महंगाई बढ़ी नही कि सबसे पहली वजह साफ-साफ ये मीडिया से लेकर सरकार तक बताने लगती है कि सप्लाई-डिमांड का मिसमैच यानी मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से ये दाम बढ़े हैं। फिर कोई एक मीडिया चिल्लाना शुरू करता है कि ये मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से ज्यादा जमाखोरी की वजह से हुआ है। इसके बाद सरकार हरकत में आती है और कुछ जमाखोरों को पकड़ा जाता है और कुछेक दिनों-हफ्तों में महंगी बिकने वाली, प्याज-टमाटर सस्ता हो जाता है। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि क्या सिर्फ मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से ही हर बार महंगाई बढ़ती है। क्योंकि, पिछले करीब डेढ़ साल से या यूं कह लें कि एक चक्र पूरा करके कुछेक महीने के लिए महंगाई दर घटने के अलावा करीब दो सालों से लगातार जनता महंगाई की मार झेल रही है। ये महंगाई दर तब भी बढ़ती रही जब देश विदेशी मंदी की मार से जूझ रहा था और लोगों की जेब में पैसे कम आ रहे थे।
अब भला ये पूरे दो साल तक मांग-आपूर्ति का संतुलन बिगड़ने से कैसे हो सकता है। महंगाई दर यानी खाने-पीने के सामान, दूसरे जरूरी उपयोग के सामान, पेट्रोल-डीजल की वजह से महंगे-सस्ते होने वाले सामान या फिर ऐसे ढेर सारे सामान जिनके आधार पर तय होता है कि महंगाई दर कम है या ज्यादा। महंगाई दर कम होने का मतलब बिल्कुल भी ये नहीं होता कि महंगाई घट गई है। दरअसल महंगाई दर घटने का मतलब ये हुआ कि महंगाई के बढ़ने की रफ्तार थोड़ी कम हुई है। गुरुवार को आए ताजा आंकड़े 11 दिसंबर को खत्म हफ्ते के हैं और महंगाई के बढ़ने की रफ्तार इस हफ्ते में भी बढ़ती दिख रही है। खाने-पीने के सामान करीब साढ़े बारह परसेंट महंगे हुए हैं। फ्यूल प्राइस इंडेक्स भी चढ़ा दिखा रहा है करीब ग्यारह परसेंट तक यानी इस इंडेक्स में शामिल सामान भी महंगा हुआ है। तो, क्या ये भी मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से हो रहा है।
दरअसल ऐसा बिल्कुल नहीं है। सच्चाई ये है कि सरकार कीमतों पर काबू का कोई ऐसा सिस्टम तैयार नहीं कर पा रही है जिससे जरूरी सामान लोगों को कम कीमत पर मिल सकें। वो, भी तब जब ज्यादातर जरूरी सामान चाहें वो, खाने-पीने के सामान गेहूं-दाल-चावल हों या रोज इस्तेमाल होने वाली सब्जी- इन्हें उगाने वाले किसान की माली हालत कितनी बदली है इसका अंदाजा हर किसी को है। अब फिर से प्याज ने लोगों को रुलाना शुरू किया और लाल टमाटर लोगों का खून जलाने लगा तो, पहले तो, सरकार ने जमाखोरों पर कार्रवाई और बेहतर सप्लाई के लिए पाकिस्तानी प्याज लाने की बात कहकर कीमतें काबू में आने का भरोसा दिलाया। लेकिन, फिर भी बात बिगड़ने लगी तो, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गुस्से में मीडिया के ऊपर ये ठीकरा फोड़ दिया कि सारी महंगाई मीडिया की वजह से ही है।
शीला दीक्षित के ऊपर तो, सिर्फ एक छोटे से राज्य में लोगों को जरूरी सामान कम कीमत पर उपलब्ध कराने का जिम्मा है लेकिन, अपने केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार साहब का क्या करिएगा जिनके ऊपर पूरे देश को सस्ते में जरूरी खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने से लेकर किसानों के हितों की चिंता का जिम्मा है उनकी बात तो, शायद ही आप लोग भूले होंगे। नहीं जनता तो, भूल ही जाती है इसीलिए वो, लगातार ऐसे बयान देते रहते हैं कि आप उनकी असलियत पहचानने में भूल न करें। क्योंकि, ये तो वो भी जानते हैं जनता की याददाश्त कमजोर होती है। दरअसल ये कृषि मंत्री ही हैं जो, हैं तो, जनता के सेवक लेकिन, अपने बयानों से कंपनियों, मुनाफाखोरों की सेवा करते दिखते हैं। इनके बयानों की लंबी लिस्ट है जो, साफ दिखाती हैं कि महंगाई कम क्यों नहीं होती।
ज्यादा दिन नहीं बीते। जब कृषि मंत्री पवार साहब ने बयान दिया कि मैं कोई ज्योतिषी थोड़े ही हूं जो, बता सकूं कि महंगाई कब घटेगी। लेकिन, समय-समय पर वो, ये जरूर बताते रहे कि अब चीनी महंगी होने वाली है, अब दूध महंगा होने वाला है। और, बिना ज्योतिषी हुए कमाल का ज्ञान है पवार साहब को। सब उन्हीं की आशंकाओं या उम्मीदों कह लीजिए, के मुताबिक, महंगा होता रहा। जुलाई के आसपास बारिश का बहाना भी था। तो, प्रधानमंत्री ने अपनी आर्थिक सलाहकार मंडली के साथ खुद ही मोर्चा संभाल लिया। प्रधानमंत्री जी से लेकर उनके आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और सारी सरकार ने जनता को भुलावा देना शुरू कर दिया कि दिसंबर तक सब ठीक हो जाएगा। उसकी वजह भी साफ थी सरकार सितंबर से नया होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI) लागू करने जा रही थी। इसी आधार पर महंगाई का बढ़ना तय होता है। अब नए WPI का आधार वर्ष 2004-05 को बनाया गया था तो, जाहिर 1993-94 के आधार वर्ष वाले पुराने महंगाई मापने के पैमाने से ये तो, कम ही महंगाई बढ़ना बताएगा। 14 सितंबर को नए WPI के आधार पर आई अगस्त महीने की महंगाई दर करीब दो परसेंट घटकर साढ़े आठ प्रतिशत पर आ गई।
बस प्रधानमंत्री और उनकी आर्थिक सलाहकार मंडली ने दावा करना शुरू कर दिया कि अच्छे मॉनसून की वजह से फसलें अच्छी होंगी और देश में अनाज और दूसरी जरूरी चीजों की अधिकता हो जाएगी तो, दिसंबर तक महंगाई अपने आप कम हो जाएगी। अब मनमोहन जी तो सचमुच बहुत सीधे आदमी हैं। वो, बहुत कठिन समीकरणों को न राजनीति में समझने की कोशिश करते हैं न महंगाई के मामले में। इसीलिए दूसरा कार्यकाल आराम से पूरा करते दिख रहे हैं। लेकिन, चूंकि वो अर्थशास्त्री हैं तो, आंकड़े जरूर समझते हैं।
कुछ आंकड़े मेरे पास हैं वो, मैं पेश कर रहा हूं खुद ही अंदाजा लग जाएगा कि ये महंगाई किसी मांग-आपूर्ति के असंतुलन का नतीजा है क्या ?
2006 के बाद से लगातार हमारा अनाज का उत्पादन बढ़ा है। पिछले साल के कुछ सूखे की वजह से इस साल की फसल पर थोड़ा असर जरूर पड़ा है फिर भी वो, मांग से काफी ज्यादा है।
2007-08 में भारत का गेहूं का उत्पादन रिकॉर्ड 7 करोड़ 80 लाख टन हुआ था। जबकि, उम्मीद 7 करोड़ 68 लाख टन की ही थी।
2009-10 में सिर्फ गेहूं ही नहीं सभी अनाजों की बात करें यानी गेहूं और दालों की तो, अनाज का कुल उत्पादन 21 करोड़ 80 लाख टन तक होने की उम्मीद है। ये पिछले साल से करीब 1 करोड़ 60 लाख टन कम है लेकिन, फिर भी कुल पैदावार इतनी ज्यादा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में लाखों टन गेहूं सड़ चुका है।
2009-10 में गेहूं का उत्पादन पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 8 करोड़ 7 लाख टन होने की उम्मीद है। जबकि, दालों का उत्पादन भी रिकॉर्ड 1 करोड़ 46 लाख टन।
चावल भी इस साल करीब 9 करोड़ टन हुआ। और तिलहन उत्पादन करीब ढाई करोड़ टन का है। गन्ना 27 करोड़ 78 लाख टन का सरकारी अनुमान है।
महंगाई में अब बचती है सब्जी तो, उसका कोई ऐसा बुआई चक्र नहीं होता कि जुलाई-अगस्त की बारिश से सब सुधर जाएगा या सब बिगड़ जाएगा। और, अब तो, दिसंबर भी बीतने वाला है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री जी और उनकी आर्थिक मंडली अब मार्च तक महंगाई दर के साढ़े पांच से छे परसेंट के बीच आ जाने का ख्वाब जनता को दिखा रही है। लेकिन, लगे हाथ कभी रिजर्व बैंक का कोई डिप्टी गवर्नर तो, कभी खुद सरकार का कोई आर्थिक सलाहकार ये बयान भी देता रहता है कि महंगे कच्चे तेल से महंगाई का दबाव बना हुआ है।
जाहिर है सरकार तब तक सोती रहती है जब तक सामान महंगे नहीं हो जाते। और, जनता के साथ मीडिया भी त्राहि-त्राहि नहीं चिल्लाने लगती। मीडिया के लाख चिल्लाने के बाद भी कृषि मंत्री पवार साहब को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि, वो तो उस महाराष्ट्र के विदर्भ से आते हैं जहां किसान फसल बर्बाद होने के बाद आत्महत्या कर लेते हैं फिर भी पवार साहब का राजनीतिक सिक्का सबसे ऊंचे भाव पर महाराष्ट्र में चलता है। और, केंद्रीय सरकार भी मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने, बारिश कम-ज्यादा होने, पैदावार घटने-बढ़ने जैसे बहानों से जनता को फुसलाती है और मीडिएटर यानी मुनाफाखोरों को कमाने का मौका दिए रहती है। बहुत ज्यादा हल्ला मचा तो, कुछ मीडिया पर ठीकरा फोड़कर और कुछ जमाखोरों पर कार्रवाई के विजुअल-तस्वीरें मीडिया को उपलब्ध कराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है। क्योंकि, 3 दिन में प्याज 20 से 80 रुपए किलो और फिर 80 से 40 रुपए किलो आ सकता है तो, एक दो दिन में सामान्य भाव पर भी आ जाएगा। शायद ऐसे ही टमाटर भी एक दो दिन में रसोई में लाने के भाव पर आ जाएगा। इसीलिए शायद ये सवाल इस देश में कभी अहम नहीं रहा कि आखिर पिछले 4 साल में जरूरी खाने-पीने का सामानों का उत्पादन कई गुना बढ़ने के बाद भी कीमतें 300-400 प्रतिशत तक क्यों बढ़ गई हैं। खेती करने वाले किसान को मिलने वाली रकम अभी भी वही है। जाहिर है 200 प्रतिशत भाव सिर्फ मुनाफाखोर बढ़ा रहे हैं। ये छोटी सी बात सरकार समझकर उसका कोई नियमित फॉर्मूला क्यों नहीं लाती। वरना मुनाफाखोर महंगाई के जरिए ऐसे ही अपना खेल करके लोगों की गाढ़ी कमाई खाते रहेंगे और सरकार मीडिया को दोष देकर या फिर कुछ छापे और दूसरी कार्रवाई करके खुद को बचाती रहेगी।
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Thursday, December 23, 2010
Saturday, November 06, 2010
बिहारियों को लात बोनस में मिलता है
घर बैठे कुछ नहीं मिलता और ज्ञान तो बिल्कुल भी नहीं। ज्ञान कैसे मिला ये आगे बताऊंगा ज्ञान के साथ। सात नवंबर को बिटिया के जन्मदिन की वजह से इलाहाबाद जाना पड़ा। 6 को किसी ट्रेन में टिकट नहीं था लेकिन, दिवाली वाली रात इलाहाबाद दुरंतो में ढेर सारी सीटें खाली थीं तुरंत दुरंतो का टिकट कटा लिया। मुहूर्त ट्रेडिंग की वजह से सात बजे के बाद के बुलेटिन में बाजार पर लाइव देने के बाद घर निकला। नोएडा से वसुंधरा शिफ्ट करने का पहला नुकसान झेला। वसुंधरा के सहयोग अपार्टमेंट से आनंद विहार जाने के लिए कोई साधन नहीं था। एक मित्र मुंबई से आए थे उन्हें बुलाया वो, आए और आनंद विहार छोड़कर चले गए। मेट्रो स्टेशन के गेट पर ही एक साहब ने बताया कि आखिरी मेट्रो तो आठ बजे तक ही थी। घड़ी देखा तो, 8.10 हो रहे थे। उनके साथ लौटे, बस या कोई दूसरा साधन पकड़ने के लिए। मैंने उनसे फिर पूछा आप ऊपर तक गए थे क्या तो, उन्होंने कहा नहीं मुझे भी किसी दूसरे सज्जन ने बताया। तब तक मैंने देखा मेट्रो हॉर्न बजाती निकल रही थी। खैर, अब मेट्रो पकड़ी नहीं जा सकती थी वो, आखिरी मेट्रो थी। और, अगर मेट्रो मिल जाती तो, ये पोस्ट भी नहीं बनती।
स्टेशन से बाहर निकलकर सड़क पार की। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए बस थी नहीं। और, दिवाली की रात होने से दूसरे साधन भी कम होने से मैंने ऑटो पकड़ने में ही भलाई समझी। ऑटो वाले ने कहा 100 रुपए। मैंने कहा – 80। उसने कहा- 90 देना हो तो चलो। जिन साहब की वजह से मेट्रो छूटी थी। वो, बगल ही खड़े थे। बोले मैं 70 में करा देता हूं। मुझे लक्ष्मीनगर छोड़ देना। उन्होंने एक दो असफल प्रयास किए। जो, 120 तक मांग रहे थे।मैंने जल्दी से 90 वाली ऑटो की सवारी कर ली। बस इसके बाद दिव्य ज्ञान प्राप्ति शुरू हो गई। जो, शायद पूरा बिहार चुनाव कवर करने पर भी इससे ज्यादा तो नहीं ही हो पाता। मैंने कहा – कहां से हो। वो, पूरे ठसके से बोला – बिहारी हूं। मैंने पूछा कहां के बिहारी हो। मुजफ्फरपुर के। मैंने पूछा – वोट देने नहीं गए। वो, फट पड़ा। किसको वोट देने जाएं। जिनकी वजह से यहां अपनी माटी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। सब साले ... बिहार को बर्बाद कर गए। ललुआ ने तो 15 साल में बिहार का वो हाल कर दिया कि बिहारी, बिहार में रहने लायक रहा नहीं और बाहर बिहारी ऐसा हो गया है कि उससे बास आने लगी है।
इतनी ज्ञान की बातें वो कर रहा था कि मुझे लगा कि अगर बिहार के चुनावी माहौल में वो किसी मंच पर इसी अंदाज में ये सब बोल रहा होता तो, वो बड़ा नेता हो जाता। लालू मसखरी करके इतने साल तक बिहारियों को बेवकूफ बनाए रहे। वो, ऑटो वाला तो ईमानदारी से बिहार और बिहारियों की तरक्की के रास्ते तलाशने की बात कर रहा था। मुझे डर लग रहा था वो, ऑटो तेज रफ्तार में चलाते हुए पीछे पलकटकर हाथ फेंककर गुस्से में मुझसे हड़काने के अंदाज में बात कर रहा था-बता रहा था। बोला बिहार में तो कुछ करने-धरने को है ही नहीं। अब एक गन्ना मिल लग जाए। हजार आदमी को काम मिल जाए। तो, पांच मिल में पांच हजार लोग और उनसे जुड़े-जुड़े पचीस हजार लोगों को काम। देखो यहां ओखला में, नरायणा में कैसे काम होता है। प्रोडक्ट (हां, यही कहा था उसने माल नहीं कहा था) बनता है। रिक्शा वाला, ट्रॉली वाला लाद के ले जाता है, स्टोर तक पहुंचता है आखिर सबका मेहनताना जोड़कर इतना बचता होगा ना। तभी तो। सबकी मजदूरी तो बिहारी ही करता है ना। फिर। यहां दिल्ली में साला काम करो और मजदूरी मांगो तो, मजदूरी काम के बदले मिलती है और लात बोनस में मिलती है। लेकिन, का करें। कम से कम लात बोनस में मिलने के बाद भी मजदूरी मिल तो जाती है। दिन भर ऑटो चलाकर सौ रुपया तो बचाकर घर ले जाते हैं ना।
बिहार में भी तो मजदूरी ही करते थे। लेकिन, बिहार में मजदूरी नहीं मिलता सिर्फ बोनस ही मिलता है। ... मजदूरी तुम्हारा लेकर भाग जाएंगे क्या। साला ... । मैंने फिर कुरेदा लेकिन, वोट देने तो जाना चाहिए था। क्यों जाएं। जहां से रोजी-रोटी चल रही है। वहीं के हैं। बिहारी, दिल्ली को गाली देते-देते अचानक दिल्ली का हो गया। फिर बोला वैसे घर परिवार सब वहां। अम्मी-अब्बू भी वहीं हैं। वहां काम मिले तो, कोई काहे यहां रहे। बिहारी सरमाएदार सब बाहर जाकर इंडस्ट्री लगाता है। बिहार में नहीं लगाता। कहते हैं ना चिराग तले अंधेरा। पहले लोग चिराग जलाते थे। फिर ज्यादा मिट्टी का तेल न जल जाए इसलिए खाना खाके या जरूरी काम करके बुझा देते थे। अब 24 घंटे बिजली चाहिए। दिल्ली में हम लोगों को झुग्गी में भी सरकार मुफ्त में बिजली पानी देती है। बिहार लौटते हैं तो, बिजली-पानी कुछ नहीं मिलता। और पानी जहां मिलता है। बाढ़ आ जाती है। गांव का गांव साफ हो जाता है।
फिर बोला मैंने तो किसी को वहां वोट ही नहीं दिया। तो, मैंने कहा जब वोट नहीं दिया तो, गाली भी तो मत दो। बोला- किसको वोट दें। सबने इलाके के सबसे बड़े गुंडे को टिकट दे दिया। मैंने कहा- कम गुंडे को जिताओ। अचानक फिर उसने ट्रैक बदल दिया। गुंडागर्दी कम हो जाए और बिजली-पानी मिले तो, सब ठीका जाए। मैंने पूछा वैसे नीतीश ने तो कुछ काम किया है ना। बोला – हम अभी गांव गए थे तो, लोग देसी में कह रहे थे। बोला मिथिला में लोग कहते हैं कि
लाल लै चले झोरा
नीतीश लै चले बोरा
मैं इसका मतलब ठीक से नहीं समझ पाया। तो, उसने बताया कि लालू के समय में इतना मिलता था कि झोला खाली बगल में दबाए घूम रहे हैं खाने तक को नहीं। अब नीतीश के राज में बोरा भरके है। खाने को तो दिक्कत नहीं है। स्कूल, कॉलेज में भी नीतीश ने बड़ा काम किया है। कॉपी, किताब भी दे रहा है। पैसा भी दे रहा है। मैंने पूछा कौन बिरादर हो। बोला मुसलमान हैं। वसीम नाम बताया। मैं समझ गया कि 14-15 साल से चल रहे गठजोड़ के बाद भी नीतीश को आखिर नरेंद्र मोदी के नाम से चिढ़ क्यों होने लगती है।
वसीम बोला नेता लोगों को समझना चाहिए कि अब कोई गोबर नहीं खाता। अब सब अन्न खाते हैं। सबको पता है कि कौन कितना बेवकूफ बना रहा है। वसीम लालू के शासन में ही दिल्ली आया था। वसीम जैसों ने तब लालू की मसखरी पर हंसते हुए लालू की तैयार की हुई सांप्रदायिकता के डर से लालू को सत्ता दी। अब वसीम बेवकूफ बनने से इनकार कर चुका है।
स्टेशन से बाहर निकलकर सड़क पार की। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए बस थी नहीं। और, दिवाली की रात होने से दूसरे साधन भी कम होने से मैंने ऑटो पकड़ने में ही भलाई समझी। ऑटो वाले ने कहा 100 रुपए। मैंने कहा – 80। उसने कहा- 90 देना हो तो चलो। जिन साहब की वजह से मेट्रो छूटी थी। वो, बगल ही खड़े थे। बोले मैं 70 में करा देता हूं। मुझे लक्ष्मीनगर छोड़ देना। उन्होंने एक दो असफल प्रयास किए। जो, 120 तक मांग रहे थे।मैंने जल्दी से 90 वाली ऑटो की सवारी कर ली। बस इसके बाद दिव्य ज्ञान प्राप्ति शुरू हो गई। जो, शायद पूरा बिहार चुनाव कवर करने पर भी इससे ज्यादा तो नहीं ही हो पाता। मैंने कहा – कहां से हो। वो, पूरे ठसके से बोला – बिहारी हूं। मैंने पूछा कहां के बिहारी हो। मुजफ्फरपुर के। मैंने पूछा – वोट देने नहीं गए। वो, फट पड़ा। किसको वोट देने जाएं। जिनकी वजह से यहां अपनी माटी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। सब साले ... बिहार को बर्बाद कर गए। ललुआ ने तो 15 साल में बिहार का वो हाल कर दिया कि बिहारी, बिहार में रहने लायक रहा नहीं और बाहर बिहारी ऐसा हो गया है कि उससे बास आने लगी है।
इतनी ज्ञान की बातें वो कर रहा था कि मुझे लगा कि अगर बिहार के चुनावी माहौल में वो किसी मंच पर इसी अंदाज में ये सब बोल रहा होता तो, वो बड़ा नेता हो जाता। लालू मसखरी करके इतने साल तक बिहारियों को बेवकूफ बनाए रहे। वो, ऑटो वाला तो ईमानदारी से बिहार और बिहारियों की तरक्की के रास्ते तलाशने की बात कर रहा था। मुझे डर लग रहा था वो, ऑटो तेज रफ्तार में चलाते हुए पीछे पलकटकर हाथ फेंककर गुस्से में मुझसे हड़काने के अंदाज में बात कर रहा था-बता रहा था। बोला बिहार में तो कुछ करने-धरने को है ही नहीं। अब एक गन्ना मिल लग जाए। हजार आदमी को काम मिल जाए। तो, पांच मिल में पांच हजार लोग और उनसे जुड़े-जुड़े पचीस हजार लोगों को काम। देखो यहां ओखला में, नरायणा में कैसे काम होता है। प्रोडक्ट (हां, यही कहा था उसने माल नहीं कहा था) बनता है। रिक्शा वाला, ट्रॉली वाला लाद के ले जाता है, स्टोर तक पहुंचता है आखिर सबका मेहनताना जोड़कर इतना बचता होगा ना। तभी तो। सबकी मजदूरी तो बिहारी ही करता है ना। फिर। यहां दिल्ली में साला काम करो और मजदूरी मांगो तो, मजदूरी काम के बदले मिलती है और लात बोनस में मिलती है। लेकिन, का करें। कम से कम लात बोनस में मिलने के बाद भी मजदूरी मिल तो जाती है। दिन भर ऑटो चलाकर सौ रुपया तो बचाकर घर ले जाते हैं ना।
