Monday, February 27, 2017

नानाजी देशमुख की कर्मभूमि में नए पत्रकारों के साथ 2 दिन

नानाजी देशमुख की आज पुण्यतिथि है। पहली बार हमें भी चित्रकूट में उनका खड़ा किया काम देखने को मिला। 2 दिन रहते समझ आया कि नानाजी को संघ अगर राष्ट्रऋषि कहता है तो वो सर्वथा उपयुक्त है। नानाजी ने जो किया वो देश के किसी सर्वोच्च राजनेता ने भी शायद नहीं किया है। विधायक, सांसद, प्रधानमंत्री होकर आप अधिकतम यही कर सकते हैं कि अच्छी नीतियाँ बनाकर उनके क्रियान्वयन में तेज़ी ला दें। लेकिन एक पूरे समाज के उत्थान की अवधारणा तैयार करना, चित्रकूट के ग्रामीण इलाक़े में खुद रहकर उसे स्वावलम्बन का मज़बूत आधार देने का काम कोई ऋषि ही कर सकता है। नानाजी ने दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से ये कर दिखाया। लम्बे समय तक लगातार विरोधी विचार की सरकार होने से इतने बड़े काम की चर्चा भी संघ या उससे दुराग्रह न रखने वाले संगठनों के ज़रिये ही होती रही है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ग्रामोदय मेले के समापन के मुख्य अतिथि हैं। ये काम हिन्दुस्तान की असली विरासत को आगे बढ़ाने वाला है। नानाजी को शत शत नमन। नानाजी से कुछ हम भी प्रेरित हो सकें, इतनी ही उम्मीद।

ग्रामोदय मीडिया चौपाल में मीडिया के छात्रों से बातचीत
और उम्मीद की वजहें भी हैं। उम्मीद की वजह ये भी है कि आज पत्रकारिता के क्षेत्र में या दूसरे किसी भी क्षेत्र में जो बच्चे आ रहे हैं, उन्हें अच्छा-बुरा दोनों बहुत ज्यादा पता है। चित्रकूट के दीनदयाल शोध संस्थान परिसर में लगे अपने तरह के अनूठे मेले में बहुत कुछ देखने समझने को मिला। नानाजी ने किस साहस के साथ चित्रकूट जाकर एकदम से दंपतियों को तैयार किया होगा, ये भी अपने आपमें शोध का विषय है। दक्षिणपंथ की प्रयोगशाला के तौर पर मीडिया को इन जगहों की बात करनी चाहिए। किस तरह से दंपतियों को राष्ट्रनिर्माण मतलब ग्राम निर्माण है, ये नानाजी ने समझाया होगा। ये सब बाते हम जैसे लोगों को खींचती हैं। पहले से ही मैंने ये सोच रखा है कि साल में कम से कम 6 दिन अपने गांव जाकर रहूंगा। मैं अपना शहर इलाहाबाद भी अपने साथ लेकर ही चलता हूं। कई बार ये लोगों परेशान करता है कि मेरे अंदर इतना इलाहाबाद रहता है। कई बार अति जैसा लगता है। लेकिन, अब मैं अपने गांव को भी अपने साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहा हूं। उस कोशिश को और पक्का करने का काम चित्रकूट ग्रामोदय मेले में जाकर हुआ है। खेती, गांव से जुड़ी कोशिशों पर मध्य प्रदेश सरकार का ये मेला आयोजन शानदार पहल है। दीनदयाल शोध संस्थान के साथ इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र भी इसमें साझा आयोजक रहा।

इसी आयोजन के बीच में स्पंदन संस्था के अनिल सौमित्र ने हम सबकी सामूहिक धरोहर मीडिया चौपाल का भी आयोजन कर दिया। हालांकि, न कोई खास एजेंडा था और न ही हमें समझ आ रहा था कि दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों से चित्रकूट में जुट रहे मीडिया चौपाली क्यों करने आए हैं। लेकिन, 2 दिनों में अलग-अलग हुई बातचीत में माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल, देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार और ग्रामोदय विश्वविद्यालय के बच्चों ने उम्मीद बढ़ाई है। नए बनने वाले पत्रकार चौकन्ने हैं। वो बड़का टाइप दिखते और अभिनेता, अभिनेत्री टाइप चमकते पत्रकारों पर सवाल खूब उठा रहे हैं। वो ये भी पूछ लेते हैं कि बड़े पत्रकार दलाली ही करते हैं क्या? वो ये भी पूछ लेते हैं कि गांव की खबर सरोकारी पत्रकार भी क्यों नहीं उठाते? मैंने उन लोगों को यही कहाकि इसके लिए हमें अपने गांव को बचाना होगा, बढ़ाना होगा। गर्व के साथ वैसे ही अपने गांव का जिक्र करना होगा, उसकी फिक्र करनी होगी, जैसे लोग दिल्ली-मुंबई या दुनिया के बड़े शहरों की करते हैं। तभी जाकर कुछ हो पाएगा। शहर में 10 साल रह गए पत्रकार से ये उम्मीद कि वो गांव की सोचेगा और हम गांव से निकलकर जल्दी से शहरातू हो जाने की कोशिश में हैं, तो कैसे हो पाएगा। हम नए पत्रकारों को भी अपने अंदर का दोगलापन छोड़ना होगा। अच्छी बात ये रही कि ग्रामोदय मीडिया चौपाल में जुटे पत्रकारिता के छात्र खुले मन से खुद को तैयार कर रहे हैं। नानाजी देशमुख के स्वावलंबी गांव की तरह स्वावलंबी पत्रकार जितने ज्यादा तैयार हो सकेंगे, समाज का उतना भला होगा। 

