Monday, July 25, 2016

सब ध्वस्त कर अपनी शर्तों पर बनाई सत्ता का सुख चाहते हैं केजरीवाल

कई बार बेईमान दरोगा बेहद ईमानदारी से ही शुरुआत करता है। जिस इलाके में दरोगा की पोस्टिंग होती है, उस इलाके के सारे स्थापित गुंडों, बदमाशों, भ्रष्टाचारियों पर नकेल डाल देता है। फिर दरोगा धीरे-धीरे अपनी तय शर्तों पर गुंडे, बदमाश, भ्रष्टाचारी तैयार करता है। और इस प्रक्रिया में लंबे समय तक उस दरोगा के जलवे की चर्चा चहुं ओर हो रही होती है। आम आदमी पार्टी भी राजनीति में उसी दरोगा की तरह व्यवहार करती नजर आ रही है। संसदीय व्यवस्था और खासकर सांसद, विधायक के भ्रष्टाचार, काम न करने से ऊबी जनता को आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक पार्टियों में पुष्पित-पलल्वित हो रहे परिवारवाद, भ्रष्टाचार पर निशाना लगाना गजब का पसंद आया। अरविंद केजरीवाल ने चिल्लाकर इस तरह से हमला किया कि बरसों से राजनीति कर रही पार्टियों को चार कदम पीछे हटना पड़ गया। लंबे समय में राजनीति कर रही पार्टियों में ढेर सारी घर कर गई कमियों की वजह से पार्टियों को चार कदम पीछे हटना पड़ा। लेकिन, ये चार कदम पीछे हटना उनके लिए भारी पड़ गया। इसी दौरान अरविंद केजरीवाल ने बड़े सलीके से राजनीति के हर अच्छे-बुरे का प्रमाणपत्र देने का अधिकार हथिया लिया। इस कदर कि अरविंद केजरीवाल के प्रमाणपत्र के आधार पर ही अच्छा-बुरा तय होने लगा। और इस अधिकार के आधार पर अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के हर नेता में एक विशेष भाव उत्पन्न हो गया। वो भाव था कि पहले से चली आ रही संसदीय परंपरा को ध्वस्त करके ही राजनीति में अपना नया ब्रांड चमकाकर रखा जा सकता है।

एक महीने के अंदर शीला दीक्षित को जेल भेजने के दावे से इसकी शुरुआत हुई थी। इसकी शुरुआत देश के हर उद्योगपति खासकर अंबानी को चोर बताकर हुई थी। और इसकी परिणति कहां तक पहुंच गई कि संसद की सुरक्षा भी आम आदमी पार्टी के सांसद को मजाक लग गई। चुनाव के नजदीक खड़े राज्य पंजाब से चुनकर आए सांसद भगवंत मान ने अपने मोबाइल के जरिए संसद के अंदर का भी फेसबुक लाइव कर दिया। परंपरा ध्वस्त करके आम से खास बनी पार्टी के सांसद पहले तो कुतर्कों के जरिए फेसबुक लाइव को भी सही बताने की कोशिश करते रहे। खुद को पारंपरिक राजनीति का पीड़ित साबित करने की कोशिश करते रहे। जब लगा कि अब मामला फंस गया है, तो माफी मांग ली। हालांकि, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और लोकसभा अध्यक्ष ने 3 अगस्त तक उन्हें संसद में आने से रोक दिया है। एक समिति बन गई है, जो इस मामले पर अपनी रिपोर्ट इसके पहले पेश करेगी। लेकिन, सबकुछ ध्वस्तकर अपने नियम कानून बनाने की कोशिश में लगे अरविंद केजरीवाल की पार्टी के सांसद और उनकी पूरी पार्टी अभी भी इसमें बहुत कुछ गलत नहीं देख पा रही है। कॉमेडी करते सांसद बने भगवंत मान कह रहे हैं वो तो अपने क्षेत्र की जनता को ये दिखाना चाहते थे कि संसद की कार्यवाही कैसे चलती है। और कितना मुश्किल होता है एक सांसद के लिए अपने क्षेत्र के लिए सवाल पूछना। भगवंत मान की पार्टी के ही सांसद कह रहे हैं कि भगवंतशराब पीकर आते हैं, जिससे इतनी बदबू आती है कि उनके बगल बैठना मुश्किल है। सांसद हरिंदर खालसा ने लोकसभा अध्यक्ष से निवेदन किया है कि उनकी सीट बदल दी जाए। लेकिन, भगवंत मान को दोष देना कम ठीक रहेगा। क्योंकि, भगवंत तो कॉमेडी करते-करते विकल्प की तलाश में निकले अरविंद को पंजाब में मिल गए। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में सोमनाथ भारती मिल गए। वही सोमनाथ भारती जो गलत हरकतों के कारण घर से लेकर अरविंद की सरकार तक से बाहर हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री पर सवाल उठाना तो सबको याद ही होगा। गुजरात से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के बताने के बाद भी अरविंद और उनके सिपहसालारों को भरोसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी को कोई डिग्री मिली भी है। ये थर्ड डिग्री कीराजनीति का शानदार उदाहरण था। मोदी के बराबर खड़े होने की अरविंद की इच्छा इस कदर बलवती है कि गुजरात के ऊना में दलितों पर अत्याचार के मामले में वो एक ऐसे व्यक्तिसे मिलने चले गए, जो एक पुलिस वाले की हत्या का आरोपी है। संसदीय सचिवों के मामले में सबको गलत साबित करके खुद को पीड़ित साबित करने में भी आम आदमी पार्टी लगी ही है। किसी भी अपराध में फंसने वाले इस पार्टी के विधायकों पर सीधे मोदी कार्रवाई करवा रहे हैं, इसे भी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है अरविंद की पार्टी। मोदी को अपनी ब्रांडिंग-पैकेजिंग वाला नेता कहकर खुद को हमेशा कम संसाधनों की वजह से इस दौड़ में पिछड़ता बताने वाली पार्टी को अब दिल्ली की सरकार और खजाना भी मिल गया है। इसलिए विज्ञापनों से अपनी छवि चमकाने की सारी कमी पूरी हो रही है। कहां से चले कहां के लिए और कहां पहुंच गए की राजनीति साबित करते दिख रहे हैं अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी। 

Saturday, July 23, 2016

देश की सबसे बड़ी सेवा के अधिकारी शाह फैजल के लिखे में देश, भारत कहां है?