बिहार में भी तो मजदूरी ही करते थे। लेकिन, बिहार में मजदूरी नहीं मिलता सिर्फ बोनस ही मिलता है। ... मजदूरी तुम्हारा लेकर भाग जाएंगे क्या। साला ... । मैंने फिर कुरेदा लेकिन, वोट देने तो जाना चाहिए था। क्यों जाएं। जहां से रोजी-रोटी चल रही है। वहीं के हैं। बिहारी, दिल्ली को गाली देते-देते अचानक दिल्ली का हो गया। फिर बोला वैसे घर परिवार सब वहां। अम्मी-अब्बू भी वहीं हैं। वहां काम मिले तो, कोई काहे यहां रहे। बिहारी सरमाएदार सब बाहर जाकर इंडस्ट्री लगाता है। बिहार में नहीं लगाता। कहते हैं ना चिराग तले अंधेरा। पहले लोग चिराग जलाते थे। फिर ज्यादा मिट्टी का तेल न जल जाए इसलिए खाना खाके या जरूरी काम करके बुझा देते थे। अब 24 घंटे बिजली चाहिए। दिल्ली में हम लोगों को झुग्गी में भी सरकार मुफ्त में बिजली पानी देती है। बिहार लौटते हैं तो, बिजली-पानी कुछ नहीं मिलता। और पानी जहां मिलता है। बाढ़ आ जाती है। गांव का गांव साफ हो जाता है।
फिर बोला मैंने तो किसी को वहां वोट ही नहीं दिया। तो, मैंने कहा जब वोट नहीं दिया तो, गाली भी तो मत दो। बोला- किसको वोट दें। सबने इलाके के सबसे बड़े गुंडे को टिकट दे दिया। मैंने कहा- कम गुंडे को जिताओ। अचानक फिर उसने ट्रैक बदल दिया। गुंडागर्दी कम हो जाए और बिजली-पानी मिले तो, सब ठीका जाए। मैंने पूछा वैसे नीतीश ने तो कुछ काम किया है ना। बोला – हम अभी गांव गए थे तो, लोग देसी में कह रहे थे। बोला मिथिला में लोग कहते हैं कि
लाल लै चले झोरा
नीतीश लै चले बोरा
मैं इसका मतलब ठीक से नहीं समझ पाया। तो, उसने बताया कि लालू के समय में इतना मिलता था कि झोला खाली बगल में दबाए घूम रहे हैं खाने तक को नहीं। अब नीतीश के राज में बोरा भरके है। खाने को तो दिक्कत नहीं है। स्कूल, कॉलेज में भी नीतीश ने बड़ा काम किया है। कॉपी, किताब भी दे रहा है। पैसा भी दे रहा है। मैंने पूछा कौन बिरादर हो। बोला मुसलमान हैं। वसीम नाम बताया। मैं समझ गया कि 14-15 साल से चल रहे गठजोड़ के बाद भी नीतीश को आखिर नरेंद्र मोदी के नाम से चिढ़ क्यों होने लगती है।
वसीम बोला नेता लोगों को समझना चाहिए कि अब कोई गोबर नहीं खाता। अब सब अन्न खाते हैं। सबको पता है कि कौन कितना बेवकूफ बना रहा है। वसीम लालू के शासन में ही दिल्ली आया था। वसीम जैसों ने तब लालू की मसखरी पर हंसते हुए लालू की तैयार की हुई सांप्रदायिकता के डर से लालू को सत्ता दी। अब वसीम बेवकूफ बनने से इनकार कर चुका है।
Friday, November 05, 2010
शुभ दीपावली
रोशनी के इस त्यौहार पर सभी साथियों की जिंदगी में रोशनी हो। हमेशा खुशी की फुलझड़ियां छूटती रहें। और, काश इस रोशनी के त्यौहार पर थोड़ा अंधेरा उन लोगों के दिमाग से भीं छंटता जो, भ्रष्टाचार और आतंकवाद, नक्सलवाद को हमारी-आपकी जिंदगी में स्थाई कर देना चाह रहे हैं
Friday, October 22, 2010
ये चीन की तरक्की की असली कहानी है
चीन में इस महिला के 8 महीने बच्चे की हत्या कर दी गई |
चीन के Siming इलाके में सारी मानवता को जलील कर देने वाली घटना हुई है। चीनी परिवार नियोजन अधिकारियों ने एक गर्भवती महिला के 8 माह के बच्चे की पेट में ही खतरनाक इंजेक्शन देकर हत्या कर दी। Luo Yanquan कंस्ट्रक्शन वर्कर हैं और उनके पहले ही एक 9 साल की बेटी है। और, डब चीन के Siming के परिवार नियोजन अधिकारियों को पता चला कि Luo Yanquan की पत्नी Xiao Aiying फिर से गर्भवती है तो, सिर्फ एक बच्चे की तानाशाही नीति के तहत उन्होंने जबरदस्ती उसकी भ्रूण हत्या की कोशिश की। पेट में बच्चे के 8 महीने पूरे हो चुके थे। लेकिन, किसी भी बात की परवाह न करके चीन के परिवार नियोजन अधिकारियों ने Xiao Aiying को बुरी तरह से मारा पीटा। और, जबरदस्ती घातक इंजेक्शन के जरिए बच्चे की हत्या कर दी।
Luo Yanquan ने इसकी शिकायत पुलिस में करनी चाही लेकिन, वहां उनकी किसी ने नहीं सुनी। न तो वहां का डरा-दबा-प्रतिबंधित मीडिया Luo Yanquan की मदद करने के लिए सामने आया। यहां तक कि इस ज्यादती के खिलाफ मामला दायर करने के लिए वकील तक नहीं मिला। थक हारकर Luo Yanquan ने अपने ब्लॉग पर अपनी दुभरी दास्तान लिखी। जिसे देखकर अल जजीरा चैनल ने इसकी रिपोर्ट तैयार कराई और ये दुनिया के मीडिया में आया। लेकिन, ये एक कहानी है। सच्चाई ये है कि चीन की पूरी तरक्की की बुनियाद में ऐसे कितने अजन्मे-जन्मे बच्चों की लाशें दबा दी गई हैं।
Friday, October 08, 2010
अयोध्या को इस नजरिए से देखिए
अयोध्या की विवादित जमीन श्रीरामजन्मभूमि है या नहीं- इस पर 30 सितंबर को आए अदालत के फैसले के बाद लगने लगा था कि देश सचमुच 1992 से काफी आगे बढ़ चुका है और अब इस मुद्दे पर राजनीति की संभावना बिल्कुल नहीं है। लेकिन, अयोध्या के एतिहासिक फैसले के चंद घंटों बाद ही धीरे-धीरे फिर से ये मसला साफ होने लगा कि देश भले ही 1992 से काफी आगे बढ़ चुका हो लेकिन, देश चलाने वाले या फिर इसे चलाने की चाह रखने वाले देश को इतना आगे जाने देने का मन नहीं बना पाए हैं। देर शाम तक धीरे-धीरे सदभाव वाले बयान तीखे होने लगे और ये साफ दिखने लगा कि फिलहाल अयोध्या के लिए सीता के श्राप से मुक्त होने का समय नहीं आया है। ये किंवदंती है कि जब सीता को अयोध्या छोड़ना पड़ा तो, उन्होंने कहाकि जो अयोध्यावासी उनके ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ नहीं खड़े हो पा रहे हैं उन्हें समृद्धि-खुशहाली नहीं मिल सकेगी।
अब बार-बार जो ये कहा जा रहा है कि देश 1992 से बहुत आगे निकल चुका है यानी अब धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर कुछ नहीं होगा। अब मुद्दा विकास का है। और, नौजवान इस मुद्दे से भटकने को तैयार नहीं है। और, सच्चाई भी यही है कि अगर इसी नजरिए से अयोध्या को देखा जाए तो, इस विवाद का हल भी आसानी से निकल सकता है और सीता के श्राप से अयोध्या को मुक्ति भी मिल सकती है। अयोध्या विवाद की वजह से केंद्र और राज्य सरकार ने इस छोटे से कस्बे टाइप के शहर को छावनी बना रखा है। बावजूद इसके अयोध्या में ओसतन 10 से 12 लाख रामभक्त रामलला के दर्शन करने के लिए यहां चले आते हैं। लंबी सुरक्षा प्रक्रिया और रामलला का इतने सालों से कनात के मंदिर में रहना भी उनकी आस्था कम नहीं कर पा रहा है। लेकिन, सितंबर महीने में अयोध्या पर फैसले की तारीख ने ऐसी दहशत पैदी की कि सिर्फ डेढ़ लाख रामभक्त ही यहां आए। ये वो धार्मिक भक्त हैं जिनकी राम पर आस्था है। राम लला बिराजमान के अस्थायी मन्दिर के प्रधान पुजारी महंत आचार्य सत्येन्द्र दास बताते हैं कि सामान्य दिनों में राम लला के दर्शन को प्रतिदिन सात से आठ हजार लोग आते हैं और धार्मिक महत्व के दिनों में यह संख्या 15 हजार तक पहुंच जाती है।
अब सिर्फ अगर इस एक आंकड़े से बात को आगे ले जाएं और मान लें कि औसतन दस लाख लोग भी आम दिनों में अयोध्या में रामजन्मभूमि के दर्शन करने आते हैं तो, सितंबर में नौ लाख चालीस हजार भक्त अयोध्या नहीं आ पाए। और, अगर एक आने वाले रामभक्त का अयोध्या में खर्च एक हजार रुपए भी मान लें तो, सितंबर महीने के तनावपूर्ण माहौल में अयोध्या को नुकसान हुआ करीब सौ करोड़ रुपए का। जो, अयोध्या के फूल वाले से लेकर मंदिर के चढ़ावे तक में जाता। ये दस लाख भक्त भी वो हैं जो, अयोध्या के आसपास के इलाकों से यानी उत्तर प्रदेश और उससे सटे राज्यों से आने वाले भक्तों की संख्या है।
ये तब है जब अभी अयोध्या को भारतीयों की पर्यटन स्थल सूची में बहुत नीचे जगह मिल पाती है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश का हिंदू भी जब धार्मिक यात्रा की योजना बनाता है तो, उसकी सूची में वैष्णो देवी, तिरुपति बालाजी, शिरडी जैसे मंदिर ऊपर की सूची में रहते हैं। बाहर के टूरिस्ट फिर चाहे वो धार्मिक यात्रा पर हों या सिर्फ घूमकर भारत देखने के मूड में उनकी लिस्ट में तो अयोध्या बिल्कुल ही नहीं रहता है। ये तब है जब इस देश में सर्व सहमति से अगर किसी एक भगवान पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों की बात हो तो वो संभवत: राम ही होंगे।
जाहिर है रामराज्य के जरिए यानी राममंदिर के दर्शन के लिए आने वाले भक्तों के जरिए अयोध्या के विकास की नई कहानी लिखी जा सकती है। राममंदिर के निर्माण के साथ इस शहर की तकदीर बदल सकती है। और, ये तकदीर सिर्फ हिंदुओं की नहीं बदलेगी। रामलला के कपड़े पिछले दस सालों से अयोध्या को दोराही कुआं इलाके के सादिक अली सिलते हैं। वो, कहते हैं कि रामलला को पहनाए जाने वाले कपड़े उनके हाथ के सिले हैं ये उनके लिए गर्व की बात है। क्योंकि, राम तो सबके हैं। शहर में खड़ाऊं बनाने से लेकर मूर्तियां बनाने तक के काम में हिंदुओं के साथ मुस्लिमों की भी अच्छी भागीदारी है। अयोध्या एक ऐसा शहर है जो, हिंदुओं के लिए भगवान राम की जन्मभूमि की आस्था है तो, अवध के नवाबों की विरासत भी ये शहर समेटे हैं लेकिन, फिर भी ये शहर वीरान है तो, इसकी सबसे बड़ी वजह ये विवाद ही है।
अयोध्या में अवध शासकों के समय के कई मुस्लिमों के महत्व के स्थानों के साथ 3000 से ज्यादा मंदिर हैं। निर्मोही, निरंजनी, निर्वाणी, उदासीन, वैष्णव सहित लगभग सभी अखाड़ों के यहां बड़े ठिकाने हैं। शहर में दस हजार से ज्यादा साधु हमेशा रहते हैं। लेकिन, इतनी विविधता और बताने-दिखाने की समृद्ध विरासत होने के बावजूद इस शहर के लोग बेकारी, कम आमदनी से जूझ रहे हैं। अयोध्या के रास्ते में कुछ चीनी मिलों की बदबू यहां आने वाले को भले ही बड़ी इंडस्ट्री के होने का भ्रम पैदा करे लेकिन, सच यही है कि अयोध्या में चीनी मिलों के अलावा कोई ऐसी इंडस्ट्री भी नहीं है जहां 100 लोगों को भी रोजगार मिला है। किसी बड़ी कंपनी का शोरूम नहीं है। मनोरंजन का कोई साधन नहीं है। अयोध्या शहर की बाजार कस्बों से बदतर नहीं तो बेहतर भी नहीं है। शहर के लोगों की औसत महीने की कमाई 100 रुपए से ज्यादा नहीं है।
देश में शायद ही किसी को अयोध्या का दशहरा या दिवाली याद आता हो। लोगों को पता भी नहीं है कि अयोध्या में दिवाली दशहरा मनाया भी जाता है या नहीं। मैं इलाहाबाद से हूं और वहां दशहरे के दस दिनों में शहर के हर मोहल्ले की चौकी देखने का अलग ही आकर्षण होता है। पूरा शहर उल्लास में होता है। दिल्ली से लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली रामलीलाएं भी चर्चा का वजह बनती हैं। लेकिन, दशहरा-दिवाली में भी इस शहर में उत्साह नहीं होता है। जबकि, राम, रावण पर विजय हासिल करके लौटे तो इसी अयोध्या ही थे। फिर अन्याय पर न्याय की विजय के इस महापर्व में इस शहर को जरा भी जगह क्यों नहीं मिल पा रही है। अब सारा मामला यही है कि आस्था से भले ही कानूनी फैसले न होते हों और तथाकथित आस्थावान लोग भले ही आस्था और न्याय को पूरी तरह से ध्यान में रखकर दिए कानून के फैसले को मानने को तैयार न हों। लेकिन, रास्तो तो यही मानना पड़ेगा। भले ही दोनों पक्षों की आस्था कुछ भी कहती हो।
बार-बार ये बात होती है कि देश बहुत आगे निकल गया है। देश के कई राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक भी ये कहते अकसर दिखते रहे कि अब विकास पर ही चुनाव जीता जा सकता है। विकास ही नेता को बड़ा बनाएगा। अभी भी पिछड़े राज्यों के अगुवा उत्तर प्रदेश के लिए भी जरूरी है कि धार्मिक-जातिगत आधार पर नहीं, विकास के आधार पर मुद्दे तय हों। और, अयोध्या को रामजन्मभूमि एक उच्च अदालत ने मान लिया है। उसे आधार बनाकर समृद्ध अयोध्या और उसके जरिए अयोध्या से सटे उत्तर प्रदेश के कई जिलों के विकास की कहानी लिखी जा सकती है।
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)
अब बार-बार जो ये कहा जा रहा है कि देश 1992 से बहुत आगे निकल चुका है यानी अब धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर कुछ नहीं होगा। अब मुद्दा विकास का है। और, नौजवान इस मुद्दे से भटकने को तैयार नहीं है। और, सच्चाई भी यही है कि अगर इसी नजरिए से अयोध्या को देखा जाए तो, इस विवाद का हल भी आसानी से निकल सकता है और सीता के श्राप से अयोध्या को मुक्ति भी मिल सकती है। अयोध्या विवाद की वजह से केंद्र और राज्य सरकार ने इस छोटे से कस्बे टाइप के शहर को छावनी बना रखा है। बावजूद इसके अयोध्या में ओसतन 10 से 12 लाख रामभक्त रामलला के दर्शन करने के लिए यहां चले आते हैं। लंबी सुरक्षा प्रक्रिया और रामलला का इतने सालों से कनात के मंदिर में रहना भी उनकी आस्था कम नहीं कर पा रहा है। लेकिन, सितंबर महीने में अयोध्या पर फैसले की तारीख ने ऐसी दहशत पैदी की कि सिर्फ डेढ़ लाख रामभक्त ही यहां आए। ये वो धार्मिक भक्त हैं जिनकी राम पर आस्था है। राम लला बिराजमान के अस्थायी मन्दिर के प्रधान पुजारी महंत आचार्य सत्येन्द्र दास बताते हैं कि सामान्य दिनों में राम लला के दर्शन को प्रतिदिन सात से आठ हजार लोग आते हैं और धार्मिक महत्व के दिनों में यह संख्या 15 हजार तक पहुंच जाती है।
अब सिर्फ अगर इस एक आंकड़े से बात को आगे ले जाएं और मान लें कि औसतन दस लाख लोग भी आम दिनों में अयोध्या में रामजन्मभूमि के दर्शन करने आते हैं तो, सितंबर में नौ लाख चालीस हजार भक्त अयोध्या नहीं आ पाए। और, अगर एक आने वाले रामभक्त का अयोध्या में खर्च एक हजार रुपए भी मान लें तो, सितंबर महीने के तनावपूर्ण माहौल में अयोध्या को नुकसान हुआ करीब सौ करोड़ रुपए का। जो, अयोध्या के फूल वाले से लेकर मंदिर के चढ़ावे तक में जाता। ये दस लाख भक्त भी वो हैं जो, अयोध्या के आसपास के इलाकों से यानी उत्तर प्रदेश और उससे सटे राज्यों से आने वाले भक्तों की संख्या है।
ये तब है जब अभी अयोध्या को भारतीयों की पर्यटन स्थल सूची में बहुत नीचे जगह मिल पाती है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश का हिंदू भी जब धार्मिक यात्रा की योजना बनाता है तो, उसकी सूची में वैष्णो देवी, तिरुपति बालाजी, शिरडी जैसे मंदिर ऊपर की सूची में रहते हैं। बाहर के टूरिस्ट फिर चाहे वो धार्मिक यात्रा पर हों या सिर्फ घूमकर भारत देखने के मूड में उनकी लिस्ट में तो अयोध्या बिल्कुल ही नहीं रहता है। ये तब है जब इस देश में सर्व सहमति से अगर किसी एक भगवान पर हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों की बात हो तो वो संभवत: राम ही होंगे।
जाहिर है रामराज्य के जरिए यानी राममंदिर के दर्शन के लिए आने वाले भक्तों के जरिए अयोध्या के विकास की नई कहानी लिखी जा सकती है। राममंदिर के निर्माण के साथ इस शहर की तकदीर बदल सकती है। और, ये तकदीर सिर्फ हिंदुओं की नहीं बदलेगी। रामलला के कपड़े पिछले दस सालों से अयोध्या को दोराही कुआं इलाके के सादिक अली सिलते हैं। वो, कहते हैं कि रामलला को पहनाए जाने वाले कपड़े उनके हाथ के सिले हैं ये उनके लिए गर्व की बात है। क्योंकि, राम तो सबके हैं। शहर में खड़ाऊं बनाने से लेकर मूर्तियां बनाने तक के काम में हिंदुओं के साथ मुस्लिमों की भी अच्छी भागीदारी है। अयोध्या एक ऐसा शहर है जो, हिंदुओं के लिए भगवान राम की जन्मभूमि की आस्था है तो, अवध के नवाबों की विरासत भी ये शहर समेटे हैं लेकिन, फिर भी ये शहर वीरान है तो, इसकी सबसे बड़ी वजह ये विवाद ही है।
अयोध्या में अवध शासकों के समय के कई मुस्लिमों के महत्व के स्थानों के साथ 3000 से ज्यादा मंदिर हैं। निर्मोही, निरंजनी, निर्वाणी, उदासीन, वैष्णव सहित लगभग सभी अखाड़ों के यहां बड़े ठिकाने हैं। शहर में दस हजार से ज्यादा साधु हमेशा रहते हैं। लेकिन, इतनी विविधता और बताने-दिखाने की समृद्ध विरासत होने के बावजूद इस शहर के लोग बेकारी, कम आमदनी से जूझ रहे हैं। अयोध्या के रास्ते में कुछ चीनी मिलों की बदबू यहां आने वाले को भले ही बड़ी इंडस्ट्री के होने का भ्रम पैदा करे लेकिन, सच यही है कि अयोध्या में चीनी मिलों के अलावा कोई ऐसी इंडस्ट्री भी नहीं है जहां 100 लोगों को भी रोजगार मिला है। किसी बड़ी कंपनी का शोरूम नहीं है। मनोरंजन का कोई साधन नहीं है। अयोध्या शहर की बाजार कस्बों से बदतर नहीं तो बेहतर भी नहीं है। शहर के लोगों की औसत महीने की कमाई 100 रुपए से ज्यादा नहीं है।
देश में शायद ही किसी को अयोध्या का दशहरा या दिवाली याद आता हो। लोगों को पता भी नहीं है कि अयोध्या में दिवाली दशहरा मनाया भी जाता है या नहीं। मैं इलाहाबाद से हूं और वहां दशहरे के दस दिनों में शहर के हर मोहल्ले की चौकी देखने का अलग ही आकर्षण होता है। पूरा शहर उल्लास में होता है। दिल्ली से लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली रामलीलाएं भी चर्चा का वजह बनती हैं। लेकिन, दशहरा-दिवाली में भी इस शहर में उत्साह नहीं होता है। जबकि, राम, रावण पर विजय हासिल करके लौटे तो इसी अयोध्या ही थे। फिर अन्याय पर न्याय की विजय के इस महापर्व में इस शहर को जरा भी जगह क्यों नहीं मिल पा रही है। अब सारा मामला यही है कि आस्था से भले ही कानूनी फैसले न होते हों और तथाकथित आस्थावान लोग भले ही आस्था और न्याय को पूरी तरह से ध्यान में रखकर दिए कानून के फैसले को मानने को तैयार न हों। लेकिन, रास्तो तो यही मानना पड़ेगा। भले ही दोनों पक्षों की आस्था कुछ भी कहती हो।
बार-बार ये बात होती है कि देश बहुत आगे निकल गया है। देश के कई राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक भी ये कहते अकसर दिखते रहे कि अब विकास पर ही चुनाव जीता जा सकता है। विकास ही नेता को बड़ा बनाएगा। अभी भी पिछड़े राज्यों के अगुवा उत्तर प्रदेश के लिए भी जरूरी है कि धार्मिक-जातिगत आधार पर नहीं, विकास के आधार पर मुद्दे तय हों। और, अयोध्या को रामजन्मभूमि एक उच्च अदालत ने मान लिया है। उसे आधार बनाकर समृद्ध अयोध्या और उसके जरिए अयोध्या से सटे उत्तर प्रदेश के कई जिलों के विकास की कहानी लिखी जा सकती है।
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)
Monday, August 23, 2010
एक फैशन रिपोर्टर की इच्छा
एक फैशन रिपोर्टर अपने दोस्त से
U know today I got biggest compliment of my life.
