(मैं इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के फोटो जर्नलिज्म और विजुअल कम्युनिकेशंस डिपार्टमेंट की ओर से कराई गई राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल हुआ था। उसमें मुझे पहले सत्र में कौन बनाएगा मीडिया का कोड ऑफ कंडक्ट विषय पर बोलने के लिए बुलाया गया था। ये लेख उसी भाषण का हिस्सा है)
मीडिया के लोग इस समय सबसे ज्यादा किसी बात से परेशान हैं तो, वो ये कि सरकार उनकी स्वायत्तता या यूं कह लें कि स्वतंत्र सत्ता पर हमला करने की तैयारी में है। हफ्ते भर में एक बार तो किसी न किसी बहाने सूचना प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी मीडिया के लिए एक कोड ऑफ कंडक्ट की बात कर ही देते हैं। मुंशीजी का प्रस्तावित कोड ऑफ कंडक्ट ऐसा है कि आज की तारीख में काम कर रहे ज्यादातर न्यूज चैनलों पर कभी भी किसी जिलाधिकारी के डंडे की चोट पड़ सकती है।
अभी चुनावों की आहट से मुंशीजी का मीडिया को काबू करने का प्रिय प्रोजेक्ट भले ही पीछे चला गया हो। लेकिन, देर-सबेर ये होना ही है। अब सवाल ये है कि क्या मीडिया को सरकारी कोड ऑफ कंडक्ट से चलाया जा सकता है। लेकिन, साथ ही जुड़ा हुआ सवाल ये है कि क्या मीडिया इतनी जिम्मेदारी से अपना काम कर पा रहा है कि उसे किसी कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत न पड़े या कोड ऑफ कंडक्ट बने तो, उसे कौन तय करेगा।
हाल के दिनों की दिल्ली की दो घटनाएं- एक दिल्ली की स्कूल टीचर के खिलाफ जनमत से लाइव इंडिया बने चैनल का स्टिंग ऑपरेशन। और, दूसरा कुछ तथाकथित पत्रकारों का एक सांसद से स्टिंग की धमकी देकर वसूली की कोशिश- ये दोनों ऐसी घटनाएं हैं, जिसके बाद मीडिया के लिए कोड ऑफ कंडक्ट की वकालत करने वालों का पक्ष मजबूत होता है। लाइव इंडिया को इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन की वजह से ऑफ एयर भी कर दिया गया था। और, ये सिर्फ इत्तफाक नहीं है कि इस बार देश के प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका एक्सलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड के मौके पर हुए पैनल डिस्कशन में सबने एक-दूसरे से यही सवाल पूछा या यूं कहें कि खुद को कसौटी पर कसने की कोशिश की।
उस मंच पर एक साथ बड़े-बड़े पत्रकार बैठे हुए थे। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों को चलाने वाले लोग थे। कुछ ऐसे थे जो, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों में ही अपनी अच्छी छाप छोड़ चुके हैं। अखबारों-टीवी चैनलों की सुर्खियां बनने वाले बड़े-बड़े नेता बहस को सुनने वालों में थे। बहस की शुरुआत ही इसी से हुई कि क्या बाजार टीवी चैनलों या पूरे मीडिया को ही इस तरह से चला रहा है कि उसमें इस बात की कोई जगह ही नहीं बची है कि एक्सलेंट जर्नलिज्म किया जा सके। या फिर बदलते जमाने के साथ जर्नलिज्म के पैमाने भी बदल रहे हैं और इसी दौर की वजह से मीडिया भटका हुआ दिख रहा है।
यही भटकाव है कि टीवी चैनल शुरू करने के साथ चैनल का नया-नया एडिटर पहला काम जो सोचता है वो, टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी बढ़िया स्टिंग ऑपरेशन का। स्टिंग ऑपरेशन में सेक्स स्कैंडल या फिर कहीं किसी को पैसे लेते-देते दिखाने को मिल जाए तो, फिर तो मजे ही आ जाते हैं। लेकिन, इस स्टिंग ने अगर टीवी के जरिए कई बड़े खुलासे देश के लोगों के सामने रखे तो, यही स्टिंग ऑपरेशन अब मीडिया को कोड ऑफ कंडक्ट में बांधने की बात मजबूत करते हैं।
