Friday, July 31, 2009

ये फैसला थोड़ा और सही होना मांगता है

सड़क किनारे या किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई भी धार्मिक स्थल न बने। मतलब ये कि ऐसी किसी जगह पर मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा न बने जो, रास्ते के बीच में हो। आम लोगों के लिए परेशानी की वजह बन जाए। सुप्रीमकोर्ट ने आज ये फैसला सुनाया है। अदालत ने सरकार से चार हफ्ते में इस पर हलफनामा दाखिल करने को कहा है।


ये फैसला आया है गुजरात हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुनवाई के दौरान। गुजरात हाईकोर्ट ने रास्ते में सार्वजनिक स्थल पर लोगों के लिए परेशानी की वजह बनने वाले सभी अवैध मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च तोड़ने का आदेश दिया है। जिसे लागू कराने की वजह से नरेंद्र मोदी विश्व हिंदु परिषद और अपने ही सहयोगियों के निशाने पर हैं।


लेकिन, आज सुप्रीमकोर्ट का जो फैसला आया है उसमें अभी के ऐसे स्थलों को छूट दे दी गई है। सिर्फ इस दलील की वजह से कि अभी अवैध धार्मिक स्थलों को तोड़ने में कानून व्यवस्था की दिक्कत हो सकती है। लेकिन, मुझे लगता है कि इतने अच्छे फैसले में बस यही खामी रह गई है। क्योंकि, देश के लगभग हर शहर में ऐसे मंदिर, मस्जिद या दूसरे धार्मिक स्थल कही सड़क के बीच में तो, कहीं बस अड्डे के पास या फिर रेलवे पटरी के बगल में दिख जाते हैं।


हमारे शहर इलाहाबाद के सबसे संपन्न बाजार सिविल लाइन्स में ही सड़क पर ही एक मस्जिद है जहां सड़क पर नमाज अता की जाती है। और, इसकी वजह से उतने समय के लिए सड़क का वो हिस्सा बंद कर दिया जाता है। अब अगर सभी अवैध धार्मिक स्थलों को तोड़ा जाएगा बिना किसी भेदभाव के तो, फिर कानून व्यवस्था का हाल खराब क्यों होगा। और, होगा तो भई अवैध कामों को ठीक करने के लिए ही तो कानून है ना। इस्तेमाल करो उसका। जब मोदी अवैध मंदिर तुड़वाने का खतरा ले सकते हैं तो, फिर दिक्कत किसे है ...

Thursday, July 30, 2009

हमें गिरते जाना है

क्या ये सच नहीं है कि एक बड़े पत्रकार की विधवा आपके न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी वाले घर में करीब 2 साल रही और उसको अपने साथ पत्नी की तरह रखते थे


क्या ये भी सच नहीं है कि उस महिला के साथ आपके रिश्ते खराब होना तब शुरू हुए जब आपने उसकी बेटी पर भी बुरी नजर डालनी शुरू कर दी


एक सच ये भी है कि आप बाराखंभा रोड के सूरी अपार्टमेंट में अकसर जंगल विभाग, राजबाग के एक कर्मचारी की विधवा से मिलने जाते हैं


क्या ये सच नहीं है कि एक पूर्व न्यायाधीश की बेटी आपके साथ आपके बारामूला वाले घर में करीब दो महीने रहती थी


दिल्ली के एक सिनेमाघर के मालिक के बहन के साथ क्या आपके अवैध रिश्ते नहीं थे। जब आप दिल्ली जाते हैं तो, उसके दरियागंज वाले घर में रहते हैं


क्या आपने अपनी भतीजी को करीब 6 सालों तक अपने साथ companion बनाकर रखा था


ये सवाल किसी सच का सामना शो में किसी एंकर ने किसी सेलिब्रिटी या फिर किसी आम आदमी या औरत से नहीं पूछे हैं। ये सवाल पूछे गए हैं जम्मू कश्मीर विधानसभा में PDP नेता मुजफ्फर बेग से। सवाल पूछने वाले थे नेशनल कांफ्रेंस के विधायक नाजिर अहमद गुराजी। यहां कोई पॉलीग्राफ टेस्ट नहीं था। ये सवाल पब्लिक के सामने नहीं बल्कि बेहद सम्मानित विधानसभा सदस्यों के सामने पूछे जा रहे थे। न पॉलीग्राफ था न जनता का दबाव। तो, मुजफ्फर बेग ने सवालों की लिस्ट फाड़कर हवा में उड़ा दी। लेकिन, सवाल तो उठ चुके हैं हवा में तो उड़ेंगे नहीं।



लगातार तीसरे दिन जम्मू कश्मीर विधानसभा ने गिरने के पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। पहले पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने शोपियां बलात्कार मामले पर स्पीकर का ही माइक तोड़ डाला। खैर, स्पीकर ने भी महबूबा के साथ कुछ सड़कछाप लफंगों जैसी भाषा में ही बात किया था- स्पीकर ने कहा मुझे पता है कि तुम किस खेत की मूली हो। इसके दूसरे ही दिन मुजफ्फर बेग ने मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पर 2006 के सेक्स स्कैंडल में शामिल होने का आरोप लगा दिया।



मेरा भी ये मानना है कि उमर अब्दुल्ला प्रतिभावान मुख्यमंत्री हैं। और, उनके ऊपर लगे ये आरोप बेबुनियाद हैं। लेकिन, CBI ने जो घंटे भर में ही चीते जैसी फुर्ती से बयान जारी किया कि उमर का नाम 2006 के सेक्स स्कैंडल में था ही नहीं वो, तो निश्चित तौर पर राहुल की यूथ ब्रिगेड में उमर की एंट्री का ही प्रताप था। वरा तो बहुत जरूरी मामलों में भी CBI का बयान कछुए की रफ्तार में भी आ जाए तो, बड़ी बात।


हिंदी फिल्म का एक गाना है कि हमें चलते जाना है ... बस चलते जाना। हमारे राजनेता भी कुछ उसी तर्ज पर कह रहे हैं हमें गिरते जाना है ... बस गिरते जाना ...



जम्मू कश्मीर की विधानसभा इस गिरते जाने का बस एक उदाहरण भर है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में जमकर चले जूते-चप्पल और माइक किसी के भी जेहन से धूमिल नहीं हो सकते। दूसरी विधानसभाओं में भी ऐसे हादसे आम हो चुके हैं। आंध्र प्रदेश विधानसभा में भी सीधे-सीधे मुख्यमंत्री पर पैसे लेकर प्रोजेक्ट देने का आरोप लगा था।


संसद भी इससे अछूती नहीं रही है। जनता दल यूनाइटेड के सांसद प्रभुनाथ सिंह और लालू प्रसाद के साले साधु यादव का संवाद भी किसी को भूला नहीं होगा। पैसे लेकर सवाल पूछना, काम के लिए सांसद-विधायक निधि जारी करने से पहले कमीशन दबा लेना ये सब तो अब ऐसी खबरें हो गई हैं। जिस पर अब जनता भी कान नहीं देती। वैसे जनता भी क्या कान देगी। वो भी तो नेताजी जैसा ही बनना चाहती है। और, तो और जातियों के लंबरदार खुद साबित करने में जुटे हैं कि वो नीचे गिर गए हैं, मान लो।


अब इतना गिर जाने के बाद कैसे साहस होता कि ये सांसद सच का सामना शो को बंद करा पाते। आखिर सच का सामना से पैदा हो रही गंध से ज्यादा नरक तो ये फैला ही रहे हैं। यही वजह रही होगी कि सच का सामना पर हड़काने के लिए स्टार प्लस को नोटिस जारी कर उसका सार्वजनिक प्रपंच तो रच दिया गया। लेकिन, बंद कमरे में जब बात हुई तो, सब एक ही धुन पर आंख बद कर लेट गए – हमें गिरते जाना है ... बस गिरते जाना