Someone said na ki u looks like a super model if u have some height
Even she said na ki u looks like a short super model
U know today I got biggest compliment of my life.
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Sunday, August 22, 2010
फैशन रिपोर्टर और शाहरुख खान
दिल्ली की एक फैशन रिपोर्टर शाहरुख खान से
मैं आपसे शादी करना चाहती हूं
शाहरुख खान – मुझे कोई दिक्कत नहीं अगर आपकी मम्मी को एतराज ना हो तो
फैशन रिपोर्टर – हां, मेरी मम्मी को दिक्कत होगी क्योंकि, वो भी आपको प्यार करती है
शाहरुख खान – कोई बात नहीं जब मैं 20 साल बाद आऊंगा तो, तुम्हारी बेटी मुझसे शादी के लायक हो जाएगी।
और, फैशन रिपोर्टर शाहरुख की इस हाजिरजवाबी पर लाजवाब थी। कुछ सो स्वीट टाइप की।
(डिसक्लेमर- ये सारी बातचीत चलताऊ अंग्रेजी में हुई थी और उसी तरह से शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ था। हिंदी में ये सारी बातचीत फूहड़ता होती। अंग्रेजी में ये बातचीत आधुनिक होने का सबूत देती है।)
मैं आपसे शादी करना चाहती हूं
शाहरुख खान – मुझे कोई दिक्कत नहीं अगर आपकी मम्मी को एतराज ना हो तो
फैशन रिपोर्टर – हां, मेरी मम्मी को दिक्कत होगी क्योंकि, वो भी आपको प्यार करती है
शाहरुख खान – कोई बात नहीं जब मैं 20 साल बाद आऊंगा तो, तुम्हारी बेटी मुझसे शादी के लायक हो जाएगी।
और, फैशन रिपोर्टर शाहरुख की इस हाजिरजवाबी पर लाजवाब थी। कुछ सो स्वीट टाइप की।
(डिसक्लेमर- ये सारी बातचीत चलताऊ अंग्रेजी में हुई थी और उसी तरह से शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ था। हिंदी में ये सारी बातचीत फूहड़ता होती। अंग्रेजी में ये बातचीत आधुनिक होने का सबूत देती है।)
इस बार देश की इज्जत चली जाए तो, बेहतर
पता नहीं मैं भी ऐसा क्यों हो गया हूं। मुझे लग रहा है कि देश की इज्जत एक बार चली ही जानी चाहिए। अब बताइए भला कोई भी ऐसे कैसे सोच सकता है कि देश की इज्जत चली जाए। देश की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी जी कह रही हैं कि ये देश की इज्जत से जुड़ा मामला है। देश के सबसे बड़े मीडिया परिवार को चलाने वाले सुब्रत रॉय सहारा जी भी कह रहे हैं कि अभी तक जो हुआ, सो हुआ। अब बस करो। लेकिन, मेरी भी गुस्ताखी देखिए कि मैं कह रहा हूं कि नहीं देश की इज्जत इस बार चली जाने दीजिए।
साला देश की इज्जत भी गजब हो गई है। वैसे तो, ये मुझे समझ में ही नहीं आता कि आखिर ये हमारा देश भी और इसकी इज्जत भी। हमारी इज्जत हमसे ताकतवर और बड़े देश अमरीका-चीन तो उतारते ही रहते हैं। पाकिस्तान, नेपाल भी जब चाहे तब हमारी इज्जत की एक परत उधेड़ देते हैं। पर हम हैं कि इज्जत बचाने में लग जाते हैं कि चलो एक ही परत तो उधड़ी है अब बचा लेते हैं।
अब वही हाल है माइक फेनेल नामक प्राणी जाने कितना पहले से कलमाड़ी के काले कारनामों की तरफ इशारा कर रहा था। हमारी अपनी संस्थाएं – साल भर पहले आई कम्पट्रोलर एंड ऑडीटर जनरल की रिपोर्ट हो या फिर अभी आई चीफ विजिलेंस कमीशन की रिपोर्ट – बता रही थीं कि सब गड़बड़झाला है। लेकिन, किसी का ध्यान नहीं गया। अब बस समझाने में लग गए हैं कि किसी तरह देश की इज्जत बच जाए। बाद में देखेंगे कि किसने कितना काला किया है।
कुल मिलाकर बस इरादा कुछ ऐसा ही है कि किसी तरह खेल हो जाए तो, फिर खेल कर लें। भ्रष्टाचार का खेल ऐसा है ही कि किसी को भी भ्रष्ट करने की ताकत रखता है। खेल मंत्री साहब की कोई खेल वाला सुनता तो है नहीं। फिर भी कह रहे हैं कि खेल हो जाने दीजिए फिर कोई बख्शा नहीं जाएगा। सब यही कह रहे हैं कि खेल हो जाने दीजिए। और, मैं ये कह रहा हूं कि अगर ‘खेल’ हो ही गया तो, फिर कोई क्या कर लेगा। इसीलिए मेरी ये दिली इच्छा है कि हे भगवान इस बार देश की इज्जत चली जाने दो। शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी बहाने कुछ विरोध के स्वर बनें, मजबूत हों, कुछ कार्रवाई हो। वरना तो इस देश में भ्रष्टाचार पर गजब की आम सहमति बन चुकी है। काफी हद तक सांसदों की सैलरी बढ़ाने जैसी आम सहमति भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बन चुकी है।
साला देश की इज्जत भी गजब हो गई है। वैसे तो, ये मुझे समझ में ही नहीं आता कि आखिर ये हमारा देश भी और इसकी इज्जत भी। हमारी इज्जत हमसे ताकतवर और बड़े देश अमरीका-चीन तो उतारते ही रहते हैं। पाकिस्तान, नेपाल भी जब चाहे तब हमारी इज्जत की एक परत उधेड़ देते हैं। पर हम हैं कि इज्जत बचाने में लग जाते हैं कि चलो एक ही परत तो उधड़ी है अब बचा लेते हैं।
अब वही हाल है माइक फेनेल नामक प्राणी जाने कितना पहले से कलमाड़ी के काले कारनामों की तरफ इशारा कर रहा था। हमारी अपनी संस्थाएं – साल भर पहले आई कम्पट्रोलर एंड ऑडीटर जनरल की रिपोर्ट हो या फिर अभी आई चीफ विजिलेंस कमीशन की रिपोर्ट – बता रही थीं कि सब गड़बड़झाला है। लेकिन, किसी का ध्यान नहीं गया। अब बस समझाने में लग गए हैं कि किसी तरह देश की इज्जत बच जाए। बाद में देखेंगे कि किसने कितना काला किया है।
कुल मिलाकर बस इरादा कुछ ऐसा ही है कि किसी तरह खेल हो जाए तो, फिर खेल कर लें। भ्रष्टाचार का खेल ऐसा है ही कि किसी को भी भ्रष्ट करने की ताकत रखता है। खेल मंत्री साहब की कोई खेल वाला सुनता तो है नहीं। फिर भी कह रहे हैं कि खेल हो जाने दीजिए फिर कोई बख्शा नहीं जाएगा। सब यही कह रहे हैं कि खेल हो जाने दीजिए। और, मैं ये कह रहा हूं कि अगर ‘खेल’ हो ही गया तो, फिर कोई क्या कर लेगा। इसीलिए मेरी ये दिली इच्छा है कि हे भगवान इस बार देश की इज्जत चली जाने दो। शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी बहाने कुछ विरोध के स्वर बनें, मजबूत हों, कुछ कार्रवाई हो। वरना तो इस देश में भ्रष्टाचार पर गजब की आम सहमति बन चुकी है। काफी हद तक सांसदों की सैलरी बढ़ाने जैसी आम सहमति भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बन चुकी है।
Thursday, July 29, 2010
मनमोहन जी आप भी!
अब मनमोहन जी तो सचमुच बहुत सीधे आदमी हैं। वो, बहुत कठिन समीकरणों को न राजनीति में समझने की कोशिश करते हैं न महंगाई के मामले में। इसीलिए दूसरा कार्यकाल आराम से पूरा करते दिख रहे हैं। लेकिन, चूंकि वो अर्थशास्त्री हैं तो, आंकड़े जरूर समझते हैं।
कुछ आंकड़े मेरे पास हैं वो, मैं पेश कर रहा हूं खुद ही अंदाजा लग जाएगा कि ये महंगाई किसी मांग-आपूर्ति के असंतुलन का नतीजा है क्या ?
2006 के बाद से लगातार हमारा अनाज का उत्पादन बढ़ा है। पिछले साल के कुछ सूखे की वजह से इस साल की फसल पर थोड़ा असर जरूर पड़ा है फिर भी वो, मांग से काफी ज्यादा है।
2007-08 में भारत का गेहूं का उत्पादन रिकॉर्ड 7 करोड़ 80 लाख टन हुआ था। जबकि, उम्मीद 7 करोड़ 68 लाख टन की ही थी।
2009-10 में सिर्फ गेहूं ही नहीं सभी अनाजों की बात करें यानी गेहूं और दालों की तो, अनाज का कुल उत्पादन 21 करोड़ 80 लाख टन तक होने की उम्मीद है। ये पिछले साल से करीब 1 करोड़ 60 लाख टन कम है लेकिन, फिर भी कुल पैदावार इतनी ज्यादा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में लाखों टन गेहूं सड़ चुका है।
2009-10 में गेहूं का उत्पादन पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 8 करोड़ 7 लाख टन होने की उम्मीद है। जबकि, दालों का उत्पादन भी रिकॉर्ड 1 करोड़ 46 लाख टन।
चावल भी इस साल करीब 9 करोड़ टन हुआ। और तिलहन उत्पादन करीब ढाई करोड़ टन का है। गन्ना 27 करोड़ 78 लाख टन का सरकारी अनुमान है।
महंगाई में अब बचती है सब्जी तो, उसका कोई ऐसा बुआई चक्र नहीं होता कि जुलाई-अगस्त की बारिश से सब सुधर जाएगा या सब बिगड़ जाएगा। फिर इस बारिश के भरोसे अपने प्रधानमंत्री जी से लेकर उनके आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और सारी सरकार को भुलावा क्यों है कि दिसंबर तक सब ठीक हो जाएगा। वैसे ऐसे ही भुलावे में रखकर पिछले 5 साल और नई यूपीए के साल भर से ज्यादा हो गए हैं। जय हो ...
Wednesday, June 30, 2010
राष्ट्रीय पार्टी के पिछलग्गू नेता
लग रहा है कि किसी तरह जनता दल यूनाइटेड कम से कम साथ चुनाव लड़ने पर तो राजी हो गई है। अब दबी-छिपी शर्तें जो भी हों लेकिन, शायद नीतीश को भी ये लगा कि बीजेपी से टूटे तो, लालू-पासवान और कांग्रेस उनके चमकदार मुख्यमंत्री के कार्यकाल को जाने कहां इतिहास में ले जाकर पटक देंगे। लेकिन, नीतीश कुमार ने नवीन पटनायक बनने की हर संभावना तलाशने की कोशिश की थी। ये भले ही अभी हुआ नहीं लेकिन, बार-बार उभरने वाला एक सवाल जरूर फिर से खड़ा हो गया है कि क्या बीजेपी भले ही कांग्रेस के अलावा दूसरी अकेली राष्ट्रीय पार्टी होने का दावा करती हो लेकिन, उसका व्यवहार राष्ट्रीय पार्टी होने के उसके दावे को बल नहीं देता। क्या वजह है कि अकसर वो, अपने क्षेत्रीय सहयोगियों से मात खा जाती है।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी बार-बार ये चिल्लाकर कहने की कोशिश कर रहे हैं कि बिहार के चुनाव में भाजपा का कौन नेता प्रचार के लिए जाएगा कौन नहीं ये भाजपा तय करेगी ये तय करने का हक सहयोगी पार्टियों को नहीं है। लेकिन, जब उनसे ये पूछा जाता है कि क्या नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए जाएंगे तो, उनकी जुबान थोड़ी लड़खड़ाने लगती है। वो, गोल-गोल घुमाने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी क्षेत्रीय सहयोगी से तालमेल बिठाने में पूरी पार्टी गोल-गोल घूमने लगती है।
बिहार में जनता दल यूनाइटेड के साथ सरकार बनाने से पहले तक भाजपा नेता और अब सरकार में उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी नीतीश कुमार से न तो कम कद्दावर नेता थे और न ही उनका आधार नीतीश से कम था। लेकिन, साथ सरकार चलाने में नीतीश के उप मुख्यमंत्री क्या बने वो, एकदम से चुप मुख्यमंत्री होकर रह गए। शानदार उपलब्धियों के साथ चलती दिख रही जेडी यू और बीजेपी की सरकार में उपलब्धियों के समय बीजेपी जाने कहां गायब हो जाती है। सिर्फ नीतीश का मुस्कुराता चेहरा दिखता है। यहां तक कि चार साल का कार्यकाल पूरा होते-होते नीतीश को ये भी लगने लगता है कि बीजेपी तो, बस उनकी छवि के ही भरोसे चल रही है। और, इसलिए गठजोड़ से लाभ उनको हो रहा है तो, वो जरा दबकर रहें। नीतीश इस गलतफहमी के शिकार भी हैं कि करीब 12 सालों से बीजेपी के साथ गलबहियां डालने के बाद भी वो, सबसे बड़े तथाकथित सेक्युलर नेता हैं जिस पर मुस्लिम वोट मिलता है। लेकिन, नीतीश को ऐसा लगा क्यूं।
दरअसल नीतीश जो कर रहे हैं उसके पीछे बीजेपी के पुराने सहयोगियों का बीजेपी को समय-समय पर ठेंगा दिखाना रहा है। बीजेपी की 20 साल पुरानी सहयोगी शिवसेना भले ही अपने बूते महाराष्ट्र में कुछ खास न कर सके लेकिन, बीजेपी जैसी राष्ट्रीय आधार वाली पार्टी को महाराष्ट्र में अपने पीछे खड़ा कर देती है। प्रमोद महाजन को छोड़ दें तो, महाराष्ट्र बीजेपी में किसी नेता को इतना ताकतवर होने ही नहीं देती कि वो, विधानसभा चुनाव में सहयोग के फॉर्मूले तय कर सके। इसके लिए दिल्ली से बीजेपी हाईकमान को ठाकरे दरबार में हाजिरी लगानी पड़ती है।
पंजाब में अकाली दल के साथ भी बीजेपी कुछ ऐसे ही रिश्ते निभा रही है। नवजोत सिंह सिद्धू के तेज तर्रार चुटकुले युक्त भाषणों को छोड़ दें तो, वहां की राजनीति में बीजेपी, अकाली दल की पिछलग्गू ही लगती है। जबकि, शहरी वोटबैंक के जरिए बनी अकाली-बीजेपी सरकार में बीजेपी के शहरी वोटबैंक का बड़ा हिस्सा है। ठाकरे-अकाली तो स्वभाव से उग्र हैं लेकिन, बीजेपी देश के सबसे विनम्र मुख्यमंत्री की छवि रखने वाले नवीन पटनायक को भी नहीं संभाल सकी। लोकसभा और उड़ीसा विधानसभा चुनावों के ठीक पहले नवीन पटनायक धीरे से बीजेपी से पल्ला झाड़कर खड़े हो गए और नतीजा सबके सामने है। नवीन पटनायक की पार्टी बिना किसी के सहयोग के सत्ता में है।
ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी ने जिसे सहयोग दिया। धीरे-धीरे सहयोगी पार्टी तो बड़ी होती गई लेकिन, सहयोग करते-करते राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद बीजेपी अपना आधार खोती गई। उत्तर प्रदेश में पहले से तीसरे नंबर पर बीजेपी पहुंच गई है। और, पहले नंबर पर है बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी। यही बहुजन समाज पार्टी जब तीसरे नंबर पर 50-60 विधायकों के साथ थी तो, देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेकर बीजेपी गदगद थी। प्रदेश में उस समय बीजेपी के सबसे ज्यादा विधायक चुनकर आते थे। अब हाल ये है कि प्रदेश बीजेपी का अध्यक्ष खोजने के लिए बीजेपी को बेहद मशक्कत करनी पड़ी। सूर्यप्रताप शाही अच्छे नेता हैं लेकिन, मुश्किल यही है कि उनमें ऐसा चमत्कार नहीं दिखता कि कार्यकर्ता उनके नाम पर उत्साहित होकर पार्टी की खोई नंबर एक पोजीशन लौटा दे। हां, वरुण गांधी 2012 के लिए आगे करने से पार्टी में थोड़ी जान जरूर आई दिखती है लेकिन, सवाल यही है कि गठजोड़ की राजनीति में बीजेपी इतना मात क्यों खाती है।
झारखंड में शिबू सोरेन ने जिस तरह से बीजेपी की बत्ती गुल की है वो, तो इस पार्टी के नेताओं के राजनैतिक कौशल पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। सोरेन ने जिस तरह से अविश्वास प्रस्ताव पर बीजेपी के खिलाफ वोट किया और उसके बाद बाप-बेटे ने मिलकर करीब एक महीने तक बीजेपी और उसके सारे नेताओं को शीर्षासन कराया वो, सबको बीजेपी की गठजोड़ के मामले में कमजोरी याद दिलाता रहेगा। और, यही बाप बेटे क्यों। कर्नाटक में येदियुरप्पा की सरकार बनने से पहले देवगौड़ा बाप-बेटे ने भी तो बीजेपी की नाक में दम कर दिया था।
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी को इस सवाल का जवाब खोजना ही होगा कि आखिर वो, गठजोड़ के गणित को समझने में क्यों गड़बड़ा जाती है। जिन पार्टियों से बीजेपी का गठजोड़ है उन सबके कांग्रेस से अपने राज्य में छत्तीस के रिश्ते हैं और उन पार्टियों के लिए भी बीजेपी का हाथ पकड़ना ही फायदे का सौदा है। फिर भी बीजेपी का हाथ दबा क्यों रहता है।
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की धुर विरोधी तेलगू देशम पार्टी हो या फिर तमिलनाडु में जयललिता, इनको संभालना बीजेपी के लिए क्यों मुश्किल हो जाता है। नॉर्थ ईस्ट के राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों को बीजेपी क्यों अपने पाले में ला नहीं पाती या लाकर भी रख नहीं पाती। बीजेपी को इस सवाल का जवाब जल्दी से जल्दी खोजना होगा। क्योंकि, बीजेपी का ये व्यवहार उसके राष्ट्रीय पार्टी के चरित्र से मेल नहीं खाता। और, जिस तरह से कांग्रेस लगातार ये दावा कर रही है और काफी कुछ सिद्ध भी करती जा रही है कि फिर से सिर्फ कांग्रेस ही इस देश की अकेली राष्ट्रीय पार्टी है वो, भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़ी खतरे की घंटी साबित हो सकती है।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी बार-बार ये चिल्लाकर कहने की कोशिश कर रहे हैं कि बिहार के चुनाव में भाजपा का कौन नेता प्रचार के लिए जाएगा कौन नहीं ये भाजपा तय करेगी ये तय करने का हक सहयोगी पार्टियों को नहीं है। लेकिन, जब उनसे ये पूछा जाता है कि क्या नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए जाएंगे तो, उनकी जुबान थोड़ी लड़खड़ाने लगती है। वो, गोल-गोल घुमाने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी भी क्षेत्रीय सहयोगी से तालमेल बिठाने में पूरी पार्टी गोल-गोल घूमने लगती है।
बिहार में जनता दल यूनाइटेड के साथ सरकार बनाने से पहले तक भाजपा नेता और अब सरकार में उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी नीतीश कुमार से न तो कम कद्दावर नेता थे और न ही उनका आधार नीतीश से कम था। लेकिन, साथ सरकार चलाने में नीतीश के उप मुख्यमंत्री क्या बने वो, एकदम से चुप मुख्यमंत्री होकर रह गए। शानदार उपलब्धियों के साथ चलती दिख रही जेडी यू और बीजेपी की सरकार में उपलब्धियों के समय बीजेपी जाने कहां गायब हो जाती है। सिर्फ नीतीश का मुस्कुराता चेहरा दिखता है। यहां तक कि चार साल का कार्यकाल पूरा होते-होते नीतीश को ये भी लगने लगता है कि बीजेपी तो, बस उनकी छवि के ही भरोसे चल रही है। और, इसलिए गठजोड़ से लाभ उनको हो रहा है तो, वो जरा दबकर रहें। नीतीश इस गलतफहमी के शिकार भी हैं कि करीब 12 सालों से बीजेपी के साथ गलबहियां डालने के बाद भी वो, सबसे बड़े तथाकथित सेक्युलर नेता हैं जिस पर मुस्लिम वोट मिलता है। लेकिन, नीतीश को ऐसा लगा क्यूं।
दरअसल नीतीश जो कर रहे हैं उसके पीछे बीजेपी के पुराने सहयोगियों का बीजेपी को समय-समय पर ठेंगा दिखाना रहा है। बीजेपी की 20 साल पुरानी सहयोगी शिवसेना भले ही अपने बूते महाराष्ट्र में कुछ खास न कर सके लेकिन, बीजेपी जैसी राष्ट्रीय आधार वाली पार्टी को महाराष्ट्र में अपने पीछे खड़ा कर देती है। प्रमोद महाजन को छोड़ दें तो, महाराष्ट्र बीजेपी में किसी नेता को इतना ताकतवर होने ही नहीं देती कि वो, विधानसभा चुनाव में सहयोग के फॉर्मूले तय कर सके। इसके लिए दिल्ली से बीजेपी हाईकमान को ठाकरे दरबार में हाजिरी लगानी पड़ती है।
पंजाब में अकाली दल के साथ भी बीजेपी कुछ ऐसे ही रिश्ते निभा रही है। नवजोत सिंह सिद्धू के तेज तर्रार चुटकुले युक्त भाषणों को छोड़ दें तो, वहां की राजनीति में बीजेपी, अकाली दल की पिछलग्गू ही लगती है। जबकि, शहरी वोटबैंक के जरिए बनी अकाली-बीजेपी सरकार में बीजेपी के शहरी वोटबैंक का बड़ा हिस्सा है। ठाकरे-अकाली तो स्वभाव से उग्र हैं लेकिन, बीजेपी देश के सबसे विनम्र मुख्यमंत्री की छवि रखने वाले नवीन पटनायक को भी नहीं संभाल सकी। लोकसभा और उड़ीसा विधानसभा चुनावों के ठीक पहले नवीन पटनायक धीरे से बीजेपी से पल्ला झाड़कर खड़े हो गए और नतीजा सबके सामने है। नवीन पटनायक की पार्टी बिना किसी के सहयोग के सत्ता में है।
ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी ने जिसे सहयोग दिया। धीरे-धीरे सहयोगी पार्टी तो बड़ी होती गई लेकिन, सहयोग करते-करते राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद बीजेपी अपना आधार खोती गई। उत्तर प्रदेश में पहले से तीसरे नंबर पर बीजेपी पहुंच गई है। और, पहले नंबर पर है बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी। यही बहुजन समाज पार्टी जब तीसरे नंबर पर 50-60 विधायकों के साथ थी तो, देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेकर बीजेपी गदगद थी। प्रदेश में उस समय बीजेपी के सबसे ज्यादा विधायक चुनकर आते थे। अब हाल ये है कि प्रदेश बीजेपी का अध्यक्ष खोजने के लिए बीजेपी को बेहद मशक्कत करनी पड़ी। सूर्यप्रताप शाही अच्छे नेता हैं लेकिन, मुश्किल यही है कि उनमें ऐसा चमत्कार नहीं दिखता कि कार्यकर्ता उनके नाम पर उत्साहित होकर पार्टी की खोई नंबर एक पोजीशन लौटा दे। हां, वरुण गांधी 2012 के लिए आगे करने से पार्टी में थोड़ी जान जरूर आई दिखती है लेकिन, सवाल यही है कि गठजोड़ की राजनीति में बीजेपी इतना मात क्यों खाती है।
