(इस बार की छुट्टियों में मैं इलाहाबाद गया तो, एक मित्र की शादी में जौनपुर भी जाना हुआ। बस का सफर एक दशक पहले जैसा ही था तो, जौनपुर जैसे छोटे-ठहरे हुए शहर में मुझे कई छोटे-छोटे (सुखद) बदलाव देखने को मिले। उस दौरान के अनुभव का चित्र यहां शब्दों से खींचने की कोशिश कर रहा हूं।)
काफी लंबे समय बाद मैंने इस बार उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की सेवा का आनंद लिया। मुझे याद नहीं है कि इसके पहले मैंने सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल इलाहाबाद में कब किया था। क्योंकि, ज्यादातर मोटरसाइकिल या ज्यादा दूर जाना हुआ तो, गाड़ी से ही निकल जाते थे। लेकिन, घरेलू मित्र की शादी में मुझे एक दिन पहले ही जौनपुर जाना था और घर से सभी लोग जाने के लिए तैयार थे इसलिए दोनों गाड़ी छेड़कर मुझे सुबह की बस पकड़नी पड़ी।
मेरे मित्र मनीष ने कहाकि सुबह सात बजे पवन गोल्ड आती है उसी से आना। वो, नॉन स्टॉप है यानी इलाहाबाद से सीधे जौनपुर पहुंचाएगी- करीब तीन घंटे में। लेकिन, मेरे भाग में तो यूपी रोडवेज का असली मजा बदा था। 7 बजे वाली पवन गोल्ड छूट गई और मैं 2-3 बस छोड़ने के बाद आखिरकार एक सीट पाकर उस पर बैठ गया। बस असली मजा तभी शुरू हुआ।
एक 20-22 साल का लड़का अपनी शर्ट एक तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर और दूसरी पर अपने बैग रखकर (छेंककर) अपने परिवार वालों को बैठाने लगा। इसी बीच धीरे से एक महिला ने उसका बैग उतारा और बैठ गई। खाली बनियान में पसीने से तरबतर लड़का तैश में आ गया। लेकिन, क्या संस्कार थे, आप खुद ही देखिए। आंटी आप नीचे उतरो इस सीट पर मेरे घर वाले बैठेंगे, कई लेडीज हैं। बताइए इतनी मुश्किल से चार बस छोड़ने के बाद तो ये जगह मिली है। आंटी भी तैश में आ गई। तो तू ही बता मैं कैसे जाऊं। तुम्हारा परिवार जाएगा तो, मैं भी तो लेडीज हूं। मैं तो, इसी सीट पर जाऊंगी। अब तक लड़के का ताव थोड़ा ठंडा पड़ चुका था क्योंकि, दूसरी सवारियों ने भी आंटी की बात में हां में हां मिलानी शुरू कर दी थीं। खैर, आधे घंटे तक सीट पर, बीच की गैलरी में और ड्राइवर के बगल की सारी जगह भरने के बाद ही बस चली।
अचानक एक साहब उछलकर किनारे खिड़की के पास जगह बनाकर बैठ गए। किसी ने पीछे से जुमला उछाला- बंबई से कमाके आए हैं का। नहीं, दिल्ली से आ रहे हैं। फिर दूसरे सज्जन ने इस बार मोरचा संभाला। तभी तो बड़ी चमक औ ऊर्जा दिख रही है। परदेस की कमाई है ना। तब तक एक नेताजी टाइन सज्जन ने कहा- थोड़ा सरकिए। भाई साहब ने आनाकानी दिखाई तो, नेताजी बोल पड़े यही समस्या है। बंबई के लोकल में कूकुर-बिलार (कुत्ते-बिल्ली) के तरह भरके रोज चलथी। लेकिन, घरे लौटिहैं तो, तनिकौ सीट देए म नानी मरि जाथ। इही से राज ठाकरेवा मारथ लातै लात तो दिमाग ठिकाने रहथ। इतना सुनने के बाद कमाकर घर लौटे भाईसाहब सीट पर थोड़ी जगह छोड़ चुके थे।
