22 जनवरी 2016 दैनिक जागरण |
2009 के
आईएएस टॉपर शाह फैजल के दर्द भरे लेख को पढ़ लेने वाले देश के अधिकांश लोगों के मन
में ये अहसास गहरा सकता है कि दरअसल भारत सरकार ने कश्मीर के साथ संवाद का गलत
तरीका अपनाया है। शाह फैजल ने अपने लेख में लगातार बताया है कि गलत तरीके से हो
रहे संवाद से कश्मीर लगातार भारत से दूर होता जा रहा है। शाह का लेख दरअसल एक कश्मीरी
की भावनाओं को सामने लाता है। लेकिन, ये भावनाओं से ज्यादा उस डर को ज्यादा सामने
लाता है, जिसमें कश्मीर के आतंकवाद, अलगाववाद के खिलाफ बोलने से हर कश्मीरी की जिंदगी
जाने का खतरा है। शाह फैजल अपने एक साल के बेटे के साथ अपनी कहानी जोड़कर भी बताते
हैं कि कैसे कश्मीर घाटी में रहने वाला हर नौजवान परेशान है। हर कोई भारत के साथ
खड़ा होने से डर रहा है। ये स्वीकारोक्ति कितनी खतरनाक है। इसका अंदाजा लगाइए कि
ये बात शाह फैजल कह रहा है जो, भारत सरकार की सबसे बड़ी सेवा आईएएस का टॉपर है। और
अभी जम्मू कश्मीर की सरकार में शिक्षा निदेशक के पद पर काम कर रहा है। इसका मतलब
समझना बहुत जरूरी है। हालांकि, सारा मतलब सलीके से शाह फैजल का लिखा ही समझा देता
है। शाह फैजल का सारा गुस्सा पता नहीं टेलीविजन पर घाटी में फैल रहे अलगाववांद,
आतंकवाद की बदसूरत सच्चाई सामने आने से ज्यादा है या फिर इस बात से कि टीवी पर
आतंकवादी बुरहान वानी के साथ तुलना करने से उनकी जान पर खतरे से है। शाह फैजल कह
रहे हैं कि भारत सरकार को टीवी चैनलों को राष्ट्रहित परिभाषित करने की इजाजत नहीं
देनी चाहिए। यहां तक कि शाह फैजल इसे लेकर मीडिया को संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति
के अधिकार पर भी सवाल खड़ा कर देते हैं। शाह फैजल कई टीवी चैनलों का नाम लेकर
लिखते हैं कि इन चैनलों पर जो दिखाया जा रहा है, इससे भारत संवाद वाली सभ्यता से एक गूंगी,
कुतर्की सभ्यता में बदल सकती है। शाह जब इस तरह से लिखते हैं, तो कई बार
राष्ट्रहित, राष्ट्रवाद, देश कश्मीरियत की चिंता में धुंधला सा होता दिखता है।
कश्मीरियत सबसे पहले होनी चाहिए लेकिन, भारत की सबसे बड़ी सेवा के अधिकारी होने का
नाते कश्मीर और देश की चिंता भी दिखती, तो ज्यादा बेहतर होता।
शाह
फैजल के मुताबिक, सारे टीवी चैनल का प्राइम टाइम सिर्फ कश्मीर घाटी को और ज्यादा
उत्तेजित करने वाला, कश्मीरियों को भारत के खिलाफ खड़ा करने वाला है। शाह कहते हैं
कि इससे राज्य सरकार की मुश्किल और बढ़ने वाली है। शाह कह रहे हैं कि टीवी चैनल
सिर्फ झूठी, लोगों को बांटने वाली, घृणा पैदा करने वाली और लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता
को खत्म करने वाली खबरें दिखा रहे हैं। शाह लिखते हैं कि मुझे एक अनजान फोन कॉल से
पता चला कि एक न्यूजचैनल कैसे उनकी और बुरहान वानी की तुलना कर रहा है। यहां तक
लगता है कि शाह फैजल दरअसल मुश्किल का समाधान खोजने की बात कर रहे हैं। लेकिन,
इसके बाद की लिखी पंक्तियां मुझे डरा रही हैं कि अपनी जान जाने के डर से एक
