Thursday, July 31, 2008

भले लोगों को पहला मौका मिलते ही पार्टियां लात मार देती हैं

ये सब मानते हैं कि राजनीति में भले लोग कम ही जाते हैं। गए भी तो भले नहीं रह जाते हैं। और, भले रह गए तो, उनकी अपनी पार्टी पहला मौका मिलते ही लात मारकर बाहर कर देती है। यही हाल सोमनाथ का उनकी अपनी पार्टी सीपीएम में हुआ। 40 साल से पार्टी के निर्देश मानने का ख्याल सीपीएम के गुंडा बॉस प्रकाश करात को बिल्कुल नहीं रहा। और, सोमनाथ को पार्टी से बाहर निकालने का फैसला उस आधार पर सुनाया गया जो, पार्टी की खिलाफत तो बिल्कुल ही नहीं था।

लोग भले ही कहें कि ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जिद थी कि सरकार को विश्वासमत हासिल करना पड़ा। और, वो इसमें कामयाब होने के बाद पहली बार प्रधानमंत्री की तरह दिखे। मैं मानता हूं कि सरकार को विश्वासमत का सामना यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और सीपीएम महासचिव प्रकाश करात के अहं की वजह से करना पड़ा। सोनिया के दोनों हाथों में लड्डू था। सरकार बची तो, इससे अच्छा क्या होता जो, हुआ और गिरती तो, युवराज की ताजपोशी का रास्ता साफ होता। खैर, दोनों बड़े नेताओं का अहम तुष्ट करने के लिए दो भले लोग भी निशाने पर थे। सोनिया गांधी का अहम तुष्ट हो गया इसलिए मनमोहन मीडिया में बड़े नेता के तौर पर प्रतिष्टित हो गए। और, मीडिया मनमोहन के पुराने फैसलों में भी उनकी ताकत देखने लगा।

लेकिन, करात का अहम चूर-चूर हो गया। वो, भी जिसको वो दलाल कहते हैं उस अमर सिंह के सामने तो, उनको लगा कि उनके अहम को तोड़ने में सोमनाथ चटर्जी भी साझीदार रहे। बस फिर क्या था अब तक विचारधारा के आधार पर चल रही पार्टी पर करात दंपति का कब्जा तो था ही। आनान-फानन में सोमनाथ को पार्टी से निष्काषित कर दिया। कमाल ये था कि सोमनाथ निकाले सीपीएम से गए थे लेकिन, दूसरी तीनों लेफ्ट पार्टियों ने भी बड़े भाई करात का समर्थन किया।

आप बताइए सोमनाथ ने कहां गलती की। सोमनाथ जब लोकसभा अध्यक्ष सर्वसहमति से बने उसी, वक्त उन्होंने कहाकि, वो पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठ गए हैं। सोमनाथ दा के अंदर बीजेपी विरोध भरा था और जाने-अनजाने वो दिख भी जाता था। लेकिन, कभी उन्होंने इसे संसद की कार्यवाही में दिखने नहीं दिया। बिना उनकी इजाजत के करात ने उनका नाम भी सरकार से समर्थन वापस लेने वाले लेफ्ट पार्टी सांसदों की सूची में राष्ट्रपति को सौंप दिया। ये कहां से जायज था।

उसके बाद भी सोमनाथ को सीध-सीधे समझाने के बजाय करात ने धमकियों का इस्तेमाल किया कि, सोमनाथ तुरंत लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दें। साथ ही धमकी नोट में ये भी शामिल था कि ऐसा नहीं किया तो, पार्टी से निकाल बाहर किए जाएंगे जो, जिद्दी करात ने कर भी दिखाया। जब सोमनाथ पर बहुत दबाव पड़ा तो, उन्होंने साफ कह दिया कि वो इस्तीफा नहीं देंगे। और, दे भी दिया तो, सरकार के खिलाफ बीजेपी के साथ वोटिंग नहीं करेंगे। अब सोमनाथ अगर उसी विचारधारा के आधार पर बीजेपी को कम्युनल मानते हुए उसके साथ खड़े होने से मना कर रहे थे तो, उसमें लेफ्ट को गलत कैसे लग सकता है (जबकि, मैं खुद इसके सख्त खिलाफ हूं कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को कम्युनल कहकर अछूत ठहराने की कोशिश लगातार होती रहती है)।

पार्टी से निकाले जाने से आहत सोमनाथ कह चुके हैं कि अब वो राजनीति ही छोड़ देंगे। सोमनाथ का राजनीति छोड़ना लेफ्ट पार्टियों के लिए पता नहीं कितना बड़ा नुकसान है लेकिन, भारतीय लोकतंत्र के लिए सोमनाथ का राजनीति छोड़ना बहुत बड़ा नुकसान होगा। क्योंकि, राजनीति के लिए ये बड़ा जरूरी है कि सारे विरोधों के बाद भी हर राजनीतिक दल में सोमनाथ जैसे लोग हों जिनका विरोधी भी सम्मान करता हो। उनकी बात सुनने को तो तैयार हो। वरना तो, कॉरपोरेट सौदों की तरह राजनीतिक सहमति बनाने के लिए भी सिर्फ दलाल (mediator, broker ) ही बचे रह जाएंगे। क्योंकि, गलती से पार्टी में बचे रह गए भले लोगों को लात मारने का काम पार्टियां पहला मौका मिलते ही कर डाल रही हैं।

Wednesday, July 30, 2008

अब गांधी की शरण में मोदी

गुजरात सचमुच इस देश का अनूठा प्रदेश है। तरक्की गुजरातियों के स्वभाव में है। और, ये इस धरती का ही कमाल है कि बारूद के ढेर पर बैठने का अहसास होने के बाद भी यहां के कारोबार पर कोई असर नहीं पड़ा है। गुजरातियों की इसी नब्ज को नरेंद्र मोदी ने पकड़ लिया है। इसका अहसास मुझे और मजबूती से तब हुआ जब मैं अहमदाबाद धमाकों के बाद देर रात वहां पहुंचा। रात के करीब एक बजे हम एयरपोर्ट से निकलकर होटल के लिए जा रहे थे तो, मोदी का काफिला शहर से मणिनगर की ओर जा रहा था।

सबसे ज्यादा धमाके मणिनगर में ही हुए हैं जो, खुद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का विधानसभा क्षेत्र है। खैर, इतने भयानक हादसे के बाद मुझे उम्मीद थी कि इतनी रात में शायद ही सड़कों पर कोई नजर आएगा सिवाय पुलिस फोर्स के। पुलिस फोर्स तो हर जगह चौकस दिखी लेकिन, मुझे रात के एक बजे भी दो-तीन जोड़े मोटरसाइकिल पर और कई परिवार घर लौटते दिखे। फिर भी मुझे ये भरोसा था कि अगले दिन रविवार भी है और इतने बम धमाके भी हुए हैं शायद ही सड़कों पर सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं होगा। लेकिन, गुजरातियों ने मुझे इस बार भी झुठला दिया।

रविवार को सुबह सात बजे मैं होटल से निकला और सीधे रायपुर (पुराने शहर का संकरा बाजार जहां, शनिवार को दो धमाके हुए थे और 2 जानें गईं थीं।) बाजार पहुंचे। वहीं हमने नाश्ता किया। और, बाजार बंदी का दिन होने के बावजूद लोग बाहर सड़कों पर थे। और, जरूरी चीजों की दुकानें उस समय ही खुल गई थीं। वहां से मैं सिविल हॉस्पिटल पहुंचा तो, धमाके की जगह देखकर मेरी रूह कांप गई। धमाके से कारों, स्कूटर-मोटरसाइकिल के चीथड़े हो गए थे। लोगों का क्या हाल हुआ होगा धमाके के समय अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉस्पिटल पर मदद करने वाले भी जमा थे। तमाशा देखने वाले थे।

शहर में धमाके की जगह पर भी ये अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि यहां इतना भयानक हादसा हुआ है। नए शहर में तो गाड़ियां उसी रफ्तार से भाग रहीं थीं। सबकुछ उसी रफ्तार से चल रहा था जैसे आम दिनों में चलता है। इस रफ्तार की वजह का पता मुझे लगा जाइडस कैडिला के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर पंकज पटेल से मिलने के बाद। पंकज पटेल ने कहा- आतंकवादी देश की ग्रोथ स्टोरी ब्रेक करना चाहते हैं। और, गुजरात निशाना इसीलिए बना क्योंकि, देश की तरक्की में गुजरात सबसे अहम है। लेकिन, हम गुजराती, इन आतंकवादियों के जाल में नहीं फंसेंगे। हम आतंकवाद का जवाब गांधीजी के हथियार शांति से देंगे और दोगुनी तरक्की करके आतंक को मुंहतोड़ जवाब देंगे। वैसे ये बात मैंने गुजरात चुनाव कवरेज से लौटने के बाद भी कही थी कि गुजरात राज्य नहीं एक कॉरपोरेट हाउस की तरह चल रहा है।

पंकज ने कहा- तरक्की होगी तो, रोजगार होगा। सबकी जेब में ढेर सारा पैसा होगा और आतंकवाद नष्ट हो जाएगा। करीब-करीब ऐसी ही राय राज्य के ज्यादातर बड़े व्यापारियों की है। CII गुजरात चैंबर्स के चेयरमैन विमल अंबानी (मुकेश-अनिल अंबानी के चचेरे भाई) का कहना था कि इससे कुछेक दिनों के लिए भले निवेश पर पड़े उससे ज्यादा असर नहीं होगा। और, गुजरात इसी रफ्तार से तरक्की करता रहेगा।

