ये सब मानते हैं कि राजनीति में भले लोग कम ही जाते हैं। गए भी तो भले नहीं रह जाते हैं। और, भले रह गए तो, उनकी अपनी पार्टी पहला मौका मिलते ही लात मारकर बाहर कर देती है। यही हाल सोमनाथ का उनकी अपनी पार्टी सीपीएम में हुआ। 40 साल से पार्टी के निर्देश मानने का ख्याल सीपीएम के गुंडा बॉस प्रकाश करात को बिल्कुल नहीं रहा। और, सोमनाथ को पार्टी से बाहर निकालने का फैसला उस आधार पर सुनाया गया जो, पार्टी की खिलाफत तो बिल्कुल ही नहीं था।
लोग भले ही कहें कि ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जिद थी कि सरकार को विश्वासमत हासिल करना पड़ा। और, वो इसमें कामयाब होने के बाद पहली बार प्रधानमंत्री की तरह दिखे। मैं मानता हूं कि सरकार को विश्वासमत का सामना यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और सीपीएम महासचिव प्रकाश करात के अहं की वजह से करना पड़ा। सोनिया के दोनों हाथों में लड्डू था। सरकार बची तो, इससे अच्छा क्या होता जो, हुआ और गिरती तो, युवराज की ताजपोशी का रास्ता साफ होता। खैर, दोनों बड़े नेताओं का अहम तुष्ट करने के लिए दो भले लोग भी निशाने पर थे। सोनिया गांधी का अहम तुष्ट हो गया इसलिए मनमोहन मीडिया में बड़े नेता के तौर पर प्रतिष्टित हो गए। और, मीडिया मनमोहन के पुराने फैसलों में भी उनकी ताकत देखने लगा।
लेकिन, करात का अहम चूर-चूर हो गया। वो, भी जिसको वो दलाल कहते हैं उस अमर सिंह के सामने तो, उनको लगा कि उनके अहम को तोड़ने में सोमनाथ चटर्जी भी साझीदार रहे। बस फिर क्या था अब तक विचारधारा के आधार पर चल रही पार्टी पर करात दंपति का कब्जा तो था ही। आनान-फानन में सोमनाथ को पार्टी से निष्काषित कर दिया। कमाल ये था कि सोमनाथ निकाले सीपीएम से गए थे लेकिन, दूसरी तीनों लेफ्ट पार्टियों ने भी बड़े भाई करात का समर्थन किया।
आप बताइए सोमनाथ ने कहां गलती की। सोमनाथ जब लोकसभा अध्यक्ष सर्वसहमति से बने उसी, वक्त उन्होंने कहाकि, वो पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठ गए हैं। सोमनाथ दा के अंदर बीजेपी विरोध भरा था और जाने-अनजाने वो दिख भी जाता था। लेकिन, कभी उन्होंने इसे संसद की कार्यवाही में दिखने नहीं दिया। बिना उनकी इजाजत के करात ने उनका नाम भी सरकार से समर्थन वापस लेने वाले लेफ्ट पार्टी सांसदों की सूची में राष्ट्रपति को सौंप दिया। ये कहां से जायज था।
उसके बाद भी सोमनाथ को सीध-सीधे समझाने के बजाय करात ने धमकियों का इस्तेमाल किया कि, सोमनाथ तुरंत लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दें। साथ ही धमकी नोट में ये भी शामिल था कि ऐसा नहीं किया तो, पार्टी से निकाल बाहर किए जाएंगे जो, जिद्दी करात ने कर भी दिखाया। जब सोमनाथ पर बहुत दबाव पड़ा तो, उन्होंने साफ कह दिया कि वो इस्तीफा नहीं देंगे। और, दे भी दिया तो, सरकार के खिलाफ बीजेपी के साथ वोटिंग नहीं करेंगे। अब सोमनाथ अगर उसी विचारधारा के आधार पर बीजेपी को कम्युनल मानते हुए उसके साथ खड़े होने से मना कर रहे थे तो, उसमें लेफ्ट को गलत कैसे लग सकता है (जबकि, मैं खुद इसके सख्त खिलाफ हूं कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को कम्युनल कहकर अछूत ठहराने की कोशिश लगातार होती रहती है)।
पार्टी से निकाले जाने से आहत सोमनाथ कह चुके हैं कि अब वो राजनीति ही छोड़ देंगे। सोमनाथ का राजनीति छोड़ना लेफ्ट पार्टियों के लिए पता नहीं कितना बड़ा नुकसान है लेकिन, भारतीय लोकतंत्र के लिए सोमनाथ का राजनीति छोड़ना बहुत बड़ा नुकसान होगा। क्योंकि, राजनीति के लिए ये बड़ा जरूरी है कि सारे विरोधों के बाद भी हर राजनीतिक दल में सोमनाथ जैसे लोग हों जिनका विरोधी भी सम्मान करता हो। उनकी बात सुनने को तो तैयार हो। वरना तो, कॉरपोरेट सौदों की तरह राजनीतिक सहमति बनाने के लिए भी सिर्फ दलाल (mediator, broker ) ही बचे रह जाएंगे। क्योंकि, गलती से पार्टी में बचे रह गए भले लोगों को लात मारने का काम पार्टियां पहला मौका मिलते ही कर डाल रही हैं।
