Monday, March 24, 2014

गरीबी, भारत और दुनिया की नजर

एक सुबह ऑस्ट्रेलिया के एक रेडियो स्टेशन से फोन आया कि मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट पर आपसे बात करनी थी। मैंने कहाकि रिपोर्ट नहीं देखी है एक बार देख लूं फिर फोन करिए। रेडियो स्टेशन के एंकर ने बताया कि मेकेंजी की रिपोर्ट ये कह रही है कि भारत की आधी आबादी गरीबी में चली जाएगी अगर सुधारों को लागू नहीं किया गया तो। खैर, मैंने बाद में उस पर बात करने के लिए कहा और फोन रख दिया। फिर मैंने मेकेंजी की उस रिपोर्ट को देखा। उस रिपोर्ट का शीर्षक था फ्रॉम पावर्टी टू एमपावरमेंट। रिपोर्ट की शुरुआत भारत की तारीफ से की गई है जिसमें कहा गया है कि भारत ने गरीबी दूर करने में बड़ी उपलब्धि हासिल की है। रिपोर्ट के आंकड़े कह रहे हैं कि 1994 में भारत में 45 प्रतिशत यानी लगभग आधा भारत गरीब था और 2012 में सिर्फ 22 प्रतिशत यानी करीब एक तिहाई ही गरीब रह गए हैं। रिपोर्ट कहती है कि ये जश्न मनाने वाली उपलब्धि है लेकिन, इससे भारत के लोगों में एक नए तरह की उम्मीदें जग गई हैं।


मेकेंजी की रिपोर्ट ये भी कहती है कि भारत में दरअसल गरीब उनको गिना जा रहा है जो बिल्कुल दयनीय हालत में हैं। जबकि, खुद इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों ने जब अपने मानकों पर परखा तो 2012 का भारत 1994 कगे भारत जैसा ही गरीब निकला। मेकेंजी ने बीपीएल, एपीएल की बजाय एमपावरमेंट लाइन तैयार की। इसके मानक रखे – खाना, बिजली (दूसरे ईंधन), पानी, घर, शौचालय, सेहत, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा। और जब इन मानकों पर भारत को मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट के शोधार्थियों ने भारत को परखा तो उन्हें भारत सरकार के आंकड़ों से दोगुने गरीब मिल गए। बल्कि, सरकारी आंकड़ों के दोगुने से भी ज्यादा। भारत सरकार के आंकड़े देश में सिर्फ 22 प्रतिशत गरीब बता रहे हैं। मेकेंजी की एमपावरमेंट लाइन पार करने में 54 प्रतिशत भारतीय फेल हो गए। यानी मेकेंजी ने जिन आठ जरूरी जरूरतों पर भारत को परखा वो भी देश के आधे से ज्यादा नागरिकों के पास नहीं है। मेकेंजी की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2012 में 68 करोड़ भारतीयों के पास जरूरी सुविधाएं नहीं थीं। जबकि, सरकार कह रही है कि सिर्फ 27 करोड़ गरीब ही भारत में बचे हैं।

