Thursday, August 28, 2008

लीजिए साहब हैसियत सामने आ गई

हम ये समझ नहीं पा रहे हैं कि हम कैसा देश बनें। लेकिन, हमारे देश की अभी क्या हैसियत है। इस कड़वी सच्चाई का अक्सर दूसरे-चौथे रोज सामना करना पड़ जाता है। अखबार के पन्ने पर बॉक्सर विजेंदर कुमार और पहलवान सुशील कुमार के साथ सोनिया गांधी की मुस्कुराती तस्वीर के ठीक नीचे से असलियत कुछ वैसे ही झांक रही थी जैसे, परदा कहानी में परदा गिरते ही सारी लाट साहबी की सच्चाई पठान के सामने आ जाती है।

अखबार के पहले पन्ने पर सबसे बोल्ड फॉण्ट में खबर है कि दुनिया के एक तिहाई गरीब सिर्फ हमारे महान देश भारत में पाए जाते हैं। यानी, दुनिया के सबसे ज्यादा खतरनाक बीमारी से ग्रसित लोग भारत में ही हैं। गरीबी दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी है इससे भला किसी को क्या इनकार होगा। और, इस बीमारी से पीड़ित मरीज हमारे देश में अफ्रीका के उन इलाकों से भी ज्यादा हैं जहां की गंदी तस्वीरें दिखाकर BBC WORLD और CNN दुनिया (खासकर धनाढ्य देशों) को ये बताते हैं कि गरीब नाम के बीमार ऐसे होते हैं। लगे हाथ ये भी बताने से नहीं चूकते कि ये प्रजाति विलुप्त होने के बजाए बढ़ रही है लेकिन, अमरीका-लंदन जैसी जगहों पर शायद ही इनके कुछ अवशेष बचे हों।

और, कल जो मैं बीजिंग ओलंपिक में पदकों की तालिका में भारत और चीन की तुलना करने की गुस्ताखी कर रहा था। उसे और आगे बढ़ा रहा हूं। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 1980 में चीन में 835 मिलियन यानी 83 करोड़ पचास लाख, उस समय की चीन की कुल आबादी के 83 प्रतिशत लोग, गरीबी की महामारी से पीड़ित थे। भारत के 42 करोड़ 10 लाख लोग, 60 प्रतिशत, गरीबी की महामारी की चपेट में थे। 2005 का आंकड़ा देख लीजिए। चीन में 20 करोड़ 80 लाख, कुल आबादी के 16 प्रतिशत लोग, गरीबी की महामारी के जाल में फंसे रह गए। जबकि, भारत में उसी समय 45 करोड़ 60 लाख लोग, आबादी के 42 प्रतिशत, गरीबी की महामारी से पीड़ित ही रहे।

और, दुनिया क्यों एशिया में भी हमसे ज्यादा गरीबी का तमगा नेपाल के ही सिर सज रहा है। एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB) की ताजा रिपोर्ट कह रही है कि गरीबी के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका भी हमसे बेहतर है। यही वजह है कि कल मैं एक टीवी चैनल पर चीन स्पेशल देख रहा था। तो, एक चीनी का पैराडब (चीनी भाषा से हिंदी) सुनाई दे रहा था कि भारत के बारे में तो वो, लोग चर्चा भी नहीं करते। हां, भारत की छवि ये है कि वो, गरीबों-टूटी-फूटी सड़कों वाला देश है। और, वो ठसके से ये भी बता रहा था कि हम सिर्फ वोट ही तो नहीं दे सकते (कुछ इस अंदाज में अच्छा रहने-खाने को मिले तो, लोकतंत्र जाए ठेंगे पे)। हमारे यहां की शानदार सड़कें, ऊंची इमारतें और बहुत कुछ है हमारे पास बताने को। अब बस आगे फिर— ये तो कोढ़ जैसा है जब कुरेदा जाता है फिर कीड़े बाहर निकल आते हैं।

Wednesday, August 27, 2008

हम कैसा देश बनें

बड़ी भयानक ऊहापोह है। भारत इसी ऊहापोह में आजादी के बाद से ऐसा जूझ रहा है कि खुद का भी वजूद नहीं बचा रह पाया है। कुल मिलाकर ऐसे कहें कि एक बार हम जब गुलाम हुए तब से आज तक यानी सैकड़ों सालों से हम तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि हम गुलाम है या आजाद। मुगलों और अंग्रेजों ने हमें ऐसा रगड़ा है कि हम देश वासी मुंबई की रगड़ा पेटीस हो गए हैं। पता ही नहीं चलता- मटर कितनी है, पानी कितना है, कितना गरम है और गरम है तो क्या गरम है आलू की टिक्की या फिर मटर या सिर्फ मटर का पानी।

आजादी के बाद नए मापदंड बने। पहले बरसों हम नेहरूवियन मॉडल में गुटनिरपेक्ष बने- फिर उनकी सुपुत्री इंदिरा गांधी ने कहा- सोवियत संघ जैसा बनना चाहिए। उधर, इंदिरा गांधी की अकाल मौत हुई और इधर सोवियत संघ का संघ ही गायब हो गया और सिर्फ रूस (Russia) रह गया। सोचिए, अगर आज भी रूस, सोवियत संघ (united states of soviet russia) रहा होता तो, अमेरिका से आज भी आगे होता। कहां- अरे, वहीं जहां सबसे आगे निकलकर चीन ने दुनिया को पटक मारा है। वही बीजिंग ओलंपिक जो, कल खत्म हो गया लेकिन, दुनिया को बता गया कि अब दुनिया का दादा वॉशिंगटन नहीं रह गया। नया बादशाह बीजिंग से बोलेगा।

खैर, मैं देश की बात कर रहा था तो, सोवियत संघ उधर टूट और इधर हमारे देश के नेताओं का आदर्श भी नहीं रह गया। अब हम अमेरिका जैसा बनना चाहते हैं। कमाल ये कि इस पर संघी-भाजपाई से लेकर कांग्रेसी तक सब सहमत हैं। नए समाजवादियों को भी अमेरिका का ही साथ अच्छा लग रहा है। सिर्फ कम्युनिस्ट भाई चीन जैसा बनाना चाहते हैं देश को। ये अलग बात है कि कम्युनिस्ट भाइयों की जिन दो राज्यों में बपौती है उसे, चीन तो क्या चीन के पिद्दी बराबर भी नहीं बना पा रहे हैं।

अमेरिका, रूस बनने के समय तो मैं इतना जाग्रत ही नहीं था कि कुछ बनाने में अपनी बहुमूल्य राय दे पाता। लेकिन, अब देश कैसा बने इसमें मेरी बहुमूल्य राय काम आ सकती है। चीन जैसा देश बनने में मुझे जाग्रत होने के साथ ही चिढ़ होनी शुरू हो गई थी। उतनी ही जितनी कोई अगर पाकिस्तान जैसा बनने की वकालत कर दे।

इसकी सीधी-सीधी कई वजहें थीं
चीन ने हमारी जमीन पर कब्जा जमा रखा है।
चीन ने तिब्बत पर जबरी कब्जा जमाया हुआ है। घिघियाए दलाई लामा भारत में हैं, उनसे अनायास सहानुभूति है।
कम्युनिस्ट चीन में तानाशाही है।
हमारे देश में जो, कम्युनिस्ट बने घूम रहे हैं वो, सिर्फ हिंदू धर्म पर हमला करके काम चला रहे हैं।
कम्युनिस्ट राज्यों के पास कोई ऐसा मॉडल नहीं है जो, बता सके कि चीन जैसा ही बनना चाहिए। एक पश्चिम बंगाल थोड़ा बहुत था वो, भ्रम भी शीशे की तरह टूटकर चुभ रहा है।


इतनी वजहें दिमाग में ऐसे घर किए हुए हैं कि जब मैं देहरादून, अमर उजाला में भारतीय सैन्य संस्थान (IMA) में पासिंग आउट परेड कवर करने गया तो, जॉर्ज फर्नांडिस से लगभग भिड़ सा गया था। जॉर्ज फर्नांडिस रक्षा मंत्री थे, पासिंग आउट परेड के मुख्य अतिथि थे। POP भाषण के दौरान उन्होंने चीन का जिक्र किया और उसकी जमकर तारीफ की। मंच से उतरते ही दूसरे पत्रकारों के साथ मैंने उन्हें घेर लिया। और, कड़े लहजे में सवाल दागा- क्या आप भारत में चीन मॉडल की वकालत कर रहे हैं। फर्नांडिस ने कहा- मैं सिर्फ चीन के विकास की बात कर रहा था। लेकिन, मैं तो भरा हुआ था। फिर से मैंने वही सवाल किया। फर्नांडिस इतने झल्ला गए कि उन्होंने प्रेस से बात करने मना कर दिया। कहा- आप मेरे मुंह में अपने शब्द डालने की कोशिश कर रहे हैं।

खैर, मैंने देहरादून छोड़ दिया। और, मुंबई आ गया-मन में कहीं न कहीं बचपन से था कि मुंबई जैसा देश हो जाए तो, मजा आ जाए। लेकिन, मायानगरी में आते ही इसकी फिल्मी छवि टूट सी गई। मरीन ड्राइव के क्वीन्स नेकलेस से मैं मुंबई को पहचानता था। जहां पुरानी-नई मॉडल की शानदार गाड़ियों में बड़े लोग घूमते हैं। यहां एयरपोर्ट (अब तो, कम से कम एयरपोर्ट शानदार हो ही गया है) से उतरते ही झुग्गियों से गुजरकर होटल तक पहुंचा। समझ में आ गया मैं अपने पैतृक प्रतापगढ़ के गांव से निकलकर देश के सबसे बड़े गांव में आ गया।

गांव में सड़कें कच्ची-पक्की हो सकती हैं लेकिन, कोई भी दूरी तय करने में साइकिल से जितना समय लगता है उससे ज्यादा समय मुंबई में ट्रैफिक के बीच फंसी कारों से लग जाता है। गांव में खेत में लोग दिशा-मैदान जाते हैं तो, यहां भी रेलवे ट्रैक के किनारे लोग लैट्रिन करते मिल जाएंगे। झुग्गियों में तो लोग गांव से भी बदतर हालात में रह रहे हैं। हां, झुग्गी में भी एयरकंडीशनर जरूर लगा है। अपने गांव देश की लंबी-चौड़ी जगह और शानदार हवा-पानी को छोड़कर लोग तरक्की तलाशते नाले के ऊपर-सड़क के किनारे-रेलवे ट्रैक के किनारे बदबूदार जगह में एक चारपाई की जगह में झुग्गी बनाकर तरक्की वाले देश में रह रहे हैं।

फिर, कभी-कभी लगता है कि दिल्ली जैसा देश हो जाए तो, मजा आ जाए। और, दिल्ली इधर जिस तेजी से बदल रही है—कि हर महीने भर पे भी दिल्ली जाओ तो, नई सी लगती है, ढेर सारे फ्लाईओवर, चमचमाती सड़कें- उससे और लगता है कि देश, दिल्ली जैसा ही हो जाए। फिर, लगा कि नहीं यार इतनी सड़कों-फ्लाई ओवरों पर दिल्ली वाले तो, मजे से चल ही नहीं पा रहे हैं। ऑफिस के टाइम में तो, मुंबई से थोड़ा ही भले रह पाते हैं। फिर भी दिल्ली देश की अकेली वर्ल्ड क्लास सिटी लगती है।

और, लीजिए कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में होने वाला है। उसकी तैयारी की वजह से ये दिल्ली का साज-सजावट ज्यादा तेजी से हो रही है। बड़ी मुसीबत है भारत के लिए चीन और पाकिस्तान जैसे देश के बगल में होना। पाकिस्तान रोज हम पर बिना वजह गोली बरसाता रहता है-धमाके करता रहता है। निर्दोष मारे जाते हैं। तो, चीन की तरक्की से हम ऐसे ही मरे जा रहे हैं। चीन 5 SEZ बनाता है तो, हम 500 SEZ के प्रस्ताव पास कर देते हैं। जबकि, हमें ये अच्छे से पता है कि हमारे लिए SEZ मॉडल काम का नहीं है। और, देखिए हमें भी 108 साल में ओलंपिक में रिकॉर्ड बनाने के लिए चीन की राजधानी बीजिंग ही एक जगह मिली थी।

