Monday, December 31, 2007

हरामीपना सर्च मारोगे तो, जॉर्ज बुश की जगह मुशर्रफ का नाम आएगा

जैसी घटनाएं साल भर घटती रहती हैं उसी समय अगर वो सब उसी तरह से गूगल अंकल के सर्च इंजन में जुड़ जाए तो, कौन सा शब्द खोजने पर क्या मिल सकता है। ये मैंने 2007 जाते-जाते खोजने की कोशिश की है।

हरामीपना सर्च मारोगे तो, जॉर्ज बुश की जगह मुशर्रफ का नाम आएगा

हिंदुत्व की वकालत करने वाले सबसे बड़े नेता को खोजोगे तो, लाल कृष्ण आडवाणी की जगह नरेंद्र मोदी का नाम आएगा

विहिप का वजूद अब कहां बचा है ये जानने की कोशिश करोगे तो, राम की अयोध्या के आसपास कहीं नहीं मिलेगा। अब वो राम के पुल से पार उतरने की कोशिश करते दिखेंगे, तमिलनाडु से लंका के बीच कहीं

सांप्रदायिक हमला सर्च करोगे तो, एम एफ हुसैन ‘फटी पेंटिंग’ के साथ नहीं अब तसलीमा नसरीन ‘द्विखंडिता’ के साथ मिलेंगी

सबसे बड़े ब्लैकमेलर खोजोगे तो, मुशर्रफ के साथ लेफ्ट पार्टियों के नेता नजर आएंगे

बरबाद सड़कें खोजोगे तो, अब बिहार में नहीं बंबई में मिलेंगी

दलित उत्थान प्रणेता के बारे में जानना चाहोगे तो, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जगह अब सुश्री मायावती की जीवनी और फिल्में दिखेंगी

चाणक्य खोजोगे तो, कलजुगी चाणक्य सतीश चंद्र मिश्रा का नाम आएगा

स्टिंग ऑपरेशन की खोज करने पर आजतक या स्टार न्यूज की जगह अब लाइव इंडिया चमकेगा

राजनीतिक विरासत सर्च मारोगे तो, सोनिया, राहुल गांधी के साथ मुस्कुराती दिखेंगी और पड़ोसी पाकिस्तान में बेनजीर खुदा के घर से बिलावल को आसिफ जरदारी की हिफाजत में देख खुश हो रही होंगी

नरसंहार खोजने पर गुजरात की जगह नंदीग्राम का नाम चमकता दिखेगा

शैया पर पड़े भीष्म पितामह खोजने पर अटल बिहारी वाजपेयी नजर आएंगे


आप सभी को Happy new year 2008

Saturday, December 29, 2007

बीएसपी, बीजेपी की सरकारें बनाने में मदद कर रही है!

राष्ट्रीय राजनीति में मायावती की बड़ा बनने की इच्छा बीजेपी के खूब काम आ रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बुरी तरह से पटखनी देने वाली मायावती देश के दूसरे राज्यों में बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता आसान कर रही हैं। जबकि, केंद्र में भले ही मायावती कांग्रेस से बेहतर रिश्ते रखना चाहती हो। राज्यों में बहनजी की बसपा कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी कर रही है।

गुजरात के बाद हिमाचल की सत्ता भी सीधे-सीधे (पूर्ण बहुमत के साथ) भारतीय जनता पार्टी को मिल गई है। गुजरात में जहां मोदी सत्ता में थे लेकिन, मोदी के विकास कार्यों के साथ हिंदुत्व का एजेंडे की अच्छी पैकेजिंग असली वजह रही। वहीं, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में थी और उसके कुशासन की वजह से देवभूमि की जनता ने दुबारा वीरभद्र पर भरोसा करना ठीक नहीं समझा। और, उन्हें पहाड़ की चोटी से उठाकर नीचे पटक दिया।

दोनों राज्यों में चुनाव परिणामों की ये तो सीधी और बड़ी वजहें थीं। लेकिन, एक दूसरी वजह भी थी जो, दायें-बायें से भाजपा के पक्ष में काम कर गई। वो, वजह थी मायावती का राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा। उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई मायावती को लगा कि जब वो राष्ट्रीय पार्टियों के आजमाए गणित से देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आ सकती हैं। तो, दूसरे राज्यों में इसका कुछ असर तो होगा ही। मायावती की सोच सही भी थी।

मायावती की बसपा ने पहली बार हिमाचल प्रदेश में अपना खाता खोला है। बसपा को सीट भले ही एक ही मिली हो। लेकिन, राज्य में उसे 7.3 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि, 2003 में उसे सिर्फ 0.7 प्रतिशत ही वोट मिले थे। यानी पिछले चुनाव से दस गुना से भी ज्यादा मतदाता बसपा के पक्ष में चले गए हैं। और, बसपा के वोटों में दस गुना से भी ज्यादा वोटों की बढ़त की वजह से भी भाजपा 41 सीटों और 43.8 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है। कांग्रेस को 38.9 प्रतिशत वोटों के साथ सिर्फ 23 सीटें ही मिली हैं।

गुजरात में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि उसमें मायावती की पार्टी को मिले वोट बहुत मायने नहीं रखते। लेकिन, मायावती को जो वोट मिले हैं वो, आगे की राजनीति की राह दिखा रहे हैं। गुजरात की अठारह विधानसभा ऐसी थीं जिसमें भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर चार हजार से कम था। इसमें से पांच विधानसभा ऐसी हैं जिसमें बसपा को मिले वोट अगर कांग्रेस के पास होते तो, वो जीत सकती थी। जबकि, चार और सीटों पर उसने कांग्रेस के वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाई।

इस साल हुए छे राज्यों के चुनाव में भाजपा को चार राज्यों में सत्ता मिली है। हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में भाजपा ने अकेले सरकार बनाई है जबकि, पंजाब में वो अकाली की साझीदार है। कांग्रेस सिर्फ गोवा की सत्ता हासिल कर पाई और बसपा को उत्तर प्रदेश में पहली बार पांच साल शासन करने का मौका मिला है।

2008 में होने वाले चुनावों को देखें तो, दिल्ली में कांग्रेस की सरकार दो बार से चुनकर आ रही है। सत्ता विरोधी वोट तो कांग्रेस के लिए मुश्किल बनेंगे ही। बसपा भी यहां कांग्रेस के लि मुश्किल खड़ी करेगी। दिल्ली नगर निगम में बसपा के 17 सभासद हैं। मध्य प्रदेश बसपा, भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। शिवराज के नेतृत्व से लोग खुश नहीं हैं और शिवराज सिंह चौहान, मोदी या फिर उमा भारती जैसे अपील वाले नेता भी नहीं हैं। वैसे, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव भी अगले साल ही होने हैं। और, दोनों ही राज्यों में भाजपा के लिए सरकार बनाना बड़ी चुनौती होगी।

गुजरात चुनावों में भारी जीत और हिमाचल में मिली सत्ता के बाद भले ही लाल कृष्ण आडवाणी और दूसरे भाजपा नेता दहाड़ने लगे हों कि ये दोनों जीत 2009 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी के संकेत हैं। ये इतना आसान भी नहीं दिखता। क्योंकि, पंजाब और उत्तराखंड में मिली जीत के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को मात खानी पड़ गई थी।

जाति प्रथा से बची हुई है सभ्यता!

जाति प्रथा सभ्यता बचाने में मदद कर रही है। ये सुनकर अटपटा लगता है। जाति प्रथा को ज्यादातर सामाजिक बुराइयों के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है। लेकिन, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मानव शास्त्र विभाग के अध्यक्ष और प्रसिद्ध समाज मानवशास्त्री प्रोफेसर वीएस सहाय का एक शोध कह रहा है कि जाति प्रथा की वजह से ही भारतीय सभ्यता इतने समय तक बची रही है। वो कहते हैं कि भारत और चीन को छोड़कर दूसरी सारी सभ्यताएं इसीलिए नष्ट हो गईं। लेकिन, वो जिस जाति प्रथा की बात करते हैं वो, पिता से बेटे को तभी मिलती थी जब बेटा पिता के ही कर्म करता था। वो, पेशा आधारित जाति प्रथा की वजह से सभ्यता बचने की बात खोजकर लाए हैं। पूरी खबर यहां पढ़ें

Thursday, December 27, 2007

मुसलमानों दुनिया को बचा लो

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की आज शाम 6 बजकर 16 मिनट पर हत्या कर दी गई है। बेनजीर जबसे पाकिस्तान लौटी थीं तबसे ही उनकी जान पर खतरा था। बेनजीर की वापसी के समय ही उन पर एक जोरदार आत्मघाती हमला हुआ था। कराची में हुए हमले में करीब दो सौ लोग मारे गए थे और पांच सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे। भगवान का शुक्र था कि उस दिन के हमले में बेनजीर बच गईं। लेकिन, पाकिस्तान में जिस तरह के हालात को वहां बेनजीर, नवाज शरीफ ने पाला पोसा और अब जिसे मुशर्रफ पाल-पोस रहे हैं, उसमें ये खबर देर-सबेर आनी ही थी।

पाकिस्तान में आतंकवादी कितने बेखौफ और मजबूत हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज जिस हमले में बेनजीर की जान गई, उससे कुछ देर पहले ही पाकिस्तान के एक और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के काफिले पर भी धुआंधार गोलियां चलाई गईं थीं। शुक्र था कि काफिले में नवाज शरीफ उस समय शामिल नहीं थे। इस हमले में भी चार लोग मारे गए। बेनजीर पर हुए हमले में बीस से ज्यादा लोगों के मरने की खबर आ चुकी है। पिछली बार जब कराची में हुए भीषण आत्मघाती हमले में बेनजीर किसी तरह बची थीं तो, उसके बाद उन्होंने मुशर्रफ के कई करीबी लोगों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने बेनजीर की हत्या कराने की कोशिश की।

लेकिन, मुशर्रफ शायद ये तय कर चुके हैं कि पाकिस्तान को जहन्नुम में तब्दील करके ही मानेंगे। अभी बेनजीर हमारे बीच नहीं हैं और इस समय वो काबिले तारीफ काम कर रही थीं। वो, पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली की कोशिश में लगी हुईं थीं। लेकिन, बार-बार उन पर ये आरोप लग रहे थे कि बेनजीर ने पाकिस्तान की सत्ता पाने के लिए बेनजीर ने मुशर्रफ से समझौता कर लिया था। ये अलग बात है कि अपने वतन पाकिस्तान लौटने क बाद जब उन्होंने अपनी पैठ राजनीतिक तौर पर मजबूत करने की कोशिश शुरू कीं तो, मुशर्रफ को ये बेहद नागवार गुजरा। लेकिन, नवाज और बेनजीर पाकिस्तान की जनता के सामने भरोसा ऐसा खो चुके थे कि उन्हें मुशर्रफ और नवाज, बेनजीर में ज्यादा फर्क नजर नहीं आ रहा।

पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसे हालात जो, पिछले करीब साल भर से बने हुए थे। आज बेनजीर की हत्या के बाद खुलकर सामने आ गई है। कराची, लाहौर, इस्लामाबाद, रावलपिंडी में पीपीपी के समर्थक गाड़ियों को फूंक रहे हैं। गृह युद्ध जैसा नजारा दिख रहा है। लोग पुलिस को देखते ही उनके ऊपर हमला बोल रहे हैं। मुशर्रफ ने अपनी तानाशाही सत्ता बचाने के लिए जेहादियों, आतंकवादियों से लड़ने में अमेरिका का साथ तो दिया। लेकिन, मुशर्रफ दहशतगर्दों को अपना दुश्मन बना बैठे जिन्हें खुद मुशर्रफ पिछले कई सालों से पाल रहे थे।

अब हालात बहुत कुछ मुशर्रफ के भी हाथ में नहीं हैं। लाल मस्जिद में सेना और तालिबान समर्थित कट्टरपंथियों के बीच हुई जोरदार लड़ाई के बाद ये साफ भी हो गया था। यहां तक कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा से लगा पूरा क्षेत्र तो ऐसा हो गया है जहां पूरी तरह से तालिबान और कट्टरपंथियों, जेहादियों का समानांतर राज चलता है। यही वजह है कि पाकिस्तान आज पूरी दुनिया के लिए दहशत बन गया है।


भारत में हुए हर हमले के तार पाकिस्तान से सीधे या फिर घुमा फिराकर जुड़ ही जाते हैं। अभी पिछले कुछ दिनों से देश के कई राज्यों में जो हमले हुए हैं। उनमें सीधे तौर पर हूजी का नाम आ रहा है। जो, बांग्लादेश और पाकिस्तान से ही चलाया जा रहा है। भारत में लश्कर और दूसरे पाकिस्तान से चलाए जा रहे आतंकवादी संगठनों के स्लीपर सेल होने की बात लगातार साबित होती रहती है। लेकिन, कभी भी पाकिस्तान ने भारत को आतंकवादी हमले से उबरने में, आतंकवादी हमले करने वाले गुनहगारों तक पहुंचने में मदद नहीं की।

भारत का मोस्ट वांटेड अपराधी मसूद अजहर हो या फिर दाउद इब्राहिम। सभी के बारे में ये पुख्ता खबर है कि वो, पाकिस्तान में छिपे बैठे हुए हैं। लेकिन, जब भी भारत सरकार ने पाकिस्तान से आतंकवादियों को वापस करने की मांग की तो, पाकिस्तान हमेशा वही घिसा-पिटा सा जवाब देकर टाल देता है। भारत-पाकिस्तान जिस तरह से विभाजन के बाद बने। उससे दोनों देशों के बीच घृमा की राजनीति नेताओं की जरूरत सी बन गई। हाल ये है कि पाकिस्तान को गाली देकर भारत में और भारत को गाली देकर पाकिस्तान में बड़े मजे से कोई बेवकूफ भी तालियां बटोर लेता है। बेनजीर, शरीफ, मुशर्रफ ने क्या किया। या भारत-पाकिस्तान ने पहले कितनी बार लड़ाई लड़ी, अब इस पर चर्चा करना बेमानी हो गया है।

नवाज शरीफ ने और बेनजीर की पार्टी के महासचिव रियाज ने मुशर्रफ पर बेनजीर की सुरक्षा में कोताही का आरोप लगाया। लेकिन, सच्चाई यही है कि खुद मुशर्रफ भी आतंकवादियों के निशाने पर हैं। क्योंकि, इस्लाम के नाम पर जेहादी तैयार करने वाले आतंकवादी संगठनों का सबसे बड़ा दुश्मन अमेरिका मुशर्रफ का दोस्त है। और, इन जेहादियों के कुकृत्यों का बुरा असर ये है कि भारत से लेकर दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी आतंकवादी घटना के लिए हर मुसलमान दोषी माना जाता है। अब ये जिम्मेदारी पूरी तरह से मुसलमानों की ही है कि वो किसी भी तरह से दुनिया को बरबाद होने से बचा लें।

एक कौम की हिफाजत की लड़ाई के पाक काम का दावा करने वाले आतंकवादियों की वजह से अब तक सबसे ज्यादा मुस्लिम कौम के लोगों ने ही जान गंवाई है। भारत की चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि लश्कर और दूसरे आतंकवादी संगठनों के साथ अल कायदा की कुछ गतिविधियों की भी खुफिया रिपोर्ट आने लगी है। और, पाकिस्तान में मुशर्रफ से लड़ने और अपनी ताकत बढ़ाने के लिए आतंकवादी भारत में अपने कैंपों को और मजबूत करना चाहेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन से लेकर विपक्ष के नेता आडवाणी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक ने बेनजीर की हत्या पर गहरा शोक जताया है जो, लाजिमी है। लेकिन, अब भारत के लिए चुनौतियां इतनी बढ़ गई हैं कि भारत के नेताओं को भारत को सुरक्षित करने के लिए एक साथ आना होगा।

Sunday, December 23, 2007

राष्ट्रीय राजनीति और नरेंद्र मोदी


नरेंद्र मोदी फिर से गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए हैं। औपचारिक तौर पर मोदी 27 दिसंबर को शपथ ले लेंगे। अब मीडिया में बैठे लोग अलग-अलग तरीके से मोदी की जीत का विश्लेषण करने बैठ गए हैं। वो, अब बड़े कड़े मन से कांग्रेस को इस बात के लिए दोषी ठहरा रहे हैं कि कांग्रेस मोदी के खिलाफ लड़ाई ही नहीं लड़ पाई।

खैर, कोई माने या ना माने, गुजरात देश का पहला राज्य बन गया है जहां, विकास के नाम पर चुनाव लड़ा गया और जीता गया। विकास का एजेंडा ऐसा है कि गुजरात के उद्योगपति चिल्लाकर कहने लगते हैं कि कांग्रेस या फिर बीजेपी में खास फर्क नहीं है। फर्क तो नरेंद्र मोदी है। अब सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी विकास का ये एजेंडा लेकर राष्ट्रीय स्तर की राजनीति कर सकते हैं।

मेरी नरेंद्र मोदी से सीधी मुलाकात उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान हुई थी। पहली बार मोदी को सीधे सुनने का मौका भी मिला था। खुटहन विधानसभा में एक पार्क में हुई उस रैली में पांच हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ सुनने के लिए जुटी थी। खुटहन ऐसी विधानसभा है जहां, आज तक कमल नहीं खिल सका है। और, मोदी की जिस दिन वहां सभी उस दिन उसी विधानसभा में उत्तर प्रदेश के दो सबसे कद्दावर नेताओं, मुलायम सिंह यादव और मायावती की रैली थी। ये भीड़ उसके बाद जुटी थी।

मोदी ने भाषण के लिए आने से पहले विधानसभा का समीकरण जाना। और, मोदी के भाषण का कुछ ऐसा अंदाज था कि जनता तब तक नहीं हिली जब तक, मोदी का हेलीकॉप्टर गायब नहीं हो गया। मोदी ने कहा- देश के हृदय प्रदेश को राहु-केतु (मायावती-मुलायम) का ग्रहण लग गया है। मोदी ने फिर गुजरात की तरक्की का अपने मुंह से खूब बखान किया। और, उसके बाद वहां खड़े लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ लिया। मोदी ने कहा- उत्तर प्रदेश के हर गांव-शहर से ढेरों नौजवान हमारे गुजरात में आकर नौकरी कर रहे हैं। लेकिन, मुझे अच्छा तब लगेगा जब किसी दिन कोई गुजराती नौजवान मुझसे आकर कहे कि उत्तर प्रदेश में मुझे अपनी काबिलियत के ज्यादा पैसे मिल रहे हैं। मैं अब गुजरात में नहीं रुके वाला।

साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों के बूते सत्ता का स्वाद चखने वाला मोदी उत्तर प्रदेश के लोगों को गुजरात से ज्यादा तरक्की के सपने दिखा रहे था। मोदी ने फिर भावनात्मक दांव खेला। कहा- हमारे यहां गंगा मैया, जमुना मैया होतीं तो, क्या बात थी। हमारे यहां सूखा पड़ता है पानी की कमी रहती है लेकिन, एक नर्मदा मैया ने हमें इतना कुछ दिया है कि हमारा राज्य समृद्धि में सबसे आगे है।

लेकिन, मोदी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने धीरे से एक जुमला सुनाया कि हमारे कांग्रेसी मुख्यमंत्री मित्र सम्मेलनों में मिलते हैं तो, उनसे मैं पूछता हूं कि सोनिया और राहुल बाबा के अलावा आप लोगों के पास देश को देने-बताने के लिए कुछ है क्या। उन्होंने कहा कि असम के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने मुझसे कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं। असम के लोगों को काम नहीं मिल रहा है। बांग्लादेशी लेबर 30 रुपए रोज में ही काम करने को तैयार हो जाते हैं और, उनकी घुसपैठ भी बढ़ती ही जा रही है। मोदी ने बड़े सलीके से घुसपैठ का मुद्दा विकास के साथ जोड़ दिया था।

उत्तर प्रदेश की खुटहन विधानसभा में मोदी का भाषण सुनने वाले गुजरात के विकास से गौरवान्वित होने लगे थे। मोदी ने कहा- मैंने कांग्रेसी मुख्यमंत्री से कहा आपकी थोड़ी सीमा बांग्लादेश से सटी है तो, आप परेशान हैं। गुजरात से पाकिस्तान से लगी है और मुझसे मुशर्रफ तो क्या पूरा पाकिस्तान परेशान है। जाने-अनजाने ही उत्तर प्रदेश के लोग विकास से गौरवान्वित हो रहे थे और पाकिस्तान, बांग्लादेश की घुसपैठ की समस्या उनकी चिंता में शामिल हो चुकी थी।

