भारतीय राजनीति से ज्यादा अवसरवाद शायद ही कहीं और देखने को मिलेगा। अवसरवाद इतना कि लेफ्ट पार्टियां कांग्रेस को धमकाते-धमकाते यूपीए सरकार को महीने-महीने भर की मोहलत देती रहती हैं। और, अवसरवाद ऐसा भी कि कर्नाटक में सत्ता की वरमाला जब बीजेपी के येदुरप्पा के गले में डालने का मौका आया तो, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा और अब के कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी एक हो गए। और, साफ कह दिया कि बीजेपी को सत्ता की दुल्हन नहीं मिल सकती। इन देवगौड़ा और कुमारस्वामी के 6 महीने पहले के बयानों को कोई पढ़े तो, यकीन ही नहीं होगा कि ये दोनों बाप-बेटे हैं।
खैर, अब देवगौड़ा और कुमारस्वामी का बाप-बेटे का रिश्ता फिर से पक्का हो गया है। और, जब दोनों मिल गए तो, बाहर वाले यानी बीजेपी को चिरमिटी लग गई। बीजेपी ने कुमारस्वामी को याद दिलाने की कोशिश की कि हमारे तुम्हारे बीच हुए समझौते के मुताबिक, अब मुख्यमंत्री बीजेपी का होगा। कुमारस्वामी को अचानक याद आ गया कि भारतीय जनता पार्टी तो सांप्रदायिक पार्टी है। उन्होंने कहा कि भाजपा सांप्रदायिकता से पीछा छुड़ाए तभी उसे सत्ता सौंपी जा सकती है। अब कोई कुमारस्वामी से पूछे कि आपको पहले नहीं पता था क्या कि भाजपा सांप्रदायिक है। और, अभी भी अगर कुमारस्वामी को भाजपा मुख्यमंत्री रहते हुए समर्थन देती रहती तो, शायद ही उन्हें याद आता कि भाजपा सांप्रदायिक है।
देखने में ये एक राजमीतिक समझौते का टूटना भर लगता है। लेकिन, इसके पीछे देखें तो, दो बातें एकदम साफ नजर आती है। एक तो, बीजेपी को अभी भी सत्ता चलाना और उसे संभालना नहीं आता। उसे ऐसे मामलों में अभी कांग्रेस के चिंतन शिविर में जाने की जरूरत पड़ती दिख रही है। कांग्रेस आसानी से जम्मू-कश्मीर में ऐसे ही समझौते पर संतुलन बनाए हुए है। जबकि, मायावती के साथ इसी तरह के समझौते पर भाजपा पहले भी पटरा हो चुकी है। और, भाजपा के नेता लाख ये कहें कि उनके साथ धोखा हुआ है। जनता इसका जवाब देगी। भाजपा नेता भी ये अच्छी तरह जानते हैं कि न तो उत्तर प्रदेश में उन्हें धोखा खाने का फायदा मिला था और न ही कर्नाटक में मिलेगा। क्योंकि, जनता ये अच्छी तरह से जानती है कि राजनीति में ये सिर्फ पावरगेम होता है।
और, दूसरा ये कि कर्नाटक के रास्ते दक्षिण भारत में पैठ बनाने की बीजेपी की कोशिश कुछ कमजोर पड़ गई है। खैर, अब भाजपा के अनंत कुमार और येदुरप्पा के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये होगी कि वो किस तरह से कर्नाटक में सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी कहलाने वाली बीजेपी की वकालत दोबारा कर पाते हैं। कर्नाटक में बीजेपी का झंडा लहराने से मुश्किल सिर्फ जेडी एस की ही नहीं थी। कांग्रेस, चंद्रबाबू नायडू, करुणानिधि और जयललिता खांटी दक्षिण भारतीय नेताओं के माथे पर भी बल पड़ रहे थे। कर्नाटक के जरिए बीजेपी दक्षिण के राज्यों में अपनी पैठ बनाने की जो, कोशिश कर रही थी वो, फिलहाल तो कुछ टूटती सी दिख रही है।