रिकॉर्ड भारत ने भी बनाया और चीन ने भी। भारत देश की अब तक की जिंदगी का पहला और अकेला निजी स्वर्ण पदक मिला। चीन के खिलाड़ी 51 स्वर्ण पदक लटकाए घूम रहे हैं। हम कुल जमा तीन गिनती में पहुंचे तो, चीन ने पदकों की सेंचुरी मार दी। लीजिए, साहब अब चीन से कुछ तुलना बची क्या। स्वर्ण पदक के लिहाज से चीन हमसे 51 गुना आगे, अपना कांसा भी मिला लें तो, भी चीन तीस गुना आगे। अब मैं सोच रहा जॉर्ज फर्नांडिस गलती से ही सही कह रहे थे हमें चीन जैसा बनना चाहिए। वो, भी उन जवानों की पासिंग आउट परेड में जो, हो सकता है चीन की उसी सीमा पर तैनात कर दिए जाएं। जहां चीन ने लंबे भारतीय क्षेत्र पर चीनी झंडे लगाकर नई सीमा बना दी है।

अब मुझे भी लगता है कि हम चीन जैसा ही देश बनें। कांग्रेसी-कम्युनिस्ट तो, खुश होंगे ही। संघी भी खुश होंगे बस उन्हें ये नहीं बताना है कि हम कम्युनिस्ट चीन जैसा बन रहे हैं। वैसे, संघियों को भी गुजरात एक देश बनाने का मॉडल मिल गया है। लेकिन, फिर वही बात कि हम चीन तो हैं नहीं थ्येन आन मेन चौक पर लोकतंत्र बहाली की मांग करने वाले छात्रों का नरसंहार करने वाली रेड आर्मी किसी को याद तक नहीं है। चीन की तरक्की सबको याद है। अब एक चुनाव विकास के मुद्दे पर जीतने वाले नरेंद्र मोदी भी शायद तरक्की से सब ढंक दें। लेकिन, गुजरात में है तो, लोकतंत्र ही ना। तानाशाही तो है नहीं कि बस एक ही पार्टी, एक ही राज। फिर, तो हम चीन भी नहीं बन पाएंगे। वैसे, मेरे स्वर्गीय बाबा श्री श्रीकांत त्रिपाठी शास्त्री मुझकों अक्सर समझाते हुए एक श्लोक सुनाते थे जो, मुझे अब याद नहीं है। लेकिन, उसका मतलब मुझे याद है कि हाथी के पैर में सबका पैर समा जाता है। यानी इतने बड़े बनो कि सारी गलतियां उसमें छिप जाएं। अब भारत की पहचान भले दुनिया में हाथी के तौर पर होती है लेकिन, हम हाथी नहीं बन पा रहे हैं।

लीजिए, मैं चीन, गुजरात जैसा बनते-बनते फिर से हाथी यानी भारत बनने लगा। दिमाग में बाप-दादाओं का दिया भरा हुआ है ना। अरे, अब तो मुझे कुछ नहीं समझ में आ रहा। क्या हम बिना चरित्र के ही देश रह जाएंगे। ए भाई, किसी को समझ में आ रहा हो तो, बताओ ना- हम कैसा देश बनें। और, देश के वीरों ये सलाह मत देना कि हमें किसी की नकल की जरूरत नहीं हम भारत हैं और भारत ही बनेंगे। क्योंकि, आजादी के करीब बासठ सालों बाद भी हम भारत जैसा बनते-बनते बिना किसी चरित्र के रह गए हैं। प्लीज, बताइएगा जरूर, हम ही नहीं देश मानसिक उलझन में है।

Monday, August 25, 2008

हाथी और ड्रैगन की लड़ाई

अभी हाल में ही प्रतापजी दक्षिण अफ्रीका होकर लौटे। वहां से लौटने के बाद वहां के सामाजिक परिवेश और उसका भारत से शानदार तुलनात्मक विश्लेषण किया। उनके इन लेखों की सीरीज अमर उजाला में छपी। मैं उसे यहां भी पेश कर रहा हूं। तीसरी कड़ी में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के बाजार में चीन और भारत की जंग का नजारा दिखाया है।

जोहांसबर्ग की सडक़ों के किनारे भारतीय कंपंनियों की होर्डिंज्स देखते ही छाती फूल जाती है। यह जानने पर कि भारतीय कंपंनियां यहां इतना बेहतर कर रही हैं कि उनका मुकाबला चीन और दूसरे संपंन्न राष्ट्रों से किया जाता है, भीतर का सुख दोगुना हो जाता है। अपने देश में हम इन उद्यमयिों को लेकर भले ही तरह-तरह के सवाल खड़े करते रहे हैं। दूर देश में लेकिन उनकी तरक्की के किस्से सुनना कानों को प्रिय लगता है।

आप किसी भारतीय मूल के दक्षिण अफ्रीकी से सिर्फ ये पूछिए कि यहां कौन-कौन सी भारतीय कंपंनियां क्या कर रही हैं? एक सांस में वो आपको गिना देगा। ताजातरीन एमटीएन अधिग्रहण का जिक्र सबसे पहले आएगा। दक्षिण अफ्रीका की प्रमुख मोबाइल कंपनी के अधिग्रहण को लेकर अंबानी बंधुओं में जंग चल रही है। शुरूआत में भारती टेलीकाम के सुनील भारती मित्तल की कंपनी के एमटीन पर काबिज होने की खबरें आई थीं। टाटा दक्षिण अफ्रीका में छठवीं बड़ी निवेशक है। टाटा, एल एंड टी, महेद्रा, रेनबैक्सीस, किंगफिशर, सुकैम आदि कंपंनियों के बारे में यहां लोग भलीभांति जानते हैं। इसी तरह रतन टाटा, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, विजय माल्या, अजय गुप्ता और जयेश रामचंद्रन वे नाम हैं जो यहां अमूमन लोगों को याद हैं। इनमें अजय गुप्ता जोहन्सबर्ग में रहते हैं।

सहारा कम्प्यूटर कंपंनी के मालिक अजय गुप्ता को मंहगी जीवन शैली और सिने स्टार फिल्म स्टार शाहरूख खान का दोस्त होने के नाते भी जाना जाता है। शाहरूख जब भी जोहांसबर्ग में होते हैं तो अजय के घर ही ठहरते हैं। जयेश रामचंद्रन दक्षिण अफ्रीका में भारतीय ïव्यंजन के रेस्टोरेंट की एक चेन राज रेस्टोरेंट की मालिक हैं। हीरे की खदानें दक्षिण अफ्रीका में हैं, लेकिन उनकी पालिशिंग का शत-प्रतिशत काम भारत में होता आ रहा है। केजीके डायमंड ने पिछले बरसों में यहां 400 करोड़ रूपए का निवेश किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि गुणवत्ता के मामले में भी भारतीय कंपंनियों ने अपनी साख बरकरार रखी है।

भारतीय कंपंनियों के बारे में ये सब मैं इतने अधिकार नहीं कह पाता अगर मैं डेविड मैकग्रा से मेरी मुलाकात न होती। मैकग्रा दक्षिण अफ्रीका की एक बड़ी कोरियर कंपंनी न्यू एरा कोरियर के मालिक हैं। दुनिया के तमाम देशों में उनके दफ्तर हैं। अंतराष्ट्रीय कारोबार पर उनकी अपनी समझ है। केपटाउन से जोहान्सबर्ग आते समय विमान में हमारी मुलाकात हुई। पचास-पचपन साल के मैकग्रा ने पहले मुझे दो बार चाकलेट आफर किया। मैने समझ लिया कि वे मुझसे बातें करना चाहते हैं। मैं अपनी सीट से उठकर उनके पास जाकर बैठ गया। मुझे अपने एक सहयात्री से बात करते देख वो जान गए थे कि मैं भारत से आया एक पत्रकार हूं। भारत की ढेर सारी तारीफें करने के साथ वो एक सांस में चीनी कारोबारियों को कोसने लगने हैं।

मैकग्रा कहने लगे कि चीनी ज्यादातर हमारे घरेलू बाजार की कमर तोडऩे पर लगे हैं। भारत ठीक है, आटोमोबाइल, कम्युनिकेशन, पावर, कांस्ट्कशन, हास्पिटलिटी, मेडिसन के क्षेत्र में काम कर रहा है। चीनी हमारे लिए कहीं से स्वाभाविक साथी नहीं है। वो अंगरेजी नहीं बोलते। अपनी अलग बस्ती में रहना पसंद करते हैं। भारतीय हमारे समाज का एक हिस्सा है। वो मुझे भारत का प्रतिनिधि मानते हुए ही बोलते जा रहे थे कि आप लोग आओ। चीनियों से पहले। यह आपके साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका के भी हक में है।
एक दिन पहले मैं पिक एंड पे नाम के एक रिटेल चेन शोरूम में गया था। वहां ज्यादातर माल चीन के ही भरे हुए थे। उसी वक्त लगा था कि यहां के बाजार में चीन ने अपनी मजबूत पकड़ बना ली है। हम अपने देश से तुलना करने लगे, जहां के छोटे-छोटे बहुत से उद्योग चीनी उत्पादों के चक्कर में खत्म हो गए हैं। दक्षिण अफ्रीका में तो हालत और भी खराब दिखी।

खाने के सामान के साथ रेडीमेड कपड़ों के ब्लाक पर भी चीन के लेबल नजर आ रहे थे। दक्षिण अफ्रीका में बने सामान खरीदने की बात की तो वो थोड़े से जूस और आयुर्वेदिक सामान ही दिखा पाया। अंतराष्ट्रीय स्तर पर बिकने वाले ब्रांडस के अलावा चीन की ही धूम थी। मैकग्रा की बात से मुझे 1996 के आसपास का साल याद आया, जब बाजार मे आई एक गिरावट से कोरिया और दूसरे कई देशों के बाजार पर बहुत बुरा असर पड़ा था। लेकिन भारत को उस समय कोई बड़ा झटका नहीं लगा था।

अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना हाथी से करते रहे हैं। वो आकार में भारी है, बलशाली है। आगे बढ़ रहा है, गति थोड़ा कम है, लेकिन खतरा भी कम से कम है। वही चीन को हमेशा ड्रैगन की पहचान से जोडक़र देखा जाता है। वहां की लोककथाओं से लेकर हालीवुड की फिल्मों तक चीन को ड्रैगन से जोडक़र देखा जाता है। इस तरह दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में देखने पर मुझे हाथी और ड्रेगन की लड़ाई नजर आती है। एक अपनी गति और शक्ति से आगे बढ़ रहा है, एक सबकुछ अपने कब्जे में कर लेना चाहता है। भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच सन 2004 में 180 करोड़ डालर का कारोबार हुआ। सन 2006-07 में यह दोगुने से उपर बढक़र 470 करोड़ डालर तक पहुंच गया। आने वाले 2010 में यहां फुटबाल का विश्वकप फीफा होने वाला है। साउथ एशिया टूरिज्म की इंडिया कंट्री हेड मेघा सम्पत्त का मानना है कि अगले पांच साल में यहां बहुत अधिक भारतीय निवेश बढऩे वाला है। 2010 तक भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच 1200 करोड़ डालर तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है।

दक्षिण अफ्रीका के इस औद्योगिक विस्तार के बीच जब यह मालूम चलता है कि यहां के श्रम कानूनों की हालत बहुत सख्त और बेहतर है । हालांकि जो बताता है वह आलोचनात्मक पक्ष रखता है कि तीन महीने के ट्रायल के बाद किसी को निजी नौकरी से भी निकाला जाना आसान नहीं है। बताने वाला नियोक्ता था, वहां के ट्रेड यूनियन और स्थानीय प्रशासन के दखल की बात करता है। लेकिन एक दक्षिण अफ्रीकी के अधिकारों के मद्देनजर देखें तो लगता है कि औद्योगिीकरण की प्रक्रिया में इतना ध्यान रखने की जो दृष्टि नेल्सन मंडेला ने दी वो आगे भी बनी रहे तो बेहतर है।

