सीपीएम कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में पत्रकारों पर फायरिंग की। ये खबर रविवार दिन में अचानक आई और जितनी तेजी से आई, उतनी ही तेजी से गायब भी हो गई। लेफ्ट पार्टियों के इन कार्यकर्ताओं को ये पसंद नहीं आ रहा था कि कोई पत्रकार यहां से सही खबरें निकालकर लोगों तक बोलकर-लिखकर पहुंचाए। वैसे लेफ्ट का ये पुराना स्वभाव है जो, कभी-कभी ही जगजाहिर होता है लेकिन, जब जगजाहिर भी होता है तो, जल्दी ही इसे जाहिर करने वाले जगत में मौजूद लेफ्ट समर्थक मानसिकता के पत्रकार ही इसे दबा देते हैं। और, शायद इसी वजह से लेफ्ट कार्यकर्ता इतने मनबढ़ हो गए कि अब पत्रकारों पर भी गोलियां चलाने लगे हैं। वैसे इससे साफ समझमें आ जाता है कि लेफ्ट के शासनवाले पश्चिम बंगाल में लेफ्ट की किसी भी बात का विरोध करना कठिन है।शायद यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के किसी भी अत्याचार की खबरें मीडिया में उस तरह से नहीं आ पाती हैं। जबकि, कांग्रेस या बीजेपी, यहां तक कि सपा-बसपा या दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के शासन वाले राज्यों में हुई छोटी सी भी घटना मीडिया के लिए घर में शादी के आयोजन जैसा हो जाता है। मेरा ये साफ मानना है कि बीजेपी-कांग्रेस के शासन वाले राज्य कुछ गलत करें तो, उनके खिलाफ मीडिया को एकदम इसी तरह से प्रतिक्रिया देनी चाहिए जैसे वो अभी देते हैं लेकिन, लेफ्ट के शासन वाले राज्यों को छूट कैसे दी जा सकती है। जिस नंदीग्राम में सीपीएम कार्यकर्ताओं ने पत्रकारों पर गोलियां चलाई हैं। ये वही नंदीग्राम है जो, करीब एक हफ्ते तक युद्ध का मैदान बन गया था।
वजह साफ थी नंदीग्राममें रहने वाले ज्यादा लोग लेफ्ट के शासन से इतने परेशानहैं कि उन्हें जमीन पर सरकारीकब्जे के विरोध के बहाने जब सरकार के विरोध का मौका मिला तो, वो इसे छोड़ना नहीं चाहते थे। और, ममता बनर्जी की तृणमूल ने इसकी अगुवाई थाम ली। बस नंदीग्राम के लोगों का दुर्भाग्य यहीं से शुरू हो गया। लेफ्ट पार्टी को लगा कि ये मेरी सत्ता में सेंध लगाने की तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है। फिर क्या था लेफ्ट के कार्यकर्ता और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता आपस में हथियार लेकर भिड़ गए औऱ राज्य की पुलिस अपने आकाओं को खुश करने के लिए लेफ्ट कार्यकर्ताओं को बचाने के लिए तृणमूल कांग्रेस और नंदीग्राम के गांव वालों पर गोलियां बरसाने लगी। खैर बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है नंदीग्राम में 14 लोगों की हत्या के बाद सीबीआई की जांच रिपोर्ट में ये बात साफ हुई कि नंदीग्राम में 14 से ज्यादा लोग मारे गए और वो पुलिस की गोलियों से नहीं मरे। लेकिन, इसके बाद भी केंद्र की यूपीए सरकार इस मसले पर कोई कार्रवाई करने की बजाए इस पर चुप्पी साधकर बैठ गई। अगर किसी और राज्य में ऐसी घटना हुई होती तो, कांग्रेस अपने चरित्र के मुताबिक, अब तक वहां राष्ट्रपति शासन लगाती भले न, ऐसी बहस तो शुरू ही कर देती। दरअसल केंद्र में समर्थन देने के एवज में कांग्रेस ने बंगाल के लोगों का स्वाभिमान गिरवी रख दिया है। लेफ्ट के कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में गांववालों की हत्या कर दी। लेकिन, कहीं भी लेफ्ट की इस गुंडागर्दी पर हल्ला नहीं मचा। सारी बहस मीडिया में इस पर केंद्रित रही कि बुद्धदेब भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के विकास की भरसक कोशिश कर रहे हैं लेकिन, पुराने वामपंथी इसे बुद्धदेब का वामपंथी विचारधारा से भटकना मानकर बुद्धदेब का विरोध कर रहे हैं।