Saturday, February 25, 2017

रज्जू भइया, जोशी,सिंघल के घर में फिर ताकतवर होती भाजपा

चौथे चरण का मतदान कई तरह से खास रहा है। चौथे चरण में इलाहाबाद जिले में भी मतदान हुआ, जो पूर्वांचल का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। इलाहाबाद कांग्रेस की पैदाइश वाली जमीन है और यही वो जमीन है, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भइया का घर है। इतना ही नहीं, इसी शहर में विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक अशोक सिंघल का घर है और यही वो शहर है जहां से बीजेपी के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी अकेले ऐसा नेता रहे, जो लगातार 3 बार इस सीट से सांसद चुने गए। कांग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी भले ही लखनऊ की कैंट विधानसभा से चुनाव लड़ रही हों लेकिन, उनका घर भी इलाहाबाद में ही है। फूलपूर से सांसद और उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य का भी घर यहीं है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी भी इसी शहर में रहते हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रमोद तिवारी भी इसी शहर में रहते हैं। देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शामिल इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी यहीं है। इस जिले का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि चौथे चरण के प्रचार का समय खत्म होते समय भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपना रोड शो खत्म कर रहे थे। और उसी समय यूपी के दोनों लड़के (अखिलेश यादव और राहुल गांधी) भी इलाहाबाद में ही थे। चौथे चरण का प्रचार 21 तारीख को शाम 5 बजे बंद हुआ, उसके एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इलाहाबाद में रैली करके जा चुके थे। इलाहाबाद में सभी दलों की इतनी जोर आजमाइश की वजह बड़ी साफ है। इस जिले में प्रदेश की सबसे ज्यादा विधानसभा सीटें हैं। अभी भी इलाहाबाद में 12 विधानसभा सीटें हैं और अगर इस जिले का हिस्सा रहे कौशांबी को जोड़ लिया जाए, तो कुल 15 सीटों का फैसला यहां से होना है। चौथे चरण में 23 फरवरी को कुल 53 सीटों पर मतदान होना है। इसलिए भी इलाहाबाद की 12 सीटें अतिमहत्वपूर्ण हो जाती हैं। और सबसे बड़ी बात कि इन सीटों से निकाल संदेश पूरब की ओर प्रभावी भी होता है।
चौथे चरण की 53 सीटों की 2012 के परिणाम के लिहाज से बात करें, तो 24 सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में, 15 सीटें बहुजन समाज पार्टी के खाते में, 6 सीटें कांग्रेस के खाते में, 5 सीटें भाजपा के खाते में और 3 सीटें पीस पार्टी के खाते में गई थीं। इस लिहाज से सीधे तौर पर सपा-बसपा ही 2012 के विधानसभा चुनाव में यहां मुख्य खिलाड़ी रहीं। यहां तक कि सीट के लिहाज से कांग्रेस बीजेपी से आगे रही और पीस पार्टी भी एकदम नजदीक खड़ी दिखी। इलाहाबाद जिले की बात करें, तो 12 में से 8 सीटें सपा ने जीत लीं। 1 सीट कांग्रेस के पास है और 3 सीटें बीएसपी के पास। बीजेपी का 2012 में यहां से खाता भी नहीं खुला। यहां तक बीजेपी की परम्परागत मानी जाने वाली शहर उत्तरी और दक्षिणी की सीट पर भी उसे हार का स्वाद चखना पड़ा। लेकिन, 2017 में स्थिति बदली दिख रही है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ की परम्परागत सीट दक्षिणी से बीजेपी ने बीएसपी से कांग्रेस के रास्ते बीजेपी में आए नंद गोपाल गुप्ता नंदी को टिकट दिया है। नंदी ने ही 2007 में केशरीनाथ त्रिपाठी को हराया था। नंदी का मुकाबला सपा विधायक हाजी परवेज अहमद से है। यहां बसपा से माशूक खान और सीपीआई से आमिर हबीब के होने से बीजेपी की राह आसान दिख रही है। शहर उत्तरी भी 1991 के बाद बीजेपी की पक्की सीट हो गई थी। लेकिन, 2007 और 12 में कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह ने ये सीट जीत ली। 2012 में बीएसपी के टिकट पर दूसरे स्थान पर रहे हर्षवर्धन बाजपेयी को बीजेपी ने इस बार प्रत्याशी बनाया है। हर्षवर्धन बाजपेयी का पारिवारिक वोट और बीजेपी का मत मिलाकर लड़ाई रोचक बना रहा है। हालांकि, कांग्रेस विधायक अनुग्रह नारायण सिंह की स्थिति यहां काफी मजबूत रहती है। मुकाबला इन्ही दोनों के बीच रहने वाला है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्ष रही ऋचा सिंह को सपा ने शहर की तीसरी पश्चिमी विधानसभा सीट से प्रत्याशी बनाया है। विश्वविद्यालय की पहली महिला अध्यक्ष होने के नाते ऋचा को छात्रों का जबर्दस्त समर्थन है। ऋचा के पक्ष में माहौल भी अच्छा है। लेकिन, मुश्किल ये कि ऋचा को शहर उत्तरी के बजाय पश्चिमी से टिकट दे दिया गया। ज्यादातर छात्र शहर उत्तरी में ही हैं। पश्चिमी सपा के बाहुबली अतीक अहमद की सीट है। हालांकि, समाजवादी पार्टी ने अतीक को टिकट नहीं दिया है। लेकिन, चुनाव में सीधे नहीं होने के बावजूद इस सीट पर अतीक का असर देखा जा सकता है। बसपा ने विधायक पूजा पाल पर फिर से भरोसा जताया है। पूजा पाल के पति राजू पाल का हत्या के मामले में अतीक और उसके भाई अशरफ पर मुकदमा चल रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने यहां से राष्ट्रीय प्रवक्त सिद्धार्थनाथ सिंह को टिकट दिया है। सिद्धार्थनाथ अपने नाना लालबहादुर शास्त्री और राष्ट्रीय नेतृत्व के खास होने के नाम पर मैदान में हैं। यहां मामला त्रिकोणीय है।
इलाहाबाद में यमुनापार की मेजा विधानसभा में भी मुकाबला रोचक हो गया है। बीजेपी के पूर्व विधायक उदयभान करवरिया की पत्नी नीलम करवरिया यहां से चुनाव लड़ रही हैं। सपा विधायक विजमा यादव के पति जवाहर यादव की हत्या के आरोप में करवरिया बंधु जेल में हैं। 20 साल पुराने मामले के फिर से खुलने और करीब 2 साल से जेल में होने को सत्ता की प्रताड़ना बताने में नीलम करवरिया कामयाब दिख रही हैं। महिला होने से उन्हें सहानुभूति भी मिल रही है। मेजा से सपा से रामसेवक सिंह मैदान में हैं और बसपा ने भूमिहार ब्राह्मण एस के मिश्रा को मैदान में उतारा है। 1967 से 2007 तक मेजा विधानसभा सुरक्षित थी। 2012 में सामान्य हुई तो सपा से गामा पांडेय विधायक बने लेकिन, रेवती रमण सिंह ने अपने नजदीकी गामा पांडेय का टिकट कटवा दिया। 2012 में दूसरे स्थान पर रहे बसपा के आनंद पांडेय भाजपा में आ गए हैं। इसकी वजह से ब्राह्मण बहुल मेजा विधानसभा में ब्राह्मण बीजेपी के साथ गोलबंद होते दिख रहे हैं। शहर उत्तरी की ही तरह यमुनापार की बारा सुरक्षित सीट भी सपा-कांग्रेस गठजोड़ में कांग्रेस के पास गई है। कांग्रेस से यहां से सुरेश कुमार मैदान में हैं। ये सीट भी समाजवादी पार्टी के पास थी। लेकिन, सपा विधायक डॉक्टर अजय कुमार भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं। बसपा से अशोक गौतम मैदान में हैं। यमुनापार की करछना विधानसभा से दिग्गज सपा नेता रेवती रमण सिंह के बेटे उज्ज्वल रमण मैदान में है। पिछले चुनाव में उज्ज्वल रमण बसपा के दीपक पटेल से हार गए थे। इस बार फिर से ये दोनों आमने-सामने हैं। भाजपा से पीयूष रंजन इस मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश में लगे हैं। यमुनापार की कोरांव सुरक्षित 2012 में बसपा के कब्जे में थी और इस बार बसपा विधायक राजबली जैसल को सीपीएम से कांग्रेस में गए रामकृपाल कड़ी चुनौती दे रहे हैं। यहां से भाजपा ने राजमणि और सपा ने रामदेव को टिकट दिया है।
इलाहाबाद के गंगापार में 5 विधानसभा सीटें हैं। गंगापार की फूलपुर विधानसभा से बीजेपी ने प्रवीण सिंह पटेल को टिकट दिया है। प्रवीण पटेल पिछले चुनाव में बसपा से लड़े थे और दूसरे स्थान पर थे। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के विरोध के बावजूद प्रवीण पटेल ने अमित शाह की अपने विधानसभा में सभा कराई और उसी में बीजेपी में शामिल हुए। यहां से सपा के सईद अहमद विधायक थे। लेकिन, सपा से मन्सूर आलम और बसपा से मोहम्मद मसरूर शेख को टिकट मिला है। फूलपूर सीट पर मुसलमान मतदाता काफी संख्या में है लेकिन, सपा-बसपा दोनों से मुस्लिम प्रत्याशी होने से बीजेपी को फायदा मिल सकता है।

फाफामऊ सीट पर सीट पर सबसे ज्यादा मौर्य मतदाता हैं और उसके बाद ब्राह्मण और मुसलमान हैं। समाजवादी पार्टी ने यहां से विधायक अन्सार अहमद को फिर से उतार दिया है। बसपा के परम्परागत मतों के साथ मनोज पांडेय ने ब्राह्मण मतों में सेंधमारी की अच्छी कोशिश की है। हालांकि, इलाहाबाद की हर सीट पर ब्राह्मण और सवर्ण मतदाताओं के बीजेपी के साथ जाने को मनोज यहां कितना रोक पाएंगे ये बड़ा सवाल है। बीजेपी ने यहां से विक्रमजीत मौर्य को टिकट दिया है। विक्रमाजीत को मौर्य के साथ सवर्ण मतों के सहारे जीत का भरोसा है। प्रतापपुर सीट से समाजवादी पार्टी ने विधायक विजमा यादव को फिर से मैदान में उतारा है। यहां से बसपा ने मुज्तबा सिद्दीकी को टिकट दिया है। भाजपा ने ये सीट अपना दल को दी है। अपना दल से करन सिंह प्रत्याशी हैं। यहां सभी प्रत्याशी सपा की विजमा यादव से ही लड़ेंगे। हंडिया सीट भी अपना दल के खाते में गई है। यहां से पूर्व मंत्री राकेशधर त्रिपाठी की पत्नी  प्रमिलाधर त्रिपाठी चुनाव लड़ रही हैं। राकेशधर पर लोकायुक्त ने भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया है। राकेशधर के परम्परागत मत, सवर्ण और अपना दल के मतों से प्रमिलाधर की स्थिति मजबूत है। सपा से निधि यादव और बसपा से हकीम लाल यहां मुकाबले में हैं। सोरांव सीट पर अंतिम समय तक भाजपा और अपना दल में सहमति नहीं बन सकी थी। हालांकि, बाद में ये सीट अपना दल के खाते में चली गई है। अपना दल से जमुना प्रसाद सरोज लड़ रहे हैं। लेकिन, बीजेपी से सुरेंद्र चौधरी को भी चुनाव चिन्ह मिल गया है। इसी तरह समाजवादी और कांग्रेस दोनों के ही प्रत्याशी मैदान में हैं। ऐसे में सोरांव सीट पर बसपा की गीता देवी की संभावना बेहतर दिखती है। हर पार्टी इलाहाबाद में अच्छे माहौल के भरोसे उत्तर प्रदेश का पूर्वी दुर्ग जीत लेने की मंशा रखती है। 2012 में पूरी तरह से साफ हो गई भाजपा के पक्ष में 2017 में कम से कम 5 सीटें आती दिख रही हैं। समाजवादी पार्टी 3 सीटों पर पहले स्थान की लड़ाई में है और कांग्रेस के लिए अपनी एक सीट बचाना बड़ी चुनाती साबित हो रहा है। 2 सीटों पर बसपा का हाथी सबसे मजबूत दिख रहा है। 