ये थी मोदी कि कॉरपोरेट पॉलीटिकल पैकिंग। जिसके आगे बड़े से बड़े ब्रांड स्ट्रैटेजी बनाने वालों को भी पानी भरना पड़ जाए। यही पैकिंग थी जो, ‘जीतेगा गुजरात’ नाम से आतंकवाद, अफजल, सोहराबुद्दीन के साथ विकास, गुजराती अस्मिता को एक साथ जोड़ देती है। ये बिका और जमकर बिका।

और, मोदी की इस कॉरपोरेट पैकिंग को और जोरदार बना दिया, मोदी के खिलाफ पहले से ही एजेंडा सेट करके गुजरात का चुनाव कवरेज करने गए पत्रकारों ने। ऐसे ही बड़े पत्रकारों ने मोदी को इतना बड़ा कर दिया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ये बयान देना पड़ा कि मोदी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी मोदी के डर से की गई है। ज्यादातर बहस इस बात पर हो रही है कि मोदी आडवाणी के लिए खतरा हैं या नहीं। दरअसल इसमें बहस का एक पक्ष छूट जा रहा है कि क्या देश में लाल कृष्ण आडवाणी से बेहतर प्रधानमंत्री पद के लिए कोई दूसरा उम्मीदवार है। जहां तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बात है तो, ये जगजाहिर है कि वो कोई ऐसे नेता नहीं हैं जो, लड़कर चुनाव लड़कर देश की सबसे ऊंची गद्दी तक पहुंचे हों। मनमोहन जी को ये भी अच्छे से पता है कि सोनिया की आंख टेढ़ी हुई तो, गद्दी कभी भी सरक सकती है।

मैं भी गुजरात चुनाव के दौरान वहां कुछ दिनों के लिए था। दरअसल गुजरात में मोदी के खिलाफ कोई लड़ ही नहीं रहा था। नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे कुछ मीडिया हाउस। कुछ एनजीओ, जिनमें से ज्यादातर तीस्ता सीतलवाड़ एंड कंपनी के जैसे प्रायोजित और सिर्फ टीवी चैनलों पर दिखने की भूख वाले लगते थे या फिर नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद से परेशान और फिर मोदी की ओर से परेशान किए गए बीजेपी के ही कुछ बागी।

मोदी जीत गए हैं। सबका उन्होंने आभार जताया। साठ परसेंट गुजरातियों ने वोट डाला। और, उसमें से भी बीजेपी को करीब पचास परसेंट वोट मिले हैं लेकिन, मोदी ने कहा ये साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की जीत है। मोदी ने हंसते हुए कहा कि नकारात्मकता को जनता ने नकार दिया है। गुजरात के साथ मोदी फिर जीत गए हैं। केशुभाई और मनमोहन सिंह की बधाई स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि चुनाव खत्म, चुनावी बातें खत्म। अब मोदी गुजरात के राज्य बनने के पचास साल पूरे होने पर राज्य को स्वर्णिम बनाने में जुटना चाहते हैं।

नरेंद्र मोदी के अलावा बीजेपी में एक और नेता था जो, हिंदुत्व, विकास की कुछ इसी तरह पैकेजिंग कर सकता था। लेकिन, उनकी समस्या ये है कि वो, उमा भारती का भी बीड़ा उठाए रखते हैं। और, उमा भारती को लगता है रामायण, महाभारत की कथा सुनाकर और हर किसी से जोर-जोर से बात करके बीजेपी कार्यकर्ताओं का नेता बना जा सकता है। उमा भारती ने भी दिग्विजय के खिलाफ लड़ाई लड़कर उन्हें सत्ता से बाहर किया। लेकिन, बड़बोली उमा खुद को संभाल नहीं पाईं और खुद मुख्यमंत्री होते हुए भी दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं से लड़ती रहीं। बहाना ये कि दिल्ली में बैठे नेता उनके खिलाफ राजनीति कर रहे हैं।

मोदी कभी भी राज्य के किसी नेता के खिलाफ शिकायत लेकर दिल्ली नहीं गए। राज्य बीजेपी के नाराज दिग्गज नेता दिल्ली का चक्कर लगाते रहे, मोदी के खिलाफ लड़ते रहे और मोदी गुजरातियों के लिए लड़ाई लड़ने की बात गुजरातियों तक पहुंचाने में सफल हो गए। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी बीजेपी की दूसरी पांत के सभी नेताओं से बड़े हो गए हैं। लेकिन, आडवाणी के कद के बराबर पहुंचने के लिए अभी भी मोदी को बहुत कुछ करना होगा।

मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी जैसे आगे की रणनीति बनाने वाले नेता के लिए पांच-सात साल का इंतजार करना ज्यादा मुश्किल होगा। लाल कृष्ण आडवाणी 80 साल के हो गए हैं। और, मोदी सिर्फ 57 साल के हैं। बूढ़े नेताओं पर ही हमेशा भरोसा करने वाले भारतीय गणतंत्र के लिए मोदी जवान नेताओं में शामिल हैं। और, आडवाणी बीजेपी को सत्ता में लौटा पाएं या नहीं, दोनों ही स्थितियों में 2014 में आडवाणी रेस से अटल बिहारी की ही तरह बाहर हो जाएंगे। साफ है 2014 के लिए बीजेपी के सबसे बड़े नेता की मोदी की दावेदारी अभी से पक्की हो गई है।

Friday, December 21, 2007

गुजरात के गांवों-शहरों के बीच विकास का संतुलन

(गुजरात चुनाव के दौरान ही मैं जामनगर में एक दिन था। जामनगर की ब्रास इंडस्ट्री की परेशानी, उसकी सरकार से उम्मीदों, सरकार ने उनके लिए क्या किया। ये सब जानने-समझने के क्रम में एक इंडस्ट्रियलिस्ट ने यूं ही कहा कि अब सोचिए छोटे-छोटे काम तो यहां शहर के आसपास के गांवों में बसे लोग घर से ही करके दे जाते हैं। मुझे गुजरात के विकसित गांवों की तरक्की की वजह समझ में आ रही थी।)

ब्रास इंडस्ट्रीज के लिए मशहूर जामनगर शहर से करीब पांच किलोमीटर दूर गांव है नया नागना। गांव तक संकरी पक्की सड़क है। लेकिन, गांव के अंदर अभी भी सड़कें कच्ची ही हैं। करीब पांच हजार लोगों की आबादी का गांव है। गांव की गलियां बहुत चौड़ी नहीं हैं। लेकिन, ज्यादातर घर पक्के हैं। ये सीधे-सीधे तो गांव ही है लेकिन, दरअसल ये गांव जामनगर शहर के ही तीनों इंडस्ट्रियल एरिया का ही हिस्सा है।

नया नागना गांव में मैं जिस घर में गया दो मंजिल का पक्का मकान था। ग्राउंड फ्लोर पर सिर्फ एक कमरा था जो, रहने के लिए था। एक बड़े कमरे में और बाउंड्री वॉल के अहाते में तीन-चार मशीनें ली हुईं थीं जिनसे ब्रास को काटकर छोटे-छोटे पार्ट्स बनाने का काम हो रहा था। करीब नौ लोगों के परिवार की तीन महिलाएं भी पुरुषों के साथ ब्रास पार्ट्स बनाने में जुटी थीं। मशीन चला रहे धर्मेंद्र ने बताया पिछले पांच सालों से उनका परिवार यही कर रहा है। और, परिवार का एक सदस्य औसतन सौ रुपए तक घर में ही ये काम करके कमा लेता है।

नया नागना की पांच हजार की आबादी में से सत्तर प्रतिशत की आजीविका का साधन शहर की ब्रास इंडस्ट्री ही है। और, जामनगर के आसपास के सौ गांव नया नागना जैसे ही ब्रास इंडस्ट्री से ही कमाई करते हैं। जामनगर के एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट ने मुझे बताया कि जामनगर के तीनों (दो पुराने, तीसरा नया बना है) इंडस्ट्रियल एरिया और शहर में कुल मिलाकर करीब पचास हजार वर्कर काम करते हैं। जबकि, आसपास के गांवों में एक लाख से ज्यादा लोगों की रोजी इसी ब्रास इंडस्ट्री से चल रही है।

साफ है गुजरात के गावों ने, शहरों के साथ विकास का अद्भुत संतुलन बना रखा है। वो, बड़ी आसानी से शहरों की तरक्की में से अपने हिस्से का विकास कर ही लेते हैं। यही वजह है कि गुजरात में तरक्की शहरों की बपौती नहीं रही है।

Thursday, December 20, 2007

गुजरात के एक गांव की कमाई है 5 करोड़ रुपए

(गुजरात चुनावों में मैं सौराष्ट्र इलाके में करीब हफ्ते भर था। गुजरात के गांवों में विकास कितना हुआ है। ये जानने के लिए मैं राजकोट के नजदीक के एक गांव में गया। और, मुझे वहां जिस तरह का विकास और विकास का जो तरीका दिखा वो, शायद पूरे देश के लिए आदर्श बन सकता है।)

गुजरात में राजकोट से 22 किलोमीटर दूर एक गांव की सालाना कमाई है करीब पांच करोड़ रुपए। इस गांव के ज्यादा लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती ही है। कपास और मूंगफली प्रमुख फसलें हैं। गांव में 350 परिवार हैं जिनके कुल सदस्यों की संख्या है करीब 1800।

छोटे-मोटे शहरों की लाइफस्टाइल को मात देने वाले राजसमढियाला गांव की कई ऐसी खासियत हैं जिसके बाद शहर में रहने वाले भी इनके सामने पानी भरते नजर आएं। 2003 में ही इस गांव की सारी सड़कें कंक्रीट की बन गईं। 350 परिवारों के गांव में करीब 30 कारें हैं तो, 400 मोटरसाइकिल।

गांव में अब कोई परिवार गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। इस गांव की गरीबी रेखा भी सरकारी गरीबी रेखा से इतना ऊपर है कि वो अमीर है। सरकारी गरीबी रेखा साल के साढ़े बारह हजार कमाने वालों की है। जबकि, राजकोट के इस गांव में एक लाख से कम कमाने वाला परिवार गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। कुछ समय पहले ही गरीबी रेखा से ऊपर आए गुलाब गिरि अपनी महिंद्रा जीप से खेतों पर जाते हैं। गुलाब गिरि हरिजन हैं। गुलाब गिरि की कमाई खेती से एक लाख से कम हो रही थी तो, उन्हें गांव में ही जनरल स्टोर खोलने में मदद की हई।