दक्षिण अफ्रीका के साथ भारत के रिश्ते के वे दिन भी याद आए जब रंगभेद के आरोपों के चलते सन 1948 में रिश्ते तोड़ लिए थे। देश में लोकतंत्र की बहाली के साथ 1994 से फिर नए अध्याय लिखे जा रहे हैं। संभवानाओं की किताब में अभी बहुत से पन्ने रिक्त हैं। गुजरे 14 वर्षों में जो दर्ज किया गया है वो कारोबारी और भारत-दक्षिण अफ्रीका रिश्तों के लिए सुखद रहा है।

देश और शरीर में बड़ा फरक है

कश्मीर मसले को भारतीय लोकतांत्रिक तरीके से सुलझाना नामुमिकन है। भारतीय लोकतंत्र की इतनी मजबूरियां हैं कि वो, कोई फैसला नहीं ले सकता। इस लोकतंत्र के 60 साल सिर्फ सहमति बनाने की चिरकुटाई में बीत गए। वो, भी सहमति बनाने की कोशिश उनसे जो सहमत तो हो ही नहीं सकते। क्योंकि, सहमत होने के बाद उनकी हैसियत ही नहीं रह जाएगी।

अब इस देश का मीडिया, मीरवाइज उमर फारुक, फारुक अब्दुल्ला के सुपुत्र उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती की सुपुत्री महबूबा मुफ्ती के साथ कांग्रेस, बीजेपी नेताओं को स्टूडियो में बैठाकर सहमति बनाने की कोशिस कर रहा है। भारतीय लोकतंत्र में मीडिया को इतनी आजादी है कि वो, स्टूडियो में देश के किसी हिस्से को देश से आजादी की मजे से वकालत कर लेते हैं। वकालत नहीं तो, निष्पक्ष और स्वतंत्र मीडिया दिखने की कोशिश में उस प्रेशर ग्रुप में शामिल हो गए हैं। जो, कश्मीर की आजादी का हिमायती है।

मैंने भी कश्मीर के हालात से दुखी होकर 14 अगस्त को ये लिख मारा था कि आज कश्मीर को आजाद कर देना चाहिए। मैंने वो, लेख दरअसल देश जबरदस्त तौर पर उबाल मार रही उस भावना के तहत लिख मारा था कि – एक छोटी सी जन्नत के लिए पूरे देश को दोजख बनाना कहां तक ठीक है। और, ये तो पाकिस्तान, अलगाववादियों-आतंकवादियों के लिए अच्छी ही होगा कि हम खुद ही अपने जन्नत को पाकिस्तानी जमीन (दोजख) में शामिल करवा दें। लेकिन, क्या देश के अहम हिस्से कश्मीर को आजाद कर देने से देश को दोजख बनाने की प्रक्रिया रुक जाएगी। क्योंकि, देश कोई शरीर तो है नहीं कि किसी हिस्से में बीमारी या सड़ांध हो जाए तो, उसका ऑपरेशन करके निकाल दीजिए। पूरा शरीर स्वस्थ रहेगा।

दरअसल, कश्मीर इस देश की ऐसी बीमारी है जिसका ऑपरेशन करके उसके अंदर भरी मवाद तो निकाली जा सकती है। लेकिन, उसे काटकर निकालने से ये बीमारी देश के दूसरे हिस्सों में और तेजी से फैल जाएगी। अब इस ऑपरेशन को करने का माद्दा ऐसे डॉक्टरों में तो नहीं ही हो सकता। जिनके हाथ इतने भर से कांपने लगते हों कि मरीज के कुछ बददिमाग (मरीज को हमेशा बीमार देखने की चाहत रखने वाले) घरवाले, नाते-रिश्तेदार ऑपरेशन असफल होने का डर दिखाकर डॉक्टर को धमका रहे हों। और, ये ऑपरेशन तो और भी मुश्किल हैं क्योंकि, कश्मीर नाम के मरीज के ऑपरेशन का जिम्मा भारतीय लोकतंत्र की मजबूरी से पैदा हुए चिरकुट नेताओं के पास है।

दरअसल, एक कश्मीरी पंडित जवाहर लाल नेहरू ने करीब 62 साल पहले जो, कश्मीर में तुष्टीकरण के कांटों की खेती लगाई थी। नेहरू की उस फसल को बढ़िया खाद-पानी दिया- पाकिस्तान, अलगाववादी, देश के धर्मनिरपेक्षता के लंबरदार नेता, कश्मीर को बपौती की तरह इस्तेमाल कर रहे मुफ्ती, अब्दुल्ला परिवारों ने। फसल खूब बढ़िया हुई इतनी कि कश्मीर पंडितों की तो, कौम ही शरणार्थी शिविर के संग्रहालय भर में पाई जाती है। या कहीं-कहीं देश के अलग-अलग हिस्सों में बिखरे पड़ी है ये कौम।

सवाल सिर्फ कश्मीरी पंडितों का ही नहीं है। हमारे देश में होने के बावजूद हम कश्मीर या तो जाते नहीं हैं- जाते भी हैं तो, डर-डरकर। इस पीड़ा का जवाब कहां से मिलेगा-कौन देगा। जम्मू की श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के आर्थिक नाकेबंदी को आधार पर बनाकर कश्मीर की आजादी और अलगावादियों से सहानुभूति सबको हो रही है। बासठ सालों से पूरा देश जो, पीड़ा झेल रहा है, उसका जवाब कौन देगा-उसका हल किस शांति बैठक से मिल पाएगा।

टीवी चैनलों पर सज-धजकर आए मीरवाइज, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती- चिल्लाकर कह रहे हैं कि आप घाटी में एक भी मुसलमान बताइए जो, अमरनाथ यात्रा के खिलाफ हो। ये तो, मैं भी जानता हूं। और, कश्मीर में चार दिन में मुझे ये अनुभव मिला था कि सबकी सेब बेचकर ही नहीं चल रही, जैसा- मुजफ्फराबाद चलों का नारा देने वाले साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। अरे, अब्दुल्ला, मुफ्ती और मीरवाइजों- अमरनाथ यात्री कश्मीर जाते हैं तो, कुछ लेकर नहीं आते। देकर आते हैं- कश्मीर को रोजगार-कमाई।

और, यही रोजगार-कमाई है जो, कश्मीर का हल निकाल सकता है। लेकिन, रोजगार-कमाई के लिए बाजार को कश्मीर में जगह बनाने की मौहाल बनाने देना होगा। उस माहौल के लिए अगर कुछ समय के लिए कश्मीर में खोखले लोकतंत्र की बलि चढ़ानी पड़े तो, गुरेज नहीं होना चाहिए। मेरी पहली पोस्ट में मैंने साफ लिखा था कि बाजार ही कश्मीर में बंदूक को बरबाद कर सकता है।

फिर, ये सवाल क्यों उठाकि सौ एकड़ जमीन पर बनने वाले अस्थाई इंतजामों से राज्य की डेमोग्राफी बदल जाएगी। हिंदू बढ़ जाएंगे। कश्मीर से तो, वहां के मूल निवासी कश्मीरी पंडित मारकर भगा ही दिए गए। और, बताइए ना, जहां हिंदू ही ज्यादा हैं उस जम्मू में इतने बड़े आंदोलन के बावजूद में एक भी मुसलमान को नुकसान पहुंचा हो। या देश भर में बताइए ना कहां ऐसा है कि मुसलमान होने की वजह से किसी को मारा-भगाया जा रहा हो। फिर, ये नेहरू की कांटे की फसल के खाद-पानी (मुफ्ती, अब्दुल्ला, मीरवाइज), टीवी स्टूडियो में ऐसा बोलने का साहस भी कैसे कर पाते हैं जैसे, वो दूसरे देश से आए राजनयिक प्रतिनिधिमंडल के हिस्से हों।

पिछले कुछ सालों से कश्मीर में चुनी गई सरकार चल रही थी तो, पूरे देश में ये भ्रम फैल रहा था कि आतंकवादी-अलगाववादी कमजोर हो गए हैं। लेकिन, सच्चाई यही है कि कश्मीर में शांति दिख भले रही थी। पूरे देश में आतंकवादी-अलगाववादी हर रोज बरबादी की नई इबारतें लिख रहे थे। आरडीएक्स-बम धमाके-गोलियां, कश्मीर से निकलकर पूरे देश में लोगों की जान ले रहे थे। और, जब इस सरकार के जाने के दिन आए तो, फिर इन नेताओं ने कश्मीरियों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया। एक टीवी चैनल पर बहस में महबूबा मुफ्ती ने उमर अब्दुल्ला पर आरोप लगाया कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने पर राज्य की डेमोग्राफी बिगड़ने का हल्ला सबसे पहले आप ही ने मचाया था।

मतलब साफ है कि देश में एक दूसरा देश बसा हुआ है जो, स्वाभाविक है मौका मिलते ही आजादी की कोशिश करेगा। इसलिए सबसे पहले तो, कश्मीर को देश का हिस्सा बनाना होगा। यानी पूरे देश के जैसे कानून लागू करने होंगे। कश्मीर के मुसलमान देश भर में बसें और मजे से बसें। कश्मीर में देश के दूसरे हिस्से के हिंदू न सही शुरू में कम से कम मुसलमान ही बसना शुरू करें। यानी कुल मिलाकर एक देश जैसा लगने लगे। तभी बात बनेगी।

और, ये दलील देने वाले चूतियापे की बात कर रहे हैं कि कश्मीरी भारत से अलग होना चाहते हैं। कश्मीर अगर अलग होना चाहता तो, वो कांग्रेस को इतनी ताकत क्यों देता कि वो, सरकार बना सके। मुफ्ती के अलावा उमर अब्दुल्ला भी कभी पाकिस्तान के खेमे में जाने की या आजादी का नारा बुलंद करने की बात नहीं करते उसे क्यों, विधानसभा में सबसे ज्यादा सीट जिताते। मतलब साफ है कि लोकतांत्रिक राय भी कश्मीरियों की यही है कि हम भारत के साथ हैं। अब अगर कश्मीरियों की इस लोकतांत्रिक राय का सम्मान करने के लिए तानाशाही की भी जरूरत पड़े तो, करनी चाहिए। और, इन गोली-बंदूक से बात करने वाले अलगाववादियों को, देश के दूसरे किसी हिस्से के अपराधी-देश द्रोहियों की ही तरह जेल में ठूंस देना चाहिए। सिर्फ इतने से बात न बने तो, जितने से बने वो करना चाहिए।

Sunday, August 24, 2008

गुंडे चढ़ गए हाथी पे, पत्थर रख लो छाती पे

सब अलटा-पलटी हो गया है। एक अमेरिका के साथ परमाणु करार की बात ने देश के सारे राजनैतिक समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है। दुनिया के दादा अमेरिका की खिलाफत के मुद्दे पर देश में कुछ लोगों को ये भ्रम हुआ कि इस मुद्दे से देश का दादा बना जा सकता है। उसमें बीजेपी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी, अमर सिंह जैसे दलाल ! (ये अमर सिंह खुद स्वीकारते हैं कि ये काम वो सबसे बेहतर करते हैं और अब तो, बाकायदा सुर्खियां इसी से बनती हैं) से पटकनी खाए गुस्से से लाल करात और दलितों की मसीहा बहन मायावती सबसे आगे चल रहे थे।