वैसे रामनाथ गोयनका एक्सलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड के पैनल से उस समय के राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने एक सवाल पूछा जो, कोड ऑफ कंडक्ट लागू करने की वजह तो बता ही देता है। कलाम ने मीडिया के दिग्गजों से सिर्फ एक ही सवाल पूछा कि क्या वो देश के लोगों को ऊपर उठाने में कोई मदद कर रहे हैं। क्या वो गरीब रेखा के नीचे बसने वाले देश के बाइस करोड़ लोगों को ऊपर उठाने के लिए भी कोई खबर दिखाते हैं। कलाम ने A+B+C पर मीडिया को काम करने की सलाह दी। A यानी देश की जीडीपी, देश के विकास में मीडिया का योगदान, B यानी देश की बाइस करोड़ जनता जो, गरीबी रेखा से नीचे है, उनके लिए मीडिया क्या कर सकता है और C जो, कलाम ने सबसे जरूरी बताया वो, ये कि देश में वैल्यू सिस्टम को बनाए रखने में मीडिया की भूमिका।
सवाल जायज था लेकिन, मीडिया के दिग्गजों में से किसी से भी इस बात का जवाब देते नहीं बना। अब अगर हम कलाम साहब की इस बात को समझ सकें तो, ये भी समझ में आ जाएगा कि मीडिया में किस तरह के कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत है। मीडिया समाज को आगे बढ़ाने में मदद करता है तो, मीडिया की विश्वसनीयता और मीडिया का सम्मान बढ़ता है और इस सम्मान पर खरा उतरने का दबाव ही मीडिया के लिए सबसे बढ़िया कोड ऑफ कंडक्ट हो सकता है।
कोड ऑफ कंडक्ट का सवाल सिर्फ स्टिंग ऑपरेशन से ही नहीं आ रहा है। भूत-प्रेत-ओझा-बाबा-अजब-गजब दिखाने की टीवी चैनलों की होड़ ने भी मीडिया को कोड ऑफ कंडक्ट के दायरे में बांधने की राय मजबूत की है। हाल ये है कि गाल में भाला घुसेड़ने वाला आधे घंटे तक लगातार टीवी की टीआरपी बढ़ाता रहता है। टीआरपी के भय से ही कभी भी कोई भी हिंदी चैनल लगातार चार-पांच घंटे तक या शायद फिर दिन भर भूत-प्रेत-आत्मा-हवेली में घुंघरू की झनकार-हत्यारा प्रेमी/प्रेमिका-हिला देना वाला खुलासा-टीवी की अब तक की सबसे सनसनीखेज खबर-टेलीविजन इतिहास में पहली बार-14 साल के गांव के बच्चे में अमेरिकी वैज्ञानिक की आत्मा, जैसे शीर्षकों से खुद को बेचने की कोशिश करता रहता है।
इसी टीआरपी की वजह से टीवी इस्तेमाल भी हो रहा है। कोई राखी सावंत और मीका कई हफ्तों तक टीवी की सबसे बड़ी सुर्खी बने रहते हैं। और, साफ है कि दोनों ने पब्लिसिटी के लिए ये काम किया नहीं तो, एक दूसरे के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाए हर सार्वजनिक मंच पर उसी बात को उछालने की कोशिश क्यों करते। उदाहरण एक नहीं है। ताजा उदाहरण है टीवी एक्ट्रेस श्वेता तिवारी और उसके पति राजा का। दोनॆ ने मारपीट की और मीडिया में खूब दिखने के बाद कहा- मीडिया को उल्लू बन दिया। हमें तो, सिर्फ पब्लिसिटी चाहिए थी।
मीडिया का इस्तेमाल और इसके प्रति लोगों की राय का अंदाजा सुपर स्टार शाहरुख खान के एक बयान से अच्छे से लगाया जा सकता है। शाहरुख मानते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहुतों को नहीं पता कि उन्हें क्या करना चाहिए। उनका कहना है कि उनका रिश्ता मीडिया के सिनर्जी का है वो, मीडिया का इस्तेमाल करते हैं और मीडिया उनका।