Monday, July 27, 2009

जो कुछ किया सिर्फ हमने किया

करगिल भारतीय इतिहास का ऐसा पड़ाव है जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इस महान विजय दिवस को 10 साल पूरे हो गए और मीडिया ने जिस तरह से करगिल के शहीदों, जवानों पर खास कार्यक्रम पेश किए उससे निश्चित ही देश में देशप्रेम की भावना उफान मार रही होगी। मीडिया ने तो अपना काम बखूबी किया। लेकिन, मैंने कल और आज (26 और 27 जुलाई) के सारे अखबार देख डाले उसमें कहीं भी एक छोटा सा भी विज्ञापन सरकार की ओर से शहीदों की याद करने वाला नहीं दिखा।


अखबारों में आधे से ज्यादा पेज पर रविवार, सोमवार दोनों ही दिन करगिल के शहीदों की याद दिलाने वाली खबरें छपी थीं। टीवी चैनलों (हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही) पर तो शनिवार से ही करगिल के हर पहलू को याद दिलाने वाले खास शो चल रहे हैं। जिन्हें करगिल कम याद होगा। वो, भी उससे जुड़ गए होंगे। फिर क्या वजह है कि सरकार इसे याद करने से भी बच गई। हमें क्या सबको ही ये अच्छे से दिखता होगा कि कैसे गांधी परिवार में किसी की भी पुण्यतिथि हो तो, जाने कितने मंत्रालयों की तरफ से विज्ञापनों की कतार लगी होती है।



अरे छोटी सी उपलब्धि किसी मंत्रालय की होती है तो, एकाध पेज का विज्ञापन तो ऐसे ही चला जाता है। फिर देश को, देश के सम्मान को बचाने वाले इस दिन को सरकार कैसे भूल गई। क्या सिर्फ इसलिए कि ये महान विजय बीजेपी के शासनकाल में आई थी। क्या अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते जो कुछ भी देश के लिए हासिल किया वो, इतिहास में दर्ज नहीं होगा। क्या कांग्रेस ये तय करके बैठी है कि देश में आने वाली पीढ़ी को यही पता लगेगा कि आजादी से लेकर आज तक देश में जो कुछ हुआ है वो सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की सरकार ने किया है।


अगर ऐसा न होता तो, क्या वजह है कि करगिल विजय दिवस मनाने से सरकार डर रही है। अब तो चुनाव भी 5 साल बाद हैं। क्या वजह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय शुरू हुई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना की रफ्तार बहुत कम कर दी गई है। ऐसा नहीं है कि यूपीए के समय सड़कें नहीं बन रही हैं। खूब बन रही हैं कि लेकिन, उस योजना की कामयाबी लोगों के जेहन से मिटाने की हर कोशिश ये सरकार कर रही है।


अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने ही देश के सभी किनारों को जोड़ने वाली स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क योजना की ही तरह नदियों को जोड़ने की योजना का भी प्रस्ताव लाया था। अब उस पर कोई चर्चा ही नहीं है जबकि, अगर ये काम हो जाए तो, देश के एक हिस्से की बाढ़ और दूसरे हिस्से के सूखे के असंतुलन को बहुत कम किया जा सकता है। ऐसे ही चुनाव के समय चिदंबरम और प्रधानमंत्री तक बता रहे थे कि देश के पैसे को काला धन बनाकर जितना भी पैसा विदेश ले जाया गया है उसे सरकार हर हाल में वापस ले आएगी। लेकिन, अब उस पर कुछ सुनाई इसलिए नहीं दे रहा कि बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने ये मुद्दा जोर-शोर से उठाया था। बताइए न मैं गलत कह रहा हूं क्या ...

Saturday, July 25, 2009

तुम लोग बेवकूफी की बात कब बंद करोगे

तुम लोगों के पास थोड़ी भी अकल है या नहीं। या पुराना फंसा हुआ रिकॉर्ड हो गए हो तुम मीडिया वाले। जहां अंटक गए उसके आगे बढ़ ही नहीं पाते। दरअसल तुम लोगों का दोष भी नहीं है। तुम लोग क्या जानो कानून के बारे में। लेकिन, मैं तो जानता हूं इसलिए मेरी बात सुनो।



और, अब तो मैं गृहमंत्री भी हूं। बड़ा वकील हूं बड़ा मंत्री हूं। अब दुबारा मत पूछना कि अफजल को फांसी देने में हमारी सरकार देर क्यों कर रही है। चलो तुम बेवकूफों को मैं समझा देता हूं। अफजल गुरु को जब फांसी की सजा सुनाई गई है। और, अभी तक कुल फांसी के 28 मामले हैं। उन 28 मामलों में अफजल का नंबर 22वां है। तो, जाहिर है हमारी सरकार कानून तोड़कर तो अफजल को फांसी देगी नहीं। पहले 21 लोगों को फांसी चढ़ने दीजिए फिर अफजल की बात करिएगा।



अब कसाब का भी ट्रायल चल ही रहा है। कसाब के कबूलनामे के बाद भी विशेष अदालत के न्यायाधीश महोदय पता नहीं क्यों कह रहे हैं कि फैसला अभी नहीं सुनाया जाएगा। फैसले के लिए कसाब का कबूलनामा रिकॉर्ड के तौर पर रखा जरूर जाएगा। बड़ा एहसान मुंबई हमले में कसाब और दूसरे उसके साथी आतंकवादियों की गोली से मारे गए लोगों के परिजनों पर। मारे गए लोगों की आत्मा को भी इतनी शांति तो मिल ही रही होगी तो, आज नहीं तो कल आंतकवादी अंजाम तक पहुंचेंगे।



अरे लेकिन, इसमें मुश्किल है। क्योंकि, कसाब का नंबर तो अगर तुरंत फांसी सुनाई जाए तो, 29वां हो जाएगा। तो, पहले 21 फिर, 22वां अफजल, फिर 29वां कसाब फांसी चढ़ेगा। और, अपने गृहमंत्रीजी तो बहुत दुखी हैं। कह रहे हैं कि तुम मीडिया के बेवकूफों को तो पता नहीं होता। फांसी चढ़ने से ज्यादा कष्ट वो झेल रहे होते हैं जो, फांसी दिए जाने का इंतजार कर रहे होते हैं। वाह रे समझदार सरकार और उसके समझदार गृहमंत्री ... लेकिन, हम तो भइया बेवकूफ ही भले

Friday, July 24, 2009

तर्क नहीं बस इस सवाल का जवाब दे दीजिए

राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा दिया कि उन्हें कॉण्टिनेंटल एयरलाइंस ने कोई माफीनामा नहीं भेजा है। अभी तक तो ये था कि कलाम साहब से एयरलाइंस ने माफीनामा मांग लिया है। लेकिन, ये भी बता दिया है कि आगे भी वो उनकी सुरक्षा जांच करने से बाज नहीं आएगी। अब तो लीजिए साहब ये साफ हो गया कि कलाम से एयरलाइंस ने माफी भी नहीं मांगी।

इस पर विपक्ष ने खूब हंगामा मचाया। एयरलाइंस का लाइसेंस रद्द करने की मांग तक कर डाली। लेकिन, अपने देश में अब विपक्ष की बात पर सत्ता पक्ष तो क्या कोई भी लोड नहीं लेता। नया फंडा है सिर्फ हंगामा करने के लिए कर रहे हैं। लोगों को ये बड़ा मुद्दा भी नहीं लगता। सुरक्षा जांच के नाम पर कलाम साहब के जूते उतरवाने और लाइन में खड़ा रखने की खबर पर मीडिया ने नया सवाल उछाला।


क्या ये वक्त नहीं आ गया है कि VIP को सुरक्षा जांच से छूट मिलनी बंद होनी चाहिए?