अब मोदी को कोई लाख गाली दे। मोदी के गुजरात में तरक्की का जज्बा और मजबूत हुआ है। मुझे जो जानकारी मिली है मोदी ने विहिप और बजरंग दल को धमाकों के विरोध में रविवार को राज्य बंद की इजाजत नहीं दी। आपको याद हो तो, अमरनाथ जमीन विवाद में विहिप, बीजेपी के बंद में गुजरात शामिल नहीं था। अब ऐसे में कुछ लोगों का ये तर्क कि मोदी के गुजरात में लोगों की जान जा रही है। पता नहीं कहां रहते हैं जब देश के दूसरे राज्यों में आतंकवादी ऐसे हमले करते हैं। वैसे भी ये गुजरात की धरती है जो, गांधी, पटेल और अंबानी की धरती है। इस पर लोगों को ऐतराज हो सकता है लेकिन, मुझे लगता है कि मोदी पटेल और अंबानी के पदचिन्हों पर तो पहले भी चल रहे थे अब शायद गांधी की विरासत को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि, मोदी को अच्छे से पता है कि गांधी की शांति का रास्ता नहीं रहा तो, तरक्की के बूते गुजरात में घूम-घूमकर 36 इंच की छाती दिखाने का मौका मोदी को कैसे मिल पाएगा।

Monday, July 28, 2008

31,000 फीट की ऊंचाई पर इलाहाबाद

अपना इलाहाबाद इकतीस हजार फीट की ऊंचाई पर देखा तो, मजा आ गया। वैसे तो अपना शहर, खासकर जहां अपनी पढ़ाई-लिखाई के दिन बीते हों, सबके लिए खास होता है। लेकिन, इलाहाबाद हमारे लिए इसलिए भी खास है कि जिंदगी के शुरुआती फलसफे मैंने यहीं सीखे।

मैं 28 जुलाई की सुबह सात बीस की जेट की फ्लाइट से अहमदाबाद से मुंबई आ रहा था। मुंबई और अहमदाबाद में जबरदस्त बारिश की वजह से उड़ान थोड़ी देर से उड़ी। उड़ान भरने के बाद काफी देर तक मौसम की खराबी की वजह से जहाज कुछ इस तरह चल रहा था (उड़ने में कहां ऐसा होता है) जैसे किसी गांव की सड़क पर महिंद्रा कमांडर जीप। लेकिन, थोड़ी ही देर में बाहर का दृष्य बेहद शानदार हो गया। अनाउंसमेंट हुआ – आप 31,000 फीट की ऊंचाई पर हैं। बाहर का दृश्य इतना मनलुभावन था कि मैंने अपने मोबाइल कैमरे से कुछ फोटो खींची लेकिन, इसमें वो अहसास नहीं मिल पा रहा है।

इसी बीच मैंने आगे पड़े जेट एयरवेज की इनहाउस पत्रिका jetwings उठा ली। और, उसमें मेरी नजर 5 things to do in Allahabad देखा तो, दिल खुश हो गया। पहले पेज आनंद भवन और संगम का जिक्र था।



दूसरे पेज पर जमुना किनारे के किले, अक्षयवट मंदिर के साथ चंद्रशेखर आजाद पार्क (कंपनी बाग) और इलाहाबादी चाट-पकौड़ी, मिठाई का जिक्र था। बस मैंने मोबाइल कैमरे का इस्तेमाल कर उसकी तस्वीर उतार ली।



दरअसल इलाहाबाद से कुछ समय पहले ही दिल्ली के लिए जेट की उड़ान शुरू हुई है। एक बार पहले शुरू होकर बंद गई थी। अभी इसी उड़ान से घर वाले दिल्ली और वहां से लद्दाख तक का सफर करके आए हैं। अच्छा है इलाहाबाद आगे इससे भी ज्यादा ऊंचाई पर उड़े।

Thursday, July 24, 2008

अमर उजाला में बतंगड़

अमर उजाला के संपादकीय पृष्ठ ब्लॉग कोना नाम से ब्लॉग पर लिखा हुआ छपता है। और, 23 जुलाई को इस पेज पर बतंगड़ को जगह मिली है।

Wednesday, July 23, 2008

अब चड्ढी भी फट जाने दो तब करेंगे कपड़े पहनने की बात

लोकतंत्र नंगा हो गया है। सरकार जीती पर लोकतंत्र हार गया है। कोई कुछ तो कोई कुछ। विश्वास मत पर बहस के दौरान जब कल चार बजे के आसपास बीजेपी के तीन सांसदों ने गड्डी लहराकर एक करोड़ रुपए संसद में उछाले तो, लगा कि अरे ये क्या हो गया। तीनों सांसद खुश थे कि उन्होंने पार्टी के लिए वो कर दिया जो, आज तक के इतिहास में किसी भी पार्टी का सांसद अपनी पार्टी के लिए नहीं कर पाया। वो, बिके और बिककर खुश हुए। सोचा ये था कि जिसने खरीदा उसे नंगा कर देंगे और खुद महान बन जाएंगे।

लेकिन, वो यहीं चूक गए। खरीदने वाला बिकने वाले से हमेशा ज्यादा चालाक होता है। और, नफा-नुकसान का हिसाब भी ज्यादा बेहतर लगा लेता है। चाहे वो बिकती हुई कंपनी हो या फिर बिकता हुआ सांसद। इन तीनों सांसदों की नंगई की नौटंकी तब तक चलती रही जब तक दूसरे महान नंगे टीवी चैनलों पर नहीं चमके थे। इन तीनों नंगों को नंगई की इजाजत देने वाले आडवाणीजी भा बार-बार यही कहते रहे कि उन्होंने मुझसे इजाजत मांगी थी और मैंने उन्हें कहाकि वैसे तो, ये उचित नहीं है लेकिन, देश और संसद को दिखाने के लिए मैं इसकी इजाजत देता हूं।

अचानक मुलायम प्रकट हो गए। टीवी चैनल वालों ने पूछा अमर सिंह कहां हैं। लोगों को करोड़ो कि रिश्वत देने के आरोप के बाद चुप क्यों हैं। मुलायम सिंह ने कहा- अमर सिंह खूब बोलते हैं अभी भी बोलेंगे। और, जब अमर सिंह आकर बोले तो, सब शांत हो गया। अमर सिंह को तो सब जानते ही हैं। अमर सिंह ने वही पुराना डायलॉग रट्टा मारकर सुना दिया कि मेरे तो उठने-बैठने पर मीडिया की नजर है। जाने कितने कैमरे मेरे घर के सामने लगे हुए हैं (अमर सिंह ने यही जवाब उस आरोप पर भी दिया था जब कहा गया था कि सीबीआई चीफ उनके पास आए थे जिसके बाद मायावती के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हुई)। आपमें से किसी के पास है क्या ऐसी तस्वीरें जिसमें बीजेपी के तीनों वेश्या सांसद मेरे घर में बिकने के लिए आते दिखे हों। अमर सिंह ने कई बार कहाकि राजनीति की इन वेश्याओं का आरोप है कि मैंने उन्हें खरीदा। अमर सिंह इतने पर भी नहीं माने। उन्होंने कहाकि इन राजनीतिक वेश्याओं का ये भी दावा है कि पहले इन्हें एक फाइव स्टार होटल में अहमद पटेल के पास बिकने के लिए राजी किया गया था।

अमर सिंह ने कहा वो, इतने कच्चे खिलाड़ी तो नहीं हैं कि किसी को पैसे देंगे और पकड़े जाएंगे। उन्हें फंसाया जा रहा है। अमर सिंह जी आप एकदम सही कह रहे हैं आप जैसे शातिर को पकड़ना मुश्किल है। इसलिए नहीं कि आप बड़े चालाक हैं। सिर्फ इसलिए कि ज्यादातर लोग थोड़ा कम-थोड़ा ज्यादा के अंदाज में नंगे हैं। और, वो अपनी थोड़ी भी नंगई समाज में दिखने से अभी भी डर रहे हैं। आप पूरे नंगे हैं। आपको अब कोई डर नहीं है। आपने थोड़ा चालाकी से ही सही बीजेपी के उन तीनों सांसदों को राजनीतिक वेश्या तक कह डाला।

अब कहीं समंदर के किनारे चड्ढी पहने पुरुष और बिकनी पहने महिलाओं को कोई बेशर्म थोड़ी न कहता है। फाइव स्टार होटलों के पूल के किनारे कुर्सियों पर ऐसे ही परिधानों में बैठे लोगों को भी हाई क्लास का माना जाता है। ये बेशर्मी की परिभाषाएं तो, घरों में बाथरूम से निकलते समय भी पूरे कपड़े पहनकर निकलने वालों के लिए है। अब राजनीति में हाई क्लास बढ़ रहा है। इसलिए ऐसी बेशर्मी भी बढ़ रही है।

अब एक बार सबको पूरा नंगा हो जाने दीजिए। बिना चड्ढी-बनियान के घूमने दीजिए। क्योंकि, जब नंगों का समाज बढ़ गया है तो, ये किसी कपड़े वाले को कैसे जीने देंगे। लेकिन, जब सब नंगे होंगे तब शायद वितृष्णा होगी। और, समाज में कपड़े की अहमियत पता चलेगी। चलिए सब नंगे होते हैं। घिन कब तक आती है ये देखना है। घिन आएगी तो, उल्टी भी करेंगे। उस पर मक्खियां भी बैंठेंगी। और, जब इस कूड़े से-गंदगी से निकलने वाली बदबू से सांस लेना मुश्किल हो जाएगा। तब दूसरे का गंदगी करना शायद बुरा लगेगा और, कुछ लोग सफाई भी शुरू करेंगे। तब तक के लिए नंगा समाज की जय—नंगा संस्कार की जय .. जय हो .. हर जगह नंगामय हो ..