झारखंड में शिबू सोरेन ने जिस तरह से बीजेपी की बत्ती गुल की है वो, तो इस पार्टी के नेताओं के राजनैतिक कौशल पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। सोरेन ने जिस तरह से अविश्वास प्रस्ताव पर बीजेपी के खिलाफ वोट किया और उसके बाद बाप-बेटे ने मिलकर करीब एक महीने तक बीजेपी और उसके सारे नेताओं को शीर्षासन कराया वो, सबको बीजेपी की गठजोड़ के मामले में कमजोरी याद दिलाता रहेगा। और, यही बाप बेटे क्यों। कर्नाटक में येदियुरप्पा की सरकार बनने से पहले देवगौड़ा बाप-बेटे ने भी तो बीजेपी की नाक में दम कर दिया था।
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी को इस सवाल का जवाब खोजना ही होगा कि आखिर वो, गठजोड़ के गणित को समझने में क्यों गड़बड़ा जाती है। जिन पार्टियों से बीजेपी का गठजोड़ है उन सबके कांग्रेस से अपने राज्य में छत्तीस के रिश्ते हैं और उन पार्टियों के लिए भी बीजेपी का हाथ पकड़ना ही फायदे का सौदा है। फिर भी बीजेपी का हाथ दबा क्यों रहता है।
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की धुर विरोधी तेलगू देशम पार्टी हो या फिर तमिलनाडु में जयललिता, इनको संभालना बीजेपी के लिए क्यों मुश्किल हो जाता है। नॉर्थ ईस्ट के राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों को बीजेपी क्यों अपने पाले में ला नहीं पाती या लाकर भी रख नहीं पाती। बीजेपी को इस सवाल का जवाब जल्दी से जल्दी खोजना होगा। क्योंकि, बीजेपी का ये व्यवहार उसके राष्ट्रीय पार्टी के चरित्र से मेल नहीं खाता। और, जिस तरह से कांग्रेस लगातार ये दावा कर रही है और काफी कुछ सिद्ध भी करती जा रही है कि फिर से सिर्फ कांग्रेस ही इस देश की अकेली राष्ट्रीय पार्टी है वो, भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़ी खतरे की घंटी साबित हो सकती है।
Tuesday, June 29, 2010
तलाक ले लो, तलाक
सरकार का मानना है कि देश में तलाक न मिलने से लोगों की जिंदगी दूभर हो गई है इसलिए वो, हिंदू विवाह कानून में बदलाव करके विवाह विच्छेद यानी पति-पत्नी के बंधन को तोड़ने के 9 आधारों में दसवां आधार शामिल करने जा रही है जिससे लोगों को आसानी से तलाक मिल सके।
भारत में अभी 1.9 प्रतिशत लोग ही हैं जो, शादी करने के बाद उसे तोड़ने का साहस जुटा पाते हैं। अब हमारी सरकार ज्यादा से ज्यादा लोगों में ये साहस भरना चाहती है और इसीलिए शादी तोड़ने के कानून में पश्चिमी देशों की नकल करके बदलाव करना चाहती है। अब अगर वहां की बात करें तो, हम तलाक के मामले में काफी पिछड़े दिखते हैं। जैसे शादी करने वाले 100 अमेरिकियों में से 55 तलाक लेते हैं और शायद फिर शादी करते हैं या बिना शादी किए ही कई शादियों का मजा लेते हैं। शादी तोड़ने का जो दसवां आधार प्रस्तावित है वो, है इनएविटेबल ब्रेकअप- यानी पति-पत्नी अब एक साथ नहीं रह सकते इस आधार पर उन्हें तलाक मिल जाएगा। इसमें ये साबित करने की जरूरत शायद थोड़ी कम रह जाएगी कि आखिर क्यों साथ नहीं रह सकते।
ये जो नया प्रस्ताव है इसे महिलाओं के पक्ष का बताने की कोशिश हो रही है ये कहकर कि ज्यादातर तला न मिलने से महिलाओं का जीवन नर्क हो जाता है। जबकि, सच्चाई इसके ठीक उलट है भारतीय समाज में तलाक के लिए गए मामलों में से सिर्फ दस प्रतिशत ही ऐसे होते होंगे जिसमें महिला जल्दी तलाक चाह रही होगी। क्योंकि, इस समाज में तलाक के बाद पुरुषों के लिए तो दूसरी पत्नी खोज लेना फिर भी आसान होता है लेकिन, किसी तलाकशुदा महिला को एक तलाकशुदा पुरुष भी बमुश्किल ही पत्नी बनाना चाहता है। महिलाओं के पक्ष का ही बताकर इसे प्रगतिशील बताने की कोशिश हो रही है। समाज में जो दबे-छिपे चल रहा है उसे कानूनी मान्यता देकर प्रगतिशील बनने-बताने की परंपरा तेजी से चल रही है। अब परिवार तोड़ने में तेजी दिखाकर प्रगतिशील बनने की कोशिश हो रही है।
ये प्रगतिशील बनने-बनाने का जो, सिलसिला चल रहा है। वो, एकदम से भारत को अमेरिका बनाने पर तुला है। पहले ये कहा गया कि नए बन रहे समाज में लड़के-लड़की जब घर से दूर रह रहे हैं तो, स्वाभाविक हैं कि उनमें निकट के रिश्ते बनेंगे और इसलिए एक प्रगतिशील फैसला आया कि लिव इन रिलेशनशिप में कोई बुराई नहीं है। यहां तक कि अदालत ने भी तथाकथित प्रगतिशील लोगों के फैसले पर मुहर लगा दी।
एक और प्रगतिशील फैसले को कानूनी मान्यता मिलने के बाद देश के मीडिया में ऐसे दिखा जैसे पूरा भारत समलैंगिक (गे-लेस्बियन) संबंधों के लिए मरा जा रहा था और उसे समलैंगिक संबंधों के कानूनी आधार मिल जाने से आस्थावान लोगों के गंगा नहाने जैसा सुख प्राप्त हो गया है। लगा जैसे सब दबे-छिपे सिर्फ समलैंगिक रिश्ते ही बना रहे थे। वो, तो कानून के डर से विवाह जैसे संस्थान चल रहे थे। शायद भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश होगा जहां विवाह जैसी संस्था इतनी मजबूत है। तथाकथित प्रगतिशील, तर्कवान लोग विवाह संस्था की ढेर सारी खामियां तो लगातार खोजते रहते हैं लेकिन, इस बात को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं कि जिस भारतीय समाज में सिर्फ एक पत्नी की वैधता है उसमें इतने पति-पत्नी के रिश्तों में से सिर्फ 1.9 प्रतिशत ही क्यों कानून के दरवाजे अपने रिश्ते को तोड़ने के लिए पहुंच रहे हैं।
पश्चिमी समाज में तो, पुरुष-स्त्री बस देह के रिश्ते से ही जाने जाते हैं। मुसलमानों तक में एक साथ निकाह वैध होने से एक पुरुष चार स्त्रियों के साथ संबंध बनाने की खुली छूट पा जाता है। लेकिन, भारतीय समाज में सिर्फ एक स्त्री के संबंध कैसे चल रहे हैं इसकी चर्चा दबा दी जाती है। पश्चिमी समाज इनएविटेबल ब्रेक अप के सिद्धांत पर चल रहे हैं तो, मुस्लिम समाज तलाक-तलाक-तलाक कहकर एक नए संबंध की बुनियाद रख लेते हैं। पश्चिमी समाज में पुरुष-स्त्री दोनों के एक साथ कई शारीरिक रिश्ते बनाने और मुस्लिम समाज में एक पुरुष के एक साथ कई स्त्रियों से शारीरिक रिश्ते बनाने की छूट के बावजूद इन समाजों में स्त्रियों के हक की कितनी बात हो पाती है ये छिपी नहीं है।
अब सरकार ऐसा खुलापन और यौन स्वच्छंदता हिंदू समाज को क्यों परोसना चाहती है। क्यों चाहती है कि तलाक-तलाक-तलाक के अंदाज में हिंदू समाज में भी पुरुष-स्त्री सिर्फ देह के रिश्ते से ही बंधे रहें। हिंदू समाज में किसी पुरुष-स्त्री के संबंध में परिवार की जो भूमिका है उसे नजरअंदाज करने की कोशिश क्यों हो रही है। वैसे ही पश्चिमी विकास के मॉडल पर चलते हुए हिंदू परिवार भी एकांगी, न्यूक्लियर होते जा रहे हैं। यानी परिवार तोड़ने का काम तो पहले से ही विकास की नई परिभाषा आसानी से कर रही है। अब लिव इन हो, वयस्क स्त्री-पुरुषों के बीच मनमर्जी से शारीरिक संबंध बनाना हो या फिर दो पुरुषों या दो स्त्रियों के बीच मर्जी से शारीरिक संबंध बनाने को कानूनी मान्यता हो सब परिवार, विवाह की संस्था पर ही तो चोट कर रहे हैं। अब जल्दी से जल्दी तलाक कराकर क्या परिवार, विवाह की संस्था को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश में है सरकार।
लिव इन, वयस्क स्त्री-पुरुष के बीच मनमर्जी से बनाए गए प्रगतिशील संबंधों में हर रोज विवेका बालाजी जैसों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। 2 महीने के बने ब्वॉयफ्रेंड से लेकर पुराने ब्वॉयफ्रेंड की पूरी कतार की तलाश की जा रही है कि किसने इतना तनाव दे दिया कि विवेका को आत्महत्या करनी पड़ी। जरा सोचकर बताइए ना विवाह संस्था में घर में पति से रोज झगड़ने के बावजूद कितनी पत्नियां होंगी जिन्हें तनाव की वजह से आत्महत्या करनी पड़ती है। प्रगतिशील लोगों को आंकड़े कम पड़ने लगेंगे तो, वो घरेलू हिंसा के आंकड़े जुटाकर ले आएंगे और चाहेंगे हर छोटी-मोटी घरेलू हिंसा की शिकार महिला को तलाक मिल जाए। लेकिन, इस बात पर शायद ही बहस करना चाहेंगे कि मनमर्जी से देह के आधार पर बने संबंधों में कितनी हिंसा हो रही है।
सवाल यही है कि हम जब विवाह, परिवार नाम की संस्था का कोई विकल्प नहीं खोज सके हैं तो, फिर इस मजबूत संस्था को पहले ढहा देने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। पश्चिमी समाज से नकलकर लाई गई इनएविटेबल ब्रेक अप थियरी ही है कि वहां की सरकारों को ओल्डएज होम पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है।
एक चुटकुला जो, मेरे मोबाइल पर कुछ दिन पहले ही आया कि भारतीय लड़की ने अमेरिकन लड़की से पूछा मेरे 4 भाई और 6 बहनें हैं। आपके कितने हैं। अमेरिकन लड़की ने जवाब दिया—मेरे भाई-बहन नहीं हैं। मैं अकेली हूं लेकिन, मेरी पहली मॉम से 3 पापा और पहले पापा से 4 मॉम हैं। तथाकथित प्रगतिशील फैसलों से परिवार, विवाह संस्था पर चोट से शायद इस चुटकुले की भारतीय लड़की भी अमेरिकन बन जाएगी।
भारत में अभी 1.9 प्रतिशत लोग ही हैं जो, शादी करने के बाद उसे तोड़ने का साहस जुटा पाते हैं। अब हमारी सरकार ज्यादा से ज्यादा लोगों में ये साहस भरना चाहती है और इसीलिए शादी तोड़ने के कानून में पश्चिमी देशों की नकल करके बदलाव करना चाहती है। अब अगर वहां की बात करें तो, हम तलाक के मामले में काफी पिछड़े दिखते हैं। जैसे शादी करने वाले 100 अमेरिकियों में से 55 तलाक लेते हैं और शायद फिर शादी करते हैं या बिना शादी किए ही कई शादियों का मजा लेते हैं। शादी तोड़ने का जो दसवां आधार प्रस्तावित है वो, है इनएविटेबल ब्रेकअप- यानी पति-पत्नी अब एक साथ नहीं रह सकते इस आधार पर उन्हें तलाक मिल जाएगा। इसमें ये साबित करने की जरूरत शायद थोड़ी कम रह जाएगी कि आखिर क्यों साथ नहीं रह सकते।
ये जो नया प्रस्ताव है इसे महिलाओं के पक्ष का बताने की कोशिश हो रही है ये कहकर कि ज्यादातर तला न मिलने से महिलाओं का जीवन नर्क हो जाता है। जबकि, सच्चाई इसके ठीक उलट है भारतीय समाज में तलाक के लिए गए मामलों में से सिर्फ दस प्रतिशत ही ऐसे होते होंगे जिसमें महिला जल्दी तलाक चाह रही होगी। क्योंकि, इस समाज में तलाक के बाद पुरुषों के लिए तो दूसरी पत्नी खोज लेना फिर भी आसान होता है लेकिन, किसी तलाकशुदा महिला को एक तलाकशुदा पुरुष भी बमुश्किल ही पत्नी बनाना चाहता है। महिलाओं के पक्ष का ही बताकर इसे प्रगतिशील बताने की कोशिश हो रही है। समाज में जो दबे-छिपे चल रहा है उसे कानूनी मान्यता देकर प्रगतिशील बनने-बताने की परंपरा तेजी से चल रही है। अब परिवार तोड़ने में तेजी दिखाकर प्रगतिशील बनने की कोशिश हो रही है।
ये प्रगतिशील बनने-बनाने का जो, सिलसिला चल रहा है। वो, एकदम से भारत को अमेरिका बनाने पर तुला है। पहले ये कहा गया कि नए बन रहे समाज में लड़के-लड़की जब घर से दूर रह रहे हैं तो, स्वाभाविक हैं कि उनमें निकट के रिश्ते बनेंगे और इसलिए एक प्रगतिशील फैसला आया कि लिव इन रिलेशनशिप में कोई बुराई नहीं है। यहां तक कि अदालत ने भी तथाकथित प्रगतिशील लोगों के फैसले पर मुहर लगा दी।
एक और प्रगतिशील फैसले को कानूनी मान्यता मिलने के बाद देश के मीडिया में ऐसे दिखा जैसे पूरा भारत समलैंगिक (गे-लेस्बियन) संबंधों के लिए मरा जा रहा था और उसे समलैंगिक संबंधों के कानूनी आधार मिल जाने से आस्थावान लोगों के गंगा नहाने जैसा सुख प्राप्त हो गया है। लगा जैसे सब दबे-छिपे सिर्फ समलैंगिक रिश्ते ही बना रहे थे। वो, तो कानून के डर से विवाह जैसे संस्थान चल रहे थे। शायद भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश होगा जहां विवाह जैसी संस्था इतनी मजबूत है। तथाकथित प्रगतिशील, तर्कवान लोग विवाह संस्था की ढेर सारी खामियां तो लगातार खोजते रहते हैं लेकिन, इस बात को नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं कि जिस भारतीय समाज में सिर्फ एक पत्नी की वैधता है उसमें इतने पति-पत्नी के रिश्तों में से सिर्फ 1.9 प्रतिशत ही क्यों कानून के दरवाजे अपने रिश्ते को तोड़ने के लिए पहुंच रहे हैं।
पश्चिमी समाज में तो, पुरुष-स्त्री बस देह के रिश्ते से ही जाने जाते हैं। मुसलमानों तक में एक साथ निकाह वैध होने से एक पुरुष चार स्त्रियों के साथ संबंध बनाने की खुली छूट पा जाता है। लेकिन, भारतीय समाज में सिर्फ एक स्त्री के संबंध कैसे चल रहे हैं इसकी चर्चा दबा दी जाती है। पश्चिमी समाज इनएविटेबल ब्रेक अप के सिद्धांत पर चल रहे हैं तो, मुस्लिम समाज तलाक-तलाक-तलाक कहकर एक नए संबंध की बुनियाद रख लेते हैं। पश्चिमी समाज में पुरुष-स्त्री दोनों के एक साथ कई शारीरिक रिश्ते बनाने और मुस्लिम समाज में एक पुरुष के एक साथ कई स्त्रियों से शारीरिक रिश्ते बनाने की छूट के बावजूद इन समाजों में स्त्रियों के हक की कितनी बात हो पाती है ये छिपी नहीं है।
अब सरकार ऐसा खुलापन और यौन स्वच्छंदता हिंदू समाज को क्यों परोसना चाहती है। क्यों चाहती है कि तलाक-तलाक-तलाक के अंदाज में हिंदू समाज में भी पुरुष-स्त्री सिर्फ देह के रिश्ते से ही बंधे रहें। हिंदू समाज में किसी पुरुष-स्त्री के संबंध में परिवार की जो भूमिका है उसे नजरअंदाज करने की कोशिश क्यों हो रही है। वैसे ही पश्चिमी विकास के मॉडल पर चलते हुए हिंदू परिवार भी एकांगी, न्यूक्लियर होते जा रहे हैं। यानी परिवार तोड़ने का काम तो पहले से ही विकास की नई परिभाषा आसानी से कर रही है। अब लिव इन हो, वयस्क स्त्री-पुरुषों के बीच मनमर्जी से शारीरिक संबंध बनाना हो या फिर दो पुरुषों या दो स्त्रियों के बीच मर्जी से शारीरिक संबंध बनाने को कानूनी मान्यता हो सब परिवार, विवाह की संस्था पर ही तो चोट कर रहे हैं। अब जल्दी से जल्दी तलाक कराकर क्या परिवार, विवाह की संस्था को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश में है सरकार।
लिव इन, वयस्क स्त्री-पुरुष के बीच मनमर्जी से बनाए गए प्रगतिशील संबंधों में हर रोज विवेका बालाजी जैसों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही हैं। 2 महीने के बने ब्वॉयफ्रेंड से लेकर पुराने ब्वॉयफ्रेंड की पूरी कतार की तलाश की जा रही है कि किसने इतना तनाव दे दिया कि विवेका को आत्महत्या करनी पड़ी। जरा सोचकर बताइए ना विवाह संस्था में घर में पति से रोज झगड़ने के बावजूद कितनी पत्नियां होंगी जिन्हें तनाव की वजह से आत्महत्या करनी पड़ती है। प्रगतिशील लोगों को आंकड़े कम पड़ने लगेंगे तो, वो घरेलू हिंसा के आंकड़े जुटाकर ले आएंगे और चाहेंगे हर छोटी-मोटी घरेलू हिंसा की शिकार महिला को तलाक मिल जाए। लेकिन, इस बात पर शायद ही बहस करना चाहेंगे कि मनमर्जी से देह के आधार पर बने संबंधों में कितनी हिंसा हो रही है।
सवाल यही है कि हम जब विवाह, परिवार नाम की संस्था का कोई विकल्प नहीं खोज सके हैं तो, फिर इस मजबूत संस्था को पहले ढहा देने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। पश्चिमी समाज से नकलकर लाई गई इनएविटेबल ब्रेक अप थियरी ही है कि वहां की सरकारों को ओल्डएज होम पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है।
एक चुटकुला जो, मेरे मोबाइल पर कुछ दिन पहले ही आया कि भारतीय लड़की ने अमेरिकन लड़की से पूछा मेरे 4 भाई और 6 बहनें हैं। आपके कितने हैं। अमेरिकन लड़की ने जवाब दिया—मेरे भाई-बहन नहीं हैं। मैं अकेली हूं लेकिन, मेरी पहली मॉम से 3 पापा और पहले पापा से 4 मॉम हैं। तथाकथित प्रगतिशील फैसलों से परिवार, विवाह संस्था पर चोट से शायद इस चुटकुले की भारतीय लड़की भी अमेरिकन बन जाएगी।
Monday, June 28, 2010
जाति बताइए, जताइए नहीं
भारतीय समाज में कुछ मिथक ऐसे स्थापित हो जाते हैं कि आगे चलकर वो तथ्यों की तरह इस्तेमाल होते हैं। जैसे- कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पार्टी है, भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिक है और वामपंथ समाजवादियों से भी ज्यादा समाजवादी है। जैसे- मायावती दलितों के हितों की सबसे बड़ी चिंतक हैं। ऐसे ही अब एक नया तथ्य लगभग स्थापित होता जा रहा है। वो, जुड़ा है जनगणना से। जनगणना में अलग-अलग जातियों की संख्या जानने का कोई कॉलम नहीं है और लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव कह रहे हैं कि पिछड़ों की जाति गणना अलग से होनी ही चाहिए जिससे ये साबित हो सके कि पिछड़ों को मिल रहा 27 प्रतिशत आरक्षण उनकी जनसंख्या के लिहाज से काफी कम है। बस इसके बाद तो, उसी सुर में ये भी आवाज तेज होने लगी कि देश के 90 प्रतिशत संसाधनों पर सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों (सवर्ण जातियों) का कब्जा है और ये सवर्ण ही हैं जो, नहीं चाहते कि किसी भी तरह से जातियों की असल संख्या सामने आए। क्योंकि, इससे उनके प्रभुत्व पर खतरा दिखता है।
अब सवाल ये है कि जाति गणना को जरूरी बताने वाले लोग कौन हैं। क्या ये लोग सचमुच जाति गणना इसलिए चाहते हैं कि दबी-कुचली या फिर आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर जातियों को उनके अधिकार मिल सकें। इस सवाल का जवाब निश्चित रूप से ना में मिलेगा। जाति गणना की वकालत करने वाले हों या फिर जाति गणना का विरोध करने वाले दोनों ही पक्षों में से ज्यादातर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने या फिर न खिसकने देने की मंशा से जाति गणना के पक्ष में या विरोध में खड़े हैं।
मैं जाति से उच्च कुल का ब्राह्मण हूं और मैं इस जनगणना में जाति के कॉलम को शामिल करने के पक्ष में हूं। लेकिन, ये जाति गणना सिर्फ पिछड़े, दलित या फिर आदिवासियों की नहीं होनी चाहिए। इस जनगणना में हर उस जाति के आंकड़े सामने आने चाहिए जिसके आधार पर समाज में रोटी-बेटी के संबंध बन रहे हैं। जब किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी में किसी नेता का राजनीतिक भविष्य इसी से तय हो रहा है कि आखिर उसकी जाति क्या है तो, फिर जनगणना में जाति का कॉलम जुड़ने भर से जातिवाद तेज होने की बात कैसे संभव हो सकती है। क्योंकि, जितना जातिवाद होना है वो, तो बिना जाति बताए भी हो रहा है।