Friday, February 24, 2017

गांव की समृद्धि के लिए सबसे पहले बिजली चाहिए

मई 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आई, तो सबसे बड़ा सवाल यही था कि किसके अच्छे दिन आएंगे और कब आएंगे। अच्छे दिनों का हर किसी का पैमाना अलग है और इसी लिहाज से हर कोई अच्छे दिन आ गए या आने वाले हैं, की बात कर सकता है। लेकिन, इतना जरूर है कि ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण, समृद्धि की इतने सलीके से चिन्ता करने वाली ये पहली सरकार है। ढेर सारी ऐसी योजनाएं हैं, जिसके आधार पर मजबूती से ये बहस की जा सकती है कि ये सरकार देश के गांवों के लिए क्या कर रही है। और इस सबमें एक योजना ऐसी है, जो चमत्कारिक कही जा सकती है। सिर्फ योजना चमत्कारिक नहीं है। इसे पूरा करने की रफ्तार भी चमत्कारिक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब सत्ता संभालने के साल भर बाद कहाकि देश के सभी गांवों में अगले 1000 दिनों में बिजली पहुंचा दी जाएगी। तो भारत में पिछली सरकारों के काम करने के तरीके के आधार पर ये न पच पाने जैसा एलान था। खैर, दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना कैसे और किस तेजी से काम कर रही है, इसकी चर्चा में आगे करूंगा। पहले ये बात कर लें कि आखिर प्रधानमंत्री को इस योजना की जरूरत क्यों पड़ी।
आजादी के 67 साल बाद 21वीं सदी में जब दुनिया के कई देश अलग-अलग मोर्चों पर तरक्की की योजना बना रहे थे, तो भारत एक बड़ी मुश्किल से जूझ रहा था। भारत के 18452 गांव ऐसे थे, जहां बिजली नहीं पहुंच सकी थी। इसी से समझा जा सकता है कि भारत में पिछली सरकारों ने जो भी योजना बनाई होगी, उसकी खानापूरी किस तरह से की गई होगी। क्योंकि, बिना बिजली के गांव में खेती से लेकर कंप्यूटर, संचार क्रान्ति तक क्या हो सकता है, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। दरअसल हिंदुस्तान में पिछली सरकारों ने बड़े लक्ष्य के आधार पर बहुत कुछ तय ही नहीं किया। इसीलिए हर गांव में बिजली जैसी सरकारी योजना हो और उसे पूरा करने का बीड़ा खुद प्रधानमंत्री उठाए, ये सोचा भी नहीं जा सकता था। मैं उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की कुंडा तहसील की ग्रामसभा सिया के चंदई का पुरवा से हूं। मुझे याद है कि मेरे अपने गांव में 1971 में हमारी ट्यूबवेल के लिए बिजली दी गई थी। और उसके लिए हमारे बाबा जो रेलवे सर्विस कमीशन, इलाहाबाद में थे, उन्होंने कितनी मशक्कत की थी। लेकिन, वो बिजली सिर्फ ट्यूबवेल के लिए मिली थी। घर में बल्ब जलने में उसके बाद भी काफी समय लग गया। और, 4.5 दशक पहले खेती के ट्यूबवेल के लिए भी बिजली हासिल करने के लिए किसी बड़े नेता से सम्पर्क पहली शर्त थी। और मुझे याद है कि अभी भी जब मैं प्रतापगढ़ में अपने कई रिश्तेदारों के यहां जाता हूं, तो बिजली के बिना ही वो अपनी जिन्दगी चला रहे हैं। 4G की संचार क्रान्ति के युग में देश के 18452 गांव अभी तक बिना बिजली के हैं। इसी से समझा जा सकता है कि इस सबसे जरूरी मोर्चे पर सरकारों ने कितना निराशाजनक काम किया है। यही वजह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये बड़ा जरूरी लक्ष्य प्राथमिकता में अपने हाथ में लेना पड़ा।
25 जुलाई 2015 को पटना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना का विधिवत शुभारंभ किया। उसी दिन उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने इसी योजना की शुरुआत की। पीयूष गोयल ने ऊर्जा मंत्री के तौर पर प्रधानमंत्री का इस बेहद महत्वपूर्ण योजना की साख बरकरार रखी है। 76000 करोड़ रुपये के बजट वाली ये योजना मोदी सरकार की साख तो है ही, ग्रामीण भारत को दुनियावी गांव का हिस्सा बनाने की जरूरी शर्त भी। 25 जुलाई 2015 से लेकर अभी तक 7779 गांवों तक बिजली पहुंचा दी गई है। अब सवाल ये है कि क्या इतनी तेजी से कोई सरकारी योजना लागू की जा सकती है। इसका अंदाजा लगाने का सबसे अच्छा तरीका मुझे समझ में आया कि इस योजना को लागू करने वाली एजेंसी के दफ्तर में कुछ घंटे बिताया जाए। संयोगवश बस्ती के सांसद हरीशचंद्र द्विवेदी से चर्चा की, तो उन्होंने कहा चलिए मेरे साथ। बस्ती संसदीय क्षेत्र से ही ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने इस योजना की शुरूआत की है। इस योजना को पूरा करने का जिम्मा REC यानी रूरल इलेक्ट्रीफिकेशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड पर है। आरईसी के दफ्तर में आपको एक अलग ही कैलेंडर दिखेगा, जिस पर कोई संख्या लिखी हुई है। दरअसल ये 1000 दिनों वाला कैलेंडर है और पूरे रूरल इलेक्ट्रीफिकेशन के दफ्तर में हर बीतते दिन के साथ एक दिन सभी मेजों पर रखे इस कैलेंडर में भी कम हो जाता है। हर दिन कितने गांव में, कितना काम हुआ, इसकी सीधी देखरेख की जाती है। उस दफ्तर में करीब 4 घंटे बिताने के बाद मुझे समझ में आया कि ये कितनी बड़ी सरकारी योजना भारतीय गांवों की खुशहाली की बुनियाद तैयार कर रही है। इसीलिए मैं कह रहा हूं दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना पूरी होने वाली दुनिया की सबसे बड़ी योजना साबित होगी।
रूरल इलेक्ट्रीफिकेशन कॉर्पोरेशन के दफ्तर में दिख रही हलचल जमीन में कितनी खरी है। इसका अंदाजा लगाने के लिए मैं बस्ती शहर से 28 किलोमीटर दूर रुदौली नगर पंचायत क्षेत्र के मुड़ियार गांव गया। इस गांव में बिजली नहीं थी। इस ग्रामसभा में कुल 11 पुरवे हैं, जिसमें से सिर्फ 1 पुरवा में बिजली थी। मुड़ियार के किसान रवि प्रताप सिंह ने बताया कि बिजली आने के बाद हमें सबसे बड़ा फायदा तो खेती में ही हुआ है। हमने बिजली से चलने वाला पम्प लगवा लिया है। अभी तक हमारे यहां टीवी बैट्री से चलती थी, इसीलिए हम लोगों ने कलर टीवी भी नहीं लगवाया था। बिजली आने के बाद हमारे गांव में रंगीन टीवी आई। हमारी दुनिया रंगीन हो गई और हम पूरी दुनिया से जुड़ गए। हमारे घरों में पंखे लग गए हैं। हमारे बच्चे भी अब रोशनी में ज्यादा पढ़ पाते हैं। पहले गांव में मोबाइल चार्ज करना भी एक बड़ी मुश्किल थी। बैट्री से ही मोबाइल चार्ज करना पड़ता था। अब मोबाइल, इंटरनेट ने गांव के लोगों को ग्लोबल विलेज का हिस्सा बना दिया है। आजादी के करीब 7 दशक बीतने के बाद ये एक गांव के परिवार की दुनिया रंगीन कर देने भर की योजना नहीं है। ये योजना है, भारत के रोशन गांवों के दुनिया के साथ चमकने की। और ये लक्ष्य पूरा होता दिख रहा है। दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना को लागू करते समय ही सरकार ने कुछ लक्ष्य तय किए। और वो लक्ष्य ऊपर के उदाहरण से काफी हद तक पूरे होते दिख रहे हैं।
दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना पूरी होने के बाद देश में कोई भी गांव और गांव का कोई भी घर बिना बिजली के नहीं रहेगा। इसका सबसे बड़ा फायदा खेती को मिलने वाला है। सरकार का लक्ष्य है कि प्रति एकड़ पैदावार इससे बढ़ाई जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी किसान की आमदनी दोगुना करने के लक्ष्य को हासिल करने में भी ये मददगार होगा। हर घर में बिजली और गांव में बिजली पहुंचने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित छोटे और घरेलू उद्योग को बढ़ावा मिलेगा। गांव में उद्यमिता बेहतर होने से लोगों को गांव में ही रोजगार मिल सकेगा। कितनी बार खबर आती है कि बिजली न होने से किसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में मरीज को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा तक ठीक से न मिल सकी। इससे प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा बेहतर होगी। साथ ही शिक्षा का स्तर भी बेहतर करने में मदद मिलेगी। अभी जिन गांवों में बिजली नहीं है, वहां सूरज की रोशनी गई मतलब पढ़ाई बंद। सरकार हर किसी का खाता खुलवा रही है। और बैंकिंग सुविधा हर गांव तक पहुंचाने की कोशिश कर रही है। बिजली पहुंचने से गांव में भी एटीएम की सुविधा मिल सकेगी। गांव वाले भी बिना बैंक गए रकम निकाल सकेंगे। सूचना और मनोरंजन के साधन बेहतर होंगे। रेडियो, टीवी, इंटरनेट, मोबाइल गांव की जिन्दगी का नियमित हिस्सा बनेंगे। गांव में बिजली पहुंचने से सुरक्षा बेहतर होगी। पुलिस के लिए भी सहूलियत होगी। पुलिस थाने के साथ ही पंचायतघर भी रोशन होंगे। कुल मिलाकर दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना से गांवों में बसने वाले भारत को तरक्की मिलने के साथ दुनिया के साथ हर मोर्चे पर बराबरी से कदमताल करने का अवसर मिल सकेगा।
(ये लेख श्यामा प्रसाद मुखर्जी #SPMRF शोध संस्थान की पुस्तक परिवर्तन की ओर में भी शामिल किया गया है।)