भारत में गरीबी पर लड़ाई बड़ी पुरानी है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल के खिलाफ देश की जनता के मिजाज को उलटने के लिए 1977 में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। लेकिन, प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ वाला नारा इस देश की नियति के साथ ऐसा चिपका है कि दुनिया अब भारत को सिर्फ गरीबों के देश के ही नजरिए से देख पाती है। इसीलिए मेकेंजी की रिपोर्ट कहती है कि देश में 27 करोड़ जो गरीब भारत सरकार बताती है वो तो दयनीय दशा में हैं लेकिन, कुल दरअसल 68 करोड़ लोग ऐसे हैं जो कहने को तो सरकारी गरीबी रेखा से ऊपर उठ गए हैं लेकिन, दरअसल जिनके पास जीने के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं हैं। रिपोर्ट ये भी कहती है कि इन 68 करोड़ लोगों को अच्छे से जीने लायक जरूरी सुविधाएं देने के लिए जितनी रकम चाहिए होगी वो गरीबी मिटाने के लिए चलाए जा रहे कार्य़क्रमों पर खर्च रकम का सात गुना है। मेकेंजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अच्छा जीवन जीने के लिए जितनी जरूरी सुविधाएं चाहिए होती हैं उसकी आधी लोगों को मिल ही नहीं पाती हैं। यहां तक बात काफी हद तक ठीक है। सच यही है कि 1991 के बाद जिस तेजी से देश ने 10 प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार और हर गांव शहर में बदल जाने वाला मनमोहिनी सपना देखा उसने हालात खराब ही किए हैं। शहरों में गांवों से और बड़े शहरों में छोटे शहरों से तेज तरक्की की उम्मीद में आए लोगों का जीवन स्तर बेहद खराब हुआ है। कठिनता से वो अपने लिए जरूरी सुविधाएं जुटा पा रहे हैं। एक छत की उम्मीद में भारत में प्रवासी लोग देश के रियल एस्टेट सेक्टर और बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ तो बढ़ा रहे हैं लेकिन, एक घर खरीदने में वो अपनी सारी जरूरी सुख सुविधाओं को तिलांजलि भी दे रहे हैं। जैसे हमारे परिवार के पास इलाहाबाद में भी घर है। और गांव में भी। गांव के घर में हम बमुश्किल ही रहने जा पाते हैं। इलाहाबाद में हमारा आधा से ज्यादा परिवार रहता है। मौके की तलाश में हम कई शहरों के चक्कर मारकर नोएडा और नोएडा में जरूरी सुविधाओं में सबसे जरूरी घर के लिए बड़ी मुश्किल से इंतजाम कर पाए। ये बात इस रिपोर्ट में कहीं नहीं दिखती है। भारत को समझने का ये पश्चिमी नजरिया और इस पश्चिमी नजरिए के आधार पर तैयार होती भारत की आर्थिक नीतियां खतरनाक दिशा में ले जा रही हैं। इसीलिए जरूरी सुविधाएं न जी पाने वाले 68 करोड़ भारतीयों के लिए इसके बाद रिपोर्ट में ज्यादा मौके न होने की बात होती है और उस बहाने से ये भी कि भारत में सुधार नहीं हो रहे हैं। और इसी वजह से भारत में सब खराब हो रही है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है। ये सब जानते हैं। और इसीलिए दुनिया की बड़ी एजेंसियां इस तरह की रिपोर्ट तैयार करके भारतीयों पर ये दबाव बनाती हैं कि उनकी सरकार सुधारों को लागू करने के लिए तैयार हो। दरअसल सुधार शब्द अंग्रेजी के उस रिफॉर्म को सीधे अनुवाद कर दिया गया है। जो दुनिया में उद्योगों के लिए अनुकूल परिस्थिति तैयार करने के लिए इस्तेमाल में लाया गया था। लेकिन, मैं जहां तक अर्थशास्त्र समझ पा रहा हूं कि सुधार तो हर देश, व्यक्ति को आगे बढ़ने के लिए जरूरी है। और वो सुधार ये कहता है कि हम जिस तरह की नीतियां चला रहे हैं वो सही हैं तो तेजी से आगे बढ़े और समय के लिहाज से नहीं हैं तो उन्हें समय के लिहाज से तैयार किया जाए। लेकिन, सुधारों का मतलब जिस तरह से पश्चिमी देशों की जरूरत के लिहाज से तय कर दिया गया है वो ऐसे दिखता है जैसे विदेशी कंपनियों की सहूलियत के लिहाज से सारी नीतियां तैयार करना ही सुधार है। मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई की मंजूरी के मामले में हम शानदार तरीके से इसे देख चुके हैं। जब वॉलमार्ट पर करोड़ो डॉलर की घूस भारतीय अधिकारियों, नेताओं पर खर्च करने के आरोप लगे। यहां तक कि वॉलमार्ट के इंडिया हेड सहित कई बड़े अधिकारियों को हटा भी दिया गया। फिर भी न तो वॉलमार्ट और न दूसरी विदेशी रिटेल कंपनियां भारत आईं। कुछ इस तरह से शोकेस किया गया था विदेशी रिटेल कंपनियां सीधे भारत की जिंदगी बदलने के लिए आना चाह रही हैं। विदेश रिटेल कंपनियां भारत के लोगों को ढेर सारी नौकरियां देने के लिए आना चाह रही हैं। विदेशी रिटेल कंपनियां भारत की बुनियादी संरचना ठीक करने, बेहतर तकनीक देने, सस्ता माल देने आना चाह रही हैं। लेकिन, इतने के बाद भी और उनकी सहूलियत के लिहाज से नीतियां बनाने के बाद भी वो नहीं आईं। एक टेस्को टाटा के साथ मिलकर आई भी तो उसपर भी खबरें आ रही हैं कि यूपीए की सरकार ने अपनी इज्जत बचाने के लिए टेस्को को शर्तों में कई छूट के वादे के साथ उनको भारत बुलाने के लिए हरसंभव मेहनत की गई। मिन्नत कई गई ये भी कह सकते हैं।