वैसे कुछ इस्तेमाल करने के चक्कर में टीवी पत्रकार बेकार भी बन रहे हैं। किसी भी बिकाऊ वीडियो पर न्यूजरूम में सिर्फ एक ही आवाज आती है सीधे चला दो। इसमें करना ही क्या है। चैनलों पर तो, आधे-एक घंटे तक देश के किसी भी हिस्से में लोगों को हंसा रहे राजू श्रीवास्तव या फिर कोई दूसरा कॉमेडी कलाकार लाइव कटा रहता है। उससे छूटे तो, कहीं कोई सुंदर बाला देह दर्शना नृत्य या कृत्य कर रही हो तो, उसे लाइव काट दीजिए।
कुछ एक न्यूज चैनल में तो, कुछ प्रोड्यूसर इसीलिए रखे जाते हैं कि उन्होंने एंटरटेनमेंट चैनलों को ध्यान से देखा उसको रिकॉर्ड कराया। उसके बीच-बीच में तीस-चालीस सेकेंड के कुछ लच्छेदार एंकर लिंक डाले और 9 मिनट का ब्रेक मिलाकर तीस मिनट का बढ़िया टीआरपी वाला बुलेटिन तैयार कर डाला। शायद इसके लिए भी किसी न किसी कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत है।
लेकिन, क्या मीडिया में सरकारी कोड ऑफ कंडक्ट के दबाव में एक्सलेंट जर्नलिज्म हो पाएगा। जाहिर है अखबार या टीवी चैनल ऐसा होना चाहिए जिसमें रोटी-दाल-चावल-सब्जी-अचार-मसाला सबकुछ हो। लेकिन, क्या कभी भी किसी खाने की थाली में अचार या मसाला सबसे ज्यादा हो सकता है। तीखा से तीखा खाने वाले भी दो-तीन मिर्च या छोटी कटोरी में अचार से ज्यादा नहीं पचा पाते। लेकिन, रोटी-दाल-चावल तो सबको पेट भरके चाहिए ही।
एक्सलेंस जर्नलिज्म के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया सचमुच एक बड़ा उदाहरण है जो, बाजार और पढ़ने वालों की जरूरतों के लिहाज से खुद को लगातार एक्सलेंट बनाता जा रहा है। लेकिन, अंग्रेजी और अग्रेजी बिजनेस जर्नलिज्म (द इकोनॉमिक टाइम्स) में बेहतर काम करने वाला टाइम्स ग्रुप भी हिंदी (नवभारत टाइम्स) में ये काम नहीं कर पा रहा है।
देश के सबसे बड़े हिंदी अखबारों दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर को अग्रेजी के टाइम्स ऑफ इंडिया से सबक लेना चाहिए। टाइम्स ऑफ इंडिया भी ज्यादातर इसी बात के लिए चर्चा में रहता है कि उसके दिल्ली या मुंबई टाइम्स या फिर सप्लीमेंट के रंगीन पन्नों पर सुंदर फोटो होते हैं। लेकिन, इसी के बीच जैसे-जैसे अखबार मजबूत(सर्कुलेशन के लिहाज से) और कमाऊ (विज्ञापनों के लिहाज से) बनता गया। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबरों की गुणवत्ता बेहतर होती गई। अब तो, शनिवार-रविवार के टाइम्स के अतिरिक्त पन्ने इंडियन एक्सप्रेस को भी कई बार मात देते दिखते हैं।
इसलिए जरूरत इस बात की है कि हिंदी में भी टीवी न्यूज चैनल और अखबार इस दबाव से बाहर निकलें कि टीआरपी के लिए अपना मन मारकर शो चलाना ही पडेगा नहीं तो, मुकाबले में नहीं रह पाएंगे। क्योंकि, अगर टीआरपी और सर्कुलेशन के दबाव में टीवी-अखबार कुछ भी भौंडा सा चलाकर ये तर्क देकर बचते रहे कि लोग यही पसंद करते हैं। तो, फिर मीडिया में काम करने वालों को लोकतंत्र का चौथा खंभा समझने की गलती कोई क्यों करे। कोई क्यों मीडिया के लोगों का सम्मान करे। प्रियरंजन दासमुंशी जैसे लोग क्यों मीडिया को कोड ऑफ कंडक्ट के सरकारी डंडे से हांकने का मन न बना लें।