अमेरिकी एयरलाइंस कुतर्क कर रही है कि 'वो ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन के नियमों के मुताबिक, एयरक्राफ्ट में चढ़ने से ठीक पहले एयरोब्रिज पर सुरक्षा जांच जरूरी है। और, अमेरिका से दुनिया भर में जाने वाली सभी उड़ानों में ये नियम लागू है। इस नियम से किसी को छूट नहीं है। '


मेरा सवाल ये है कि क्या हिलेरी क्लिंटन, बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश और अभी ओबामा की भी उसी तरह जांच होती है जैसे कलाम साहब की की गई है? मुझे नहीं लगता। देश में अचानक तटस्थ हो गए लोग ये सवाल तो उठा रहे हैं कि बेवजह छोटी सी बात पर विपक्षी हंगामा कर रहे हैं। लेकिन, क्या हमारी सरकार ये भी साहस दिखा सकती है कि अगली बार कोई भी अमेरिकी या कोई और तथाकथित VIP हमारे देश की किसी एयरलाइंस में सफर करे तो, उसकी भी सुरक्षा जांच उसी तरह से हो जैसे कलाम की हुई।

Thursday, July 23, 2009

दलितों के बलात्कार की कीमत मिलती रहेगी

माफ कीजिएगा मैं ये लिखना नहीं चाहता था। लेकिन, न्यूज एजेंसी PTI पर आई इस खबर के बाद मैं खुद को रोक नहीं पाया। अपनी बहनजी की ही सरकार में दलितों का सम्मान बच नहीं पा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने तो एक बयान देकर खुद का और पार्टी का काम फिट कर लिया। लेकिन, उस बयान का झटका (अंग्रेजी में Aftereffect) एक के बाद एक लगता ही जा रहा है।


अब सुनिए जरा यूपी के गृह सचिव महेश कुमार गुप्ता क्या कहा रहे हैं। मैं PTI पर आया उनका बयान वैसे का वैसा ही छाप रहा हूं- "Now, District Magistrates in presence of concerned SP and DIG will hand over cheques to Dalit rape victims"। यानी प्रदेश सरकार दलितों की इज्जत नहीं बचा पाएगी। इसीलिए दलितों के बलात्कार को वो एक सामान्य घटना मान रही है जो, होती रहेगी और इसीलिए इस पर कानून बना दिया कि अब पीड़ित दलितों को चेक जिलाधिकारी ही दे दिया करेंगे। यानी दलितों के साथ व्यवहार वैसा ही होता रहेगी जिसके खिलाफ लड़झगड़कर, मायावती के पीछे जय भीम-जय भारत का नारा लगाकर इन्होंने मायावती को राज्य का 'मुख्तार' बना दिया है। यानी इनकी पूज्य बहनजी इनके सम्मान बचाने का भरोसा नहीं दे सकतीं। लेकिन, बहनजी जगह-जगह पत्थर के हाथी जरूर लगवा रही हैं जिससे इन्हें लगे कि सत्ता में इनकी हिस्सेदारी बनी रहेगी।



अब ये भी जान लीजिए कि दलित लड़कियों-महिलाओं के बलात्कार की कीमत देने के तरीके में ये बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि, कांग्रेस अध्यक्ष रीता जोशी ने ये कह दिया था कि जितनी रकम सरकार पीड़ित दलितों के जख्म पर मरहम लगाने के लिए दे रही है उससे ज्यादा राज्य के पुलिस प्रमुख के हेलीकॉप्टर से वहां पहुंचने पर खर्च हो जाता है। खबर के मुताबिक, एक जून से DGP राज्य में 18 जगहों पर पीड़ित दलितों को चेक देने जा चुके हैं।


अब अगर राज्य सरकार को जरा भी शर्म होती तो, ऐसे नियम बदलने और उसकी जानकारी के लिए गृह सचिव को न तैनात करती। अच्छा तो ये होता कि मायावती ये दिखा देतीं कि पहले तो किसी दलित क्या राज्य की किसी लड़की अस्मिता से कोई खिलवाड़ नहीं कर पाएगा। और, उस कानून के बारे में उनका गृह सचिव मीडिया को बताता जिसे सुनकर किसी बदमाश, लफंगे की हिम्मत न होती कि किसी की इज्जत की ओर आंख उठाकर भी देखता।

Wednesday, July 22, 2009

सूर्यग्रहण के बहाने

360 साल बाद ... यानी अगर मैं अपने पूर्वजों की उम्र औसत 60 साल भी मानूं तो, मेरे पिताजी के पहले की 5 पीढ़ी ऐसा ग्रहण नहीं देख पाई होगी। और, अब आगे ये दिखेगा 123 साल बाद ... यानी मेरे बाद की कम से कम 2 पीढ़ी ऐसा सूर्यग्रहण नहीं देख पाएगी। खैर, मैं टीवी युग में हूं इसलिए मजे से अपने शहर इलाहाबाद (प्रयागराज) और बगल के वाराणसी (काशी) से लेकर बिहार के तारेगना और चीन तक का सूर्यग्रहण देख लिया।



पत्नी ने उठा दिया। सुबहै से बइठे-बइठे चैनल परिक्रमा के जरिए बहुत कुछ देखा। देखा कि कइसे तारेगना में बेचारे बस तारे ही गिनते रह गए-बादल के आगे न सूरज दिखा और न उसका गहन। पता नहीं कल ही सारे चैनलों पर ये स्टोरी खूब चली कि कैसे तारेगना देश का क्या दुनिया का एक बड़ा पर्यटन स्थल बन गया है। खैर मैं तो चाहकर भी रोज सुबह जल्दी नहीं उठ पाता। आज सूर्यग्रहण के बहाने उठ गया।


सुबह उठकर ब्लॉगरी का कोई इरादा नहीं थी। लेकिन, टीवी पर रवीश की कुछेक लाइनों ने पोस्ट लिखने की जरूरत पैदा कर दी। एनडीटीवी पर अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलाते-चलाते रवीश अचानक कुछ ज्यादा ही आलोचक अंदाज में आ गए। बोल दिया कि घाट पर बैठने वाले पोंगा पंडितों की कमाई पर FBT यानी फ्रिंज बेनिफिट टैक्स लगाया जाए। ये अनमोल सुझाव वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को रवीश ने फेसबुक के जरिए भी दिया है।



मैंने फेसबुक पर रवीश के इस सुझाव पर छोटा सा सवाल उठाया है - किन पंडितों पर ... किसी घाट पर गउदान कराने वाले या फिर आपके पास बैठे -टीवी स्टूडियो में विचरण करने वाले श्रेष्ठ गैर अंधविश्वासी पंडितों पर


मेरी टिप्पणी के ठीक नीचे फेसबुक किन्हीं महेंद्र गौर ने इस टिप्पणी के जरिए आरक्षण नीति पर भी तंज कसा है - जब आपको टीवी पर सुनते हैं तो आप फेसबुक और गूगल की बाते करते हैं! और यहाँ आप पहले से ही जमकर बेचारे पंडितो के पीछे पड़े हैं! अरे भाई सारी नौकरिया अगर रिजेर्वेशन की भेट चढ़ गयी तो बेचारा पंडित क्या सदी में एक बार भी नहीं कमाएगा!