मैं मीडिया में हूं और 12 साल इसमें गुजारने के बाद मेरे मन में एक धारणा मजबूत हो गई है कि जातिवाद जाति बताने से नहीं जाति जताने से बढ़ता है। बल्कि, जाति बताकर तो, जातिवाद कम किया जा सकता है। एक धारणा ये भी है कि दो जातियों के बीच अंतर्जातीय संबंध जातिवाद को तेजी से कम कर सकते हैं। देश के सबसे बड़े गांधी परिवार के बारे में ध्यान करके बताइए ना कि इतने ढेर सारे अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक विवाहों के होने के बाद भी गांधी परिवार को मनुस्मृति के लिहाज से स्थापित सर्वोच्च जाति में ही क्यों माना जाता है। बस इसी बात को अच्छे से समझने की जरूरत है कि आखिर कश्मीरी ब्राह्मण नेहरू के परिवार में गांधी जैसा तटस्थ सरनेम और ढेर सारे गैरब्राह्मण संबंधों के बाद भी प्रियंका-राहुल तक को इस देश में जाति के लिहाज से सर्वोच्च वर्ग अपना मानता है।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब बिहार कांग्रेस की लिस्ट में लोकसभा अध्यक्ष के नाम मीरा कुमार के आगे जातिसूचक शब्द छप गया था। मीरा कुमार अपने नाम के आगे जाति सूचक शब्द नहीं लगातीं लेकिन, कांग्रेस को राजनीति करनी है और राजनीति इसी समाज के साथ करनी है इसलिए वो, मीरा कुमार की जाति के लिहाज से ही उनको बढ़ाकर कोटा पूरा कर रही है। मायावती का अपने वारिस के तौर पर खास चमार जाति से एक नौजवान को चुनने का एलान भी मुझे लगता है सबको याद ही होगा। मायावती भी जातिसूचक शब्द नहीं लगाती हैं। लेकिन, मायावती की पूरी राजनीति जातिवाद पर खड़ी है ये कहने से किसे संकोच होगा। राष्ट्रीय पार्टी और सभी जातियों की होने का दम भरने वाली कांग्रेस-बीजेपी से लेकर सिर्फ जाति के आधार पर खड़ी हुई पार्टियों के मुलायम प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती जैसे लोग भी टिकट देने में जाति की बात सबसे पहले करते हैं। और, इसमें इन पार्टियों या इन नेताओं का दोष मैं कैसे दे दूं हम और आप यानी हमारा पूरा समाज वोट भी तो इसी आधार पर करता है कि उसकी जाति का प्रत्याशी किस पार्टी से हैं।
एक जमाने में मुलायम सिंह यादव ने ब्राह्मणों पूज्य बताया तो, ब्राह्मणों की जाति की बड़ी जमात मुलायम के पीछे हो ली। वही जब अमर सिंह ताकतवर हुए तो, ठाकुर समाजवादी पार्टी के माने जाने लगे। जबकि, पार्टी सिर्फ यादव नेतृत्व की थी। फिर बसपा के सोशल इंजीनियरिंग में मायावती के चरण स्पर्श के लिए बड़े टीकाधारी ब्राह्मणों की लाइन तो, मीडिया में सर्वाधिक चर्चा का विषय रही ही। ये जाति बताने की नहीं जाति जताने की लड़ाई चल रही है। समाजवादी पार्टी परशुराम सम्मेलन कराती है तो, मायावती हर जाति की अलग कमेटी बनाकर मॉनिटरिंग करती हैं। बीजेपी-कांग्रेस के नेताओं को लग रहा है कि गड़बड़ ज्यादा हो रही है तो, वो मायावती की जाति के लोगों के घर खाना खाकर-रात गुजारकर संतोष कर ले रहे हैं।
जाट पिछड़े हैं लेकिन, हरियाणा में जरा कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर उनसे ऊपर बैठकर दिखाए। इटावा, एटा में कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर यादवों से ऊपर बैठकर दिखाए। साफ है देश में पूरी तरह से राजनीतिक ताकत किसी जाति के सर्वोच्च या नीच होने की बात तय कर रही है। लेकिन, सब कुछ चल जाति के पैमाने पर ही रहा है। ये गलतफहमी है कि इस जाति को अंतर्जातीय संबंधों ने मात दे दी है। ज्यादातर मौकों पर अंतर्जातीय विवाह दो जातियों के बीच विद्वेष बढ़ा रहे हैं या फिर मजबूत जाति के सिर के ताज में दो मोती और जड़ रहे हैं। हो सकता है कहीं-कहीं इससे कुछ बात बन रही हो लेकिन, अगर जाति को सचमुच मात दी है तो, वो पैसे ने। जाति को मात दी है तो, बाजार की चमक ने।
लेकिन, जाति की खिलाफत करने वाला उससे तगड़ा कोई सिस्टम अब तक ये समाज दे ही नहीं पाया है। इसलिए धीरे-धीरे ये काम हो रहा है। और, इस धीरे-धीरे होने में किसी के नाम के आगे जातिसूचक शब्द लगे होने या जनगणना के आंकड़ों में किसी जाति की संख्या का पता होने से जातिवाद का बढ़ना-घटना नहीं होने वाला। मैं ब्राह्मण हूं और ब्राह्मणों में भी उच्च कुल से। हमारी नात-रिश्तेदारी भी उतने में ही घूम फिरकर होती रही है। लेकिन, अब प्रभाव और पैसे के महत्व ने धीरे-धीरे उच्च कुलीन ब्राह्मणों को अपने से नीच ब्राह्मणों के यहां भी बेटी देने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है। हमारी नात-रिश्तेदारी में एकाध अपवादों को छोड़ दें तो, अभी कोई दूसरी बिरादरी में शादी-ब्याह करने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन, अब इस पर बात-बहस घरों में होने लगी है।
अच्छा होगा कि इस जनगणना में हर जाति की सही संख्या निकलकर आए और निश्चित मानिए कि जनगणना में सभी जातियों के अलग-अलग आंकड़े आए तो, किसी एक जाति समूह को निशाना बनाकर जातिवादी राजनीति करना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। महादलित और पिछड़ों में भी अतिपिछड़े की राजनीति दरअसल इसी संकट से उपजी थी कि उस खास जाति के नेता का काम सिर्फ अपनी जाति से नहीं चल रहा था। और, इस जनगणना में जातियां जितनी बंटी पता चलेंगी इस समाज से जातिवाद उतना ही कम होगा। शायद ये भी मिथक टूटे कि 90 प्रतिशत संसाधनों पर 10 प्रतिशत लोग (वो भी सिर्फ सवर्ण जातियों के) कब्जा करके बैठे हैं।
जाति के साथ आर्थिक हालात का भी पता लगता चले तो, समझ में आए कि कितने ब्राह्मणों की धोती में पैबंद लगे हैं फिर भी वो, सुबह-सुबह नहा धोकर, कुर्ता-धोती में टीनोपाल देकर, टीका लगाकर चमकता चेहरा लेकर दूसरों की दशा सुधारने का दावा करते घूम रहे हैं और कितने ठाकुर किसी रजवाड़े से खुद को जोड़कर बस खोखली शान बनाए-बचाए पड़े हैं। पता ये भी चल सकता है कि देश में दलितों-आदिवासियों का हाल तो, अब भी बहुत बुरा है लेकिन, आरक्षण के नाम पर असली मलाई खाने वाले तथाकथित पिछड़ों के घर दूध-दही की नदियां हमेशा बहती रहीं। शायद पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण के लिए सुप्रीमकोर्ट को दखल देने की जरूरत भी न पड़े। हर जाति की असल संख्या पता लगी तो, जाति बताने वाले भले ज्यादा दिखेंगे लेकिन, जाति जताने वालों के मन में डर बढ़ेगा। और, असली जातिवाद जाति बताने वालों से नहीं जाति जताने वालों से है। इसलिए मैं हर्षवर्धन त्रिपाठी (सोहगौरा), शांडिल्य गोत्र, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत जाति जनगणना के पक्ष में हूं।
अब सवाल ये है कि जाति गणना को जरूरी बताने वाले लोग कौन हैं। क्या ये लोग सचमुच जाति गणना इसलिए चाहते हैं कि दबी-कुचली या फिर आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर जातियों को उनके अधिकार मिल सकें। इस सवाल का जवाब निश्चित रूप से ना में मिलेगा। जाति गणना की वकालत करने वाले हों या फिर जाति गणना का विरोध करने वाले दोनों ही पक्षों में से ज्यादातर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने या फिर न खिसकने देने की मंशा से जाति गणना के पक्ष में या विरोध में खड़े हैं।
मैं जाति से उच्च कुल का ब्राह्मण हूं और मैं इस जनगणना में जाति के कॉलम को शामिल करने के पक्ष में हूं। लेकिन, ये जाति गणना सिर्फ पिछड़े, दलित या फिर आदिवासियों की नहीं होनी चाहिए। इस जनगणना में हर उस जाति के आंकड़े सामने आने चाहिए जिसके आधार पर समाज में रोटी-बेटी के संबंध बन रहे हैं। जब किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी में किसी नेता का राजनीतिक भविष्य इसी से तय हो रहा है कि आखिर उसकी जाति क्या है तो, फिर जनगणना में जाति का कॉलम जुड़ने भर से जातिवाद तेज होने की बात कैसे संभव हो सकती है। क्योंकि, जितना जातिवाद होना है वो, तो बिना जाति बताए भी हो रहा है।
मैं मीडिया में हूं और 12 साल इसमें गुजारने के बाद मेरे मन में एक धारणा मजबूत हो गई है कि जातिवाद जाति बताने से नहीं जाति जताने से बढ़ता है। बल्कि, जाति बताकर तो, जातिवाद कम किया जा सकता है। एक धारणा ये भी है कि दो जातियों के बीच अंतर्जातीय संबंध जातिवाद को तेजी से कम कर सकते हैं। देश के सबसे बड़े गांधी परिवार के बारे में ध्यान करके बताइए ना कि इतने ढेर सारे अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक विवाहों के होने के बाद भी गांधी परिवार को मनुस्मृति के लिहाज से स्थापित सर्वोच्च जाति में ही क्यों माना जाता है। बस इसी बात को अच्छे से समझने की जरूरत है कि आखिर कश्मीरी ब्राह्मण नेहरू के परिवार में गांधी जैसा तटस्थ सरनेम और ढेर सारे गैरब्राह्मण संबंधों के बाद भी प्रियंका-राहुल तक को इस देश में जाति के लिहाज से सर्वोच्च वर्ग अपना मानता है।
अभी ज्यादा समय नहीं हुआ जब बिहार कांग्रेस की लिस्ट में लोकसभा अध्यक्ष के नाम मीरा कुमार के आगे जातिसूचक शब्द छप गया था। मीरा कुमार अपने नाम के आगे जाति सूचक शब्द नहीं लगातीं लेकिन, कांग्रेस को राजनीति करनी है और राजनीति इसी समाज के साथ करनी है इसलिए वो, मीरा कुमार की जाति के लिहाज से ही उनको बढ़ाकर कोटा पूरा कर रही है। मायावती का अपने वारिस के तौर पर खास चमार जाति से एक नौजवान को चुनने का एलान भी मुझे लगता है सबको याद ही होगा। मायावती भी जातिसूचक शब्द नहीं लगाती हैं। लेकिन, मायावती की पूरी राजनीति जातिवाद पर खड़ी है ये कहने से किसे संकोच होगा। राष्ट्रीय पार्टी और सभी जातियों की होने का दम भरने वाली कांग्रेस-बीजेपी से लेकर सिर्फ जाति के आधार पर खड़ी हुई पार्टियों के मुलायम प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती जैसे लोग भी टिकट देने में जाति की बात सबसे पहले करते हैं। और, इसमें इन पार्टियों या इन नेताओं का दोष मैं कैसे दे दूं हम और आप यानी हमारा पूरा समाज वोट भी तो इसी आधार पर करता है कि उसकी जाति का प्रत्याशी किस पार्टी से हैं।
एक जमाने में मुलायम सिंह यादव ने ब्राह्मणों पूज्य बताया तो, ब्राह्मणों की जाति की बड़ी जमात मुलायम के पीछे हो ली। वही जब अमर सिंह ताकतवर हुए तो, ठाकुर समाजवादी पार्टी के माने जाने लगे। जबकि, पार्टी सिर्फ यादव नेतृत्व की थी। फिर बसपा के सोशल इंजीनियरिंग में मायावती के चरण स्पर्श के लिए बड़े टीकाधारी ब्राह्मणों की लाइन तो, मीडिया में सर्वाधिक चर्चा का विषय रही ही। ये जाति बताने की नहीं जाति जताने की लड़ाई चल रही है। समाजवादी पार्टी परशुराम सम्मेलन कराती है तो, मायावती हर जाति की अलग कमेटी बनाकर मॉनिटरिंग करती हैं। बीजेपी-कांग्रेस के नेताओं को लग रहा है कि गड़बड़ ज्यादा हो रही है तो, वो मायावती की जाति के लोगों के घर खाना खाकर-रात गुजारकर संतोष कर ले रहे हैं।
जाट पिछड़े हैं लेकिन, हरियाणा में जरा कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर उनसे ऊपर बैठकर दिखाए। इटावा, एटा में कोई ब्राह्मण अपनी जाति जताकर यादवों से ऊपर बैठकर दिखाए। साफ है देश में पूरी तरह से राजनीतिक ताकत किसी जाति के सर्वोच्च या नीच होने की बात तय कर रही है। लेकिन, सब कुछ चल जाति के पैमाने पर ही रहा है। ये गलतफहमी है कि इस जाति को अंतर्जातीय संबंधों ने मात दे दी है। ज्यादातर मौकों पर अंतर्जातीय विवाह दो जातियों के बीच विद्वेष बढ़ा रहे हैं या फिर मजबूत जाति के सिर के ताज में दो मोती और जड़ रहे हैं। हो सकता है कहीं-कहीं इससे कुछ बात बन रही हो लेकिन, अगर जाति को सचमुच मात दी है तो, वो पैसे ने। जाति को मात दी है तो, बाजार की चमक ने।
लेकिन, जाति की खिलाफत करने वाला उससे तगड़ा कोई सिस्टम अब तक ये समाज दे ही नहीं पाया है। इसलिए धीरे-धीरे ये काम हो रहा है। और, इस धीरे-धीरे होने में किसी के नाम के आगे जातिसूचक शब्द लगे होने या जनगणना के आंकड़ों में किसी जाति की संख्या का पता होने से जातिवाद का बढ़ना-घटना नहीं होने वाला। मैं ब्राह्मण हूं और ब्राह्मणों में भी उच्च कुल से। हमारी नात-रिश्तेदारी भी उतने में ही घूम फिरकर होती रही है। लेकिन, अब प्रभाव और पैसे के महत्व ने धीरे-धीरे उच्च कुलीन ब्राह्मणों को अपने से नीच ब्राह्मणों के यहां भी बेटी देने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है। हमारी नात-रिश्तेदारी में एकाध अपवादों को छोड़ दें तो, अभी कोई दूसरी बिरादरी में शादी-ब्याह करने का साहस नहीं कर पाया है। लेकिन, अब इस पर बात-बहस घरों में होने लगी है।
अच्छा होगा कि इस जनगणना में हर जाति की सही संख्या निकलकर आए और निश्चित मानिए कि जनगणना में सभी जातियों के अलग-अलग आंकड़े आए तो, किसी एक जाति समूह को निशाना बनाकर जातिवादी राजनीति करना ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। महादलित और पिछड़ों में भी अतिपिछड़े की राजनीति दरअसल इसी संकट से उपजी थी कि उस खास जाति के नेता का काम सिर्फ अपनी जाति से नहीं चल रहा था। और, इस जनगणना में जातियां जितनी बंटी पता चलेंगी इस समाज से जातिवाद उतना ही कम होगा। शायद ये भी मिथक टूटे कि 90 प्रतिशत संसाधनों पर 10 प्रतिशत लोग (वो भी सिर्फ सवर्ण जातियों के) कब्जा करके बैठे हैं।
जाति के साथ आर्थिक हालात का भी पता लगता चले तो, समझ में आए कि कितने ब्राह्मणों की धोती में पैबंद लगे हैं फिर भी वो, सुबह-सुबह नहा धोकर, कुर्ता-धोती में टीनोपाल देकर, टीका लगाकर चमकता चेहरा लेकर दूसरों की दशा सुधारने का दावा करते घूम रहे हैं और कितने ठाकुर किसी रजवाड़े से खुद को जोड़कर बस खोखली शान बनाए-बचाए पड़े हैं। पता ये भी चल सकता है कि देश में दलितों-आदिवासियों का हाल तो, अब भी बहुत बुरा है लेकिन, आरक्षण के नाम पर असली मलाई खाने वाले तथाकथित पिछड़ों के घर दूध-दही की नदियां हमेशा बहती रहीं। शायद पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण के लिए सुप्रीमकोर्ट को दखल देने की जरूरत भी न पड़े। हर जाति की असल संख्या पता लगी तो, जाति बताने वाले भले ज्यादा दिखेंगे लेकिन, जाति जताने वालों के मन में डर बढ़ेगा। और, असली जातिवाद जाति बताने वालों से नहीं जाति जताने वालों से है। इसलिए मैं हर्षवर्धन त्रिपाठी (सोहगौरा), शांडिल्य गोत्र, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत जाति जनगणना के पक्ष में हूं।
Thursday, June 24, 2010
इस बार बीती मत बिसारिये
देश के बड़े इलाके में बारिश की फुहारें लोगों को ठंडक देना शुरू कर चुकी हैं। महाराष्ट्र और दूसरे कुछ इलाकों में तो, लगातार हुई बारिश ने बाढ़ से माहौल बना दिए हैं। जून के आखिर तक आग के शोले सी गिरती गर्मी शायद ही किसी को इस समय याद करने का मन हो रहा होगा। लेकिन, यही समय है जब निश्चित तौर पर बीती गर्मी की सुध अच्छे से करनी चाहिए। भले ही गर्मी बीत गई हो लेकिन, बारिश की फुहारों के बीच भी जब सेब और लीची खरीदने जाएंगे तो, उसके दामों पर गर्मी का असर साफ-साफ दिखाई देगा। और, अगर इस बारिश और सर्दी में अगली गर्मी का पुख्ता इंतजाम हम सबने न शुरू किया तो, अगली गर्मी में ये लीची-सेब वैसे ही सिकुड़े मिलेंगे जैसे गर्मियों में आग के शोले के बीच हम-आप सिकुड़ते घूम रहे थे।
ये पर्यावरण दिवस पर मैं कोई रस्मी चिंता वाला लेख नहीं लिख रहा हूं। तापमान जिस तरह से 50 डिग्री सेल्सियम की तरफ बढ़ रहा है उसमें रस्म अदायगी भर से अब काम नहीं चलने वाला। बढ़ते उपभोक्तावाद के दौर में जिस तरह से हर कोई अपनी तरक्की और अपनी तरक्की यानी जेब में ढेर सारे पैसे के बूते सारी सहूलियतें खरीद लेने का सपना देख रहा है वो, खतरनाक है। जिस तरह से हम अपने संसाधनों को खोदकर खत्म कर रहे हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और ये सोचकर खुश हो रहे हैं कि जेब में पैसे रहे तो, सब ठीक हो जाएगा और खतरवाक दिशा में बढ़ रहा है। सोचिए देश के बड़े हिस्से में बिजली नहीं है। बिजली जहां है भी वहां जोरदार कटौती हो रही है। मांग-आपूर्ति की खाई चौड़ी होती जा रही है। शहरों में 2-3 घंटे की बिजली कटौती होने पर इनवर्टर के सहारे खुद को गर्मी के प्रकोप से बचाने की कोशिश अब बेकार होती दिख रही है। अब दिल्ली और उससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक के शहरों में बिजली की कटौती इतनी होने लगी है कि अब पसीने से डूबे लोग अकसर ये कहते मिल रहे हैं कि इनवर्टर बोल गया है। दिल्ली-NCR के पानी में जहरीले रसायन की बात अब वैज्ञानिक तथ्यों के साथ सामने आ रहे हैं। हर दूसरे दिन काले-पीले पानी की सप्लाई पर दिल्ली-NCR में बवाल की खबरें सारी गर्मियां सुर्खियों में रहीं। अब बारिश का पानी आने के साथ शायद काली पड़ चुकी यमुना कुछ उज्ज्वल हुई होगी। दूसरी नदियों में थोड़ा पानी बढ़ा होगा। कई जगह बाढ़ भी दिखने लगेगी और शायद लोगों को गर्मी में नदी की चिटकी तलहटें याद भी नहीं रह जाएंगी।
लेकिन, पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की भयावहता के ये खतरनाक लक्षण अभी दिखने शुरू हुए हैं। बढ़ती गर्मी से पानी घट रहा है। गंगोत्री के ग्लेशियर पिघलने और देश की बड़ी नदियों में पानी घटने की अकसर चर्चा होने लगी है। गर्मी के मौसम में मैदान से भागकर पहाड़ घूमने जाने वालों को शायद अभी आसानी से बात समझ में नहीं आ रही होगी क्योंकि, मसूरी की पहाड़ी पर शाम अभी भी सुहानी हो जाती है। मसूरी से 18 किलोमीटर नीचे पहाड़ों के बीच से निकलते झरने की वजह से मशहूर कैम्पटी फॉल के झरने की पतली धार की चिंता भी शायद अभी कम ही लोगों को होती होगी। इस बार गर्मियों में जब मैं कैम्पटी फॉल गया तो, झरने में नहाया नहीं। मेरे घुटनों से भी कम पानी था। एक धारा पूरी तरह से सूख गई थी। गिर रही दो धाराओं का भी पानी कम हो गया था।
मसूरी में कुछ साल तक कमरे की छत में पंखे टांगने के लिए चुल्ले लगाए ही नहीं जाते थे। लेकिन, तेजी से बन रही इमारतों में अब चुल्ले लगने लगे हैं। हद तो ये है कि देहरादून से मसूरी की चढ़ाई शुरू होते ही डीलक्स एयरकंडीशनर कमरों के बड़े-बड़े होर्डिंग भी खूब दिखने लगे हैं। देहरादून में गर्मी में शायद की किसी कार का शीशा खुला दिखाई दे। दिल्ली, नोएडा की ही तरह कारों में एसी चलाना पहाड़ों में भी शुरू हो गया है। इस गर्मी का ही असर था कि जिम कार्बेट नेशनल पार्क के अंदर की नदी का पानी कई-कई जगह सूख गया था। गाइड जानवरों के दिखने की पुरानी घटनाओं को बताकर ही अपना काम चला रहे हैं। अब ऐसी गर्मी में सूखते जिम कार्बेट के जंगलों में कितने समय तक जंगली जानवर बचे रहेंगे ये सोचने की बात है।