इसीलिए जब मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट जैसा भारत की गरीबी वाली रिपोर्ट आती हैं तो भले ही उसमें भारत के लोगों की सुख सुविधा की चिंता की जाती हो। बताया जाता हो कि कैसे सरकार ने देश के लोगों को जरूरी सुविधाएं नहीं दी। भरोसा नहीं होता। लगता है कि भारत की गरीबी और गरीबों का डर दिखाकर पश्चिम हमारे बाजार पर अपनी शर्तों पर कब्जा करना चाहता है। दिक्कत न तो विदेशी निवेश से है, न बाजार से, न विदेशी कंपनियों से। दिक्कत है विदेशी पूंजी आने और मुनाफा कमाने की शर्तों के साथ। सुधार न होने को भारत की हर दिक्कत की वजह बताने वाली रिपोर्ट ये क्यों नहीं बताती हैं कि जब भारत सिर्फ साढ़े चार प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार पर है तो उसी वक्त भारत की चमत्कारिक कही जाने वाली यूपीए की सरकार ने सारे सुधार के कार्यक्रम लागू कर दिए। ये रिपोर्ट ये क्यों कहते डरती हैं कि भारत की ताकत खुद में है कि वो अपनी गरीबी दूर कर सके। ये रिपोर्ट ये क्यों नहीं कहती कि दरअसल यूपीए सरकार के घपले, घोटालों ने देश की तरक्की, लोगों की सुख सुविधाएं छीनी हैं। ये रिपोर्ट ये क्यों नहीं बतातीं कि भारत के नेता अपनी तरक्की में लगे रहे। देश के लोगों को जरूरी सुविधाएं इसलिए नहीं मिलीं। ये रिपोर्ट ऐसा सब इसलि नहीं बतातीं क्योंकि, फिर इनकी रिपोर्ट में आने वाले सुधार की जरूरत वाला सिद्धांत बेअसर दिखने लगेगा। इसलिए मेकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट जैसी भारत की गरीबी की चिंता करने वाला रिपोर्ट को भारत के नजरिए से देखने-समझने की जरूरत है।
(इसी पर ऑस्ट्रेलिया के एसबीएस रेडियो से हुई मेरी बातचीत भी यहां सुन सकते हैं।)