22 जनवरी 2016 दैनिक जागरण
2009 के आईएएस टॉपर शाह फैजल के दर्द भरे लेख को पढ़ लेने वाले देश के अधिकांश लोगों के मन में ये अहसास गहरा सकता है कि दरअसल भारत सरकार ने कश्मीर के साथ संवाद का गलत तरीका अपनाया है। शाह फैजल ने अपने लेख में लगातार बताया है कि गलत तरीके से हो रहे संवाद से कश्मीर लगातार भारत से दूर होता जा रहा है। शाह का लेख दरअसल एक कश्मीरी की भावनाओं को सामने लाता है। लेकिन, ये भावनाओं से ज्यादा उस डर को ज्यादा सामने लाता है, जिसमें कश्मीर के आतंकवाद, अलगाववाद के खिलाफ बोलने से हर कश्मीरी की जिंदगी जाने का खतरा है। शाह फैजल अपने एक साल के बेटे के साथ अपनी कहानी जोड़कर भी बताते हैं कि कैसे कश्मीर घाटी में रहने वाला हर नौजवान परेशान है। हर कोई भारत के साथ खड़ा होने से डर रहा है। ये स्वीकारोक्ति कितनी खतरनाक है। इसका अंदाजा लगाइए कि ये बात शाह फैजल कह रहा है जो, भारत सरकार की सबसे बड़ी सेवा आईएएस का टॉपर है। और अभी जम्मू कश्मीर की सरकार में शिक्षा निदेशक के पद पर काम कर रहा है। इसका मतलब समझना बहुत जरूरी है। हालांकि, सारा मतलब सलीके से शाह फैजल का लिखा ही समझा देता है। शाह फैजल का सारा गुस्सा पता नहीं टेलीविजन पर घाटी में फैल रहे अलगाववांद, आतंकवाद की बदसूरत सच्चाई सामने आने से ज्यादा है या फिर इस बात से कि टीवी पर आतंकवादी बुरहान वानी के साथ तुलना करने से उनकी जान पर खतरे से है। शाह फैजल कह रहे हैं कि भारत सरकार को टीवी चैनलों को राष्ट्रहित परिभाषित करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए। यहां तक कि शाह फैजल इसे लेकर मीडिया को संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति के अधिकार पर भी सवाल खड़ा कर देते हैं। शाह फैजल कई टीवी चैनलों का नाम लेकर लिखते हैं कि इन चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है, इससे भारत संवाद वाली सभ्यता से एक गूंगी, कुतर्की सभ्यता में बदल सकती है। शाह जब इस तरह से लिखते हैं, तो कई बार राष्ट्रहित, राष्ट्रवाद, देश कश्मीरियत की चिंता में धुंधला सा होता दिखता है। कश्मीरियत सबसे पहले होनी चाहिए लेकिन, भारत की सबसे बड़ी सेवा के अधिकारी होने का नाते कश्मीर और देश की चिंता भी दिखती, तो ज्यादा बेहतर होता।  

शाह फैजल के मुताबिक, सारे टीवी चैनल का प्राइम टाइम सिर्फ कश्मीर घाटी को और ज्यादा उत्तेजित करने वाला, कश्मीरियों को भारत के खिलाफ खड़ा करने वाला है। शाह कहते हैं कि इससे राज्य सरकार की मुश्किल और बढ़ने वाली है। शाह कह रहे हैं कि टीवी चैनल सिर्फ झूठी, लोगों को बांटने वाली, घृणा पैदा करने वाली और लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता को खत्म करने वाली खबरें दिखा रहे हैं। शाह लिखते हैं कि मुझे एक अनजान फोन कॉल से पता चला कि एक न्यूजचैनल कैसे उनकी और बुरहान वानी की तुलना कर रहा है। यहां तक लगता है कि शाह फैजल दरअसल मुश्किल का समाधान खोजने की बात कर रहे हैं। लेकिन, इसके बाद की लिखी पंक्तियां मुझे डरा रही हैं कि अपनी जान जाने के डर से एक अमनपसंद कश्मीरी ऐसे व्यवहार करने लगा तो राष्ट्रहित सरकार क्या किसी हाथ में भी सुरक्षित नहीं रहेगा। शाह कह रहे हैं कि बुरहान वानी से उनकी तुलना उनकी जान को खतरा तो है ही। साथ ही वो लिखते हैं कि 50 हजार रुपये महीने की नौकरी और 50 लाख रुपये के घर कर्ज के साथ कैसे वो सफल कश्मीरी नौजवान बताए जा सकते हैं। शाह यहीं नहीं रुकते। वो लिखते हैं कि जब महानता का पैमाना किसी के अंतिम संस्कार में उमड़ने वाली भीड़ हो तो, क्या कोई 50 हजार रुपये महीने के लिए ऐसे ही मर जाना चाहेगा। इसमें कश्मीर की चिंता कहां दिखती है। हां, यहां एक अमनपसंद कश्मीरी, उस पर भी एक आईएएस का डर टीवी स्टूडियो की बहस से ज्यादा भावनाएं भड़काने वाला हो जाता है। शाह के लेख के दर्द, भावनाओं के उफान में शायद ही इन पंक्तियों पर ज्यादा चर्चा हो लेकिन, क्या ये देश की सबसे बड़ी सेवा को सिर्फ 50 हजार की नौकरी कहकर अपमानित करने जैसा नहीं है। देश को चलाने का भरोसा जिन अधिकारियों पर होता है उनका नैतिक बल कमजोर करने जैसा नहीं है। शाह को तो फक्र होना चाहिए था कि देश के चैनल ये बता रहे हैं कि देखिए सारी विसंगतियों के बाद एक कश्मीरी कैसे देश की सबसे बड़ी सेवा में सर्वोच्च है। एक कश्मीरी भारत की सबसे बड़ी सेवा में सर्वोच्च होने को गलत तरीके से कैसे देखा जा सकता है। इतने बेहतर उदाहरण के जरिए आतंकवाद की तरफ आकर्षित होने वाले नौजवानों को रोकने से बढ़िया तरीका क्या हो सकता है। लेकिन, शाह फैजल ने तो उल्टा कर दिया। अंतिम यात्रा में भीड़ उमड़ने की बात कहकर तो एक तरह से घोषित आतंकवादी बुरहान वानी की तरफ ही कश्मीरी नौजवानों को धकेल दिया। शाह फैजल का लिखा ये ज्यादा खतरनाक इसलिए भी हो जाता है कि क्योंकि, शाह अभी भी जम्मू कश्मीर के शिक्षा विभाग में निदेशक हैं।


