रविवार की छुट्टी और जबरदस्त गर्मी की वजह से पूरा दिन घर में बिताया। और लगे हाथ टीवी पर फिल्म देख डाली। फिल्म को बीच से देख पाया। काबुल में कहीं नेताजी भटक रहे थे। भारत से भागने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस किस तरह से अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुंचते हैं। और, कैसे भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं के पत्र और आश्वासन के बाद भी नेताजी को सोवियत संघ अपने यहां आने की इजाजत नहीं देता।
फिल्म में तथ्य कितने सही थे-कितने गलत पता नहीं। लेकिन, जितना भी खोज पाए होंगे bose the forgotten hero फिल्म बनाने वालों ने सही ही दिखाया होगा। मैंने बहुत पहले एक कितना भी पढ़ी थी नेताजी पर। उसके और फिल्म के तथ्य काफी मिल रहे थे। मैं यही सोच रहा था कि आखिर उस समय कैसे एक नेता ने बिना जरूरी संचार माध्यमों, लोगों तक पहुंच और गांधी के प्रभाव के खिलाफ जाकर देश के लिए लोगों का जनमानस अपने लिहाज से तैयार किया होगा।
अपने देश में अपने देश के लोगों को देश के लिए तैयार करने की क्षमता नेताओं में नहीं दिख रही है। ऐसे हालात में नेताजी ने दुनिया के अलग-अलग देशों के भारतीय युद्धबंदियों और दूसरे देश में गए हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करना सचमुच बहुत मुश्किल काम रहा होगा।
मेरी बहुत इतिहास की जानकारी नहीं है। अपनी सामान्य समझ है। उसके आधार पर मैं जब नेताजी को समझने की कोशिश करता हूं तो, मुझे लगता है कि काश एक ऐसा नेता आज भारत को मिल पाता। एक कांग्रेसी राजनीतिज्ञ (आजाद भारत के पहले का), कांतिकारी कम्युनिस्ट विचार वाला और जबरदस्त नेशनलिस्ट (राष्ट्रवादी)- कुछ ऐसा था नेताजी का व्यक्तित्व। लेकिन, शायद यही वजह रही कि इस महान नेता की विरासत आगे बढ़ाने का काम न तो कांग्रेस करना चाहती है और न ही इस देश की वामपंथी और राष्ट्रवादी पार्टियां।
मान लो कि कांग्रेसी तो इसलिए याद नहीं करते कि गांधी का विरोध करके कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले नेताजी को याद किया तो, आजावीन कांग्रेस के नेता तो नहीं ही बन पाएंगे। वामपंथी और राष्ट्रवादी पार्टी के लोगों को पता नहीं क्या तकलीफ है। याद भी करते हैं बस ऐसे ही याद भर करने के लिए। वामपंथियों में एक फॉरवर्ड ब्लॉक थोड़ा बहुत याद भी करता है तो, उसकी CPM, CPI तो सुनते ही नहीं दूसरों को वो क्या सुना पाएगा।
मुझे लगता है कि नेताजी होते तो, आज पाकिस्तान न होता। बर्मा शायद भारत का हिस्सा होता। भारत इतना ताकतवर होता कि चीन उसकी जमीन पर कब्जा न कर लेता। देश में राष्ट्रवादी भावना इतनी प्रबल होती कि उसके चलते दूसरी राष्ट्रविरोधी भावनाओं को जगह न मिल पाती। हमारे जैसे भारतीयों को इस भ्रम में न जीना पड़ता कि हम कैसा देश बनें। भारत NAM ummit (गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन) की जगह G8 में शामिल होता।
दरअसल हुआ यही था कि अंग्रेजों के साथ गांधी जी के अहिंसा आंदोलन और शांति के रास्ते से आजादी के चक्कर में जवाहर लाल नेहरू तो अंग्रेज ही हो गए थे। उन्हें अंग्रेजों के राज से तो मुक्ति जरूरी लगती थी लेकिन, अंग्रेजों के राज करने का तरीका अच्छा लगने लगा था। यही वजह थी कि 15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हुआ लेकिन, वो आजादी अंग्रेजों के राज से आजादी थी। अंग्रेजी राज से नहीं।
