Thursday, December 13, 2007

लाल कृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मतलब

भाजपा ने आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी को अपना नेता घोषित कर ही दिया। लोकसभा चुनाव हारने के बाद और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तबियत खराब होने के बाद ही ये ऐलान हो जाना चाहे था। लेकिन, कुछ पार्टी की आतंरिक खराब हालत और कुछ अटल बिहारी वाजपेयी की आजीवन भाजपा का सबसे बड़ा नेता बने रहने की चाहत। इन दोनों बातों ने मिलकर आडवाणी की ताजपोशी पर बार-बार ब्रेक लगाया। उस पर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले आडवाणी के बयान की वजह से संघ के बड़े नेताओं की नाराजगी कुछ बची रह गई थी।

फिर जरूरत (वजह) क्या थी बिना किसी मौके के आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की। अभी लोकसभा के चुनाव तो हो नहीं रहे थे। गुजरात के चुनाव चल रहे हैं और गुजरात में जिस तरह से मोदी की माया में ही पूरे राज्य में बीजेपी का चुनाव प्रचार चल रहा है। सहज ही लाल कृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी मोदी के बढ़ते प्रभाव से जुड़ जाता है। और राष्ट्रीय मीडिया ने इसे बड़ी ही आसानी से जोड़ दिया कि मोदी केंद्र की राजनीति में प्रभावी न हो पाएं इसके लिए गुजरात चुनाव के परिणाम आने से पहले ही आडवाणी की उम्मीदवार पक्की कर दी गई। लेकिन, अगर आडवाणी की उम्मीदवारी के ऐलान के समय पार्टी कार्यालय के दृश्य याद करें तो, आसानी से समझ में आ जाता है कि मोदी कहीं से भी नंबर एक की कुर्सी के लिए आडवाणी को चुनौती देने की हालत में नहीं थे।

दरअसल लाल कृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पक्की करने के पीछे असली खेल भाजपा में नंबर दो की लड़ाई में भिड़े नेताओं ने किया। मुस्कुराते हुए राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी का पत्र पढ़कर सुनाया। जसवंत सिंह हमेशा की ही तरह आडवाणी के पीछे खड़े थे। अरुण जेटली काले डिजाइनर कुर्ते में चमकते चेहरे के साथ नजर आ रहे थे। लेकिन, इस पूरे आयोजन में सबसे असहज और खुद को सहज बनाने की कोशिश में दिख रहे थे मुरली मनोहर जोशी। राजनाथ के ऐलान के बाद जोशी ने आडवाणी को मिठाई खिलाई, गुलदस्ता भी दिया।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को भीतर से जानने वाले ये अच्छी तरह जानते हैं कि नंबर दो की कुर्सी को छूने भर के लिए मुरली मनोहर जोशी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भाजपा में एक चर्चित किस्से से आडवाणी-जोशी के बीच चल रहे शीत युद्ध को आसानी से समझा जा सकता है। किस्सा कुछ यूं है कि एक बार जोशी के संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद से कुछ नाराज लोग आडवाणी के पास मुरली मनोहर की शिकायत करने पहुंचे तो, आडवाणी ने उन्हें जवाब दिया कि इलाहाबाद भाजपा के नक्शे में शामिल नहीं है। ये बात कितनी सही है ये तो पता नहीं। लेकिन, दोनों नेताओं के बीच रस्साकशी लगातार चलती रही थी। आडवाणी स्वाभाविक तौर पर अटल बिहारी के बाद कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्य नेता थे तो, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के सर संघचालक रहते जोशी ने संघ के दबाव में नंबर दो का दावा बार-बार पेश करने की कोशिश की।

जोशी जब अध्यक्ष बने तो, उसके बाद के चुनावों में एक पोस्टर पूरे देश भर में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय से छपा हुआ पहुंचा था। इसमें बीच में अटल बिहारी की थोड़ी बड़ी फोटो के अगल-बगल जोशी और आडवाणी की एक बराबर की फोटो लगी थी और नारा भारत मां की तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर। अब तो ये नारा भाजपा कार्यकर्ताओं को याद भी नहीं होगा।

खैर, आडवाणी ने पूरे देश में अपने तैयार किए कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल बिछाया कि दूसरे सभी नेता गायब से हो गए। उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक सिर्फ आडवाणी के कार्यकर्ता ही पार्टी में अच्छे नेता के तौर पर स्वीकार्य दिखने लगे। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, दिल्ली में मदन लाल खुराना, विजय गोयल, वी के मल्होत्रा, बिहार में सुशील मोदी, मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा, राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत, महाराष्ट्र में प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे, उत्तरांचल में भगत सिंह कोश्यारी, कर्नाटक में अनंत कुमार, गुजरात में केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा और नरेंद्र मोदी के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में गोविंदाचार्य, उमा भारती, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे नेता थे जो, देश भर में भाजपा की पहचान थे। और, इन सभी नेताओं की निष्ठा कमोबेश आडवाणी के प्रति ही मानी जाती थी।

कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं की तनी लंबी फौज होने के बाद आडवाणी कभी भी ‘मास अपील’ (इस अपील ने भी भारतीय राजनीति में बहुत भला-बुरा किया है) का नेता बनने में वाजपेयी को पीछे नहीं छोड़ पाए। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद आडवाणी का ग्राफ बहुत तेजी से ऊपर गया। लेकिन, इसके साथ ही देश में हिंदूत्व के उभार के साथ एक आक्रामक तेवर वाले नेताओं की भी फौज खड़ी हो गई। साथ ही आडवाणी के ही खेमे के नेताओं में आपस में ठन गई। बीच बचाव करते-करते माहौल बिगड़ चुका था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे जनाधार वाले नेता कल्याण सिंह ने पार्टी से किनारा कर लिया। गोविंदाचार्य को अध्ययन अवकाश पर जाना पड़ा। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह से दस साल बाद सत्ता छीनने वाली तेज तर्रार नेता उमा भारती मुख्यमंत्री तो बनीं लेकिन, जल्द ही उनके तेवर पार्टी के लिए मुसीबत बन गए। मदन लाल खुराना आडवाणी को ही पार्टी में होने वाले सारे गलत कामों के लिए दोषी ठहराने लगे। प्रमोद महाजन का दुखद निधन हो गया जो, भाजपा के साथ देश की राजनीति के लिए भी एक बड़ा झटका था। साहिब सिंह वर्मा का सड़क हादसे में निधन हो गया। इस बीच ही आडवाणी को मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्ष नजर आने लगे। और, आडवाणी संघ सहित भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के भी निशाने पर आ गए।

राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद आडवाणी ने खुद को पार्टी की सक्रिय भूमिका से अलग कर लिया। और, सच्चाई ये थी कि उनके अपने खड़े किए नेता अब प्रदेशों में या फिर देश की राजनीति में अब उनके साथ थे ही नहीं। राजनाथ सिंह की अध्यक्षी में उत्तरांचल और पंजाब में भाजपा सत्ता में आई लेकिन, उत्तर प्रदेश में मिली जबरदस्त पटखनी ने पूरे देश में भाजपा का माहौल खराब कर दिया। संघ, विश्व हिंदू परिषद की नाराजगी ने रहा सहा काम भी बिगाड़ दिया।

कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी जो, खुद को एक परिवार की तरह पेश करती है। एक ऐसा परिवार बनकर रह गई जिसमें घर का हर सदस्य अपने हिसाब से चलना चाह रहा था और घर के मुखिया, दूसरे सदस्यों को कुछ भी कहने-सुनने लायक नहीं बचे थे। संघ के बड़े नेता मोहन भागवत फिर से इस कोशिश में जुट गए कि किसी तरह भाजपा को उसका खोया आधार वापस मिल सके। भोपाल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ही आडवाणी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना था लेकिन, अटल बिहारी बीच में ही बोल पड़े कि वो फिर लौट रहे हैं।

आडवाणी भी ये नहीं चाहते थे कि आज की तारीख में देश के सबसे स्वीकार्य नेता की असहमति के साथ वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनें। सारी मुहिम फिर स शुरू हुई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में जिस तरह से भाजपा का संगठन जिस तेजी से खत्म हुआ है उसमें ये जरूरत महसूस होने लगी कि पार्टी को किसी एक नेता के पीछे चलना ही होगा। गुजरात में मोदी ने जिस तरह से संगठन के तंत्र को तहस-नहस किया है। और, अपना खुद का तंत्र बनाकर केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा, सुरेश मेहता और दूसरे भाजपा के दिग्गज नेताओं को दरकिनार किया है। उससे भी पार्टी और संघ को आडवाणी को नेता बनाने की जरूरत महसूस हुई।

संघ ने आडवाणी की उम्मीदवारी पक्की करने से पहले आडवाणी को मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को साथ लेकर चलने का पक्का वादा ले लिया। गुजरात में मोदी के प्रकोप से डरे भाजपा के दूसरी पांत के नेता भी आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का निर्विवाद उम्मीदवार मानने के लिए राजी हो गए। नरेंद्र मोदी तो कभी भी इस हालत में नहीं रहे कि दिल्ली की राजनीति में वो आडवाणी के कद के आसपास भी फटकते। वैसे भी गुजरात के बाहर मोदी का साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों का फॉर्मूला तो काम करने से रहा। लेकिन, आडवाणी के लिए राह बहुत मुश्किल है। गोविंदाचार्य और उमा भारती जैसे कार्यकर्ताओं के प्रिय नेता पार्टी में आने जरूरी हैं। कल्याण सिंह में अब वो तेवर नहीं बचा है। उत्तर प्रदेश में दूसरा कोई ऐसा नेता बन नहीं पाया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ तालमेल बिठाना मुंडे के लिए मुश्किल हो रहा है। और, अब शायद ही आडवाणी में इतनी ताकत बची होगी कि वो फिर से सफल रथयात्री बन सकें जो, अपनी मंजिल तक पहुंच सके। लेकिन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अजब-गजब बयान से इतना तो साफ है कि भाजपा का तीर निशाने पर लगा है।

3 comments:

  1. आपका समसामयिक लेखन उम्‍दा है, आज फीड सब्‍सक्राईब कर लिया हूं ताकि पोस्‍टों को पढने से चूक ना जाउं । धन्‍यवाद ।

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  2. वास्तव में, आपका लेखन तो उत्तरोत्तर निखरता जा रहा है।

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  3. हम त कुछ इस तरह सोचना शुरू किया था . कि गुजरात चुनावी गणित मे कट्टरता को बढ़त मिलने की भरपूर
    सम्भावना ने कट्टर और जुझारू छवि को आगे लाने मे मदद की है . सहिए है जब वोट की राजनीती चल रही है ऐसे मे उदारवादी छवि हिंदू वोट के बिखराव के अलावा कुछ किया भी तो नही . ये संघ और भाजपा दोनों की राजनीती समझ मे नही आती जो बुलंदी देता है उसको ये नस्नाबूत करते आए हैं.
    विध्वंस कराने के लिए नही पर सकारात्मक कार्य के लिए आज हिंदू को सशक्त और सगठित होने की जरूरत
    है . क्या कोई कर पायेगा ?

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