360 साल बाद ... यानी अगर मैं अपने पूर्वजों की उम्र औसत 60 साल भी मानूं तो, मेरे पिताजी के पहले की 5 पीढ़ी ऐसा ग्रहण नहीं देख पाई होगी। और, अब आगे ये दिखेगा 123 साल बाद ... यानी मेरे बाद की कम से कम 2 पीढ़ी ऐसा सूर्यग्रहण नहीं देख पाएगी। खैर, मैं टीवी युग में हूं इसलिए मजे से अपने शहर इलाहाबाद (प्रयागराज) और बगल के वाराणसी (काशी) से लेकर बिहार के तारेगना और चीन तक का सूर्यग्रहण देख लिया।
पत्नी ने उठा दिया। सुबहै से बइठे-बइठे चैनल परिक्रमा के जरिए बहुत कुछ देखा। देखा कि कइसे तारेगना में बेचारे बस तारे ही गिनते रह गए-बादल के आगे न सूरज दिखा और न उसका गहन। पता नहीं कल ही सारे चैनलों पर ये स्टोरी खूब चली कि कैसे तारेगना देश का क्या दुनिया का एक बड़ा पर्यटन स्थल बन गया है। खैर मैं तो चाहकर भी रोज सुबह जल्दी नहीं उठ पाता। आज सूर्यग्रहण के बहाने उठ गया।
सुबह उठकर ब्लॉगरी का कोई इरादा नहीं थी। लेकिन, टीवी पर रवीश की कुछेक लाइनों ने पोस्ट लिखने की जरूरत पैदा कर दी। एनडीटीवी पर अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलाते-चलाते रवीश अचानक कुछ ज्यादा ही आलोचक अंदाज में आ गए। बोल दिया कि घाट पर बैठने वाले पोंगा पंडितों की कमाई पर FBT यानी फ्रिंज बेनिफिट टैक्स लगाया जाए। ये अनमोल सुझाव वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को रवीश ने फेसबुक के जरिए भी दिया है।
मैंने फेसबुक पर रवीश के इस सुझाव पर छोटा सा सवाल उठाया है - किन पंडितों पर ... किसी घाट पर गउदान कराने वाले या फिर आपके पास बैठे -टीवी स्टूडियो में विचरण करने वाले श्रेष्ठ गैर अंधविश्वासी पंडितों पर
मेरी टिप्पणी के ठीक नीचे फेसबुक किन्हीं महेंद्र गौर ने इस टिप्पणी के जरिए आरक्षण नीति पर भी तंज कसा है - जब आपको टीवी पर सुनते हैं तो आप फेसबुक और गूगल की बाते करते हैं! और यहाँ आप पहले से ही जमकर बेचारे पंडितो के पीछे पड़े हैं! अरे भाई सारी नौकरिया अगर रिजेर्वेशन की भेट चढ़ गयी तो बेचारा पंडित क्या सदी में एक बार भी नहीं कमाएगा!
खैर, मेरा जो अपना अनुभव है उससे तो रवीश का ये सुझाव सिर्फ अंधविश्वास की आलोचना और उसके लिए पंडितों को जिम्मेदार मानते हुए उन पर प्रहार करने की कोशिश में उछाला गया एक हास्यास्पद जुमला ही दिखता है। रवीश की रिपोर्टिंग देखकर मैं प्रसन्न होता हूं। लेकिन, अकसर मैंने ये देखा है कि रवीश किसी अच्छी चीज की मुहिम चलाते-चलाते टीवी पर पता नहीं किस पूर्वाग्रह के प्रभाव में आ जाते हैं।
आज सूर्यग्रहण के बहाने भी कुछ ऐसा ही हुआ। रवीश परंपरा को बचाने-समझने और अंधविश्वास पोंगापंथी को तोड़ने की शानदार मुहिम में लगे थे। लेकिन, अब जरा रवीश के इसी सुझाव को समझने की कोशिश करते हैं कि पंडितों की कमाई पर FBT लगना चाहिए। मैं जाति से ब्राह्मण हूं। अब मुझे तो अपने आसपास में गिने चुने ऐसे पंडित दिखे हैं जो, पंडिताई करके इतनी कमाई कर पाते हों कि वो बेचारे टैक्स की लिमिट तक में आ पाएं।