खैर, मेरा जो अपना अनुभव है उससे तो रवीश का ये सुझाव सिर्फ अंधविश्वास की आलोचना और उसके लिए पंडितों को जिम्मेदार मानते हुए उन पर प्रहार करने की कोशिश में उछाला गया एक हास्यास्पद जुमला ही दिखता है। रवीश की रिपोर्टिंग देखकर मैं प्रसन्न होता हूं। लेकिन, अकसर मैंने ये देखा है कि रवीश किसी अच्छी चीज की मुहिम चलाते-चलाते टीवी पर पता नहीं किस पूर्वाग्रह के प्रभाव में आ जाते हैं।



आज सूर्यग्रहण के बहाने भी कुछ ऐसा ही हुआ। रवीश परंपरा को बचाने-समझने और अंधविश्वास पोंगापंथी को तोड़ने की शानदार मुहिम में लगे थे। लेकिन, अब जरा रवीश के इसी सुझाव को समझने की कोशिश करते हैं कि पंडितों की कमाई पर FBT लगना चाहिए। मैं जाति से ब्राह्मण हूं। अब मुझे तो अपने आसपास में गिने चुने ऐसे पंडित दिखे हैं जो, पंडिताई करके इतनी कमाई कर पाते हों कि वो बेचारे टैक्स की लिमिट तक में आ पाएं।


सत्यनारायण कथा कराने से लेकर भागवत कराने के महा आयोजन तक एक पंडित 50 रुपए से लेकर एक गाय, कुछ बर्तन, धोती-कुर्ता और कुछ सौ से लेकर हजार तक से ज्यादा दक्षिणा शायद ही कमा पाता हो। मैंने खुद देखा है हमारे पूरे समाज में शायद ही कोई अपनी लड़की उस परिवार में देना चाहता हो जो, पूरी तरह से पंडिताई की कमाई पर आश्रित हो। हां, रवीश की बगल में बैठे टीवी स्टूडियो-स्टूडियो घूमने वाले ज्योतिषी, पंडितों (जरूरी नहीं है कि वो जाति से भी ब्राह्मण हों) की कमाई संभवत: इतनी कमाई जरूर होती होगी। कुछ मठ-मंदिर के आचार्यों की भी कमाई ऐसी हो सकती है लेकिन, वो बमुश्किल एक परसेंट से ज्यादा होंगे।



रवीश कह रहे थे कि पंडितों की कमाई पर टैक्स लग जाए और उनके जैसे लोगों की कमाई पर FBT हट जाए। मैं ब्राह्मण भी हूं और रवीश जैसा भी यानी टीवी वाला जिनको मिलने वाली कुछ सुविधाओं पर FBT लगता है। मैं अगर पंडिताई करने वाला होता तो, मुझे नहीं लगता कि FBT क्या साधारण टैक्स वाली कतार में भी खड़ा हो पाता।



एक और बात जो, रवीश ने इलाहाबाद-बनारस के किनारे गउदान करते लोगों की फुटेज देखकर कही। गउदान करने से कुछ नहीं होगा। रवीश ने कहाकि दो-चार हजार की गाय देकर कोई अपने पाप नहीं काट सकता, चोरी किया है तो उसकी सजा से बच नही सकता। ये किसने कहाकि आप चोरी करके जाइए गउदान करिए और चारी की सजा से बच जाइए। पहली बात तो, अब शादी-मृत्यु जैसे अवसरों को छोड़ दें तो, गिने-चुने सामर्थ्यवान लोग ही गउदान करते हैं वरना तो, 11 से 101 रुपए में गाय की पूंछ पकड़कर पुण्य करने के भ्रम में जी लेते हैं।



अब सवाल ये है कि पर्यावरण-जमीन पर शानदार स्पेशल रिपोर्ट करने वाले रवीश गउदान की आलोचना करते समय इस तर्क को ज्यादा अच्छे से क्यों नहीं प्रतिस्थापित कर पाते कि गाय खरीदकर दान कीजिए। खुद भी गाय पालिए उसकी सेवा कीजिए और शुद्ध दूध पीजिए, स्वस्थ रहिए। अमूल, मदर डेयरी के पैकेट वाले दूध की चर्चा रवीश ने की। लेकिन, सोचिए गाय अगर बढ़ें तो, मिलावटी दूध की डराने वाली खबरों से भी हम बच पाएंगे। हां, दर्शक छूटने के डर से एनडीटीवी हेडलाइन की पट्टी में नदियों में पवित्र स्नान लिखना नहीं छोड़ पा रहे थे। आधुनिक तर्कों पर चलें तो आखिर ये भी तो मिथ ही है कि गंगाजल पवित्र है। वैसे वाराणसी, इलाहाबाद और कुरुक्षेत्र के घोर पारंपरिक और पता नहीं कितन अंधविश्वासी लोगों का नदियों किनारे जमावड़ा ही था जिसने सूर्यग्रहण के अद्भुत नजारे के बीच भी टीआरपी के लिए अपनी पूरी जगह बना ली थी। शायद इन्हीं दर्शकों के चक्कर में रवीश और उनकी साथी एंकर बार-बार ये सफाई देने से नहीं चूकते कि परंपरा को समझिए-जानिए लेकिन, उसके साथ पनपे अंधविश्वास को खत्म करिए। ये बात एकदम सही है इस बात पर तो हम सब आपके साथ हैं।

Sunday, July 19, 2009

कांग्रेसी राजनीतिज्ञ, कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, राष्ट्रवादी सोच वाला नेता

रविवार की छुट्टी और जबरदस्त गर्मी की वजह से पूरा दिन घर में बिताया। और लगे हाथ टीवी पर फिल्म देख डाली। फिल्म को बीच से देख पाया। काबुल में कहीं नेताजी भटक रहे थे। भारत से भागने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस किस तरह से अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुंचते हैं। और, कैसे भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं के पत्र और आश्वासन के बाद भी नेताजी को सोवियत संघ अपने यहां आने की इजाजत नहीं देता।




फिल्म में तथ्य कितने सही थे-कितने गलत पता नहीं। लेकिन, जितना भी खोज पाए होंगे bose the forgotten hero फिल्म बनाने वालों ने सही ही दिखाया होगा। मैंने बहुत पहले एक कितना भी पढ़ी थी नेताजी पर। उसके और फिल्म के तथ्य काफी मिल रहे थे। मैं यही सोच रहा था कि आखिर उस समय कैसे एक नेता ने बिना जरूरी संचार माध्यमों, लोगों तक पहुंच और गांधी के प्रभाव के खिलाफ जाकर देश के लिए लोगों का जनमानस अपने लिहाज से तैयार किया होगा।



अपने देश में अपने देश के लोगों को देश के लिए तैयार करने की क्षमता नेताओं में नहीं दिख रही है। ऐसे हालात में नेताजी ने दुनिया के अलग-अलग देशों के भारतीय युद्धबंदियों और दूसरे देश में गए हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करना सचमुच बहुत मुश्किल काम रहा होगा।



मेरी बहुत इतिहास की जानकारी नहीं है। अपनी सामान्य समझ है। उसके आधार पर मैं जब नेताजी को समझने की कोशिश करता हूं तो, मुझे लगता है कि काश एक ऐसा नेता आज भारत को मिल पाता। एक कांग्रेसी राजनीतिज्ञ (आजाद भारत के पहले का), कांतिकारी कम्युनिस्ट विचार वाला और जबरदस्त नेशनलिस्ट (राष्ट्रवादी)- कुछ ऐसा था नेताजी का व्यक्तित्व। लेकिन, शायद यही वजह रही कि इस महान नेता की विरासत आगे बढ़ाने का काम न तो कांग्रेस करना चाहती है और न ही इस देश की वामपंथी और राष्ट्रवादी पार्टियां।



मान लो कि कांग्रेसी तो इसलिए याद नहीं करते कि गांधी का विरोध करके कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले नेताजी को याद किया तो, आजावीन कांग्रेस के नेता तो नहीं ही बन पाएंगे। वामपंथी  और राष्ट्रवादी पार्टी के लोगों को पता नहीं क्या तकलीफ है। याद भी करते हैं बस ऐसे ही याद भर करने के लिए। वामपंथियों में एक फॉरवर्ड ब्लॉक थोड़ा बहुत याद भी करता है तो, उसकी CPM, CPI  तो सुनते ही नहीं दूसरों को वो क्या सुना पाएगा।


मुझे लगता है कि नेताजी होते तो, आज पाकिस्तान न होता। बर्मा शायद भारत का हिस्सा होता। भारत इतना ताकतवर होता कि चीन उसकी जमीन पर कब्जा न कर लेता। देश में राष्ट्रवादी भावना इतनी प्रबल होती कि उसके चलते दूसरी राष्ट्रविरोधी भावनाओं को जगह न मिल पाती। हमारे जैसे भारतीयों को इस भ्रम में न जीना पड़ता कि हम कैसा देश बनें। भारत NAM ummit (गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन) की जगह G8 में शामिल होता।