Wednesday, February 22, 2017

भाई ब्रजेश पांडे के किसी भी गलत के लिए रवीश कुमार जिम्मेदार कतई नहीं

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विद्यार्थी परिषद #ABVP से जुड़े रहे एक छात्रनेता पर छात्रसंघ चुनाव में कांग्रेस के छात्र संगठन #NSUI से जुड़े छात्रनेता ने एक नारा उछाला। बालभोगी, बालभोगी। विद्यार्थी परिषद के लोगों ने दूसरा नारा निकाल लिया। भुक्तभोगी, भुक्तभोगी। जब तक बालभोगी का आरोप था वो मजे का विषय था। परिषद में काम करने वाले उस समय के हर कार्यकर्ता का मजाक ये कहकर उड़ाया जा सकता था। यहां तक कि संघी के नाम पर अभी भी बहुत से- - सामान्य और चरित्रहीन टाइप के भी- बुद्धिजीवी ये आरोप लगाकर दांत चियार देते हैं। संघी होने भर से लोगों पर ऐसे आरोप ये तथाकथित बुद्धिजीवी लगा देते थे और त्याग, संयम से जीने वाले प्रचारकों का मजाक जमकर उड़ाते थे। संघियों की सरकार आने के बाद थोड़ा ठिठकते हैं, डरते हैं, ये कहने से। और वही संघी जब पलटकर बालभोगी का आरोप लगाने वाले को भुक्तभोगी साबित करने पर जुट जाता है, तो चिट चिट की आवाज सुनाई देने लगती है। ऐसा ही कुछ पत्रकार रवीश कुमार के भाई पर सेक्स रैकेट में शामिल होने के आरोपों पर भी दिख रहा है। बड़का-बड़का पत्रकार, बुद्धिजीवी लोग रवीश पर आरोप न लगाने की बात कर रहे हैं। इससे मैं भी सहमत हूं कि पत्रकार रवीश कुमार की पत्रकारिता अपनी जगह और उनके भाई ब्रजेश पांडे की कांग्रेसी नेतागीरी अपनी जगह। लेकिन, दुनिया के लिए आइना लेकर घूमने पर कभी तो आइना आपकी भी शक्ल उसमें दिखा ही देगा। रवीश जी को ये बात समझनी चाहिए। बस इत्ती छोटी सी ही बात है। और तो जो है सो तो हइये हैं।

Tuesday, February 21, 2017

इस बार इटावा, औरैया में “नेताजी” नहीं “जाति” तय करेगी जीत

बेटी की विदाई हो जाने के बाद पिता/परिवार और चुनाव में मतदान हो जाने के बाद प्रत्याशी/समर्थक शांत से हो जाते हैं। स्थिर से हो जाते हैं। लेकिन, तीसरे चरण का चुनाव हो जाने के बाद समाजवादी पार्टी के गढ़ इटावा, औरैया में यादव परिवार में गजब हलचल मची हुई दिख रही हैं। समाजवादी पार्टी के गढ़ इटावा, औरैया में समाजवादी पार्टी के लिए वही कमजोरी बन सकती है, जिसे मुलायम सिंह यादव ने अपनी ताकत के तौर पर इस्तेमाल किया था। मुलायम सिंह यादव जातिवादी राजनीति के अगुवा राजनेता रहे हैं, जिसे उन्होंने बड़े सलीके से समाजवादी राजनीति की पैकिंग में बेचा। इटावा, औरैया में काफी संख्या यादव मतदाताओं की है। पिछड़े और मुसलमान के साथ मिलकर वो एक मजबूत आधार बन जाते हैं। यही वजह है कि इस इलाके में समाजवादी पार्टी अपने गठन के बाद से ही स्वाभाविक पार्टी के तौर पर दिखती है और मुलायम सिंह निर्विवाद नेता। अपनी जाति के आधार पर राजनीति करने वाले नेताओं की अगर देश में एक सूची बनाई जाएगी, तो शायद पहले स्थान के लिए मुलायम सिंह यादव से ही सभी को लड़ना होगा। कमाल की बात ये रही कि मुलायम के यादववाद में लम्बे समय तक सारी पिछड़ी जातियां यादव को अपना नेता मानकर खुद की तरक्की यादवों के जरिये ही होता देखती रहीं। लेकिन, 3 दशक में इतना ज्यादा जाति-जाति हुआ कि दूसरी जातियां भी अब जाग सी गई हैं। और, इसीलिए सैफई में सत्ता मतलब इटावा, औरैया की सत्ता वाला भ्रम इस चुनाव में टूटता दिख सकता है। इस चुनाव में सभी जातियों को अपना विधायक चाहिए। इसीलिए हर पार्टी के लिए जातीय जुगाड़ बड़ा कठिन हुआ। समाजवादी गढ़ में जाति का जंजाल कठिन हो गया है। इटावा और औरैया में हर जाति अपना विधायक चाहती है। मतदान हो गया लेकिन, ज्यादातर जातियों ने अपने पत्ते नहीं खोले। हां, इतना जरूर दिखा कि वो अपनी जाति के प्रत्याशी के साथ खुलकर रहीं। इटावा सदर विधानसभा पर रामगोपाल यादव का खासमखास आदमी कुलदीप गुप्ता मजबूत स्थिति में है। पूरे प्रदेश में और इटावा, औरैया की दूसरी सीटों पर परम्परागत तौर पर बीजेपी को वोट करने वाला बनिया मतदाता यहां कुलदीप गुप्ता के साथ खड़ा दिखा। इस सीट से ब्राह्मण उम्मीद कर रहे थे कि बीजेपी किसी ब्राह्मण को टिकट देगी। लेकिन, बीजेपी ने सरिता भदौरिया को टिकट दे दिया। इसकी वजह से ब्राह्मणों में थोड़ी नाराजगी देखने को मिली। 1991 में इस सीट से बीजेपी के अशोक दुबे विधायक बने। इसको भुनाने के लिए बीएसपी ने यहां से नरेंद्र नाथ चतुर्वेदी को टिकट दिया। रघुराज शाक्य का टिकट कटने से नाराज शाक्यों के मत बीजेपी में जाने की खबरें हैं।
इटावा की जसवंतनगर सीट पर ढेर सारे अगर-मगर के बावजूद शिवपाल यादव की जीत पक्की मानी जा रही है। हालांकि, बीजेपी के मनीष यादव को भी अच्छा मत मिलने की उम्मीद है। मनीष यादव ने पिछला चुनाव बसपा से लड़ा था। इस बार बसपा ने दरवेश शाक्य को टिकट दिया है। इसकी वजह से इटावा सदर में बीजेपी के साथ जाते दिखे शाक्य मत इस सीट पर बसपा के लिए गोलबंद होते दिखे। इटावा की भरथना सीट पर समाजवादी पार्टी ने मौजूदा विधायक सुखदेवी वर्मा का टिकट काटकर कमलेश कठेरिया को टिकट दे दिया है। इसकी वजह से कहा जा रहा है कि वर्मा बिरादरी ने सपा प्रत्याशी के खिलाफ वोट किया है। बीजेपी ने भी यहां से सावित्रा कठेरिया को टिकट दिया है। जबकि, बसपा ने अपने पुराने प्रत्याशी राघवेंद्र गौतम पर भरोसा जताया है। गौतम की अच्छी छवि है। इटावा और भरथना दोनों सीटें ऐसी हैं, जहां ब्राह्मण मतदाता बहुत महत्वपूर्ण है। भरथना में ब्राह्मण बीजेपी के साथ दिखे।
मायावती ने मुख्यमंत्री रहते इटावा जिले की औरैया तहसील  काटकर जिला बना दिया था। इसका नतीजा ये रहा था कि 2002 में बसपा यहां की तीनों सीटें जीत गई थी। 2007 में भी बसपा ने 2 सीटें जीतीं थीं। सिर्फ बिधूना सीट पर धनीराम वर्मा सपा की इज्जत बचाने में कामयाब हुए थे। लेकिन, 2012 में सपा ने औरैया की तीनों सीटों पर कब्जा कर लिया। राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के लड़ने से 2012 के चुनाव में बीजेपी का खासा नुकसान हुआ था। 19 फरवरी को हुए मतदान में मामला थोड़ा उलटा दिखा। दिबियापुर सीट पर प्रदीप यादव को फिर से सपा ने मैदान में उतारा। यहां का लोध मतदाता बीजेपी के साथ, साथ ही दिबियापुर में बनिया और सवर्ण भी बीजेपी के साथ जाता दिखा है। हालांकि, बसपा से रामकुमार अवस्थी को बसपा के परम्परागत मतों के साथ ब्राह्मण मत भी मिलने की बात कही जा रही है।