गांव के विकास की इतनी मजबूत बुनियाद और उस पर बुलंद इमारत बनाई आजीवन गांव के सरपंच रहे स्वर्गीय देवसिंह ककड़िया ने। दस साल पहले गांव के खेतों में पानी की बड़ी दिक्कत थी तो, ककड़िया ने एक आंदोलन सा चलाया और गांव के आसपास 45 छोटे-छोटे चेक डैम बनाए। गांव के ही 40-50 लोग एक साथ डैम बनाने का काम करते थे। अब चेक डैम के पानी से आसपास के करीब 25 गांवों के खेत में भी फसल हरी-भरी है।

राजसमढियाला गांव को गुजरात के पहले निर्मल ग्राम का पुरस्कार तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के हाथों मिला था। ये पुरस्कार स्वच्छता के लिए मिलता है। गांव के विकास की कहानी इतनी मजबूत है कि तेजी से तरक्की करते शहर फरीदाबाद से आया विशंभर यहीं बस गया है। वो, गांव के एक व्यक्ति का जेसीबी चलाता है। महीने के छे हजार तनख्वाह मिलती है जो, पूरी की पूरी बच जाती है। खाना-पीना भी गांव में ही होता है। लेकिन, अंग्रेजी माध्यम का स्कूल न होने से परिवार को फरीदाबाद ही छोड़ आया है।

इतना ही नहीं है इस गांव के लोग ताला भी नहीं लगाते। लेकिन, इधर कुछ फेरी वालों की हरकतों की वजह से कुछ लोग ताला लगाने की शुरूआत कर रहे हैं। गांव का अपना गेस्ट हाउस है। पंचायत भवन खुला हुआ था। राशन की दुकान में तेल के ड्रम खुले में रखे थे। गांव के लोग पुलिस थाने में शिकायत लेकर नहीं जाते। गांव की लोक अदालत ही सारे मामले सुलझाती है।

गुजरात देश का सबसे ज्यादा तेजी से शहरी होता राज्य है। दरअसल गुजरात के गांव वाले सिर्फ शहरी रहन-सहन ही नहीं अपना रहे। कई साल पहले से उन्होंने इसके लिए अपनी कमाई भी बढ़ाने का काम शुरू कर दिया था। अब राजसमढियाला गांव के नई पीढ़ी के कई लोग राजकोट फैक्ट्री लगा रहे हैं। शहरों में घर खरीद चुके हैं। साफ है गांव-शहर के बीच विकास का संतुलन इससे बेहतर और क्या हो सकता है। लेकिन, गांव में व्यापार, खेती का माहौल ऐसा है कि गांव में ज्यादा पढ़े-लिखे लोग कम ही मिलते हैं। गांव में स्कूल भी दसवीं तक का ही है। ऊंची पढ़ाई के लिए कम ही लोग बाहर जाते हैं क्योंकि, कमाई तुरंत ही शुरू हो जाती है।

गांव में विकास के नाम पर नेता वोट मांगने से डरते हैं। विकास में ये सरकारों की भागीदारी अच्छे से लेते हैं। लेकिन, अपनी मेहनत से खुद विकास करते हैं। यही वजह है कि चुनावों के समय भी इस गांव में कोई भी चुनावी माहौल नजर नहीं आया। न किसी पार्टी का झंडा न बैनर। गांव बाद में एक साथ बैठकर तय करते हैं कि वोट किसे करना है। और, अगर किसी ने वोट नहीं डाला तो, पांच सौ रुपए का जुर्माना भी है।

(ये लेख दैनिक जागरण के चुनाव विशेष संस्करण में छपा है)

Wednesday, December 19, 2007

दिलीप जी आपको टिप्पणी चाहिए या नहीं?

दिलीप मंडल ने एक बहस शुरू की और और अभय तिवारी उस बहस में खम ठोंककर खड़े हो गए हैं। वैसे अभय जी, दिलीपजी की तरह एक पक्ष को लेकर उसी पर चढ़ नहीं बैठे हैं। लेकिन, सलीके-सलीके में वो अपनी बात कहते जा रहे हैं। इन दोनों लेखों पर टिप्पणियां भी खूब आईं हैं। और, ज्यादातर टिप्पणियां दिलीप जी के निष्कर्षों के आधार पर ही हैं। पोस्ट और टिप्पणी मिलाकर इतना मसाला तैयार हो गया कि टिप्पणीकार ने भी एक पोस्ट ठेल दी।

मैंने जब दिलीप जी की ब्लॉग को लेकर नए साल की इच्छाएं देखीं थी। उसी समय मैं लिखना चाह रहा था लेकिन, समय न मिल पाने से ये हो नहीं सका। और, इस बीच अभय जी बहस आगे ले गए। दिलीपजी को सबसे ज्यादा एतराज ब्लॉगर मिलन पर है। लेकिन, सबसे ज्यादा टिप्पणियां इसी पक्ष में आई हैं कि ब्लॉगर मिलन होना चाहिए। मैं भी ब्लॉगर मिलन का पूरा जोर लगाकर पक्षधर हूं। समीर जी के मुंबई आने पर पहली बार किसी ब्लॉगर मिलन की वजह से ही मुंबई में तीन साल में पहली बार मुझे थोड़ा सामाजिक होने का भी अहसास हुआ।

अनिलजी और शशि सिंह को छोड़कर पहले मैं किसी से कभी नहीं मिला था। अभय जी से ब्लॉग के जरिए ही संपर्क हुआ और फोन पर एकाध बार बात हुई थी। अनीताजी से दो बार वादा करके भी मैं IIT पवई में हुए ब्लॉग मिलन में कुछ वजहों से शामिल नहीं हो पाया। मैं वहां ब्लॉगर्स के साथ सबसे कम समय रहा। लेकिन, प्रमोद जी, बोधिसत्व जी, यूनुस, विमल, विकास से इतनी पहचान तो हो गई कि आगे मिलने पर मुस्कुराकर मिलेंगे। प्रमोदजी और बोधि भाई के बारे में और नजदीक से जानने की इच्छी भी जागी है।

जहां तक चमचागिरी/ चाटुकारिता की दिलीपजी की बात है तो, बस इतना ही जानना चाहूंगा कि किस संदर्भ में कौन सी तारीफ चमचागिरी/चाटुकारिता हो जाती है। और, ज्यादातर ऐसा नहीं होता कि अपने लिए की गई साफ-साफ चमचागिरी भी अच्छी लगती है लेकिन, दूसरे की सही की भी तारीफ चाटुकारिता नजर आने लगती है।

और, दिलीपजी जहां तक तारीफ वाली टिप्पणियों से ब्लॉग को साहित्य वाला रोग लगने की बात है तो, लगने दीजिए ना। उस तरह के साहित्यकार आप ही के कहे मुताबिक, पांच सौ के प्रिंट ऑर्डर तक सिमटकर रह जाएंगे। वैसे आपके ब्लॉग पर भी ई मेल से सब्सक्राइब करने और फीड बर्नर से कितने लोगों ने सब्सक्राइब किया है, का बोर्ड लगा दिख रहा है।

हां, साधुवाद-साधुवाद का खेल नहीं होना चाहिए। लेकिन, अगर पूरी पोस्ट पढ़कर एक ही पाठक किसी के ब्लॉग की ज्यादातर पोस्ट पर टिप्पणी कर रहा है तो इसमें क्या हर्ज है। क्या किसी अखबार के नियमित पाठक और किसी टेलीविजन चैनल के नियमित दर्शक नहीं होने चाहिए। दिलीप जी ये बदल-बदलकर दर्शक खोजने के चक्कर में हम पड़े तो हम सब की रोजी-रोटी भी मारी जाएगी।

अप्रैल में मैंने ब्लॉग शुरू किया था। शुरू में तो मैंने अपने दोस्तों को ही बताया और सिर्फ उन्हीं की टिप्पणियां आती थीं। जाहिर है ज्यादातर लोग तारीफ ही करते थे। धीरे-धीरे लगातार लिखते-लिखते नई-नई टिप्पणियां आने लगीं। और, उन नई टिप्पणियों के जरिए नए लोग दोस्त भी बन गए। अभी मुंबई में मिले दस-बारह ब्लॉगर को छोड़ दें तो, ज्यादातर टिप्पणी करने वाले ब्लॉगर/पाठक से मैं मिला भी नहीं हूं। मुझे तो टिप्पणी चाहिए अब दिलीपजी की वो जानें। तो, सब लोग जरा जमकर टिप्पणी करना। बहुत अच्छा भी चलेगा।

हां, आपकी पोस्ट पर भुवन की एक टिप्पणी मेरी भी चिंता में शामिल है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुछ-कुछ लोगों का ब्लॉग कॉकस बन जा रहा हो। वैसे मेरा अनुभव ये भी बताता है कि बिना कॉकस बनाए सफल होना मुश्किल हो जाता है। आप तो, ज्यादा अनुभवी हैं।

जहां तक आपके नए साल के अरमानों की बात है तो, मेरी राय ये रही। आगे जनता की मर्जी

हिंदी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो -- क्या खूब
हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो -- बहुत खूब
विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए -- आपकी सोच हकीकत में बदले
ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो -- लेकिन, इतना न हो जाए कि अमर्यादित रिश्ते बनाने तक बात पहुंचने लगे
ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो -- ये आशंका ही बेवजह है क्योंकि, ब्लॉगिंग के लिए कोई प्रिंटिंग प्रेस या टीवी चैनल खोलने की जरूरत नहीं होती
ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो -- माफ कीजिएगा, आपकी ये इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। पहला मौका मिलते ही हम फिर मिलेंगे और इस बार हम भी लिखेंगे, ब्लॉगर मिलन पर
नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु -- आप सचमुच बहुत अच्छा सोचते हैं लेकिन, थोड़ा और अच्छा सोच सकते थे

Tuesday, December 18, 2007

बिना ‘कॉकस’ बनाए ‘बहुत बड़ा’ बनना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है

मैं रविवार को ओम शांति ओम देखकर आया। पूरी मसाला फिल्म है। मुझे जो सबसे अच्छा लगा वो इस फिल्म का साफ-साफ संदेश। संदेश ये है कि सफलता तो अकेले मिल सकती है। लेकिन, बहुत सफल होने के लिए या फिर बहुत बड़ा बनने के लिए हर किसी को एक कॉकस तैयार करना ही होता है। बिना इसके बात एक जगह पर जाकर रुक जाती है।

