Monday, June 07, 2010

संविधान बदले बिना बात नहीं बनेगी

हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला देने वाले मामले पर आखिरकार 25 साल बाद भोपाल की सीजेएम कोर्ट ने फैसला सुना ही दिया। पंद्रह हजार से ज्यादा लोग भोपाल की यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस से मारे गए। जबकि, अभी भी कम से कम से कम छे लाख लोग ऐसे हैं जिनके भीतर यूनियन कार्बाइड से निकली जहरीली गैस अभी भी समाई है। और, इसके बुरे असर से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर तक की बीमारी के शिकार ये लोग हो रहे हैं। लेकिन, 1 दिसंबर 1984 की रात हुए दुनिया के इस सबसे बड़े औद्योगिक हादसे की सुनवाई के बाद जब फैसला आया तो, इसमें धारा 304 A लगाई गई यानी ऐसी धारा जिसमें अधिकतम दो साल तक की सजा हो सकती है।

और तो और दोषी पाए सभी लोगों को निजी मुचलके पर जमानत पर भी छोड़ दिया गया। ये असाधारण मसला था लेकिन, इसकी पूरी जांच और सुनवाई भारतीय संविधान के उन कमजोर कड़ियों का इस्तेमाल करके की गई कि ये एक साधारण लापरवाही भर का मामला बनकर रह गया। और, कमाल तो ये है कि उस समय यूनियन कार्बाइड के सीईओ रहे वॉरेन एंडरसन को आज भी दोषी नहीं बताया गया। जबकि, वो इसी मामले में करीब दो दशक से भारत में भगोड़ा घोषित है। इसलिए जरूरी ये है कि भोपाल गैस त्रासदी जैसी असाधारण परिस्थितियों के लिए भारतीय संविधान में नए सिरे से बदलाव किया जाए।

मामला सिर्फ भोपाल गैस त्रासदी का ही नहीं है। सच्चाई तो ये है कि ऐसे सभी असाधारण मसलों से निपटने में भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता की बाबा-आदम के जमाने की धाराएं, प्रावधान नाकाफी हैं। फिर चाहे वो भोपाल गैस त्रासदी हो या फिर देश पर हमला करने वाले अफजल गुरु की या कसाब की फांसी हो। एक जमाने में संघ परिवार और उनके अनुषांगिक संगठनों ने ऐसे ही असाधारण मामलों पर संविधान में बदलाव की बात बड़े जोर-शोर से उठाई थी लेकिन, पता नहीं क्यों जब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार आई तो, कोई ठोस फैसला नहीं लिया जा सका। शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचार परिवार की ये बड़ी कमी साबित हुई है कि वो अच्छे मुद्दों को भी उठाकर उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। जिसकी वजह से उस विशेष मुद्दे की वजह से संघ परिवार से जुड़ने वाले लोग फिर उसकी बातों से सहमत होते हुए भी उससे जुड़ने में मुश्किल महसूस करते हैं।

आखिर भोपाल गैस त्रासदी हो, अफजल गुरु का संसद पर हमले में शामिल होना हो या फिर कसाब का मुंबई में गोलियां बरसाना सब देश पर हमला ही तो हुआ ना। फिर देश पर हमले जैसे असाधारण मामले पर कार्रवाई की प्रक्रिया सामान्य चोरी चकारी करने वाले, किसी की हत्या करने किसी फैक्ट्री में थोड़ी लापरवाही जैसी घटनाओं जैसी कैसे हो सकती है। तर्क ये आता है कि मामला भोपाल गैस त्रासदी का हो या अफजल गुरु की फांसी काहमारे संविधान में दोषियों को उचित और समय पर दंड देने की सारी व्यवस्था है लेकिन, राजनीतिक, कूटनीतिक दबाव मुश्किल करते हैं। इसी तर्क पर ये और जरूरी हो जाता है कि असाधारण मामलों के लिए संविधान और IPC में ऐसे बदलाव किए जाएं कि सीबीआई, राजनेताओं, सरकारों को भी उसे लटकाने का मौका न मिल सके। अभी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अफजल गुरु की फांसी की फाइल लटकाने के मामले में किरकिरी झेल रहीं थीं। उस पर उन्होंने इस देरी के लिए तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटील के दबाव का इशारा करके इस बदलाव की जरूरत को और सही साबित किया है।

सोचिए कि अगर संविधान समीक्षा एक बार हो गई होती और असाधारण मामलों में तुरंत दंड का प्रावधान होता तो, ऐसी जाने कितनी विसंगतियों से बचा जा सकता था। क्योंकि, गाड़ी की ट्यूब में भी 4-6 पंचर हो जाने के बाद ट्यूब बदलना जरूरी ही हो जाता है लेकिन, देश को चलाने वाले भारतीय संविधान में तो, जाने कितने पंचर होने के बाद भी पंचर बनाकर (छोटे-मोटे बदलाव करके) ही काम चलाया जा रहा है। अब लगभग हर दूसरे चौथे न्यायालयों से निकलने वाले आदेश संविधान की कई बातों को आज की प्रासंगिकता के लिहाज से सही नहीं पाते हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें भारतीय संविधान आज की परिस्थितियों के लिहाज से समय पर न्याय की प्रक्रिया में मददगार नहीं बनता है। आतंकवाद जैसी देश की सबसे बड़ी समस्या से निपटने के लिए तो, संविधान में अलग से कोई प्रावधान ही नहीं है। ये तो कसाब की फांसी सजा के बाद ये राज खुला कि अफजल गुरु की क्षमादान याचिका अभी तक राष्ट्रपति के पास पहुंची ही नहीं है। अभी तक फाइल दिल्ली से सरकार से लौटकर केंद्रीय गृह मंत्रालय पहुंची ही नहीं है।