Tuesday, July 22, 2008

आडवाणी ने बड़ा मौका खो दिया

मनमोहन की सरकार बचेगी या जाएगी ये, आज तय हो जाएगा। बीजेपी के बागी सांसद मनमोहन की डूबती नैया पार कराते दिख रहे हैं। खैर, सरकार बचे या जाए कोई बहुत बड़ा फरक इससे नहीं पड़ने वाला। लेकिन, कल विश्वासमत के विरोध की शुरुआत करने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने एक बहुत बड़ा मौका गंवा दिया लगता है।

दरअसल, PM IN WAITING के खिताब से खुद को नवाजने वाले लालकृष्ण आडवाणी को विश्वासमत पर बहस के दौरान हर कोई सुनना चाहता था। उनके प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने वाले भी उनके आजीवन PM IN WAITING रह जाने की इच्छा रखने वाले भी। सब ये देखना चाहते थे कि अटल बिहारी वाजपेयी के वारिस लालकृष्ण आडवाणी वाजपेयी के कहीं आसपास तक पहुंच पाते हैं या नहीं। लेकिन, ज्यादातर लोगों को मेरी तरह निराशा ही हाथ लगी। मौका ये था कि इस मौके का इस्तेमाल चुनावी रैली की तरह करते।

विश्वासमत के खिलाफ बोलने खड़े हुए आडवाणी से हर किसी को उम्मीद यही थी कि वो, परमाणु करार पर बीजेपी का पूरा पक्ष रखने के साथ ही महंगाई और दूसरे मुद्दों पर सरकार के खिलाफ चुनावी बिगुल की शुरुआत करेंगे। आडवाणी के पास बड़ा मौका था कि वो, संसद में मिले मौके का सदुपयोग करते और वाजपेयी की कमी को पूरा करते। लेकिन, आडवाणी बड़ा मौका चूक गए। पता नहीं कौन से रणनीतिकार-सलाहकार आजकल आडवाणी के चारों तरफ हैं जिन्होंने इतने अहम मौके पर आडवाणी को अंग्रेजी ज्ञान पेलने की सलाह दे डाली।

अब क्या आडवाणी इंटरनेशनल मीडिया और अमेरिका भर को ही अपनी बात सलीके से समझाना चाहते थे। क्योंकि, देश की करोड़ो जनता जो आज कल के प्रधानमंत्री को देखने बैठी थी। उसे तो आडवाणी छू भी नहीं पाए होंगे। हां, इसमें मायावती ने बाजी मार ली। मैंने बहुत पहले लिखा था कि किस तरह मायावती, फिर से बीजेपी के नजदीक आती दिख रही हैं। और, उत्तर प्रदेश के समीकरणों के लिहाज से आडवाणी और मायावती में एक अनकहा समझौता भी हो गया है। लेकिन, अब मायावती का प्रधानमंत्री बनने का दावा और मजबूत होता दिख रहा है। और, अब अगर लोकसबा चुनाव के बाद समझौते की नौबत आई तो, साफ ज्यादा सांसद संख्या के साथ आई मायावती और तीसरे मोरचे का साथ आडवाणी की बीजेपी-एनडीए को मायावती का साथ देने के लिए मजबूर कर देगा।

इधर, लोकसभा में आडवाणी ने बोलना शुरू किया। कुछ ही देर बाद संसद में आडवाणी के बोलने के साथ-साथ मायावती की प्रेस कांफ्रेंस की तस्वीर भी नजर आने लगी। और, मायावती की हैसियत की झलक ये थी कि ज्यादातर हिंदी चैनलों ने मायावती का ऑडियो बढ़ा दिया और आडवाणी सिर्फ दिखते रह गए। उनका कहा किसी को सुनाई नहीं दे रहा था। वजह ये कि वैसे भी वो अंग्रेजी में बोल रहे थे जो, हिंदी दर्शकों कम ही लुभा रहा था। इसी फॉर्मूले पर अंग्रेजी चैनलों को आडवाणी की ही बोली अच्छी लग रही थी। लेकिन, वोट अंग्रेजी चैनल का दर्शक शायद ही देता हो। इस मामले में बंगाल के सीपीएम सांसद मोहम्मद सलीम भी शानदार हिंदी भाषण देकर महफिल लूटने में कामयाब रहे।

Sunday, July 20, 2008

ये है महंगाई संकट की असली वजह

क्या सचमुच खाद्यान्न की कमी से महंगाई बढ़ रही है। इस सवाल का जवाब मुझे तो नही में दिख रहा है। और, ये नहीं का जवाब पक्का हुआ है आज पिताजी से इलाहाबाद बात करने के बाद। पिताजी का फोन आया तो, उन्होंने बताया कि आज गांव गए थे। लेकिन, सारी फसल बरबाद हो गई। मूंग बुआई थी और कुछ हिस्से में पिपरमेंट। लेकिन, ज्यादा बारिश होने से दोनों फसलें सड़ गईं। पिताजी ने कहा सिर्फ अपने ही खेतों में नहीं ज्यादातर लोगों के खेत में पानी लगने से फसल सड़ गई है।

प्रतापगढ़ जिले में हमारा गांव है। वहां हमारी फसल सड़ गई है, खेत में पानी भर जाने से। और, मैं मुंबई में हूं। जहां 4-5 दिन पहले ही मैंने ये खबर चलाई थी कि महाराष्ट्र सरकार राज्य के 35 जिलों में से 15 को सूखाग्रस्त घोषित कर रही है। साथ ही ये भी महाराष्ट्र में सूखे की वजह से मध्य प्रदेश की मंडियों में दाल के भाव चढ़ गए हैं। क्योंकि, सबसे ज्यादा दाल देश में महाराष्ट्र से ही जाती है।

ये देखने में सीधे-सीधे बारिश की वजह से पैदा समस्या दिख रही है। जो, आम है तो, फिर मैं इसे दुबारा क्यों लिख रहा हूं। दरअसल दुबारा मैं इसे इसलिए चिन्हित कर रहा हूं कि मॉनसून तो, फसल के सबसे जरूरी है ही। लेकिन, एक दूसरा पहलू है जो, मॉनसून से ज्यादा मैनेजमेंट सही न होने यानी मिसमैनेजमेंट की बात है। कुछ महीने पहले मूंग और पिपरमेंट जैसा ही हाल हमारी आलू का भी हुआ था। लेकिन, आलू न तो खेतों में पानी भरने से सड़ी थी। न, आलू की फसल सूखे की वजह से खराब हुई थी। हमारी आलू की फसल तो अच्छी हुई थी। लेकिन, हमारे जैसे ही सारे गांव और जिले के लोगों की आलू की फसल अच्छी हुई थी। हालात ऐसे बन गए कि आलू अठन्नी किलो बिकने लगा। सड़कों पर फेंका रहा-खेतों में सड़ाना पड़ गया। काफी आलू सड़ने के बाद हमें बड़े जुगाड़ से थोड़ा आलू कोल्ड स्टोरेज में रखने की जगह मिल गई।

इन हालातों का मैं जिक्र कर रहा हूं सिर्फ ये साबित करने के लिए देश में कितना मिसमैनेजमेंट है। महंगाई 5 जुलाई को खत्म हफ्ते में 11.91 प्रतिशत हो गई। अब कई बड़े अर्थशास्त्र के जानकार कह रहे हैं कि ये महंगाई दर 15 प्रतिशत तक भी जा सकती है। ज्यादातर लोगों को पहली नजर में महंगाई डिमांड-सप्लाई में फरक की वजह से दिखती है। जबकि, ये महंगाई डिमांड-सप्लाई में फरक की वजह से बिल्कुल नहीं है।

रिजर्व बैंक गवर्नर वाई वी रेड्डी भी दिल्ली दरबार में हाजिरी लेने के बाद जब बोले। तो, उन्होंने कहाकि, डिमांड भले ही बहुत बड़ी समस्या न हो। सप्लाई मैनेजमेंट समस्या का हल जरूर हो सकता है।

देश में कम से कम जरूरी अनाज (गेहूं-चावल-दालें) लोगों की जरूरत से काफी ज्यादा होता है। वो, भी तब जब मेरे गांव के खेत में ज्यादा पानी भर जाने से मूंग और पिपरमेंट की खेती सड़ जाती है। महाराष्ट्र में सूखे की वजह से दाल के भाव चढ़ जाते हैं। लेकिन, इसके बावजूद मुझे तो, कहीं से ऐसी रिपोर्ट नहीं दिखी कि लोग मंडी में गए और उन्हें गेहूं-चावल-दाल या फिर सब्जियां-फल नहीं मिले।

हां, महंगाई कैसे आती है वो, भी देखिए। मेरा परिवार इलाहाबाद में रहता है जो, गांव से आई या फिर दारागंज मंडी से सब्जी-दाल-चावल-गेहूं इस्तेमाल करता है। गांव से आई तो, उन्हें सस्ता मिलता है। वहां सब कुछ ज्यादा है। जो, खेती कर रहे हैं उनके पास बेचने के लिए मंडी नहीं है। उनके पास रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज नहीं है। नतीजतन वो सस्ते में बेच रहे हैं। कम पैसे पा रहे हैं।लेकिन, जब ज्यादा होने की वजह से अनाज आलू सड़ा तो, बचाकर रखने वाले जमाखोरों के लिए आगे पौ बारह हो गई।

वहीं मैं मुंबई में हूं। बिग बाजार से सब्जी और अनाज खरीदता हूं। पैकेज्ड अनाज और सब्जियां कई गुना ज्यादा भाव पर खरीद रहा हूं। मेरी जेब से पैसा गया। लेकिन, वो पैसा किसान के पास नहीं रिटेलर की जेब में पहुंचा। तो, हुआ ये कि मैं मुंबई ज्यादा पैसे कमा रहा हूं तो, मुझे बहुत ज्यादा पैसे उसी आलू के लिए देने पड़ रहे हैं जो, मेरे खेत में सड़ गई। यानी जिनके पास पैसे कम हैं उन्हें अपने सामान के पैसे कम मिल रहे हैं। और, जिनके पास पैसे ज्यादा हैं वो, बचा नहीं पा रहे हैं। उनसे उन्हीं सामान के लिए ज्यादा पैसा लिए जा रहे हैं जो, सस्ते में खरीदे गए हैं।

अफलातूनजी अभी जब मुंबई आए थे। तो, उनसे मिलने के लिए मैं भी गया था। वहां महंगाई पर हुई बहस में अभय तिवारी जी कह रहे थे कि डिमांड बहुत ज्यादा है जबकि, सप्लाई कम होती जा रही है। इसलिए महंगाई बढ़ रही है। उस दिन मैंने कहा था कि जरूरी चीजों की सप्लाई की बिल्कुल कमी नहीं है। सिर्फ मिसमैनेजमेंट की वजह से कहीं चीजों की कमी है तो, कहीं वो सड़ाना पड़ रहा है। और, महंगाई की असली जड़ भी मुझे यही लगती है।

संगत से गुण होत हैं संगत से गुण जात ...