बेहद घिसी-पिटी पुनर्जन्म पर बनी ओम शांति ओम में कुछ भी ऐसा खास नहीं है। जिसे देखने के लिए दर्शक सिनेमा हॉल तक जाए। लेकिन, फिल्म में मायानगरी का हर स्टार नजर आ रहा है(भले ही एक झलक ही)। इसमें एक चीज जो बड़े अच्छे से फिल्माई गई है वो, है मायानगरी के अंदर की माया। बस इसी माया की झलक दर्शकों को कहीं भी बोर नहीं करती। कहानी कहीं-कहीं भौंडी कॉमेडी भले ही दिखे लेकिन, दर्शक उसमें उलझा रहता है।

शाहरुख खान एक और कोशिश में काफी सालों से लगे हुए हैं। वो, ये कि जिस तरह से तीस सालों से भी ज्यादा की पूरी पीढ़ियां अमिताभ को हीरो मानती हैं। वैसे ही आगे आने वाली पीढ़ी हर तरह के रोल में सिर्फ एक नाम ही जाने। वो, फिर DDLJ से निकला रोमांटिक हीरो शाहरुख हो या फिर ‘YO’ जेनरेशन का SRK। पुरानी पीढ़ी पान खाए गले में स्कार्फ बांधे अमिताभ को डॉन मानती होगी। लेकिन, आज के जमाने के बच्चे तो, चमड़े की जैकेट में जहाज में उड़ते शाहरुख को ही डॉन मानते हैं। कुल मिलाकर शाहरुख पुराने अभिनेताओं की छाप को हल्का करके अपनी छाप छोड़ने के अभियान में सफल हो रहे हैं। ओम शांति ओम उसी को आगे बढ़ाती कहानी है।

इस काम में शाहरुख की मदद करते करण जौहर और फराह खान जैसे लोग। जिन्हें अपना बनाया ब्रांड (SRK) खुद को ब्रांड नंबर वन बनाने के लिए चाहिए। ओम शांति ओम में करण जौहर का डायलॉग कि हीरे की समझ जौहरी को हाती है लेकिन, हीरो-हीरोइन की समझ तो जौहर ही कर सकते है। बताया ना फिल्म मायानगरी की अंदरूनी कहानी है तो, अपने एक खास ‘चरित्र’ की वजह से राजू श्रीवास्तव की बिरादरी के लिए आइटम बनने वाले करण ये मौका कैसे छोड़ सकते थे।

फिल्म में जो भी अभिनेता-अभिनेत्री जिस खेमे में हैं। उन्हें एकदम उसी तरह दिखाने का साहस करण-शाहरुख-फराह की सफलतम तिकड़ी ही कर सकती है। फिल्म में पुराने जमाने के ज्यादा अभिनेताओं का मजाक उड़ाया गया है। फिल्म में मनोज कुमार जिस तरह से पिटे वही, शायद उन्हें ज्यादा अपमानजनक लगा होगा। लेकिन, फिल्म ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इस तिकड़ी में भी ये दुस्साहस नहीं है कि वो अमिताभ की हैसियत पर हमला कर सकें। शायद यही वजह थी कि फिल्म में अमिताभ का ‘WHO O.K.’ पूछना भी इन्हें अच्छा लगा। इस तिकड़ी ने अभिषेक बच्चन और अक्षय कुमार को इंडस्ट्री का नंबर दो की रेस में लगा हीरो भी बता दिया है। ठीक उसी तरह जैसे किसी राजनीतिक पार्टी में बड़े नेता नंबर एक की कुर्सी पाते ही नंबर दो की मजबूत लाइन खड़ी कर देते हैं जिससे उनकी सत्ता को जल्दी चुनौती न मिल सके। तो,बहुत सफल होना है तो, अपना कॉकस तैयार करना शुरू कर दीजिए।

Friday, December 14, 2007

वाइब्रैंट गुजरात नरेंद्र मोदी प्राइवेट लिमिटेड


(पहले चरण के चुनाव होने से पहले मैं हफ्ते भर तक गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में था। राजकोट, भावनगर, अलंग पोर्ट, जामनगर और इन शहरों के आसपास मैंने चुनावी नजरिए से गुजरात को समझने-जानने की कोशिश की। इसके बाद मुझे गुजरात एक ऐसी कंपनी की तरह लगा जिसे सीईओ नरेंद्र मोदी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिलाने की कोशिश में लगे हैं। और, यहां के लोगों के लिए ये चुनाव काफी हद तक कंपनी की पॉलिसी तय करने वाले बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के चुनाव जैसा ही है। इसीलिए गुजरात के एक बड़े वर्ग को मोदी के खिलाफ कही गई कोई भी बात यहां के विकास में अड़ंगा जैसा लगता है।)


वाइब्रैंट गुजरात के विकास में किस तरह की रुकावटें आ रही हैं। गुजरात जैसी तेजी से मुनाफा कमाने वाली कंपनी (राज्य) में क्या कुछ किया जा सकता है जिससे यहां विकास की रफ्तार और तेज हो सके। राज्य बनने के बाद से (पब्लिक से प्राइवेट कंपनी बनने) वाइब्रैंट गुजरात में किस सीईओ (मुख्यमंत्री) की पॉलिसी सबसे ज्यादा पसंद की गई। ये सब मैंने जानने समझने की कोशिश की।

नरेंद्र मोदी की कुर्सी पर मुझे कोई खतरा नहीं दिखता है। गुजरात के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स (विधानसभा) में मोदी के इतने मेंबर्स शामिल हो जाएंगे जो, मोदी को फिर से गुजरात का प्रॉफिट बढ़ाने के लिए उन्हें सीईओ और चेयरमैन (मुख्यमंत्री) की कुर्सी सौंप देगा।

बाइब्रैंट गुजरात का साल दर साल प्रॉफिट 15 प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ रहा है। वाइब्रैंट गुजरात में काम करने वाले कर्मचारियों (आम जनता) को हर साल अच्छा इंक्रीमेंट मिल रहा है। पूरे गुजरात में सड़कें-बिजली-पानी सब कुछ लोगों को देश के दूसरे राज्यों से अच्छे से भी अच्छा मिल रहा है। गांवों में भी कमोबेश हालात देश की दूसरी कंपनियों (राज्यों) से अच्छे हैं।

वाइब्रैंट गुजरात में हर कोई अपना इंक्रीमेंट बढ़ाने के लिए जमकर काम करने में लगा हुआ है। सीईओ की पॉलिसी ऐसी हैं कि शेयरहोल्डर्स (आम जनता, किसान), उसमें पैसा लगाने वाले इंडस्ट्रियलिस्ट और FII (NRI) सब खुश हैं। हर किसी को यहां अच्छा मुनाफा दिख रहा है। ऐसा नहीं है वाइब्रैंट गुजरात लिमिटेड में इसके पहले के सीईओज ने बहुत कुछ न किया हो। लेकिन, नया सीईओ (मुख्यमंत्री) तुरंत फैसले लेता है। यूनियन (केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, कांशीराम रांणा, भाजपा संगठन, विहिप) पर रोक लगा दी गई है। हर कंपनी की तरह वाइब्रैंट गुजरात में भी ऊपर के अधिकारियों की सैलरी तेजी से बढ़ी है। लेकिन, खुद को साबित करके आगे बढ़ने का मौका सबके पास है। लेकिन, कंपनी के सीईओ नरेंद्र मोदी से पंगा लेकर यूनियन (केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, कांशीराम रांणा, भाजपा संगठन, विहिप) के लोगों से हाथ मिलाने की कोशिश की तो, फिर मुनाफा तो छोड़िए मूल पूंजी भी जा सकती है।

भारतीय शेयर बाजार के बाद अकेले तौर पर सबसे ज्यादा विदेशी निवेश वाइब्रैंट गुजरात में ही आ रहा है। नरेंद्र मोदी अब तक 75 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के निवेश की बात करते हैं। सीईओ की कार्यशैली से कंपनी (गुजरात राज्य) में पैसा लगाने वाले इतने खुश हैं कि राजकोट में मुझे एक इंडस्ट्रियलिस्ट ने ये समझाने की कोशिश की बोर्ड ऑफ डायरेक्टर (विधायक) अलग-अलग व्यक्ति को चुनने के बजाए पार्टी (बीजेपी में नरेंद्र मोदी या कांग्रेस में सोनिया गांधी) को ही बोर्ड ऑफ मेंबर्स में हिस्सेदारी मिल जाए। फिर पार्टी (विधानसभाओं में हिस्सेदारी के आधार पर) जिसे चाहे अपने हिस्से का बोर्ड ऑफ डायरेक्टर (विधायक) नॉमिनेट कर दे।

नरेंद्र मोदी के कंपनी हित में लिए गए कड़े फैसलों (तानाशाही) से उसमें पैसा लगाने वाले खुश हैं। क्योंकि, इस कंपनी (गुजरात राज्य) से जुड़े किसी काम के लिए सबको खुश नहीं करना पड़ता। सीईओ या फिर उनके पसंदीदा बोर्ड मेंबर्स (विधायक) और सीईओ के प्रशासनिक अधिकारियों (IAS अफसरों) के जरिए बिना किसी रोक-टोक के हो सकता है। FII’s (NRI) तो नरेंद्र मोदी को ही दुबारा सीईओ और चेयरमैन देखना चाहते हैं। राज्य में 500 से ज्यादा FII (NRI) वाइब्रैंट गुजरात में कितना भी पैसा लगाने के वादे के साथ शेयरहोल्डर्स से अगले पांच सालों के लिए फिर से नरेंद्र मोदी को सीईओ और चेयरमैन बनाकर उनकी पॉलिसी पर मुहर लगाने को कह रहे हैं।

कांग्रेस (पहले के सीईओ) के गुजरात को मोदी (नए सीईओ) ने वाइब्रैंट गुजरात बना दिया है। अब गुजरात को पहले चलाने वाले लोगों (कांग्रेस) की नई पीढ़ी के साथ कुछ देसी निवेशक (सूरत के कुछ हीरा व्यापारी) कह रहे हैं कि नया सीईओ गुजरात को खराब कर रहा है। इससे लंबे समय में कंपनी के मुनाफे पर असर पड़ सकता है। नए सीईओ के परिवार के कुछ बुजुर्ग भी (भाजपा, संघ, विहिप के नेता) कह रहे हैं कि जब से इस बच्चे को कमान सौंपी गई ये फैसलों में किसी की सुनता ही नही। लेकिन, अब शेयर होल्डर्स (जनता) इनकी सुनते नहीं दिख रहे।

बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स और पैसा लगाने वाले सब कह रहे हैं कि सीईओ कंपनी (गुजरात राज्य) की भलाई के लिए कड़े फैसले ले सके, इसके लिए सीईओ और उसके पसंदीदा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के पास 51 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सेदारी (विधानसभा में 93 से ज्यादा सीटें) होनी चाहिए। कंपनी का मुनाफा देखते हुए इस बात के पूरे संकेत दिख रहे हैं कि शेयरहोल्डर्स फिलहाल किसी नए सीईओ को कमान सौंपने के पक्ष में नहीं दिखते। क्योंकि, कंपनी की तरक्की में वो फिलहाल किसी तरह का ब्रेक नहीं लगाना चाहते।

ये अलग बात है कि अगर इस बार नए सीईओ को कमान मिली तो, परिवार के किसी भी सदस्य (भाजपा, संघ, विहिप) के पास एक भी शेयर (अधिकार) नहीं बचेंगे। कंपनी में 51 प्रतिशत शेयरों की हिस्सेदारी के साथ सारे फैसले लेने के अधिकार कंपनी की पहली एजीएम (नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही) में फिर से सीईओ बने नरेंद्र मोदी को सौंप दिए जाएंगे।

Thursday, December 13, 2007

लाल कृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का मतलब

भाजपा ने आखिरकार लाल कृष्ण आडवाणी को अपना नेता घोषित कर ही दिया। लोकसभा चुनाव हारने के बाद और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तबियत खराब होने के बाद ही ये ऐलान हो जाना चाहे था। लेकिन, कुछ पार्टी की आतंरिक खराब हालत और कुछ अटल बिहारी वाजपेयी की आजीवन भाजपा का सबसे बड़ा नेता बने रहने की चाहत। इन दोनों बातों ने मिलकर आडवाणी की ताजपोशी पर बार-बार ब्रेक लगाया। उस पर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले आडवाणी के बयान की वजह से संघ के बड़े नेताओं की नाराजगी कुछ बची रह गई थी।

फिर जरूरत (वजह) क्या थी बिना किसी मौके के आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की। अभी लोकसभा के चुनाव तो हो नहीं रहे थे। गुजरात के चुनाव चल रहे हैं और गुजरात में जिस तरह से मोदी की माया में ही पूरे राज्य में बीजेपी का चुनाव प्रचार चल रहा है। सहज ही लाल कृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी मोदी के बढ़ते प्रभाव से जुड़ जाता है। और राष्ट्रीय मीडिया ने इसे बड़ी ही आसानी से जोड़ दिया कि मोदी केंद्र की राजनीति में प्रभावी न हो पाएं इसके लिए गुजरात चुनाव के परिणाम आने से पहले ही आडवाणी की उम्मीदवार पक्की कर दी गई। लेकिन, अगर आडवाणी की उम्मीदवारी के ऐलान के समय पार्टी कार्यालय के दृश्य याद करें तो, आसानी से समझ में आ जाता है कि मोदी कहीं से भी नंबर एक की कुर्सी के लिए आडवाणी को चुनौती देने की हालत में नहीं थे।

दरअसल लाल कृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पक्की करने के पीछे असली खेल भाजपा में नंबर दो की लड़ाई में भिड़े नेताओं ने किया। मुस्कुराते हुए राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी का पत्र पढ़कर सुनाया। जसवंत सिंह हमेशा की ही तरह आडवाणी के पीछे खड़े थे। अरुण जेटली काले डिजाइनर कुर्ते में चमकते चेहरे के साथ नजर आ रहे थे। लेकिन, इस पूरे आयोजन में सबसे असहज और खुद को सहज बनाने की कोशिश में दिख रहे थे मुरली मनोहर जोशी। राजनाथ के ऐलान के बाद जोशी ने आडवाणी को मिठाई खिलाई, गुलदस्ता भी दिया।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को भीतर से जानने वाले ये अच्छी तरह जानते हैं कि नंबर दो की कुर्सी को छूने भर के लिए मुरली मनोहर जोशी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भाजपा में एक चर्चित किस्से से आडवाणी-जोशी के बीच चल रहे शीत युद्ध को आसानी से समझा जा सकता है। किस्सा कुछ यूं है कि एक बार जोशी के संसदीय क्षेत्र इलाहाबाद से कुछ नाराज लोग आडवाणी के पास मुरली मनोहर की शिकायत करने पहुंचे तो, आडवाणी ने उन्हें जवाब दिया कि इलाहाबाद भाजपा के नक्शे में शामिल नहीं है। ये बात कितनी सही है ये तो पता नहीं। लेकिन, दोनों नेताओं के बीच रस्साकशी लगातार चलती रही थी। आडवाणी स्वाभाविक तौर पर अटल बिहारी के बाद कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्य नेता थे तो, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के सर संघचालक रहते जोशी ने संघ के दबाव में नंबर दो का दावा बार-बार पेश करने की कोशिश की।

जोशी जब अध्यक्ष बने तो, उसके बाद के चुनावों में एक पोस्टर पूरे देश भर में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय से छपा हुआ पहुंचा था। इसमें बीच में अटल बिहारी की थोड़ी बड़ी फोटो के अगल-बगल जोशी और आडवाणी की एक बराबर की फोटो लगी थी और नारा भारत मां की तीन धरोहर, अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर। अब तो ये नारा भाजपा कार्यकर्ताओं को याद भी नहीं होगा।

खैर, आडवाणी ने पूरे देश में अपने तैयार किए कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल बिछाया कि दूसरे सभी नेता गायब से हो गए। उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक सिर्फ आडवाणी के कार्यकर्ता ही पार्टी में अच्छे नेता के तौर पर स्वीकार्य दिखने लगे। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, दिल्ली में मदन लाल खुराना, विजय गोयल, वी के मल्होत्रा, बिहार में सुशील मोदी, मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा, राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत, महाराष्ट्र में प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे, उत्तरांचल में भगत सिंह कोश्यारी, कर्नाटक में अनंत कुमार, गुजरात में केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा और नरेंद्र मोदी के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में गोविंदाचार्य, उमा भारती, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे नेता थे जो, देश भर में भाजपा की पहचान थे। और, इन सभी नेताओं की निष्ठा कमोबेश आडवाणी के प्रति ही मानी जाती थी।

कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं की तनी लंबी फौज होने के बाद आडवाणी कभी भी ‘मास अपील’ (इस अपील ने भी भारतीय राजनीति में बहुत भला-बुरा किया है) का नेता बनने में वाजपेयी को पीछे नहीं छोड़ पाए। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद आडवाणी का ग्राफ बहुत तेजी से ऊपर गया। लेकिन, इसके साथ ही देश में हिंदूत्व के उभार के साथ एक आक्रामक तेवर वाले नेताओं की भी फौज खड़ी हो गई। साथ ही आडवाणी के ही खेमे के नेताओं में आपस में ठन गई। बीच बचाव करते-करते माहौल बिगड़ चुका था।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे जनाधार वाले नेता कल्याण सिंह ने पार्टी से किनारा कर लिया। गोविंदाचार्य को अध्ययन अवकाश पर जाना पड़ा। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह से दस साल बाद सत्ता छीनने वाली तेज तर्रार नेता उमा भारती मुख्यमंत्री तो बनीं लेकिन, जल्द ही उनके तेवर पार्टी के लिए मुसीबत बन गए। मदन लाल खुराना आडवाणी को ही पार्टी में होने वाले सारे गलत कामों के लिए दोषी ठहराने लगे। प्रमोद महाजन का दुखद निधन हो गया जो, भाजपा के साथ देश की राजनीति के लिए भी एक बड़ा झटका था। साहिब सिंह वर्मा का सड़क हादसे में निधन हो गया। इस बीच ही आडवाणी को मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्ष नजर आने लगे। और, आडवाणी संघ सहित भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के भी निशाने पर आ गए।

राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद आडवाणी ने खुद को पार्टी की सक्रिय भूमिका से अलग कर लिया। और, सच्चाई ये थी कि उनके अपने खड़े किए नेता अब प्रदेशों में या फिर देश की राजनीति में अब उनके साथ थे ही नहीं। राजनाथ सिंह की अध्यक्षी में उत्तरांचल और पंजाब में भाजपा सत्ता में आई लेकिन, उत्तर प्रदेश में मिली जबरदस्त पटखनी ने पूरे देश में भाजपा का माहौल खराब कर दिया। संघ, विश्व हिंदू परिषद की नाराजगी ने रहा सहा काम भी बिगाड़ दिया।

कुल मिलाकर भारतीय जनता पार्टी जो, खुद को एक परिवार की तरह पेश करती है। एक ऐसा परिवार बनकर रह गई जिसमें घर का हर सदस्य अपने हिसाब से चलना चाह रहा था और घर के मुखिया, दूसरे सदस्यों को कुछ भी कहने-सुनने लायक नहीं बचे थे। संघ के बड़े नेता मोहन भागवत फिर से इस कोशिश में जुट गए कि किसी तरह भाजपा को उसका खोया आधार वापस मिल सके। भोपाल में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ही आडवाणी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना था लेकिन, अटल बिहारी बीच में ही बोल पड़े कि वो फिर लौट रहे हैं।

आडवाणी भी ये नहीं चाहते थे कि आज की तारीख में देश के सबसे स्वीकार्य नेता की असहमति के साथ वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनें। सारी मुहिम फिर स शुरू हुई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में जिस तरह से भाजपा का संगठन जिस तेजी से खत्म हुआ है उसमें ये जरूरत महसूस होने लगी कि पार्टी को किसी एक नेता के पीछे चलना ही होगा। गुजरात में मोदी ने जिस तरह से संगठन के तंत्र को तहस-नहस किया है। और, अपना खुद का तंत्र बनाकर केशूभाई पटेल, कांशीराम रांणा, सुरेश मेहता और दूसरे भाजपा के दिग्गज नेताओं को दरकिनार किया है। उससे भी पार्टी और संघ को आडवाणी को नेता बनाने की जरूरत महसूस हुई।

संघ ने आडवाणी की उम्मीदवारी पक्की करने से पहले आडवाणी को मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को साथ लेकर चलने का पक्का वादा ले लिया। गुजरात में मोदी के प्रकोप से डरे भाजपा के दूसरी पांत के नेता भी आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का निर्विवाद उम्मीदवार मानने के लिए राजी हो गए। नरेंद्र मोदी तो कभी भी इस हालत में नहीं रहे कि दिल्ली की राजनीति में वो आडवाणी के कद के आसपास भी फटकते। वैसे भी गुजरात के बाहर मोदी का साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों का फॉर्मूला तो काम करने से रहा। लेकिन, आडवाणी के लिए राह बहुत मुश्किल है। गोविंदाचार्य और उमा भारती जैसे कार्यकर्ताओं के प्रिय नेता पार्टी में आने जरूरी हैं। कल्याण सिंह में अब वो तेवर नहीं बचा है। उत्तर प्रदेश में दूसरा कोई ऐसा नेता बन नहीं पाया है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ तालमेल बिठाना मुंडे के लिए मुश्किल हो रहा है। और, अब शायद ही आडवाणी में इतनी ताकत बची होगी कि वो फिर से सफल रथयात्री बन सकें जो, अपनी मंजिल तक पहुंच सके। लेकिन, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अजब-गजब बयान से इतना तो साफ है कि भाजपा का तीर निशाने पर लगा है।

Wednesday, December 12, 2007

विनोद दुआ की समस्या क्या है?