ये कांग्रेसी तरीका हो सकता है किसी भी मसले को टालमटोल करने का। लेकिन, दरअसल किसी भी अभियुक्त को फांसी की सजा और फांसी होने के बीच संविधान में जो व्यवस्था है वो, इस तरह की देरी का बहाना देती है। दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में इस बात की कोई समय सीमा तय ही नहीं की गई है कि राष्ट्रपति को कब तक किसी क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है वो, चाहे तो, दशकों तक उस लटका सकता है। अफजल गुरु के मामले में तो, राष्ट्रपति के पास फाइल पहुंचने से पहले ही लगभग एक दशक होने जा रहे हैं।

आप ही देखिए कि आखिर किसी अभियुक्त को फांसी की सजा सुनाए जाने पर उसे फांसी के तख्ते तक पहुंचाने की प्रक्रिया क्या है
सेशन कोर्ट या फिर स्पेशल कोर्ट अगर किसी को फांसी की सजा सुनाती है तो, उस फैसले पर मुहर लगाने के लिए संबंधित हाईकोर्ट के पास भेजना होता है।
अगर हाईकोर्ट भी फांसी की सजा सुना देता है तो, अभियुक्त के पास सर्वोच्च न्यायालय में अपील का मौका होता है।
सर्वोच्च न्यायालय भी अगर अभियुक्त की फांसी की सजा बरकरार रखता है तो, अभियुक्त के पास आखिरी विकल्प बचता है कि वो, राष्ट्रपति से अभयदान मांगे।
राष्ट्रपति के पास अभयदान के लिए की जाने वाली अपील राष्ट्रपति के पास जाने से पहले गृह मंत्रालय की जांच के लिए भेजी जाती है।
संविधान में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति को कितने दिन में क्षमादान याचिका पर फैसला लेना है।
अब केंद्रीय गृह मंत्रालय उस राज्य से मामले की संपूर्ण जांच के लिए सारी जानकारी मांगता है।
राज्य सरकार मामले की सारी जानकारी जुटाकर गृह मंत्रालय को भेजता है।
गृह मंत्रालय सारे मामले की जांच करके उसे राष्ट्रपति सचिवालय भेज देता है।
राष्ट्रपति सचिवालय आखिर में फाइल राष्ट्रपति के पास फैसले के लिए भेजता है।

अब ये व्यवस्था सामान्य फांसी की सजा पाए व्यक्ति के लिए तो फिर भी ठीक कही जा सकती है लेकिन, देश पर हमला करने वाले आतंकवादियों के मामले में भी यही व्यवस्था भारतीय संविधान का मखौल उड़ाती दिखती है। विशेष अदालत के जरिए सुनवाई होने और अब तक की सबसे तेज सुनवाई होने पर भी कसाब को विशेष अदालत से फांसी की सजा मिलने में डेढ़ साल से ज्यादा लग गए जबकि, ये पहली प्रक्रिया है। आतंकवादियों को जेल में रखने और उनकी सुनवाई पर हम भारतीयों की गाढ़ी कमाई का जो, पैसा जाता है उस पर तो, बहस की गुंजाइश ही नहीं दिखती। कभी-कभार किसी चर्चा में उड़ते-उड़ते ये बात भले सामने आ जाती है।
भोपाल गैस त्रासदी और आतंकवादी घटनाओं जैसी असाधारण घटनाओं के बाद इस बात की सख्त जरूरत है कि भारतीय संविधान की समीक्षा करके एक बार नए सिरे से आज की जरूरतों के लिहाज से संविधान लिखा जाए। हमारी चुनौती हेडली जैसे आतंकवादी भी बन रहे हैं जो, अमेरिका में पल-बढ़कर भारत के खिलाफ आतंकवादी साजिश सोचते-करते हैं और वॉरेन एंडरसन जैसे विदेशी सीईओ भी जिनकी एक लापरवाही हजारों लोगों की जान ले लेती है और आने वाली कई पीढ़ियों की नसों में जहर भर देती है। इन असाधारण परिस्थितियों में पुराने संविधान, कानून के सहारे लड़ाई वैसी ही जैसे, पुलिस को जंग लगी थ्री नॉट थ्री की बंदूक लेकर एक 47 और दूसरे अत्याधुनिक हथियारों से लैस आतंकवादियों से लड़ने भेज दिया जाए।


6 comments:

  1. bilkul sahi vichar he aap ke

    savidhan ko jab tak nahi badla jaye tab assa hi hota rahega

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  2. बिलकुल सही बात न्याय में इतनी देरी और ऊपर से ऐसे अन्याय भरे फैसले देने वालों को सजा के लिए संविधान संशोधन जरूरी है |

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  3. ऐसे में यदि आम आदमी, नक्सलवादी बनकर दो-चार नेताओं को उड़ा दे तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है… :)

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  4. संविधान का निर्माण होने के तत्काल बाद से ही इसमें संशोधनों का जो दौर चला वह अभी थमने का नाम नहीं ले रहा है। सैकड़ो पेबन्द लगने के बाद भी कोई न कोई छेद बचा ही रह जाता है। कमाल का बना है...। बाबा साहब का कोई भक्त हमें लठियाने पहुँच जाय इससे पहले मुँह बन्द कर लेना चाहिए।

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  5. bilkul sahi bat hai...hamare samvidhan me kai sari khamiya hai..

    गाँधी जी का तीन बन्दर का सिद्धांत-एक नकारात्मक सिद्धांत http://bit.ly/b4zIa2

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  6. पता नहीं, संविधान बदलने से बात बनेगी या नहीं। पर वहां से शुरुआत हो सकती है। अंतत: तो व्यवस्था में लिप्त लोगों को बदलना है।

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