देश का संवैधानिक दादा यानी प्रधानमंत्री बनने की इस इच्छा ने और कुछ किया हो या न किया हो। अलग-अलग राज्यों में बाहुबली सांसदों (असंवैधानिक दादाओं) का बड़ा भला कर दिया। और, इसमें मदद मिली अदालतों से। आप में से कितने लोगों को याद होगा कि अदालत से दोषी करार दिए गए लोगों को संसद-विधानसभा का चुनाव लड़ने से रोकने के लिए बात चल रही थी। लेकिन, जब देश में दादागिरी का मुकाबला चल रहा हो तो, भला छोटे-मोटे दादाओं के दुष्कर्म रोकने की चिंता भला किसे होती। बस यूपी-बिहार के दादा लोगों को जेल से सम्माननीय सांसद (लोकसभा में चुने जाने के बाद तो सम्माननीय ही हुए ना) की हैसियत से लोकसभा लाया गया।

और, इस अप्रत्याशित सम्मान से सबसे ज्यादा पलटी हुई है उत्तर प्रदेश में। मायावती जिन्हें मरवाना चाहती थीं (ऐसा भगोड़े अतीक अहमद ने पहली बार टीवी आने के बाद बोला था) अब वही अतीक अहमद हाथी पर सवार होकर लोकसभा में पिर पहुंचना चाहते हैं। जिससे कम से कम लोकतंत्र को बंधुआ बनाए रखकर उसके जरिए अपने दुष्कर्मों को जनता की इच्छा कहने का माद्दा बना रहे। मायावती के खासमखास मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दिकी इलाहाबाद की नैनी जेल में मिलकर अतीक के साथ इलाहाबाद और आसपास की लोकसभा सीटों को जीतने की योजना बना रहे हैं। यूपीए सरकार के खिलाफ वोट करने के बाद अतीक के सारे करीबीयों (इलाहाबाद के छंटे बदमाशों) पर मामले हल्के किए जा रहे हैं। मायावती जब सत्ता में आई तो, चिल्ला-चिल्लाकर सपा के जंगलराज और जंगलराज चलाने वाले बदमाशों के सफाए की बात कह रही थीं।

वैसे अब माहौल जरा बदल गया है। इसका अंदाजा सिर्फ दो नारों से लग जाता है--
यूपी विधानसभा चुनाव के समय बसपा कार्यकर्ता नारा लगाते थे---
चढ़कर गुंडों की छाती पे, मोहर लगेगी हाथी पे
जो, बसपा को नहीं चाहते थे वो, भी सपा को हराने के लिेए नारा लगाते थे ---
पत्थर रख लो छाती पे, मोहर लगाओ हाथी पे

और, उत्तर प्रदेश का नया नारा है ---
गुंडे चढ़ गए हाथी पे, पत्थर रख लो छाती पे


चलिए एक बार फिर से पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े बदमाशों की एक लिस्ट देखते हैं-
अतीक अहमद (फूलपुर, इलाहाबाद), मुख्तार अंसारी (गाजीपुर अब मऊ से विधायक), रघुराज प्रताप सिंह (विधायक, कुंडा, प्रतापगढ़), धनंजय सिंह (विधायक, रारी, जौनपुर), हरिशंकर तिवारी (हारे विधायक, चिल्लूपार, गोरखपुर)। इन पांचों की हैसियत ये है कि निर्दल चुनाव जीतते हैं या जीतने का माद्दा रखते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार आने से पहले ये मुलायम के खासमखास थे। मुख्तार पर भाजपा विधायक कृष्णानंद राय और अतीक अहमद पर बसपा विधायक राजू पाल की हत्या का आरोप है। मायावती ने सत्ता में आते ही सबसे पहले इन्हीं लोगों की नकेल कसी। लेकिन, अब ये दोनों हाथी की सवारी की तैयारी में हैं। मुख्तार को मऊ से बसपा टिकट मिल रहा है।

कुंडा विधायक रघुराज प्रताप सिंह अपने प्रताप से प्रतापगढ़ की सीट भी समाजवादी पार्टी को जिता चुके हैं। अब राजा के भी कस-बल ढीले पड़ रहे हैं। सुनते हैं कि वो, भी मायाजाल में फंसना चाहते हैं। तो, मऊ से विधायक मुख्तार अंसारी के भाई गाजीपुर से सपा सांसद हैं। मायाजाल में फंसने वालों की लिस्ट में नया नाम है जौनपुर की रारी विधानसभा से विधायक धनंजय सिंह का। लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान धनंजय गुंडई में पारंगत हुए। अब संसद में पहुंचना चाहते हैं जो, अकेले के बूते का नहीं लगता। इसलिए मायावती से हाथी (चुनाव चिन्ह) मांग रहे हैं। जौनपुर, लोकसभा सीट के लिए हाथी मिलना पक्का भी हो गया है। धनंजय को बहनजी की ही सरकार ने 50 हजार रुपए का इनामी बदमाश बनाया था।

एक जमाने में उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े बदमाश हरिशंकर तिवारी भी किनारे-किनारे से हाथी की सवारी कर रहे हैं। छोटा बेटा विनय शंकर भले ही पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे के हाथों हार गया। बड़ा बेटा भीष्म शंकर खलीलाबाद से, बसपा सांसद बन चुका है। अब बताइए मायावती गुंडों की बिग बॉस हुई या नहीं (दुर्भाग्य ये कि वो, देश के प्रधानमंत्री बनने की जबरदस्त दावेदार हैं)। दरअसल यही वो दीमक है जो, इस देश के लोकतंत्र को अंदर से काफी हद तक खोखला कर चुका है। देश का संवैधानिक दादा (प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री) बनने के लिए बड़े नेता जिस तरह के कुकर्म (जाने-अनजाने) कर गुजरते हैं। उसी पर खुद बाद में रोते भी रहते हैं। इन बदमाशों के पुनर्जीवन के लिए आखिर मायावती, लालकृष्ण आडवाणी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी कितने जिम्मेदार हैं। क्या इसका जवाब कभी खोजा जाएगा। और, ये कहानी सिर्फ उत्तर प्रदेश की नहीं है, पूरे देश की है।

Saturday, August 23, 2008

बिग बॉस के घर में सबके पाप धुल जाएंगे

आखिरकार बिग बॉस के घर में देश के छंटे हुए लोगों का पहला हफ्ता बीत गया। बिग बॉस की नजर सब पर थी। इसलिए संजय निरुपम को ही जाना था और वो, बिग बॉस के घर से बाहर गए। मुझको तो वजह भी साफ दिखती है। बिग बॉस के घर में रहकर जितनी नौटंकी-कमीनापन और नंगई करनी है वो, संजय कर नहीं पा रहे थे। कम से कम परदे पर बिग बॉस की नजरों के सामने तो नहीं ही कर पा रहे थे (परदे के पीछे तो नेता सब करते ही हैं ये, तो जनता जानती है और मानती भी है)। और, संजय का काम भी हो चुका था-बिग बॉस का भी।

पहले बिग बॉस के काम की बात करें तो, वो ये कि देश में छोटे परदे पर सबसे ज्यादा लोग नई बिग बॉस (शिल्पा शेट्टी) को जानें। और, इससे परदे के पीछे के बॉसेज (प्रोडक्शन हाउस और कलर्स चैनल) को सबसे ज्यादा कमाई हो। वो, दोनों काम तो होने शुरू हो गए हैं। और, बिग बॉस के घर के बादशाह (कमीनतम व्यक्ति) का नाम सबके सामने आते-आते ये काम काफी हद तक पूरा हो चुका होगा।

अब बात संजय निरुपम के काम की। तो, दरअसल ये सिर्फ संजय निरुपम का ही काम नहीं है। बिग बॉस के घर पहुंचे सभी मेहमानों की आखिरी ख्वाहिश (जैसी फांसी पर लटकने से पहले किसी मुजरिम की होती है) पूरी होने जैसा है। बिग बॉस के चरित्रों को अगर ध्यान से देखिए तो, ये ज्यादातर लोग अपना कोई न कोई पाप धुलने के लिए बिग बॉस का चरण-चांपन करने पहुंचे हैं। जिनके पाप नहीं हैं वो, पापियों की जमात में बहती गंगा में हाथ धोने जैसा पहुंचे हैं।

कैसे, देखिए- चलिए संजय निरुपम से ही शुरू करते हैं। संजय पता नहीं कब से मुंबई में हैं (उनसे पूछना पड़ेगा) लेकिन, अभी भी बिहारी हैं (शिवसेना भी उनका इस्तेमाल मारपीट में ही करती रही, अब कांग्रेस में रहकर भी बस राज ठाकरे के खिलाफ मोर्चा निकालने का काम करके मीडिया में दिखते हैं)। तो, उनको अपनी इमेज इस मायानगरी मुंबई के लिहाज से कुछ फिच करवानी थी। उनको बाहर करने की वोटिंग में केतकी ने सबसे बड़ी वजह भी यही बताई कि वो, हम कलाकारों (मायावी) के बीच कंफ्यूज थे।

नेता के बाद बात नेतापुत्र की। बिग बॉस शुरू होने के पहले एक खबर मुंबई मिरर में छपी थी जिसकी शुरुआत कुछ इस तरह से थी कि अपने समय में प्रमोद महाजन भले ही किसी को भी बॉलीवुड स्टार या पॉलिटिक्स स्टार बनाने की हैसियत रखते हों। उनके बेटे राहुल महाजन को बिग बॉस अपने घर का मेहमान बनाने को तैयार नहीं हैं। बाद में राहुल के एक दोस्त के हवाले से ये खबर साफ हुई कि बड़ी मुश्किल से उन्हें बिग बॉस के घर में एंट्री मिली। पिता की दर्दनाक मौत के बाद गम भुलाने के लिए थोड़ा नशा पत्ती (हां, पांच सौ की पत्ती पर रखकर) ही तो किया था, पत्नी को इतना प्यार किया था तो, थोड़ा दो-चार हाथ नसे में जड़ दिए तो, जमाने ने बेचारे की पूरी इमेज ही बिगाड़ दी। अब इस सब पर सच्चाई जमाने को बताने के लिए और सब भुलाकर छवि साफ करने के लिए बिग बॉस के घर से बेहतर जगह कौन हो सकती थी। शिल्पा को राहुल cute लगता है।

एक और पापी (राम-राम बेचारी पाक साफ बच्ची के ऊपर किस-किस तरह के आरोप लगे)। देश के मोस्ट वॉन्टेड डॉन्स में से एक अबू सलेम से बेचारी ने प्रेम क्या किया। पूरे मीडिया समाज ने उसे और उसके मां-बाप को जिल्लत भरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर दिया (ये सब मोनिका बेबी ने रो-रोकर खुद बिग बॉस के घर में बताया)। दिल की साफ-सच्चा मोनिका बेबी ने तो परदे पर ही लगे हाथ छवि सुधारने में मदद के लिए बिग बॉस का शुक्रिया भी अदा कर दिया। छत न होने का हवाला (हवाले से कुछ पैसे तो मिले ही होंगे) देकर संजय निरुपम से एक घर की हामी भी भरवा ली।

संजय निरुपम को पानी पी-पीकर गाली देने वाली संभावना शेठ। संजय निरुपम के करीब-करीब बेशर्म कह देने से नाराज संभावना ने बिग बॉस के घर के हर कैमरे पर एंगल से कहा- मैं नंगी होकर तो नहीं घूमती। भोजपुरी फिल्मों की ये आइटम गर्ल हर दूसरे मिनट परदे पर ठक ठिका ठक ठिका ठक ठिका ठा... की धुन पर भौंडे तरीके से कूल्हे और बदन मटकाने लगती है। इच्छा ये कि ये ठक ठिका उसे भोजपुरी से उठाकर हिंदी फिल्मों की आइटम गर्ल बना दे।

और, संभावना जिसके कंधे पर सर रखकर रो पाती है वो, राजा। वैसे, संभावना ने राजा चौधरी के कंधे पर रोते-रोते वो बता दिया जो, पेज 3 पत्रकारों के लिए आगे बड़ी चटपटी ब्रेकिंग न्यूज होने वाली है। राहुल महाजन अपनी प्रेमिका पायल के साथ शो में है। लेकिन, वो डॉन की माशूका का हाथ थामने का कोई मौका छोड़ नहीं रहा है। अरे, राजा चौधरी को भूल गए आप लोग। जिसने अपनी पत्नी श्वेता तिवारी को जमकर पीटा था- फिर जब पूरी मीडिया इकट्ठा हो गया तो, उसने कहाकि उसने पब्लिसिटी के लिए ये सब नौटंकी की थी। अब जब राजा चौधरी मीडिया का इतनी आसानी से इस्तेमाल करने में माहिर हैं तो, फिर बिग बॉस के घर में वो क्या-क्या गुल खिलाएंगे देखते रहिए।