शाह फैजल लिखते हैं कि भारतीय परंपरा में राज्य अपने लोगों से अनुकूलन के जरिए संवाद बनाता है उग्र भाषण के जरिए नहीं। लोगों की भलाई के काम के जरिए संवाद बनाता है, हिंसा से नहीं। अब शाह फैजल ने यहां क्यों नहीं बताया कि भारत सरकार ने कितनी बार मध्यस्थों के जरिए सबसे बात करने की कोशिश की और इस कोशिश को किन लोगों ने नाकाम किया। लोगों की भलाई का, कश्मीर में आई बाढ़ के दौरान केंद्र और राज्य सरकार के काम से बड़ा उदाहरण क्या सकता है। सेना हर हालत में हर कश्मीरी को बचा रही थी। कहां से हिंसा आ गई। आतंकवादी के जनाजे के बाद हिंसा हो और पुलिस, सेना को मारने की कोशिश हो, तो संवाद कैसे होगा। ये भी शाह फैजल को बताना चाहिए। शाह मुस्लिम पंरपरा का हवाला देते हुए भी लिखते हैं कि संवाद सच, धैर्य और आग्रह के आधार पर होता रहा है। यहां भी शाह ये बताने से बच गए कि संयोग से केंद्र की सरकार और राज्य की सरकार एक दूसरे अनुकूलन का ही काम कर रहे हैं। तो फिर सच, धैर्य और आग्रह की संवाद की मुस्लिम परंपरा कौन खत्म कर रहा है। शाह ये भी चिंता जता रहे हैं कि भारतीय राज्य कश्मीर के मुद्दे को तथाकथित बौद्धिकों, राजनीतिक अवसरवादियों, मौकापरस्तों, सुरक्षा एजेंसियों और सबसे ज्यादा राष्ट्रहित के स्वघोषित रक्षकों के हाथ में छोड़ने का जोखिम नहीं ले सकता। शाह फैजल की इस बात से एकदम सहमत हूं। लेकिन, सिर्फ चार टीवी चैनलों को छोड़कर लगे हाथ तथाकथित बौद्धिकों, राजनीतिक अवसरवादियों, मौकापरस्तों के बारे में भी खुलकर आ लिखते, तो बेहतर होता। शाह फैजल लिख रहे हैं कि आप किसी भी किशोर से पूछिए तो वो बताएगा कि भारत सरकार बरसों से कैसे फर्जी चुनाव, चुनी हुई सरकारों को गिराने, एनकाउंटर और भ्रष्टाचार के जरिए कश्मीरियों से संवाद कर रही है। शाह का ये लिखा भावनाओं को भड़काने के लिए टीवी चैनलों की प्राइमटाइम बहस से भी ज्यादा खतरनाक है। फर्जी चुनाव और चुनी हुई सरकार को गिराना दोनों एक सांस में सही कैसे कहा जा सकता है। फिर शाह ने ये क्यों नहीं बताया कि अटल बिहारी बाजपेयी के समय में हुए 2002 के चुनावों के बाद जम्मू कश्मीर में ज्यादातर निष्पक्ष चुनाव हुए हैं। भ्रष्टाचार भारत के हर राज्य में है। इसका मतलब क्या ये समझा जाए कि हर जगह आतंकवाद हो जाना चाहिए। एनकाउंटर कई बार निर्दोषों के भी हुए हैं। और ये भारतीय सरकार, सेना को कठघरे में खड़ा करता है। लेकिन, क्या कश्मीरियों को ये नहीं समझना होगा कि भारत सरकार, सेना कश्मीर की पीढ़ियों को आतंकवाद से बचाने के लिए ही लगी है। लेकिन, आतंकवादियों को अगर कश्मीरी थोड़ा भी समर्थन देगा तो, भेद करना मुश्किल होता है। और फिर एक दूसरे पर भरोसा न करने की बुनियाद मजबूत होती जाती है। शाह फैजल लिखते हैं कि कश्मीरी बेहद संवेदनशील लोग हैं। लेकिन, वो शक्की भी बहुत हैं। मैं मानता हूं कि कश्मीरी बेहद संवेदनशील, लंबे समय के बुरे अनुभव की वजह से हर किसी पर संदेह करने वाले हैं लेकिन, वो बेहद उम्दा लोग हैं। बशर्ते वो कश्मीरी ही रहें। अगर वो पाकिस्तान के झंडे हाथ में थामते हैं, तो कश्मीरी नहीं हो सकते। कश्मीरी कभी पाकिस्तानी नहीं हो सकता। कभी जनमत संग्रह की नौबत आई, तो जम्मू कश्मीर के लोग ये बताएंगे कि वो क्या चाहते हैं। वैसे चुनाव भी जनमत संग्रह होता है। और इस बार के नतीजे ने तो साफ किया है कि हिंदू-मुसलमान की खाई को जम्मू-कश्मीर के लोग पाटना चाहते हैं। बीजेपी-पीडीपी का गठजोड़ जनमत के दबाव की मजबूरी में हुआ है। ये इतनी छोटी सी बात राजनीतिक विद्वान लोग क्यों नहीं समझना चाह रहे हैं। जैसे घर में किसी वजह से पिछड़े बच्चे को घर का हर मजबूत सहारा देता है। वैसे ही भारत ढेर सारी विसंगतियों की वजह से पिछड़ गए कश्मीर को भारत की मुख्यधारा में लाना चाहता है। भारत ये एहसान नहीं कर रहा। लेकिन, ये बात कश्मीर को भी समझना होगा। और आखिर में मैं शाह फैजल वाली बात में एक पंक्ति जोड़कर दोहरा रहा हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये महत्वपूर्ण काम सीधे तौर पर अपने जिम्मे ही लेना होगा कि भारत की कश्मीर में और भारतीय कश्मीर की दुनिया में छवि बेहतर हो। 

Friday, July 22, 2016

दलित-स्त्री विमर्श का स्वर्णकाल!