रामसेतु (सेतुसमुद्रम परियोजना) पर आंदोलन की कमान भले ही विश्व हिंदू परिषद ने संभाल रखी हो। असल में इसी बहाने बीजेपी दक्षिण के दूसरे राज्यों में अपनी हैसियत ठीक करने की जुगत में लगी है। इसीलिए कई बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े पदाधिकारी जयललिता के शासनकाल की तारीफ भी करते रहे। लेकिन, कर्नाटक में सत्ता हाथ न आने से शायद बीजेपी को अब दक्षिण में पैठ बनाने के लिए कुछ नया फॉर्मूला तलाशना होगा।
खैर, अब देवगौड़ा और कुमारस्वामी का बाप-बेटे का रिश्ता फिर से पक्का हो गया है। और, जब दोनों मिल गए तो, बाहर वाले यानी बीजेपी को चिरमिटी लग गई। बीजेपी ने कुमारस्वामी को याद दिलाने की कोशिश की कि हमारे तुम्हारे बीच हुए समझौते के मुताबिक, अब मुख्यमंत्री बीजेपी का होगा। कुमारस्वामी को अचानक याद आ गया कि भारतीय जनता पार्टी तो सांप्रदायिक पार्टी है। उन्होंने कहा कि भाजपा सांप्रदायिकता से पीछा छुड़ाए तभी उसे सत्ता सौंपी जा सकती है। अब कोई कुमारस्वामी से पूछे कि आपको पहले नहीं पता था क्या कि भाजपा सांप्रदायिक है। और, अभी भी अगर कुमारस्वामी को भाजपा मुख्यमंत्री रहते हुए समर्थन देती रहती तो, शायद ही उन्हें याद आता कि भाजपा सांप्रदायिक है।
देखने में ये एक राजमीतिक समझौते का टूटना भर लगता है। लेकिन, इसके पीछे देखें तो, दो बातें एकदम साफ नजर आती है। एक तो, बीजेपी को अभी भी सत्ता चलाना और उसे संभालना नहीं आता। उसे ऐसे मामलों में अभी कांग्रेस के चिंतन शिविर में जाने की जरूरत पड़ती दिख रही है। कांग्रेस आसानी से जम्मू-कश्मीर में ऐसे ही समझौते पर संतुलन बनाए हुए है। जबकि, मायावती के साथ इसी तरह के समझौते पर भाजपा पहले भी पटरा हो चुकी है। और, भाजपा के नेता लाख ये कहें कि उनके साथ धोखा हुआ है। जनता इसका जवाब देगी। भाजपा नेता भी ये अच्छी तरह जानते हैं कि न तो उत्तर प्रदेश में उन्हें धोखा खाने का फायदा मिला था और न ही कर्नाटक में मिलेगा। क्योंकि, जनता ये अच्छी तरह से जानती है कि राजनीति में ये सिर्फ पावरगेम होता है।
और, दूसरा ये कि कर्नाटक के रास्ते दक्षिण भारत में पैठ बनाने की बीजेपी की कोशिश कुछ कमजोर पड़ गई है। खैर, अब भाजपा के अनंत कुमार और येदुरप्पा के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये होगी कि वो किस तरह से कर्नाटक में सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी कहलाने वाली बीजेपी की वकालत दोबारा कर पाते हैं। कर्नाटक में बीजेपी का झंडा लहराने से मुश्किल सिर्फ जेडी एस की ही नहीं थी। कांग्रेस, चंद्रबाबू नायडू, करुणानिधि और जयललिता खांटी दक्षिण भारतीय नेताओं के माथे पर भी बल पड़ रहे थे। कर्नाटक के जरिए बीजेपी दक्षिण के राज्यों में अपनी पैठ बनाने की जो, कोशिश कर रही थी वो, फिलहाल तो कुछ टूटती सी दिख रही है।
रामसेतु (सेतुसमुद्रम परियोजना) पर आंदोलन की कमान भले ही विश्व हिंदू परिषद ने संभाल रखी हो। असल में इसी बहाने बीजेपी दक्षिण के दूसरे राज्यों में अपनी हैसियत ठीक करने की जुगत में लगी है। इसीलिए कई बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े पदाधिकारी जयललिता के शासनकाल की तारीफ भी करते रहे। लेकिन, कर्नाटक में सत्ता हाथ न आने से शायद बीजेपी को अब दक्षिण में पैठ बनाने के लिए कुछ नया फॉर्मूला तलाशना होगा।
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