बिधूना में बनिया मतदाता बीजेपी के साथ गया दिख रहा है। यहां मुलायम के साढ़ू प्रमोद गुप्ता का टिकट काटकर सपा ने दिनेश यादव को टिकट दिया है। दिनेश यादव धनीराम वर्मा के बेटे हैं। कन्नौज लोकसभा में ही बिधूना विधानसभा आती है और यहां से डिम्पल हार गई थीं। प्रमोद गुप्ता का टिकट कटने के पीछे ये भी एक बड़ी वजह बताई जा रही है। बीजेपी का विनय शाक्य को टिकट देना काम करता दिखा है। बीएसपी के शिवप्रसाद यादव को यादव मत मुश्किल से ही मिलते दिख रहे हैं। औरैया सीट इस चुनाव में सुरक्षित हो गई है। इस सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या अधिक है। इस सीट पर समाजवादी पार्टी ने मौजूदा विधायक को ही टिकट दिया है। कुल मिलाकर सभी सीटों पर सबसे ज्यादा मजबूत समाजवादी पार्टी ही नजर आ रही है। लेकिन, मुलायम के इस गढ़ में लोग बीजेपी की स्थिति इस चुनाव में 1991 जैसी बता रहे हैं। माना जा रहा है कि बिधूना, इटावा सदर और भरथना में मतों के बिखराव की स्थिति में बीजेपी को लाभ हो सकता है। लेकिन, समाजवादी पार्टी के नेताजीमुलायम सिंह यादव या कहें कि किसी भी नेता के नाम पर नहीं, इस बार इटावा, औरैया का मतदाता विशुद्ध रूप से अपनी जाति की मजबूती खोज रहा है। और इसमें भी जो समझने वाली बात है कि इसके लिए किसी नेता को ठेकेदारी भी नहीं दे रहा। इसीलिए यादव परिवार के गढ़ जिलों में चुनाव के बाद शांति होने के बजाय हलचल बढ़ गई है। मुलायम ने यादव जाति जगाई, अब सब जातियां जाग गई हैं। 

Sunday, February 19, 2017

पति फंसे मजबूरी में, तो पत्नियां कूदीं चुनावी मैदान में

तीसरे चरण के चुनाव में यादव परिवार की प्रतिष्ठा तो दांव पर है ही। लखनऊ की 2 सीटों पर पत्नी अपने पति की प्रतिष्ठा बचाने के लिए भी चुनाव लड़ रही हैं। अपर्णा यादव और स्वाति सिंह की सीटों पर कड़ा मुकाबला है।
महादेव अर्धनारीश्वर के तौर पर पूजे जाते हैं। महादेव जैसा पति चाहने वाली स्त्रियां हर दूसरे-चौथे मंदिरों में शिवलिंग पर जल चढ़ाते देखी जा सकती हैं। शंकर-पार्वती की तस्वीरें भी अर्धनारीश्वर स्परूप वाली बहुतायत मिल जाती हैं। भारतीय जोड़ियां शंकर पार्वती जैसी ही होती हैं। आधी स्त्री-आधा पुरुष तभी सम्पूर्ण, ये भारतीय सनातन परम्परा में माना जाता है। आपको लग रहा होगा कि घनघोर चुनावी दौर में मैं क्यों इस तरह से हिन्दू देवी-देवताओं की चर्चा कर रहा हूं। इस चर्चा की खास वजह है। दरअसल, इसी सनातन परम्परा का दर्शन उत्तर प्रदेश के चुनावों में भी हो रहा है। फर्क बस इतना है कि यहां पार्वती अपने महादेव की लड़ाई लड़ रही हैं। मायावती पर टिकट लेकर पैसे बांटने का आरोप बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह ने कुछ इस तरह से शर्मनाक तुलना करते लगा दिया कि दयाशंकर की बीजेपी सदस्यता तो चली ही गई थी, राजनीतिक वनवास भी झेलना पड़ा रहा है। लेकिन, दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह ने मोर्चा सम्भाल लिया। और मोर्चा भी ऐसा सम्भाला कि बीजेपी ने उन्हें महिला मोर्चा की अध्यक्ष बनाने के साथ ही लखनऊ की सरोजिनी नगर सीट से प्रत्याशी भी बना दिया। स्वाति सिंह के चुनाव मैदान में होने से सरोजिनी नगर का मुकाबला बेहद रोचक हो गया है। लखनऊ की ही एक और हाई प्रोफाइल सीट है लखनऊ कैन्ट। यहां से मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव चुनाव लड़ रही हैं। अपर्णा के पति प्रतीक मुलायम की दूसरी पत्नी के बेटे हैं और राजनीति में कतई उनकी रुचि नहीं है। प्रतीक की भले ही राजनीति में दिलचस्पी न हो लेकिन, प्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के बेटे होने के नाते प्रतीक पर राजनीति में आने का दबाव निरन्तर बना हुआ है। इसीलिए प्रतीक की पत्नी के तौर पर अपर्णा ने राजनीतिक विरासत को सलीके से आगे बढ़ाने का जिम्मा ले लिया है। और, कैन्ट सीट पर कांग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और अभी बीजेपी की प्रत्याशी रीता बहुगुणा जोशी को कड़ा मुकाबला दे रही हैं।
एक समय में भले ही ये लग रहा था कि अपर्णा यादव और डिम्पल यादव में जबरदस्त अंदरूनी संघर्ष चल रहा था। लेकिन, अपर्णा के मंच पर प्रचार के लिए पहुंचकर डिम्पल यादव ने उन अटकलों पर विराम लगाने की भी एक कोशिश की है। डिम्पल यादव समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारकों में उस समय शामिल हुई हैं, जब पुरानी समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव के बाद सबसे बड़े स्टार प्रचारक शिवपाल सिंह यादव सिर्फ जसवंतनगर विधानसभा सीट तक सिमटकर रह गए हैं। चुनाव से पहले घर की लड़ाई में और अब चुनावी मैदान में जूझ रहे अखिलेश यादव के साथ डिम्पल बेहद मजबूत खम्भे की तरह खड़ी हो गई हैं। हर जगह वो लोगों से कह रही हैं कि अपने अखिलेश भैया को मजबूत कीजिए। डिम्पल भाभी अब सभाओं में कहती हैं कि लोगों की साजिश थी कि आपके भैया के पास बस चाभी और भाभी ही रह जाए। अब जब भाभी इस तरह से भाइयों से साथ आने को कह रही हो तो भला कौन चाचा-ताऊ के साथ खड़ा रह पाएगा।