न्यूज एजेंसी ANI से बात करते हुए दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह
12 साल की है ये बच्ची। लेकिन, दलित नहीं है। किसी राजनीतिक दल के समर्थक भी इसके पीछे नहीं हैं। इसके पिता दयाशंकर सिंह भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष थे। एक शर्मनाक बयान दिया। उस पर तय से ज्यादा प्रतिक्रिया हुई। संसद भी चल रही थी। मोदी के गुजरात में दलितों पर कुछ अत्याचार की घटनाएं आ रही थीं। मामला दलित विमर्श के लिए चकाचक टाइप का था। उस पर महिला विमर्श भी जुड़ा, तो चकाचक से भी आगे चमत्कारिक टाइप की विमर्श की जमीन तैयार हो गई। सारे महान बुद्धिजीवी मायावती की तुलना भर से आहत हैं। देश उबल रहा है। दलित-स्त्री विमर्श अपने स्वर्ण काल तक पहुंच गया है। इस दलित-स्त्री विमर्श के स्वर्णकाल में एक 12 साल की बच्ची को डॉक्टर के पास पहुंचा दिया। लखनऊ के हजरतगंज से लेकर देश भर से इस बच्ची को बसपा कार्यकर्ता पेश करने को कह रहे हैं। दयाशंकर की किसी भी राजनीति में इसका इकन्नी का भी योगदान नहीं है। इस बच्ची ने कभी किसी के खिलाफ कोई बयानबाजी नहीं की है। Mayawati मायावती के बाद बसपा में अब अकेले बचे बड़े नेता की अगुवाई में दयाशंकर की पत्नी और बेटी को बसपा कार्यकर्ता मांग रहे थे। दयाशंकर सिंह की पत्नी Swati Singh स्वाति सिंह का कहना है कि बसपा के लोग उनके परिवार का मानसिक उत्पीड़न कर रहे हैं। वो डरी हैं। सुरक्षा मांग रही हैं। वो कह रही हैं कि मायावती के खिलाफ FIR कराएंगी। दलित-स्त्री विमर्श वालों को पता नहीं जरा भी शर्म आ रही है या वो खुश हैं कि चलो अब हम दयाशंकर की पत्नी-बेटी को जी भरकर अपमानित होता देख सके। बहनजी के अपमान का बदला पूरा हुआ। वो बच्ची कह रही है कि नसीम अंकल मुझे पेश होने के लिए कहां आना है, बता दीजिए। पता नहीं इस पर हम समाज के तौर पर या फिर राजनीति के तौर पर कैसे प्रतिक्रिया देंगे। दिक्कत तो ये भी है कि यूपी का चुनाव नजदीक है। भला कौन दल साहस दिखाएगा कि Dayashankar Singh दयाशंकर की बेटी के अधिकारों पर भी बात कर सके। इस देश का दलित-स्त्री विमर्श यहां तक पहुंच गया है। इसके लिए समाज के ठेकेदारों को बधाई देनी चाहिए। बाबा साहब को विनम्र श्रद्धांजलि। पता नहीं वो ऐसे ही शोषित समाज का बदला लेना चाहते थे या इससे कुछ कम ज्यादा। ये सब मैं नहीं तय कर सकता। मैं तो न दलित हूं, न स्त्री। मेरी तो और सलीके से बत्ती लगा दी जाएगी। यही आज की राजनीति और समाज की सच्चाई है।

Wednesday, July 20, 2016

हम दलितों-महिलाओं के सम्मान के लिए गंभीर हो रहे हैं

लीजिए उत्तर प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह को पद से हटा दिया गया। भारतीय जनता पार्टी इस कदर डरती है। दूसरी पार्टियों में ऐसी तुलना करने वाले को तरक्की मिल जाती है। लेकिन, छोड़िए इसे। सवाल ये है कि क्या दयाशंकर के बयान के मूल पर चर्चा होगी। दयाशंकर का बयान और पूरे उत्तर प्रदेश में हर किसी के संज्ञान में ये बात है कि टिकट का ज्यादा दाम मिला नहीं कि कम दाम वाले का टिकट बसपा से कटा नहीं। लेकिन, इस पर क्यों बात करना। इससे कोई लोकतंत्र मुश्किल में थोड़े ना है।


अच्छा मान लीजिए कि किसी ब्राह्मण, सवर्ण, पुरुष अध्यक्ष वाली पार्टी पर कोई पिछड़ों या दलितों वाली पार्टी का नेता ऐसे ही आरोप लगाता कि उस पार्टी में ऐसे टिकट बदल दिए जाते हैं कि वेश्याएं भी पीछे छूट जाएं, तो भी क्या ऐसे ही प्रतिक्रिया होती। क्योंकि, दलित या महिला होने के नाते तो कोई आरोप अभी भी नहीं लगा है। लेकिन, राजनीति में ऐसे सहूलियत हो जाती है और फिर खांचे में राजनीति में ज्यादा मुश्किल भी नहीं होती। बेवकूफ समर्थक उसी खांचे को आराध्य मान लेते हैं। भले ही मूर्तिपूजा छोड़ दें।

Sunday, July 17, 2016

शाह फैजल, मुनव्वर राणा और मुसलमान

शाह फैजल Shah Faesal की ताजा चिट्ठी मुझे अवॉर्ड वापसी के समय #मुनव्वरराणा के टीवी पर सम्मान लौटाने की याद दिलाती है। हालांकि, मैं शाह और राणा की तुलना नहीं कर रहा हूं। क्योंकि, राणा अपनी जिंदगी में अपने हुनर से सब हासिल कर चुके हैं और शाह को अभी अपना हुनर बहुत दिखाना बाकी है। शाह की चिट्ठी का दर्द जायज है। लेकिन, इन दोनों को एक साथ रखना मुझे इसलिए जरूरी लगा कि मुसलमान पर कितना दबाव है #नरेंद्र_मोदी सरकार के खिलाफ कुछ तो करने का। जिन्होंने भी शाह और Burhan Wani #बुरहान की तुलना की। क्या गलत किया? यही लिखा ना कि एक के पिता को आतंकवादियों ने मार डाला वो, आज भारत की सबसे ऊंची सेवा का अधिकारी है और दूसरा आतंकवादी। शाह का दर्द अपनी जगह लेकिन, मुसलमानों का, किसी भी मौके पर अपने चमकते चेहरे को दबाव में धकेलना, कहां तक जायज। मुनव्वर राणा ने अपने शुभचिंतकों को बताया कि मुल्ले पीछे पड़े हैं कि सम्मान वापस करो। खबरें बता रही हैं कि फैजल को अपना फोन बंद करना पड़ गया है। किनकी वजह से। सरकार की वजह से, हिंदुओं की वजह से या मुसलमानों की वजह से। इसकी जानकारी भी फैजल दे देते तो, काफी कुछ साफ हो जाता। कहीं इस चिट्ठी को आधार बनाकर घाटी में शाह फैजल के पोस्टर लगाकर अलगाववादियों ने नौजवानों को भड़काना शुरू कर दिया तो, शाह फैजल क्या कहेंगे या कुछ कहेंगे ही नहीं। फिलहाल कश्मीर घाटी में बहुत सी जगहों पर कर्फ्यू जारी है।