दरअसल हुआ यही था कि अंग्रेजों के साथ गांधी जी के अहिंसा आंदोलन और शांति के रास्ते से आजादी के चक्कर में जवाहर लाल नेहरू तो अंग्रेज ही हो गए थे। उन्हें अंग्रेजों के राज से तो मुक्ति जरूरी लगती थी लेकिन, अंग्रेजों के राज करने का तरीका अच्छा लगने लगा था। यही वजह थी कि 15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हुआ लेकिन, वो आजादी अंग्रेजों के राज से आजादी थी। अंग्रेजी राज से नहीं।




वरना सोचिए कि क्या वजह है कि आज भी जॉर्ज पंचम की शान में गाए गए जन गण मन (इस पर बहुत विवाद है) पर पूरा भारत और भारतीय सेनाएं अपनी छाती चौड़ी किए रहती हैं। क्या वजह है कि अंग्रेज भारत की आजादी के बासठ साल बाद भी भारत आते हैं और विजय दिवस मनाकर शान से चले जाते हैं। विजय दिवस भी ऐसा वैसा नहीं 1857 के शहीदों के विद्रोह (अंग्रेज तो यही करते हैं) को दबाने वाले अफसर की शान में। छाती पर मूंग दलके चले जाते हैं जैसे कि हम अभी भी गुलाम हैं। क्या वजह है कि देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ मिटा देने वाले और भारत की आजादी तक न देख पाने वाले जांबाज शहीदों के नाम गलती से दिख जाएं तो, बात अलग है वरना आजाद भारत की हर उपलब्धि पर एक परिवार का ही नाम खुदा दिखता है।


 
मैं भी कहां अचानक इस सब चिंता में दुबला होना लगा। दुनिया की मंदी के दौर में देश को तरक्की की ओर ले जाने अर्थशास्त्र के डॉक्टरों के हाथ में देश है। ग्लोबल विलेज जैसे विचार खोपड़ी फाड़कर बाहर आए जा रहे हैं। और, मैं भी कहां ऐसा विलक्षण नेता खोजने लगा। इतनी ही इस देश को चिंता होती नेताजी की तो, आजादी के इतने साल बाद कम से कम उनकी मौत का तो सही-सही पता लगा पाती। भारत की आजादी के लिए निर्वासन में जीने वाले नेताजी मौत के बाद भी उसी अवस्था में है। देश का क्या देश तो आजाद हो ही चुका है।

Friday, July 17, 2009

ई आजकल नाम भी कइसे-कइसे होते हैं

अब नाम कितना महत्वपूर्ण है ये तो, देश के राजनेताओं से कोई पूछे। लेकिन, नामों की राजनीति पर राजनेताओं से न इन बेचारों में पूछने का साहस है और न पहुंच तो, ये चिलचिलाती धूम में होर्डिंग पर दिख रहे नामों पर ही अपनी राय देते, मुस्कियाते, ठेलियाते चले जा रहे हैं। दिल्ली-हापुड़ हाईवे पर जाम में फंसे दो ट्रॉलीवाले। जाम में फंसे औ कह रहे हैं कि आजकल का नाम रखा रहा है फिल्मों का। साथी को होर्डिंग की तरफ दिखाकर कहता है-कमबख्त इश्क।


लेकिन, नाम से बहुत कुछ होता है। राजनीति में नाम वंशवादी राजनीति और अपने परिवार का ठप्पा आगे बढ़ाने के काम आता है। तो, फिल्मी नाम आज के जमाने की नब्ज बता रहा है। भइया अब इश्क तो कमबख्त ही है। ट्रॉली वाला का जाने। उसको तो इश्क का टैम ही नहीं मिला होगा। तो, ऊ का जाने बेचारा।


धीरे-धीरे खिसकते ट्रैफिक पर बगल से गुजरते स्थानीय राहगीरों की टिप्पणी थी- मजा तो बस एसियै (एयरकंडीशनर कार) म है। मैं भी कार में था लेकिन, मेरी भी कार में एसी नहीं थी। ट्रैफिक जाम में फंसे पसीना सिर के बालों से चुहचुहाते, चश्मे के नीचे से आंख में घुसकर रास्ता बनाते मूंछों के कोने से धार लेकर सरकता जा रहा था। नमकीन पसीना जब रास्ता न पाकर आंखों में घुस जा रहा था तो, चश्मा निकालकर आंख साफ करनी पड़ रही थी।


अच्छा तो आपको क्या लग रहा है कि हम सुबह 8 बजे मस्ती करने दिल्ली-हापुड़ हाईवे पे चले गए थे। नहीं भइया दरअसल मित्र को आनंद विहार बस अड्डे तक छोड़ना था। वरना ई जानते हुए कि भोले के बौराए भक्तों की वजह से दिल्ली-देहरादून राष्ट्रीय राजमार्ग बंद है। मतलब मेरठ से, देहरादून से या उधर से जहां कहीं से भी दिल्ली आना है तो, उलते-पुलटते हापुड़ के रस्ते आइए। कउन अइसी बेवकूफी करे। अरे सावन का महीना चल रहा है ना। मेरी बीवी तो, 5 सोमवार के व्रत से काम चला रही है। कम भक्तिन है ना।


ई जो ज्यादा वाले भक्त हैं। वहीं श्रवणकुमार स्टाइल वाले कांवड़िए। उनकी भक्ति से हम भी भोले बाबा को याद कर रहे हैं। औ हमहीं का जो भी बाबा के 2-4 सौ किलोमीटर के एरिया में है याद कर रहा है। हमारे दफ्तर के कुछ साथी जो, गाजियाबाद से हापुड़ हाईवे पार करके फिल्मसिटी नोएडा आते हैं। उन्हें भी भोले बाबा खूब याद आ रहे हैं। सावन भर याद आएंगे। अब 15-20 मिनट का रास्ता 1 घंटे या उससे भी ज्यादा में पूरा होगा तो, का करेंगे। गाड़ी में बैठे-बैठे थोड़ा भोले बाबा का ध्यान ही कर लेंगे। वाह रे भोले की कांवड़िया ब्रिगेड। देश के हिटलर टाइप नेताओं के अंध कार्यकर्ताओं से भी बेहद खतरनाक। सब शंकरजी की पार्टी में रहेंगे।


इन गेरुआ कांवड़िए के कैंप लगे हैं। बाकायदा सेना की टुकड़ी की तरह। अरे ऊ कउन कम्युनिस्ट बाबा कह गए थे कि धर्म अफीम की तरह होता है। हमें तो, धर्म बड़ा संबल देता है। इसलिए हम कम्युनिस्ट बाबा के ऊपर बेवजहै गुस्साते रहते थे। अब समझ में कम्युनिस्ट बाबा ने इनको देखकर ये बात बोली थी। चलो अब बहुत हो गया ऑफिस का टाइम हो गया। निकलना है-अच्छा है रास्ते में शंकरजी के ये भक्त कहीं नहीं मिलने वाले। अब नाम की राजनीति, फिल्मी नाम और समाज के बदलते पैमाने की चिंता, कांवड़ियों का धर्म, ऑफिस जाने वालों के रास्ते का जाम ... छोड़िए न बस .. सब बम बम भोले ...