ये कहावत बहुत पुरानी है। लेकिन, मुझे आज ये याद आ गई जब मैं ज़ी टीवी पर सारेगामापा देख रहा था। संगीत की महागुरू आशाताई के साथ संगीत के चार धुरंधर आदेश, हिमेश, प्रीतम और शंकर महादेवन बैठे थे। एक सिंगर ने गाना गाया उसमें सुरेश वाडेकर की झलक मिली। इस पर चारों धुरंधरों में थोड़ी बहस हुई।

बहस खत्म किया संगीत की महागुरू आशाताई ने ये कहकर कि – आज बॉलीवुड में ऐसे ही सिंगर की जरूरत है जो, वर्सेटाइल हो। यानी एक फिल्म के अलग-अलग गानों की जरूरत एक ही सिंगर से पूरी होती है – फिर आशाजी ने थोड़ा pause लिया और कहा ऐसा ही वर्सेटाइल सिंगर जैसे आशा भोसले।

आशाजी के गाने का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। मैं क्या कई पीढ़ियां होंगी। और, इसमें भी कोई शक नहीं कि आशाजी जैसे वर्सेटाइल सिंगर इंडस्ट्री में कम ही हैं। लेकिन, क्या आशाजी का खुद अपने मुंह से खुद की ही तारीफ करना ठीक है। आशाजी ऐसी ही थीं, बड़ा सिंगर होने की वजह से ये चरित्र दिखता कम था या फिर ये संगत का असर है। क्योंकि, वो उसी हिमेश रेशमिया के साथ मंच पर थीं जिसे कभी उन्होंने थप्पड़ मारने की बात कही थी। आप सबकी रा जानना चाहूंगा।

अजीत वडनेरकर जी से निवेदन है कि वो ‘संगत’ के शब्दों का सफर बताएं तो, अच्छा लगेगा।

Monday, July 14, 2008

भारतीय राजनीतिक रंगमंच का सबसे शानदार ड्रामा देखिए

करीब बीस साल बीते हैं और राजनीतिक समय चक्र ने पूरा एक चक्कर लगा लिया है। 1989 में वीपी सिंह की सरकार को दक्षिणपंथी भाजपा के साथ वामपंथी लेफ्ट पार्टियों का भी समर्थन था। ये दोनों मिलकर कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए जनता दल को समर्थन दे रहे थे। और, उस समय दोनों का ये कहना था कि कांग्रेस देश की सबसे बड़ी दुश्मन है। उस समय मुद्दा भ्रष्टाचार था। आज भी स्थितियां करीब-करीब वैसी ही हैं। उस समय एक सरकार बनाने के लिए साथ थे। आज एक सरकार गिराने के लिए साथ हैं। बस मुद्दा बदल गया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परमाणु करार पर प्रकाश करात की तारीफ कर रहा है। हार्डकोर संघी लाल कृष्ण आडवाणी और हार्डकोर मार्क्सिस्ट प्रकाश करात एक साथ खड़े हैं। वो, कांग्रेस को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बता रहे हैं। एक-दूसरे को गाली दे रहे हैं लेकिन, कह रहे हैं कि संसद में यूपीए सरकार को गिराने के लिए साथ वोट देंगे। भाजपा तो पहले भी हाथी पर सवार हो चुकी है लेकिन, वामपंथी विचारधारा के अगुवा पहली बार किसी दलितवादी नेता के साथ हाथ मिला रहे हैं। वैसे इसके पहले वो, जातिवाद के सबसे पोषक नेताओं मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के ही हितों की रक्षा करते रहे हैं। लेकिन, पहली बार पिछड़ी जाति के नेताओं को छोड़कर करात दलित नेता मायावती के दरवाजे पहुंचे।

अब अमर सिंह भाजपा-लेफ्ट-बीएसपी का गठजोड़ बेमेल है और, ये चल नहीं सकता। वो, एकदम सही कह रहे हैं। ये गठजोड़ कांग्रेस की सरकार गिराने के लिए साथ भले हो जाए। लेकिन, कांग्रेस के खिलाफ आडवाणी को प्रधानमंत्री को बनाने के लिए नहीं चल पाएगा। गठजोड़ तो 1999 जैसा ही होगा। चुनाव तक कांग्रेस को लेफ्ट और भाजपा भले ही एक सुर में गाली दें। लेकिन, चुनाव के बाद लेफ्ट, कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए के साथ ही जाएंगे, कैसे साथ आएंगे इसका बहाना अभी से तय हो चुका है। हां, बहनजी यूपी में लोकसभा चुनाव तक आपने भाजपाई भाइयों को भले ही जमकर गरियाएं। चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए बहनापा निभाएंगी और आडवाणी के साथ ही जाएंगी। ये मैंने काफी पहले बता दिया था, इसकी भी शर्त तय है।

वैसे, अमर सिंह के साथ सारे कांग्रेसियों को भी भरोसा है कि आसानी से बहुमत हासिल हो जाएगा। खैर, बहुमत हासिल हो या न हो। 6-8 महीने की सरकार चलाकर अमर सिंह को दलाली मजबूत करने के अलावा किसी को क्या मिल पाएगा। दरअसल, असली खेल चुनावी बिसात का है। अमर सिंह ने साफ कहाकि वो, कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए तैयार हैं। मैंने पहले ही बताया था कि अगर सपा-कांग्रेस साथ आएं तो, कैसे बेहतर कर सकते हैं।

अमर सिंह कह रहे हैं कि गठजोड़ नहीं भी हुआ तो, उनकी पार्टी का निशाना चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नहीं भाजपा होगी। साफ है जहां सपा को उम्मीद है उस, उत्तर प्रदेश में फायदा कांग्रेस को गाली देने से तो नहीं होने वाला। लेकिन, मायावती शायद ही चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस को गाली देना चाहेंगी और, समाजवादी पार्टी को तो, बिल्कुल भी नहीं। वो, गाली देंगी भी तो, कांग्रेस-सपा को एंटी मुस्लिम (उनकी और लेफ्ट की परिभाषा के मुताबिक) परमाणु करार के मुद्दे पर ही। वरना, बहनजी के निशाने पर पुराने मुंहबोले भाइयों की पार्टी भाजपा ही रहेगी। जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो। और, कुछ ऐसा माहौल बने जैसा एक जमाने में उत्तर प्रदेश में भाजपा-सपा का बनता था। 2009 लोकसभा चुनाव में मायावती सपा के सांसदों की संख्या खुद झटकना चाहेंगी तो, बसपा सांसदों की संख्या के आसपास की उम्मीद भाजपा कर रही है।

अब सबने लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति तो तैयार कर ली है। जिसमें जंग के बाद के कई पक्के साथियों को भी जंग (लोकसभा चुनाव पढ़िए) तक विरोधी खेमे की तरह दिखना है। बस अभी तो, ये अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है देखते रहिए ...

Sunday, July 13, 2008

अमर सिंह ये न करें तो, क्या करें आप ही बताइए

शनिवार को जब मायावती प्रेस कांफ्रेंस कर रहीं थीं तो, ऑफिस में मेरे एक सहयोगी ने कहा- सर, ये मायावती जैसे नेता इस तरह के क्यों हैं। बोलने का तरीका ठीक नहीं है फिर भी राजनीति में इतने ऊपर कैसे हैं। ये सवाल सिर्फ मेरे सहयोगी का ही नहीं है। ज्यादातर हम जैसे लोगों (मिडिल क्लास) की चर्चा में ये बार-बार आता है कि बद्तमीज-गालियों की भाषा में मायावती बात क्यों करती है और करती है तो, फिर वो देश की राजनीति में इतनी अहम क्यों है।

मायावती की प्रेस कॉन्फ्रेंस कल थी तो, अमर सिंह की आज थी। थोड़ा अलग मायावती से लेकिन, अमर सिंह भी वैसे ही हैं जैसी मायावती है। अमर सिंह भी विरोधियों को गंदे-गंदे विश्लेषणों से नवाजते हैं। राजनीति के सॉफिस्टिकेटेड लोग कहते हैं कि अमर सिंह दलाल किस्म का नेता है। उसकी कोई राजनीतिक बिसात नहीं है। सिर्फ इसकी-उसकी दलाली (मध्यस्थता) करके अपनी हैसियत बनाता रहता है। अमर सिंह को कहा जाता है कि वो, अनिल अंबानी और दूसरे कॉरपोरेट्स के लिए सत्ता से मदद दिलाकर अपनी जेब भरते हैं तो, मायावती पर आरोप ये कि वो दलितों के हित के बहाने करोड़ो रुपए हड़प चुकी हैं।

मायावती के जन्मदिन पर 80 लाख का हार मीडिया के साथ सबकी आलोचना की वजह बनता है तो, अमर सिंह की शाही जीवन शैली पर सब सवाल उठा देते हैं। आलोचना करने वाले कहते हैं कि अमर सिंह ने समाजवादी मुलायम को बरबाद कर दिया। मायावती के लिए यही बात कि कांशीराम के नाम पर मायावती दलितों के बहुमत से सत्ता सुख लूट रही हैं। दोनों एक दूसरे को भी जमकर गरियाते रहते हैं। लेकिन, आलोचना को शह देने वाला बड़ा वर्ग खुद बरसों से यही सब करता आ रहा है। उस पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो।