Wednesday, July 13, 2016

इलाहाबादी प्रदेश अध्यक्ष की टीम से इलाहाबाद गायब

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष घोषित होने के तीन महीने से ज्यादा समय के बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश पदाधिकारियों का एलान हो गया। तीन दिन में घोषित होने वाली टीम को बनने में तीन महीने लग गए। आठ अप्रैल को केशव प्रसाद मौर्या प्रदेश अध्यक्ष बने थे और 12 जुलाई को भाजपा की टीम घोषित हुई है। इलाहाबाद से प्रदेश अध्यक्ष चुनने के बाद जब इलाहाबाद में राष्ट्रीय कार्यसमिति हुई तो, संदेश साफ था। कांग्रेस की बुनियाद की जमीन को आधार बनाकर भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में अपना 14 साल का वनवास खत्म करना चाह रही है। लेकिन, प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या की नई टीम से दो बातें साफ हैं। पहली इसमें केशव के गृह जिले इलाहाबाद को और केशव के नजदीकियों को जगह नहीं मिल सकी है। पूरे इलाहाबाद मंडल से किसी को भी प्रदेश की टीम में जगह नहीं मिल सकी है। प्रदेश मंत्री बने अमरपाल मौर्य को छोड़ दें तो, ऐसा नाम खोजना मुश्किल है, जिस पर केशव की छाप हो। मजबूत नेता की केशव की छवि कमजोर पड़ रही है। दूसरी ये टीम भले कहने को प्रदेश अध्यक्ष की है। लेकिन, उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का मतलब सुनील बंसल है, ये और मजबूती से साबित हुआ है। सुनील बंसल उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश महामंत्री संगठन हैं। सुनील बंसल राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बेहद नजदीकी माने जाते हैं। विद्यार्थी परिषद के रास्ते भारतीय जनता पार्टी में आए सुनील बंसल की छाप नई टीम पर साफ दिखती है। जेपीएस राठौर, अशोक कटारिया, संतोष सिंह, कामेश्वर सिंह, दयाशंकर सिंह, कौशलेंद्र सिंह पटेल विद्यार्थी परिषद से ही भाजपा में आए हैं। लक्ष्मीकांत बाजपेयी की टीम में प्रवक्ता रहे विजय बहादुर पाठक को महामंत्री बनाना साफ दिखाता है कि बंसल ने जिसे जहां चाहा, वहां बैठाया। माना जा रहा है कि पाठक ही मीडिया भी देखेंगे। इस बार बीजेपी की प्रदेश की टीम बड़ी हो गई है। 15 उपाध्यक्ष और मंत्री बनाए गए हैं। साथ ही 8 महामंत्री बनाए गए हैं। प्रदेश उपाध्यक्ष में राज्यसभा सांसद बने शिवप्रताप शुक्ला का नाम अपेक्षित था। पहले भी शिवप्रताप शुक्ला उपाध्यक्ष रहे हैं। पार्टी शिवप्रताप को ब्राह्मण चेहरे के तौर पर आगे बढ़ा रही है। कलराज मिश्र के 75 पार करने के साथ मंत्री पद से हटने की खबरों के बीच ब्राह्मणों को रिझाने के लिए शिवप्रताप शुक्ला और हालिया बदलाव में मंत्री बने महेंद्र पांडेय बेहतर विकल्प के तौर पर देखे जा रहे हैं।


नई टीम में बड़े नेताओं के बेटों को पूरा सम्मान दिया गया है। कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह राजू एटा से सांसद हैं और नई समिति में उपाध्यक्ष बने हैं। लालजी टंडन के बेटे गोपाल टंडन लखनऊ से विधायक हैं और नई समिति में उपाध्यक्ष बन गए हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को फिर से महामंत्री बनाया गया है। अब सवाल ये भी उठता है कि क्या पदाधिकारी को टिकट न देने को बीजेपी लागू कर सकेगी। प्रदेश अध्यक्ष के दावेदार रहे विधायक धर्मपाल सिंह को प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया है। बागपत से सांसद सतपाल सिंह को भी प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया है। केंद्र में मंत्री बनने की आस रखने वाले सतपाल को प्रदेश में पद देकर संभालने की कोशिश है। शामली के विधायक सुरेश राणा को प्रदेश उपाध्यक्ष बनाने से साफ है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए कैराना जैसे मुद्दे रहेंगे ही रहेंगे। बरेली से विधायक राजेश अग्रवाल को कोषाध्यक्ष का भी जिम्मा दे दिया गया है। हालांकि, रणनीति के लिहाज से इतने सांसदों और विधायकों को ही प्रदेश में पद देना बहुत बेहतर तो नहीं कहा जा सकता। भारतीय जनता पार्टी का नया जातीय समीकरण इस टीम में भी साफ दिखता है। दलित और पिछड़ों को भरपूर जगह मिली है। कौशांबी के सांसद विनोद सोनकर को उपाध्यक्ष से हटाया गया तो, सैदपुर सुरक्षित से पूर्व सांसद रहे विद्यासागर सोनकर को वही पद दे दिया गया। इससे भी समझ में आता है कि पार्टी जातीय संतुलन को लेकर कितनी सजग है। फिलहाल मीडिया टीम और प्रवक्ताओं का एलान अभी भी बाकी है। टीम के एलान में एक बात जो सबसे ज्यादा खटकती है कि आखिर पार्टी अगले दस साल बाद प्रदेश में किन नेताओं को अगली कतार में देखना चाह रही है। 

Monday, July 11, 2016

दबाव के ढक्कन के साथ जयंत सिन्हा भी हवा में उड़ गए

जयंत सिन्हा नरेंद्र मोदी की सरकार में प्रभावशाली नेता के तौर पर उभरने वालों में से थे। माना जाता था कि Narendra modi नरेंद्र मोदी की अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय छवि को दुरुस्त करने वाले मंत्रियों में जयंत सिन्हा हैं। जयंत सिन्हा विदेश में पढ़े हुए हैं। सिन्हा के पास आईआईटी दिल्ली से बीटेक की डिग्री है। जयंत ने हार्वर्ड से एमबीए किया है और पेनिसेल्विनिया विश्वविद्यालय से एनर्जी मैनेजमेंट और पॉलिसी की डिग्री ली है। मेकेंजी के साथ जयंत 12 साल काम कर चुके हैं। ये ऐसा प्रोफाइल है जो, पूरी तरह से किसी भी सरकार में वित्त या इससे जुड़े मंत्रालय के लिए पर्फेक्ट 10 जैसा होता है। इसीलिए जब जयंत सिन्हा को मोदी ने वित्त राज्यमंत्री बनाया और जब-जब इस बात की चर्चा हुई कि अरुण जेटली Arun Jaitley से वित्त लिया जा सकता है, तो जयंत सिन्हा एक स्वाभाविक दावेदार के तौर पर सामने आते रहे। लेकिन, ये तो जयंत सिन्हा के प्रोफाइल एक पैराग्राफ है। जयंत सिन्हा के बायोडाटा का असल यूएसपी Yashwant Sinha यशवंत सिन्हा का बेटा होना है। इसीलिए जब यशवंत सिन्हा ब्रेन डेड टाइप के बयान दे रहे थे, फिर भी जयंत सिन्हा की बुद्धि की मजबूती मोदी सरकार मान रही थी।