अमनपसंद कश्मीरी ऐसे व्यवहार करने लगा तो राष्ट्रहित सरकार क्या किसी हाथ में भी
सुरक्षित नहीं रहेगा। शाह कह रहे हैं कि बुरहान वानी से उनकी तुलना उनकी जान को
खतरा तो है ही। साथ ही वो लिखते हैं कि 50 हजार रुपये महीने की नौकरी और 50 लाख
रुपये के घर कर्ज के साथ कैसे वो सफल कश्मीरी नौजवान बताए जा सकते हैं। शाह यहीं
नहीं रुकते। वो लिखते हैं कि जब महानता का पैमाना किसी के अंतिम संस्कार में
उमड़ने वाली भीड़ हो तो, क्या कोई 50 हजार रुपये महीने के लिए ऐसे ही मर जाना
चाहेगा। इसमें कश्मीर की चिंता कहां दिखती है। हां, यहां एक अमनपसंद कश्मीरी, उस
पर भी एक आईएएस का डर टीवी स्टूडियो की बहस से ज्यादा भावनाएं भड़काने वाला हो
जाता है। शाह के लेख के दर्द, भावनाओं के उफान में शायद ही इन पंक्तियों पर ज्यादा
चर्चा हो लेकिन, क्या ये देश की सबसे बड़ी सेवा को सिर्फ 50 हजार की नौकरी कहकर
अपमानित करने जैसा नहीं है। देश को चलाने का भरोसा जिन अधिकारियों पर होता है उनका
नैतिक बल कमजोर करने जैसा नहीं है। शाह को तो फक्र होना चाहिए था कि देश के चैनल
ये बता रहे हैं कि देखिए सारी विसंगतियों के बाद एक कश्मीरी कैसे देश की सबसे बड़ी
सेवा में सर्वोच्च है। एक कश्मीरी भारत की सबसे बड़ी सेवा में सर्वोच्च होने को
गलत तरीके से कैसे देखा जा सकता है। इतने बेहतर उदाहरण के जरिए आतंकवाद की तरफ
आकर्षित होने वाले नौजवानों को रोकने से बढ़िया तरीका क्या हो सकता है। लेकिन, शाह
फैजल ने तो उल्टा कर दिया। अंतिम यात्रा में भीड़ उमड़ने की बात कहकर तो एक तरह से
घोषित आतंकवादी बुरहान वानी की तरफ ही कश्मीरी नौजवानों को धकेल दिया। शाह फैजल का
लिखा ये ज्यादा खतरनाक इसलिए भी हो जाता है कि क्योंकि, शाह अभी भी जम्मू कश्मीर
के शिक्षा विभाग में निदेशक हैं।
शाह
फैजल लिखते हैं कि भारतीय परंपरा में राज्य अपने लोगों से अनुकूलन के जरिए संवाद
बनाता है उग्र भाषण के जरिए नहीं। लोगों की भलाई के काम के जरिए संवाद बनाता है,
हिंसा से नहीं। अब शाह फैजल ने यहां क्यों नहीं बताया कि भारत सरकार ने कितनी बार
मध्यस्थों के जरिए सबसे बात करने की कोशिश की और इस कोशिश को किन लोगों ने नाकाम
किया। लोगों की भलाई का, कश्मीर में आई बाढ़ के दौरान केंद्र और राज्य सरकार के
काम से बड़ा उदाहरण क्या सकता है। सेना हर हालत में हर कश्मीरी को बचा रही थी। कहां
से हिंसा आ गई। आतंकवादी के जनाजे के बाद हिंसा हो और पुलिस, सेना को मारने की
कोशिश हो, तो संवाद कैसे होगा। ये भी शाह फैजल को बताना चाहिए। शाह मुस्लिम पंरपरा
का हवाला देते हुए भी लिखते हैं कि संवाद सच, धैर्य और आग्रह के आधार पर होता रहा
है। यहां भी शाह ये बताने से बच गए कि संयोग से केंद्र की सरकार और राज्य की सरकार
एक दूसरे अनुकूलन का ही काम कर रहे हैं। तो फिर सच, धैर्य और आग्रह की संवाद की
मुस्लिम परंपरा कौन खत्म कर रहा है। शाह ये भी चिंता जता रहे हैं कि भारतीय राज्य
कश्मीर के मुद्दे को तथाकथित बौद्धिकों, राजनीतिक अवसरवादियों, मौकापरस्तों,