एहसा...............न कुरैशी हर शब्द को लंबा खींच-खींचकर लोगों को हंसाते-हंसाते थक गए थे और शायद खुद भी पक गए थे। उनका दर्द ये कि किराने की दुकान वाला भी उनको सामान देने से पहले कहता है हंसाके दिखाओ तब राशन दूंगा।

MTV ROADIES जीतकर सहारनपुर का देसी-भदेस छोरा आशुतोष भी चर्चित हो गया है। MTV ROADIES वही- कमीनेपन में अपने साथ के लोगों को पीछे छोड़ने वाला मुकाबला। अब वो, बिग बॉस जीतकर शहरी लोगों पर देहाती कमीनेपन को साबित करने की होड़ मे जुट गया है। वैसे, राहुल महाजन और आशुतोष को ही बिग बॉस के घर के कमीनेपन के मुकाबले का बादशाह माना जा रहा है।

केतकी माताजी टाइप इमेज से बाहर निकलना चाहती हैं तो, देबोजीत के पास फिलहाल कोई दूसरा रियलिटी शो नहीं है और न ही कोई म्यूजिक टूर। तो, सोचा चलो बिग बॉस के घर में ही तानपूरे पर रियाज करेंगे। अकेला गायक होने से कोई मुकाबला भी नहीं है। और, लोगों को कोई जानता ही नहीं। इसलिए वो, परदे पर दिख रहे हैं यही बहुत है।

Friday, August 22, 2008

अल्पायु में लगीं लोकतंत्र को बड़ी बीमारियां

अभी हाल में ही प्रतापजी दक्षिण अफ्रीका होकर लौटे। वहां से लौटने के बाद वहां के सामाजिक परिवेश और उसका भारत से शानदार तुलनात्मक विश्लेषण किया। उनके इन लेखों की सीरीज अमर उजाला में छपी। मैं उसे यहां भी पेश कर रहा हूं। दूसरी कड़ी

दक्षिण अफ्रीका का प्रमुख अंगरेजी दैनिक द स्टार सामने रखा है। तारीख है 27 जून 2008। सुबह की चाय के साथ इस दिन के अंक में प्रकाशित चार खबरों पर पर नजर अटक रही है। यह एक संयोग ही था कि एक दिन के अखबार के जरिए हम दक्षिण अफ्रीका के मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक हालात की नब्ज तक पहुंच गए। पहली खबर थी कि दक्षिण अफ्रीका में लोकतंत्र के पितामह नेल्सन मंडेला 90 वें जन्मदिन की खुशी में लंदन में बहुत बड़ा जलसा होगा। दूसरी खबर में वहां के नेशनल पुलिस कमिश्नर जेकाई सेलेबी को भ्रष्टाचार और अपराधियों से सांठ-गांठ के आरोप में अदालत में पेश होना है। मौजूदा राष्ट्रपति थांबो म्बेकी ने पुलिस कमिश्नर पर लगे आरोपों को गलत कहा है, यह तीसरी खबर है। आखिरी खबर दक्षिण अफ्रीका में मौजूदा हाल की मुश्किलों का सबसे खतरनाक चेहरा है। अफ्रीका नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष जेकब जूमा के समर्थन में कांग्रेस की यूथ लीग की ओर से जज को जान से मारने की दी गई धमकी की खबर है। जूमा पर बलात्कार और भ्रष्टाचार के मुकदमें चल रहे हैं। नेशनल यूथ लीग ने कहा है कि अगर अदालत जेकब के खिलाफ फैसला देती है तो यूथ लीग यह मानेगी कि अदालते भी विरोधी तत्वों से मिल गई है। ऐसे में जज के साथ कोई भी लीग समर्थक किसी भी तरह की वारदात को अंजाम दे सकता है। यहां तक की उनकी हत्या हो सकती है। जेकब अगले साल राष्ट्रपति होने वाले हैं।

दक्षिण अफ्रीका में लोकतंत्र की 14 बरस की आयु में जो बीमारियां लगनी शुरू हो गई हैं, वो आने वाले दिनों में बड़ी तबाही के निशान भी बना रही हैं। दक्षिण अफ्रीका के हालात पर शोक जताने पर केपटाउन में दुकान चलाने वाले डी. जेगर चार दिन पहले के इसी अखबार की एक खबर का जिक्र करते हैं। जिसमें नेशनल यूथ लीग ने कहा था कि अफ्रीका नेशनल कांग्रेस के सभी कार्यकर्ता जेकब जूमा के पक्ष में पूरे मन से लग जाएं, विरोध करने वालों को जान से मार दिया जाएगा।

नेल्सन मंडेला ने कैसा दक्षिण अफ्रीका बनाना चाहा और कैसा बन रहा है। मंडेला अपने जीते जी वो सब देख भी रहे हैं। यहीं से सवाल का एक सिरा हमारी पकड़ में आता है कि कैसे हमारे संघर्ष के व्यक्तित्व और उनके विचार लड़ाई खत्म होते ही अप्रासंगिक हो जाते हैं। सन 1947 में भारत को आजाद कराने के बाद कुछ लोगों को महात्मा गांधी देश के लिए गैरजरूरी से आगे बढक़र बाधक लगते हैं। गांधी का कत्ल के पीछे के गढ़े गए तर्क इसी सच के साक्ष्य हैं। दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के राजनैतिक उत्तराधिकारी उनकी इज्जत खूब करते हैं, बस जो वो कहते हैं वो नहीं करते। केपटाउन के कई बाजारों में एक विज्ञापन की होर्डिंज्स नजर आती है, ज्वैलरी के एक ब्रांड के विज्ञापन में कहा गया है कि अगर आप ये खरीदेंगे तो आपको नेल्सन मंडेला की तस्वीर का सिक्का फ्री मेंं दिया जाएगा। स्टेलिनबाथ की मार्केट हो या केप प्वाइंट के आसपास की सजी दुकानें, नेल्सन मंडेला की तस्वीर वाली टी-शर्ट सबसे अधिक डिमांड में रहती हैं। नेल्सन मंडेला बाहर से जाने वाले पर्यटकों के लिए और भाषण में नाम लेने के लिए काम आ रहे है। जैसे हमारे देश के महापुरूषों के लिए आदर सिर्फ तस्वीरों में शेष रह गया है।


दक्षिण अफ्रीका ने गुजरे 14 बरसों में भव्य बाजार भले बना लिए हों, सामाजिक स्तर पर तरक्की की कोशिश भर नजर आती है। कारोबार और खेतों पर गोरे लोगों का कब्जा है। काले लोग तेजी से शहरों में आ रहे हैं। गोरों की मंहगी जीवन शैली के कारण बाजार बहुत मंहगा हो गया है। छोटे बाजार जहां गोरे नहीं जाते, मगर मंहगाई तो पहुंच ही जाती है। देश के हर बड़े शहर के भीतर दस हजार से भी अधिक आबादी के स्लम आपको मिल जाएंगे। सब नए बसाए गए प्रतीत होते हैं। कई जगह सरकार ने स्कूल और अस्पताल भी साथ में बनवा दिए हैं। सरकारी कर्मचारियों के लिए कालोनियां न के बराबर हैं।

दक्षिण अफ्रीका के किसी भी शहर से आप गुजरें। एक भारतीय के तौर पर सबसे अजीब लगता है कि टीनशेड का घर और बगल में लंबी सी कार नजर आए। कार रखना वहां मजबूरी में शामिल है, क्योंकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट न के बराबर है। गोरे लोग अपने बच्चे को कुछ दें न दें कार तो देनी ही है। उनके बच्चे काले लोगों के साथ मैक्सी कैब में जा नहीं सकते। रेल यहां न के बराबर है। एक साल में सात बार बढ़ी पेट्रोल की कीमतें इन दिनों 10.40 रेंड प्रति लीटर हो गई हैं। भारतीय मुद्रा के हिसाब से करीब 62 रूपए 40 पैसे लीटर। आवागमन लोगों के बजट का बड़ा हिस्सा खा जाता है।

आम आदमी की मुश्किलों के बीच वहां लगातार बढ़ रहे शरणार्थी और अफ्रीकी देशों के भीतर बढ़ती आपसी वैमनस्यता जीवन और जटिल कर रही है। हम वेस्र्टन प्राविंश की एक फ्ली मार्केट में घूम रहे थे। तभी वहां नजर आए एक हिन्दुस्तानी साथी से हालचाल पूंछते हैं। वो दो दिन पहले मार्केट के पास की एक बस्ती में केन्याई लोगों के साथ काले लोगंो द्वारा सामूहिक मारपीट की घटना के बारे में बताता है। लगातार कई दिनों से जिम्बाबवे में चल रहे राजनैतिक गतिरोध और उससे दक्षिण अफ्रीका में होने वाली मुश्किलों से अखबार रंगे हुए हैं। टीवी न्यूज चैनल एसएबीसी अफ्रीका में आधे घंटे का एक कार्यक्रम दिखाया जाता है कि जिम्बाबवे की सीमा पर दो लाख लोग दक्षिण अफ्रीका में दाखिल होने के लिए अनुमति की अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। सनसिटी से जोहानेसबर्ग एयरपोर्ट जाते समय रास्ते में सफेद पंडाल नजर आते हैं। उन पंडालों पर यूनाइटेड नेशन्स के लोगो छपे होने के कारण उत्सुकता बढ़ती है। पता चलता है कि ये शरणार्थी शिविर हैं। दूसरे देशों से आए लोगों को उनके देश भेजना और यहां सुरक्षित रखने के लिए ये कैंप बनाए गए हैं।


दक्षिण अफ्रीका में दिक्कत यह है कि गोरों को लगता है कि उनके हिस्से से बहुत कुछ चला गया है। काले अभी जिस तरह कि सरकारे चल रही हैं, उसकी विकास गति से बहुत उत्साहित नहीं दिखते। एक नए सिरे से बनते देश की यह स्वाभाविक बेचैनी है। एक अफ्रीकी नौजवान सिएन जाइना जोहान्सबर्ग में मनी एक्सचेंज के एक काउंटर पर काम करते हैं। यह जताने पर कि हम भारत से आए हैं, वे एक बात कहते हैं। जिस तरह आपका देश कई बार कुछ देशों की पाबंदियों को झेलकर भी खड़ा रहा। हम भी वैसा दक्षिण अफ्रीका में पहुत दिन अमरीका और अमीर मुल्कों के अनुदान पर नहीं पलना चाहते। तमाम दिक्कतों के बीच आगे बढ़ रहे दक्षिण अफ्रीका का स्वाभिमानी चेहरा सिएन जाइना, सुनहरे भविष्य के लिए बहुत सारी उम्मीद जगाता है।

Thursday, August 21, 2008

साझा जीवन शैली के सौ सबूत हैं वहां

अभी हाल में ही प्रतापजी दक्षिण अफ्रीका होकर लौटे। वहां से लौटने के बाद वहां के सामाजिक परिवेश और उसमें भारतीयों के स्थान का शानदार विश्लेषण किया। उनके इन लेखों की सीरीज अमर उजाला में छपी। मैं उसे यहां भी पेश कर रहा हूं। पहली कड़ी