दरअसल यशवंत सिन्हा के बयान मोदी सरकार के वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा Jayant Sinha के लिए सार्थक दबाव वाले ढक्कन की तरह काम कर रहे थे। और इसी दबाव के ढक्कन वाली बोतल में जयंत बहुत मजबूत नजर आ रहे थे। लेकिन, कई बार ऐसा होता है कि दबाव बनाते पता ही नहीं लगता कि कब दबाव ज्यादा हो गया। यही गलती यशवंत सिन्हा से भी हो गई। उन्होंने पाकिस्तान से लेकर ढेर सारे मामलों में मोदी सरकार की नीतियों की ऐसी-तैसी करनी शुरू कर दी। अब ढक्कन दबाव में नहीं, बोतल में आ गया था। इतना ज्यादा कि इस मंत्रिमंडल विस्तार में बोतल के दबाव ने यशवंत सिन्हा के ढक्कन के दबाव को धकेल दिया। और ढक्कन के साथ जयंत सिन्हा भी हवा में उड़ गए। वित्त राज्यमंत्री से वित्त मंत्री बनने के रास्ते पर जा रहे जयंत सिन्हा अचानक विमानन मंत्रालय पहुंच गए। जयंत के जाने की यही असली कहानी है। और इस मंत्रिमंडल की सबसे बड़ी खबर भी। भले ही लोग Smriti Irani स्मृति ईरानी को सबसे बड़ी खबर मान रहे हों।

Sunday, July 10, 2016

आतंकवादियों की शवयात्रा निकलनी बंद हो

‪#‎BurhanWani‬ भारतीय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में बुरहान मुजफ्फर वानी की मौत के बाद निकले जनाजे में जमकर उत्पात हुआ। 15 से ज्यादा जानें जा चुकी हैं। हिंसक प्रदर्शन की वजह से अमरनाथ यात्रा रोकनी पड़ी है। हिंदुस्तान में हर साल करीब एकाध आतंकवादी ऐसा होता है, जिसकी शवयात्रा के दौरान हंगामा होता है। हिंदू-मुसलमान के बीच की कम होती खाई ऐसी घटनाओं के बाद बड़ी हो जाती है। वैसे भी इससे बड़ा कुतर्क कुछ नहीं हो सकता कि आतंकवादियों का मानवाधिकार होता है। जो मानव होने की न्यूनतम शर्त पूरी नहीं करते। वो मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। घाटी में माहौल बेहतर करने की कोशिश में ये बड़ी रुकावट है। और ये कोई ऐसा नौजवान नहीं था। जिसके भटक जाने पर कोई संदेह हो। ये बाकायदा हिज्बल मुजाहिदीन के कमांडर के तौर पर काम कर रहा था। आतंकवादियों की भर्ती कर रहा था। जरूरी है कि हिंदुस्तान के सद्भाव के ताने बाने को बचाने के लिए किसी भी आतंकवादी का अंतिम संस्कार सार्वजनिक तौर पर होना बंद हो।

Tuesday, July 05, 2016

मोदी के नए मंत्री और चुनावी रणनीति

आज के मंत्रिमंडल विस्तार से ये पूरी तरह साफ हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी जिस तरह का जातिगत संतुलन कर रही है, उससे निपटना समाजवादी पार्टी और खासकर बहुजन समाज पार्टी के लिए आसान नहीं होगा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह, सरकार और संगठन दोनों में ही इस तालमेल का विशेष ध्यान रख रहे हैं। इसीलिए 75 पार कर लेने के बाद भी कलराज मंत्रिमंडल में बने रहे। हालांकि, इसी बहाने नजमा भी बनी रही हैं। अनुप्रिया पटेल, कृष्णा राज और महेंद्र नाथ पांडेय का मंत्री बनना इसी संतलुन की कहानी बता रहा है। बीजेपी के बाहर के दो ही मंत्री हैं एक रामदास अठावले और दूसरी अनुप्रिया पटेल। अनुप्रिया को उनकी मां ही अपना दल की मानने को तैयार नहीं। मतलब वो भी भाजपा की ही समझिए अब। इसी संतुलन को आगे बढ़ता हुआ हम अमित शाह के संगठन विस्तार में देख सकेंगे। पूरी उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी को राष्ट्रीय टीम में शामिल किया जाएगा। 27 जून के CNBC AWAAZ पर अखिलेश यादव की छवि सुधारने की मशक्कत पर बात करते हुए मैंने कहा था कि भाजपा इस बार कई तरह की रणनीति पर एक साथ काम कर रही है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को पता है कि भ्रष्टाचार कम से कम मायावाती या समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए कतई मुद्दा नहीं है। ये तथ्य भी जनता के बीच काम कर सकता है कि, अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की पारंपरिक गुंडा-बदमाश वाली छवि से निकलने की बड़ी कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, मेरा ये भी मानना है कि अखिलेश को इस तरह सेक्लीनचिट देना भी ठीक नहीं है। 

Monday, July 04, 2016

नजरिया सुधारिये सरकार, सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह, पेंशन बोझ नहीं है

NDTV India पर #7thPayCommission पर मेरे विचार देख-सुन सकते हैं। सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट को सरकार ने मंजूर कर लिया है। मैं इस बात पर कतई बहस नहीं कर रहा कि वेतन कितना बढ़ा या और बढ़ना चाहिए था, क्या? मैं दूसरी बात कर रहा हूं या कहूं कि एक बड़ा सवाल खड़ा कर रहा हूं। वो बड़ा सवाल हर दस साल पर होने सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि पर सरकार और मीडिया के नजरिये का है। करीब 70 साल के आजाद देश में 2016 में सातवां वेतन आयोग आया है। अब आप सोचिए जिस देश में निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी हर साल मार्च के खत्म होते-होते अपनी तनख्वाह में बढ़त की उम्मीद लगा लेते हैं। वहीं सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह और सरकारी कर्मचारी रहे पेंशनधारियों को इसके लिए बाकायदा एक दशक तक का इंतजार करना पड़ता है। एक वेतन आयोग जैसी समिति इसके लिए बाकायदा सरकार बनाती है और जो अपनी रिपोर्ट देने में करीब-करीब 2 साल लगा देती है। फिर रिपोर्ट आती है, तो सरकार तुरंत अपने खजाने को ऐसे देखने लगती है, जैसे दान में कुछ देना हो। जबकि, सच्चाई यही है कि जैसे किसी कंपनी के आगे बढ़ने में उसमें काम करने वाले मानव संसाधन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, वैसे ही देश के आगे बढ़ने में या सरकार के बेहतर तरीके से काम करने सरकारी कर्मचारियों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिर उस महत्वपूर्ण भूमिका को निभाने वाले सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह या सेवानिवृत्त कर्मचारियों की पेंशन सरकारी खजाने पर बोझ जैसी क्यों दिखने लगती है। मुझे लगता है कि ये इनका सीधा सा हक है।