Friday, March 14, 2014

चुनाव लाएगा अर्थव्यवस्था में तेजी

अंतरिम बजट में जब वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने छोटी कारों के साथ एसयूवी गाड़ियों पर भी एक्साइज ड्यूटी घटाने का एलान किया तो उसे बेहद कमजोर बिक्री आंकड़ों से मूर्छित सी हो रही ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री को संजीवनी देने के लिहाज से देखा गया। खुद वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने भी यही दलाल देकर एक्साइज ड्यूटी घटाई। लेकिन, बजट अंतरिम भले था। बजट चुनावी भी था। इसलिए इसमें चुनावी वजह खोजना स्वाभाविक है। निजी तौर पर मुझे लगता है कि ऑटो इंडस्ट्री के साथ एसयूवी गाड़ियों पर एक्साइज ड्यूटी घटाकर वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपनी नेताओं की जमात का भी बड़ा भला किया है। ये कोई छिपा तथ्य नहीं है कि देश में ज्यादातर राजनेताओं की पहली पसंद एसयूवी कारें हैं। यानी वो गाड़ियां जो थोड़ी ऊंची और बड़ी होती हैं। जो आम जनता के बीच ही खास का अहसास देती है। खैर, भले ही वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस फैसले से नेताओं को चुनावी जरूरत के समय थोड़ी सस्ती एसयूवी मिले। लेकिन, इतना तो तय है कि अगर ये एसयूवी गाड़ियां थोड़ा कम दामों में भी बिकती हैं तो भले सरकारी खजाने में एक्साइज टैक्स के तौर पर कम रकम आए। इंडस्ट्री को इस फैसले से जरूर तेजी मिलेगी। और सिर्फ एक अंतरिम बजट के फैसले का ही सवाल नहीं है। दरअसल लंबे समय से आर्थिक स्थिरता की शिकार भारत की अर्थव्यवस्था के लिए भारतीय लोकतंत्र का ये महोत्सव इकोनॉमिक स्टिमुलस के तौर पर दिख रहा है। लोकतंत्र के महोत्सव के बहाने भारतीय अर्थव्यवस्था को मिलने वाला ये स्टिमुलस यानी राहत पैकेज न सिर्फ अर्थव्यवस्था में तेजी लाएगा। बल्कि, नौजवान भारत की सबसे बड़ी समस्या यानी रोजगार के लिए भी बड़ी राहत का काम करेगा। चुनावी खर्च के तौर पर जो अनुमानित रकम भारतीय अर्थव्यवस्था में सिस्टम में आएगी। उसका अंदाजा लगाइए। ये रकम है तीस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा। ये रकम 2008 की मंदी से उबरने के लिए उद्योगों के दिए गए हर तरह के राहत पैकेज से ज्यादा है। 2008 की मंदी से उबरने के लिए भारत सरकार ने कुल बीस हजार करोड़ रुपये के राहत पैकेज का एलान किया था। जो ज्यादातर उद्योगों को तरह-तरह की छूट और भविष्य की योजनाओं के लिए प्रोत्साहन के तौर पर दिया गया था। अब भारतीय लोकतंत्र के इस महोत्सव से तीस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम अर्थव्यवस्था में शामिल हो जाएगी। 

ये रकम इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसके लिए सरकार को अपनी दूसरी योजनाओं में कटौती नहीं करनी पड़ेगी और न ही जनता पर अलग से कई तरह के टैक्स का बोझ लादना पड़ेगा। और ये भी अच्छी बात है कि इस रकम का बड़ा हिस्सा वो काला धन होगा जिसका जिक्र भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी बड़े ठसके से इस तरह करते हैं कि काला धन देश में वापस आ जाए तो देश की सारी समस्या का हल हो जाएगा। दरअसल मैं ये मानता हूं कि देश के बाहर कितना काला धन है और वो कैसे आएगा ये अलग विषय लेकिन, देश के अंदर का काला धन अगर सिस्टम में ठीक से आ जाए तो देश का बड़ा भला हो जाए। मोटे तौर पर देश की 543 लोकसभा सीटों से कम से कम दो हजार महत्वपूर्ण प्रत्याशी चुनाव लड़ेंगे। और अगर ये माना जाए कि इनमें से हर प्रत्याशी औसत चार करोड़ रुपये भी खर्च करेगा तो कम से कम सिर्फ इन प्रत्याशियों के खर्च से ही सिस्टम में आठ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा आ जाएंगे। जाहिर है इसमें पार्टियों के निजी खर्चे और स्टार प्रचारकों के ऊपर खर्च होने वाली रकम शामिल नहीं है। एक मोटे अनुमान के तौर पर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस के कम से कम 25 स्टार प्रचारक होंगे। जिनके लिए पार्टी निजी विमान किराए पर लेगी। इसका सीधा सा मतलब ये होगा कि सिर्फ निजी विमानों को किराए के तौर पर ही दोनों राष्ट्रीय पार्टियां चुनाव के दौरान बड़ी रकम निजी विमान चलाने वाली कंपनियों को देंगी। और देश की कई क्षेत्रीय पार्टियां भी इस मामले में राष्ट्रीय पार्टियों को टक्कर देती नजर आती हैं। चुनाव के समय देश के विज्ञापन उद्योग के लिए मुंह मांगी मुराद पूरी होने जैसा होता है। मोटे तौर पर देश के विज्ञापन उद्योग में कम से कम दो हजार करोड़ रुपये आते हैं। खबरें थीं कि इस चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से पांच सौ करोड़ रुपये का बजट तय किया गया है। और भारतीय जनता पार्टी भी इसमें ज्यादा पीछे नहीं है। भारतीय जनता पार्टी का चुनावी विज्ञापन बजट करीब चार सौ करोड़ रुपये का बताया जा रहा है। यानी करीब एक हजार करोड़ रुपये तो सिर्फ कांग्रेस और भाजपा का ही चुनावी विज्ञापन बजट है। क्षेत्रीय पार्टियों के चुनावी विज्ञापन का बजट इसमें शामिल नहीं है।