इस गर्मी में शिमला का तापमान 34 डिग्री तक पहुंच गया। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचने से इस बार गर्मियों में मैदान से वहां पहुंचे सैलानी तो निराश हुए ही। लेकिन, मामला इतना हल्का नहीं है। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचना कितना खतरनाक है इसका अंदाजा दो खबरों से लगाया जा सकता है। दोनों खबरें दो फलों के उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। लीची और सेब का उत्पादन। लीची का उत्पादन इस साल आधा रहने की आशंका जताई जा रही है। पिछले साल 4.48 लाख टन लीची हुई थी। इस साल ये सिर्फ 2.24 लाख टन रह सकती है। कुछ ऐसी ही खबर सेब उत्पादन के मोर्चे पर भी आ रही है। ये गेहूं, चावल के उत्पादन जैसी खबर नहीं है कि इस साल बारिश कम ज्यादा हुई अगले साल संतुलित हुई तो, उत्पादन बढ़ जाएगा।
दरअसल सेब और लीची दोनों का उत्पादन घटने की सबसे बड़ी वजह बढ़ती गर्मी है। ये दोनों फल पहाड़ों पर होते हैं। इनके होने के लिए ठंडे मौसम का होना बेहद जरूरी है। पहाड़ों में हुई कम बारिश और ना के बराबर हुई बर्फबारी ने इन फलों के लिए अनुकूल परिस्थितियां ही नहीं बनाईं। इस वजह से धीरे-धीरे इन फलों के उत्पादन का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। सेब का उत्पादन क्षेत्र हर एक डिग्री तापमान बढ़ने पर 300 मीटर ऊपर की ओर खिसक जा रहा है।
सेब और लीची के उत्पादन के आंकड़े सीधे-सीधे सुनने में भले ही डरावने न लगें लेकिन, इन आंकड़ों से डरने की जरूरत है। धरती का पानी सूख रहा है। पेड़ इमारत सड़क बनाने के लिए कटते जा रहे हैं। बचे पेड़ों को बचाने भर का भी पानी धरती के गर्भ में बमुश्किल से ही है। खराब से खराब परिस्थिति में खुद को संभालने का आशावादी जुमला है कि बीती ताहि बिसारिये आगे की सुध लेय। लेकिन, शायद पर्यावरण के साथ जितना खिलवाड़ हम कर चुके हैं उसमें ये जुमला आशा नहीं निराश के गर्त में ले जाएगा। इसलिए इस बारिश की फुहारों के बीच गर्मी की तपिश याद कीजिए। पानी बचाइए, पेड़ बचाइए। वरना अगली गर्मी के बाद ये फुहारें कितनी कम मिलेंगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
ये पर्यावरण दिवस पर मैं कोई रस्मी चिंता वाला लेख नहीं लिख रहा हूं। तापमान जिस तरह से 50 डिग्री सेल्सियम की तरफ बढ़ रहा है उसमें रस्म अदायगी भर से अब काम नहीं चलने वाला। बढ़ते उपभोक्तावाद के दौर में जिस तरह से हर कोई अपनी तरक्की और अपनी तरक्की यानी जेब में ढेर सारे पैसे के बूते सारी सहूलियतें खरीद लेने का सपना देख रहा है वो, खतरनाक है। जिस तरह से हम अपने संसाधनों को खोदकर खत्म कर रहे हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और ये सोचकर खुश हो रहे हैं कि जेब में पैसे रहे तो, सब ठीक हो जाएगा और खतरवाक दिशा में बढ़ रहा है। सोचिए देश के बड़े हिस्से में बिजली नहीं है। बिजली जहां है भी वहां जोरदार कटौती हो रही है। मांग-आपूर्ति की खाई चौड़ी होती जा रही है। शहरों में 2-3 घंटे की बिजली कटौती होने पर इनवर्टर के सहारे खुद को गर्मी के प्रकोप से बचाने की कोशिश अब बेकार होती दिख रही है। अब दिल्ली और उससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक के शहरों में बिजली की कटौती इतनी होने लगी है कि अब पसीने से डूबे लोग अकसर ये कहते मिल रहे हैं कि इनवर्टर बोल गया है। दिल्ली-NCR के पानी में जहरीले रसायन की बात अब वैज्ञानिक तथ्यों के साथ सामने आ रहे हैं। हर दूसरे दिन काले-पीले पानी की सप्लाई पर दिल्ली-NCR में बवाल की खबरें सारी गर्मियां सुर्खियों में रहीं। अब बारिश का पानी आने के साथ शायद काली पड़ चुकी यमुना कुछ उज्ज्वल हुई होगी। दूसरी नदियों में थोड़ा पानी बढ़ा होगा। कई जगह बाढ़ भी दिखने लगेगी और शायद लोगों को गर्मी में नदी की चिटकी तलहटें याद भी नहीं रह जाएंगी।
लेकिन, पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की भयावहता के ये खतरनाक लक्षण अभी दिखने शुरू हुए हैं। बढ़ती गर्मी से पानी घट रहा है। गंगोत्री के ग्लेशियर पिघलने और देश की बड़ी नदियों में पानी घटने की अकसर चर्चा होने लगी है। गर्मी के मौसम में मैदान से भागकर पहाड़ घूमने जाने वालों को शायद अभी आसानी से बात समझ में नहीं आ रही होगी क्योंकि, मसूरी की पहाड़ी पर शाम अभी भी सुहानी हो जाती है। मसूरी से 18 किलोमीटर नीचे पहाड़ों के बीच से निकलते झरने की वजह से मशहूर कैम्पटी फॉल के झरने की पतली धार की चिंता भी शायद अभी कम ही लोगों को होती होगी। इस बार गर्मियों में जब मैं कैम्पटी फॉल गया तो, झरने में नहाया नहीं। मेरे घुटनों से भी कम पानी था। एक धारा पूरी तरह से सूख गई थी। गिर रही दो धाराओं का भी पानी कम हो गया था।
मसूरी में कुछ साल तक कमरे की छत में पंखे टांगने के लिए चुल्ले लगाए ही नहीं जाते थे। लेकिन, तेजी से बन रही इमारतों में अब चुल्ले लगने लगे हैं। हद तो ये है कि देहरादून से मसूरी की चढ़ाई शुरू होते ही डीलक्स एयरकंडीशनर कमरों के बड़े-बड़े होर्डिंग भी खूब दिखने लगे हैं। देहरादून में गर्मी में शायद की किसी कार का शीशा खुला दिखाई दे। दिल्ली, नोएडा की ही तरह कारों में एसी चलाना पहाड़ों में भी शुरू हो गया है। इस गर्मी का ही असर था कि जिम कार्बेट नेशनल पार्क के अंदर की नदी का पानी कई-कई जगह सूख गया था। गाइड जानवरों के दिखने की पुरानी घटनाओं को बताकर ही अपना काम चला रहे हैं। अब ऐसी गर्मी में सूखते जिम कार्बेट के जंगलों में कितने समय तक जंगली जानवर बचे रहेंगे ये सोचने की बात है।
इस गर्मी में शिमला का तापमान 34 डिग्री तक पहुंच गया। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचने से इस बार गर्मियों में मैदान से वहां पहुंचे सैलानी तो निराश हुए ही। लेकिन, मामला इतना हल्का नहीं है। शिमला का तापमान 34 डिग्री पहुंचना कितना खतरनाक है इसका अंदाजा दो खबरों से लगाया जा सकता है। दोनों खबरें दो फलों के उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। लीची और सेब का उत्पादन। लीची का उत्पादन इस साल आधा रहने की आशंका जताई जा रही है। पिछले साल 4.48 लाख टन लीची हुई थी। इस साल ये सिर्फ 2.24 लाख टन रह सकती है। कुछ ऐसी ही खबर सेब उत्पादन के मोर्चे पर भी आ रही है। ये गेहूं, चावल के उत्पादन जैसी खबर नहीं है कि इस साल बारिश कम ज्यादा हुई अगले साल संतुलित हुई तो, उत्पादन बढ़ जाएगा।
दरअसल सेब और लीची दोनों का उत्पादन घटने की सबसे बड़ी वजह बढ़ती गर्मी है। ये दोनों फल पहाड़ों पर होते हैं। इनके होने के लिए ठंडे मौसम का होना बेहद जरूरी है। पहाड़ों में हुई कम बारिश और ना के बराबर हुई बर्फबारी ने इन फलों के लिए अनुकूल परिस्थितियां ही नहीं बनाईं। इस वजह से धीरे-धीरे इन फलों के उत्पादन का क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। सेब का उत्पादन क्षेत्र हर एक डिग्री तापमान बढ़ने पर 300 मीटर ऊपर की ओर खिसक जा रहा है।
सेब और लीची के उत्पादन के आंकड़े सीधे-सीधे सुनने में भले ही डरावने न लगें लेकिन, इन आंकड़ों से डरने की जरूरत है। धरती का पानी सूख रहा है। पेड़ इमारत सड़क बनाने के लिए कटते जा रहे हैं। बचे पेड़ों को बचाने भर का भी पानी धरती के गर्भ में बमुश्किल से ही है। खराब से खराब परिस्थिति में खुद को संभालने का आशावादी जुमला है कि बीती ताहि बिसारिये आगे की सुध लेय। लेकिन, शायद पर्यावरण के साथ जितना खिलवाड़ हम कर चुके हैं उसमें ये जुमला आशा नहीं निराश के गर्त में ले जाएगा। इसलिए इस बारिश की फुहारों के बीच गर्मी की तपिश याद कीजिए। पानी बचाइए, पेड़ बचाइए। वरना अगली गर्मी के बाद ये फुहारें कितनी कम मिलेंगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
Monday, June 14, 2010
राजीव पर उंगली उठाते क्यों नहीं बनता
21 मई 1991 को राजीव गांधी की मौत हुई लेकिन, उसकी खबर देश भर में 22 मई की सुबह पहुंची। मुझे याद है कि इलाहाबाद में मेरे पढ़ाई के दिन थे। जब सोकर उठा तो, पता चला कि रात में जबरदस्त तूफान आया था। बारिश-तूफान की वजह से पानी-बिजली का संकट बन गया था। घर में शायद मेरी माताजी को जब पता चला कि राजीव गांधी की हत्या हो गई है तो, राजनीति से बिल्कुल अनजान होने के बावजूद उन्हें जैसे झटका सा लग गया। उन्होंने कहाकि एतना बड़ा-भला मनई मरा इही से आंधी-तूफान आएस।
राजीव गांधी तो, हमारे कॉलेज से विश्वविद्यालय पहुंचते तक ही दुनिया से चले गए। लेकिन, जाने-अनजाने पता नहीं कैसे राजीव गांधी का वो, मुस्कुराता, निर्दोष चेहरा ऐसे हमारे जेहन में समा गया कि कांग्रेस की ढेर सारी हरकतें बुरी लगने के बावजूद हमेशा लगता रहा कि राजीव होते तो, देश की राजनीति का चेहरा बेहतर होता। स्वच्छ राजनीति होती। लेकिन, क्या ये मेरे दिमाग में बसी भ्रांति भऱ है या सचमुच कुछ बदलाव होता।
ज्यादा ध्यान से देखने पर और पत्रकारीय कर्म करते 12 साल हुई नजर से देखता हूं तो, साफ दिखता है कि ये मेरे दिमाग की भ्रांति भर ही है। राजीव गांधी के सिर पर इस देश को 21वीं सदी में ले जाने का एतिहासिक तमगा ऐसे सज गया जैसे, राजीव गांधी नहीं होते तो, ये देश अब तक 19वीं शताब्दी में ही पड़ा होता। जैसे राजीव नहीं होते तो, भारत के लोग कंप्यूटर निरक्षर ही रह जाते। दरअसल युवा होते भारत को इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव का चेहरा ऐसा निर्दोष दिखा कि उन्हें लगा कि भारतीय राजनीति का चेहरा बदल रहा है। ऐसा समझने वाली जमात में ही हम जैसे लोग भी शामिल थे। जो, उस समय कॉलेज में पढ़ते थे। हमारे दिमाग में जाने कैसे भर गया कि राजीव गांधी राजनीति में ईमानदारी का दूसरा नाम है। राजीव के खिलाफ बोफोर्स के भ्रष्टाचार की तोप दागकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के बाद और भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने के बाद भी राजीव की छवि पाक-साफ ही रही । लेकिन, शायद ये कांग्रेसी तरीका है कि बोफोर्स का भ्रष्टाचार और भोपाल की गैस त्रासदी सब जनता भूल जाती है। जनता कांग्रेसी राज की ऐसी गुलाम है कि सरकार के सबसे जिम्मेदार मंत्री प्रणव मुखर्जी दम ठोंककर कहते हैं कि उस वक्त कानून-व्यवस्था की स्थिति ऐसी थी कि एंडरसन को भगाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। ध्यान रहे ऐसी भयावह कानून व्यवस्था के समय केंद्र और राज्य (मध्य प्रदेश) दोनों ही जगह कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
मैं ये समझ नहीं पाता कि आखिर कैसे एक ही परिवार के दो गांधी भाइयों में से एक संजय गांधी इस देश में तानाशाह और जाने अप्रिय संबोधनों से बुलाया जाता है। वहीं, दूसरा राजीव गांधी हमेशा इस देश की तरक्की का अगुवा माना जाता है। जबकि, संजय गांधी पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप तो मुझे याद नहीं आ रहा है। जबकि, राजीव पर बोफोर्स जैसा भ्रष्टाचार का आरोप और भोपाल गैस त्रासदी के मामले में एंडरसन को भगाने तक के मामले सामने आ रहे हैं। एक और बात है चाहे बोफोर्स के ओटावियो क्वात्रोची का मामला हो या फिर भोपाल की तबाही के जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के वॉरेन एंडरसन की। दोनों जगह विदेशी दबाव साफ दिखता है।
अब तो मामला एक पीढ़ी आगे तक निकल गया है। राहुल को इस देश में सारी अच्छाइयों का प्रतीक माना जा रहा है और वरुण गांधी को सारी बुराइयों का। वो, भी तब जब वरुण को भारतीय जनता पार्टी में जगह बनाने के लिए सारी मशक्कत करनी है और राहुल को सब कुछ पका-पकाया मिल रहा है। सुपर प्राइममिनिस्टर राहुल बाबा का हाल ये है कि यूपीए-2 के एक साल का रिपोर्ट कार्ड रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन जी ये कहकर खुश होते हैं कि मैं तो, उन्हें मंत्री देखना चाहता हूं लेकिन, वो मना कर रहे हैं। और, साथ में ये भी कि जब वो, चाहेंगे मैं प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ दूंगा।
मीडिया में भी संजय, राजीव के बेटों को विरासत का नफा-नुकसान ही उसी अनुपात में मिल रहा है। राहुल का प्रभाव ऐसा है कि एक साल होने पर न्यूज चैनलों पर सर्वे चला तो, उसमें एक सवाल ये भी था कि अगर राहुल प्रधानमंत्री बने तो, .... और इस चमत्कारी सवाल के जवाब में सर्वे में शामिल जनता हर राज्य में बीजेपी के खाते से निकालकर 2-4 सीट और कांग्रेस के खाते में जोड़ दे रही है। सचमुच इस देश में गुलामी की जड़ें बड़ी गहरी हैं। बस खेल ये है कि कौन सलीके से जनमानस को गुलाम बनाने में कामयाब हो जाता है। गांधी परिवार की असल विरासत गुलाम बनाने का महामंत्र साबित हो चुकी है। गाहे-बगाहे, उसमें थोड़ी बहुत सेंध दूसरे भी लगाते रहते हैं।
Wednesday, June 09, 2010
उत्तर प्रदेश में पावर फुल NDA
चौंकिए मत उत्तर प्रदेश में बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी भले ही सत्ता में है लेकिन, यहां चलती NDA की है। कम से कम सरकारी अधिकारियों के लिए तो सुकून का यही रामबाण है। दरअसल ज्यादा कमाई वाले विभागों में पोस्टिंग के लिए पैसे देना तो अभ पुरानी बात हो गई है। नई-- वैसे इसको भी लागू हुए काफी टाइम हो गया है—बात ये है कि अगर किसी अच्छी जगह (मलाईदार-कमाई वाली) टिके रहना है तो, NDA देना ही होगा।
NDA यानी नॉन डिस्टर्बेंस अलाउंस। मायावती सरकार में इस समय पैसे लेने-देने के मामले में गजब की पारदर्शिता है। नौकरी चाहिए रेट तय हैं। नौकरी में बने रहना है रेट तय हैं। और, अब तो, हाल ये है कि किसी पोस्ट पर जरा थमकर रहना है तो, उसका पैसा अलग से देना होता है। एक मित्र से बात हो रही थी तो, उसने बताया कि सिंचाई विभाग बाढ़ प्रखंड में एक इंजीनियर साहब 50 लाख रुपए देकर पहुंचे और दो महीने बाद ही फिर से उन्हें वहां पर टिके रहने के लिए NDA यानी नॉन डिस्टर्बेंस अलाउंस देना पड़ा। अब ये रकम कम-ज्यादा हो सकती है। लेकिन, चल ऐसा ही रहा है।
हमारे एक रिश्तेदार जो, पंचायत विभाग में हैं, NDA यानी नॉन डिस्टर्बेंस अलाउंस न देने की वजह से एक साल में सात बार स्थानांतरण झेल चुके हैं। जय मायाराज।
Tuesday, June 08, 2010
बंधक है लोकतंत्र
अमेरिकी सरकार के उप सचिव ने लगभग डांटने के अंदाज में उम्मीद जताई है कि भारत सरकार भोपाल गैस त्रासदी पर सीजेएम कोर्ट के फैसले के आधार पर फिर से ये केस नहीं खोलेगी। मेरा ये बहुत साफ भरोसा है कि भारतीय संविधान बड़ा बदलाव मांगता है जो, भारतीय लोकतंत्र को सही मायने में मजबूत कर सके। क्योंकि, आज संविधान में ऐसे प्रावधान ही नहीं हैं जो, असाधारण परिस्थितियों से निपटने की ताकत देते हों। भारत में सीबीआई और दूसरे जांच आयोगों को ऐसी ताकत क्यों नहीं मिल पा रही कि वो, राजनीतिक दबाव को दरकिनार करके जनता के हित में सही फैसले ले सकें।
भोपाल गैस त्रासदी मामले में तब सीबीआई के ज्वाइंट डायरेक्टर रहे बीआर लाल ने आज बड़ा खुलासा किया कि उन्हें इस मामले में सरकार की तरफ से निर्देश दिए गए थे कि वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की कोशिश न की जाए। विदेश मंत्रालय की तरफ से आई चिट्ठी में ये बात साफ-साफ कही गई थी। अब बीआर लाल साहब रिटायरमेंट के बाद ये बात कहने का साहस जुटा पा रहे हैं इतने के लिए भी उनको बधाई देनी चाहिए।
बीआर लाल ने वो खुलासे किए हैं जो, अब तक आरोप के तौर पर सरकारों पर लगते थे कि सीबीआई का इस्तेमाल सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है। लाल ने कहा कि कोई भी मामला हो जो, सीबीआई को सौंपा जाता है उस पहले से ही निर्देश आ जाते हैं कि इस मामले में क्या और कितना करना है। लाल ने ये तक कहा कि क्वात्रोची का मामला तो, पैसे का था लेकिन, पंद्रह हजार से ज्यादा जानें जाने के मामले में भी सीबीआई पर जबाव नाजायज है।
अब वॉरेन एंडरसन का प्रत्यर्पण तो खैर संभव ही नहीं है। क्योंकि, भारत सरकार में इतनी ताकत तो आजादी के 63 सालों में पैदा हो नहीं पाई है कि वो, अमेरिका पर दबाव बना सके। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर किस दबाव में भोपाल गैस त्रासदी की ही रात वॉरेन एंडरसन को अर्जुन सिंह ने किस जबाव में विशेष विमान से दिल्ली पहुंचवा दिया। और, फिर उसे धीरे से भारत से ही बाहर करा दिया गया।
सरकारों के हाथ में लोकतंत्र किस तरह बंधक है ये अच्छे से समझा जा सकता है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब बीजेपी और लेफ्ट का अविश्वास प्रस्ताव गिर गया था। वो, भी ऐसा प्रस्ताव जिस पर खुद मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल देश भर में चक्का जाम कर रही थी। महंगाई पर चिलचिलाती धूप में जनता को बेवकूफ बनाते इन दोनों नेताओं ने इस मुद्दे पर सरकार के खिलाफ वोट करने से मना कर दिया। बहाना बना हम सांप्रदायिक बीजेपी के साथ नहीं जा सकते। लेकिन, लाल साहब के खुलासे के बाद बीजेपी के इस आरोप में दम लगता है कि सीबीआई के डर ने दोनों यादव क्षत्रपों के साथ मायावती को सरकार के साथ कर दिया।
अब सीबीआई के इस तरह से इस्तेमाल के खुलासे के बाद अब ये जरूरी हो गया है कि संविधान में आयोगों, सीबीआई जैसी संस्थाओं को स्वायत्तता दी जाए। जिससे राजनेता इनके जरिए लोकतंत्र को बंधक न बना सकें। वरना तो, कुछ दिनों के हो हल्ले के कुछ दिन बाद सब ये भूल जाएंगे कि पंद्रह हजार से ज्यादा मौतों के गुनहगार विदेशी को सीबीआई छोड़ दे इसका दबाव तब की सरकार ने बनाया था। देसी गुनहगार तो, खैर बरसों से इसके जरिए सत्ता चला ही रहे हैं।
Monday, June 07, 2010
संविधान बदले बिना बात नहीं बनेगी
हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला देने वाले मामले पर आखिरकार 25 साल बाद भोपाल की सीजेएम कोर्ट ने फैसला सुना ही दिया। पंद्रह हजार से ज्यादा लोग भोपाल की यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस से मारे गए। जबकि, अभी भी कम से कम से कम छे लाख लोग ऐसे हैं जिनके भीतर यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस अभी भी समाई है। और, इसके बुरे असर से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक की बीमारी के शिकार ये लोग हो रहे हैं। लेकिन, 1 दिसंबर 1984 की रात हुए दुनिया के इस सबसे बड़े औद्योगिक हादसे की सुनवाई के बाद जब फैसला आया तो, इसमें धारा 304 A लगाई गई यानी ऐसी धारा जिसमें अधिकतम दो साल तक की सजा हो सकती है।
और तो और दोषी पाए सभी लोगों को निजी मुचलके पर जमानत पर भी छोड़ दिया गया। ये असाधारण मसला था लेकिन, इसकी पूरी जांच और सुनवाई भारतीय संविधान के उन कमजोर कड़ियों का इस्तेमाल करके की गई कि ये एक साधारण लापरवाही भर का मामला बनकर रह गया। और, कमाल तो ये है कि उस समय यूनियन कार्बाइड के सीईओ रहे वॉरेन एंडरसन को आज भी दोषी नहीं बताया गया। जबकि, वो इसी मामले में करीब दो दशक से भारत में भगोड़ा घोषित है। इसलिए जरूरी ये है कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी असाधारण परिस्थितियों के लिए भारतीय संविधान में नए सिरे से बदलाव किया जाए।