बेहतर हो कि मोदी सरकार जिस अप्रेजल सिस्टम की बात कर रही है, उसे लागू कर दे। सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही तय हो। साथ ही सरकारी कर्मचारियों को उनका पूरा हक मिले। बिना ये अहसास दिलाए कि खजाने पर उनकी तनख्वाह या पेंशन बढ़ने से कितना बोझ बढ़ रहा है। क्योंकि, उन सरकारी कर्मचारियों के काम का देश की जीडीपी यानी तरक्की की रफ्तार बढ़ने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। सरकारी कर्मचारियों को सिर्फ कामचोर या भ्रष्टाचारी नजरिये से देखना देश को बंद करना होगा। एक और खतरनाक संकेत हैं कि इस जवान देश में धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन रही है कि नौजवान सरकारी नौकरी में बड़ी तेजी से घटता जा रहा है। इसका अंदाजा इस आंकड़े से लग जाता है कि करीब 47 लाख सरकारी कर्मचारी हैं और करीब 56 लाख पेंशन लेने वाले हैं। भारत जैसे देश के लिए ये खतरनाक है। क्या सरकारी नौकरी धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। क्या सरकार सिर्फ सरकार चलाएगी, नीति बनाएगा, कर वसूलेगी। ये बड़ा सवाल है, क्योंकि, हिंदुस्तान में ज्यादातर निजी कंपनियों की बुनियाद के पीछे उस क्षेत्र में बड़े अच्छे से काम कर रही सरकारी कंपनियां हैं। इसलिए सरकार को इस बड़े सवाल का जवाब खोजना चाहिए। 

Friday, July 01, 2016

साहेब महंगाई अर्थव्यवस्था की हर अच्छाई खाए जा रही है

इस सरकार ने दाल की महंगाई रोकने के लिए जितना कुछ किया है। इतना इससे पहले किसी सरकार ने नहीं किया है। लेकिन, इसका दूसरा तथ्य ये भी है कि इस सरकार की सारी कोशिशों के बावजूद दाल जिस भाव पर जनता को खरीदनी पड़ रही है। उस भाव पर इतने लंबे समय तक किसी सरकार के समय में नहीं खरीदनी पड़ी। सरकार बार-बार ये बता रही है कि दाल की कीमतों पर काबू के लिए कितना कुछ किया जा रहा है। दाल का भंडार पहले डेढ़ लाख टन का किया गया। अब सरकारी दाल भंडार आठ लाख टन का किया जा रहा है। राज्यों को बार-बार इस बात की ताकीद की जा रही है कि एक सौ बीस रुपये किलो ऊपर के भाव पर दाल को न बिकने दें। हर कुछ दिनों में सरकार बताती है कि कितनी दाल आयात की जा रही है। लेकिन, इस सबके बावजूद दिल्ली की संसद के नजदीक के केंद्रीय भंडार तक में दाल एक सौ चालीस रुपये के नीचे बमुश्किल ही मिल पा रही है। इसी बीच टमाटर और आलू के भाव भी अचानक मंडी में मजबूती से सरकार की नाकामयाबी को बताने लगे। और सबसे बड़ी बात ये हुई कि देश के रिजर्व बैंक गवर्नर ने ये कहते हुए ब्याज दरें घटाने से इनकार कर दिया कि महंगाई दर फिर से बढ़ना शुरू हो गई है। हालांकि, रिजर्व बैंक ने अपने उस अनुमान में ये नहीं बताया कि लगातार सत्रह महीने महंगाई दर घटने के बाद अप्रैल का महीना है जब महंगाई दर फिर से बढ़ने लगी है। अब सवाल ये है कि अगर नजदीक की मंडी से लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर के पूर्वानुमान तक में महंगाई डायन की तरह मुंह बाए खड़ी दिख रही है, तो क्या अर्थव्यवस्था में अच्छी खबरें होने की बात की जा सकती है।   