वैसे, भूत-प्रेत और टीआरपी की खबरें दिखाने वाले टीवी चैनलों को चलाने वाले और उसमें काम करने वाले भी इससे ऊब चुके हैं और इस वजह से टीवी चैनलों में आई एक बड़ी जमात इससे भागने की भी तैयारी में है। 100 करोड़ से ज्यादा का देश है। टीवी चैनल और अखबार हिम्मत तो, करें देश में भूत-प्रेत-अपराध, स्टिंग ऑपरेशन पसंद करने वाले टीवी देखने और अखबार पढ़ने वालों से कई गुना ज्यादा लोग अभी एक्सलेंट जर्नलिज्म को गुड बिजनेस बनाने के लिए तैयार हैं।
मीडिया पर भरोसा रखने वाले और इसे गाली देने वाले दोनों ही वर्गों के लोग ये मानते हैं कि मीडिया में किसी को भी आदर्श और भ्रष्ट बना देने की ताकत है। इसलिए कोड ऑफ कंडक्ट तो जरूरी है। लेकिन, मीडिया के लिए कोड ऑफ कंडक्ट जनता का भरोसा बचाए रखने के दबाव से आना चाहिए। इस्तेमाल होने और इस्तेमाल करने की मानसिकता से बाहर निकलने से।
मीडिया के लोग इस समय सबसे ज्यादा किसी बात से परेशान हैं तो, वो ये कि सरकार उनकी स्वायत्तता या यूं कह लें कि स्वतंत्र सत्ता पर हमला करने की तैयारी में है। हफ्ते भर में एक बार तो किसी न किसी बहाने सूचना प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी मीडिया के लिए एक कोड ऑफ कंडक्ट की बात कर ही देते हैं। मुंशीजी का प्रस्तावित कोड ऑफ कंडक्ट ऐसा है कि आज की तारीख में काम कर रहे ज्यादातर न्यूज चैनलों पर कभी भी किसी जिलाधिकारी के डंडे की चोट पड़ सकती है।
अभी चुनावों की आहट से मुंशीजी का मीडिया को काबू करने का प्रिय प्रोजेक्ट भले ही पीछे चला गया हो। लेकिन, देर-सबेर ये होना ही है। अब सवाल ये है कि क्या मीडिया को सरकारी कोड ऑफ कंडक्ट से चलाया जा सकता है। लेकिन, साथ ही जुड़ा हुआ सवाल ये है कि क्या मीडिया इतनी जिम्मेदारी से अपना काम कर पा रहा है कि उसे किसी कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत न पड़े या कोड ऑफ कंडक्ट बने तो, उसे कौन तय करेगा।
हाल के दिनों की दिल्ली की दो घटनाएं- एक दिल्ली की स्कूल टीचर के खिलाफ जनमत से लाइव इंडिया बने चैनल का स्टिंग ऑपरेशन। और, दूसरा कुछ तथाकथित पत्रकारों का एक सांसद से स्टिंग की धमकी देकर वसूली की कोशिश- ये दोनों ऐसी घटनाएं हैं, जिसके बाद मीडिया के लिए कोड ऑफ कंडक्ट की वकालत करने वालों का पक्ष मजबूत होता है। लाइव इंडिया को इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन की वजह से ऑफ एयर भी कर दिया गया था। और, ये सिर्फ इत्तफाक नहीं है कि इस बार देश के प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका एक्सलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड के मौके पर हुए पैनल डिस्कशन में सबने एक-दूसरे से यही सवाल पूछा या यूं कहें कि खुद को कसौटी पर कसने की कोशिश की।
उस मंच पर एक साथ बड़े-बड़े पत्रकार बैठे हुए थे। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों को चलाने वाले लोग थे। कुछ ऐसे थे जो, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों में ही अपनी अच्छी छाप छोड़ चुके हैं। अखबारों-टीवी चैनलों की सुर्खियां बनने वाले बड़े-बड़े नेता बहस को सुनने वालों में थे। बहस की शुरुआत ही इसी से हुई कि क्या बाजार टीवी चैनलों या पूरे मीडिया को ही इस तरह से चला रहा है कि उसमें इस बात की कोई जगह ही नहीं बची है कि एक्सलेंट जर्नलिज्म किया जा सके। या फिर बदलते जमाने के साथ जर्नलिज्म के पैमाने भी बदल रहे हैं और इसी दौर की वजह से मीडिया भटका हुआ दिख रहा है।