वरना सोचिए कि क्या वजह है कि आज भी जॉर्ज पंचम की शान में गाए गए जन गण मन (इस पर बहुत विवाद है) पर पूरा भारत और भारतीय सेनाएं अपनी छाती चौड़ी किए रहती हैं। क्या वजह है कि अंग्रेज भारत की आजादी के बासठ साल बाद भी भारत आते हैं और विजय दिवस मनाकर शान से चले जाते हैं। विजय दिवस भी ऐसा वैसा नहीं 1857 के शहीदों के विद्रोह (अंग्रेज तो यही करते हैं) को दबाने वाले अफसर की शान में। छाती पर मूंग दलके चले जाते हैं जैसे कि हम अभी भी गुलाम हैं। क्या वजह है कि देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ मिटा देने वाले और भारत की आजादी तक न देख पाने वाले जांबाज शहीदों के नाम गलती से दिख जाएं तो, बात अलग है वरना आजाद भारत की हर उपलब्धि पर एक परिवार का ही नाम खुदा दिखता है।
मैं भी कहां अचानक इस सब चिंता में दुबला होना लगा। दुनिया की मंदी के दौर में देश को तरक्की की ओर ले जाने अर्थशास्त्र के डॉक्टरों के हाथ में देश है। ग्लोबल विलेज जैसे विचार खोपड़ी फाड़कर बाहर आए जा रहे हैं। और, मैं भी कहां ऐसा विलक्षण नेता खोजने लगा। इतनी ही इस देश को चिंता होती नेताजी की तो, आजादी के इतने साल बाद कम से कम उनकी मौत का तो सही-सही पता लगा पाती। भारत की आजादी के लिए निर्वासन में जीने वाले नेताजी मौत के बाद भी उसी अवस्था में है। देश का क्या देश तो आजाद हो ही चुका है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
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बात तो आपकी सोलह आने सच है लेकिन...
ReplyDeleteछोड़िए, कहने का कोई फायदा नहीं है।:(
"वरना सोचिए कि क्या वजह है कि आज भी जॉर्ज पंचम की शान में गाए गए जन गण मन पर पूरा भारत और भारतीय सेनाएं अपनी छाती चौड़ी किए रहती हैं।"
ReplyDeleteइस पर थोडा ऐतराज़ है,
ये महज एक कांस्पीरेसी थ्योरी ही है इससे अधिक और कुछ नहीं, अगर इंटरनेट पर ही खोजेंगे तो इस थ्योरी को गलत साबित करने वाले तर्क मिल जायेंगे|
आप की बात से सहमति है।
ReplyDeleteराष्ट्रवादियों को नेताजी से कोई बैर नहीं और वे उनके आराध्य हैं..... दरअसल ऐतराज है फॉरवर्ड ब्लाक के कम्युनिस्टों से हाथ मिला लेने पर जिन्होंने नेताजी का अपमान किया था.......
ReplyDelete"...क्या वजह है कि देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ मिटा देने वाले और भारत की आजादी तक न देख पाने वाले जांबाज शहीदों के नाम गलती से दिख जाएं तो, बात अलग है वरना आजाद भारत की हर उपलब्धि पर एक परिवार का ही नाम खुदा दिखता है...", बेहद कष्टकारी। लेकिन फ़िर भी मीडिया उसी "परिवार" के तो चरण पूजता है… ऐसा क्यों?
ReplyDeleteआपसे पूर्णतया सहमत हूँ.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख
ReplyDeleteहर्षवर्धन जी आपने दुखती राग पे हाथ रख दी | रोना तो इसी बात का है की भारत के सर्वश्रेस्ट नायकों (सुभाष बोस, बल्लव भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, दिन दयाल उपाध्याय, गंगाधर तिलक ....) को ना तब पूछा गया ना अब पूछा जा रहा है | कारण गाँधी, अंतर सिर्फ इतना है की पहले बापू गाँधी अब converted गाँधी हैं |
ReplyDeleteमुझे तो लगता है की भारत को अपना स्वाभिमान गाँधी से मुक्ती के बाद ही मिलेगा |
@ सिद्धार्थ शंकर
ReplyDeleteकहते रहिए। बात तो उसी से बनेगी
@ नीरज रोहिल्ला
बात आपकी सही हो सकती है लेकिन, इंटरनेट और जानने वालों से खोजबीन के बाद कुछ तो, विवाद इसमें है ही। राष्ट्रगान जैसे मसले पर विवाद बचाना जरूरी है
@ निशाचर
राष्ट्रवादियों को नेताजी से एतराज है ये तो मैं भी नहीं कह रहा लेकिन, नेताजी और उनके विचारों को लेकर कोई खास कार्यक्रम भी नहीं दिखा
@ सुरेश चिपलूनकर
क्योंकि, जब भी जनता-मीडिया ने एक परिवार के अलावा दूसरे को सत्ता दी तो, मरभुख से नवधनाढ्य की तरह व्यवहार करे लगे और जल्दी से जल्दी और जितना हो सके सत्ता शासन के उपभोग तक ही सीमित रह गए