सरकारों के लिए लोकसभा चुनाव का मौका अपनी उपलब्धियों को सबके सामने रखने के लिए सबसे उपयुक्त होता है। इसलिए केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकार करोड़ो रुपये के अपनी उपलब्धियों का बखान करने वाला बजट का मुंह इसी समय खोल देते हैं। राजनीतिक दलों को इस समय ब्रांड मैनेजर से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं को बड़ी फौज चाहिए होती है। पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं के अलावा बड़े पैमाने पर सभी पार्टियां लोगों को अपने चुनावी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए रकम देकर नियुक्त करती हैं। बार-बार ये भी खबरें आ रही हैं कि इस बार मुख्य धारा के मीडिया यानी प्रिंट, टेलीविजन से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका सोशल मीडिया यानी इंटरनेट पर संवाद के माध्यमों की होगी। इसके लिए राजनीतिक दल बाकायदा तकनीकी विशेषज्ञों को मोटी तनख्वाह पर रख रहे हैं। जिनका काम ही हर दिन उस रजनीतिक पार्टी के एजेंडे को हर रोज चर्चा में रखना और ज्यादा से ज्यादा लोगों को उससे जोड़ना होता है। राजनीतिक पार्टियां लोगों को नकद रकम या फिर उनकी सुविधाओं के लिए जो रकम अनाधिकृत तौर पर खर्च करती हैं उसका कोई अनुमान आज तक नहीं लग पाया है। लेकिन, ये माना जाता है कि चुनाव के समय पांच हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम भारत में बांट दी जाती है। इसमें चुनाव आयोग की तरफ से लोगों को जागरूक बनाने, चुनाव कराने के लिए खर्च की रकम शामिल नहीं है। भारतीय चुनावों में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा रकम खर्च होती है। हाल में हुए अमेरिकी चुनावों में करीब बयालीस हजार करोड़ रुपये की रकम खर्च हुई थी। ये भारतीय लोकतंत्र के महोत्सव का समय है। भारत के शेयर बाजार में भी अचानक आई तेजी ने सेंसेक्स को बाइस हजार के पार पहुंचा दिया। उम्मीदें सबने इस चुनाव से लगा रखी हैं। कुछ उम्मीदें चुनाव के दौरान पूरी हो जाएंगी। कुछ चुनाव के बाद। लेकिन, मौका सबके लिए है। अब ये आपके ऊपर है कि आप इस मौके का इस्तेमाल किस तरह करते हैं। खैर, जो भी हो चुनाव का मजा लीजिए। लोकतंत्र के महोत्सव में शामिल होइए। और ऐसी सरकार चुनिए कि पांच साल बाद होने वाले चुनाव का अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए हमारे देश को इंतजार न करना पड़े।
(इसी पर ऑस्ट्रेलिया के एसबीएस रेडियो से हुई मेरी बातचीत भी यहां सुन सकते हैं।)

