Monday, June 04, 2007

जनरल, ओबीसी, एससी/एसटी की फिर से पहचान हो

अब जातियां खत्म हो रही हैं। जातियों की बजाए आरक्षण की श्रेणी के आधार पर पहचान हो रही है। और, एक बात और उल्टी हो रही है। जातियां थीं तो, लोग ऊपर की जाति के बराबर होना चाहते थे। अब आरक्षण मिलने लगा तो, लोग नीचे की श्रेणी में आरक्षण चाहने लगे। नीचे जाने की लड़ाई ऐसी हो गई है कि राजस्थान में गुर्जर और मीना ने करीब 30 लोगों की शहादत दे दी। इन जातियों के नेता इसे शहादत बताकर औऱ जानें लेने-देने की तैयारी में जुटे हैं। एक दूसरे के गांव में राशन तक नहीं ले जाने दे रहे हैं। आखिर नीचे जाने की लड़ाई है तो कितना भी गिर सकते हैं। गुर्जर पहले से ही ओबीसी हैं लेकिन, उनका कहना है कि ओबीसी में जाटों के भी शामिल होने से उन्हें आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिल पा रहा है। और, एसटी श्रेणी में होने की वजह से मीना जाति के लोगों का सामाजिक स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है।

राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा माता अब तक कुछ नहीं कर सकी हैं। या यूं कहें कि कुछ करने की उनकी मंशा ही नहीं दिख रही। गुर्जरों के हंगामा शुरू करने के दो दिनों तक माता वसुंधरा ने प्रजा की सुध ही नहीं ली। और, दो-तीन बाद जागीं तो, सबसे पहले मीना जाति को इस बात के लिए जगाया कि गुर्जर एसटी में शामिल होकर तुम्हारा हक मारना चाहते हैं, उन्हें रोको। और, जब मीना जाति के लोग पूरी तरह से तैयार हो गए तो, वसुंधरा ने गुर्जर जाति के लोगों को बातचीत के लिए बुलाया। स्वाभाविक है, अब बात कहां से बन सकती है। वैसे राजस्थान में ये जो आग जल रही है इसकी आग सभी राजनीतिक दलों ने अपने चूल्हे में बचा कर रखी थी। कभी कोई हवा मारकर आग की आंच तेज कर देता है कभी दूसरा। फिलहाल इस बार इस आग कीं आच को तेज करने का काम खुद राज्य की महारानी वसुंधरा राजे ने किया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में राजे ने हर रैली में गुर्जरों को भरोसा दिलाया कि वो चुनाव जीतते ही उन्हें ओबीसी से एसटी बना देंगी। लेकिन, चुनाव जीतने के बाद साफ कह दिया कि ये केंद्र का मसला है इसमें वो कुछ नहीं कर सकतीं।

एक नजर अगर राजस्थान के जातीय समीकरण पर डालें तो, ये साफ हो जाएगा कि ये आग इतनी ज्यादा क्यों भड़की। राज्य में गुर्जर करीब 6 प्रतिशत हैं, मीना करीब 13 प्रतिशत और जाट करीब 10 प्रतिशत। यानी वोट बैंक के लिहाज से तीनों जातियां ऐसी हैं कि इन्हें नाराज करके कोई तपते रेगिस्तान में सत्ता का पानी नहीं पीसकता। और, इसी सत्ता के लिए बीजेपी ने 1999 के लोकसभा चुनाव के पहले जाटों को ओबीसी श्रेणी का लाभ दे दिया। जाट ओबीसी श्रेणी पाने के लिए काफी समय से हिंसा पर उतारू थे। और, पहले से ही शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर संपन्ना जाटों ने ओबीसी कोटे का 25 से 70 प्रतिशत तक लाभ लेना शुरू कर दिया। और, गुर्जरों को ये बात खटकने लगी। अब तक गुर्जर और मीना जातियों के लोगों में काफी सामंजस्य था। लेकिन, एसटी में शामिल मीना जाति के लोग पुलिस कॉन्सटेबल से लेकर आईपीएस/आईएएस की परीक्षा में जब बढ़ने लगे तो, बगल में अब तक मीना के साथ चाय-पानी करने वाले गुर्जरों को मीना के एसटी श्रेणी में होने से ही जलन होने लगी।