राजनीति के अमर सिंह और मायावती जैसी ही हैं फिल्मी दुनिया में राखी सावंत। बर्थडे पर मीका के जबरिया चुंबन पर हंगामा किया और उसके बाद तो, राखी किसी को बख्शती नहीं। ये राखी का ही साहस है कि एक टीवी चैनल ने जब उनसे मजाक किया कि उन्हें फिल्म से डायरेक्टर ने निकाल दिया है क्योंकि, फिल्म में उनका सीन फिट नहीं बैठ रहा है। तो, ये राखी ही थीं कि उन्होंने तड़ाक से बोल दिया कि शाहरुख सुपरस्टार है इसलिए उसे निकालने की डायरेक्टर में हिम्मत तो है नहीं। बलि का बकरा तो, उन्हें ही बनाया जा सकता है।

राखी ब्वॉयफ्रेंड से नाराज होती हैं तो, मीडिया के सामने तमाचे जड़ देती हैं। राखी टीवी चैनल पर सारे देश की लड़कियों को चिल्लाकर धमकी देती हैं कि किसी ने अगर अभिषेक की तरफ आंख उठाकर देखा तो, बहुत बुरा होगा। राखी कहती हैं कि वो, करीना नहीं है कि आज इसके साथ तो, कल उसके साथ।

अब चूंकि मैं भी मिडिल क्लास हिंदुस्तानी हूं इसलिए मुझे भी ये तीनों नापसंद हैं। तीनों से समाज खराब हो रहा है इस राय से मैं भी सहमत हो जाता हूं। लेकिन, क्या ये राय सही है कि राखी सावंत, मायावती और अमर सिंह जैसे लोग ही समाज खराब कर रहे हैं। कुछ बातें जो, मेरे दिमाग में आ रही हैं

मायावती ने आज तक दलित हितों के साथ समझौता नहीं किया।
मायावती भी वही कर रही हैं जो, देश की सारी राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए करती हैं।

मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं।
उनके ऊपर उतने ही आरोप हैं जितने दूसरी पार्टियों के अलग-अलग नेताओं के ऊपर।

अमर सिंह पर दलाली का आरोप लगता है। राजनीतिक और कंपनियों के हितों की दलाली का।
लेकिन, अमर सिंह जैसी ही राजनीतिक और कंपनियों की दलाली कांग्रेस-बीजेपी और लेफ्ट पार्टियों के भी नेता करते हैं- बस ये है कि इसके लिए काम करने वाला आदमी वहां आलाकमान के नीचे छिपछिपकर काम करता है। कांग्रेस में प्रणव मुखर्जी, भाजपा में भैरो सिंह शेखावत और दिवंगत प्रमोद महाजन, लेफ्ट पार्टी में हरकिशन सिंह सुरजीत और सीताराम येचुरी क्या यही रोल अपनी पार्टी के लिए नहीं करते।

किसी भी राजनीतिक नेता से ज्यादा अमर सिंह निजी जिंदगी में अपने मित्रों का साथ देते हैं।
भले ही इसके लिए ये हल्ला किया जाए कि सब राजनीतिक-आर्थिक फायदे के लिए हैं।

राखी सावंत के साथ आजतक अभिषेक के अलावा दूसरे लड़के का नाम नहीं सुनाई दिया।
पब्लिसिटी के लिए बॉलीवुड के बड़े-बड़े घराने की लड़कियां राखी सावंत से ज्यादा नंगई कर रही हैं। और, एक से बढ़कर एक अनोखे पब्लिसिटी स्टंट भी होते हैं।


फिर, इन्हीं लोगों को इतनी गाली देकर ऐसा बनाने की कोशिश क्यों होती है कि ऐसे लोग ही सब खराब कर रहे हैं। और, सारे लोग बहुत ही अच्छा कर रहे थे। दरअसल, इसका जवाब एक दूसरे सवाल में छिपा हुआ है। CNN IBN चैनल पर भारत के पहले फील्ड मार्शल और 1971 की बांग्लादेश लड़ाई जांबाज हीरो सैम मानेकशॉ का पुराना इंटरव्यू चल रहा था। सैम उसके एक दिन पहले ही पूरी जिंदगी जीकर धरती छोड़ स्वर्ग में जा चुके थे (मुझे पूरा भरोसा है सैम स्वर्ग में ही गए होंगे)।

करन थापर ने पहले बीबीसी के लिए सैम का इंटरव्यू किया था। और, वही इंटरव्यू चल रहा था। करन थापर हमेशा की तरह शानदार इंटरव्यू कर रहे थे। अच्छी दोस्ती की वजह से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को स्वीटी कहकर बुलाने वाले सैम का इंटरव्यू कर रहे करन कहीं भी कमजोर नहीं दिखे। जब मैंने विकीपीडिया पर करन की पारिवारिक पृष्ठभूमि जानी तो, दिखा कि करन के पिता सेना में जनरल थे। और, करन के पास दुनिया के कई विश्वविद्यालयों की डिग्री है।

अब, क्या करन किसी सामान्य पृष्ठभूमि से आए होते तो, क्या सैम का इंटरव्यू कर पाते और कर पाते तो, क्या इसी दम के साथ कर पाते। देश के सबसे काबिल पत्रकारों में से एक राजदीप सरदेसाई के पिताजी मशहूर क्रिकेटर दिलीप सरदेसाई थे। और, बरखा दत्त की मां खुद हिंदुस्तान टाइम्स की मशहूर पत्रकार थीं। भाषा, मजबूत पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी ताकत है जो, एक बड़ा अंतर बना देती है। और, इसका फायदा इन्हें जमकर मिला। पत्रकारिता का मैं सिर्फ उदाहरण दे रहा हूं। राजनीति में तो ऐसे नाम गिनाना और भी आसान है लेकिन, आप किसी भी क्षेत्र के दस सबसे मशहूर लोगों का नाम लेकर देखिए। मेरी बात सही निकलेगी। दरअसल मैं ये नहीं कह रहा हूं कि इन तीनों की काबिलियत में कोई कमी है। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये लोग उस वर्ग से आते हैं जहां शुरुआत में ही इन्हें एक ऐसा प्लेटफॉर्म मिल जाता है जिसके बाद बस थोड़ा सा काबिलियत संजोए चलने की जरूरत होती है।

दरअसल यही ये वजह है जिसकी वजह से अमर सिंह, मायावती और राखी सावंत जैसे लोगों को उस पियर ग्रुप (एक ऐसा वर्ग जो, समाज के ऊपरी वर्ग में शामिल है और किसी भी कीमत पर नीचे के वर्ग को ऊपर आने नहीं देना चाहता।) में शामिल होने के लिए ऐसा करना ही पड़ता है। और, सच्चाई यही है कि बात ऐसे ही बन रही है।

मायावती की इसी बद्तमीज छवि की हैसियत है कि विचारधारा के ही आधार पर लोगों से बातचीत, दाना-पानी रखने वाले सीपीएम महासचिव प्रकाश करात मायावती के दरवाजे पहुंच गए। भाजपा तो, 3-3 बार माया मैडम के साथ खड़ी रही। ज्यादा समय नहीं बीता है सोनिया गांधी, मायावती को गुलदस्ता देते हुए फोटो खिंचा रहीं थीं।

जो, अंबानी परिवार बड़े-बड़ों को भाव नहीं देता। उस अंबानी परिवार का अनिल अंबानी, अमर सिंह का दोस्त बनने में फक्र महसूस करता है। सदी के महानायक अमर सिंह की दोस्ती के लिए अपने पुराने दोस्त राजीव गांधी कि विधवा सोनिया के दुश्मन बन जाते हैं।

राखी सावंत के शो पर आमिर खान आकर इंटरव्यू देते हैं। न्यूज चैनल राखी सावंत पर घंटे-घंटे भर के स्पेशल शो करते हैं। मीका-राखी किस प्रकरण के बाद राजदीप सरदेसाई ने भी आधे घंटे का स्पेशल किया भले ही उसके बाद अंत में ये कहकर खत्म किया कि उन्हें अफसोस है कि राखी सावंत पर उन्हें आधे घंटे का स्पेशल करना पड़ रहा है।


तो, अगली बार जब आप राखी सावंत, अमर सिंह और मायावती को गाली देने जा रहे हों तो, सोचिएगा जरूर कौन सा ऐसा वर्ग है जो, ये चाहता है कि मिडिल क्लास सिर्फ उन्हीं की तारीफ करता रहे और उनके वर्ग को नीचे के वर्ग से चुनौती न मिले।

Saturday, July 12, 2008

बेचने के चक्कर में हर घर में डर तो मत भरो

टीवी पर सब बिकता है। आंसू-मारधाड़-नौटंकी। हत्या-बलात्कार-रेव पार्टी। लेकिन, इस बेचने के चक्कर में अब टीवी वालों (खबरिया चैनल पढ़िए) का ईमान तक बिक गया है। पता नहीं ये सब दिखाने-चलाने के बाद वो न्यूजरूम में हंसते हैं या रोते हैं। ऐसा तो है नहीं कि उनमें संवेदनाएं नहीं हैं। सब मजबूरी में टीआरपी की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं। लेकिन, इतना सब करने पर भी टीआरपी नहीं मिल पा रही है। मैं खुद एक टीवी चैनल में हूं इत्तफाकन खुशनसीब हूं कि इस ईमान बेचने के धंधे से काफी बचा हुआ हूं। बिजनेस चैनल में होने से बच गया हूं। बल्कि सच्चाई तो ये है कि बच क्या गया हूं, जनरल न्यूज चैनल में जाना चाहता हूं लेकिन, डर लगने लगा है। जाके करूंगा क्या।

अब आरुषि को पता नहीं किसने मारा। सीबीआई भले ही तीन नौकरों को हत्यारा बता रही हो लेकिन, सच्चाई शायद ही ये हो। लेकिन, इस मामले पर न्यूज चैनलों ने जो हरकत की वो, आरुषि की हत्या से भी बहुत शर्मनाक है। एक प्यारी सी खूबसूरत बच्ची जो, किसी के भी घर की मासूम बच्ची नजर आती है। आरुषि की मौत की खबर आने के साथ ही न्यूज चैनलों पर जितनी तरह की फैंटेसीज हो सकती हैं वो, दिखानी शुरू कर दी गईं। किसी के पास कोई जानकारी नहीं थी। अभी भी नहीं है। लेकिन, जिस चैनल के रिपोर्टर को जिस तरह से आरुषि के मर्डर का प्लॉट समझ में आता। बस उसी का रिक्रिएशन या फिर आरुषि की खून टपकती फोटी लगाकर स्पेशल इफेक्ट्स के साथ अपनी कहानी दर्शकों के दिमाग में ठूंसने की कोशिश बेहयाई की हद तक करते रहे।