Saturday, March 01, 2014

गैस की कीमत और चुनाव का गणित


भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ये पहली बार हो रहा है कि उद्योगपतियों से संबंध चुनावी मुद्दा बना हो। और इस कदर बन गया हो कि उद्योगपतियों से रिश्ते का मतलब ही चुनावी गणित को बिगाड़ने वाला दिखने लगा हो। और ये कर दिया है भारतीय राजनीति में चमत्कारिक तरीके से 49 दिन की एक केंद्र शासित राज्य की सरकार चलाने वाली अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने। अरविंद केजरीवाल भरसक ये प्रयास कर रहे हैं कि उद्योगों का चलना और उद्योगों के चलने से ही सरकार का चलना साबित हो जाए। आम आदमी के नाम पर बनी पार्टी ये स्थापित करने में लगी है कि आम आदमी का हक नेता मारते हैं और उद्योगपति के हक में काम करते हैं। इसी रणनीति के तहत पहले वीरप्पा मोइली, मुकेश अंबानी और दूसरे लोगों पर गैस की कीमतों के मामले में एफआईआर दर्ज कराना उसके बाद नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर ये पूछना कि मुकेश अंबानी से रिश्ते की सच्चाई जनता को बताइए। गैस की कीमतों, उसकी खोज और पेट्रोलियम उत्पादों की सब्सिडी जैसे कठिनाई से समझ में आने वाले विषय चुनावी बहस का मुद्दा बनेंगे ये शायद ही किसी ने सोचा रहा होगा। लेकिन, चौबीस घंटे के टेलीविजन के युग में कठिन से कठिन बात सरल हो जाती है। और कोई बात सरलता से लोगों के दिमाग में टीवी चैनलों के जरिए घुस गई तो वो निकलना मुश्किल है। और उसी में से एक स्थापित तथ्य ये है कि अंबानी देश चलाता है। जो कुछ नहीं जानता उससे भी कभी भी इस विशेषज्ञ टिप्पणी की उम्मीद की जा सकती है कि अंबानी देश चलाता है। हर बात को सड़क की बात या उस तरीके से समझाने की कला के महारथी अरविंद केजरीवाल ने इसी सड़क की बात को  उठाकर संसद में पहुंचने का रास्ता तलाशना शुरू कर दिया है। पिछले तीन साल से महंगाई से जूझ रही जनता को अरविंद ने बता दिया कि एक अप्रैल से गैस की कीमतें दोगुनी यानी करीब साढ़े आठ डॉलर प्रति एमएमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट) हुईं तो देश में महंगाई दोगुनी हो जाएगी। सबकुछ महंगा हो जाएगा। काफी हद तक अरविंद केजरीवाल की ये दलील सही भी है। क्योंकि, गैस की कीमत दोगुनी होने का सीधा सा मतलब ये हुआ कि पावर प्लांट के लिए गैस महंगी हो जाएगी यानी बिजली महंगी हो जाएगी। दूसरे भी गैस से चलने वाले प्लांट को चलाने की लागत दोगुनी हो जाएगी। 