लखनऊ प्रदेश की राजनीतिक राजधानी है, तो इलाहाबाद प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी है। लखनऊ की ही तरह इलाहाबाद में भी 2 सीटों पर पत्नियां, पतियों की इज्जत बचाने के लिए मैदान में हैं। भारतीय जनता पार्टी के विधानमंडल दल के सचेतक रहे पूर्व विधायक उदयभान करवरिया ने एक लम्बी मार्मिक अपील जारी की है। जिसमें मेजा विधानसभा की जनता से नीलम करवरिया को बहू/बेटी के तौर पर स्वीकार करके जिताने की अपील है। इसमें इस बात का भी विस्तार से जिक्र है कि उदयभान उनके बड़े भाई पूर्व सांसद कपिलमुनि करवरिया और छोटे भाई पूर्व एमएलसी सूरजभान करवरिया को राजनीतिक साजिश के तहत 20 साल पुराने मामले में फंसाकर जेल भेजा गया है। करवरिया बंधुओं पर समाजवादी पार्टी के नेता रहे जवाहर यादव की हत्या का आरोप है। नीलम करवरिया पिछले एक साल से मेजा में अपने पति-परिवार की राजनीतिक विरासत को बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं। इलाहाबाद की ही एक और सीट है, जहां इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष और बसपा सरकार में मंत्री रहे राकेशधर त्रिपाठी इज्जत बचाने की गुहार जनता से लगा रहे हैं। और उनकी इस गुहार को हंडिया विधानसभा में आगे लेकर उनकी पत्नी प्रमिला लड़ रही हैं। राकेशधर, प्रमिला में नजर आते रहें इसलिए उनके नाम में भी धर लगा दिया गया है। हंडिया से प्रमिलाधर अपने पति राकेशधर त्रिपाठी की इज्जत की लड़ाई लड़ रही हैं। डिम्पल यादव सांसद हैं और सीधे चुनाव भी लड़ने की उन्हें जरूरत नहीं है। हां, पति की राजनीतिक लड़ाई इतनी कठिन है कि डिम्पल को भी चुनावी रणक्षेत्र में उतरना पड़ा है। इसके अलावा अपर्णा यादव, स्वाति सिंह, नीलम करवरिया और प्रमिलाधर त्रिपाठी का कोई राजनीतिक अनुभव निजी तौर पर नहीं है। स्वाति सिंह, नीलम करवरिया और प्रमिलाधर त्रिपाठी इस चुनाव से पहले पूरी तरह से घरेलू महिलाएं रही हैं। ये तीनों ही अपने पतियों की प्रतिष्ठा बढ़ाने या बचाने के लिए राजनीतिक मैदान में उतर पड़ी हैं। अब देखना होगा कि अर्धनारीश्वर को पूजने वाले देश में पति का नाम आगे रखकर मैदान में कूदी अर्धांगिनी को चुनाव जिताकर राजनीतिक तौर पर पति-पत्नी को सम्पूर्ण बनाने का काम जनता करती है या नहीं। 

Saturday, February 18, 2017

दीनदयाल उपाध्यायऔर नाना जी देशमुख की जन्मशती पर बड़ा जमावड़ा

साभार- स्पन्दन फीचर्स
संघ प्रमुख डा. मोहनराव भागवत की उपस्थिति में ग्रामोदय और विकास की अवधारणा पर होगा मंथन
24 से 27 फरवरी तक चित्रकूट में ज़ुटेंगे संघ, सरकार और मीडिया के दिग्गज
गोवा की महामहिम राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा, गुजरात और मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल श्री ओमप्रकाश कोहली के साथ ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान, केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर सहित अनेक नीति-निर्धारक और विचारक उपस्थित रहेंगे।
भोपाल। इस साल दो महान व्यक्तियों का जन्म शताब्दी वर्ष है। देश वर्ष 2016-17 में एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय और इस दर्शन के शिल्पकार नानाजी देशमुख की जन्म शताब्दी मना रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में 24 फरवरी से 27  फररवरी तक चित्रकूट में ग्रामोदय मेला -प्रदर्शनी और संवाद का कार्यक्रम आयोजित किया गया है। यह आयोजन दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट में नाना जी की सप्तम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम 24 से 27 फरवरी तक देश की विरासत, प्रगति एवं विकास को प्रदर्शित करने वाली विभिन्न, विशाल ग्रामोदय मेला एवं सभी प्रदेशों के ग्रामीण विकास मंत्रियों के ग्रामवासियों के साथ परिचर्चा, परिसंवाद, गोष्ठियां एवं प्रतियोगिताएं तथा सायंकाल में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन दीनदयाल खेल परिसर उद्यमिता विद्यापीठ, चित्रकूट में किया जा रहा है।
इस अवसर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा कार्यक्रमों का आयोजन किया गया है। इसी प्रकार माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा विकास पत्रकारिता पर 7 दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है। स्पन्दन संस्था द्वारा संचारकों की तीन दिवसीय ग्रामोदय मीडिया चौपाल” का आयोजन 25 से 27 फरवरी को किया जा रहा है। इन आयोजनों में वरिष्ठ पत्रकार श्री बलदेव भाई शर्मा, श्री जगदीश उपासने, प्रो. ब्रज किशोर कुठियाला, श्री राजकुमार भारद्वाज, डा. मनोज कुमार पटैरिया, श्री सोमदत्त शास्त्री, श्री आशीष जोशी, श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी, सुश्री सीत मिश्र, सुश्री कायनात काजी, श्रीमती सरिता अरगरे, श्रीमती शैफाली पाण्डेय, श्री जयदीप कर्णिक, श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी, श्री कृष्ण मोहन झा, सुश्री प्रियंका कौशल, श्री दिब्यांशु कुमारश्री शुभांशु चौधरी, श्री राकेश अग्निहोत्री, सुश्री ममता यादव, श्री उमाशंकर मिश्रसुश्री आशा अर्पित, श्री विजय जोशी, श्री पंकज शुक्ला सहित विभिन्न माध्यमों में कार्यरत संचारक हिस्सा लेंगे।

इस आयोजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहनराव भागवत, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर सहित देश के विभिन्‍न राज्‍यों के ग्रामीण विकास मंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों एवं विषय विशेषज्ञ विशेष रूप से उपस्थित रहेंगे। दीनदयाल शोध संस्थान के प्रधान सचिव अतुल जैन और संगठन सचिव अभय महाजन ने इस आशय का आमंत्रण दिया है। श्री महाजन के अनुसार दीनदयाल शोध संस्थान समाज जीवन के सभी पहलुओं पर जनता की पहल एवं पुरुषार्थ के आधार पर चित्रकूट के साथ ही देश के कई स्थानों पर राष्ट्र  संरचना का कार्य कर रहा है। 27 फरवरी 2011 से राष्‍ट्र ऋषि नानाजी की पुण्‍यतिथि के कार्यक्रम में चित्रकूट के स्थानीय एवं देशभर से गणमान्यजन प्रतिवर्ष श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

Friday, February 17, 2017

“यूपी के लड़कों” की हवा खराब हो रही है !

आमतौर पर अच्छा रसोइया हो या भारतीय गृहणी, भगोने में पक रहे चावल के पकने का अंदाजा ऊपर के 1-2 चावल को हाथ में लेकर लगा लेती है। उत्तर प्रदेश के चुनावी मिजाज को समझने भर का काम उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2 चरणों के चुनावों में हुए मतों के मिजाज को समझकर लगाया जा सकता है। इस चुनाव में एक कमाल की बात ये रही कि सत्ताधारी पार्टी के परिवार का झगड़ा चुनाव के ठीक पहले ऐसा उभरकर सामने आया कि चुनावी हवा खत्म सी हो गई। और इसीलिए ये लगने लगा कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ की हवा बन गई है। क्योंकि, समाजवाद-कांग्रेस गठजोड़ बनते ही समीक्षकों की नजर में ये पक्का हो गया कि फरवरी के महीने में हो रहे इन चुनावों में मुसलमान आंख मूंदे किसी प्रेमी जैसा व्यवहार करेगा और पूरी तरह से इस गठजोड़ के आगे समर्पण कर देगा। लेकिन, समीक्षक इस प्रेम त्रिकोण के तीसरे कोण को ठीक से नहीं देख पा रहे थे। उसकी वजह भी बड़ी साफ थी। अखिलेश यादव ने चाचा-पिता के खिलाफ लड़ाई इस अंदाज में लड़ी कि सारा मीठा गप्प गप्प चला आया अखिलेश के खाते में और कड़वा कड़वा थू थू हो गया मुलायम और शिवपाल पर। उसी में किसानों का मांगपत्र भरवाते थक से गए राहुल गांधी ने भी अखिलेश का साथ थाम लिया। फिर क्या था यूपी के लड़के छा गए। ये मीडिया में बना माहौल था, जिसमें यूपी के लड़के छा गए थे। लेकिन, जमीन पर जब 2 चरणों के मतों का मिजाज दिखना शुरू हुआ है, तो लग रहा है कि यूपी के लड़कों की हवा खराब हो रही है।
यूपी के लड़कों की हवा खराब हो रही है, ये मैं क्यों कह रहा हूं ?
सबसे बड़ी और पहली वजह- कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों ने सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली थी। इस वजह से कांग्रेस के सम्भावित प्रत्याशी और कांग्रेस समर्थकों ने बमुश्किल कुछ सीटों पर ही समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों की मदद की है। और लगभग यही काम समाजवादी पार्टी के सम्भावित दावेदारों और उनके समर्थकों ने किया है। गठजोड़ की केमिस्ट्री गड़बड़ा गई है।
दूसरी बड़ी वजह ये रही कि आंख मूंदकर जिस तरह से मुसलमानों के इस गठजोड़ के साथ आने की उम्मीद यूपी के लड़कों को हो गई थी, वो उम्मीद धरी की धरी रह गई है। कम से कम पहले और दूसरे चरण में मत के बाद का मिजाज ऐसा ही दिख रहा है। मुसलमानों का मत समाजवादी-कांग्रेस गठजोड़ के बजाय हाथी के निशान पर लड़ रहे मुसलमानों पर ज्यादा भरोसे के साथ पड़ने की खबरें हैं। मायावती ने 403 में से 99 सीटों पर मुसलमानों को टिकट दिया है। मायावती का प्रचार तंत्र मुसलमानों को ये समझाने में कामयाब रहा है कि समाजवादी पार्टी की सरकार मुसलमानों पर हुए अत्याचार को रोकने में नाकाम रही है।
तीसरी बड़ी वजह ये रही कि मुजफ्फरनगर में हुए 2013 के दंगों के बाद जितनी तेजी से जाट-मुसलमान के एक साथ बैठने की उम्मीद राष्ट्रीय लोकदल के पक्ष में लगाई जा रही थी, वो समीकरण उतना सलीके से फिट होता नहीं दिखा है।
चौथी एक बड़ी वजह ये रही कि जाट आरक्षण और हरियाणा गैर जाट मुख्यमंत्री को लेकर पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटों में जिस तरह का विरोध भारतीय जनता पार्टी के लिए दिख रहा था। उसे काफी हद तक ठीक करने में अमित शाह को सफलता मिल गई है। भले ही जाटों ने मई 2014 की तरह पूरी तरह से बीजेपी के पक्ष में मत नहीं दिए लेकिन, जाटों का गुस्सा जरूर काफी कम होता दिखा है।
पांचवी वजह ये कि कहा जा रहा था कि इस चुनाव में कोई हवा नहीं है। क्योंकि, यादव परिवार के झगड़े की हवा सबसे तेज चल रही थी। लेकिन, सच्चाई ये है कि मतदाताओं में हवा काम कर रही है। और वो हवा सत्ता के खिलाफ ही है। समाजवादी सरकार के 5 साल की कानून व्यवस्था ने उस हवा को अंदर ही अंदर बहुत तेज किया है।
छठवीं और आखिरी सबसे जरूरी वजह ये रही कि देश भर में दलित अत्याचार के मामले को बड़े सलीके से मुसलमानों के साथ जोड़ दिया गया है। उसकी वजह से उत्तर प्रदेश में एमवाई की जगह डीएम समीकरण का जोड़ ज्यादा तगड़ा दिख रहा है। मुसलमान और दलितों में संगत बेहतर हुई है, बनिस्बत यादव और मुसलमान के।

