बैंगलुरू, चेन्नई के लिए उड़कर पहुंचने वालों में बड़ी संख्या भगवान व्यंकटेश के श्रद्धालुओं की होती है। भगवान व्यंकटेश तो तिरुमाला पहाड़ी पर हैं। लेकिन, भगवान के भक्तों की सुविधा से युक्त तिरुपति शहर में सैकड़ों छोटे बड़े होटल मिल जाएंगे। पूरी अयोध्या में शायद ही कोई ढंग का होटल मिल सके। उसकी वजह भी बड़ी साफ है शायद ही कोई पर्यटक गर्मी या सर्दी की छुट्टियों में अपने बीवी बच्चों के साथ अयोध्या की यात्रा का कार्यक्रम बनाता हो। घोर आस्थावान लोग ही एकाध बार रामलला के दर्शन करके वैतरणी पार कर लेने का भरोसा कर लेते हैं। अयोध्या को भारतीयों की पर्यटन स्थल सूची में बहुत नीचे जगह मिल पाती है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश का हिन्दू भी जब धार्मिक यात्रा की योजना बनाता है तो, उसकी सूची में वैष्णो देवी, तिरुपति बालाजी, शिरडी जैसे मंदिर ऊपर की सूची में रहते हैं। बाहर के टूरिस्ट फिर चाहे वो धार्मिक यात्रा पर हों या सिर्फ घूमकर भारत देखने के मूड में उनकी लिस्ट में तो अयोध्या बिल्कुल ही नहीं रहता है। ये तब है जब इस देश में सर्व सहमति से अगर किसी एक भगवान पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों की बात हो तो वो संभवत: राम ही होंगे।
वजह बड़ी साफ है अयोध्या की पहचान सिर्फ विवादित ढांचे वाले शहर की बनकर रह गई है। अब योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री के तौर पर अयोध्या में हैं। माना जा रहा है कि केंद्र में मोदी और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के संयोग से रामलला विराजमान की दशा सुधर सकती है। अयोध्या के विकास की बड़ी योजना मुख्यमंत्री आदित्यनाथ तैयार कर रहे हैं, ऐसा कहा जा रहा है। इसलिए उम्मीद जगती है कि रामराज्य के जरिए यानी राममंदिर के दर्शन के लिए आने वाले भक्तों के जरिए अयोध्या के विकास की नई कहानी लिखी जा सकती है। राममंदिर के निर्माण के साथ इस शहर की तकदीर बदल सकती है। और, ये तकदीर सिर्फ हिंदुओं की नहीं बदलेगी। रामलला के कपड़े पिछले दस सालों से अयोध्या को दोराही कुआं इलाके के सादिक अली सिलते हैं। वो, कहते हैं कि रामलला को पहनाए जाने वाले कपड़े उनके हाथ के सिले हैं ये उनके लिए गर्व की बात है। क्योंकि, राम तो सबके हैं। शहर में खड़ाऊं बनाने से लेकर मूर्तियां बनाने तक के काम में हिंदुओं के साथ मुस्लिमों की भी अच्छी भागीदारी है। अयोध्या एक ऐसा शहर है जो, हिंदुओं के लिए भगवान राम की जन्मभूमि की आस्था है तो, अवध के नवाबों की विरासत भी ये शहर समेटे हैं।

अयोध्या में अवध शासकों के समय के कई मुस्लिमों के महत्व के स्थानों के साथ 3000 से ज्यादा मंदिर हैं। निर्मोही, निरंजनी, निर्वाणी, उदासीन, वैष्णव सहित लगभग सभी अखाड़ों के यहां बड़े ठिकाने हैं। शहर में दस हजार से ज्यादा साधु हमेशा रहते हैं। लेकिन, इतनी विविधता और बताने-दिखाने की समृद्ध विरासत होने के बावजूद इस शहर के लोग बेकारी, कम आमदनी से जूझ रहे हैं। अयोध्या के रास्ते में कुछ चीनी मिलों की बदबू यहां आने वाले को भले ही बड़ी इंडस्ट्री के होने का भ्रम पैदा करे लेकिन, सच यही है कि अयोध्या में चीनी मिलों के अलावा कोई ऐसी इंडस्ट्री भी नहीं है जहां 100 लोगों को भी रोजगार मिला है। किसी बड़ी कंपनी का शोरूम नहीं है। मनोरंजन का कोई साधन नहीं है। अयोध्या शहर का बाजार अच्छे कस्बों से बदतर है। शहर के लोगों की महीने की औसत कमाई 100 रुपए से ज्यादा नहीं है। इससे बड़ा दुर्भाग्य अयोध्या का क्या होगा कि सरयू आरती के लिए महीने का 15000 रुपए का प्रावधान किया गया था। आरती के लिए इससे ज्यादा रकम की जरूरत होने पर इन्तजाम भी प्रशासनिक अधिकारी आपस में चन्दा मिलाकर करते रहे हैं। हालांकि, अब इतना अच्छा है कि प्रतिदिन 1500 रुपए का प्रावधान प्रशासन ने कर दिया है। उम्मीद करनी चाहिए कि एक योगी के राज में अयोध्या को सीता के श्राप से मुक्ति मिल सकेगी।
(ये लेख QUINTHINDI में छपा है।) 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...