बस फिर क्या था सारी लड़ाई पुराने वामपंथी और नए वामपंथियों के बीच की होकर रह गई। लेफ्ट कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी की कहीं चर्चा ही नहीं हुई। दबे छुपे कहीं-कहीं से ये बात बस चलते-चलते सी आई कि नंदीग्राम में सीपीएम कार्यकर्ताओं ने खुलेआम गोलियां चलाईं। वैसे ये भी सोचने वाली बात है कि देश के दूसरे राज्यों में भी जमीन पर सरकारी कब्जे हो रहे हैं औऱ SEZ यानी स्पेशल इकोनॉमिक जोन भी बन रहे हैं फिर सबसे ज्यादा विरोध पश्चिम बंगाल में ही क्यों हो रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि देश भर में घूम-घूमकर केंद्र की जमीन अधिग्रहण औऱ स्पेशल इकोनॉमिक जोन की नीति का विरोध करने वाले वामपंथियों को विकास का ये रास्ता खूब पसंद आ रहा है औऱ इसीलिए जब पश्चिम बंगाल में कोई भी राज्य सरकार की किसी भी नीति का विरोध करता है तो, वो लेफ्ट के कार्य़कर्ताओं को बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं होता है और वो अपने वामपंथी विचारधारा में ढल चुकी पुलिस के साथ मिलकर विरोध करने वालों को किसी भी हद तक दबाने की कोशिश करते हैं। पिछले छे महीने में अगर पश्चिम बंगाल के हालात देखें तो, सिर्फ जमीन पर सरकारी कब्जे के मामले में कम से कम पांच हजार लोग घायल हो चुके हैं जबकि, अधिकारिक तौर पर 14 की जान जा चुकी है।वैसे नंदीग्राम से गायब हुए लोगों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। ये बात थोड़ा आश्चर्यजनक लगती है कि पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में ऐसी गुंडागर्दी इतने सालों से हो रही है और वहां की जनता सत्ता बदलने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है।
नंदीग्राम, सिंगुर, आसनसोल जैसे हालात हर दूसरे दिन राज्य के दूसरे क्षेत्रों में बनते दिख रहे हैं। फिर भी लोग सीपीएम की गुंडागर्दी के खिलाफ क्यों एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। साहित्य, कला, मीडिया और दूसरे रचनाशील क्षेत्रों में भी पश्चिम बंगाल से निकले लोग जितने हैं। उतने किसी और राज्य से निकले शायद ही होंगे लेकिन, ये समझ से बाहर है कि दूसरों को साहित्य और दूसरे रचनात्मक तरीके से कुछ करने और सत्ता के खिलाफ खड़े होने के तरीके सिखाने वाले बंगाल के लोग अपने ही राज्य में गुंडों की सत्ता बदलने का काम क्यों नहीं कर पा रहे हैं। शायद ही इसकी वजह ये हो कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के शासन में इतना बेहतर काम हुआ है कि लोगों को दूसरा विकल्प बेहतर नहीं लग रहा। मुझे तो, पश्चिम बंगाल के मामले में फिल्म युवा की स्क्रिप्ट ही काफी हद तकसही होती दिख रही है। फिल्म में तो, थोड़े बदलाव से कुछ युवा विधानसभा में पहुंचकर लेफ्ट की बूढ़ी लेकिन, मजबूत सत्ता को चुनौती दे भी पाते हैं यहां तो, ऐसी भी उम्मीद की किरण तक दिखाई नहीं दे रही है।