बस हर स्टॉपेज पर रुक रही थी। हाल ये था कि बाजार के अलावा भी रास्ते में कोई हाथ दे देता और बस रुक जाती। 100 किलोमीटर का सफर 3 घंटे के बजाए करीब चार घंटे में तय हुआ। अब तौ खैर इलाहाबाद से जौनपुर का रास्ता काफी बन गया है लेकिन, विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान मेरे जौनपुर के मित्र इसे कॉम्बीफ्लेम वाला रास्ता बताते थे। यानी इस रास्ते पर सफर के बाद कॉम्बीफ्लेम (दर्द की दवा) लेना जरूरी हो जाता था। खैर, मैं जौनपुर पहुंचा तो, बस अड्डे से रिक्शा लिया। और, दीवानी कचहरी के लिए चल दिया। रास्ते में एक जगह जाम दिखा तो, रिक्शे वाले ने कहा- किसी साहब की गाड़ी खड़ी है। भइया इहै है अगर कौनो साधारण आदमी होत तो, अब तक ओका पुलिसवाले उठाए के बंद कइ देहे होतेन। लेकिन, अब लाल बत्ती क गाड़ी तो, कहूं खड़ी कइद्या के रोकथ।
खैर, जाम की वजह सिर्फ बेतरतीब खड़ी लाल बत्ती की गाड़ी नहीं थी। दरअसल हम स्टेट बैंक के सामने से गुजर रहे थे और ब्रांच के बगल में ही स्टेट बैंक का एटीएम भी था। एटीएम से पैसा निकालने वालों की लाइन सड़क पर काफी दूर तक लगी थी। और, ट्रैफिक में बाधा बन रही थी। जौनपुर शहर में एटीएम की ये लाइन देखकर थोड़ा आश्चर्य हो रहा था।
जौनपुर में भी दूसरे दिन सुबह मैं दाढ़ी बनवाने गया तो, नजदीक में ही एक लाइन से दो एसी सलून थे। वहां भी लाइन लगी थी। आधे घंटे-पैंतालीस मिनट की वेटिंग थी। वो तो, मित्र हमारे नेताजी थे इसलिए लाइन टूटी और दो कुर्सियां काली होते ही हम लोग उस पर आसीन हो गए। शहनाज की मसाज और ढेर सारे महानगरीय सौंदर्य प्रसाधन उसने बिना कहे ही दाढ़ी बनाने के बाद इस्तेमाल कर दिए।
ये वो जौनपुर है जहां, पता नहीं कितने सालों से कोई नई बाजार नहीं बनी है। कमाई का नया साधन नहीं बना है। अभी भी जाति की अहं सबसे ज्यादा मायने रखता है। ज्यादातर लड़के या तो बेरोजगार हैं या ठेका-पट्टा और राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ सक्रिय होकर खुद को व्यस्त रखे हैं। ऐसे जौनपुर में एटीएम के लिए लगी लंबी लाइन और एसी सलून में 12 रुपए में दाढ़ी बनवाने के बजाए 70 रुपए में मसाज किया चमकता चेहरा लेकर निकलने वाले लोग ही शायद कुछ बदलाव की राह तैयार कर पाएंगे। मुझे लगता है कि यहां परंपरागत भारत का बचत का नहीं नए इंडिया का खर्च वाला फॉर्मूला बदलाव का रास्ता तैयार करेगा।
काफी लंबे समय बाद मैंने इस बार उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की सेवा का आनंद लिया। मुझे याद नहीं है कि इसके पहले मैंने सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल इलाहाबाद में कब किया था। क्योंकि, ज्यादातर मोटरसाइकिल या ज्यादा दूर जाना हुआ तो, गाड़ी से ही निकल जाते थे। लेकिन, घरेलू मित्र की शादी में मुझे एक दिन पहले ही जौनपुर जाना था और घर से सभी लोग जाने के लिए तैयार थे इसलिए दोनों गाड़ी छेड़कर मुझे सुबह की बस पकड़नी पड़ी।
