Friday, November 09, 2007

क्या आपको कल्याण सिंह-कलराज मिश्र याद हैं?

जी हां, मैं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की ही बात कर रहा हूं। 1991 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी के नेता कल्याण सिंह। वही हर बात पर, सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा लगाने वाले कल्याण सिंह। क्या आपको पता है कि कल्याण सिंह अब क्या कर रहे हैं।
कलराज मिश्र, जी हां, वही जो भाजपा में संगठन का काम संभालने के उस्ताद माने जाते थे। लेकिन, कभी भी आजतक एक बार भी विधानसभा का चुनाव नहीं जीत पाए, विधानपरिषद और राज्यसभा के जरिए ही सत्ता का सुख लेते रहे। कलराज मिश्र और कल्याण सिंह को आपने कितने दिनों-महीनों से किसी टीवी चैनल या फिर अखबार में कोई बयानबाजी करते नहीं देखा। शायद महीनों से नहीं। अखबारों के स्थानीय संस्करणों में छपने को छोड़ दे तो।
अब सवाल ये है कि मैं आज अचानक इन दोनों नेताओं की चर्चा क्यों कर रहा हूं, जब मीडिया, इनकी अपनी पार्टी के कार्यकर्ता और जनता भी इन्हें नहीं पूछ रही। दरअसल इसी सवाल की वजह से मुझे इन दोनों नेताओं की याद आ गई।
6 दिसंबर 1992 को जब विवादित बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद कल्याण सिंह सहित देश के 4 राज्यों की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गईं। उसके बाद भाजपा नेताओं के बीच सत्ता पाने के खेल में जो केल शुरू हुआ वही आज, वजह बन गया है कि इन दोनों नेताओं को याद करना पड़ रहा है कि वो कहां हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा के बारे में मुझे जितनी जानकारी है- कल्याण सिंह और कलराज मिश्र की ही कार्यकुशलता का नतीजा था कि राज्य में बीजेपी राम लहर का फायदा उठाने में कामयाब हो पाई।
लेकिन, एक बार जब सत्ता का स्वाद इन्हें लगा तो, इन दोनों नेताओं के बीच शुरू हुई अहम की लड़ाई ने बीजेपी का बेड़ा गर्क कर दिया। अब तो, हाल ये है कि भाजपा कार्यालय पर इन दोनों नेताओं के आने पर भाजपा की नई पांत के नेता इन पर ध्यान देना भी मुनासिब नहीं समझते। लेकिन, अभी भी सच्चाई यही है कि इन दोनों नेताओं के भाजपा में किनारे पर होने की ही वजह है कि राज्य में भाजपा इतना किनारे हो गई है कि तीसरे नंबर की एक लगातार कमजोर होती पार्टी भर बन गई है।
भाजपा कार्यकर्ताओं को न तो, संगठन के किसी नेता पर भरोसा रह गया है। और, न ही राज्य में उन्हें कोई नेता नजर आ रहा है जो, मुख्यमंत्री पद के लिए मुलायम, मायावती के सामने दम से खड़ा हो सके। आज राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं जो, कल्याण सिंह की सरकार में शिक्षा मंत्री थे तो, रमापति राम त्रिपाठी प्रदेश अध्यक्ष हैं जो, कलराज मिश्र के प्रदेश अध्यक्ष रहते जिलाध्यक्ष से प्रदेश महामंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे।
राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं लेकिन, अभी भी उत्तर प्रदेश के किसी भी विधानसभा क्षेत्र में 5 हजार लोगों की भी भीड़ अपने अकेले के दम पर नहीं जुटा पाते हैं। वोट कितना दिला पाते हैं इसका अंदाजा तो, विधानसभा के इस चुनाव से सबको लग ही गया होगा। कल्याण सिंह और कलराज मिश्र की जोड़ी की जमीनी मजबूती का ही कमाल था कि भारत मां की तीन धरोहर – अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के लिए भाजपा कार्यकर्ता पलक पांवड़े बिछाए बैठे रहते थे। अब कोई इनको भी नहीं पूछ रहा। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाला कोई है ही नहीं।