मामला सिर्फ भोपाल गैस त्रासदी का ही नहीं है। सच्चाई तो ये है कि ऐसे सभी असाधारण मसलों से निपटने में भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता की बाबा-आदम के जमाने की धाराएं, प्रावधान नाकाफी हैं। फिर चाहे वो भोपाल गैस त्रासदी हो या फिर देश पर हमला करने वाले अफजल गुरु की या कसाब की फांसी हो। एक जमाने में संघ परिवार और उनके अनुषांगिक संगठनों ने ऐसे ही असाधारण मामलों पर संविधान में बदलाव की बात बड़े जोर-शोर से उठाई थी लेकिन, पता नहीं क्यों जब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार आई तो, कोई ठोस फैसला नहीं लिया जा सका। शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचार परिवार की ये बड़ी कमी साबित हुई है कि वो अच्छे मुद्दों को भी उठाकर उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। जिसकी वजह से उस विशेष मुद्दे की वजह से संघ परिवार से जुड़ने वाले लोग फिर उसकी बातों से सहमत होते हुए भी उससे जुड़ने में मुश्किल महसूस करते हैं।
आखिर भोपाल गैस त्रासदी हो, अफजल गुरु का संसद पर हमले में शामिल होना हो या फिर कसाब का मुंबई में गोलियां बरसाना सब देश पर हमला ही तो हुआ ना। फिर देश पर हमले जैसे असाधारण मामले पर कार्रवाई की प्रक्रिया सामान्य चोरी चकारी करने वाले, किसी की हत्या करने किसी फैक्ट्री में थोड़ी लापरवाही जैसी घटनाओं जैसी कैसे हो सकती है। तर्क ये आता है कि मामला भोपाल गैस त्रासदी का हो या अफजल गुरु की फांसी का—हमारे संविधान में दोषियों को उचित और समय पर दंड देने की सारी व्यवस्था है लेकिन, राजनीतिक, कूटनीतिक दबाव मुश्किल करते हैं। इसी तर्क पर ये और जरूरी हो जाता है कि असाधारण मामलों के लिए संविधान और IPC में ऐसे बदलाव किए जाएं कि सीबीआई, राजनेताओं, सरकारों को भी उसे लटकाने का मौका न मिल सके। अभी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अफजल गुरु की फांसी की फाइल लटकाने के मामले में किरकिरी झेल रहीं थीं। उस पर उन्होंने इस देरी के लिए तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटील के दबाव का इशारा करके इस बदलाव की जरूरत को और सही साबित किया है।
सोचिए कि अगर संविधान समीक्षा एक बार हो गई होती और असाधारण मामलों में तुरंत दंड का प्रावधान होता तो, ऐसी जाने कितनी विसंगतियों से बचा जा सकता था। क्योंकि, गाड़ी की ट्यूब में भी 4-6 पंचर हो जाने के बाद ट्यूब बदलना जरूरी ही हो जाता है लेकिन, देश को चलाने वाले भारतीय संविधान में तो, जाने कितने पंचर होने के बाद भी पंचर बनाकर (छोटे-मोटे बदलाव करके) ही काम चलाया जा रहा है। अब लगभग हर दूसरे चौथे न्यायालयों से निकलने वाले आदेश संविधान की कई बातों को आज की प्रासंगिकता के लिहाज से सही नहीं पाते हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें भारतीय संविधान आज की परिस्थितियों के लिहाज से समय पर न्याय की प्रक्रिया में मददगार नहीं बनता है। आतंकवाद जैसी देश की सबसे बड़ी समस्या से निपटने के लिए तो, संविधान में अलग से कोई प्रावधान ही नहीं है। ये तो कसाब की फांसी सजा के बाद ये राज खुला कि अफजल गुरु की क्षमादान याचिका अभी तक राष्ट्रपति के पास पहुंची ही नहीं है। अभी तक फाइल दिल्ली से सरकार से लौटकर केंद्रीय गृह मंत्रालय पहुंची ही नहीं है।
ये कांग्रेसी तरीका हो सकता है किसी भी मसले को टालमटोल करने का। लेकिन, दरअसल किसी भी अभियुक्त को फांसी की सजा और फांसी होने के बीच संविधान में जो व्यवस्था है वो, इस तरह की देरी का बहाना देती है। दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में इस बात की कोई समय सीमा तय ही नहीं की गई है कि राष्ट्रपति को कब तक किसी क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है वो, चाहे तो, दशकों तक उस लटका सकता है। अफजल गुरु के मामले में तो, राष्ट्रपति के पास फाइल पहुंचने से पहले ही लगभग एक दशक होने जा रहे हैं।
आप ही देखिए कि आखिर किसी अभियुक्त को फांसी की सजा सुनाए जाने पर उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचाने की प्रक्रिया क्या है
सेशन कोर्ट या फिर स्पेशल कोर्ट अगर किसी को फांसी की सजा सुनाती है तो, उस फैसले पर मुहर लगाने के लिए संबंधित हाईकोर्ट के पास भेजना होता है।
अगर हाईकोर्ट भी फांसी की सजा सुना देता है तो, अभियुक्त के पास सर्वोच्च न्यायालय में अपील का मौका होता है।
सर्वोच्च न्यायालय भी अगर अभियुक्त की फांसी की सजा बरकरार रखता है तो, अभियुक्त के पास आखिरी विकल्प बचता है कि वो, राष्ट्रपति से अभयदान मांगे।
राष्ट्रपति के पास अभयदान के लिए की जाने वाली अपील राष्ट्रपति के पास जाने से पहले गृह मंत्रालय की जांच के लिए भेजी जाती है।
संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति को कितने दिन में क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है।
अब केंद्रीय गृह मंत्रालय उस राज्य से मामले की संपूर्ण जांच के लिए सारी जानकारी मांगता है।
राज्य सरकार मामले की सारी जानकारी जुटाकर गृह मंत्रालय को भेजता है।
गृह मंत्रालय सारे मामले की जांच करके उसे राष्ट्रपति सचिवालय भेज देता है।
राष्ट्रपति सचिवालय आखिर में फाइल राष्ट्रपति के पास फैसले के लिए भेजता है।
अब ये व्यवस्था सामान्य फांसी की सजा पाए व्यक्ति के लिए तो फिर भी ठीक कही जा सकती है लेकिन, देश पर हमला करने वाले आतंकवादियों के मामले में भी यही व्यवस्था भारतीय संविधान का मखौल उड़ाती दिखती है। विशेष अदालत के जरिए सुनवाई होने और अब तक की सबसे तेज सुनवाई होने पर भी कसाब को विशेष अदालत से फांसी की सजा मिलने में डेढ़ साल से ज्यादा लग गए जबकि, ये पहली प्रक्रिया है। आतंकवादियों को जेल में रखने और उनकी सुनवाई पर हम भारतीयों की गाढ़ी कमाई का जो, पैसा जाता है उस पर तो, बहस की गुंजाइश ही नहीं दिखती। कभी-कभार किसी चर्चा में उड़ते-उड़ते ये बात भले सामने आ जाती है।
भोपाल गैस त्रासदी और आतंकवादी घटनाओं जैसी असाधारण घटनाओं के बाद इस बात की सख्त जरूरत है कि भारतीय संविधान की समीक्षा करके एक बार नए सिरे से आज की जरूरतों के लिहाज से संविधान लिखा जाए। हमारी चुनौती हेडली जैसे आतंकवादी भी बन रहे हैं जो, अमेरिका में पल-बढ़कर भारत के खिलाफ आतंकवादी साजिश सोचते-करते हैं और वॉरेन एंडरसन जैसे विदेशी सीईओ भी जिनकी एक लापरवाही हजारों लोगों की जान ले लेती है और आने वाली कई पीढ़ियों की नसों में जहर भर देती है। इन असाधारण परिस्थितियों में पुराने संविधान, कानून के सहारे लड़ाई वैसी ही जैसे, पुलिस को जंग लगी थ्री नॉट थ्री की बंदूक लेकर एक 47 और दूसरे अत्याधुनिक हथियारों से लैस आतंकवादियों से लड़ने भेज दिया जाए।
Tuesday, May 25, 2010
मीडिया का अछूत गांधी
इस गांधी की चर्चा मीडिया में अकसर ना के बराबर होती है और अगर होती भी है तो, सिर्फ और सिर्फ गलत वजहों से। मीडिया और इस गांधी की रिश्ता कुछ अजीब सा है। न तो मीडिया इस गांधी को पसंद करता है न ये गांधी मीडिया को पसंद करता है। इस गांधी के प्रति मीडिया दुराग्रह रखता है। किस कदर इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के पहले परिवार से निकले इस गांधी के भाई राहुल गांधी के श्रीमुख से कुछ भी अच्छा बुरा निकले तो, मीडिया उसे लपक लेता है और अच्छा-बुरा कुछ भी करके चलाता रहता है। जब ये दूसरा गांधी यानी वरुण गांधी कहता है कि उत्तर प्रदेश में 2012 में बीजेपी सत्ता में आएगी और हम सत्ता में आए तो, मायावती की मूर्तियां हटवाकर राम की मूर्तियां लगवाएंगे तो, किसी भी न्यूज चैनल पर ये टिकर यानी नीचे चलने वाली खबर की पट्टी से ज्यादा की जगह नहीं पाती है लेकिन, जब मायावती के खिलाफ देश के पहले परिवार का स्वाभाविक वारिस यानी राहुल गांधी मायावती के खिलाफ कुछ भी बोलता है या कुछ नहीं भी बोलता है तो, भी सभी न्यूज चैनलों पर बड़ी खबर बन जाती है यहां तक कि हेडलाइंस भी होती है।
वरुण गांधी को ये बात समझनी होगी कि आखिर उसके अच्छे-बुरे किए को मीडिया तवज्जो क्यों नहीं देता। वरुण को ये समझना होगा कि जाने-अनजाने ये तथ्य स्थापित हो चुका है कि उनका चचेरा भाई राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की उस विरासत को आगे बढ़ा रहा है जो, गांधी-नेहरु की असली विरासत मानी जाती है। वो, राजीव गांधी जो नौजवानों के सपने का भारत बनाना चाहता था लेकिन, जिसकी यात्रा अकाल मौत की वजह से अधूरी रह गई। लेकिन, जब वरुण गांधी की बात होती है तो, सबको लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिम विरोधी भाषण ही याद आता है। और, तुरंत याद आ जाता है कि ये संजय गांधी का बेटा है जो, जबरदस्ती नसबंदी के लिए कुख्यात था। यहां तक कि आपातकाल का भी पूरा ठीकरा संजय गांधी के ही सिर थोप दिया जाता है। मीडिया ये तो कहता है कि आपातकाल ने इंदिरा की सरकार गिरा दी, कांग्रेस को कमजोर कर दिया। लेकिन, मीडिया आपातकाल के पीछे के हर बुरे कर्म का जिम्मेदार संजय गांधी को ही मानता है। यहां तक कि कांग्रेस में रहते हुए भी संजय गांधी सांप्रदायिक और अछूत गांधी बन गया। राजीव की कंप्यूटर क्रांति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन, देश की सड़कों पर हुआ सबसे बड़ी क्रांति मारुति 800 कार के जनक संजय गांधी को उस तरह से सम्मान कभी नहीं मिल पाया।
और, फिर जब वरुण गांधी बीजेपी के जरिए लोकतंत्र में सत्ता की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगा फिर तो, वरुण के ऊपर पूरी तरह से अछूत गांधी का ठप्पा लग गया। इसलिए वरुण को समझना होगा कि इस देश का मूल स्वभाव किसी भी बात की अति के खिलाफ है। फौरी उन्माद में एक बड़ा-छोटा झुंड हो सकता है कि ऐसे अतिवादी बयानों से पीछे-पीछे चलता दिखाई दे लेकिन, ये रास्ता ज्यादा दूर तक नहीं जाता। इसलिए वरुण गांधी को दो काम तो तुरंत करने होंगे पहला तो ये कि मीडिया से बेवजह की दूरी बनाकर रखने से अपनी अच्छी बातें भी ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचेंगी ये समझना होगा। हां, थोड़ी सी भी बुराई कई गुना ज्यादा रफ्तार से लोगों के दिमाग में स्थापित कराने में मीडिया मददगार होगा। दूसरी बात ये कि अतिवादी एजेंडे को पीछे छोड़ना होगा। जहां एक तरफ राहुल गांधी भले कुछ करे न करे- गरीब-विकास की बात कर रहा हो वहां, वरुण गांधी को राम की मूर्तियां कितना स्थापित करा पाएंगी ये समझना होगा। राम के नाम पर बीजेपी को जितना आकाश छूना था वो छू चुकी अब काम के नाम पर ही बात बन पाएगी।
ऐसा नहीं है कि वरुण गांधी को पीलीभीत से सिर्फ भड़काऊ भाषण की वजह से ही जीत मिली है। वरुण गांधी अपने क्षेत्र के हर गांव से वाकिफ हैं। राहुल के अमेठी दौरे से ज्यादा वरुण पीलीभीत में रहते हैं। लेकिन, वरुण के कामों की चर्चा मीडिया में बमुश्किल ही होती है। वरुण गांधी ने अपने लोकसभा क्षेत्र में 2000 गरीब बेटियों की शादी कराई ये बात कभी मीडिया में आई ही नहीं। जबकि, छोटे-मोटे नेताओं के भी ऐसे आयोजनों को मीडिया में थोड़ी बहुत जगह मिल ही जाती है। जाहिर है वरुण गांधी की मीडिया से दूरी वरुण गांधी के लिए घातक बन रही है।
वरुण गांधी से हुई एक मुलाकात में एक बात तो मुझे साफ समझ में आई कि कुछ अतिवादी बयानों और मीडिया से दूरी को छोड़कर ये गांधी अपने एजेंडे पर बखूबी लगा हुआ है। वरुण गांधी को ये अच्छे से पता है कि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में नहीं उसकी परीक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में होनी है। वरुण का लक्ष्य 2012 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है जिसमें वरुण बीजेपी को सत्ता में लाना चाहता है और खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता है। वरुण के इस लक्ष्य को पाने में सबसे अच्छी बात ये है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का कार्यकर्ता अभी के नेतृत्व से बुरी तरह से निराश है और उसे वरुण गांधी में एक मजबूत नेता नजर आ रहा है। बीजेपी में अपनी राजनीति तलाशने वाले नौजवान नेताओं को ये लगने लगा है कि वरुण गांधी ही है जो, फिर से बीजेपी के परंपरागत वोटरों में उत्साह पैदा कर सकता है। शायद यही वजह है कि 14 अशोक रोड पर उत्तर प्रदेश के हर जिले से 2-4 नौजवान नेता वरुण गांधी से मुलाकात करने पहुंचने लगे हैं।
वरुण गांधी के पक्ष में एक अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरुण को यूपी बीजेपी का नेता बनाने का मन बना चुका है। वरुण गांधी को संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का अंध आशीर्वाद भले न मिले लेकिन, अगर वरुण भविष्य के नेता के तौर पर और राहुल गांधी की काट के तौर पर खुद को मजबूत करते रहे तो, संघ मशीनरी पूरी तरह से वरुण के पीछे खड़े होने को तैयार है। वरुण गांधी को ये बात समझ में आ चुकी है यही वजह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष का पद न लेकर बीजेपी में राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद भी वरुण सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश के बारे में सोच रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले जब मीडिया में वरुण गांधी की तस्वीरें दिखीं थीं तो, सभी चैनलों पर यही देखने को मिला कि वरुण चप्पल पहनकर इलाहाबाद में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का माल्यार्पण करने चले गए थे। किसी भी अखबार या टीवी चैनल पर ये खबर देखने-पढ़ने को नहीं मिली कि वरुण जौनपुर में एक बड़ी रैली करके लौट रहे थे। राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद ये वरुण की पांचवीं रैली थी और वरुण इस साल 20 और ऐसी रैलियां करके पूरे प्रदेश तक पहुंचने की कोशिश में हैं। अरसे बाद बीजेपी के जिले के नेताओं को ऐसा नेता मिला है जिसकी रैली के लिए बसें भरने में उन्हें ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है।
ये गांधी भारतीय राजनीति की लंबी रेस का घोड़ा दिख रहा है। लेकिन, वरुण को उग्र बयानों से हिंदुत्ववादी नेता बनने के बजाए बीजेपी का वो नेता बनने की कोशिश करनी होगी जो, जगह कल्याण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में कोई बीजेपी नेता भर नहीं पाया है। और, ये जगह अब राम की मूर्तियां लगाने वाले बयानों से नहीं उत्तर प्रदेश के नौजवान को ये उम्मीद दिखाने से मिल पाएगी कि राज्य में ही रहकर उसकी बेहतरी के लिए क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के 18 करोड़ लोगों को एक नेता नहीं मिल रहा है। अगर वरुण ये करने में कामयाब हो गए तो, भारतीय राजनीति में एक अलग अध्याय के नायक बनने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वरुण की उम्र अभी 30 साल के आसपास है और वरुण के पास लंबी राजनीति करने का वक्त भी है, गांधी नाम भी और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी का बैनर भी। बस उन्हें खुद को अछूत गांधी बनने से रोकना होगा।
(this article is published on peoples samachar's edit page)
वरुण गांधी को ये बात समझनी होगी कि आखिर उसके अच्छे-बुरे किए को मीडिया तवज्जो क्यों नहीं देता। वरुण को ये समझना होगा कि जाने-अनजाने ये तथ्य स्थापित हो चुका है कि उनका चचेरा भाई राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की उस विरासत को आगे बढ़ा रहा है जो, गांधी-नेहरु की असली विरासत मानी जाती है। वो, राजीव गांधी जो नौजवानों के सपने का भारत बनाना चाहता था लेकिन, जिसकी यात्रा अकाल मौत की वजह से अधूरी रह गई। लेकिन, जब वरुण गांधी की बात होती है तो, सबको लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिम विरोधी भाषण ही याद आता है। और, तुरंत याद आ जाता है कि ये संजय गांधी का बेटा है जो, जबरदस्ती नसबंदी के लिए कुख्यात था। यहां तक कि आपातकाल का भी पूरा ठीकरा संजय गांधी के ही सिर थोप दिया जाता है। मीडिया ये तो कहता है कि आपातकाल ने इंदिरा की सरकार गिरा दी, कांग्रेस को कमजोर कर दिया। लेकिन, मीडिया आपातकाल के पीछे के हर बुरे कर्म का जिम्मेदार संजय गांधी को ही मानता है। यहां तक कि कांग्रेस में रहते हुए भी संजय गांधी सांप्रदायिक और अछूत गांधी बन गया। राजीव की कंप्यूटर क्रांति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन, देश की सड़कों पर हुआ सबसे बड़ी क्रांति मारुति 800 कार के जनक संजय गांधी को उस तरह से सम्मान कभी नहीं मिल पाया।
और, फिर जब वरुण गांधी बीजेपी के जरिए लोकतंत्र में सत्ता की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगा फिर तो, वरुण के ऊपर पूरी तरह से अछूत गांधी का ठप्पा लग गया। इसलिए वरुण को समझना होगा कि इस देश का मूल स्वभाव किसी भी बात की अति के खिलाफ है। फौरी उन्माद में एक बड़ा-छोटा झुंड हो सकता है कि ऐसे अतिवादी बयानों से पीछे-पीछे चलता दिखाई दे लेकिन, ये रास्ता ज्यादा दूर तक नहीं जाता। इसलिए वरुण गांधी को दो काम तो तुरंत करने होंगे पहला तो ये कि मीडिया से बेवजह की दूरी बनाकर रखने से अपनी अच्छी बातें भी ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचेंगी ये समझना होगा। हां, थोड़ी सी भी बुराई कई गुना ज्यादा रफ्तार से लोगों के दिमाग में स्थापित कराने में मीडिया मददगार होगा। दूसरी बात ये कि अतिवादी एजेंडे को पीछे छोड़ना होगा। जहां एक तरफ राहुल गांधी भले कुछ करे न करे- गरीब-विकास की बात कर रहा हो वहां, वरुण गांधी को राम की मूर्तियां कितना स्थापित करा पाएंगी ये समझना होगा। राम के नाम पर बीजेपी को जितना आकाश छूना था वो छू चुकी अब काम के नाम पर ही बात बन पाएगी।
ऐसा नहीं है कि वरुण गांधी को पीलीभीत से सिर्फ भड़काऊ भाषण की वजह से ही जीत मिली है। वरुण गांधी अपने क्षेत्र के हर गांव से वाकिफ हैं। राहुल के अमेठी दौरे से ज्यादा वरुण पीलीभीत में रहते हैं। लेकिन, वरुण के कामों की चर्चा मीडिया में बमुश्किल ही होती है। वरुण गांधी ने अपने लोकसभा क्षेत्र में 2000 गरीब बेटियों की शादी कराई ये बात कभी मीडिया में आई ही नहीं। जबकि, छोटे-मोटे नेताओं के भी ऐसे आयोजनों को मीडिया में थोड़ी बहुत जगह मिल ही जाती है। जाहिर है वरुण गांधी की मीडिया से दूरी वरुण गांधी के लिए घातक बन रही है।