हाल ये हो गया कि घरों में कार्टून देखना पसंद करने वाले छोटे बच्चों से लेकर सुबह उठकर आस्था, संस्कार चैनल देखने वाले बुजुर्ग तक हर रोज चैनल पर टकटकी लगाए आरुषि का क्या हुआ जानना चाहते। आरुषि की हत्या हो गई। लेकिन, आरुषि को टीवी वालों ने सबके दिमाग में-मन में जिंदा कर दिया। और, आरुषि की हत्या के साथ ही लोगों के दिमाग में-मन में पश्चिमी दुनिया से आई सारी गंदगी भी दिमाग में बसा दी। आरुषि के मां-बाप के साथ ही उनके सबसे नजदीकी परिवार का भी चित्र ऐसा खींच दिया कि वो, मुंबई-दिल्ली के हाई प्रोफाइल सेक्स रैकेट का हिस्सा से लगने लगे। और, मीडिया वालों की फिल्मी फंतासी की स्क्रिप्ट जहां भी कमजोर होती, सीबीआई और नोएडा पुलिस पूरे मिर्च मसाले के साथ तैयार रहते ही थे।

अब सीबीआई ने पूरे पचास दिनों के बाद राजेश तलवार को निर्दोष ठहराकर तलवार के कंपाउंडर, तलवार के दोस्त दुर्रानी के नौकर और तलवार के बगल के घर के नौकर, तीनों को हत्या का आरोपी बना दिया है। न्यूज चैनल फिर से लग गए हैं। अब नौकरों के परिवार वाले स्टूडियो में हैं। चैनलों के सबसे सीनियर रिपोर्टर्स के साथ राजेश तलवार के भाई दिनेश तलवार के साथ इंटरव्यू करके ला रहे थे। कल तक पुलिस पर तलवार को बचाने का आरोप लगाने वाला एंकर चीख-चीखकर पूछ रहे हैं- कौन लौटाएगा डॉक्टर तलवार के वो 50 दिन। क्या डॉक्टर तलवार को जिल्लत से छुटकारा मिल सकेगा। कल तक खून टपकती आरुषि की फोटो चैनलों पर दिख रही थी। अब पापा की पीड़ा के साथ आरुषि की फोटो घूम रही है।

मैं विनती करता हूं। मैं खुद मीडिया में हूं। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि देश के लोगों के दिमाग में इतनी फंतासियां मत भरो कि हर रिश्ते में उन्हें पाप दिखने लगे। हर रिश्ते में शक घुस जाए। लोगों को घर भी महानगरों की रात में तेज रफ्तार से कार चलाते-गली के किनारे आंखें चढ़ाए बैठे नशेड़ियों के बीच की जगह लगने लगे। मैं ईमानदारी से कह रहा हूं मुझमें आरुषि की असामयिक-दर्दनाक-समाज पर लगे काले धब्बे वाली मौत पर कुछ भी लिखने का साहस नहीं था। लेकिन, ऑफिस से लौटने के बाद सभी चैनलों पर फिर से जनाजा बिकते देखा तो, रहा नहीं गया। माफ कीजिएगा ...

Friday, July 11, 2008

मादाम खुश हुईं

कल देर रात सीपीआई नेता एबी बर्धन ने कहाकि अगर कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मनमोहन सिंह को पेश न करे तो, वो फिर से कांग्रेस के साथ गठजोड़ बना सकते हैं। ये बयान तब आया है जब अभी ताजा-ताजा ही लेफ्ट की चारों पार्टियों के नेता- जिसमें एबी बर्धन भी शामिल थे- राष्ट्रपति को जाकर कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप चुके हैं। और,कल भी दिन भर प्रकाश करात चीखते रहे कि कांग्रेस जल्दी से जल्दी सदन में बहुमत साबित करे।

फिर ये दोमुंही बात क्यों। अभी सरकार गिरी भी नहीं। चुनाव हुए भी नहीं। और, अगली सरकार बनाने के लिए उसी पार्टी को समर्थन देने की बात लेफ्ट नेता कह रहे हैं जिसे वो समय से पहले गिरा देना चाहते हैं। वैसे लेफ्ट नेता की इस बात से सबसे ज्यादा खुश मादाम हुईं होंगी। ये बात मैंने परसों ही बता दी थी। आप भी पढ़िए मादाम क्यों खुश हैं।

Wednesday, July 09, 2008

आखिर क्यों मनमोहन के सर ठीकरा फूटा

क्या मनमोहन सिंह कांग्रेस में इस स्थिति में हैं कि उनके आत्मसम्मान को बचाने के लिए सरकार को दांव पर लगाया जाता। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और दूसरे कांग्रेसी ये जानने के बावजूद की अभी के हालात में चुनाव जीतना बहुत मुश्किल होगा और चुनाव होना अभी बचा भी लें तो, इसके लिए सरकार पर समर्थन की जो शर्तें समाजवादी पार्टी जैसे दल लादेंगे वो, और भी बड़ी कीमत होगी और क्या उसकी भरपाई हो पाएगी।

आखिर हो भी तो यही रहा है सरकार के समर्थन की कीमत कभी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार चुका रहे हैं तो, कभी पीएमओ से लेकर दूसरे मंत्रालयों के बड़े-बड़े अफसर। अमर सिंह का सूखा चेहरा फिर खिल गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव को परमाणु समझौते पर सफाई देते हैं। इतने पर ही बात नहीं बनी तो, अमर सिंह के दुश्मन कॉरपोरेट घरानों (अनिल अंबानी के विरोधी भाई मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज पढ़िए।) के पर कतरने पर भी सहमति बनने लगी है। दिग्गज वित्त मंत्री पी चिदंबरम और पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा हटें न हटें उनके विभाग के अफसर अमर सिंह के सामने दरबारी की मुद्रा में खड़े हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में विशेष सचिव टीकेए नायर अमर सिंह की अगुवाई में खडे हैं। क्या इतना सिर्फ मनमोहन के उस आत्मसम्मान को बचाने के लिए सोनिया कर सकती हैं जो, मनमोहन ने बुश के साथ परमाणु समझौते पर आगे बढ़कर वादा किया था।

मुझे तो ये लगता है कि चुनाव की तय तारीख के कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सर लेफ्ट से गठजोड़ टूटने का ठीकरा फोड़ने के पीछे कुछ और ही वजह है। दरअसल प्रधानमंत्री पद त्यागने के बाद कांग्रेस के सबसे कमजोर नेता को जिस तरह से देश का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बनाकर गद्दी पर सोनिया गांधी ने बैठाया। उसके बाद ये तो संभव नहीं था कि वो फिर से प्रधानमंत्री की गद्दी के लिए खुद को पेश करतीं। इससे फिर से संघ परिवार और बीजेपी को विदेशी मूल का मुद्दा मिलने का भी खतरा था।

यही वजह है कि येन केन प्रकारेण सोनिया ने राहुल गांधी को इस पद के लिए सबसे योग्य प्रत्याशी बनाने की हरसंभव कोशिश की। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (जिसको हमारे इलाहाबाद में बड़की कांग्रेस कहते हैं)में राहुल गांधी को महासचिव बना दिया गया। साथ में राहुल की उम्र के कई खानदानी कांग्रेसी विरासत वाले नेता सचिव बना दिए गए। फिर राहुल ने यूपी चुनाव से पहले ऊटपटांग बयान देकर बड़ा नेता बनने की कोशिश की। फिर फेल हो गए। राहुल अपने परदादा जवाहर लाल नेहरू की किताबों से सीखकर इंडिया डिस्कवर करने निकले। इस सबके बीच मीडिया के जरिए ये भी खबरें आईं कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने की वजह से राहुल ने मंत्री बनने इनकार कर दिया।

इस बीच मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह और कुछ दूसरे दरबारी कांग्रेसियों ने भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए काबिल बता दिया। इस पर जब सारे मीडिया में कई दिनों तक जमकर हल्ला हो चुका। उसके बाद राहुल गांधी ने कहाकि मनमोहन सिंह योग्य प्रधानमंत्री हैं। सोनिया ने भी कहा- राहुल बाबा सही कह रहे हैं। और, जब सब मानने लगे कि मनमोहन ही प्रधानमंत्री पद के अगले उम्मीदवार होंगे। तो, अब आखिर क्या जरूरत थी सोनिया को लेफ्ट को नाराज करने के लिए प्रधानमंत्री से हवाई जहाज से जापान जाते समय हवा-हवाई बयान दिलाने की। अब ये तो कोई नहीं मानेगा कि इतना महत्वपूर्ण बयान सोनिया से बिना पूछे मनमोहन दे डालेंगे। मुझे तो ये लगता है कि सोनिया ने दूरदृष्टि की वजह से ये बयान मनमोहन से दिलाया।

मुझे लगता है कि मनमोहन सिंह की शहादत पर राहुल की ताजपोशी की कहानी शुरू होगी। अब ये तो सोनिया को क्या सबको अच्छे से पता है कि शायद ही अगली सरकार बिना गठजोड़ के बन सकेगी। ये भी तय है कि जब ध्रुवीकरण होगा तो, लेफ्ट को कांग्रेस के ही साथ आना होगा। अब साफ है कि जब लोकसभा चुनाव के बाद लेफ्ट को कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए को समर्थन करना होगा तो, लेफ्ट के लोग भी कम से कम इतना तो करेंगे ही कि गठजोड़ टूटने की वजह बनने वाले मनमोहन की अगुवाई से मना कर दें। और, तब राहुल गांधी के नाम पर सहमति बनवाना सोनिया गांधी के लिए शायद सबसे आसान होगा। मुझे तो मनमोहन सिंह के सर ठीकरा फूटने की यही वजह लगती है। आपको क्या लगता है बताइए।