परिचय और अभिवादन के लिए हम दोनों ने लगभग एक साथ हाथ बढ़ाया। हथेली और उंगलियों के जोशीले स्पर्श के बाद मैने अपना हाथ को पीछे खींचना चाहा, पर उसने पकड़ ढ़ीली नहीं की। मेरे हाथ को पकड़े हुए अंगूठे से अंगूठे को क्रास किया और फिर अंगूठे से हाथ को दबाया। मैने भी उसे वैसे ही अभिवादन लौटाने की कोशिश की। यह सब एक मिनट के भीतर घटित हुआ। मुझे समझ आ गया कि यह दक्षिण अफ्रीका में स्वागत का पारंपरिक तरीका है, जो मेरे हाथ खींच लेने से अधूरा रह जाता। उसने मेरा चेहरा पढ़ लिया था कि मेरे लिए इस अभिवादन से पहला साक्षात है। उसका नाम था एविल, म्युनिशिपल कारपोरेशन में मार्केटिंग मैनेजर। दक्षिण अफ्रीका के सबसे अभिजात्य कहे जाने वाले शहर केपटाउन के एयरपोर्ट पर हमें रिसीव करने आया था।

चेहरे पर तैरती मुस्कुराहट के बीच अभिवादन की व्याख्या से उसने अपनी बात शुरू की। बोला, हाथ मिलाने का मतलब है-आप पूरे परिवार सहित कैसे है? उंगलियों को कसकर पकडऩे और अंगूठे को क्रास करने का आशय है कि पशु-पक्षी, पेड़ और फसलें कैसी हैं? हथेली के पास अंगूठे से स्पर्श से पूछा जाता है कि पड़ोसी और रिश्तेदार कैसे हैं? दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर पांव धरे कुछ मिनट गुजरे थे लेकिन अभिवादन के तरीके और परंपरा ने भीतर से मुझे बांध लिया। मुझे लगा कि मैं अपने देश के किसी गांव में आ पहुंचा हूं, जहां प्रणाम के साथ कोई पूछ रहा है कि पशु-परानी(प्राणी) कैसे हैं। समूह के हित के साथ जीने की सामाजिक व्यवस्था, प्रकृति के साथ पशु तक की चिन्ता करने वाली यह जीवन शैली तो हमारी अपनी है।

उसी क्षण यह महसूस हुआ कि इसी साझेपन के अहसास से महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका के काले लोगों को अपना स्वाभाविक मित्र समझने की दृष्टि दी होगी। गांधी के दर्शन और उदाहरण से उपजी धारा को अपने भीतर समाहित किए नेल्सन मंडेला 27 बरस जेल में गुजारते हैं। सन 1994 में जब अपने देश में लोकतंत्र की बहाली कराने में मंडेला कामयाब होते हैं तो उत्पीडऩ के आरोपी गोरों को माफ कर देते हैं।
दोनों देशों के भीतर विचार और जीवन दृष्टि को पंडित जवाहर लाल नेहरू समझते हैं और एफ्रो-एशियाई फ्रेंडशिप की बुनियाद रखते हैं। हम दोनों देशों ने अंगरेजों की गुलामी साथ-साथ झेली। अपनी आजादी के लिए हजारों-लाखों का बलिदान दिया। अब अपने दम पर खड़े होने की कोशिश कर रहें हैं। हमारे पास आजादी के बाद के 60 सालों का लंबा सफर और अनुभव है तो दक्षिण अफ्रीका के पास 14 बरस का उत्साह। दोनों में इन दिनों संगत भी ठीक बैठ रही है।

दक्षिण अफ्रीका की गलियों में भारतीय के तौर पर घूमना किसी को परदेशी का होना नहीं लगता। ब्लैक, व्हाइट, कलर्ड और इंडियन। यह देश खुद को इन्हीं चार पहचान के साथ देखता है। जोहांसबर्ग हो कि केपटाउन, किसी बाजार में आप घूमें तो हर दस दुकान के भीतर एक या दो भारतीय मिल जाएगा, जिससे आराम से आप हिंदी में बतिया सकते हैं। इनमें वे भी हैं जो चार पीढिय़ों से वहां के हो गए हैं। कुछ वे हैं जो पिछले एक दशक में दक्षिण अफ्रीका रोजगार की तलाश में गए। आपका मजा तब दोगुना हो जाएगा जब आप स्टेलिबाथ मार्केट के इस दृश्य को अक्सर दोहराए जाते पाएंगे। भारतीय नजर आने वाले एक चेहरे को मोबाइल की दुकान पर बैठे देखते ही मैने उससे कुछ जानना चाहा। दो-चार बातों के बाद वो मुस्कुराकर बोला। उूर्द या हिन्दी बोलिए ना। मैं हंस पड़ा। दोनों बरसों के बिछड़े भाई की तरह मिले।

पाकिस्तान के लाहौर शहर का अब्बासी पांच मिनट के भीतर वहां के बाजारों की इतनी जानकारियां दे देता है कि कोई कई दिन बिताए तब भी न पता चले। वह दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ होने वाले हादसों की परिस्थितियां भी बयान करता है। अब्बासी के बयान दूसरे भारतीयों की बातों से मेल खाते हैं। वहां रहने वाले भारतीयों की स्थिति के बारे में तस्वीर थोड़ी साफ होने लगती है।

गुलामी के दिनों में आजादी के लिए लड़ते हुए इंडियन और ब्लैक ज्यादा करीब रहे। कारण था कि गोरे दोनों को बराबर का अस्पृश्य-असभ्य और दास होने लायक मानते थे। जोहांसबर्ग में एक सडक़ पर लिखा गया कि ब्लैक और इंडियन नजर आएंगे तो उन्हें गोली मार दी जाएगी। आजादी के बाद निश्चित तौर पर ब्लैक लोगों में अधिकार का बोध जागा है। देश नए सिरे से बनना शुरू हुआ है। काले लोग आपको सीना तानकर खड़े मिलेंगे। उनके पास इत्मीनान है कि पुलिस और सरकार उनको ही अपराधी की तरह नहीं देखेगी। वेस्टर्न केपटाउन में एक पेइंग गेस्ट हाउस चलाने वाली श्वेत वर्णी महिला एंड्रीला इसे पुलिस का काले लोगों के पक्ष में खड़े होना बताती हैं। हालांकि दक्षिण अफ्रीका में गोरे वहां की सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा बन चुके हैं। इसलिए नए दक्षिण अफ्रीका को बनाने की उनकी भी जिम्मेदारी है। लेकिन, गोरे और संभ्रातजनों का समाज भारत से अभी यह नहीं सीख पाया है कि सामाजिक बदलाव के जो राजनैतिक निहितार्थ निकलते है, उसको भी सहज रूप से स्वीकारना होगा।

भारत में आजादी के बाद उच्च वर्णों के बीच बंटी रही सत्ता में जिस तरह मध्य जातियों और दलित राजनीति का जो उभार है, उसे सबने पूरे मन से स्वीकार लिया है। यही वजह है कि यहां एक सामाजिक संतुलन बदले स्वरूप में खड़ा मिलता है, वहां अलगाव की खाई घट नहीं पा रही है। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों ने तो पूरी तरह नई व्यवस्था के साथ चलने की राह पा ली है। लेकिन शासक रहे गोरे काले लोगों के साथ काम तो करते हैं मगर एक कमरे में लंच करने से परहेज करते हैं। दोनों का एक दूसरे के यहां आना-जाना तो बहुत दूर की बात है।

काले लोगों के सत्ता में आने से खुद को एक हद तक असुरक्षित महसूस करने वाले गोरे वहां के भारतीयों से तारतम्य बिठाने की कोशिश में हैं। लेकिन सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ बदला हुआ नजर नहीं आता। वजह जो समझ आती है कि वे काले और भारतीयों के बीच किसी तरह परस्परता के बोध से अभी तक नहीं जुड़ पाए हैं। उनकी नस्लीय श्रेष्ठता का भाव पहले से पीढिय़ों को हस्तांरित होता आया है। हमने खुद इसे तब महसूस किया जब माबूला जंगल की सैर के दौरान रेंजर जेक्सन ने जंगल तो घुमाया लेकिन काफी ब्रेक का हिस्सा गोल कर दिया। शाम को हम उसके एक ब्लैक साथी से यूं ही पूछते हैं कि उसने ऐसा क्यों किया। उसने बताया कि काफी ब्रेक में उसे काफी और स्नैक्स सर्व करने पड़ते। इंडियन या ब्लैक पर्यटक हो तो गोरे रेंजर ऐसा ही करते हैं।

Saturday, August 16, 2008

दलित एक्ट में मायावती अंदर क्यों नहीं हुईं

9 अगस्त को मायावती ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी का एलान कर दिया। वो, भी रैली में। एलान भी कैसा कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है। लेकिन, उसका नाम लोगों को तभी पता चलेगा जब वो, गंभीर रूप से बीमार हों या फिर उनकी अकस्मात मृत्यु हो जाए या फिर कुछ ऐसी ही बड़ी आपदा हो।

मायावती ने इस एलान के वक्त लखनऊ रैली में जोर देकर कहाकि उनका उत्तराधिकारी दूसरी पार्टियों की तरह उनके परिवार से नहीं बल्कि, एक खेत-खलिहान में काम करने वाली मां का बेटा होगा। अपने वोटबैंक को और पक्का करने के लिए मायावती ने भरी रैली में और आगे जाकर कहा- मेरा उत्तराधिकारी दलितों में भी खास चमार जाति का होगा। अब सवाल ये है कि क्या मायावती को सार्वजनिक मंच से ऐसे जातिसूचक शब्द के इस्तेमाल की इजाजत इसलिए मिल जाती है कि वो भी उसी जाति की हैं।

दलितों को अपमान के बोध तभी होगा जब कोई उनसे ऊंची जाति का ही उन्हें जातिसूचक शब्दों से बुलाए। महेंद्र सिंह टिकैत इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करें तो, दलित एक्ट में फंसें और मायावती इस्तेमाल करें तो, कुछ चर्चा तक नहीं। कानून का यही इस्तेमाल, कानून के गलत इस्तेमाल के रास्ते तैयार कर देता है। यानी हम जिस जाति के हैं राजनीतिक फायदे के लिए अपने हिसाब से जाति का गंदा या अच्छा इस्तेमाल कर सकते हैं।

Thursday, August 14, 2008

वंदेमातरम- सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा

आजादी के कुछ रंग




आज कश्मीर को आजाद कर देना चाहिए

हिंदुस्तान मुर्दाबाद, मुजफ्फराबाद (पाक अधिकृत कश्मीर) चलो। भारत की सरकार हमारे लोगों पर जुल्म ढा रही है। भारतीय सेना के लोग हमें मार रहे हैं। प्रताड़ित कर रहे हैं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं। कश्मीर में पिछले कुछ समय से कुछ इसी तरह की भारत विरोधी भावनाएं फिर से उफान पर हैं। क्या सचमुच कश्मीर (जम्मू-लद्दाख छोड़कर) के लोगों के साथ भारत सरकार और भारतीय सेना इसी तरह का व्यवहार कर रही हैं। क्या सचमुच भारत ने जबरदस्ती कश्मीर पर कब्जा कर रखा है। कश्मीर का एक चक्कर लगाकर आइए तो, आपको ये बात और मजबूती से समझ में आएगी।

फिर, दुनिया में गुटनिरपेक्ष, शांति के प्रतीक और मानवता के सबसे बड़े पक्षधर देश भारत को ये क्यों नहीं समझ में आ रहा कि कब्जा, भारत और भारतीयों के मूल स्वभाव में नहीं है। इसलिए वो, ये काम तो मजबूती से कर ही नहीं सकते। हमारे देश में चीन की तरह तानाशाह शासन तो है नहीं कि जो, फैसला हमने लिया उस पर अमल कर सकें। हमारे पास इतनी भी सैन्य ताकत नहीं है कि हम हर दिन भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने वाले पाकिस्तानी सैनिकों और उनकी शह से भारत में आतंक मचाने वालों का बाल भी बांका कर सके। चीन और पाकिस्तान अवैध कब्जा भारत की जमीन पर किए हैं उसे हम छुड़ा नहीं पा रहे हैं फिर, हम क्यों कश्मीर को कब्जे में रखे हुए हैं। बेवजह देश की सेना की वहां आहुति दे रहे हैं, देश के लोगों की मेहनत की कमाई घाटी में झोंक रहे हैं। विदेश में पढ़कर लौटे और भारत के लोकतंत्र की वजह से ही सत्ता की मलाई काट रहे अब्दुल्ला और मुफ्ती के बेटे-बेटी भी कह रहे हैं कि भारत की सरकार कश्मीरियों पर जुल्म ढा रही है।