जबकि, अगर आरक्षण देने की बात की जाए तो, राजस्थान में मीना, गुर्जर या जाट तीनों में से कोई भी जाति आरक्षण की हकदार नहीं है। मीना और अब अपने लिए एसटी कोटा मांग रहे गुर्जर तो, एटी में शामिल किसी भी तरह से नहीं हो सकते। राजस्थान में ये दोनों जातियां बड़े गांवों में अच्छे घरों में संपन्न तरीके से रह रही हैं। इन जातियों में परिवार के एक-दो लोग नौकरी में हैं। राजस्थान में व्यापार में भी ये तीनों जातियां इतनी प्रभावी तो हैं ही कि इन्हें किसी भी तरह से एसटी (शेड्यूल्ड ट्राइबल) श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता। क्योंकि, इस श्रेणी में शामिल होने के लिए जरूरी शर्तों में से सबसे जरूरी ये है कि एसटी में शामिल होने वाली जाति का लोगों से संपर्क न जुड़ा हुआ हो। जीवन की सामान्य जरूरतें इनकी पूरी न हो पा रही हों। और, ऐसा कम से कम मीना और गुर्जरों के साथ तो नहीं है।

वैसे इन जातियों के आरक्षण ने राजस्थान में हमेशा से एक दूसरे विरोधी रहे ब्राह्मण और राजपूतों को भी साथ ला दिया है। लेकिन, राजनीतिक तौर पर अब न ये सुने जाते हैं और न ही ओबीसी, एससी/एसटी कोटे की असली हकदार जातियां गड़िया लोहार, बंजारा और नट। सच्चाई ये है कि राजस्थान में अगर किसी को आरक्षण अब मिलना चाहिए तो वो गड़िया लोहार, बंजारा और नट जातियां ही हैं। राजस्थान में विधानसभा के चुनाव साल भर से कुछ ज्यादा समय में ही होने वाले हैं। इसलिए राज्य में सत्ता सुख ले रही बीजेपी और केंद्र में सत्ता सुख ले रही कांग्रेस, दोनो में से कोई भी कड़े कदम नहीं उठाना चाह रहा। आज नहीं तो कल ये आंदोलन खत्म हो ही जाएगा।

लेकिन, राजस्थान में आरक्षण श्रेणी बदलने को लेकर शुरू हुए इस अनोखे आंदोलन देश में जनरल, ओबीसी, एससी/एसटी कोटे वाली जातियों के नए सिरे से वर्गीकरण की जरूरत तय कर दी है। अगर ऐसा नहीं होता है तो, अछूत से ब्राह्मण बनने की लड़ाई आजादी के साठ साल बाद अब बड़ी, पिछडी सभी जातियों के जल्दी से जल्दी अछूत बनने की लड़ाई में बदल जाएगी। और, ये सिर्फ राजस्थान में ही नहीं है। यूपी-बिहार जैसे राज्यों में भी यादव, कुर्मी जातियों को कब तक अन्य पिछड़ा वर्ग में रखा जाएगा ये भी बड़ा सवाल है।

वरना किसी न किसी जाति का कोई नेता खुद के लिए आरक्षण की मांग करेगा और टीवी चैनल पर चिल्लाकर ये बयान देगा कि देश देखेगा कि कोई जाति किस तरह से देश के लिए कुरर्बान हो सकती है। इसी भ्रम में अब तक पचीस से ज्यादा गुर्जर जान गंवा चुके हैं। कुल मिलाकर जरूरत ये समझने की है कि देश की आजादी के समय दस सालों के लिए लागू हुआ आरक्षण कब तक अलग-अलग जातियों के लोगों की जान लेता रहेगा। शायद इसका एक मात्र तरीका यही है कि जातियों का आरक्षण खत्म करके सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए और वो भी दस प्रतिशत से ज्यादा नहीं।

2 comments:

  1. कह तो सही रहे हो पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? वैसे मेरे विचार से एस सी जब तक मुख्य धारा में नहीं आ जाते आरक्षण के एकमात्र अधिकारी हैं ।
    घुघूती बासूती

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  2. शिक्षा, शहरीकरण और आधुनिकता के प्रभाव से जातियां मिट रही थीं, लेकिन आरक्षण के माध्यम से उसे जीवित रखना राजनेताॐ के अस्तित्व के लिए आवश्यक है. सकारात्मक राज्नीति करना इतना कठिन क्यो हो गया है. आरक्षण की पूरी व्यवस्था ही विभाजनकारी है, चुनावी फायदे के अनुसार किसी को भी पिछ्डा घोषित कर दिया जाता है. जातिगत चेतना बढती जा रही है, जातियां राष्ट्र केे भीतर राष्ट्र का रुप लेती जा रही हैं, पर किसे चिन्ता है.
    आर्क्षण का एकमात्र आधार आर्थिक पिछडापन, या पिछ्डे क्षेत्र से होने जैसे वस्तुपरक कारक होने चाहिए, जन्म पर आधारित नहीं. अनुसूचित जाति में भी आरक्षण का लाभ सम्पन्न तबके को ही मिलता है. समतामूलक जातिहीन, धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए आरक्षण की ओछी राजनीति से छुटकारा पाना जरुरी है.

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