ये छह वजहें ऐसी हैं, जो यूपी के लड़कों की हवा खराब करती दिख रही हैं। साथ ही रणनीति के तौर पर मायावती का दलित-मुसलमान को ही सबसे आगे रखना काम करता दिख रहा है। समाजवादी-कांग्रेस गठजोड़ से अपनी सीधी लड़ाई बताने वाले अमित शाह ने भी पहले चरण के मत के बाद साफ कहाकि हमारी लड़ाई पहले-दूसरे चरण में बीएसपी से ही है। अभी जो नजर आ रहा है उसमें किसकी सरकार बनेगी, ये कहना कठिन है। पहले 3 चरण के चुनाव में ही समाजवादी-कांग्रेस गठजोड़ को भारी बढ़त की उम्मीद मुसलमान मतों के भरोसे थी, जो ध्वस्त होती दिख रही है। यूपी का मतदाता यूपी के लड़कों की हवा खराब करता साफ दिख रहा है और आखिरी नतीजे चौंकाने वाले ही होंगे, ये तय करता भी दिख रहा है। 

Thursday, February 16, 2017

शशिकला जी, सत्ता के शीर्ष पर बैठी महिला भारत में कभी कमजोर नहीं रही

AIADMK के ट्विटर पर अभी भी ये तस्वीर लगी है
हर तरह की तिकड़मबाजी बेकार गई। शशिकला को सुप्रीमकोर्ट से सजा हो गई। अब वो तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनना तो दूर, किसी भी तरह के चुनाव में शामिल भी नहीं हो सकेंगी। जेल जाते शशिकला ने अपने विश्वासपात्र एक पुरुष नेता को उसी तरह से मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया है, जैसे जयललिता ने जेल जाते समय अपने विश्वासपात्र पुरुष नेता पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी थी। जैसे जयललिता के चरणों में पन्नीरसेल्वम लोटे रहते थे, वैसे ही शशिकला के सामने ई के पलनीसामी रहते हैं। इसके बावजूद शशिकला ने जयललिता के विश्वस्त पुरुष पन्नीरसेल्वम से लड़ते हुए कह दिया कि वो महिला हैं, इसीलिए उन्हें परेशान किया जा रहा है। उन्होंने कहाकि कुछ लोगों को राजनीति में महिलाएं बर्दाश्त नहीं होतीं। शशिकला भले कह रही हैं कि महिला होने की वजह से वो मुख्यमंत्री नहीं बन पाईं। लेकिन, हिन्दुस्तान दावा कर सकता है कि ये राजनीतिक तौर पर दुनिया में सबसे ताकतवर महिलाओं का देश है। और ये दावा खोखला भी नहीं है। इसका मजबूत आधार है। ये वो देश है, जिसने 1966 में ही पहली महिला प्रधानमंत्री चुन लिया था। इस देश में अब तक अगर किसी राजनेता की ताकत का हवाला देना होता है, तो एक राजनेता का हवाला तानाशाही की हद तक दिया जाता है, तो वो भी एक महिला ही रही। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते ही कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों की औकात धीरे-धीरे खत्म सी होने लगी थी। इंदिरा गांधी के भी प्रधानमंत्री बनने से पहले देश के सबसे बड़े राज्य अविभाजित उत्तर प्रदेश में सुचेता कृपलानी मुख्यमंत्री बन गईं थीं। 1963 से 1967 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं सुचेता कृपलानी देश की पहली महिला मुख्यमंत्री रहीं। उसी उत्तर प्रदेश में आज भी अगर कानून व्यवस्था के राज की बात की जाती है, तो वो कल्याण सिंह और मायावती की ही होती है। देश के सबसे बड़े राज्य के सबसे ताकतवर लोगों में मायावती का शुमार होता है। फिर वो मुख्यमंत्री हों या न हों। उत्तर प्रदेश के चुनाव में अगर किसी राजनीतिक पार्टी में सबसे ताकतवर नेतृत्व है जिसके सामने पार्टी के हर बड़े नेता की घिग्घी बंधी रहती है, तो वो मायावती ही हैं। अखिलेश यादव के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हुए समाजवादी पार्टी की पूरी राजनीति बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली डिम्पल यादव भी महिला ही हैं। उत्तर प्रदेश के बगल में ही बिहार को भी मजबूरी में ही सही 1997 में ही पहली महिला मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के तौर पर मिल गई थी। 1997 से 2005 तक राबड़ी देवी 3 बार बिहार की मुख्यमंत्री बनीं। जिस पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन-सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में कोई दिखता ही नहीं था, तो वहां भी उस सत्ता को चुनौती देकर उसे मटियामेट करने का काम भी एक महिला ने ही किया। ममता बनर्जी के आगे अभी फिलहाल कोई बड़ी चुनौती की तरह खड़ा होता दिख नहीं रहा है।

