पता नहीं मैं भी ऐसा क्यों हो गया हूं। मुझे लग रहा है कि देश की इज्जत एक बार चली ही जानी चाहिए। अब बताइए भला कोई भी ऐसे कैसे सोच सकता है कि देश की इज्जत चली जाए। देश की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी जी कह रही हैं कि ये देश की इज्जत से जुड़ा मामला है। देश के सबसे बड़े मीडिया परिवार को चलाने वाले सुब्रत रॉय सहारा जी भी कह रहे हैं कि अभी तक जो हुआ, सो हुआ। अब बस करो। लेकिन, मेरी भी गुस्ताखी देखिए कि मैं कह रहा हूं कि नहीं देश की इज्जत इस बार चली जाने दीजिए।
साला देश की इज्जत भी गजब हो गई है। वैसे तो, ये मुझे समझ में ही नहीं आता कि आखिर ये हमारा देश भी और इसकी इज्जत भी। हमारी इज्जत हमसे ताकतवर और बड़े देश अमरीका-चीन तो उतारते ही रहते हैं। पाकिस्तान, नेपाल भी जब चाहे तब हमारी इज्जत की एक परत उधेड़ देते हैं। पर हम हैं कि इज्जत बचाने में लग जाते हैं कि चलो एक ही परत तो उधड़ी है अब बचा लेते हैं।
अब वही हाल है माइक फेनेल नामक प्राणी जाने कितना पहले से कलमाड़ी के काले कारनामों की तरफ इशारा कर रहा था। हमारी अपनी संस्थाएं – साल भर पहले आई कम्पट्रोलर एंड ऑडीटर जनरल की रिपोर्ट हो या फिर अभी आई चीफ विजिलेंस कमीशन की रिपोर्ट – बता रही थीं कि सब गड़बड़झाला है। लेकिन, किसी का ध्यान नहीं गया। अब बस समझाने में लग गए हैं कि किसी तरह देश की इज्जत बच जाए। बाद में देखेंगे कि किसने कितना काला किया है।
कुल मिलाकर बस इरादा कुछ ऐसा ही है कि किसी तरह खेल हो जाए तो, फिर खेल कर लें। भ्रष्टाचार का खेल ऐसा है ही कि किसी को भी भ्रष्ट करने की ताकत रखता है। खेल मंत्री साहब की कोई खेल वाला सुनता तो है नहीं। फिर भी कह रहे हैं कि खेल हो जाने दीजिए फिर कोई बख्शा नहीं जाएगा। सब यही कह रहे हैं कि खेल हो जाने दीजिए। और, मैं ये कह रहा हूं कि अगर ‘खेल’ हो ही गया तो, फिर कोई क्या कर लेगा। इसीलिए मेरी ये दिली इच्छा है कि हे भगवान इस बार देश की इज्जत चली जाने दो। शायद भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी बहाने कुछ विरोध के स्वर बनें, मजबूत हों, कुछ कार्रवाई हो। वरना तो इस देश में भ्रष्टाचार पर गजब की आम सहमति बन चुकी है। काफी हद तक सांसदों की सैलरी बढ़ाने जैसी आम सहमति भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बन चुकी है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी
Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी 9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...
-
आप लोगों में से कितने लोगों के यहां बेटियों का पैर छुआ जाता है। यानी, मां-बाप अपनी बेटी से पैर छुआते नहीं हैं। बल्कि, खुद उनका पैर छूते हैं...
-
पुरानी कहावतें यूं ही नहीं बनी होतीं। और, समय-समय पर इन कहावतों-मिथकों की प्रासंगिकता गजब साबित होती रहती है। कांग्रेस-यूपीए ने सबको साफ कर ...
-
हमारे यहां बेटी-दामाद का पैर छुआ जाता है। और, उसके मुझे दुष्परिणाम ज्यादा दिख रहे थे। मुझे लगा था कि मैं बेहद परंपरागत ब्राह्मण परिवार से ह...
आपकी बात से सहमत।
ReplyDeleteसहमत, वैसे शायद बारिश और यमुना मिलकर खेल बिगाड़ ही देंगे… और इसी बारिश के बहाने कुछ लोगों के "खेल" दब जायेंगे, कुछ के "खेल" उजागर हो जायेंगे…। मैं तो चाहता हूं कि सितम्बर माह में दिल्ली में लगातार 20 दिन बारिश हो… :) :)
ReplyDeleteइज्जत-विज्जत सब बेवकूफ़ बनाने की बातें हैं… बाद में कुछ होने वाला नहीं है… भाई लोग पहले से ही खेलगाँव के आलीशान मकानों पर कब्जा करने की जुगाड़ लगाये बैठे हैं…।
रही बात सोनिया गाँधी की, वे तो 25000 लोगों की मौत के लिये जिम्मेदार अपने पति की करतूतें भी "भूल जाने" को कहती हैं…
एकदम मन की बात कह दी हर्ष जी। कलमाडी समेत सब जेल जाने लायक हैं और भारत में अगले 25 साल तक कोई आयोजन नहीं करने का कानून बनना चाहिए।
ReplyDeleteचाहते तो नहीं ऐसा हो.लेकिन ये ही एक रास्ता है की शायेद बहरे गूंगे लोग कुछ जागें...किसी का जमीर आवाज़ दे. कोई आत्मा की बात सुने.
ReplyDeleteचिपळूणकर साहब सही कह रहे हैं कि बारिश और यमुना मिलकर खेल होने नही देंगे और सब के काले कारनामों पर पानी गिर जायेगा । हम लोगों की याद दाश्त वैसे ही कमजोर है, यानि फिर नई लूट खसोट के लिये ये तैयार ।
ReplyDeleteआशा ताई, नेट पर अपने नाम का शुद्ध मराठी उच्चारण "चिपळूणकर" शायद पहली बार ही देखा है… आपका आभार।
ReplyDeleteअसल में जन्म से ही हिन्दी क्षेत्र में रहने के कारण अब "चिपळूणकर" शुरु से ही "चिपलूनकर" बन गया है… क्योंकि "ळ" शब्द हिन्दी वर्णमाला में नहीं है और उसे सीधे-सीधे "ल" बना दिया गया है… जैसे काळे को "काले" और गोळे को "गोले"…
बहरहाल, काफ़ी दिनों बाद "चिपळूणकर" देखकर अच्छा लगा… :)
हर्ष, जी हमारे देश की यही दुर्गति आज से नहीं बल्कि सदियों से होती आई है। इसलिए राष्ट्रमंडल खेल में अगर ये सब हो रहा है तो कोई नई बात तो हो नहीं रही है। आज जनता का पैसा ये लोग अपनी मौज मस्ती में उड़ा रहे हैं। जिस देश में देश की करोड़ों जनता खुले में शौच करती है उस देश में ६ हजार का टोइलेट पेपर ख़रीदा जा रहा है वो भी एक आदमी के लिए। खेल मनोरंजन के लिए होते हैं और जनता मनोरंजन तभी करती है जब उसका पेट भरा होता है। हमारे देश का दुर्भाग्य ये है की इस देश में करोड़ों जनता के लिए एक टाइम का खाना और पानी नहीं है, लेकिन खेल पर उड़ाने के लिए हजारों करोड़ हैं। इस देश के लिए यही कहा जा सकता है की चाहे १०० में ९९ बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।
ReplyDelete