फिर इस पर अरविंद एक और बढ़िया आंकड़ा खोज लाए कि जब बांग्लादेश में गैस भारत की अभी की भी कीमत से आधी यानी करीब ढाई डॉलर प्रति एमएमबीटीयू के लिहाज से कोई कंपनी निकालकर दे सकती है तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो रहा। उस पर बांग्लादेश में ढाई डॉलर प्रति एमएमबीटीयू में गैस निकालकर देने वाली कनाडा की कंपनी निको रिलायंस के केजी बेसिन में दस प्रतिशत की हिस्सेदार भी है। तो अरविंद केजरीवाल का ये सवाल बेहद जायज लगता है कि जब निको बांग्लादेश में ढाई डॉलर में गैस दे रही है तो भारत में रिलायंस पहले चार डॉलर से ज्यादा और अब साढ़े आठ डॉलर में गैस क्यों बेच रही है। लेकिन, दरअसल निको की बांग्लादेश में गैस कीमत और रिलायंस केजी बेसिन की भारत में गैस कीमत की तुलना ही गलत है। क्योंकि, निको ढाई डॉलर में जिस पैमाने पर गैस दे रही है वो मिलियन क्यूबिक फीट है जबकि, भारत में मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट का भाव चार डॉलर से ज्यादा का है। और इस लिहाज से दोनों की ही कीमत लगभग बराबर है। दूसरी जो जरूरी बात समझने की है कि दरअसल निको जिस जगह ये गैस निकाल रहा है वो जमीन पर ही मिली हुई गैस है। जबकि, रिलायंस जिस केजी बेसिन से ये गैस निकाल रहा है समुद्र में बहुत गहराई में है। और उस गहराई से गैस निकालने की तकनीक दुनिया में गिनी चुनी कंपनियों के पास है। जाहिर है इस वजह से उसकी लागत भी बहुत आती है। जबकि, निको बांग्लादेश में जिस ऑन लैंड फील्ड से गैस निकाल रही है उसको खोजना और उससे गैस निकालने का काम गहरे समुद्र की तुलना में काफी कम होता है। एक और बात ये भी कि दरअसल निको को बांग्लादेश में ये गैस फील्ड काफी पहले बिनी किसी टेंडर के दे दी गई थी। तीसरी बड़ी बात ये कि बांग्लादेश में गैस की मांग भी उस लिहाज से बहुत ज्यादा नहीं है। जबकि, भारत में अभी भी रिलायंस और ओएनजीसी के गैस खोजने के काम में तेजी के बावजूद घरेलू मांग पूरा करना मुश्किल होता है। और इस बढ़ती घरेलू मांग को पूरा करने के लिए जिस गैस का आयात भारत को करना पड़ता है उसकी कीमत चौदह डॉलर प्रति एमएमबीटीयू होती है। बांग्लादेश में गैस की इतनी कम कीमतों की वजह से ही सरकारी गैस कंपनियां गैस खोजने के काम से बाहर हो चुकी हैं। यहां तक कि बांग्लादेश में गैस खोजने और निकालने के काम में लागत न निकल पाने की वजह से ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने भी एकमात्र ऑफशोर फील्ड का काम बंद कर दिया। इसी वजह से बांग्लादेश की सरकार ने गैस कीमतें अठारह प्रतिशत बढ़ा दी हैं और सालाना दो प्रतिशत बढ़त का भी प्रावधान कर दिया है।

अब बात भारत में गैस कीमतों के बढ़ने की। जिस पर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के 49 दिन के मुख्यमंत्री रहने के दौरान वीरप्पा मोइली और मुकेश अंबानी सहित कई लोगों पर कानूनी मामला दर्ज करा दिया है। इस आधार पर कि मुकेश अंबानी ने यूपीए सरकार के साथ मिलकर गैस की कीमतों में हेरफेर करवाई है। इसमें कोई बहस नहीं है कि उद्योग घराने अपने हितों के लिए सरकार के भीतर-बाहर ढेर सारे गलत काम करते हैं और उसके लिए सरकार के भीतर-बाहर लोगों को साधकर रखते हैं। लेकिन, एक अप्रैल 2014 से जो गैस की कीमतें बढ़ने जा रही हैं दरअसल वो कीमतें तय करने का जिम्मा प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली समिति के जिम्मे था। इसी समिति ने साढ़े आठ डॉलर प्रति एमएमबीटीयू गैस की कीमतें तय कीं और इनके लिए एक अप्रैल 2014 की तारीख तय की। साथ ही ये भी ये कीमते अगले पांच साल के लिए लागू होंगी और इन कीमतों की समीक्षा हर तिमाही की जाएगी। अब रंगराजन समिति को मुकेश अंबानी ने गैस कीमतों का फॉर्मूला लिखकर दिया होगा ये बात मानना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि, ये फॉर्मूला दुनिया में जो कीमतें चल रही हैं और भारत को आयातित गैस मिलती है उसके बीच की औसत कीमत के आधार पर तय किया गया है। 