इन दोनों ने अपने अहम की लड़ाई में खुद के राजनीतिक करियर के साथ ही भाजपा की भी जमीन खिसका दी। संघ के जातिवाद को खत्म करने के आदर्शों पर सामाजिक जीवन का काम शुरू करने वाले कल्याण लोधों के और कलराज मिश्र सिर्फ ब्राह्मणों के नेता बनने की कोशिश करने लगे। इस कोशिश में ये कितना सफल हुए इसके लिए बस ये मुहावरा ही काफी है कि – धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।
बीच में कल्याण सिंह कुसुम राय के प्रेमपाश (आरोप ऐसे ही लगते रहे हैं) में ऐसे फंसे कि संघ, भाजपा और अटल बिहारी उन्हें दागदार नजर आने लगे। राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर कल्याण सिंह ने मुलायम से भी हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया। हिंदुत्व के पुरोधा को जब सिर्फ 4 सीटें मिलीं तो, उनका दिमाग ठिकाने आया लेकिन, कुसुम राय की क्रांति ऐसी कि भाजपा में कुसुम को साथ लाने की शर्त पर ही लौटे।
इस विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा में संगठन मंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे नागेंद्र नाथ ने नए लोगों को चुनाव में उतारकर प्रयोग करने की कोशिश की। नागेंद्र नाथ उत्तर प्रदेश और बिहार में विद्यार्थी परिषद के मुखिया रह चुके हैं और उन्होंने ABVP को लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस और गोरखपुर विश्वविद्यालय में परिषद को स्थापित करने के लिए कई नए प्रयोग किए थे। उनके समय में तैयार हुआ विद्यार्थी परिषद का नेटवर्क अब उत्तर प्रदेश भाजपा में काम कर रहा है। नागेंद्र नाथ ने इस नौजवान टीम के 20 से ज्यादा लोगों को विधानसभा में टिकट दिया।
लेकिन, चुनाव में उत्तर प्रदेश भाजपा के पास न तो कोई मजबूत चेहरा था। न ही संगठन को संजोने वाला कोई नेता। उसकी वजह से विश्वविद्यालय की राजनीति से विधानसभा की राजनीति करने पहुंचे नेताओं को कोई ढंग का आधार ही नहीं मिल पाया। अब सवाल ये है कि मैं कल्याण-कलराज को याद क्यों कर रहा हूं। भाजपा के मजबूत होने का आधार क्यों ढूंढ़ रहा हूं।
दरअसल हम जैसे लोग जो, उत्तर प्रदेश को मायावती के सत्ता में आने के बाद सुधरता हुआ देख रहे थे। आनदंसेन यादव जैसे प्रकरणों के बाद हम जैसे लोगों को लग रहा है कि प्रदेश में मुलायम, मायावती के अलावा तीसरा कोई ध्रुव न होने से ये नेता निरंकुश हो गए हैं। और, इस बात से तो शायद ही किसी को संदेह होगा कि कल्याण सिंह से इमानदार मुख्यमंत्री शायद ही कोई हो। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते अपराधी और भ्रष्टाचारियों की तो प्रदेश में सिर उठाने की हिम्मत नहीं ही पड़ती।

2 comments:

  1. कई हफ्तों के बाद आज घर-दफ्तर वापस आने पर आपके चिट्ठे के कई लेख पढ गया. आप सशक्त लिखते हैं. आपका विश्लेषण सटीक है.

    लिखते रहें. हर पेराग्राफ के बाद एक खाली पंक्ति जोड दें तो पठनीयता बढ जायगी -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
    इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?

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  2. पहली बार आपके चिट्ठे पर आया हूं। विचारोत्तेजक लेखन है आपका । बधाई। अक्सर चक्कर लगा करेगा।

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