यही भटकाव है कि टीवी चैनल शुरू करने के साथ चैनल का नया-नया एडिटर पहला काम जो सोचता है वो, टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी बढ़िया स्टिंग ऑपरेशन का। स्टिंग ऑपरेशन में सेक्स स्कैंडल या फिर कहीं किसी को पैसे लेते-देते दिखाने को मिल जाए तो, फिर तो मजे ही आ जाते हैं। लेकिन, इस स्टिंग ने अगर टीवी के जरिए कई बड़े खुलासे देश के लोगों के सामने रखे तो, यही स्टिंग ऑपरेशन अब मीडिया को कोड ऑफ कंडक्ट में बांधने की बात मजबूत करते हैं।
वैसे रामनाथ गोयनका एक्सलेंस इन जर्नलिज्म अवॉर्ड के पैनल से उस समय के राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने एक सवाल पूछा जो, कोड ऑफ कंडक्ट लागू करने की वजह तो बता ही देता है। कलाम ने मीडिया के दिग्गजों से सिर्फ एक ही सवाल पूछा कि क्या वो देश के लोगों को ऊपर उठाने में कोई मदद कर रहे हैं। क्या वो गरीब रेखा के नीचे बसने वाले देश के बाइस करोड़ लोगों को ऊपर उठाने के लिए भी कोई खबर दिखाते हैं। कलाम ने A+B+C पर मीडिया को काम करने की सलाह दी। A यानी देश की जीडीपी, देश के विकास में मीडिया का योगदान, B यानी देश की बाइस करोड़ जनता जो, गरीबी रेखा से नीचे है, उनके लिए मीडिया क्या कर सकता है और C जो, कलाम ने सबसे जरूरी बताया वो, ये कि देश में वैल्यू सिस्टम को बनाए रखने में मीडिया की भूमिका।
सवाल जायज था लेकिन, मीडिया के दिग्गजों में से किसी से भी इस बात का जवाब देते नहीं बना। अब अगर हम कलाम साहब की इस बात को समझ सकें तो, ये भी समझ में आ जाएगा कि मीडिया में किस तरह के कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत है। मीडिया समाज को आगे बढ़ाने में मदद करता है तो, मीडिया की विश्वसनीयता और मीडिया का सम्मान बढ़ता है और इस सम्मान पर खरा उतरने का दबाव ही मीडिया के लिए सबसे बढ़िया कोड ऑफ कंडक्ट हो सकता है।
कोड ऑफ कंडक्ट का सवाल सिर्फ स्टिंग ऑपरेशन से ही नहीं आ रहा है। भूत-प्रेत-ओझा-बाबा-अजब-गजब दिखाने की टीवी चैनलों की होड़ ने भी मीडिया को कोड ऑफ कंडक्ट के दायरे में बांधने की राय मजबूत की है। हाल ये है कि गाल में भाला घुसेड़ने वाला आधे घंटे तक लगातार टीवी की टीआरपी बढ़ाता रहता है। टीआरपी के भय से ही कभी भी कोई भी हिंदी चैनल लगातार चार-पांच घंटे तक या शायद फिर दिन भर भूत-प्रेत-आत्मा-हवेली में घुंघरू की झनकार-हत्यारा प्रेमी/प्रेमिका-हिला देना वाला खुलासा-टीवी की अब तक की सबसे सनसनीखेज खबर-टेलीविजन इतिहास में पहली बार-14 साल के गांव के बच्चे में अमेरिकी वैज्ञानिक की आत्मा, जैसे शीर्षकों से खुद को बेचने की कोशिश करता रहता है।
इसी टीआरपी की वजह से टीवी इस्तेमाल भी हो रहा है। कोई राखी सावंत और मीका कई हफ्तों तक टीवी की सबसे बड़ी सुर्खी बने रहते हैं। और, साफ है कि दोनों ने पब्लिसिटी के लिए ये काम किया नहीं तो, एक दूसरे के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाए हर सार्वजनिक मंच पर उसी बात को उछालने की कोशिश क्यों करते। उदाहरण एक नहीं है। ताजा उदाहरण है टीवी एक्ट्रेस श्वेता तिवारी और उसके पति राजा का। दोनॆ ने मारपीट की और मीडिया में खूब दिखने के बाद कहा- मीडिया को उल्लू बन दिया। हमें तो, सिर्फ पब्लिसिटी चाहिए थी।