हुर्रियत और दूसरे अलगाववादी तो पहले से ही ये बात गला फाड़कर कह रहे हैं कि कश्मीर, ऐसी समस्या है जिसका हल निकालने के लिए भारत को कश्मीरियों के साथ पाकिस्तान या किसी तीसरे पक्ष को भी बिठाना होगा। श्रीनगर की रैलियों में पाकिस्तान के झंडे लहराए जाते हैं। पाकिस्तान जिंदाबाद और हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगते हैं। मैं जब शादी के बाद कश्मीर घूमने गया था तो, घाटी में बहुत बढ़िया माहौल था फिर भी, मैं जिस बोट में रुका था उसके, मालिक ने कहाकि- हिमाचल प्रदेश के सेब कारोबारी, कश्मीर का सेब न बिके इसके लिए सेना और सरकार के साथ मिलकर कश्मीर में आतंकवादी गतिविधि चला रहे हैं। बेहद वाहयात तर्क हैं लेकिन, आप-हम कुछ नहीं कर सकते। उनको भारतीय सेना पर, भारत सरकार पर भरोसा ही नहीं है। सेना के सामने कश्मीर के लोग ठीक वैसे ही नारे लगाते हैं जैसे- शायद आजादी के आंदोलन के समय कश्मीर से लेकर कन्याकुमार तक के भारतीय अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाते थे।

कश्मीर से वो पाकिस्तान जाने की तैयारी करते हैं तो, उनकी करते वक्त जो मरा वो, एक आतंकवादी था। और, द इकोनॉमिक टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ पर Pushing Kashmir toward Pakistan में स्वामीनाथन अय्यर कह रहे हैं कि जम्मू के आंदोलन की वजह से कश्मीर, पाकिस्तान के नजदीक जा रहा है। स्वामीनाथन साहब खुद ही अपने लेख की शुरुआत में, पुराने वाकये में एक कश्मीरी अधिकारी के हवाले से कहते हैं कि, पाकिस्तान के साथ उनका व्यापार ज्यादा स्वाभाविक है। अब स्वामीनाथन साहब कहीं भी ये नहीं बताते कि जब 60 साल से कश्मीरियों की सारी गलत (अलगाववादी पढ़ें) हरकतों के बाद भी जम्मू में कभी एक भी मुसलमान के सिर की पगड़ी नहीं उछली तो, भी क्या कश्मीर के अलगाववादी कश्मीर को पाकिस्तान के पास नहीं ले जा रहे थे।

कश्मीर के सेब व्यापारी करीब पंद्रह दिनों से सेब से भरा ट्रक लिए खड़े जम्मू-श्रीनगर नेशनल हाईवे पर खड़े रहे गए तो, वो पाकिस्तान में सेब बेचने चल पड़े। लेकिन, शायद ही कोई एक वाकया सुनने मिला हो कि देश के किसी भी हिस्से में किसी कश्मीरी मुसलमान ने एक पल भी दहशत में गुजारा हो। लेकिन, जब श्रीनगर, पहलगाम और गुलमर्ग के आसपास अलगाववादियों ने तांडव मचा रखा तो, मेरे परिवार जैसे जाने कितने धरती के स्वर्ग पर डरे सहमे थे कि- अब घर सही-सलामत लौट पाएंगे या नहीं।

दरअसल सच्चाई ये नहीं है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने या उसे वापस लेने से ये सारा हंगामा घाटी में चल रहा है। सच्चाई वो है जो, मशहूर कश्मीरी गायक गुलाम मोहम्मद बताते हैं गुलाम मोहम्मद जम्मू में रहते हैं वो, कहते हैं कि, ये लड़ाई हिंदू-मुसलमान की है ही नहीं। ये लड़ाई है जम्मू के अधिकारों की। उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि चाहे अंग्रेजी में J&K कहो चाहे देसी जुबान में जम्मू-कश्मीर, आता जम्मू ही पहले है। लेकिन, विडंबना देखिए कि जम्मू के लोग भारत माता की जय बोलते हैं, 60 सालों में कभी देश के लोगों को डराकर नहीं रखा। कभी कोई धार्मिक आधार पर हिंसी नहीं की। फिर भी भारत सरकार से तवज्जो नहीं पाते।

जबकि, कश्मीर के लोग लगातार भारत पर कब्जे का आरोप लगाते रहते हैं। हिंदुस्तान के खिलाफ नारे लगाते हैं, पाकिस्तान के झंडे लहराते हैं, हिंदुस्तानी झंडे को आग लगाते हैं। अभी कल के अखबारों में भी श्रीनगर से मुजफ्फराबाद जाने वालों के हाथ में भारत को बंटवाकर पाकिस्तान बनवाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना के फोटो थे। आज 14 अगस्त है। आज ही के दिन 1947 में पाकिस्तान आजाद हुआ था यानी भारत से बंटा था। अब मुझे तो आज के हालात देखने के बाद लगता है कि कश्मीर को आजाद कर देना ही भारत के लिए सबसे बेहतर होगा।

कश्मीरियों की भाषा में भारत सरकार कश्मीर पर जबरी कब्जा जमाए हुए है। और, उसका खामियाजा पूरे देश के लोग तो भुगत ही रहे हैं। सबसे ज्यादा जम्मू-लद्दाख के वो, लोग भुगत रहे हैं जो, अलगाव की धमकी भरी भाषा नहीं बोलते। जहां, सचमुच धरती पर स्वर्ग जैसा माहौल रहता है। लेकिन, हमारी सरकार तो, धमकी ही भाषा सुनती है। और, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को भी पाकिस्तान के थोड़ा और नजदीक जाकर ही भारतीय लोकतंत्र की अहमियत समझ में आएगी।

Wednesday, August 13, 2008

मैं पैर छूने के खिलाफ नहीं हूं

मैंने अपनी पिछली दो पोस्टों में बेटियों का पैर छूने की परंपरा के गलत असर का उदाहरण देकर इसकी खिलाफत की थी। जिसके बाद इसके समर्थन में ज्यादातर लोग आए। लेकिन, कुछ लोगों ने इससे ये मतलब भी निकाल लिया कि मैं एकदम से ही पैर छूने के खिलाफ हूं।

मैं एकदम साफ कर दूं कि मुझे नहीं लगता कि अपने से बड़े को सम्मान देने के लिए उसका पैर छूने में कोई बुराई है। चाहे वो फिर मां-बाप हों, दूसरे रिश्तेदार या फिर कोई भी भले ही वो, ऐसे किसी रिश्ते में न आते हों जो, स्वाभाविक-सामाजिक तौर पर पैर छूने की जगह पाते हैं। और, मुझे संजय शर्माजी की एक बात तो एकदम सही लगती है कि आखिर छोटे-बड़े का कोई पैमाना तो होगा ही। और, ऐसे में छोटे, बड़े का पैर छुए, इसमें गलत क्या है। हां, कोई छोटा भी अगर ये समझता है कि किसी बड़े के लिए उसके मन में सम्मान नहीं है तो, फिर उसे अपने बड़े का भी पैर नहीं छूना चाहिए। भले ही उस पर दबाव पड़े।

और, टिप्पणियों में ही ये भी आया था कि अगर, बेटी का पैर छूना गलत है तो, कन्यादान भी। निश्चित तौर पर कन्यादान भी गलत है। पहले के जमाने की परिस्थितियों के लिहाज से बेहतर था कि बेटी जो, पति के घर जाने के बाद दरवाजे से भी बाहर नहीं निकलती थी। और, उसके पिता के घर से कभी-कभी ही उसकी हाल-खबर ली जाती थी। उस समय बेटी को सुरक्षा के लिहाज से शायद उसके पति के परिवार को ज्यादा सम्मान दिए जाने की परंपरा रही होगी। वो, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा दोनों ही रही होगी। लेकिन, आज के संदर्भ में तो ये बिल्कुल ही फिट नहीं बैठती। लेकिन, अब ये भी ठीक नहीं होगा कि इसे आधार बनाकर रिश्तों को सम्मान देना भी बंद कर दिया जाए।

Tuesday, August 12, 2008

बेटियों का पैर छूना बंद कर दें तो, बेटियों का बड़ा भला हो जाए

हमारे यहां बेटी-दामाद का पैर छुआ जाता है। और, उसके मुझे दुष्परिणाम ज्यादा दिख रहे थे। मुझे लगा था कि मैं बेहद परंपरागत ब्राह्मण परिवार से हूं इसलिए ये परंपरा हमारे ही यहां होगी। लेकिन, जब मैंने ये जानना चाहा कि, कितने लोगों के यहां बेटियों का पैर छुआ जाता है तो, इसका काउंटर मेरी सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पोस्ट में शुमार था। और, इस पर अब तक 13 टिप्पणियां भी आईं हैं। अब समीरजी और ज्ञानजी की तरह मेरा वृहद नेटवर्क तो है नहीं इसलिए इतनी टिप्पणियां भी मुझे ये बताती हैं कि इस पोस्ट से कितने लोगों का सरोकार है।

टिप्पणियों से मुझे अंदाजा लगा कि ये कुरीति (अगर ये रीति में है तो, जिसके पास इसके पक्ष में तर्क हों वो बताएं) देश के ज्यादातर हिस्से में फैली हुई है। कोई भी टिप्पणी तो, कम से कम इसके पक्ष में नहीं ही है। अब मुझे ये लगता है कि बेटी-दामाद का आजीवन पैर छूना या सिर्फ शादी के समय ही पैर छूना भयानक विसंगति है और इसके साथ जुड़े-जुड़े उससे भी खतरनाक विकृतियां पैदा हो रही हैं।

अब मुझे तो ये लगता है कि बेटी-दामाद का पैर छूकर पहले ही बेटी को कमतर साबित कर दिया जाता है। अब ये कौन सा पैमाना हो सकता है कि जिस लड़की को मां-बाप ने जन्म दिया हो पाला-पोसा हो उसी लड़की को मां-बाप के पांव छूने का हक न हो। और, हद तो ये कि खुद मां-बाप बेटी का पैर छूते हैं। मेरे यहां तो शादी की रस्म के समय ही नहीं आगे भी परंपरा को निभाया जाता है। शादी के समय तो, उस उत्साह में पांव-पूजने की रस्म मुझे बहुत बुरी नहीं लगी और मेरा थोड़ा ये भी मानना है कि एकदम से कोई क्रांति नहीं होती। समाज, समय परिस्थिति के लिहाज से धीरे-धीरे बदलाव बेहतर होते हैं। और, मैंने अपने सास-ससुर को शादी के बाद बेहद कड़े प्रतिरोध के साथ पैर छूना बंद करवा दिया। क्योंकि, ये बेहद अजीब स्थिति होती है कि मां-बाप के जैसे लोग आपके पैर छू रहे हों।

बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। ये विसंगति हमारे यहां कितनी आगे तक बढ़ती है- इसका उदाहरण देखिए। मेरे माताजी-पिताजी मेरी ननिहाल के पूज्य हुए। इस वजह से मेरे नाना-नानी का पूरा गांव ही पिताजी-माताजी के साथ मेरे भी पैर छूता है। क्यों, वजह वही शादी के समय लड़की लक्ष्मी तो, लड़की से शादी करने वाला लड़का लक्ष्मीनारायण हो जाता है। और, फिर लक्ष्मीनारायण के लड़के-लड़कियां भी पूज्य हो गए। यानी सिर्फ पति ही नहीं लड़की के परिवार के लोग लड़की के लड़के-लड़कियों के भी पैर छूते हैं। मेरे मामा-मामी मेरा पैर छूते हैं और, मामी को पैर छूने से रोको तो, वो नाराज हो जाती हैं आप हमारे ब्राह्मण हैं, हमें पाप लगेगा।