मेरे मित्र मनीष ने कहाकि सुबह सात बजे पवन गोल्ड आती है उसी से आना। वो, नॉन स्टॉप है यानी इलाहाबाद से सीधे जौनपुर पहुंचाएगी- करीब तीन घंटे में। लेकिन, मेरे भाग में तो यूपी रोडवेज का असली मजा बदा था। 7 बजे वाली पवन गोल्ड छूट गई और मैं 2-3 बस छोड़ने के बाद आखिरकार एक सीट पाकर उस पर बैठ गया। बस असली मजा तभी शुरू हुआ।
एक 20-22 साल का लड़का अपनी शर्ट एक तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर और दूसरी पर अपने बैग रखकर (छेंककर) अपने परिवार वालों को बैठाने लगा। इसी बीच धीरे से एक महिला ने उसका बैग उतारा और बैठ गई। खाली बनियान में पसीने से तरबतर लड़का तैश में आ गया। लेकिन, क्या संस्कार थे, आप खुद ही देखिए। आंटी आप नीचे उतरो इस सीट पर मेरे घर वाले बैठेंगे, कई लेडीज हैं। बताइए इतनी मुश्किल से चार बस छोड़ने के बाद तो ये जगह मिली है। आंटी भी तैश में आ गई। तो तू ही बता मैं कैसे जाऊं। तुम्हारा परिवार जाएगा तो, मैं भी तो लेडीज हूं। मैं तो, इसी सीट पर जाऊंगी। अब तक लड़के का ताव थोड़ा ठंडा पड़ चुका था क्योंकि, दूसरी सवारियों ने भी आंटी की बात में हां में हां मिलानी शुरू कर दी थीं। खैर, आधे घंटे तक सीट पर, बीच की गैलरी में और ड्राइवर के बगल की सारी जगह भरने के बाद ही बस चली।
अचानक एक साहब उछलकर किनारे खिड़की के पास जगह बनाकर बैठ गए। किसी ने पीछे से जुमला उछाला- बंबई से कमाके आए हैं का। नहीं, दिल्ली से आ रहे हैं। फिर दूसरे सज्जन ने इस बार मोरचा संभाला। तभी तो बड़ी चमक औ ऊर्जा दिख रही है। परदेस की कमाई है ना। तब तक एक नेताजी टाइन सज्जन ने कहा- थोड़ा सरकिए। भाई साहब ने आनाकानी दिखाई तो, नेताजी बोल पड़े यही समस्या है। बंबई के लोकल में कूकुर-बिलार (कुत्ते-बिल्ली) के तरह भरके रोज चलथी। लेकिन, घरे लौटिहैं तो, तनिकौ सीट देए म नानी मरि जाथ। इही से राज ठाकरेवा मारथ लातै लात तो दिमाग ठिकाने रहथ। इतना सुनने के बाद कमाकर घर लौटे भाईसाहब सीट पर थोड़ी जगह छोड़ चुके थे।
बस हर स्टॉपेज पर रुक रही थी। हाल ये था कि बाजार के अलावा भी रास्ते में कोई हाथ दे देता और बस रुक जाती। 100 किलोमीटर का सफर 3 घंटे के बजाए करीब चार घंटे में तय हुआ। अब तौ खैर इलाहाबाद से जौनपुर का रास्ता काफी बन गया है लेकिन, विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान मेरे जौनपुर के मित्र इसे कॉम्बीफ्लेम वाला रास्ता बताते थे। यानी इस रास्ते पर सफर के बाद कॉम्बीफ्लेम (दर्द की दवा) लेना जरूरी हो जाता था। खैर, मैं जौनपुर पहुंचा तो, बस अड्डे से रिक्शा लिया। और, दीवानी कचहरी के लिए चल दिया। रास्ते में एक जगह जाम दिखा तो, रिक्शे वाले ने कहा- किसी साहब की गाड़ी खड़ी है। भइया इहै है अगर कौनो साधारण आदमी होत तो, अब तक ओका पुलिसवाले उठाए के बंद कइ देहे होतेन। लेकिन, अब लाल बत्ती क गाड़ी तो, कहूं खड़ी कइद्या के रोकथ।