पुनर्मूषको भव

सर का ताज कब पांव की जूती बन गया पता ही नहीं चला और पांव की धूल उड़कर सर की शोभा बढ़ा रही है। राजनीति का बेजोड़ रंग इस समय भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में देखने को मिल रहा है। 2004 में जब यूपीए की सरकार बनी थी तो, लगा था कि ये सरकार तो बमुश्किल ही चल पाएगी। लेकिन, चली लड़ते-झगड़ते वामपंथी और कांग्रेसी बैठकों पर बैठकें करते। बैठक से पहले मीडिया के जरिए एक दूसरे पर दबाव बनाने की कोशिश करते और बैठक के बाद एक दूसरे के साथ गलबहियां डाले ऐसे निकलते जैसे सबकुछ मीडिया का ही किया धरा हो।

वैसे अब भी कांग्रेस और लेफ्ट के नेता टीवी चैनलों की बहस में बीच-बीच में ये बताते रहते हैं कि कम्युनल फोर्सेज को बाहर रखने का उनका संकल्प अभी भी उतना ही मजबूत है। कम्युनल फोर्सेज को बाहर रखने का यही संकल्प लिए समाजवादी पार्टी परमाणु समझौते का समर्थन कर रही है। और, मुलायम सिंह यादव कह रहे हैं कि वो, सिर्फ परमाणु समझौते का ही समर्थन नहीं कर रहे हैं। संसद में सरकार के पक्ष में वोट भी देंगे। अमर सिंह चीख-चीखकर खुद के सेक्युलर होने की दुहाई दे रहे हैं। और, आडवाणी को जॉर्ज बुश से भी खतरनाक बता रहे हैं। अमर सिंह लगे हाथ ये भी कह रहे हैं उन्हें पूरा भरोसा है कि लेफ्ट किसी भी कीमत पर सांप्रदायिक बीजेपी के साथ वोट नहीं करेगा। लालू यादव को भी यही भरोसा अपने वामपंथी मित्रों पर है।

लेफ्ट पार्टियों के नेता परमाणु समझौते को ही मुस्लिमों के खिलाफ बता रहे हैं। लेफ्ट भी बीजेपी को देश के लिए सबसे खतरनाक बता रहा है। लेकिन, वो, कह रहे हैं कि जॉर्ज बुश के साथ परमाणु समझौता ज्यादा खतरनाक है। इतना खतरनाक कि देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ वाली यूपीए सरकार को वो पांचवें साल में गिराने पर आमादा हो गए हैं। लेफ्ट के नेता अमर सिंह और लालू की सलाह पर चिढ़कर बोल रहे हैं- हमें इनसे ये सीखने की जरूरत नहीं है कि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ाई किस तरह से लड़नी है।

लेफ्ट पार्टियां दुहाई दे रही हैं कि वो, सरकार गिराना नहीं चाहते थे लेकिन, प्रधानमंत्री ने परमाणु समझौते पर IAEA में जरूर जाने की बात कहकर उन्हें उकसाया। उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई। कांग्रेस भी यही कह रही है कि ये देश के लिए जरूरी है और वो, देशहित और सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं। वैसे मायावती भी सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने की बात कह रही हैं। वो, भी परमाणु समझौते को मुस्लिमों के हितों के खिलाफ बता रही हैं। लेकिन, कमाल ये है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देकर वापस लेने के फैसले पर कोई भी धर्मनिरपेक्ष पार्टी अपनी जुबान नहीं खोल पाई। जबकि, उत्तर प्रदेश के बड़े-बड़े मौलानाओं ने भी साफ कहाकि देश भर में हज हाउस सरकारी जमीन पर ही बने हैं। और, अमरनाथ यात्रियों के लिए सरकारी जमीन देने में बुराई क्या है।

फिर जब सब सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ ही हैं और किसी भी तरह भाजपा को सत्ता से बाहर रखना चाहते हैं तो, फिर ये लड़ क्यों रहे हैं। वजह है राजनीति का वो रंग जो, इस समय भारतीय राजनीतिक पटकथा पर बुरी तरह से चढ़ा हुआ है। दरअसल सारी कहानी छिपी है 2004 में यूपीए सरकार बनने के समय समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की बेइज्जती में। सत्ता से ही जीवन रस पाने वाले अमर सिंह सरकार बनने की पार्टी में जाने का मोह छोड़ नहीं पाए जबकि, उन्हें बुलाया तक नहीं गया था। बेआबरू होकर वो, कांग्रेस के कूचे से निकले और सत्ता को बाहर से समर्थन देकर किंगमेकर के रोल में बैठे लेफ्ट के नेता उन्हें समझा रहे थे कि कोई बात नहीं भाजपा को बाहर रखने के लिए इसे सहन कर लेना चाहिए। लेकिन, कांग्रेस ने उन्हें धूल समझकर उड़ा दिया है ये बात अमर सिंह और मुलायम सिंह भूले नहीं। और, ये भी नहीं भूले कि उनकी राजनीतिक छतरी लेफ्ट पार्टियों ने चार साल से ज्यादा सत्ता से बाहर रहकर भी सत्ता सुख लिया और वो, दोनों दिल्ली से दुरिया दिए गए।

फिर, यूपी से सत्ता जाने के बाद मायावती ने उन्हें उत्तर प्रदेश से भी तड़ीपार कर दिया। मायावती और और सोनिया नजदीक दिखीं तो, सपा को और मिर्ची लग गई। लेकिन, लंबे फायदे के लिए मायावती को कांग्रेस के नजदीक जाने में नुकसान दिखा। बस, यूपी के राजनीतिक समीकरण ने कांग्रेस, सपा और राष्ट्रीय लोकदल को नजदीक ला दिया। और, लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ने अंदर ही अंदर भाजपा और बसपा को नजदीक ला दिया। इधर नंदीग्राम और बंगाल के दूसरे हिस्सों में हो रहे बवाल पर वामपंथी सरकार के तानाशाही रवैये को छिपाने के लिए ब्लैकमेलिंग पूरी हो चुकी थी।

चुनाव का समय नजदीक आ गया था। महंगाई से चौतरफ परेशान कांग्रेसी अगुवाई वाली केंद्र सरकार किसी भी तरह चुनाव से अभी बचना चाहती है। और, देश का ध्यान दूसरी तरफ मोड़ना चाहती है। पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में मात खा चुकी लेफ्ट पार्टियां फिर से देश के कमजोर आदमियों की वकालत का अपना एजेंडा लेकर लोकसभा चुनाव में जाना चाहती हैं। विचारधारा के तौर पर अमेरिका की खिलाफत भी उनका स्वाभाविक एजेंडा है। सबकुछ सही था कांग्रेस को लतियाने के लिए कांग्रेस की लतियाई सपा अब लेफ्ट को लतियाकर उन्हें उनकी हैसियत याद दिलाना चाहती है। अमर सिंह कुछ समय के लिए ही सही सत्ता की दलाली कर कॉरपोरेट जगत में अपना रसूख बना लेना चाहते हैं। और, यही वजह है कि चार साल पहले यूपीए सरकार के समर्थन के लिए राष्ट्रपति को सौंपी गई सपा की चिट्ठी आज नए सिरे से भेजी जाएगी।

राजनीति 4 साल में एक पूरा चक्र घूम चुकी है। 4 साल तक यूपीए सरकार के सर का ताज बना लेफ्ट सरकार के लिए कांटेदार जूती बन चुका है। और, 4 साल पहले की समाजवादी पार्टी की धूल भरी राह ही अब यूपीए सरकार के लिए एक्सप्रेस हाईवे बन चुकी है। भइया यही हैं भारतीय राजनीति के रंग ...

Saturday, July 05, 2008

आस्था बची रहे इसका तो ख्याल रखना ही होगा

इसे मैं आज सुबह ही लिखने वाला था। जब मेरी नजर इस खबर पर गई कि पुरी की रथयात्रा के लिए हर साल एक हजार पेड़ों को काटा जाता है। लेकिन, मैं सुबह लिख नहीं पाया। शाम तक खबर आ गई कि पुरी में रथयात्रा में भगदड़ मची और छे लोगों की जान चली गई सैकड़ो लोग घायल हो गए हैं। अब सवाल ये है कि आस्था के साथ छेड़छाड़ न होने के नाम पर क्या गलतियों के समर्थन में चुप रहना या सीना तानकर खड़े हो जाना कौन सा धार्मिक कृत्य है।

किसी के भी धर्म या आस्था के साथ छेड़छाड़ या खिलवाड़ का मैं सख्त विरोधी हूं और एक बार मैंने पहले भी लिखा था कि आस्था पर हमले के बिना भी तो बात बन सकती है। लेकिन, आज भगवान जगन्नाथ के रथ के बारे में पढ़कर मेरे मन में ये विचार आ रहा है कि आस्था या धर्म के नाम कहां तक गलतियां करने का अधिकार मिल सकता है। हर साल जगन्नाथ भगवना की रथयात्रा के लिए जो, रथ बनता है। उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा के लिए बनने वाले तीन रथों के लिए 13 हजार क्यूबिक फीट से ज्यादा लकड़ी लगती है। जिसके लिए हर साल एक हजार हरे पेड़ों को काटा जाता है। और, रथयात्रा पूरी होने के बाद इन रथों को तोड़कर इनकी लकड़ियों का इस्तेमाल मंदिर में खाना बनाने में किया जाता है।