सोनिया गांधी पर तो विदेशी मूल के होने का आरोप लगाकर उन्हें राजनीति से बाहर करने की भरपूर कोशिश हुई। लेकिन, सोनिया गांधी ने सबसे लम्बे समय तक कांग्रेस अध्यक्ष का रिकॉर्ड बना दिया। सोनिया गांधी कितनी ताकतवर राजनेता रही हैं, इसके लिए किसी आंकड़े की जरूरत शायद ही है। आतंकवाद से बुरी तरह से परेशान जम्मू कश्मीर में भी महबूबा मुफ्ती का मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना महिलाओं के ताकतवर होने की कहानी है। मुफ्ती मोहम्मद सईद को अपनी विरासत बेटी को ही देना ज्यादा बेहतर लगा। पंजाब में जब आतंकवाद चरम पर था, उस समय राजिंदर कौर भट्टल वहां की मुख्यमंत्री बनीं थीं। देश की राजधानी दिल्ली में सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी एक महिला शीला दीक्षित का ही कब्जा रहा। और वो भी इस कदर कि अभी तक दिल्ली में शीला दीक्षित के कद का नेता किसी दल में खोजना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। दिल्ली से सटे राजस्थान में वसुंधरा राजे का कब्जा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली बीजेपी में भी वसुंधरा अपनी ताकत समय-समय पर साबित करने में कामयाब रही हैं। वसुंधरा इससे पहले भी 2003 से 2008 तक मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। उत्तराखंड में भले ही इंदिरा हृदयेश मुख्यमंत्री न बन सकी हों लेकिन, नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में सबसे ताकतवर मंत्री इंदिरा हृदयेश ही रहीं। जिस तमिलनाडु में शशिकला सत्ता हासिल करने की लड़ाई आज लड़ते हुए ये कह रही हैं कि महिला होने की वजह से उन्हें परेशानी हो रही है, उसी तमिलनाडु में जयललिता ने पुरुष वर्चस्व की राजनीति को धराशायी कर दिया था। जयललिता पहली बार 1991 में मुख्यमंत्री बनीं थीं। लेकिन, 1989 से ही पार्टी पर पकड़ मजबूत बना ली थी। एमजीआर के निधन के बाद एआईएडीएमके में वर्चस्व की लड़ाई भी दो महिलाओं के ही बीच थी। एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन को हराकर जयललिता ने एमजीआर की विरासत को खूब आगे बढ़ाया। जयललिता के पैरों में माथा रगड़ते पुरुष नेताओं, समर्थकों की तस्वीरें भला किसे भूल सकती हैं। दरअसल सत्ता का अपना एक स्वभाव है और वो स्वभाव ही उसे ताकत देता है। भारतीय राजनीति में शीर्ष पर बैठी किसी महिला के महिला होने की वजह से शायद ही उसे कभी कमजोर होना पड़ा हो। ज्यादातर मौके पर महिला होना ज्यादा ताकत की वजह बना हो। इसलिए शशिकला की ओ पन्नीरसेल्वम के साथ सत्ता संघर्ष में अपने महिला होने की दुहाई देकर भावनात्मक अपील करना सिवाय धोखा देने के कुछ नहीं है। 

Wednesday, February 15, 2017

खिसकती दिख रही समाजवादी पार्टी की “बुनियादी ईंट”

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के राज में इटावा अति महत्वपूर्ण जिले में गिना जाता रहा है। अखिलेश यादव के राज में भी इटावा का ये रुतबा कायम रहा। ऐसा सुख शायद ही देश में किसी जिले को हासिल हो। मुलायम राज में इटावा के लोग खुद को सबसे ऊपर समझते रहे हैं। और इसी वीआईपी होने की चाहत में इटावा के लोगों ने आंख मूंदकर मुलायम सिंह यादव का समर्थन किया है। इसी जिले की जसवंतनगर सीट से मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की और उसके बाद ये शिवपाल की सीट हो गई। मुलायम सिंह यादव ने जसवंतनगर में भाई शिवपाल यादव के समर्थन में कहाकि अखिलेश जिद्दी है। कई बार वो बात सुन लेता है, कई बार नहीं सुनता। ऐसा कहते मुलायम भावुक हो गए। उन्होंने कहाकि शिवपाल को वही सम्मान दीजिए, जो आप मुझे देते रहे हैं। दरअसल जसवंतनगर एक ऐसी सीट है जिस पर पिछले 4 दशक से ज्यादा में 2 बार छोड़कर मुलायम सिंह यादव का कब्जा पक्का होता रहा है। 1967 में पहली बार मुलायम यहां से चुनकर विधानसभा में पहुंचे। उसके तुरंत बाद 1969 में हुए चुनाव में उन्हें बिशंभर सिंह यादव ने हरा दिया और एक बार 1980 में बलराम सिंह यादव ने हराया। इसके अलावा 67 से 93 तक ये सीट मुलायम सिंह को विधायक बनाती रही। 1996 से अभी तक यहां से शिवपाल सिंह यादव विधायक चुने जा रहे हैं। इस बार के चुनाव में भाजपा ने बसपा से पिछला चुनाव लड़े मनीष यादव पर भरोसा जताया है। बसपा से दरवेश कुमार शाक्य, और राष्ट्रीय लोकदल से जगपाल सिंह यादव लड़ रहे हैं। सीधे तौर पर शिवपाल को यहां खास चुनौती नहीं दिखती है। लेकिन, अंदरखाने अखिलेश यादव के समर्थक शिवपाल को चुनाव हराने की कोशिश में लगे हैं। ये बात जसवंतनगर की सड़कों पर कोई आम आदमी भी बता देगा।
जसवंतनगर सीट पर भले ही चाचा का टिकट काटने का साहस जसवंतनगर में अखिलेश भले न कर पाए। क्योंकि, चाचा शिवपाल को यहां हराना असम्भव न सही लेकिन, बहुत मुश्किल जरूर है। लेकिन, बगल की इटावा की सीट पर अखिलेश वाली समजावादी पार्टी ने मुलायम के खासमखास मौजूदा विधायक रघुराज शाक्य का टिकट काट दिया है। 2012 में रघुराज सिंह शाक्य ने बसपा के महेंद्र सिंह राजपूत को हराया था। हालांकि, राजपूत भी पुराने सपाई रहे। 2002 और 2007 के चुनाव में साइकिल की सवारी करके ही विधानसभा पहुंचे थे। शाक्य का टिकट काटकर रामगोपाल के नजदीकी कुलदीप गुप्ता को लड़ाया जा रहा है। कुलदीप गुप्ता इटावा नगर पालिका चेयरमैन हैं। भाजपा ने यहां से सरिता भदौरिया और बसपा ने नरेंद्र चतुर्वेदी को प्रत्याशी बनाया है। यादव, मुसलमान और शाक्य के मजबूत आधार मतों पर यहां समजावादी पार्टी का किला बहुत मजबूत रहा है। इस सीट पर 40 हजार मुसलमान मत हैं। और नगरपालिका के चुनाव में कुलदीप गुप्ता ने नफीसुल आलम को हराया था। कमाल की बात ये कि कुलदीप ने हिन्दू ध्रुवीकरण को अपने पक्ष में करके पालिका चेयरमैन की कुर्सी हथियाई। मुसलमानों का मानना है कि नफीसुल आलम को हराने में रामगोपाल यादव की बड़ी भूमिका रही है। नफीसुल को मुलायम-शिवपाल का नजदीकी माना जाता है। सवाल ये है कि क्या नगर पालिका की हार का बदला लेने के लिए इटावा के मुसलमान समाजवादी पार्टी के खिलाफ मत डाल सकते हैं। वैसे भी ये सीट तय करेगी कि इटावा में शिवपाल का अधिकार कुछ बचा हुआ है या रामगोपाल ने उसे लगभग खत्म कर दिया है। हालांकि, रामगोपाल यादव ने नफीसुल अंसारी को नगर पालिका चेयरमैन फिर से बनाने का वादा करके उन्हें कुलदीप के साथ लगा दिया है। साथ ही मुसलमान इलाकों में अवैध बिजली बड़ा मुद्दा है। मुसलमानों को लगता है कि बसपा की सरकार आई तो उनके लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

इटावा और जसवंतनगर के अलावा समाजवादी पार्टी की तीसरी बुनियादी आधार सीट है भरथना। 1989 में जनता दल और उसके बाद 1991 में जनता पार्टी। फिर जब मुलायम सिंह यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी 1992 में बना ली तो उसके बाद से ये सीट समाजवादी पार्टी की परम्परागत सीट हो गई। 2007 मे मुलायम सिंह यादव खुद इस सीट से चुने गए। और, जब 2009 में मुलायम लोकसभा के लिए चुन लिए गए तो, बीएसपी के शिव प्रसाद यादव ने उपचुनाव में इस सीट पर कब्जा जमाया। लेकिन, 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर से ये सीट समाजवादी पार्टी के खाते में आ गई। यहां से समाजवादी पार्टी ने कमलेश कुमार कठेरिया को प्रत्याशी बनाया है। बीजेपी से सावित्री कठेरिया और बीएसपी से राघवेंद्र गौतम प्रत्याशी हैं। राघवेंद्र गौतम के लिए प्रचार करने आई मायावती ने भरथना की रैली में कहाकि- ये दोनों एक दूसरे को हराएंगे। इसलिए सपा-कांग्रेस गठबंधन भी गया काम से। मायावती के ये दोनों दरअसल अखिलेश-शिवपाल हैं। इटावा जिले की हर विधानसभा सीट पर अखिलेश-रामगोपाल के समर्थक मुलायम-शिवपाल के समर्थकों को चिढ़ाते नजर आ रहे हैं। इसीलिए मायावती का ये कहना कि ये दोनों एक दूसरे को हराएंगे, अगर मुसलमानों को समझ में आ गया तो समाजवादी पार्टी की सबसे मजबूत बुनियादी ईंट इटावा में दरार पड़ सकती है। हो सकता है कि इस चुनाव में तीनों ही सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में आ जाएं लेकिन, लम्बे समय के लिए समाजवादी राजनीति का तगड़ा होता साफ दिख रहा है। क्योंकि, परिवार की लड़ाई की धुरी यही जिला है और इसी के चुनाव तय करेंगे कि लड़ाई 11 मार्च के बाद कैसे आगे बढ़ेगी। 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...