खैर, जाम की वजह सिर्फ बेतरतीब खड़ी लाल बत्ती की गाड़ी नहीं थी। दरअसल हम स्टेट बैंक के सामने से गुजर रहे थे और ब्रांच के बगल में ही स्टेट बैंक का एटीएम भी था। एटीएम से पैसा निकालने वालों की लाइन सड़क पर काफी दूर तक लगी थी। और, ट्रैफिक में बाधा बन रही थी। जौनपुर शहर में एटीएम की ये लाइन देखकर थोड़ा आश्चर्य हो रहा था।
जौनपुर में भी दूसरे दिन सुबह मैं दाढ़ी बनवाने गया तो, नजदीक में ही एक लाइन से दो एसी सलून थे। वहां भी लाइन लगी थी। आधे घंटे-पैंतालीस मिनट की वेटिंग थी। वो तो, मित्र हमारे नेताजी थे इसलिए लाइन टूटी और दो कुर्सियां काली होते ही हम लोग उस पर आसीन हो गए। शहनाज की मसाज और ढेर सारे महानगरीय सौंदर्य प्रसाधन उसने बिना कहे ही दाढ़ी बनाने के बाद इस्तेमाल कर दिए।
ये वो जौनपुर है जहां, पता नहीं कितने सालों से कोई नई बाजार नहीं बनी है। कमाई का नया साधन नहीं बना है। अभी भी जाति की अहं सबसे ज्यादा मायने रखता है। ज्यादातर लड़के या तो बेरोजगार हैं या ठेका-पट्टा और राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ सक्रिय होकर खुद को व्यस्त रखे हैं। ऐसे जौनपुर में एटीएम के लिए लगी लंबी लाइन और एसी सलून में 12 रुपए में दाढ़ी बनवाने के बजाए 70 रुपए में मसाज किया चमकता चेहरा लेकर निकलने वाले लोग ही शायद कुछ बदलाव की राह तैयार कर पाएंगे। मुझे लगता है कि यहां परंपरागत भारत का बचत का नहीं नए इंडिया का खर्च वाला फॉर्मूला बदलाव का रास्ता तैयार करेगा।
बहुत अच्छे, बदलेगा जौनपुर भी, जरुर बदलेगा।
ReplyDeleteजौनपुर का नाम सुन कर बहुत साल पहले जब मैं एक एन जी ओ का काम रेखने गई थी तब की याद आ गई । तब तो एन जी ओ तक पहुँचने के लिये डेढ मील पैदल चल के जाना पडा था ए.टी.एम तो दूर की बात. लेकिन आय होगी तब तो कंझूमेरिझम चलेगा ।
ReplyDeleteअपने सरकारी काम से मैँ वाराणसी से शाहगंज वाया जौनपुर जाता था। सरकारी वहन से। जौन पुर का रास्ता थका देता था। यद्यपि कुछ सड़क बन नरी है नयी।
ReplyDeleteपूर्वांचल को देखकर वैराज्ञात्मक नैराश्य होता है।
वाह, वाह। आपके गांव के माध्यम से जिस आधुनिक ग्रामीण जीवन की झांकी आपने पूरी श्रृंखला से दिखाई है, वह अपने आप में बेजोड़ है। यह उदाहरण है कि किस तरह आधुनिक ब्लॉगिंग समकालीन हिंदी साहित्य को भी समृद्ध बना रही है। मजा आ गया।
ReplyDeleteये केवल जौनपुर ही नहीं पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश का यही हाल है .
ReplyDeleteजोनपुर का किस्सा सुनकर वाकई अच्छा लगा की ऐ.सी सलून भी आ गए है .ओर रोडवेज़ मे बैठे जमाना गुजरा पर वाकई ऐसा लगा जैसे वो बनियान वाला लड़का यही खड़ा है.....
ReplyDeleteकहा जाता है की देश अब हाईटेक हो रहा हाई.. क्या वाकई ?