मीडिया का इस्तेमाल और इसके प्रति लोगों की राय का अंदाजा सुपर स्टार शाहरुख खान के एक बयान से अच्छे से लगाया जा सकता है। शाहरुख मानते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहुतों को नहीं पता कि उन्हें क्या करना चाहिए। उनका कहना है कि उनका रिश्ता मीडिया के सिनर्जी का है वो, मीडिया का इस्तेमाल करते हैं और मीडिया उनका।
वैसे कुछ इस्तेमाल करने के चक्कर में टीवी पत्रकार बेकार भी बन रहे हैं। किसी भी बिकाऊ वीडियो पर न्यूजरूम में सिर्फ एक ही आवाज आती है सीधे चला दो। इसमें करना ही क्या है। चैनलों पर तो, आधे-एक घंटे तक देश के किसी भी हिस्से में लोगों को हंसा रहे राजू श्रीवास्तव या फिर कोई दूसरा कॉमेडी कलाकार लाइव कटा रहता है। उससे छूटे तो, कहीं कोई सुंदर बाला देह दर्शना नृत्य या कृत्य कर रही हो तो, उसे लाइव काट दीजिए।
कुछ एक न्यूज चैनल में तो, कुछ प्रोड्यूसर इसीलिए रखे जाते हैं कि उन्होंने एंटरटेनमेंट चैनलों को ध्यान से देखा उसको रिकॉर्ड कराया। उसके बीच-बीच में तीस-चालीस सेकेंड के कुछ लच्छेदार एंकर लिंक डाले और 9 मिनट का ब्रेक मिलाकर तीस मिनट का बढ़िया टीआरपी वाला बुलेटिन तैयार कर डाला। शायद इसके लिए भी किसी न किसी कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत है।
लेकिन, क्या मीडिया में सरकारी कोड ऑफ कंडक्ट के दबाव में एक्सलेंट जर्नलिज्म हो पाएगा। जाहिर है अखबार या टीवी चैनल ऐसा होना चाहिए जिसमें रोटी-दाल-चावल-सब्जी-अचार-मसाला सबकुछ हो। लेकिन, क्या कभी भी किसी खाने की थाली में अचार या मसाला सबसे ज्यादा हो सकता है। तीखा से तीखा खाने वाले भी दो-तीन मिर्च या छोटी कटोरी में अचार से ज्यादा नहीं पचा पाते। लेकिन, रोटी-दाल-चावल तो सबको पेट भरके चाहिए ही।
एक्सलेंस जर्नलिज्म के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया सचमुच एक बड़ा उदाहरण है जो, बाजार और पढ़ने वालों की जरूरतों के लिहाज से खुद को लगातार एक्सलेंट बनाता जा रहा है। लेकिन, अंग्रेजी और अग्रेजी बिजनेस जर्नलिज्म (द इकोनॉमिक टाइम्स) में बेहतर काम करने वाला टाइम्स ग्रुप भी हिंदी (नवभारत टाइम्स) में ये काम नहीं कर पा रहा है।
देश के सबसे बड़े हिंदी अखबारों दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर को अग्रेजी के टाइम्स ऑफ इंडिया से सबक लेना चाहिए। टाइम्स ऑफ इंडिया भी ज्यादातर इसी बात के लिए चर्चा में रहता है कि उसके दिल्ली या मुंबई टाइम्स या फिर सप्लीमेंट के रंगीन पन्नों पर सुंदर फोटो होते हैं। लेकिन, इसी के बीच जैसे-जैसे अखबार मजबूत(सर्कुलेशन के लिहाज से) और कमाऊ (विज्ञापनों के लिहाज से) बनता गया। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबरों की गुणवत्ता बेहतर होती गई। अब तो, शनिवार-रविवार के टाइम्स के अतिरिक्त पन्ने इंडियन एक्सप्रेस को भी कई बार मात देते दिखते हैं।