सुरक्षा एजेंसियों और सबसे ज्यादा राष्ट्रहित के स्वघोषित रक्षकों के हाथ में
छोड़ने का जोखिम नहीं ले सकता। शाह फैजल की इस बात से एकदम सहमत हूं। लेकिन, सिर्फ
चार टीवी चैनलों को छोड़कर लगे हाथ तथाकथित बौद्धिकों, राजनीतिक अवसरवादियों,
मौकापरस्तों के बारे में भी खुलकर आ लिखते, तो बेहतर होता। शाह फैजल लिख रहे हैं
कि आप किसी भी किशोर से पूछिए तो वो बताएगा कि भारत सरकार बरसों से कैसे फर्जी
चुनाव, चुनी हुई सरकारों को गिराने, एनकाउंटर और भ्रष्टाचार के जरिए कश्मीरियों से
संवाद कर रही है। शाह का ये लिखा भावनाओं को भड़काने के लिए टीवी चैनलों की
प्राइमटाइम बहस से भी ज्यादा खतरनाक है। फर्जी चुनाव और चुनी हुई सरकार को गिराना
दोनों एक सांस में सही कैसे कहा जा सकता है। फिर शाह ने ये क्यों नहीं बताया कि अटल
बिहारी बाजपेयी के समय में हुए 2002 के चुनावों के बाद जम्मू कश्मीर में ज्यादातर
निष्पक्ष चुनाव हुए हैं। भ्रष्टाचार भारत के हर राज्य में है। इसका मतलब क्या ये
समझा जाए कि हर जगह आतंकवाद हो जाना चाहिए। एनकाउंटर कई बार निर्दोषों के भी हुए
हैं। और ये भारतीय सरकार, सेना को कठघरे में खड़ा करता है। लेकिन, क्या कश्मीरियों
को ये नहीं समझना होगा कि भारत सरकार, सेना कश्मीर की पीढ़ियों को आतंकवाद से
बचाने के लिए ही लगी है। लेकिन, आतंकवादियों को अगर कश्मीरी थोड़ा भी समर्थन देगा
तो, भेद करना मुश्किल होता है। और फिर एक दूसरे पर भरोसा न करने की बुनियाद मजबूत
होती जाती है। शाह फैजल लिखते हैं कि कश्मीरी बेहद संवेदनशील लोग हैं। लेकिन, वो
शक्की भी बहुत हैं। मैं मानता हूं कि कश्मीरी बेहद संवेदनशील, लंबे समय के बुरे
अनुभव की वजह से हर किसी पर संदेह करने वाले हैं लेकिन, वो बेहद उम्दा लोग हैं। बशर्ते
वो कश्मीरी ही रहें। अगर वो पाकिस्तान के झंडे हाथ में थामते हैं, तो कश्मीरी नहीं
हो सकते। कश्मीरी कभी पाकिस्तानी नहीं हो सकता। कभी जनमत संग्रह की नौबत आई, तो
जम्मू कश्मीर के लोग ये बताएंगे कि वो क्या चाहते हैं। वैसे चुनाव भी जनमत संग्रह
होता है। और इस बार के नतीजे ने तो साफ किया है कि हिंदू-मुसलमान की खाई को
जम्मू-कश्मीर के लोग पाटना चाहते हैं। बीजेपी-पीडीपी का गठजोड़ जनमत के दबाव की
मजबूरी में हुआ है। ये इतनी छोटी सी बात राजनीतिक विद्वान लोग क्यों नहीं समझना
चाह रहे हैं। जैसे घर में किसी वजह से पिछड़े बच्चे को घर का हर मजबूत सहारा देता
है। वैसे ही भारत ढेर सारी विसंगतियों की वजह से पिछड़ गए कश्मीर को भारत की
मुख्यधारा में लाना चाहता है। भारत ये एहसान नहीं कर रहा। लेकिन, ये बात कश्मीर को
भी समझना होगा। और आखिर में मैं शाह फैजल वाली बात में एक पंक्ति जोड़कर दोहरा रहा
हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये महत्वपूर्ण काम सीधे तौर पर अपने जिम्मे
ही लेना होगा कि भारत की कश्मीर में और भारतीय कश्मीर की दुनिया में छवि बेहतर हो।
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