लोग भले ही कहें कि ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जिद थी कि सरकार को विश्वासमत हासिल करना पड़ा। और, वो इसमें कामयाब होने के बाद पहली बार प्रधानमंत्री की तरह दिखे। मैं मानता हूं कि सरकार को विश्वासमत का सामना यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और सीपीएम महासचिव प्रकाश करात के अहं की वजह से करना पड़ा। सोनिया के दोनों हाथों में लड्डू था। सरकार बची तो, इससे अच्छा क्या होता जो, हुआ और गिरती तो, युवराज की ताजपोशी का रास्ता साफ होता। खैर, दोनों बड़े नेताओं का अहम तुष्ट करने के लिए दो भले लोग भी निशाने पर थे। सोनिया गांधी का अहम तुष्ट हो गया इसलिए मनमोहन मीडिया में बड़े नेता के तौर पर प्रतिष्टित हो गए। और, मीडिया मनमोहन के पुराने फैसलों में भी उनकी ताकत देखने लगा।
लेकिन, करात का अहम चूर-चूर हो गया। वो, भी जिसको वो दलाल कहते हैं उस अमर सिंह के सामने तो, उनको लगा कि उनके अहम को तोड़ने में सोमनाथ चटर्जी भी साझीदार रहे। बस फिर क्या था अब तक विचारधारा के आधार पर चल रही पार्टी पर करात दंपति का कब्जा तो था ही। आनान-फानन में सोमनाथ को पार्टी से निष्काषित कर दिया। कमाल ये था कि सोमनाथ निकाले सीपीएम से गए थे लेकिन, दूसरी तीनों लेफ्ट पार्टियों ने भी बड़े भाई करात का समर्थन किया।
आप बताइए सोमनाथ ने कहां गलती की। सोमनाथ जब लोकसभा अध्यक्ष सर्वसहमति से बने उसी, वक्त उन्होंने कहाकि, वो पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर उठ गए हैं। सोमनाथ दा के अंदर बीजेपी विरोध भरा था और जाने-अनजाने वो दिख भी जाता था। लेकिन, कभी उन्होंने इसे संसद की कार्यवाही में दिखने नहीं दिया। बिना उनकी इजाजत के करात ने उनका नाम भी सरकार से समर्थन वापस लेने वाले लेफ्ट पार्टी सांसदों की सूची में राष्ट्रपति को सौंप दिया। ये कहां से जायज था।
उसके बाद भी सोमनाथ को सीध-सीधे समझाने के बजाय करात ने धमकियों का इस्तेमाल किया कि, सोमनाथ तुरंत लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दें। साथ ही धमकी नोट में ये भी शामिल था कि ऐसा नहीं किया तो, पार्टी से निकाल बाहर किए जाएंगे जो, जिद्दी करात ने कर भी दिखाया। जब सोमनाथ पर बहुत दबाव पड़ा तो, उन्होंने साफ कह दिया कि वो इस्तीफा नहीं देंगे। और, दे भी दिया तो, सरकार के खिलाफ बीजेपी के साथ वोटिंग नहीं करेंगे। अब सोमनाथ अगर उसी विचारधारा के आधार पर बीजेपी को कम्युनल मानते हुए उसके साथ खड़े होने से मना कर रहे थे तो, उसमें लेफ्ट को गलत कैसे लग सकता है (जबकि, मैं खुद इसके सख्त खिलाफ हूं कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को कम्युनल कहकर अछूत ठहराने की कोशिश लगातार होती रहती है)।
पार्टी से निकाले जाने से आहत सोमनाथ कह चुके हैं कि अब वो राजनीति ही छोड़ देंगे। सोमनाथ का राजनीति छोड़ना लेफ्ट पार्टियों के लिए पता नहीं कितना बड़ा नुकसान है लेकिन, भारतीय लोकतंत्र के लिए सोमनाथ का राजनीति छोड़ना बहुत बड़ा नुकसान होगा। क्योंकि, राजनीति के लिए ये बड़ा जरूरी है कि सारे विरोधों के बाद भी हर राजनीतिक दल में सोमनाथ जैसे लोग हों जिनका विरोधी भी सम्मान करता हो। उनकी बात सुनने को तो तैयार हो। वरना तो, कॉरपोरेट सौदों की तरह राजनीतिक सहमति बनाने के लिए भी सिर्फ दलाल (mediator, broker ) ही बचे रह जाएंगे। क्योंकि, गलती से पार्टी में बचे रह गए भले लोगों को लात मारने का काम पार्टियां पहला मौका मिलते ही कर डाल रही हैं।