दरअसल रेपो रेट न घटाने के रिजर्व बैंक गवर्नर के तर्क ने देश में ये संदेश मजबूत किया है कि महंगाई फिलहाल बढ़ती ही जा रही है और इस लिहाज से देश के लोगों के लिए अच्छे दिन जल्दी आने वाले नहीं हैं। और दरअसल सच भी यही है कि देश के लोगों के जेब में सीधे आई कमाई और उनकी जेब से निकलकर खर्च हो गई रकम ही सबसे बड़ा पैमाना होता है कि उनके अच्छे दिए आए या नहीं। इस लिहाज से जनता को अच्छे दिन का अहसास कतई नहीं हो रहा है। लेकिन, जैसे किसी व्यक्ति की एक बुराई के लिहाज से उसको सिर्फ बुरा नहीं कहा जा सकता। वैसे ही इस समय देश की बढ़ती महंगाई के लिहाज से पूरी अर्थव्यवस्था को बुरा कहना ठीक नहीं होगा। जब दाल, टमाटर, आलू की महंगाई पर मीडिया सुर्ख है। उसी समय ये भी खबर आई है कि देश का चालू खाते का घाटा जनवरी-मार्च में घटकर सिर्फ करोड़ डॉलर रह गया है। चालू खाते का घाटा मतलब आयात-निर्यात का संतुलन। और घाटा घटने का मतलब हुआ कि आयात-निर्यात का संतुलन बेहतर हुआ है। हालांकि, आयात-निर्यात दोनों ही घटा है। मार्च 2016 को खत्म वित्तीय वर्ष में चालू खाते का घाटा जीडीपी का कुल एक दशमलव एक प्रतिशत रह गया है। जबकि, पिछले वित्तीय वर्ष में घाटा एक दशमलव आठ प्रतिशत था। इसका सीधा मतलब ये हुआ कि कुल जीडीपी का करीब एक प्रतिशत सरकार को पिछले वित्तीय वर्ष में विदेशों से आयात करने में कम खर्चना पड़ा है। इससे भी रुपये कीमत को स्थिरता मिली है। हालांकि, सरकार के लिए ये सावधानी बरतने की चेतावनी देने वाले आंकड़े हैं। क्योंकि, चालू खाते के घाटे की बड़ी वजह कच्चे तेल और दूसरी कमोडिटीज की दुनिया में गिरती कीमतें हैं। लेकिन, ये अर्थव्यवस्था के अच्छे दिनों की बेहतर खबर है। अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन की खबर आम आदमी के अच्छे दिन की खबर से कैसे जुड़ी है। इसे समझने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक कोष के इंडिया मिशन चीफ पॉल कशिन की बात सुननी चाहिए। पॉल कह रहे हैं कि इस समय भारत की स्थिति काफी अच्छी दिख रही है। निश्चित तौर पर इस अच्छी स्थिति की बड़ी वजह कच्चे तेल की कम कीमतें हैं। इससे सभी भारतीय की असल आमदनी बढ़ी है। आईएमएफ ने 2015-16 के लिए 7.3 प्रतिशत और 2016-17 के लिए तरक्की की रफ्तार साढ़े सात प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है। तरक्की की इस रफ्तार की बुनियाद पक्की दिखती है। अर्थव्यवस्था में कारों की बिक्री भी एक बड़ा संकेत होता है कि लोगों के पास रकम है या नहीं। अप्रैल महीने में कारों की बिक्री ग्यारह प्रतिशत बढ़ी है। अप्रैल के आंकड़े इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि ये इस वित्तीय वर्ष का पहला महीना है। जिस तरह से मॉनसून बेहतर होने का अनुमान है। इससे ग्रामीण क्षेत्र में भी ट्रैक्टर, मशीनरी की बिक्री बढ़ेगी। कारों की बिक्री बेहतर होने से कार कंपोनेंट बनाने वाली कंपनियों की बेहतरी की खबरें आ रही हैं। दुनिया की ज्यादातर कार बनाने वाली कंपनियां भारत के बाजार को ध्यान में रखकर नीति बना रही हैं। भारत में उत्पादन यूनिट लगाने से कंपोनेंट बनाने वाली कंपनियों का कारोबार बहतर हुआ है। रेटिंग एजेंसी इकरा का अनुमान है कि कार के पुर्जे बनाने वाली कंपनियों की तरक्की इस साल करीब दस प्रतिशत की होगी। और ये तरक्की की रफ्तार ज्यादातर क्षेत्रों में होती दिख रही है। सरकार के उदारीकरण के नए फैसले इसे और गति देंगे। नए शहर बनाने से लेकर बुनियादी सुविधाओं में सरकार का तेजी से बढ़ता खर्च अर्थव्यवस्था की तेजी में मदद कर रहा है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर सरकार के ताजा फैसले की कड़ी समीक्षा की जा सकती है। और सबसे बड़ी आलोचना ये तो है कि आखिर भारतीय जनता पार्टी जब 2013 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए इससे बहुत कम उदारता के खिलाफ थी, तो क्या हो गया कि 2016 में वो पूरे दरवाजे खोल रही है और प्रधानमंत्री ये सीना ठोंककर कह रहे हैं कि हम दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था हैं। उदारवादी नीतियां कितनी ठीक हैं या नहीं। ये दूसरी बहस है लेकिन, इतना तो तय है कि किसी भी देश की आर्थिक नीतियां एक समय में अगर एक दिशा में ही जाएंगी, तो ही आगे बढ़ सकती हैं। उदाहरण के लिए पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की 2004-2009 की सरकार के फैसलों में शायद ही कोई ऐसा फैसला खोजा जा सके, जिसे बताकर कहा जा सके कि इससे देश की तरक्की रुक गई। हालांकि, 2009 के चुनावों के पहले साठ हजार करोड़ रुपये की किसानों की कर्ज माफी पूरी तरह से सोनिया की अपनी वोटबैंक की राजनीति थी। और माना जाता है कि कर्ज माफी और मनरेगा दोनों ही सही लोगों के फायदे की वजह नहीं बन सके और इससे सरकार की नीतियों के दो दिशा में चलने का भ्रम भी पैदा हुआ। यहां तक कि जिस आधुनिक आर्थिक नीति पर इंडिया दुनिया के अगुवा देशों में खड़ा दिख रहा है। वो पूरी की पूरी नरसिंहा राव के दुनिया के लिए बाजार खोलने की नीति की बुनियाद पर ही बनी थी। कम से कम इस लिहाज से देखें, तो 1991 के बाद 2016 इंडियन इकोनॉमिक पॉलिसी में बदलाव की एक बड़ी तारीख के तौर पर याद किया जाएगा। जाहिर है इससे दुनिया के निवेशक भारतीय वीसा के लिए आवेदन करने में देरी नहीं लगाएंगे। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के लिहाज से ढेर सारी ऐसी खबरें हैं जो, भारत की उस प्रतिष्ठा को मजबूत करती हैं। जिसमें दुनिया अर्थव्यवस्था ठीक रखने के लिए चमकते भारत की तरफ देख रही हैं।

लेकिन, ये नरेंद्र मोदी सरकार को ये बहुत अच्छे से समझना होगा कि जनता के लिए अच्छे दिन का सिर्फ और सिर्फ एक पैमाना है कि सरकार की नीतियों से उसकी जेब में कितनी ज्यादा रकम आई और जब वो घर का खर्च चला रहा है, तो कितनी रकम उसकी जेब से गई। और भले ही महंगाई के बढ़ने की दर मनमोहन सरकार के करीब दस प्रतिशत से मोदी सरकार में करीब पांच प्रतिशत ही हो। लेकिन, महंगाई दर के बढ़ने के संकेत जनता को अच्छे दिन का अहसास कतई नहीं दे रहे हैं। डेढ़ सौ रुपये किलो की दाल तरक्की की रफ्तार और दूसरे अर्थव्यवस्था के अच्छे आंकड़ों को बिना डकारे हजम कर रही है। साहेब समझिए कि महंगाई अर्थव्यवस्था की सारी अच्छी खबरों को खाए जा रही है। अच्छा है कि बारिश अच्छी होने के संकेत हैं। लेकिन, खेत से बाजार तक की व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं हुआ तो अच्छे दिन सिर्फ जुमला ही रह जाएगा।  
(ये लेख सोपान स्टेप पत्रिका के ताजा अंक में छपा है)

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

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