सत्यनारायण कथा कराने से लेकर भागवत कराने के महा आयोजन तक एक पंडित 50 रुपए से लेकर एक गाय, कुछ बर्तन, धोती-कुर्ता और कुछ सौ से लेकर हजार तक से ज्यादा दक्षिणा शायद ही कमा पाता हो। मैंने खुद देखा है हमारे पूरे समाज में शायद ही कोई अपनी लड़की उस परिवार में देना चाहता हो जो, पूरी तरह से पंडिताई की कमाई पर आश्रित हो। हां, रवीश की बगल में बैठे टीवी स्टूडियो-स्टूडियो घूमने वाले ज्योतिषी, पंडितों (जरूरी नहीं है कि वो जाति से भी ब्राह्मण हों) की कमाई संभवत: इतनी कमाई जरूर होती होगी। कुछ मठ-मंदिर के आचार्यों की भी कमाई ऐसी हो सकती है लेकिन, वो बमुश्किल एक परसेंट से ज्यादा होंगे।
रवीश कह रहे थे कि पंडितों की कमाई पर टैक्स लग जाए और उनके जैसे लोगों की कमाई पर FBT हट जाए। मैं ब्राह्मण भी हूं और रवीश जैसा भी यानी टीवी वाला जिनको मिलने वाली कुछ सुविधाओं पर FBT लगता है। मैं अगर पंडिताई करने वाला होता तो, मुझे नहीं लगता कि FBT क्या साधारण टैक्स वाली कतार में भी खड़ा हो पाता।
एक और बात जो, रवीश ने इलाहाबाद-बनारस के किनारे गउदान करते लोगों की फुटेज देखकर कही। गउदान करने से कुछ नहीं होगा। रवीश ने कहाकि दो-चार हजार की गाय देकर कोई अपने पाप नहीं काट सकता, चोरी किया है तो उसकी सजा से बच नही सकता। ये किसने कहाकि आप चोरी करके जाइए गउदान करिए और चारी की सजा से बच जाइए। पहली बात तो, अब शादी-मृत्यु जैसे अवसरों को छोड़ दें तो, गिने-चुने सामर्थ्यवान लोग ही गउदान करते हैं वरना तो, 11 से 101 रुपए में गाय की पूंछ पकड़कर पुण्य करने के भ्रम में जी लेते हैं।
अब सवाल ये है कि पर्यावरण-जमीन पर शानदार स्पेशल रिपोर्ट करने वाले रवीश गउदान की आलोचना करते समय इस तर्क को ज्यादा अच्छे से क्यों नहीं प्रतिस्थापित कर पाते कि गाय खरीदकर दान कीजिए। खुद भी गाय पालिए उसकी सेवा कीजिए और शुद्ध दूध पीजिए, स्वस्थ रहिए। अमूल, मदर डेयरी के पैकेट वाले दूध की चर्चा रवीश ने की। लेकिन, सोचिए गाय अगर बढ़ें तो, मिलावटी दूध की डराने वाली खबरों से भी हम बच पाएंगे। हां, दर्शक छूटने के डर से एनडीटीवी हेडलाइन की पट्टी में नदियों में पवित्र स्नान लिखना नहीं छोड़ पा रहे थे। आधुनिक तर्कों पर चलें तो आखिर ये भी तो मिथ ही है कि गंगाजल पवित्र है। वैसे वाराणसी, इलाहाबाद और कुरुक्षेत्र के घोर पारंपरिक और पता नहीं कितन अंधविश्वासी लोगों का नदियों किनारे जमावड़ा ही था जिसने सूर्यग्रहण के अद्भुत नजारे के बीच भी टीआरपी के लिए अपनी पूरी जगह बना ली थी। शायद इन्हीं दर्शकों के चक्कर में रवीश और उनकी साथी एंकर बार-बार ये सफाई देने से नहीं चूकते कि परंपरा को समझिए-जानिए लेकिन, उसके साथ पनपे अंधविश्वास को खत्म करिए। ये बात एकदम सही है इस बात पर तो हम सब आपके साथ हैं।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी
Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी 9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...
-
आप लोगों में से कितने लोगों के यहां बेटियों का पैर छुआ जाता है। यानी, मां-बाप अपनी बेटी से पैर छुआते नहीं हैं। बल्कि, खुद उनका पैर छूते हैं...
-
हमारे यहां बेटी-दामाद का पैर छुआ जाता है। और, उसके मुझे दुष्परिणाम ज्यादा दिख रहे थे। मुझे लगा था कि मैं बेहद परंपरागत ब्राह्मण परिवार से ह...
