इसे मैं आज सुबह ही लिखने वाला था। जब मेरी नजर इस खबर पर गई कि पुरी की रथयात्रा के लिए हर साल एक हजार पेड़ों को काटा जाता है। लेकिन, मैं सुबह लिख नहीं पाया। शाम तक खबर आ गई कि पुरी में रथयात्रा में भगदड़ मची और छे लोगों की जान चली गई सैकड़ो लोग घायल हो गए हैं। अब सवाल ये है कि आस्था के साथ छेड़छाड़ न होने के नाम पर क्या गलतियों के समर्थन में चुप रहना या सीना तानकर खड़े हो जाना कौन सा धार्मिक कृत्य है।
किसी के भी धर्म या आस्था के साथ छेड़छाड़ या खिलवाड़ का मैं सख्त विरोधी हूं और एक बार मैंने पहले भी लिखा था कि आस्था पर हमले के बिना भी तो बात बन सकती है। लेकिन, आज भगवान जगन्नाथ के रथ के बारे में पढ़कर मेरे मन में ये विचार आ रहा है कि आस्था या धर्म के नाम कहां तक गलतियां करने का अधिकार मिल सकता है। हर साल जगन्नाथ भगवना की रथयात्रा के लिए जो, रथ बनता है। उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा के लिए बनने वाले तीन रथों के लिए 13 हजार क्यूबिक फीट से ज्यादा लकड़ी लगती है। जिसके लिए हर साल एक हजार हरे पेड़ों को काटा जाता है। और, रथयात्रा पूरी होने के बाद इन रथों को तोड़कर इनकी लकड़ियों का इस्तेमाल मंदिर में खाना बनाने में किया जाता है।
अब वहां के पर्यावरणवादी कह रहे हैं कि इससे ग्लोबल वॉर्मिग का खतरा बढ़ रहा है और मौसम बदल रहा है। अब ये बात तो मैं मानने से रहा कि भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए कटने वाले इन्हीं हजार पेड़ों से ग्लोबल वॉर्मिंग को नुकसान हो रहा है। और, वहां का मौसम बदल रहा है। लेकिन, ये बात तो बिल्कुल भी न पचने वाली है कि हर साल नई लकड़ी से बने रथ से ही भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा नहीं निकली तो, ये अधर्म हो जाएगा। ऐसी ही कुतर्क पुरी के मुख्य महंत कर रहे हैं। 42 पहियों वाले तीन रथों को बनाने पर होने वाला बावन लाख रुपए का खर्च पर तो मैं कुछ कह ही नहीं रहा हूं। क्योंकि, इससे स्थानीय लोगों को ही रोजगार मिलता होगा।
अब चूंकि रथ भगवान जगन्नाथ के लिए हैं। इसलिए सबसे बेहतरीन लकड़ियों का इस्तेमाल होता है। जिन जंगलों से ये लकड़ी काटकर लाई जाती है। उस खुर्दा डिवीजन के फॉरेस्ट ऑफीसर राजेश नायर मानते हैं कि इससे जंगल कम हो रहे हैं लेकिन, अभी अगले 30-40 साल तक तो लकड़ियों की कोई दिक्कत नहीं होने वाली। तो, क्या DFO साहब और पुरी के मुख्य पुजारी ये मान बैठे हैं कि 40 साल बाद भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा बंद हो जाएगी। और, जगन्नाथ पुरी के प्रति आस्था-विश्वास रखने वाले रह ही नहीं जाएंगे। क्योंकि, अगर यात्रा चलती रही तो, फिर तो, पुरानी लकड़ियों का ही इस्तेमाल करना होगा। जो, अभी के मुख्य पुजारी के मुताबिक अधार्मिक होगा।
अब मेरा सवाल ये है कि धर्म का इतना ख्याल रखने वाले पुरी के पुजारी क्या इस बात का भी ख्याल नहीं रखेंगे कि आगे भी भगवान जगन्नाथ में लोगों की आस्था बनी रहे। मैं कहता हूं कि भगवान जगन्नाथ का रथ हर साल नई लकड़ियों से बने। लेकिन, क्या पुरी के मुख्य पुजारी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके हर साल दो हजार नए पेड़ो को लगाने का काम नहीं करवा सकते। अब ये पेड़ लगवाना तो एक उदाहरण भर है। देश में अब मंदिरों और धार्मिक गुरुओं को ऐसा काम करना ही होगा कि वो, आने वाले दिनों में भी मंदिरों और धर्म में लोगों की आस्था बचाए रख सकें। और, शायद इन धार्मिक स्थलों को चलाने वालों को भी ये ख्याल रखना होगा जिस तरह से धर्म में आस्ता रखने वाले धर्म को बढ़ाने के लिए तन-मन-धन से धर्मस्थल, धर्मगुरुओं की मदद करते हैं वैसे ही वो, भी ये सुनिश्चिति करें कि इन धर्मभीरू लोगों को ऐसी सुविधाएं मिलें कि उनके लिए वो आखिरी धार्मिक यात्रा न बन जाए। ताकि, आस्था बची रहे..