विनोद दुआ वरिष्ठतम और देश के सबसे काबिल पत्रकारों में से हैं। उस पीढ़ी के पत्रकार हैं जब टीवी ठीक से पैदा भी नहीं हुआ था। नए दौर का टेलीविजन न्यूज आया तो, विनोद दुआ स्टार और उसके बाद फिर एनडीटीवी पर अच्छे और अलग तरीके के शो लेकर आए। उनके शो में कुछ हटकर होता है। और, नए लोगों के लिए बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इधर, एनडीटीवी पर उनका खबरदार एक ऐसा शो है जो, लोगों को खबरें देने के साथ बहुत कुछ सीखने-समझने वाला शो है।

लेकिन, हाल के दिनों में खबरदार और चुनाव के दौरान गुजरात की यात्रा में विनोद दुआ कुछ ऐसा बर्ताव करते नजर आए। जो, खास तौर पर एक ऐसे पत्रकार, जिसको देख-सुनकर एक पूरी पत्रकार पीढ़ी जवान हुई हो, से उम्मीद नहीं की जाती। गुजरात में नरेंद्र मोदी के कारनामों की कलई खोलना और उसके पक्ष में तर्क रखना एक निष्पक्ष पत्रकारिता का तकाजा है। जरूरी है कि मोदी जैसे लोगों के खिलाफ मुहिम चलाई जाए। लेकिन, विनोद दुआ जैसे वरिष्ठ पत्रकार का ये सवाल कि आप मोदी को वोट देंगे या अच्छे आदमी को। जिससे दुआ साहब ने सवाल पूछा- उसका जवाब था मोदी ने विकास किया है, अच्छा आदमी है। फिर दुआ साहब का सवाल था- मोदी के आदमी को वोट देंगे या अच्छे आदमी को। अब ये तर्क का विषय हो सकता है लेकिन, मेरा सवाल ये है कि क्या बीजेपी से लड़ने वाला एक भी प्रत्याशी अच्छा नहीं हो सकता।

मैं भी अभी गुजरात से ही लौटकर आया हूं। नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई लड़ते-लड़ते विनोद दुआ जैसे बड़े पत्रकारों ने ऐसा हाल कर दिया है कि गुजरात के लोग मानने लगे हैं कि नेशनल मीडिया गुजरात को बदनाम करने की कोशिश में लगा हुआ है। कोई एक पूरा राज्य अगर ये मानने लगे कि लोकतंत्र का एक स्तंभ पत्रकारिता ही उन्हें देश की मुख्य धारा से काटने में लग गया है तो, फिर ये सोचने वाली बात है (इस पर फिर से तर्क आ सकते हैं कि पूरा राज्य ऐसा मानता तो, मोदी को पूरे वोट मिलते लेकिन, लोकतंत्र में बहुसंख्या जिसके साथ रहती है, उसी को जनादेश माना जाता है)। मोदी के खिलाफ लड़ाई में विनोद दुआ जैसे पत्रकार बीजेपी के किसी भी फैसले के खिलाफ मुहिम सी चलाते दिखते हैं। किसी भी राजनीतिक दल के फैसलों पर टिप्पणी करना पत्रकार का धर्म है। जनता उसे देखे और तय करे कि क्या सही है क्या गलत।

बीजेपी के खेमे से एक और खबर आई कि लाल कृष्ण आडवाणी बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। ये बहुत समय से अपेक्षित खबर थी। इसके पीछे कुछ दूसरे कारण हो सकते हैं लेकिन, जैसा नेशनल मीडिया बता रहा है कि मोदी से डरकर आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया। ये समझ में नहीं आया। मैं मानता हूं और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मोदी की अपील भी देख चुका हूं। गुजरात के बाहर मोदी के विकास राग को सुनकर लोग खुश हो सकते हैं। लेकिन, गुजरात के बाहर के किसी राज्य में मोदी कभी भी इतने बड़े नेता नहीं हो पाए कि वो लाल कृष्ण आडवाणी की बराबरी कर पाएं।

इस खबर पर विनोद दुआ खबरदार कार्यक्रम में बार-बार दर्शकों को यही बताते रहे कि हम आपको बता दें कि लाल कृष्ण आडवाणी अभी प्रधानमंत्री बने नहीं हैं उन्हें सिर्फ अपनी पार्टी की ओर से उम्मीदवार बनाया गया है। अब ये क्या बताने की जरूरत है कि कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार में बीजेपी का नेता प्रधानमंत्री कैसे हो सकता है। न तो मध्यावधि चुनाव हुए और न ही आडवाणी ने कांग्रेस ज्वाइन किया। साथ ही ये भी कि आडवाणी अभी से भगवान का आशीर्वाद मांगने लगे हैं। दुआ बार-बार ये भी कह रहे थे कि आडवाणी इस अंदाज में लोगों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं जैसे वो प्रधानमंत्री बन गए हों। अब मुझे समझ में नहीं आता कि एक नेता जो देश का उप प्रधानमंत्री रह चुका हो। देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता हो उसकी क्षमता पर इस तरह से संदेह करना क्या किसी पार्टी के प्रवक्ता जैसा व्यवहार नहीं है।

Sunday, December 02, 2007

‘आजा नच ले’, इट्स अ बेस्ट एवर इंडियन म्यूजिकल ड्रामा

दस साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों और डेलीगेसीज में लड़कों के कमरे में (शायद देश भर के छात्रावासों के कमरों में) एक साथ 3 पोस्टर नजर आते थे। ब्लैक एंड व्हाइट पोस्टर मधुबाला का, जिसमें मधुबाला के माथे से एक लट आंखों से थोड़ा बगल से होकर लटक रही होती थी। उससे सटकर एक कलर्ड पोस्टर होता था। काफी कुछ मधुबाला जैसी दिखने वाली माधुरी दीक्षित का। माधुरी दीक्षित का अंदाज भी काफी कुछ मधुबाला जैसा ही होता था। और, उसी से सटा नीली आंखों वाली विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय का। मधुबाला एक पीढ़ी पुरानी, माधुरी उस दौर की और ऐश्वर्या आने वाली पीढ़ी की सबसे खूबसूरत और सबसे ज्यादा लोगों की पसंद वाली हीरोइन की पहचान जैसी थीं।

नंबर एक अभिनेत्री माधुरी ने आज से 5 साल पहले जब संजय लीला भंसाली की देवदास में ऐश्वर्या के साथ काम किया तो, दोनों के एक साथ थिरकने वाले गाने पर पूरा देश थिरका था। साथ ही एक चर्चा ये भी चल पड़ी थी कि माधुरी दीक्षित की नंबर वन की विरासत को संभालने के लिए ऐश्वर्या पूरी तरह तैयार हैं। फिर माधुरी ने परिवार बसा लिया। पति के साथ न्यूयॉर्क में बस गईं। 5 सालों तक मीडिया, मायानगरी से किनारा सा कर लिया। दो प्यारे बच्चों की मां बन गईं और लगा कि माधुरी का दौर पूरी तरह खत्म हो गया। लेकिन, कमाल ये था कि इन 5 सालों में कई प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों के आने के बावजूद एक भी अभिनेत्री ऐसी नहीं आई जिसे बिना किसी बहस के नंबर एक कहा जा सके।

और, माधुरी दीक्षित की 5 साल बाद बड़े परदे पर वापसी के साथ दो बातें हो गईं। एक तो ये कि देश की नंबर वन हीरोइन की सीट खाली नहीं है। माधुरी से ये ताज छीनने के लिए दूसरी अभिनेत्रियों को अभी बहुत दम लगाना पड़ेगा। दूसरी ये कि हॉलीवुड से मुकाबला करते बॉलीवुड में आने वाले दिनों में बिना गाने की सफल फिल्में बनाना अभी बहुत दूर की कौड़ी है। मनमोहिनी मुस्कान वाली माधुरी की ‘आजा नचले’ भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे अच्छी म्यूजिकल ड्रामा फिल्म बन गई है।

मेरे नजरिए से ‘आजा नचले’ के बारे में मैं पहले साफ कर दूं कि ये फिल्म अभिनय के लिहाज से बहुत अच्छी नहीं है। ऐसा नहीं है कि अभिनय करने वाले कमजोर है। फिल्म की कहानी ही कुछ ऐसी है। हां, अच्छा हुआ कि माधुरी को नृत्य सिखाने वाले गुरुजी फिल्म में बहुत कम देर के लिए थे। वरना फिल्म की कलेक्शन बरबाद करने में उनका योगदान बढ़ जाता। गुरुजी के दुनिया से ऊपर उठने के बाद ही फिल्म चलनी (दर्शकों को अच्छी लगनी) शुरू हुई। इरफान जैसे अभिनेता के पास फिल्म में करने के लिए कुछ खास नहीं है। रणवीर-विनय ने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है। लेकिन, भेजा फ्राई से आगे निकलने के लिए किसी बहुत बेहतरीन स्क्रिप्ट की उन्हें सख्त दरकार होगी। कोंकणासेन ने भी अपने हिस्से का बेहतर काम किया है।

‘आजा नचले’ मैं उन लोगों को खास तौर पर देखने को कहूंगा जो, माधुरी, माधुरी की मुस्कान, माधुरी के नृत्य के चाहने वाले हैं। पूरी फिल्म माधुरी के आसपास ही घूमती है। माधुरी का हर अंदाज कुछ खास दिखता है। एकाध नजदीक के दृश्यों को छोड़ दें तो, ये समझ पाना मुश्किल होगा कि ये 2 बच्चों की 42 साल की माधुरी है। और, माधुरी थिरकना शुरू करती हैं तो, शायद किसी के लिए भी ये याद करना असंभव सा हो जाता होगा।

खैर, मैं फिर से लौटता हूं आज के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों और डेलीगेसीज में लड़कों के कमरे में। अलग-अलग कमरे में मधुबाला, माधुरी जमी हैं। लेकिन, ऐश्वर्या की फोटो हर दूसरे कमरे में बदल रही है। कहीं ऐश्वर्या की जगह प्रीती जिंटा हैं, कहीं करीना कपूर, कहीं सुष्मिता सेन, कहीं लारा दत्ता, कहीं, प्रियंका चोपड़ा, कहीं बिपाशा बसु, कहीं ... । लिस्ट लंबी है। अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन महानायक हो गए। इस बेरहम इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा समय तक नंबर एक अभिनेता बने रह गए। अभी भी नए जमाने के अभिनेताओं की तुलना उन्हीं के बाद शुरू होती है। फिर भी, शाहरुख खान ने अब नंबर एक का खिताब लगभग छीन ही लिया है। अब सवाल ये है कि क्या अभिनेत्रियों में एक भी अभिनेत्री नहीं है जो, 5 साल खाली रहने के बाद भी नंबर एक अभिनेत्री का खिताब ले सके। आप भी ‘आजा नचले’ देखकर आइए। फिर बात करते हैं।

Saturday, December 01, 2007

धन्य हो सेक्युलर इंडिया की धर्मनिरपेक्षता के पहरेदारों!