वजह साफ थी नंदीग्राममें रहने वाले ज्यादा लोग लेफ्ट के शासन से इतने परेशानहैं कि उन्हें जमीन पर सरकारीकब्जे के विरोध के बहाने जब सरकार के विरोध का मौका मिला तो, वो इसे छोड़ना नहीं चाहते थे। और, ममता बनर्जी की तृणमूल ने इसकी अगुवाई थाम ली। बस नंदीग्राम के लोगों का दुर्भाग्य यहीं से शुरू हो गया। लेफ्ट पार्टी को लगा कि ये मेरी सत्ता में सेंध लगाने की तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है। फिर क्या था लेफ्ट के कार्यकर्ता और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता आपस में हथियार लेकर भिड़ गए औऱ राज्य की पुलिस अपने आकाओं को खुश करने के लिए लेफ्ट कार्यकर्ताओं को बचाने के लिए तृणमूल कांग्रेस और नंदीग्राम के गांव वालों पर गोलियां बरसाने लगी। खैर बात सिर्फ इतनी सी ही नहीं है नंदीग्राम में 14 लोगों की हत्या के बाद सीबीआई की जांच रिपोर्ट में ये बात साफ हुई कि नंदीग्राम में 14 से ज्यादा लोग मारे गए और वो पुलिस की गोलियों से नहीं मरे। लेकिन, इसके बाद भी केंद्र की यूपीए सरकार इस मसले पर कोई कार्रवाई करने की बजाए इस पर चुप्पी साधकर बैठ गई। अगर किसी और राज्य में ऐसी घटना हुई होती तो, कांग्रेस अपने चरित्र के मुताबिक, अब तक वहां राष्ट्रपति शासन लगाती भले न, ऐसी बहस तो शुरू ही कर देती। दरअसल केंद्र में समर्थन देने के एवज में कांग्रेस ने बंगाल के लोगों का स्वाभिमान गिरवी रख दिया है। लेफ्ट के कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में गांववालों की हत्या कर दी। लेकिन, कहीं भी लेफ्ट की इस गुंडागर्दी पर हल्ला नहीं मचा। सारी बहस मीडिया में इस पर केंद्रित रही कि बुद्धदेब भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के विकास की भरसक कोशिश कर रहे हैं लेकिन, पुराने वामपंथी इसे बुद्धदेब का वामपंथी विचारधारा से भटकना मानकर बुद्धदेब का विरोध कर रहे हैं।
बस फिर क्या था सारी लड़ाई पुराने वामपंथी और नए वामपंथियों के बीच की होकर रह गई। लेफ्ट कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी की कहीं चर्चा ही नहीं हुई। दबे छुपे कहीं-कहीं से ये बात बस चलते-चलते सी आई कि नंदीग्राम में सीपीएम कार्यकर्ताओं ने खुलेआम गोलियां चलाईं। वैसे ये भी सोचने वाली बात है कि देश के दूसरे राज्यों में भी जमीन पर सरकारी कब्जे हो रहे हैं औऱ SEZ यानी स्पेशल इकोनॉमिक जोन भी बन रहे हैं फिर सबसे ज्यादा विरोध पश्चिम बंगाल में ही क्यों हो रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि देश भर में घूम-घूमकर केंद्र की जमीन अधिग्रहण औऱ स्पेशल इकोनॉमिक जोन की नीति का विरोध करने वाले वामपंथियों को विकास का ये रास्ता खूब पसंद आ रहा है औऱ इसीलिए जब पश्चिम बंगाल में कोई भी राज्य सरकार की किसी भी नीति का विरोध करता है तो, वो लेफ्ट के कार्य़कर्ताओं को बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं होता है और वो अपने वामपंथी विचारधारा में ढल चुकी पुलिस के साथ मिलकर विरोध करने वालों को किसी भी हद तक दबाने की कोशिश करते हैं। पिछले छे महीने में अगर पश्चिम बंगाल के हालात देखें तो, सिर्फ जमीन पर सरकारी कब्जे के मामले में कम से कम पांच हजार लोग घायल हो चुके हैं जबकि, अधिकारिक तौर पर 14 की जान जा चुकी है।वैसे नंदीग्राम से गायब हुए लोगों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। ये बात थोड़ा आश्चर्यजनक लगती है कि पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में ऐसी गुंडागर्दी इतने सालों से हो रही है और वहां की जनता सत्ता बदलने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है।