इसलिए जरूरत इस बात की है कि हिंदी में भी टीवी न्यूज चैनल और अखबार इस दबाव से बाहर निकलें कि टीआरपी के लिए अपना मन मारकर शो चलाना ही पडेगा नहीं तो, मुकाबले में नहीं रह पाएंगे। क्योंकि, अगर टीआरपी और सर्कुलेशन के दबाव में टीवी-अखबार कुछ भी भौंडा सा चलाकर ये तर्क देकर बचते रहे कि लोग यही पसंद करते हैं। तो, फिर मीडिया में काम करने वालों को लोकतंत्र का चौथा खंभा समझने की गलती कोई क्यों करे। कोई क्यों मीडिया के लोगों का सम्मान करे। प्रियरंजन दासमुंशी जैसे लोग क्यों मीडिया को कोड ऑफ कंडक्ट के सरकारी डंडे से हांकने का मन न बना लें।
वैसे, भूत-प्रेत और टीआरपी की खबरें दिखाने वाले टीवी चैनलों को चलाने वाले और उसमें काम करने वाले भी इससे ऊब चुके हैं और इस वजह से टीवी चैनलों में आई एक बड़ी जमात इससे भागने की भी तैयारी में है। 100 करोड़ से ज्यादा का देश है। टीवी चैनल और अखबार हिम्मत तो, करें देश में भूत-प्रेत-अपराध, स्टिंग ऑपरेशन पसंद करने वाले टीवी देखने और अखबार पढ़ने वालों से कई गुना ज्यादा लोग अभी एक्सलेंट जर्नलिज्म को गुड बिजनेस बनाने के लिए तैयार हैं।
मीडिया पर भरोसा रखने वाले और इसे गाली देने वाले दोनों ही वर्गों के लोग ये मानते हैं कि मीडिया में किसी को भी आदर्श और भ्रष्ट बना देने की ताकत है। इसलिए कोड ऑफ कंडक्ट तो जरूरी है। लेकिन, मीडिया के लिए कोड ऑफ कंडक्ट जनता का भरोसा बचाए रखने के दबाव से आना चाहिए। इस्तेमाल होने और इस्तेमाल करने की मानसिकता से बाहर निकलने से।
अच्छा लिखा है। मीडिया उत्तरोत्तर बेलगाम हो कर सरकार को नकेल कसने का मौका दे रहा है। श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने ऐसा किया था तो जनमत ने मीडिया का पक्ष लिया था। अब किसी ने किया तो कोई आंसू बहाने वाला नहीं आयेगा।
ReplyDeleteउससे अच्छा है कि मीडिया खुद पर लगाम लगा ले।
आपकी बात से सहमत हूं।
ReplyDeleteसवाल जायज था लेकिन, मीडिया के दिग्गजों में से किसी से भी इस बात का जवाब देते नहीं बना।
ReplyDeleteअफ़सोस की बात है।
सहमति.
ReplyDeleteहर्षवर्धन जी, केवल ब्लॉग्स पर ये बातें लिखने से कुछ नहीं होता। आख़िर आप भी किसी टीवी चैनल में जिम्मेदार पद पर हैं. इस बात पर गौर कीजिये कि दिनभर में कितनी दफा आपकी पत्रकारिता, नौकरी के ऊपर हावी होती है। हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा। शुरुआत तो किसी न किसी को करनी ही होगी......... विचार तो अच्छे हैं लेकिन पहल कौन करेगा.
ReplyDeleteआपने नाम नहीं लिखा। नाम लिखा होता तो अच्छा होता। मैं उस दिशा में सोचता हूं इसीलिए ब्लॉग पर लिखता हूं। जहां, तक पत्रकारिता पर नौकरी हानी होने की बात तो, दोनों को दो ध्रुवों में रखने के भ्रम से ही बड़े सवालों पर सवाल ही खड़े किए जा सकते हैं। जवाब देना मुश्किल होता है।
ReplyDeleteलगाम लगाना बहुत गलत होगा, मगर इसके लिए जिम्मेदार भी स्वयं मीडिया ही होगा. दोनो बाते दूरभाग्यपूर्ण है. अपनी आज़ादी को समझदारी पूर्वक बचा लेना कठीन कार्य है.
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छा लिखा है। मिडिया इस समय बहुत पक्षपातपूर्ण , अविश्वसनीय और अनावश्यक मुद्दों की रिपोर्टिंग करने लगा है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान उनका ही उआ है। लोग मिडिया को गम्भीरता पूर्वक लेते ही नहीं।
ReplyDeleteसबसे हल्कापन तो तब दिखता है जब पत्रकार रिपोर्टिंग करने के बजाय एक 'पार्टी ऐक्टिविस्ट' की तरह व्यवहार करता हुआ दिखता है।