लड़के अपने से छोटी बहनों का पैर छूते हैं। फिर वो चाहे कुंवारी कन्याएं हों या फिर शादी के बाद पति के साथ घर आएं। पिछले रक्षाबंधन पर मामा की लड़की ने मेरे राखी बांधी तो, उम्र में छोटी होने की वजह से मैंने उसके पैर नहीं छुए। उसके हाथ में तोहफे के तौर पर कुछ रुपए दिए। मेरे पिताजी को राखी बांधने आईं मेरी बुआजी नाराज होकर बोलीं- रमेंद्र बिना गोड़ धरे (पैर छुए) दक्षिणा न देए क चाही। मैंने पैर नहीं छुआ लेकिन, थोड़ी देर के लिए माहौल अटपटा जरूर हो गया।

अब इस चीज को मैं थोड़ा आसानी से समझ पाया हूं कि मेरे यहां क्यों ये कहा जाता है कि लड़की थोड़ा नीचे के ब्राह्मण परिवार से भी होगी तो, ठीक है। लेकिन, लड़की की शादी उच्चकुल के ही ब्राह्मण परिवार में करेंगे। उसके पीछे वजह यही होती है कि लड़की की शादी जिस परिवार में करेंगे। वहां सभी का पैर छूना होता है। अब जैसे हम लोगों प्रतापगढ़ के सोहगौरा त्रिपाठी हैं। तो, अब हमारे परिवार की लड़कियों की शादियां तीन घर के शुक्ला परिवार के अलावा और कहीं नहीं हो सकती। इसका नुकसान ये कि लड़का और उसका परिवार भले ही आर्थिक-सामाजिक हैसियत में कमतर हो लेकिन, अगर वो ब्राह्मण कुल के ऊंचे पायदान पर है तो, उससे शादी करने में कोई हर्ज नहीं।

इसकी वजह से ब्राह्मणों में भी जो, तीन घर के लड़के हुए और अगर थोड़े लायक हो गए तो, उनके लिए थोड़ी बेहतर स्थिति वाले कुलीन परिवारों की लाइन लग जाती है। और, फिर उसी कतार के लिहाज से लड़के को दिया जाने वाला दहेज भी बढ़ जाता है। मेरी पहली पोस्ट पर जो टिप्पणियां आईं वो, ज्यादातर लोग मेरी तरह ये महसूस करते हैं कि ये गलत परंपरा है लेकिन, मेरी ही तरह ज्यादातर लोग सामाजिक रीतियों के खिलाफ एकदम से नहीं जाना चाहते। लेकिन, मैंने तो तय कर लिया है कि अपने से छोटे किसी का भी पैर नहीं छुऊँगा और नही किसी बड़े से पैर छुआऊंगा।

मुझे ये लगता है कि, अगर हम लोग ये तय करें तो, इस बुराई को खत्म किया जा सकता है। और, लड़कियों को देवी मानकर उन्हें सामान्य मनुष्य से भी गई गुजरी हालत में जाने से बचा सकते हैं। जैसे लड़का, वैसे ही लड़की। मैंने अपने आसपास के अनुभव से इसकी विसंगतियां बताईं है अगर आप लोगों को इसकी दूसरी बुराइयां (अच्छाइयां तो हो नहीं सकती फिर भी हो तो, मुझे भी बताएं) भी दिखती हैं तो, उसे आगे जरूर बढ़ाइए।

Sunday, August 10, 2008

क्या आपके यहां बेटी का पैर छुआ जाता है

आप लोगों में से कितने लोगों के यहां बेटियों का पैर छुआ जाता है। यानी, मां-बाप अपनी बेटी से पैर छुआते नहीं हैं। बल्कि, खुद उनका पैर छूते हैं। सामान्य तौर पर हो सकता है कि मां-बाप बेटी के पैर न छूते हों। लेकिन, याद करके बताइए शादी के समय जब पिता लड़की का कन्यादान करता है तो, क्या उसके बाद पिता, बेटी और दामाद का पांव पूजता है।

और, कितने लोगों के यहां ये और आगे जाता है। यानी शादी के बाद भी लड़की-दामाद का पैर छूते हैं। आप सभी लोगों से मैं जानना चाहता हूं कि आपके ये रस्म किस तरह से है। शादी की सबसे जरूरी रस्म कन्यादान के बाद पांव पूजने की रस्म होती है या नहीं। बताइएगा जरूर। क्योंकि, उसके बाद मैं अपनी अगली पोस्ट में इस पर और विस्तार से चर्चा करने वाला हूं।

Saturday, August 09, 2008

लीजिए मायावती का राजनीतिक उत्तराधिकारी


मायावती ने आज ये कहकर सबको चौंका दिया कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है। मायावती ने ये भी कहाकि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी दूसरी पार्टियों की तरह उनके परिवार से नहीं होगा। ये एक तरह से सीधी चोट कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर है।

मायावती ने ये एलान लखनऊ बसपा की रैली में किया। मायावती ने दहाड़कर कहाकि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी एक सामान्य दलित परिवार के घर से होगा। और, उसमें भी वो चमार जाति से है। उसे वो पिछले कुछ सालों से तैयार कर रही हैं लेकिन, उसका नाम उनके मरने या गंभीर रूप से बीमार होने की स्थिति में ही सबको पता चलेगा। साथ ही उन्होंने ये भी कहाकि उसका नाम उनके अलावा सिर्फ दो लोगों को पता है।

अब मायावती से 18 साल छोटा उनका ये राजनीतिक उत्तराधिकारी सचमुच कहीं है या फिर वो सिर्फ शगूफा छोड़ रही हैं। क्योंकि, वो अभी नाम किसी को नहीं बताने जा रहीं। लेकिन, इतना तो तय है कि बसपा के आंख बंदकर हाथी पर ठप्पा मारने वाले कार्यकर्ताओं को इतना संबल तो बहनजी ने दे ही दिया है कि बहनजी पर कोई विपदा आई भी तो, दलित समाज का एक नया भाईजी उनकी अगुवाई के लिए तैयार है।

वैसे सबको भले ही ये लग रहा हो कि मायावती अपनी मृत्यु के बाद या गंभीर बीमारी की ही स्थिति में अपने उत्तराधिकारी का नाम बताएंगी। मुझे लगता है कि दिल्ली की गद्दी पर टकटकी लगाए बैठी मायावती खुद के प्रधानमंत्री की दावेदारी पक्की करके किसी को यूपी की गद्दी सौंपने का इंतजाम कर रही हैं।

Sunday, August 03, 2008

घूरा बनने में कितना दिन लगता है

यूपी-बिहार में ये आम कहावत है कि घूरे का दिन भी आता है। घूरा मतलब शहरी लोग कम समझते होंगे। वही घूरा जहां, गांव-घर में बाहर गोबर-गंदगी डाली जाती है। ये काफी-कुछ उस जुमले का और देसी संस्करण है जो, बातचीत में आता है कि हर कुत्ते का दिन आता है। अंग्रेजी में EVERY DOG HAS ITS DAY तो, सबको पता ही होगा।


लेकिन, आजतक मुझे ये जुमला-कहावत कभी उलट के नहीं सुनाई दिया कि आखिर कोई भी जगह, व्यक्ति या संस्थान कितने दिन में घूरा बन जाता है। और, ये सवाल मेरे मन में उठा अचानक कई सालों बाद नेमिचंद्र जैन उर्फ तांत्रिक चंद्रास्वामी की प्रतिष्ठा देखकर। शनिवार को मुंबई के ज्यादातर अखबारों में बांद्रा के रंग बिरंगे स्काईवॉक पर तांत्रिक चंद्रास्वामी अपनी पुरानी वेशभूषा में-माथे पर बड़ा सा गोल, कई रंगों वाला टीका लगाए बैठे थे। और, चंद्रास्वामी के सामने पूरी आस्था से झुका स्काईवॉक बनाने वाला कॉन्ट्रैक्टर दंपति बैठा था। पता नहीं किसी टीवी चैनल ने इसे कवर किया था या नहीं। क्योंकि, मैं दो दिनों से न्यूज चैनल देख नहीं पाया हूं।

चंद्रास्वामी स्काईवॉक से निगेटिव एनर्जी को दूर भगाने आए थे। चंद्रास्वामी का दावा है कि स्काईवॉक के आसपास ढेर सारी निगेटिव एनर्जी है जिससे पुल को और इस पर चलने वालों को नुकसान हो सकता है। लेकिन, चंद्रास्वामी की पूजा के बाद ये निगेटिव एनर्जी दूर हो जाएगी। अब टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार के साथ मुफ्त बंटने वाले टेबलॉयड मुंबई मिरर के संवाददाता की बुद्धि भी देखिए। वो, भी चंद्रास्वामी की निगेटिव एनर्जी की बात से जोड़कर ये भी बता रहा है कि लोगों को शुरू में स्काईवॉक कांपता दिखा। ऐसा करके वो, एक तरह से चंद्रास्वामी में कुछ लोगों की आस्था जगाने का काम तो कर ही दिया होगा।

ये वही चंद्रास्वामी हैं जो, करीब तीन दशकों तक देश के बड़े-बड़े लोगों को निगेटिव एनर्जी से दूर रखते थे। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और नरसिम्हाराव के समय में तो, प्रधानमंत्री कार्यालय और घर से लेकर देश भर तक की निगेटिव ऊर्जा चंद्रास्वामी के ही प्रताप से दूर होती थी। लेकिन, सबकी निगेटिव ऊर्जा भगाते-भगाते स्वामी जी के ऊपर ही निगेटिव एनर्जी हावी हो गई और, चंद्रास्वामी और निजी सचिव मामाजी जेल तक पहुंच गए। लखूभाई पाठक ने एक लाख डॉलर की धोखाधड़ी का आरोप भी लगा डाला। निगेटिव एनर्जी भगाने के लिए चंद्रास्वामी के यहां भीख में समय मांगने वाले अचानक गायब से हो गए।

फिर काफी दिन बाद चंद्रास्वामी को जमानत मिल गई है। चंद्रास्वामी फिर पीछे के दरवाजे से सक्रिय हो गए हैं। मुंबई के पहले स्काईवॉक से निगेटिव एनर्जी भगाने आए। अब पता नहीं कितनी जगह की निगेटिव एनर्जी भगाएंगे। मुझे चंद्रास्वामी के किस्से इलाहाबाद में खूब सुनने को मिलते थे। इलाहाबाद के ECC डिग्री कॉलेज का पूर्व अध्यक्ष विक्रम सिंह चंद्रास्वामी के बेहद नजदीक था। और, हाल ये था के ज्यादातर छात्रनेता अकसर कॉफी हाउस या फिर विश्वविद्यालय कैंपस में ही चंद्रास्वामी के गुणगान करते मिल जाते थे। वजह ये थी कि जिस छात्रनेता ने भी निगेटिव एनर्जी भगाने के लिए चंद्रास्वामी का चरण चांपन एक बार दिल्ली जाकर कर लिया। उसे कुछ आर्थिक सहायता देकर स्वामी उसकी कुछ निगेटिव एनर्जी तो दूर कर ही दिया करते थे। एक बार विक्रम सिंह इलाहाबाद आया तो, सैकड़ो गाड़ियों के काफिले में शहर का चक्कर लगाया तो, उसके राजनीतिक जमीन तैयारी करने की कोशिश के भी कयास लगे।

उसके बाद चंद्रास्वामी के दिन खराब हुए तो, विक्रम सिंह का न तो, अता-पता रह गया। न चंद्रास्वामी के दिल्ली आश्रम से जुड़े किस्सों का। अब चंद्रास्वामी जैसे घूरे का दिन तो फिर बहुर रहा है। हो सकता है कि इस बार इलाहाबाद जाऊं तो, फिर से चंद्रास्वामी के कुछ किस्से सुनने को मिल जाएं। अब घूर के दिन बहुरने का तो सबको पता है। लेकिन, अगर आपमें से किसी को पता हो तो, मुझे ये जरूर बताइएगा कि घूरा बनता कितने दिन-महीने-साल में है।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...