Thursday, July 16, 2009

एक बयान से काम बन गया

मायावती को लगता है कि एक प्रेस कांफ्रेंस हर मर्ज की दवा है। उनकी सरकार कितना भी नरक कर दे वो, समझती हैं कि एक बार टीवी-अखबार के जरिए जो, उन्होंने बोल दिया। जनता उसे संत वचन की तरह आखिरी सत्य मान लेगी। लेकिन, अब बहनजी माफ कीजिएगा- आप गलती कर रही हैं।


गलती ये कि कांग्रेस जो चाह रही है वही आप कर रही हैं। कांग्रेस चाह रही है कि आप रीता 'बहुगुणा' जोशी को जेल में बंद कर दें। ज्यादा दिन तो भारतीय कानून की कोई धारा है नहीं जो, नेताओं को जेल में रख सके। वो, आपने कर दिया है। अब अगर रीता बहुगुणा जोशी जेल में 14 दिन बिता देती हैं तो, ये 14 दिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए दिए गए स्टिमुलस पैकेज से भी ज्यादा कारगर साबित होगा।


मैं इस बहस में तो पड़ना ही नहीं चाहता कि कौन कितना सभ्य-असभ्य है। उत्तर प्रदेश की खराब कानून व्यवस्था के खिलाफ मुरादाबाद में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भाषण दे रही थीं। कांग्रेसी कार्यकर्ता आजकल फिर जरा ज्यादा जुटने लगे हैं, जुट गए। भाषण की हर लाइन पर ताली पीट दे रहे थे। रीताजी खांटी नेता है ये तो मैं निजी तौर पर जानता हूं, बहुत नजदीक से इलाहाबाद में देखा भी है। हेमवती नंदन बहुगुणा की असल वारिस होने का सबूत वो हर राजनीतिक कदम से साबित कर देती हैं। बस यहीं वो, राजनीतिक बहुगुणा के खून का प्रवाह तेज हो गया। ताली और तेज पिटवाने के चक्कर में जुबान तेज चल गई।


रीता बहुगुणा जोशी ने कह दिया- प्रदेश में बलात्कार की शिकार लड़कियों को मायावतीजी 25 हजार, 75 हजार मुआवजा दे रही हैं। मैं कह रही हूं कि ये पैसा महिलाओं को उनके मुंह पर मार देना चाहिए। अगर मायावती का रेप हो जाए तो, मैं एक करोड़ मुआवजा दे दूंगी। ये बयान कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जोश भर गया। अब इसमें तो कोई संदेह है नहीं कि इस देश में इसी तरह बयान बहादुर ही राजनीति में आगे जा पाते हैं।


इसके बाद बसपा के कार्यकर्ता अपनी बहनजी के अपमान से इतने गुस्साए कि रीता जोशी का लखनऊ का घर जलाकर खाक कर दिया। मुरादाबाद से गाजियाबाद पहुंचते-पहुंचते रीता जोशी गिरफ्तार हो गईं। जमानती-गैरजमानती मिलाकर 7-8 धाराएं यूपी सरकार ने चिपका दीं। अब इसमें मैं एक चीज जो समझ नहीं पाया कि ये SC/ST एक्ट किस आधार पर लगा है। इसमें कोई जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल तो हुआ ही नहीं था। जबकि, इससे पहले खुद बहनजी के जाति सूचक शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद उन पर डरावना SC/ST एक्ट नहीं लगा था।



खैर ये वही मायावती हैं जिन्होंने जनवरी 2007 में मुलायम सिंह यादव के जंगलराज के खिलाफ कुछ इसी तरह की अभद्र (पता नहीं कितने नेता इसे अभद्र मानेंगे कितने रीता के बयान को) भाषणबाजी की थी, अच्छी-खासी रैली में। तब मायावती के खिलाफ कुछ नहीं हुआ था। आज तक मायावती ने उस बयानबाजी के खिलाफ माफी भी नहीं मांगी है। रीता जोशी तो, तुरंत माफी मांगकर दलित अपमान के बोझ से मुक्त हो गईँ। अब भले ही इसे बसपा इसे दलित अपमान का मुद्दा बनाकर राजनीतिक फायदा उठाना चाहे। सच्चाई यही है कि उनके कर्म अब दलितों को नए सिरे से जगा रहे हैं। यूपी में गंगा में जितना पानी बह चुका है वो, साफ बता रहा है कि मायावती का दलित कार्ड अब खास काम नहीं आ पाएगा।


बसपा का कुछ बने न बने। भाई सतीश मिश्रा फिर चमक गए हैं। उनकी फोनर प्लेट बनाकर टीवी चैनलों पर करीब 20 मिनट चिपकी रही। लोकसभा में मिश्राजी कुछ कानूनी बातें भी कर रहे थे। अब हो सकता है कि बसपा के किनरिया दिए गए सतीश मिश्रा की बजार कुछ दिनों के लिए फिर चमक जाए।


सारे टीवी चैनल रीता के बयान की निंदा कर रहे हैं लेकिन, फुटेज या तो, गिरफ्तारी के बाद एक महिला पुलिस अधिकारी को धकियाते रीता की तस्वीरें चल रही हैं। या फिर मायावती का पुतला फूंकते कांग्रेसी कार्यकर्ता और पुलिस के बीच की धक्कामुक्की की। कुछेक चैनल तो, मुंबई हमले की तरह से रीता के जले घर के कमरे, खिड़की--दरवाजों की मार्मिक कहानी सुना रहे हैं। एक लाइन की बात ये है कि ये टीवी पर टूं .... टूं .... करके चलने वाले एक और बयान ने कांग्रेस और रीता बहुगुणा जोशी को चमका दिया है। कांग्रेस भले ही अभी यूपी सरकार को बर्खास्त करने की मांग नहीं कर रही है। लेकिन, बेटे वरुण के दर्द से उबर न पा रही मेनका और किसी भी तरह मायाराज के खत्म होने का इंतजार कर रही समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रपति शासन की मांग कर डाली है। एक बयान ने वरुण को बंपर वोट से लोकसभा तो पहुंचा ही दिया है।


वैसे तो, कांग्रेस राष्ट्रपति शासन लगाने की उस्ताद है लेकिन, फिलहाल वो ऐसा नहीं करेगी। क्योंकि, उसे साबित करना है कांग्रेस अपने दम पर सत्ता में आई है। यूपी में पार्टी की मजबूती के रास्ते उसे देश का राज अगले कई सालों के लिए पक्का दिख रहा है। अब कोई राजनीतिक जानकार इसे कैसे भी देखे। सभ्य समाज मायावती, रीता के बयानों-कर्मों में से किसी को अच्छा बुरा बताए। मैं तो इसे सिर्फ ऐसे देख रहा हूं कि कांग्रेस का काम बन गया है। राहुल के चमत्कार को रीता का ये बयान 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में और बड़ा बना देगा।

Friday, July 10, 2009

ये सब जनता की भलाई के लिए है!

सुप्रीमकोर्ट ने नोएडा में बन रही मायावती की मूर्तियों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। सुप्रीमकोर्ट का कहना है कि वो तब तक इसमें दखल नहीं दे सकती जब तक ये साबित न हो जाए कि इसमें जनता के पैसे का गलत इस्तेमाल हो रहा है। अब मुझे समझ में नहीं आता कि जनता के पैसे से सैकड़ो हाथी और मूर्तियां बनवाना दुरुपयोग नहीं तो क्या जनता की भलाई है?

लगे हाथ इसे भी पढ़ लीजिए - पत्थर के सनम

Thursday, July 09, 2009

जरदारी की सरदारी में ही भला है

जरदारी पर भरोसा करने में हर्ज क्या है – ये मैंने पिछले साल 15 दिसंबर को लिखा था। और, आज 7 महीने के बाद ये बात साबित भी हो रही है कि जरदारी को साथ लेकर भारत वो कर सकता है जो,
62 सालों में सारी मेहनत-मशक्कत के बाद भारतीय सरकारें नहीं कर सकीं।


भारतीय विदेश नीति के जानकार पता नहीं क्यों जरदारी के साथ संवाद बेहतर बनाने का काम नहीं कर पा रहे हैं। जबकि, जरदारी ने वो बात मान ली है जिसे मनवाने के लिए भारत संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका से लेकर दुनिया के हर थोड़ा भी दादा टाइप देश के पास पाकिस्तानी आतंकवाद के सबूतों का पुलिंदा लिए घूम रहा था। अमेरिकी अखबार the Washington post में जरदारी ने माना है कि पाकिस्तान ने छोटे-छोटे हित पूरे करने के लिए सरकारी नीति के तहत आतंकवादियों को पाला-पोसा-बढ़ाया। और, ये आतंकवादी पाकिस्तानी अवाम के साथ इस तरह से जुड़े हुए थे कि अमेरिका के ट्विन टावर पर हुए 9/11 हमले के पहले तक इन्हें हीरो की तरह देखा जाता था।