अब वहां के पर्यावरणवादी कह रहे हैं कि इससे ग्लोबल वॉर्मिग का खतरा बढ़ रहा है और मौसम बदल रहा है। अब ये बात तो मैं मानने से रहा कि भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए कटने वाले इन्हीं हजार पेड़ों से ग्लोबल वॉर्मिंग को नुकसान हो रहा है। और, वहां का मौसम बदल रहा है। लेकिन, ये बात तो बिल्कुल भी न पचने वाली है कि हर साल नई लकड़ी से बने रथ से ही भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा नहीं निकली तो, ये अधर्म हो जाएगा। ऐसी ही कुतर्क पुरी के मुख्य महंत कर रहे हैं। 42 पहियों वाले तीन रथों को बनाने पर होने वाला बावन लाख रुपए का खर्च पर तो मैं कुछ कह ही नहीं रहा हूं। क्योंकि, इससे स्थानीय लोगों को ही रोजगार मिलता होगा।

अब चूंकि रथ भगवान जगन्नाथ के लिए हैं। इसलिए सबसे बेहतरीन लकड़ियों का इस्तेमाल होता है। जिन जंगलों से ये लकड़ी काटकर लाई जाती है। उस खुर्दा डिवीजन के फॉरेस्ट ऑफीसर राजेश नायर मानते हैं कि इससे जंगल कम हो रहे हैं लेकिन, अभी अगले 30-40 साल तक तो लकड़ियों की कोई दिक्कत नहीं होने वाली। तो, क्या DFO साहब और पुरी के मुख्य पुजारी ये मान बैठे हैं कि 40 साल बाद भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा बंद हो जाएगी। और, जगन्नाथ पुरी के प्रति आस्था-विश्वास रखने वाले रह ही नहीं जाएंगे। क्योंकि, अगर यात्रा चलती रही तो, फिर तो, पुरानी लकड़ियों का ही इस्तेमाल करना होगा। जो, अभी के मुख्य पुजारी के मुताबिक अधार्मिक होगा।

अब मेरा सवाल ये है कि धर्म का इतना ख्याल रखने वाले पुरी के पुजारी क्या इस बात का भी ख्याल नहीं रखेंगे कि आगे भी भगवान जगन्नाथ में लोगों की आस्था बनी रहे। मैं कहता हूं कि भगवान जगन्नाथ का रथ हर साल नई लकड़ियों से बने। लेकिन, क्या पुरी के मुख्य पुजारी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके हर साल दो हजार नए पेड़ो को लगाने का काम नहीं करवा सकते। अब ये पेड़ लगवाना तो एक उदाहरण भर है। देश में अब मंदिरों और धार्मिक गुरुओं को ऐसा काम करना ही होगा कि वो, आने वाले दिनों में भी मंदिरों और धर्म में लोगों की आस्था बचाए रख सकें। और, शायद इन धार्मिक स्थलों को चलाने वालों को भी ये ख्याल रखना होगा जिस तरह से धर्म में आस्ता रखने वाले धर्म को बढ़ाने के लिए तन-मन-धन से धर्मस्थल, धर्मगुरुओं की मदद करते हैं वैसे ही वो, भी ये सुनिश्चिति करें कि इन धर्मभीरू लोगों को ऐसी सुविधाएं मिलें कि उनके लिए वो आखिरी धार्मिक यात्रा न बन जाए। ताकि, आस्था बची रहे..

Wednesday, July 02, 2008

मुलायम सिंह यादव और सोनिया गांधी साथ आएं तो ...

कांग्रेस से दोस्ती के लिए समाजवादी पार्टी अब अपनी राजनीतिक छतरी लेफ्ट को भी दरकिनार के मूड में आ गई है। लेकिन, समाजवादी पार्टी को ये अहसास है कि बीजेप-बीएसपी गठजोड़ के मजबूत होने की स्थिति में यही अकेली छतरी होगी जिसके नीचे आकर सत्ता से दूर रहने के नुकसान थोड़े कम किए जा सकेंगे। और, तथाकथित सांप्रदायिकता के खिलाफ एक गठजोड़ बना सकेंगे। यही वजह है कि अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव लेफ्ट को मनाकर-बताकर कांग्रेस को समर्थन देना चाहते हैं।

दरअसल मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह यूपी की सत्ता से बाहर होने और मायावती के मजबूती से सत्ता हासिल करने के बाद जिस हालात से गुजर रहे हैं। उसमें उन्हें कांग्रेस के साथ जाना फायदे का सौदा लग रहा है। वैसे इसके लिए चार-छे महीने के लिए ही सही सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी भी मिलेगी। मैंने महेंद्र सिंह टिकैत के आंदोलन के समय ही ये लिखा था कि किस तरह से यूपी में हाशिए पर पहुंची कांग्रेस और सपा एक दूसरे के नजदीक आ रहे हैं। और, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनने के लिए मायावती के साथ जाने में फायदा देख रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही है कि भले ही भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को मायावती के साथ से केंद्र में सत्ता चलाने का मौका मिल जाए लेकिन, यूपी में भाजपा का और नुकसान ही होना है।

लेकिन, मुलायम और सोनिया का साथ दोनों के लिए फायदे का सौदा है। यूपी में भी केंद्र की राजनीति के लिए भी। अभी उत्तर प्रदेश में जो हालात हैं वो, कमोबेश विधानसभा चुनाव जैसे ही हैं। बीएसपी के सत्ता में रहने के बावजूद और रोज उजागर होते बसपा नेताओं-विधायकों मंत्रियों के कुकर्मों के बावजूद मायावती को कोई नुकसान होती नहीं दिख रहा। समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर और भाजपा तीसरे नंबर पर है। कांग्रेस का कोई पुरसाहाल नहीं है। और, ये साफ है कि भाजपा और बसपा अंदर गठजोड़ भले ही कर लें साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकते। जबकि, सोनिया और मुलायम के पास ये विकल्प भी है। और, सच्चाई भी यही है कि ये दोनों साथ मिलकर लड़ें तो, लोकसभा की 10-15 सीटों पर समीकरण बदल सकते हैं।

इसकी वजह भी साफ है- अभी भाजपा का परंपरागत ब्राह्मण मतदाता- ये सोचकर कि मायावती का रहना मुलायम के रहने से तो, बेहतर है- बहनजी को वोट करने का मन बना चुका है। जहां ब्राह्मण प्रत्याशी बसपा से हैं वहां तो कोई संदेह ही नहीं है। और, भाजपा के खिलाफ वोट करने वाला एक बड़ा वर्ग भी- ये सोचकर कि सपा को वोट करेंगे तो, रिएक्शन में एंटी वोट भाजपा के साथ एकजुट होंगे और वो मजबूत होगी- बसपा को वोट करने के लिए तैयार है। अब अगर कांग्रेस-सपा एक साथ आते हैं तो, कम से कम एंटी भाजपा सारे वोट इस गठजोड़ के साथ आ सकते हैं। मुस्लिमों का तो, नब्बे परसेंट वोट मायावती का साथ छोड़ सकता है अगर उसे ये तथाकथित सेक्युलर गठजोड़ प्रदेश में मजबूत होता दिखे।

और, जिस तरह से नंदीग्राम के पश्चिम बंगाल और केरल में लेफ्ट कैडर की अंदरूनी लड़ाई से दोनों राज्यों में वामपंथी पार्टियां कमजोर हुई हैं। इससे साफ दिख रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में लेफ्ट पर्टियों की सीटें 59 से कम ही होंगी, ज्यादा तो नहीं ही होंगी। कांग्रेस पर भी एंटी इनकंबेंन्सी और महंगाई बुरा असर डाल रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश से ज्यादा सीटें लाने पर सपा-कांग्रेस गठजोड़ यूपीए सरकार के लिए रास्ता आसान कर सकता है। क्योंकि, एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने जिस तरह ये बयान दिया है कि अफजल गुरु, अमरनाथ श्राइन बोर्ड से वापस ली गई जमीन का मुद्दा और आतंकवाद, आने वाले लोकसभा चुनाव का मुद्दा बनेगा। उससे साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को फायदा मिल रहा है। इसलिए कांग्रेस-सपा गठजोड़ और बाद मे लेफ्ट का बाहर से समर्थन ही सोनिया के लिए बेहतर रास्ता दिख रहा है।

Tuesday, July 01, 2008

इसके बिना बात पूरी नहीं होगी

मेरे घर वाले कश्मीर से लौट आए हैं। मैंने पिछले लेख में बात यहां खत्म की थी कि अगर राजनीति इसी तरह से घाटी को दहशत के माहौल में धकेलती रहेगी। तो, कैसे कोई दुबारा किसी को कश्मीर घूमने जाने की सलाह दे पाएगा और बेरोजगार कश्मीरी महबूबा, उमर अब्दुल्ला और गुलाम नबी आजाद की बात समझेगा या फिर आतंकवादियों की।

लेकिन, आज जब मेरी घर वालों से बात हुई तो, उन्होंने जिस तरह से अपने कैब ड्राइवर की तारीफ की। उससे साफ है कि कश्मीरी बहुत सच्चे और साफ दिलवाले हैं। और, घाटी में एक दशक से जो कुछ शांति आई है। और, इससे वहां जिस तरह से मौके और रोजगार मिल रहा है वो, उसे आसानी से नहीं गंवाएंगे। गुलमर्ग से लौटते समय जब राजनीति दलों की क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने वाले मुट्ठी भर बहके लोग और जाने-अनजाने आतंकवादियों के हितों को पूरा कर रहे लोगों ने गाड़ी रोककर उसे तोड़ने-जला देने की धमकी दी तो, कश्मीरी टैक्सी ड्राइवर ने मेरे घरवालों को भरोसा दिलाया मेरी लाश से गुजरने के बाद ही ये लोग आपको छू सकेंगे। मुसलमान टैक्सी ड्राइवर पर मेरे घर वालों को भरोसा कुछ इतना हो गया था कि जिस दिन वो लोग कहीं घूमने नहीं जा पाए थे तो, भी वो बोट पर घरवालों के साथ था। इस जज्बे को सलाम औऱ उम्मीद यही कि घाटी में मुसलमान कैब ड्राइवर जैसे लोग ज्यादा मजबूत होंगे।

और, मेरा भरोसा फिर से मजबूत हो गया है कि कश्मीर को बंदूक और बारूद की आग से बाजार ही बचा पाएगा।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...