नंदीग्राम, सिंगुर, आसनसोल जैसे हालात हर दूसरे दिन राज्य के दूसरे क्षेत्रों में बनते दिख रहे हैं। फिर भी लोग सीपीएम की गुंडागर्दी के खिलाफ क्यों एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। साहित्य, कला, मीडिया और दूसरे रचनाशील क्षेत्रों में भी पश्चिम बंगाल से निकले लोग जितने हैं। उतने किसी और राज्य से निकले शायद ही होंगे लेकिन, ये समझ से बाहर है कि दूसरों को साहित्य और दूसरे रचनात्मक तरीके से कुछ करने और सत्ता के खिलाफ खड़े होने के तरीके सिखाने वाले बंगाल के लोग अपने ही राज्य में गुंडों की सत्ता बदलने का काम क्यों नहीं कर पा रहे हैं। शायद ही इसकी वजह ये हो कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के शासन में इतना बेहतर काम हुआ है कि लोगों को दूसरा विकल्प बेहतर नहीं लग रहा। मुझे तो, पश्चिम बंगाल के मामले में फिल्म युवा की स्क्रिप्ट ही काफी हद तकसही होती दिख रही है। फिल्म में तो, थोड़े बदलाव से कुछ युवा विधानसभा में पहुंचकर लेफ्ट की बूढ़ी लेकिन, मजबूत सत्ता को चुनौती दे भी पाते हैं यहां तो, ऐसी भी उम्मीद की किरण तक दिखाई नहीं दे रही है।
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
ReplyDeleteवो कत्ल भी करदें तो चर्चा तक नहीं होता
अभी हम सारा ध्यान गुजरात पर लगाये हुए है, यहाँ भयंकर कत्लेआम हो रहा है, और आप बंगाल को रो रहे है. आपको धोखा हुआ है वहाँ तो वामपंथी पहले से ही स्वर्ग उतार चुके है.
ReplyDeleteहर्षवर्धन तुमने अब तक का सबका महत्वपूर्ण विषय छेड़ा है। महत्वपूर्ण इसलिए कि हम हवाई बातों को खबरों में बता देते हैं, जबकि इस तरह के मुद्दों को चलताऊ तरीके से लेते हैं। सीपीएम की विचारधारा देश के लिए बेहद खतरनाक है, क्योंकि ये एक तरह से आर्गनाइज्ड क्राइम को बढ़ावा देती है, जो दाउदभाई या फिर कल्पतरू बिल्डर्स करते हैं ये उससे बिल्कुल अलग नहीं है। बल्कि दाउद भाई के खिलाफ साहस दिखाय़ा जा सकता है क्योंकि उनमें थोड़ी सी डेमोक्रेसी बची है।
ReplyDeleteदरअसल वामपंथियो का एक बड़ा काकस बन गया है जो पत्रकार वामपंथ के खिलाफ हैं उन्हें फौरन दक्षिणपंथी मान लिया जाता है। सेक्युलर वही है जो वामपंथ के साथ हो चाहे वो भ्रष्टाचारी, कदाचारी, व्यभिचारी हो।
मेरा ये मानना है कि देश के सामने आतंकवाद से बड़ा खतरा नक्सलवाद है क्योंकि ये आर्गनाइज्ड तरीका है अपने विरोधियों को कुचलने का।
पश्चिम बंगाल में आर्गनाइज्ड रिगिंग होती चली आ रही है क्योंकि विरोधियों को चुनाव के बाद के हालात की कल्पना करके ही डेमोक्रेसी पर से विश्वास उठ जाता है। हम पत्रकारों में वामपंथियों के मोल बहुत ज्यादा हैं इसलिए लगता है कि वामपंथ के खिलाफ क्यों युध्द किया जाए।
जिस तरह गुजरात की हिंसा नाकाबिले बर्दाश्त है उसी तरह नंदीग्राम में गुंडागर्दी भी किसी भी तरीके से बर्दाश्त नहीं की जा सकती। क्योंकि ये नहीं हो सकता कि तुम करो तो शिष्टाचार हम करें तो भ्रष्टाचार.
अब हमें किसी पंथ की जरूरत नहीं हम आजाद हैं