किसी के भी धर्म या आस्था के साथ छेड़छाड़ या खिलवाड़ का मैं सख्त विरोधी हूं और एक बार मैंने पहले भी लिखा था कि आस्था पर हमले के बिना भी तो बात बन सकती है। लेकिन, आज भगवान जगन्नाथ के रथ के बारे में पढ़कर मेरे मन में ये विचार आ रहा है कि आस्था या धर्म के नाम कहां तक गलतियां करने का अधिकार मिल सकता है। हर साल जगन्नाथ भगवना की रथयात्रा के लिए जो, रथ बनता है। उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा के लिए बनने वाले तीन रथों के लिए 13 हजार क्यूबिक फीट से ज्यादा लकड़ी लगती है। जिसके लिए हर साल एक हजार हरे पेड़ों को काटा जाता है। और, रथयात्रा पूरी होने के बाद इन रथों को तोड़कर इनकी लकड़ियों का इस्तेमाल मंदिर में खाना बनाने में किया जाता है।
अब वहां के पर्यावरणवादी कह रहे हैं कि इससे ग्लोबल वॉर्मिग का खतरा बढ़ रहा है और मौसम बदल रहा है। अब ये बात तो मैं मानने से रहा कि भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए कटने वाले इन्हीं हजार पेड़ों से ग्लोबल वॉर्मिंग को नुकसान हो रहा है। और, वहां का मौसम बदल रहा है। लेकिन, ये बात तो बिल्कुल भी न पचने वाली है कि हर साल नई लकड़ी से बने रथ से ही भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा नहीं निकली तो, ये अधर्म हो जाएगा। ऐसी ही कुतर्क पुरी के मुख्य महंत कर रहे हैं। 42 पहियों वाले तीन रथों को बनाने पर होने वाला बावन लाख रुपए का खर्च पर तो मैं कुछ कह ही नहीं रहा हूं। क्योंकि, इससे स्थानीय लोगों को ही रोजगार मिलता होगा।
अब चूंकि रथ भगवान जगन्नाथ के लिए हैं। इसलिए सबसे बेहतरीन लकड़ियों का इस्तेमाल होता है। जिन जंगलों से ये लकड़ी काटकर लाई जाती है। उस खुर्दा डिवीजन के फॉरेस्ट ऑफीसर राजेश नायर मानते हैं कि इससे जंगल कम हो रहे हैं लेकिन, अभी अगले 30-40 साल तक तो लकड़ियों की कोई दिक्कत नहीं होने वाली। तो, क्या DFO साहब और पुरी के मुख्य पुजारी ये मान बैठे हैं कि 40 साल बाद भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा बंद हो जाएगी। और, जगन्नाथ पुरी के प्रति आस्था-विश्वास रखने वाले रह ही नहीं जाएंगे। क्योंकि, अगर यात्रा चलती रही तो, फिर तो, पुरानी लकड़ियों का ही इस्तेमाल करना होगा। जो, अभी के मुख्य पुजारी के मुताबिक अधार्मिक होगा।
अब मेरा सवाल ये है कि धर्म का इतना ख्याल रखने वाले पुरी के पुजारी क्या इस बात का भी ख्याल नहीं रखेंगे कि आगे भी भगवान जगन्नाथ में लोगों की आस्था बनी रहे। मैं कहता हूं कि भगवान जगन्नाथ का रथ हर साल नई लकड़ियों से बने। लेकिन, क्या पुरी के मुख्य पुजारी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके हर साल दो हजार नए पेड़ो को लगाने का काम नहीं करवा सकते। अब ये पेड़ लगवाना तो एक उदाहरण भर है। देश में अब मंदिरों और धार्मिक गुरुओं को ऐसा काम करना ही होगा कि वो, आने वाले दिनों में भी मंदिरों और धर्म में लोगों की आस्था बचाए रख सकें। और, शायद इन धार्मिक स्थलों को चलाने वालों को भी ये ख्याल रखना होगा जिस तरह से धर्म में आस्ता रखने वाले धर्म को बढ़ाने के लिए तन-मन-धन से धर्मस्थल, धर्मगुरुओं की मदद करते हैं वैसे ही वो, भी ये सुनिश्चिति करें कि इन धर्मभीरू लोगों को ऐसी सुविधाएं मिलें कि उनके लिए वो आखिरी धार्मिक यात्रा न बन जाए। ताकि, आस्था बची रहे..
मुझे नहीं लगता कि हर वर्ष नए रथ की आवश्यकता है। इसे बनाए रखना है तो यह किया जा सकता है कि भगवान जगन्नाथ का अपना खुद का वन हो जहाँ से इन रथों के लिए लकडियाँ उपलब्ध कराई जाए और जितने वृक्ष हर वर्ष कटते हैं, उन से दुगने हर साल उसी वन में लगाए जाएँ। धीरे धीरे वन क्षेत्र को बढ़ाया जाए। वन जगन्नाथ का हुआ तो वह घटेगा नहीं बढ़ेगा ही। क्यों कि वहाँ से अन्य कार्यों के लिए तो वृक्ष काटे नहीं जा सकेंगे।
ReplyDeleteहाँ, किसी को पता हो तो यह भी बताए कि रथयात्रा के उपरांत रथों और उन की लकड़ी का क्या होता है?
और, रथयात्रा पूरी होने के बाद इन रथों को तोड़कर इनकी लकड़ियों का इस्तेमाल मंदिर में खाना बनाने में किया जाता है।
Deleteपरम्परा का निर्वहन अगर हर साल नये वृक्ष लगा कर हो सके तो वह किया जाये। पुजारी न करें तो पर्यावरण वाले ही कर दें। वे एक नयी परम्परा को जन्म दें।
ReplyDeleteयह भी बड़ा रोचक होगा पता करना कि ग्लोबल वार्मिंग चिल्लाने वालों ने कितने पेड़ लगाये! :)
बिलकुल सही कहा आपने कि मंदिर वाले ही पेड लगवायें और सरकार ध्यान दे कि मंदिर के लिये उन्ही के लगाये पेड काटे जायें और यह तो और भी अच्छा होगा कि पर्यावरण के रक्षक ही ये पेड़ लगायें ।
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