एक भ्रम जो ये अरविंद केजरीवाल ने बुरी तरह से आम लोगों के दिमाग में डाल दिया है कि इस बढ़ी गैस कीमत का फायदा सिर्फ निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज को ही मिलने वाला है, पूरी तरह से गलत है। सच्चाई तो ये है कि रंगराजन समिति के फॉर्मूले के आधार पर बढ़ी कीमत रिलायंस के साथ ही सरकारी ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड को भी मिलेगी। अरविंद केजरीवाल गैस की कीमतों और नेता-उद्योगपति रिश्तों को जोड़कर भ्रष्टाचार के लिए दूसरी पार्टियों, कांग्रेस और भाजपा, को भ्रष्टाचारी साबित कर देना चाह रहे हैं। लेकिन, सच्चाई यही है कि गैस की कीमतों को तय करना पूरी तरह से आर्थिक फैसला है और मुकेश अंबानी या किसी दूसरे उद्योग घराने के साथ नेताओं के रिश्ते के आधार पर गलत तरीके सा फायदा पहुंचाना अलग बात। अब मुश्किल ये है कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार की साख इतनी गिर चुकी है कि अरविंद केजरीवाल की एफआईआर पर सलीके से कांग्रेस या सरकार का कोई प्रवक्ता जवाब तक नहीं दे पाया। सिवाय इसके कि पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा कि कीमतें घटेंगी नहीं और कीमतें पूरी तरह से जायज है। सच्चाई ये है कि किसी भी आधार पर अरविंद केजरीवाल की वीरप्पा मोइली और मुकेश अंबानी पर की गई एफआईआर टिकने वाली नहीं है। लेकिन, चुनावों के समय इतनी बारीकियों में कौन जाएगा। जनता तो सामान्य बातचीत में कहती रहती है कि सरकार और उद्योगपति चोर हैं। अब उसे अरविंद केजरीवाल नाम दे देते हैं। जनता खुश है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अरविंद केजरीवाल आ गया है। लेकिन, सच्चाई ये है कि अगर गैस कीमतों को सीधे भ्रष्टाचार से ही जोड़कर इसे खत्म किया गया तो लंबे समय में देश को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। देश में गैस की मांग अगले तीन सालों में दोगुनी यानी हर दिन करीब 466 मिलियन क्यूबिक मीटर हो सकती है। जिसे पूरा करना इन कीमतों के आधार पर संभव नहीं होगा। अगर ये कीमतें लागू नहीं होती है तो कोई भी कंपनी गैस खोजने या उत्पादन का काम नहीं करेगी। जिससे सिर्फ महंगी गैस आयात करने का ही विकल्प होगा और ये देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होगा। खाद और बिजली पर सरकार अभी भी सब्सिडी देती ही है। बढ़ी कीमतों का ज्यादा बोझ लोगों, किसानों पर न पड़े इसके लिए सरकार कुछ और समय तक जरूरी सब्सिडी जारी रखकर महंगाई से बचा सकती है। ये बात एकदम सच है कि मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने केजी बेसिन में जितनी गैस निकालने का भरोसा दिलाया था। उसका पांचवां हिस्सा भी नहीं निकाला। और इसकी वजह से गैस से चलने वाले ढेर सारे बिजली के प्लांट नहीं चले। गैस का उत्पादन परचेज शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर पूरा न कर पाने के लिए तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने रिलायंस पर तगड़ा जुर्माना भी लगाया था। हालांकि, रिलायंस इस मामले के खिलाफ अदालत में चला गया। आरोप ये भी लगते रहे हैं कि इसी वजह से जयपाल रेड्डी को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। इसीलिए अरविंद केजरीवाल की सीधे-सीधे सरकार ने मुकेश अंबानी को फायदा पहुंचाया लोगों के दिमाग में घुस जाता है। इसीलिए नरेंद्र मोदी से अंबानी को जोड़कर अरविंद केजरीवाल ये साबित कर देना चाहते हैं कि सब भ्रष्ट हैं, चोर हैं। इसलिए जरूरी है कि गैस की कीमतों का गणित और चुनावी फायदे का गणित लोगों तक पहुंचे जिससे देश का आर्थिक गणित और खराब होने से बच सके। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि ये करेगा कौन। क्योंकि, साख का सवाल है।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...