-
पुरानी कहावतें यूं ही नहीं बनी होतीं। और, समय-समय पर इन कहावतों-मिथकों की प्रासंगिकता गजब साबित होती रहती है। कांग्रेस-यूपीए ने सबको साफ कर ...
पूर्वाग्रह जिद्दी मैल की तरह होते हैं। इन्हें छुड़ाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। रवीश तो इसे मानने को तैयार नहीं होंगे, छुड़ाएंगे क्या?
ReplyDeleteआपका विचार सही है लेकिन पूर्वाग्रह से ग्रसित लोंगों को नहीं समझाया जा सकता है.
ReplyDeleteपूर्वाग्रह से बुद्धी को लकवा मार जाता है, यह रवीस और विनोद दुआ समझ ले तो अच्छे पत्रकार मिल जाए.
ReplyDeleteभाई साहब, ये मसला केवल सूर्यग्रहण का नहीं है। ये दरअसल एक पूरी जमात की मानसिकता है, जो दूसरों पर चस्पा करने के लिए फासीवाद का स्टिकर साथ ले कर घूमते हैं, लेकिन अपनी किताबी धारणाओं पर हल्का सा भी प्रहार होते ही, सभी संसाधनों के साथ, हर सीमा के पार जा कर विरोधियों को कुचलने पर तुल जाते हैं। ये सब उसी धारा के प्रतिनिधि पत्रकार हैं।
ReplyDeleteघाट के पोंगा पंडितों की कमाई पर FBT ?
ReplyDeleteअरे भई, जिन पर FTB लग्न चाहिए था...उनपर भी ख़त्म कर दिया...बेचारे पंडों की क्या बिसात.
हर्ष आपने मेरे मन की बात कर दी। सालों से मैं भी रवीश का प्रसंशक रहा हूं... उनके ब्लॉगर बनने से काफी पहले से। वे सजग है, मुद्दों को पकड़ते अच्छा हैं, प्रस्तुति भी शानदार है... मगर ये सारी बातें पत्रकार रवीश के बारे में कह रहा हूं। जब से वे विचारक रवीश हो गये हैं तब से ये लगातार देखने में आ रहा है कि उनके भीतर का पत्रकार हाशिये पर जा रहा है।
ReplyDeleteखैर, ये उनका व्यक्तिगत मामला है। उनके किसी रूप को सराहना या आलोचना करना मेरी व्यक्तिगत पसंद।
रही बात पंडितों पर उनके प्रस्तावित FBT की तो उस बारे में सिर्फ यही कहूंगा कि हर ब्राह्मण पुरोहित और हर ठाकुर जमींदार नहीं होता।
पत्रकार रवीश को एक लीड देता हूं... जरा एक सर्वे करें मुम्बई और दिल्ली में बिल्डिंग और सोसाइटियों में काम करने वाले चौकीदारों पर। उनकी जाति और आय के बारें में चौंकाने वाले तथ्यों से आप रू-ब-रू होगें। अब ये मत कहिएगा कि जातिगत सर्वे करने से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा। गुजरात में आप धर्म के आधार पर ऐसा सर्वे कर चुके हैं। सर्वे का नतीजा अपने एनडीटीवी पर भी दिखाइयेगा... फिर आप खुद तय कर लेंगे कि किसे FBT के दायरे में लाने की जरुरत है और किन्हें अनुदान की।
इन्हीं पोंगा पंथी पंडितों को आजकल डीवी चैनलों पर खासा कव्हरेज मिल रहा है उसका क्या ? एक तरफ FBT लगवाओ और दूसरी तरफ उन्हीं को कमाई का जरिया भी उपलब्ध कराओ ।
ReplyDeleteपूर्वाग्रहों का तो भई ऐसा ही है. :)
ReplyDeleteहमें तो अपना शिवकुटी का ब्राह्मण बहुत जमा जी, जिसे मैने आज देखा!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteहर्षवर्धन जी आपने सही लिखा है | वैसे भी NDTV मैं एक चीज का बहुत जोर है, "भारतीय संस्कृति का विरोध हर हाल मैं हर समय" | देखिये जो प्रोग्राम निष्पक्ष ना हो वो अच्छा कैसे कहला सकता है ? मैंने तो NDTV कब का देखना छोड़ दिया | अरे NDTV नहीं देखूंगा तो पीछे नहीं रह जाउंगा, phir क्यों NDTV के भारमक विचार को अपने मन मैं डालता रहूँ ?
ReplyDelete