हम ये समझ नहीं पा रहे हैं कि हम कैसा देश बनें। लेकिन, हमारे देश की अभी क्या हैसियत है। इस कड़वी सच्चाई का अक्सर दूसरे-चौथे रोज सामना करना पड़ जाता है। अखबार के पन्ने पर बॉक्सर विजेंदर कुमार और पहलवान सुशील कुमार के साथ सोनिया गांधी की मुस्कुराती तस्वीर के ठीक नीचे से असलियत कुछ वैसे ही झांक रही थी जैसे, परदा कहानी में परदा गिरते ही सारी लाट साहबी की सच्चाई पठान के सामने आ जाती है।
अखबार के पहले पन्ने पर सबसे बोल्ड फॉण्ट में खबर है कि दुनिया के एक तिहाई गरीब सिर्फ हमारे महान देश भारत में पाए जाते हैं। यानी, दुनिया के सबसे ज्यादा खतरनाक बीमारी से ग्रसित लोग भारत में ही हैं। गरीबी दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी है इससे भला किसी को क्या इनकार होगा। और, इस बीमारी से पीड़ित मरीज हमारे देश में अफ्रीका के उन इलाकों से भी ज्यादा हैं जहां की गंदी तस्वीरें दिखाकर BBC WORLD और CNN दुनिया (खासकर धनाढ्य देशों) को ये बताते हैं कि गरीब नाम के बीमार ऐसे होते हैं। लगे हाथ ये भी बताने से नहीं चूकते कि ये प्रजाति विलुप्त होने के बजाए बढ़ रही है लेकिन, अमरीका-लंदन जैसी जगहों पर शायद ही इनके कुछ अवशेष बचे हों।
और, कल जो मैं बीजिंग ओलंपिक में पदकों की तालिका में भारत और चीन की तुलना करने की गुस्ताखी कर रहा था। उसे और आगे बढ़ा रहा हूं। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 1980 में चीन में 835 मिलियन यानी 83 करोड़ पचास लाख, उस समय की चीन की कुल आबादी के 83 प्रतिशत लोग, गरीबी की महामारी से पीड़ित थे। भारत के 42 करोड़ 10 लाख लोग, 60 प्रतिशत, गरीबी की महामारी की चपेट में थे। 2005 का आंकड़ा देख लीजिए। चीन में 20 करोड़ 80 लाख, कुल आबादी के 16 प्रतिशत लोग, गरीबी की महामारी के जाल में फंसे रह गए। जबकि, भारत में उसी समय 45 करोड़ 60 लाख लोग, आबादी के 42 प्रतिशत, गरीबी की महामारी से पीड़ित ही रहे।
और, दुनिया क्यों एशिया में भी हमसे ज्यादा गरीबी का तमगा नेपाल के ही सिर सज रहा है। एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB) की ताजा रिपोर्ट कह रही है कि गरीबी के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका भी हमसे बेहतर है। यही वजह है कि कल मैं एक टीवी चैनल पर चीन स्पेशल देख रहा था। तो, एक चीनी का पैराडब (चीनी भाषा से हिंदी) सुनाई दे रहा था कि भारत के बारे में तो वो, लोग चर्चा भी नहीं करते। हां, भारत की छवि ये है कि वो, गरीबों-टूटी-फूटी सड़कों वाला देश है। और, वो ठसके से ये भी बता रहा था कि हम सिर्फ वोट ही तो नहीं दे सकते (कुछ इस अंदाज में अच्छा रहने-खाने को मिले तो, लोकतंत्र जाए ठेंगे पे)। हमारे यहां की शानदार सड़कें, ऊंची इमारतें और बहुत कुछ है हमारे पास बताने को। अब बस आगे फिर— ये तो कोढ़ जैसा है जब कुरेदा जाता है फिर कीड़े बाहर निकल आते हैं।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
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ReplyDeleteखैर!!!
यही तो मुश्किल है कि हमें तस्वीर का एक ही पहलू देखने की आदत है।
ReplyDeleteसाठ साल की जिन्दगी किसी देश के लिए बहुत बड़ी नहीं होती। वह भी तब जब इसके पहले ४०० साल की गुलामी, शोषण, दुर्भिक्ष, अकाल, महामारी का दारुण इतिहास विरासत में मिला हो, और सरकारी मशीनरी के नाम पर लोकतंत्र नामक सबसे महंगी व्यवस्था। इसकी तुलना दमनचक्र के अन्तहीन सिलसिले को प्रतिबिम्बित करती सर्वसत्तावादी(tatalitarian) राज्यव्यवस्था से करके हमें कुण्ठित होने की जरूरत नहीं है।
स्वतंत्र हवा में सांस लेने का जो सुख है उसकी तुलना तानाशाह देशों के भौतिक सुख से करना बेमानी है।
साठ के दशक में नक्सलियों ने कहा था - chinese path is our path.. अब चिदंबरम से लेकर तमाम अर्थशास्त्री यही बोल रहे हैं। क्या कहा जाए! एक लोकतंत्र अपने यहां है जहां हर पांच साल पर सरकारें बदल जाती हैं। सत्ता में रहने के लिए तुष्टीकरण और टुकड़ें फेंकने का दांव चलता रहता है। एक तानाशाही चीन में है जहां सरकारी तंत्र का ढांचा सीढ़ी-दर-सीढ़ी नीचे तक पहुचता है। नकल से कुछ नहीं होगा। लेकिन नाम पर नहीं, सतह पर नहीं, नीचे तक उतरने की ज़रूरत है।
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