ReplyDeleteवैसे सफ़र की यादे बढ़िया है..
हो सके तो ज्ञानदत्तजी तक मेरी बात जरूर पहुंचाइएगा। आज़मगढ़ का निवासी हूं। जिस तरह की बातें आप ने लिखी है कमोबेश वैसी ही स्थितियों से गुजर रहा जौनपुर का पड़ोसी शहर है आज़मगढ़। दोनों शहरों का गंवई वजूद कायम है। शहर कम कस्बाई चरित्र ज्यादा कह सकते हैं। पता नहीं ज्ञानदत्तजी को निराशा क्यों है पूर्वांचल से। दिल्ली की मारामारी से ऊब कर आज भी हम किसी पहाड़ हिल स्टेशन पर नहीं भागते हैं आज़मगढ़ का रुख करते हैं। इसकी वजह ही यही है कि इन नगरों का अपना पुराना वजूद कायम है। खेती किसानी से लोग बहुत दूर नहीं हुए हैं। आम के बाग, नहरें, हरे भरे लंबे चौड़े खेत अभी भी यहां दिखते हैं। अपन तो यहां से हर बार एक नई ऊर्जा, नई ज़िंदगी, नई स्फूर्ति लेकर वापस आते हैं। निराशा किस बात से कि इन नगरों ने अपना चरित्र नहीं बदला है। खुद को बनाए रखा है। यहां अट्टालिकाएं और एसी वाले भवन नहीं हैं। 24 घंटे बिजली नहीं है, या फिर हमारी सोच ही आरामपसंद और चमक-दमक प्रेमी हो गई है। ये तो हमेशा से वहां की पहचान रही है फिर इससे निराशा क्यों। अपन तो इसी से ऊर्जा पाते हैं। अगर बीते दो चार दशकों में कोई बदला है तो दिल्ली मुंबई बदली है। तो अगर इन शहरों ने अपना चरित्र त्यागा है तो आप अपनी सोच और जड़ों का त्याग थोड़े ही कर सकते हैं। अगर आप को पूर्वांचल का गंवई चरित्र आपके अंदर हीनता पैदा करता है तो आपकी सोच से बड़ा भेद पैदा होता है।
ReplyDeleteसफ़र की यादे बढ़िया है
ReplyDeleteआप जौनपुर गए वो भी पवन गोल्ड से नहीं लोकल से ...... भाग्य आपका सही था . वर्ना आप ४ घंटे तो क्या ७ घंटे में भी नहीं पहुँच पाते .
ReplyDeleteमैं भी आजमगढ़ जाता हूँ (मेरा घर है ) तो पवन गोल्ड पकड़ने की ख्वाहिश लेकर ही बस अड्डे पहुंचता हूँ . अगर मिली तो ठीक .वरना खडे ही झूलते झूलते जौनपुर तक का सफर तय होता है .
अगर दुर्भाग्य वश लोकल बस मिल गयी तो फिर मत पूछिए क्या क्या नाटक होता है .आपतो सस्ते में निकल लिए .
पहले रास्ता गड्ढों से भरा पडा होता था और बेचारी लोकर बस फूलपुर आते आते दम तोड़ देती . अब जिनके पास हलके बैग हैं वो तो मस्त होते थे बाकी जो लद फन कर सफर करते हैं वो बोरिया टाँगे इधर उधर मडराते रहते थे . अब हालत में थोडा बहुत परिवर्तन आया है सड़के उखाड़ दी गयीं हैं और निर्माण कार्य चल रहा है . बस जब रूकती है और रेलमपेल शुरू होता है तब असली मज़ा आता है .खैर आप सकुशल पहुँच गए .इश्वर की बड़ी कृपा रही होगी आप पर .वरना हर कोई ४ घंटे में लोकल से जौनपुर नहीं पहुँच पाता .
इसीलिए आपके प्रिय मित्र मनीष ने पवन गोल्ड पकड़ने की सलाह दे दी थी
up me jounpur jaise kai shar hai jaha aisee hi samsya hai. fir bhi ham kahate hai hamara up kisee se kam nahi.
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