जरदारी ने एक और बात कही है कि दुनिया की दादागिरी में पाकिस्तान-अफगानिस्तान बर्बाद हो गए। ये भी एक ऐसी बाच है जिसे दुनिया अच्छे से जानती-मानती है लेकिन, तालिबान-अलकायदा-आतंकवादियों के अलावा कुछ रक्षा विश्लेषकों की ही जुबान से ये सुनाई देता था। अब खुद पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने ये कह दिया कि सोवियत संघ और अमेरिका के शीत युद्ध का शिकार पाकिस्तान और अफगानिस्तान हुए हैं।



जरदारी का ये बयान और कुछ दिन पहले दिया गया हिलेरी क्लिंटन का बयान एक दूसरे को और सच बनाता है। अमेरिकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि पिछले 2-3 दशकों से अमेरिकी मदद का इस्तेमाल पाकिस्तान में आतंकवादियों के सफाए के बजाए उन्हें बढ़ाने में हो रहा था। अब इन तीनों बयानों को साथ रखिए-


पाकिस्तान सरकार छोटे हितों को पूरा करने के लिए आतंकवादियों को पाल पोसकर बड़ा कर रही थी।

अमेरिका-सोवियत संघ के शीत युद्ध में अफगानिस्तान-पाकिस्तान, आतंकवादियों का गढ़ बन गए।

और, खुद हिलेरी का कहना कि आतंकवादियों को सफाए के लिए दी जा रही अमेरिकी मदद पाकिस्तान में आतंकवादियों को बढ़ाने में की जा रही थी।



साफ है दुनिया के दादा देश एशिया में अपना अड्डा मजबूत करने के लिए भारत-पाकिस्तान को लुरियाने में जुटे थे। भारत-पाकिस्तान का धर्म के आधार पर हुआ अलगाव सोवियत संघ-अमेरिका को ये आधार अपने आप ही दे दे रहा था कि भारत-पाकिस्तान एक दूसरे से लड़ने में उनकी मदद मांगते रहें। अब सोवियत संघ भले खत्म हो गया। लेकिन, अमेरिका ने खुद ही ये नीति बना ली कि दोनों की पटका-पटकी को बढ़ावा देते रहो। बचा-खुचा काम पाकिस्तान को बढ़ावा देकर चीन करता रहता ही है। वैसे अब चीन में हो रहे दंगों पर चीन सरकार ने पाकिस्तान से सफाई मांगी है।


कश्मीर जैसा नासूर दोनों देशों के पास राष्ट्रवादी होने का सबसे बड़ा आधार बनाता ही था। अच्छा हुआ कि हिंदुस्तानी संस्कृति, संस्कार नफरत की आग में इतना नहीं जले कि वो, आतंकवादी तैयार करने की ओर बढ़ते। लेकिन, सिर्फ मजहबी आधार पर बना पाकिस्तान इससे बच नहीं पाया। अफगानिस्तान-पाकिस्तान की अस्थिर सत्ता, लोकतंत्र का अभाव आतंकवाद की आग के लिए विशुद्ध देसी घी साबित होता रहा। और, इस आग में पाकिस्तान-अफगानिस्तान के जलने के साथ तेज लपटों से आज भी भी भारत झुलस रहा है।


कश्मीर में बेवजह आग लगी हुई है। उमर अब्दुल्ला जैसा नौजवान-आगे की सोच रखने वाला मुख्यमंत्री भी असहाय है। उसे टीवी पर आकर सफाई देनी पड़ रही है कि CRPF और पैरामिलिट्री की 75 कंपनियां तैनात हैं उन्हें हटाकर राज्य पुलिस की सिर्फ 25 कंपनियों से कैसे काम चल पाएगा। लेकिन, अलगाववादियों के लिए ये सबसे अच्छा समय होता है। वो, दबाव बढ़ाते जा रहे हैं। विरोध प्रदर्शनों को काबू करने के लिए चली गोलियों से हमारा कश्मीरी नौजवान हलाल होता है और अलगाववादियों की बात के समर्थन में और सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों की मजबूती बढ़ती ही जाती है।


बस अच्छी बात ये है कि कश्मीरी अवाम का लोकतंत्र में भरोसा टूटा नहीं है। लेकिन, सरकार, सेना के खिलाफ ढेरों हवाई किस्से उनके जनमानस में घर कर गए हैं। मैं करीब ढाई साल पहले शादी के बाद श्रीनगर गया था तो, डल लेक पर जिस बोट में रुका था। उसके मालिक ने जो किस्सा सुनाया वो, चौंकाने वाला था। बेहद अच्छे स्वभाव के सुपर डीलक्स बोट के मालिक ने कहाकि- कश्मीर में आतंकवाद है ही नहीं। ये तो हिमाचल प्रदेश के सेब कारोबारियों और सेना की मिलीभगत हैं। क्योंकि, हिमाचल के सेब कारोबारियों को डर है कि कश्मीर में माहौल अच्छा रहा तो, कश्मीरी सेबों के आगे उनके सेब कौन खाएगा। ये सिर्फ बानगी है- ऐसे हजारों मनगढ़ंत नफरत भरने वाले किस्से कश्मीरियों के मानस का हिस्सा बन चुके हैं।


अब 62-63 सालों की नफरत के बाद जब आग लगाते-लगाते पाकिस्तानी सरकार का हाथ खुद जलने लगा तो, जरदारी कह रहे हैं कि बातचीत, शांति उनका सबसे बड़ा हथियार है। अच्छा है भारत सरकार को भी 5 साल के लिए जनादेश मिला है। स्थिर सरकार है जरदारी को साथ लीजिए, संवाद बेहतर कीजिए। ISI और कठमुल्लाओं के खिलाफ जूझ रह जरदारी का साथ दीजिए। अंतरराष्ट्रीय मंचों के लिए हिलेरी क्लिंटन जैसों को आगे रखिए। कश्मीर में जलती आग ऐसे ही बुझ पाएगी। वरना तो, CRPF, सेना हटाने और लगाने में अगले कई सौ साल बीत जाएंगे। और, कुछ निकलकर आने वाला नहीं है।

Friday, July 03, 2009

ये पिछड़ने का ब्लू प्रिंट है

तनाव, मुकाबला, आगे निकलने की दौड़, पिछड़ने की पीड़ा ये सब खत्म होने वाली है। न कोई आगे निकलने पर अब शाबासी देगा, न पिछड़ने पर कोई पीड़ा होगी। सब बराबर हो जाएंगे। तनाव तो बिल्कुल नहीं होगा। तनाव नहीं होगा तो, आत्महत्या भी नहीं होगी। ये फॉर्मूला है हमारे नए कानूनविद शिक्षामंत्री कपिल सिब्बल जी का।


सिब्बल साहब शिक्षा में बड़े-बड़े बदलाव की बात कर रहे हैं। और, सबसे पहले जो, सबसे बड़े बदलाव की बात कर रहे हैं वो, देखिए। हाईस्कूल (10वीं) की बोर्ड परीक्षा खत्म कर दी जाए। क्योंकि, 10वीं की परीक्षा से बच्चे और उनके माता-पिता तनाव में आते हैं। ये तनाव इतना बढ़ जाता है कि कई बच्चे तो आत्महत्या तक कर लेते हैं। इसका सीधा सा तरीका सिब्बल साहब ये लेकर आ गए कि परीक्षा होगी ही नहीं या वैकल्पिक होगी। जरा मुझे कोई बताए न कि 10वीं में कितने बच्चे होंगे जो, परीक्षा देने के लिए परेशान रहते हैं।


जहां तक 10वीं की परीक्षा में फेल होने के तनाव और उससे बच्चे और उनके माता-पिता के तनाव में रहने की बात है तो, इसमें कोई संदेह-बहस नहीं है कि ये संवेदनशील मामला है और बच्चों को फेल होने से रोकने की कोशिश होनी चाहिए। आत्महत्या का भाव मन में उपजे उसकी बजाए कोई तरीका खोजना होगा कि वो, और मजबूती से पढ़ाई करें, आगे निकलें। लेकिन, परीक्षा ही हटा देना ये तो, देश की पीढ़ी को पीछे ढकेलने जैसी बात होगी।