तसलीमा नसरीन ने सीपीएम नेता गुरुदास दास गुप्ता को फोन करके कह दिया कि वो अपनी विवादित किताब द्विखंडिता से वो लाइनें हटा देंगी जो, मुस्लिम समुदाय के लोगों को आहत कर रही हैं। गुरुदास दास गुप्ता पूरे जोश के साथ टीवी चैनलों पर प्रकट हुए और कहा कि तसलीमा का ये कृत्य समाज के हित में है। जिन लोगों को तसलीमा की उन लाइनों से कष्ट पहुंचा था। अब उन्हें शांति मिली है। कोलकाता में अब शांति हो जाएगी। दरअसल कोलकाता में शांति की बात कहते समय गुरुदास दास गुप्ता के चेहरे पर जिस तरह के संतोष का भाव था उससे, साफ देखा जा सकता था कि लेफ्ट के नेता अपने गढ़ (पश्चिम बंगाल), वोट बैंक (मुस्लिम) और धर्मनिरपेक्षता (अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण) की रक्षा करने में सफल होते दिख रहे हैं।

कई मुस्लिम संगठनों ने भी तसलीमा के फैसले को उचित बताया और कहा कि अब शांति हो जाएगी। जमायते उलेमा हिंद के मोहम्मद मदनी भी खुश हैं। मदनी ने कहा कि अब तसलीमा कहीं भी रह सकती हैं। जैसे भारत उनकी जागीर हो वो, उसके जागीरदार और तसलीमा उनकी गुनहगार प्रजा। ऐसी गुनहगार प्रजा जिसने गुनाह कबूल कर लिया हो। और, उसे उसके गुनाह के लिए बड़े दिल के राजा ने माफ कर दिया हो।

एक और बयान आया MIM के सांसद असादुद्दीन ओवैसी का। शायद ये अकेला बयान था जो, ईमानदार था। ओवैसी के कृत्य जायज-नाजायज हो सकते हैं। लेकिन, तसलीमा के किताब से लाइनें हटाने के फैसले पर ओवैसी का बयान ईमानदार था। ओवैसी ने कहा- तसलीमा मौकापरस्त हैं। वो सिर्फ इसलिए पन्ने हटाने पर राजी हुई क्योंकि, तसलीमा को लगने लगा था कि भारत के दरवाजे उनके लिए बंद होने वाले हैं। ओवैसी का मानना है कि तसलीमा भविष्य में फिर ऐसे बयान दे सकती हैं जिससे देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ जाए। अब क्या ये देश ओवैसी लोगों की बपौती है कि तसलीमा को देश का दरवाजा बंद होता दिख रहा था।

तसलीमा ने अपनी किताब द्विखंडिता से चार विवादित पन्ने हटा दिए। अब तसलीमा किसी की भावना को आहत नहीं करना चाहती हैं। ये वही तसलीमा हैं जिन्हें दुनिया भर में अभिव्यक्ति की आजादी का प्रतिनिधि माना जाता है। और, भारत को दुनिया के धर्मनिरपेक्ष देशों का नेता। लेकिन, कांग्रेस सरकार और लेफ्ट के नेताओं के तसलीमा के मामले पर दोगले रवैये ने इन लोगों की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की कलई खोलकर रख दी है। तसलीमा ने किताब के विवादित पन्ने हटाने के साथ ही धर्मनिरपेक्ष भारत पर जोरदार तमाचा जड़ दिया। तसलीमा ने कहा मुझे समझौता करना पड़ रहा है। मैंने वो किया जो, मैंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं किया था।

हाल ये है कि बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठिये मजे से पश्चिम बंगाल में वहां की नागरिकता लेकर रह रहे हैं। बांग्लादेश में रहने वाले अपने भाई-बंधुओं से मिलने के लिए ये घुसपैठिये निरंतर बाड़ फांदकर आते-जाते रहते हैं। इनके पास बातचीत करने के लिए बांग्लादेश का मोबाइल नंबर होता है। इनके पास पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से जारी राशन कार्ड होता है। और, इतने से लेफ्ट सरकार के खिलाफ हर उठने वाली आवाज को दबाने के लिए हर कर्म-कुकर्म करने का इनको लाइसेंस मिल जाता है। वैसे मुसलमानों के हितों पर हमेशा सजग दिखने वाली लेफ्ट सरकार तसलीमा की नागरिकता के खुले विरोध में है।

ये महज संयोग तो नहीं हो सकता न कि कोलकाता में तसलीमा की खिलाफत में हिंसा उसी समय हुई जब, नंदीग्राम में सुनियोजित सरकारी (लेफ्ट कैडर प्रायोजित) नरसंहार के खिलाफ पूरा देश एक स्वर से आवाज उठा रहा था। 15 सालों बाद कोलकाता में इतना हिंसक विरोध हुआ कि कर्फ्यू लगाना पड़ा। कोलकाता के हर एक गली-मुहल्ले में लाल सलाम का कब्जा जैसा है। ऐसा कब्जा कि लेफ्ट कैडर की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। कुछ लोग ये भी कह रहे हैं कि कोलकाता में हिंसा करने वाले लोग लेफ्ट के समर्थक ही थे।

कोलकाता में जिस दिन हिंसा हुई थी। टीवी चैनलों पर काफी समय तक ये साफ नहीं हो पा रहा था कि ये सब नंदीग्राम के विरोध में हो रहा है। रिजवानुर की मौत के विरोध में या फिर तसलीमा को निकाल बाहर कर देने के समर्थन में। कर्फ्यू लग गया तो, साफ हुआ कि ये सब तसलीमा के विरोध में हो रहा था। धर्मनिरपेक्ष, मुस्लिम हितों की रक्षक लेफ्ट सरकार ने तसलीमा को बंगाल से निकाल बाहर करने में कोई देरी नहीं की। केंद्र में बैठी दूसरी धर्मनिरपेक्ष सरकार को भी तसलीमा की जान बचाने के लिए सांप्रदायिक भाजपा! के शासन वाला राज्य राजस्थान ही मिला।

राजनीति का मौका मिल गया था लगे हाथ दो और सांप्रदायिक भाजपाई सरकारों! ने तसलीमा का सुरक्षा का जिम्मा मांगा। लेकिन, दो धर्मनिरपेक्ष (कांग्रेस और कॉमरेड) सरकारों को ये कैसे पचता कि जिनको वो सांप्रदायिक बताते रहे हैं उसे तसलीमा की सुरक्षा का जिम्मा देकर उन्हें धर्मनिरपेक्ष बनने का मौका कैसे दे देते।

खैर, तसलीमा के बयान के बाद पिछले कई दिनों से तसलीमा की जान किसी तरह बचाए घूमती खुफियां एजेंसियों को भी थोड़ी राहत मिली होगी। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा- जो, भी शांति कायम करने में मदद करे उस कदम का स्वागत है। दरअसल तसलीमा को मुस्लिम कट्टरपंथियों से सुरक्षित रखना जिस तरह से सरकार के लिए मुश्किल हो रहा था उसमें निश्चित तौर पर कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के लिए इससे राहत की बात क्या हो सकती है।

वैसे कांग्रेस के नेता इस बात पर बोलने से बच रहे हैं कि सरकारों का दुमछल्ला बन चुकी केंद्रीय खुफिया एजेंसी सीबीआई ने जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट कैसे दे दी। सीबीआई कुछ इस तरह से काम कर रही है जैसे उसे बनाया ही गया है नेहरू-गांधी परिवार और उनके दरबारियों को हर मुश्किल से बाहर निकालने के लिए। क्वात्रोची के मामले में सीबीआई के कृत्य तो अब देश के ज्यादातर लोगों को पता चल चुका है।

एक बार फिर सीबीआई ने दिखा दिया कि ये एक ऐसी एजेंसी बन चुकी है जो, किसी भी मामले को बरसों तक खींच सकती है। और, उसके बाद सरकार, सत्ता में बैठे लोगों के मनमुताबिक, फैसले सुना देती है। सीबीआई इतने सालों में उस जसबीर सिंह को नहीं खोज पाई जिसे सीएनएन-आईबीएन ने खोज निकाला। और, सिर्फ खोज ही नहीं निकाला। जसबीर का बयान भी टीवी पर चला कि उससे सीबीआई ने कभी कोई पूछताछ नहीं। ये वही जसबीर सिंह है जो, जगदीश टाइटलर के खिलाफ सिखों के नरसंहार का मुख्य गवाह है। अब सीबीआई चैनल से ही जसबीर सिंह को खोजने के लिए मदद मांग रही है। अब क्या कोई तुक बनता है इस एजेंसी को बनाए रखने का।

सवाल तसलीमा की किताब से 4 पन्ने निकलने और जगदीश टाइटलर को सीबीआई की क्लीन चिट मिलने भर का नहीं है। सवाल ये है कि इस तरह भारत किस धर्मनिरपेक्षता का दावा कर सकता है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट किस तरह की धर्मनिरपेक्षता की रक्षा में जुटे हैं। क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ सत्ता बचाने तक की बची रह पाती है।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...