वरुण गांधी से हुई एक मुलाकात में एक बात तो मुझे साफ समझ में आई कि कुछ अतिवादी बयानों और मीडिया से दूरी को छोड़कर ये गांधी अपने एजेंडे पर बखूबी लगा हुआ है। वरुण गांधी को ये अच्छे से पता है कि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में नहीं उसकी परीक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में होनी है। वरुण का लक्ष्य 2012 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है जिसमें वरुण बीजेपी को सत्ता में लाना चाहता है और खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता है। वरुण के इस लक्ष्य को पाने में सबसे अच्छी बात ये है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का कार्यकर्ता अभी के नेतृत्व से बुरी तरह से निराश है और उसे वरुण गांधी में एक मजबूत नेता नजर आ रहा है। बीजेपी में अपनी राजनीति तलाशने वाले नौजवान नेताओं को ये लगने लगा है कि वरुण गांधी ही है जो, फिर से बीजेपी के परंपरागत वोटरों में उत्साह पैदा कर सकता है। शायद यही वजह है कि 14 अशोक रोड पर उत्तर प्रदेश के हर जिले से 2-4 नौजवान नेता वरुण गांधी से मुलाकात करने पहुंचने लगे हैं।
वरुण गांधी के पक्ष में एक अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरुण को यूपी बीजेपी का नेता बनाने का मन बना चुका है। वरुण गांधी को संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का अंध आशीर्वाद भले न मिले लेकिन, अगर वरुण भविष्य के नेता के तौर पर और राहुल गांधी की काट के तौर पर खुद को मजबूत करते रहे तो, संघ मशीनरी पूरी तरह से वरुण के पीछे खड़े होने को तैयार है। वरुण गांधी को ये बात समझ में आ चुकी है यही वजह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष का पद न लेकर बीजेपी में राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद भी वरुण सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश के बारे में सोच रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले जब मीडिया में वरुण गांधी की तस्वीरें दिखीं थीं तो, सभी चैनलों पर यही देखने को मिला कि वरुण चप्पल पहनकर इलाहाबाद में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का माल्यार्पण करने चले गए थे। किसी भी अखबार या टीवी चैनल पर ये खबर देखने-पढ़ने को नहीं मिली कि वरुण जौनपुर में एक बड़ी रैली करके लौट रहे थे। राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद ये वरुण की पांचवीं रैली थी और वरुण इस साल 20 और ऐसी रैलियां करके पूरे प्रदेश तक पहुंचने की कोशिश में हैं। अरसे बाद बीजेपी के जिले के नेताओं को ऐसा नेता मिला है जिसकी रैली के लिए बसें भरने में उन्हें ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है।
ये गांधी भारतीय राजनीति की लंबी रेस का घोड़ा दिख रहा है। लेकिन, वरुण को उग्र बयानों से हिंदुत्ववादी नेता बनने के बजाए बीजेपी का वो नेता बनने की कोशिश करनी होगी जो, जगह कल्याण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में कोई बीजेपी नेता भर नहीं पाया है। और, ये जगह अब राम की मूर्तियां लगाने वाले बयानों से नहीं उत्तर प्रदेश के नौजवान को ये उम्मीद दिखाने से मिल पाएगी कि राज्य में ही रहकर उसकी बेहतरी के लिए क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के 18 करोड़ लोगों को एक नेता नहीं मिल रहा है। अगर वरुण ये करने में कामयाब हो गए तो, भारतीय राजनीति में एक अलग अध्याय के नायक बनने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वरुण की उम्र अभी 30 साल के आसपास है और वरुण के पास लंबी राजनीति करने का वक्त भी है, गांधी नाम भी और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी का बैनर भी। बस उन्हें खुद को अछूत गांधी बनने से रोकना होगा।
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Sunday, May 23, 2010
संविधान बदलने की बात दब क्यों गई
आज जब मैं अफजल गुरु की फांसी के मामले पर केंद्रीय गृह मंत्री और दिल्ली की मुख्यमंत्री को एक दूसरे पर लानत भेजता देखता हूं तो, मुझे लगता है कि अगर संविधान समीक्षा एक बार हो गई होती तो, ऐसी जाने कितनी विसंगतियों से बचा जा सकता था। क्योंकि, गाड़ी की ट्यूब में भी 4-6 पंचर हो जाने के बाद ट्यूब बदलना जरूरी ही हो जाता है लेकिन, देश को चलाने वाले भारतीय संविधान में तो, जाने कितने पंचर होने के बाद भी पंचर बनाकर (बदलाव करके) ही काम चलाया जा रहा है। शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचार परिवार की ये बड़ी कमी साबित हुई है कि वो अच्छे मुद्दों को भी उठाकर उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। जिसकी वजह से उस विशेष मुद्दे की वजह से संघ परिवार से जुड़ने वाले लोग फिर उसकी बातों से सहमत होते हुए भी उससे जुड़ने में मुश्किल महसूस करते हैं।
अब लगभग हर दूसरे चौथे न्यायालयों से निकलने वाले आदेश संविधान की कई बातों को आज की प्रासंगिकता के लिहाज से सही नहीं पाते हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें भारतीय संविधान आज की परिस्थितियों के लिहाज से समय पर न्याय की प्रक्रिया में मददगार नहीं बनता है। आतंकवाद जैसी देश की सबसे बड़ी समस्या से निपटने के लिए तो, संविधान में अलग से कोई प्रावधान ही नहीं है। ये तो कसाब की फांसी सजा के बाद ये राज खुला कि अफजल गुरु की क्षमादान याचिका अभी तक राष्ट्रपति के पास पहुंची ही नहीं है। अभी तक फाइल दिल्ली से सरकार से लौटकर केंद्रीय गृह मंत्रालय पहुंची ही नहीं है। ये कांग्रेसी तरीका हो सकता है किसी भी मसले को टालमटोल करने का। लेकिन, दरअसल किसी भी अभियुक्त को फांसी की सजा और फांसी होने के बीच संविधान में जो व्यवस्था है वो, इस तरह की देरी का बहाना देती है। दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में इस बात की कोई समय सीमा तय ही नहीं की गई है कि राष्ट्रपति को कब तक किसी क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है वो, चाहे तो, दशकों तक उस लटका सकता है। अफजल गुरु के मामले में तो, राष्ट्रपति के पास फाइल पहुंचने से पहले ही लगभग एक दशक होने जा रहे हैं।
अब जरा देखते हैं कि आखिर किसी अभियुक्त को फांसी की सजा सुनाए जाने पर उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचाने की प्रक्रिया क्या है
सेशन कोर्ट या फिर स्पेशल कोर्ट अगर किसी को फांसी की सजा सुनाती है तो, उस फैसले पर मुहर लगाने के लिए संबंधित हाईकोर्ट के पास भेजना होता है।
अगर हाईकोर्ट भी फांसी की सजा सुना देता है तो, अभियुक्त के पास सर्वोच्च न्यायालय में अपील का मौका होता है।
सर्वोच्च न्यायालय भी अगर अभियुक्त की फांसी की सजा बरकरार रखता है तो, अभियुक्त के पास आखिरी विकल्प बचता है कि वो, राष्ट्रपति से अभयदान मांगे।
राष्ट्रपति के पास अभयदान के लिए की जाने वाली अपील राष्ट्रपति के पास जाने से पहले गृह मंत्रालय की जांच के लिए भेजी जाती है।
संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति को कितने दिन में क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है।
अब केंद्रीय गृह मंत्रालय उस राज्य से मामले की संपूर्ण जांच के लिए सारी जानकारी मांगता है।
राज्य सरकार मामले की सारी जानकारी जुटाकर गृह मंत्रालय को भेजता है।
गृह मंत्रालय सारे मामले की जांच करके उसे राष्ट्रपति सचिवालय भेज देता है।
राष्ट्रपति सचिवालय आखिर में फाइल राष्ट्रपति के पास फैसले के लिए भेजता है।
अब ये व्यवस्था सामान्य फांसी की सजा पाए व्यक्ति के लिए तो फिर भी ठीक कही जा सकती है लेकिन, देश पर हमला करने वाले आतंकवादियों के मामले में भी यही व्यवस्था भारतीय संविधान का मखौल उड़ाती दिखती है। विशेष अदालत के जरिए सुनवाई होने और अब तक की सबसे तेज सुनवाई होने पर भी कसाब को विशेष अदालत से फांसी की सजा मिलने में डेढ़ साल से ज्यादा लग गए जबकि, ये पहली प्रक्रिया है। आतंकवादियों को जेल में रखने और उनकी सुनवाई पर हम भारतीयों की गाढ़ी कमाई का जो, पैसा जाता है उस पर तो, बहस की गुंजाइश ही नहीं दिखती। कभी-कभार किसी चर्चा में उड़ते-उड़ते ये बात भले सामने आ जाती है। वैसे तो, महंगाई से लेकर ढेर सारे ऐसे मुद्दे हैं जिन पर विपक्ष के साथ खड़ा होने के लिए आम जनता तैयार है। लेकिन, संघ परिवार और बीजेपी को आतंकवाद जैसे मुद्दे पर संविधान समीक्षा की ये जरूरत क्यों नहीं महसूस हो रही है ये समझ में न आने वाली बात है।
Friday, May 21, 2010
सोनिया मैडम, ये कौन सी पॉलिटिक्स है
ये वही चिदंबरम साहब हैं जो, नक्सलियों के खिलाफ बेहद कड़ी सैन्य कार्रवाई तक करने के पक्षधर होने की वजह से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के निशाने पर भी आ गए थे। शायद और कोई रहा होता तो, वो अनुशासनात्मक कार्रवाई के दायरे में आ गया होता लेकिन, इकोनॉमिक टाइम्स में चिदंबरम की यानी अपनी ही सरकार की नक्सल से निपटने की रणनीति को जिस तरह से बेकार बताया था, उस पर भी सोनिया मैडम ने कुछ भी नहीं कहा। हां, चिदंबरम को जरूर अपनी कड़ी रीढ़ की हड्डी नरम करनी पड़ी। दरअसल अब कांग्रेस को ये लग रहा है कि जिस तरह से रमन सिंह आक्रामक हो रहे हैं अगर इस समय सैन्य कार्रवाई की इजाजत दी गई तो, आम लोगों में उस अभियान की सफलता का सेहरा बीजेपी के मुख्यमंत्री रमन सिंह के सिर बंध सकता है।
संसद में भी कड़े तेवर अपनाते हुए बहस के दौरान विपक्ष के नेता अरुण जेटली खुलेआम कह चुके हैं कि चिदंबरम के साथ हम हैं लेकिन, उनकी पार्टी ही नहीं है। चिदंबरम बेचारे अपनी कड़क मंत्री की छवि बनाए रखना चाहते हैं लेकिन, वो भूल गए कि कांग्रेस की पसंद गृह मंत्री पद के लिए शिवराज पाटिल जैसे ढुलमुल नेता रहे हैं वो, तो मुंबई हमले के बाद बहुत हल्ले की वजह से उनकी बलि लेना पड़ी। अब कांग्रेस को नक्सलियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने वाला गृह मंत्री नहीं चाहिए। वजह साफ है लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह से बिहार चुनाव के मद्देनजर नक्सल नीति पर गंदा बयान जारी किया है उसने कांग्रेसी रणनीतिज्ञों के कान खड़े कर दिए हैं। कांग्रेस को भी तो बिहार में अपना हाल थोड़ा ठीक करना है। उस पर बंगाल में ममता और कांग्रेस की बीच गठजोड़ में पड़ी दरार और ममता को माओवादियों का पूरा साथ इन सबने कांग्रेस को रणनीति थोड़ा बदलने पर मजबूर कर दिया है। हो, सकता है इसकी वजह से अब चिदंबरम के गृह मंत्रालय की ओर से जारी होने वाले नक्सल विरोधी बड़े-बड़े विज्ञापन भी बंद कर दिए जाएं। यही कांग्रेसी पॉलिटिक्स है।
एक नहीं कई नमूने हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की फाइल गृह मंत्रालय और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बीच गजब फंसी हुई है। और, जब मामला खुलने पर सरकार की किरकिरी होनी शुरू हुई तो, हमेशा कांग्रेस की ओर से मुस्लिमों के बड़े नेता बनने की कोशिश करते दिखने वाले परम धर्मनिरपेक्ष दिग्विजय सिंह ने बयान जारी कर दिया कि अफजल गुरु को जल्द फांसी हो। अब अगर ये सिर्फ बयान भर नहीं है तो, ये बात चिदंबरम, शीला दीक्षित को बतानी थी। राहुल गांधी के इस प्रमुख सलाहकार की बात टालने की हिम्मत भला कौन कांग्रेसी इस समय कर सकता है।
इससे पहले बाटला हाउस एनकाउंटर पर भी दिग्विजय सिंह आजमगढ़ जाकर आतंकी परिवारों तक में अपनी ही सरकार की रिपोर्ट को झुठलाकर आए थे। जांच का आश्वासन भी दिया था। ये अलग बात है कि दिल्ली आते-आते पलट गए। वाह रे कांग्रेसी पॉलिटिक्स।
Wednesday, May 19, 2010
नक्सलियों से आखिरी लड़ाई जरूरी
सेना का इस्तेमाल करें या न करें। केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई इस कदर भ्रम में है कि इसी साल के शुरुआती 5 महीने में ही सैकड़ों लोगों की जान जाने के बाद भी वो फैसला नहीं ले पा रही है। आखिर सरकार ये फैसला लेने में इतना संकोच क्यों कर रही है। सेना का इस्तेमाल वहीं किया जाता है जहां देश की सुरक्षा और संप्रभुता को खतरा पैदा होता दिखे। फिर वो चाहे पड़ोसी मुल्क से हमला हो या फिर बाहर-भीतर से देश में दहशत फैलाने वाले आतंकवादियों का हमला हो। अब अगर नक्सलियों के मामले में देखें तो, वो ठीक उसी तरह इस देश की राज्य व्यवस्था को मानने को तैयार नहीं हैं जैसे, आतंकवादी। ये नक्सली अपने खिलाफ खड़े हर हिंदुस्तानी की जान आसानी से ले रहे हैं जैसे आतंकवादी- फिर सेना के इस्तेमाल में इतना संकोच क्यों। आखिर अर्धसैनिक बलों की पूरी ताकत झोंककर नक्सलियों के सफाए की ही कोशिश तो सरकार कर रही है। फिर ये कोशिश आधे मन से क्यों।
ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ो निर्दोष जानें जाने के पहले जब दंतेवाडा़ से सुकमा जा रही बस को निशाना बनाया था तो, नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियों ने नया राग शुरू कर दिया था कि कि पहली बार नक्सलियों ने आम लोगों की जान ली है। नक्सल आंदोलन की प्रबल पैरोकार अरुंधती रॉय कह रही हैं कि अगर दंतेवाड़ा से सुकमा जा रही बस में सचमुच पुलिस अधिकारियों के साथ आम लोगों की भी जान गई है तो, इसे किसी भी कीमत पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। वैसे एक और विरोधी तर्क लगे हाथ ये भी पुरजोर तरीके से चलाने की कोशिश हो रही है कि पुलिस ने आम लोगों के लिए इस्तेमाल में आने वाली बस में जाने की कोशिश करके गुनाह किया है। नक्सल हत्यारों के समर्थक ये भी कह रहे हैं कि युद्ध क्षेत्र मेंCRPF को नक्सलियों के सफाए के लिए सामान्य बसों में जाना ही गलत है।
प्रचारित किए जा रहे इन दोनों ही तथ्यों को ठीक से समझने की जरूरत है। पहला ये कि नक्सलियों ने पहली बार पुलिस, अर्धसैनिक बलों के अलावा आम लोगों की हत्या की हैं। और, दूसरा युद्ध क्षेत्र में अर्धसैनिक बलों का आम लोगों की सवारी का इस्तेमाल करना युद्ध के नियमों के खिलाफ है। सबसे पहले तो यही कि पहली बार नक्सलियों ने आम लोगों की हत्या की ये पूरी तरह गलत है। सच्चाई ये है कि देश भर में पिछले 10 सालों में नक्सलियों ने करीब 6000 जानें ली हैं। जिनमें सिर्फ छत्तीसगढ़ के बस्तर में ही 1000 से ज्यादा आम लोगों की जानें गई हैं। पुलिस के साथ बस में मारे गए आम लोगों की जान जाना सुर्खियों में आया लेकिन, ज्यादातर नक्सलियों के फरमान न मानने पर जन अदालत के हुक्म पर आदिवासियों-स्थानीय निवासियों की जान जाने की खबर कभी सुर्खियां नहीं बन पातीं।
रॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर में लगभग 20 हजार नक्सली सक्रिय हैं। देश के 604 में से 160 जिलों के कई हिस्सों में आतंक के बूते इनकी समानांतर सरकार चलती है। ज्यादातर इनका असर उन इलाकों में है जहां खनिज संपदा भरपूर है जो, पूरी तरह से अपने राज्यों के बाहरी हिस्सों में हैं। जहां आवागमन, संचार के साधन ना के बराबर हैं और जो, बने उन्हें इन्होंने ध्वस्त कर दिया। छत्तीसगढ़ का बस्तर, आंध्र प्रदेश का करीमनगर, महाराष्ट्र का गढ़चिरौली और उड़ीसा का मलकानगिरि- ये ऐसे इलाके हैं जो, अपने राज्यों की राजधानियों से दूर और सीमावर्ती राज्यों से सटे हैं। इस पूरे क्षेत्र के दंडकारण्य जंगलों में पूरी तरह से नक्सलियों का राज चलता है। नेपाल और चीन के माओवादियों का समर्थन इन्हें ताकत देता है। 1967 में पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन आज सत्ता पर कब्जे के लिए कुछ अतिमहत्वाकांक्षी, भ्रमित अतिवामपंथी लोगों की निजी लड़ाई जैसा बनकर रह गया है।
माओवादी, नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों का इसे विकास चाहने वालों की लड़ाई बताना भी कुतर्क से ज्यादा कुछ नहीं है। थोड़ी सी बुद्धि लगाने पर ही माओवाद-नक्सववाद समर्थक बुद्धिजीवियों के इन तर्कों की पोल खुलने लगती है कि ये विकास का अपना हिस्सा मांगने वालों की लड़ाई है। ये सही है कि आदिवासी और पिछड़े इलाकों में विकास का काम बेहद कम हुआ है और यही वजह है कि नक्सलियों को वहां अपनी जमीन मजबूत करने का मौका मिल गया। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि एक बार कब्जा जमा लेने के बाद नक्सलियों ने बची-खुची सड़कों, बिजली, स्कूल, पुल और दूसरी सुविधाओं को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया। छत्तीसगढ़ में अपने कब्जे वाले इलाके में नक्सलियों ने 100 से ज्यादा स्कूलों, करीब 150 बिजली के खंभों और करीब 100 इलाके को जोड़ने वाली सड़कों को धवस्त कर दिया।
बार-बार आदिवासियों की जमीन छिनने की बात की जाती है। लेकिन, क्या इतने सालों से नक्सलियों के समांतर शासन में आदिवासियों का कुछ भी भला हो पाया है। क्योंकि, वो बेचारे तो दोनों ही तरफ से मारे जा रहे हैं। नक्सलियों के साथ हथियार न उठाओ तो, नक्सली मारें और मुठभेड़ में पुलिस मारे। तरक्की, अच्छी जिंदगी की चाह में सलवा जुडूम में शामिल होकर सरकार के साथ आओ तो, भी नक्सलियों के शिकार बनो। वैसे, नक्सलियों के दमन से सबसे ज्यादा प्रभावित छत्तीसगढ़ में सरकार ने अब तक दो लाख से ज्यादा आदिवासियों-स्थानीय निवासियों को जमीन के पट्टे दिए हैं।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम दोनों ही इस बात पर अब एकमत हैं कि नक्सली, आतंकवादी हैं। रमन सिंह तो विचारधारा के लिहाज से भी अतिवादी वामपंथी नक्सलियों के विरोधी हैं लेकिन, गृह मंत्री चिदंबरम की कांग्रेस उन्हें शायद एकदम से कड़े फैसले लेने की इजाजत नहीं देती। शायद इसीलिए दिग्विजय सिंह ये जोर शोर से कहते रहते हैं कि नक्सलियों को आतंकवादी नहीं माना जा सकता। अब अगर कोई ये कहता है कि राज्य सत्ता नक्सलियों को आतंकवादी बनाकर उनका सफाया करना चाहती है तो, इसमें गलत क्या है। क्योंकि, लोकतंत्र के सारे नियमों को ध्वस्त करके सिर्फ बंदूक की गोली से क्रांति की उम्मीद रखने वाले इन भटके लोगों को सुधारने का और देश के भीतर के इस सबसे बड़े डर को दूर रखने का शायद अब कोई रास्ता ही नहीं बचा है।
और, सबसे कमाल की बात तो ये कि जंगलों में गोली खाते-मारते घूम रहे इन नक्सलियों के दिमाग खराब करने वाले बुद्धिजीवियों की जमात दिल्ली से लेकर विदेशों तक बैठकर सिर्फ बतकही से काम चला ले रही है। वो, दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर और JNU जैसी जगहों पर चर्चा और जंतर-मंतर पर कुछ रस्मी धरना प्रदर्शन से ही अपना काम चला ले रही है। खुद महानगरों के संपूर्ण सुविधायुक्त जगहों पर रहकर मरने-मारने पर उतारू नक्सलियों के पक्ष में सिर्फ बयान देकर बड़े-बड़े अवॉर्ड जुहाती रहती है। और, इन अवॉर्ड्स की चमक भी न देख पाने वाले कुछ और नौजवानों को भटकाकर खून की होली खेलने के लिए तैयार कर देती है।
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