कितनी बड़ी विसंगति है कि एक तरफ हम बच्चों को इतना परिपक्व मानने लगे हैं कि कक्षा 6 से ही उन्हें यौन शिक्षा (sex education) देने की वकालत कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर 10वीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को इतना कच्चा समझ रहे हैं कि उसे फेल होने के तनाव से निजात दिलाना चाहते हैं। हर दूसरी बात पर हम ये जुमला सुनते रहते हैं कंपटीशन का जमाना है। और, अब यहां तक पहुंचने के बाद हम कह रहे हैं कि कंपटीशन खत्म कर दो।


परीक्षा में फेल होने पर 12वीं में भी बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं और, इंजीनियरिंग-डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा में फेल होने पर भी। क्या करेंगे सारी परीक्षाएं खत्म कर देंगे। और, सिब्बल साहब आप तो, राजनीति में हैं। यहां के कंपटीशन के लिए कितनी तैयारी करनी होती है। राजनीति में किस ग्रेड सिस्टम की वकालत करेंगे आप। आप वकील साहब हैं आपको तो, पता है जितनी अच्छी मुकदमे की तैयारी वकील जूनियर रहते कर लेता है। वही उसे बड़ा वकील बनने में मदद करती है।


मुकाबला छोड़ने वाले पीछे छूटते जाते हैं। अब चूंकि सिब्बल साहब सहमति के बाद ही इसे लागू करने की बात कह रहे हैं। इसलिए मैं भी सुझाव दे रहा हूं कि मुकाबला छोड़ने का नहीं मुकाबले के लिए और मजबूती से देश के बच्चों को तैयार करने का ब्लूप्रिंट तैयार कीजिए सिब्बल साहब। गलत कह रहा हूं तो, बताइए।

Thursday, July 02, 2009

नाम की राजनीति

बांद्रा-वर्ली सी लिंक, राजीव गांधी ब्रिज—ये दोनों नाम एक ही पुल के हैं। पहला नाम बांद्रा-वर्ली सी लिंक- वो, है जो पुल बनने की योजना बनने के समय से लोगों के जेहन में दर्ज है। भौगोलिक, स्थानीय आधार पर देश के पहले समुद्री पुल की असली पहचान बताता है।



दूसरा- राजीव गांधी ब्रिज वो, नाम है जो सिर्फ इसलिए रखा गया कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की सत्ता है। केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार है। स्वर्गीय राजीव गांधी की पत्नी सोनिया और उनका बेटा राहुल देश के सबसे ताकतवर लोग हैं। यही वजह है जो, मुंबई की नई पहचान पर राजीव गांधी का नाम लिख दिया गया।



अब ये राजनीति के लिए ही नाम रखा गया है तो, इस पर राजनीति तो होनी ही है। शिवसेना-बीजेपी इस पर राजनीति शुरू कर चुके हैं। लेकिन, उनकी राजनीति सिर्फ मीडिया में कुछ दिन दिखेगी-दब जाएगी। कांग्रेस की राजनीति पुल पर अमिट छाप छोड़ चुकी है। ठीक वैसे ही जैसे बेवजह देश के हर छोटे-बड़े शहर, हर छोटे-बड़े विकास की पहचान पर गांधी परिवार का नाम खोद दिया गया है। नामों से भारत की पहचान बने तो, पूरा भारत गांधी परिवार के राजवंशीय शासन की तरह दिखता है।



बीजेपी MLC ने तो मामला अदालत के सामने रख दिया है कि जब शिवसेना-बीजेपी की सरकार के समय पुल का नाम वीर सावरकर रखा गया था तो, अभी ये नाम क्यों बदला गया। उसका जवाब तो, अदालत से पहले मैं ही दे देता हूं कि जब सत्ता का इस्तेमाल करके वीर सावरकर नाम रखा गया तो, सत्ता की ही ताकत से उसके राजीव गांधी पुल बनने पर एतराज क्यों। लेकिन, मुझे भी राजीव गांधी के नाम पर इस पुल के होने से एतराज है। वो, इसलिए कि राजीव गांधी महाराष्ट्र, मुंबई, बांद्रा, वर्ली कहीं से किसी तरह से जुड़े होते तो, भी ये चल जाता। अच्छा भला नाम था- मुंबई के दो उपनगरों- बांद्रा-वर्ली की पहचान से जुड़ा हुआ।


भारतीय इंजीनियरिंग (अभियांत्रिकी) के इस नायाब नमूने पर जाने क्यों राजनीति की काली नजर गड़ गई। इसका नाम गेटवे ऑफ इंडिया जैसा-इंडिया गेट जैसा ही कुछ रख देते तब भी बेहतर था।

Wednesday, July 01, 2009

बस ऐसे ही

जनता का अब कोई दबाव नहीं है। और, सरकार को अगले 5 साल तक कोई खतरा नहीं है। इसलिए साढ़े तीन चार साल तक तो सरकार कड़े फैसले ले सकती है। कड़े फैसले मतलब जनता को जो पसंद नहीं आते। जैसे आज रात 12 बजे से पेट्रोल 4 रुपए और डीजल 2 रुपए लीटर महंगा हो जाएगा। अब सरकार बहुमत में न होती। कभी भी चुनाव होने का खतरा होता तो, सरकार ये खतरा तो मोल न ही लेती। लेकिन, अभी सब ठीक है।



खैर, पेट्रोल-डीजल महंगा हुआ तो, हम टीवी चैनल वालों ने जनता के हित के लिए फ्लैश कर दिया कि आज आधी रात से पेट्रोल-डीजल महंगे हो जाएंगे। हम गाड़ी का वाइपर बदलवाने निकले थे। हमें पता चला तो, हमने भी सोचा चलो तेल भरवाते ही लौटते हैं। खैर, नजदीक के पेट्रोल पंप तक पहुंचे और तेजी से कार लगा दी। लेकिन, हम फंस चुके थे। आगे गाड़ियों की लंबी कतार थी और जब तक सोच पाते पीछे भी कारों की लंबी कतार लग चुकी थी। कोई कार वाला आगे निकलकर टैंक फुल न करा ले ये सोचकर हर कोई गाड़ी एक दूसरे से सटाए चल रहा था। एकदम मौका नहीं चूकना चाहता था इसलिए किसी की भी गाड़ी का इंजन बंद नहीं हुआ था। एक कार को तेल भराने में आधे से एक घंटे तो लग ही रहे थे। अब सोचिए एक टैंक में कितना तेल भरा होगा- 10-30 लीटर। एक कार वाले का हर लीटर पर भले ही 4 रुपया या 2 रुपया बच गया हो। देश का कितना रुपया फुंक गया होगा।



पेट्रोल पंप मालिक आकर असहाय भाव में बोले सुबह स्कूल जाने वाले बच्चों की गाड़ियों के लिए भी तेल नहीं होगा। आधी रात से पहले ही पंप ड्राई हो जाएगा। लेकिन, किसी को टैंक फुल कराने से रोकें तो, लड़ाई करें। ये सबसे ज्यादा कमाने वाले दिल्ली-नोएडा के लोगों का हाल था। अब कम से कम मैं तो दोबारा तेल के दाम बढ़ने की खबर सुनने के बाद तेल भराने नहीं जाऊंगा। हमारे साथी टीवी चैनल वाले भी पहुंच गए थे। सवाल पूछ रहे थे- क्या आपने सोचा था कि अचानक तेल के दाम बढ़ जाएंगे। पता नहीं किसी ने ये जवाब दिया कि नहीं- सोचा तो नहीं था। लेकिन, गलत किया ये लगभग पूर्ण बहुमत की सरकार है। बहुत से कड़े फैसले लेगी, तैयार रहिए।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...