Wednesday, August 31, 2016

पुरुषवादी सोच है किराए की कोख में अपना बच्चा?

केंद्र सरकार को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि लंबे समय से बिना किसी नियंत्रण के चल रहे किराए की कोख के बाजार को नियंत्रित करने के लिए एक कानून बनाने की कोशिश की है। हालांकि, कानून बनने से पहले ही किराए की कोख के कानून पर ढेर सारे मोर्चे खुल गए हैं। हालांकि, सरकार ने बड़ी मशक्कत करके काफी सावधानी से सरोगेसी पर कानून बनाने की कोशिश की है। लेकिन, इसपर पार्टी के भीतर भी दोफाड़ है। खासकर इस बात पर बहुत ज्यादा विवाद है कि अगर कोई गोद ले सकता है, तो उसे किराए की कोख की इजाजत क्यों नहीं होगी। प्रगतिशील जमात सिंगल पैरेंट और एलजीबीटी समुदाय के लोगों के लिए भी सरोगेसी कानूनी करने की मांग कर रही है। एक बहस ये भी खड़ी हो रही है कि आखिर जिस महिला का शरीर है, उसकी कोख है, उसके अलावा सरकार कौन होती है, ये तय करने वाली। बहस है कि किसी में भी ममत्व और बापत्व जग सकता है। ऐसे में विज्ञान ने अगर ऐसी तरक्की कर ली है कि कोई अपना शुक्राणु के जरिये किसी दूसरे की कोख में अपना बच्चा पैदा कर सकता है और अगर उस कोख को देने वाली को एतराज नहीं है, तो फिर सरकार को क्या बीच में आना चाहिए। कई लोग तो विदेशियों और भारत के अमीरों से किराए की कोख के बदले में मिलने वाले धन से गरीबी खत्म होने तक की शानदार दलीलें दे रहे हैं। लेकिन, इन सबमें एक बड़ा सवाल छूट रहा है। ये सारी चिंता किसी के अपना बच्चा पैदा करने की इच्छा की तो हो रही है। लेकिन, कोई ये सवाल नहीं खड़ा कर रहा है कि आखिर जिस बच्चे के सिर से मां-बाप का साया हट गया हो। वो क्या करे? वो क्या मां-बाप पैदा कर सकता है। कमाल है कि हम पहले से सभ्य होने की बात कर रहे हैं। लेकिन, इस सभ्य होने में धरती पर जो आया नहीं है, इसके लिए तो कानून पर बहस हो रही है। हां, जो पहले से ही धरती पर है और जिसकी किस्मत ने दगा दिया और मां-बाप नहीं रहे। उनके लिए हमारा ये सभ्य समाज शायद ही संवेदनशील होता दिख रहा हो।

अगले 10 महीने बाद किराए की कोख का कानून लागू हो जाएगा, तो हो सकता है कि फिर से बच्चों को गोद लेने वालों की संख्या कुछ बढ़ जाए। लेकिन, इसके पहले तक किसी तरह का कोई कानून न होने का दुष्परिणाम ये है कि देश में अनाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। न सरकार और न ही तथाकथित तौर पर पहले से ज्यादा सभ्य हुआ हमारा समाज। सूचना के अधिकार के तहत सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स एजेंसी से आई जानकारी बताती है कि पिछले पांच सालों में गोद लेने वालों की संख्या आधी रह गई है। चाहे वो देश में गोद लेने के इच्छुक रहे हों या फिर विदेशी। महिला एवं बाल विकास मंत्री ने इस पर गहरी चिंता जताते हुए गोद लेने के कानूनों को काफी सरल कर दिया। हालांकि, गोद लेने वालों में सिंगल पैरेंट ज्यादातर सेलिब्रिटी ही नजर आते हैं। उस देश में जहां हर साल लगभग पचास हजार बच्चे अनाथ हो जाते हों और उनमें से बमुश्किल 800 से 1000 बच्चों को गोद लिया जाता हो। किराए की कोख का कानून बनने पर मचने वाला हल्ला थोड़ा चौंकाता है। बेटी हो या बेटा बच्चा एक ही अच्छा के नारे को लागू करने वाला सभ्य भारतीय समाज अनाथ बच्चों को गोद लेने की बहस की बजाए किराए की कोख में बच्चा पैदा करने के अधिकार की बहस कर रहा है। कमाल की बात ये है कि अभी तक देश में सरोगेसी यानी किराए की कोख का कोई कानून ही नहीं था। उसकी वजह से दुनिया भर के किसी भी वजह से अपना बच्चा न कर पाने वाले विदेशी दंपतियों के लिए सबसे बेहतर कोख का बाजार भारत ही रहा है। यूके, आयरलैंड, डेनमार्क, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, बेल्जियम, मैक्सिको, थाइलैंड और नेपाल में पहले से ही कमर्शियल सरोगेसी प्रतिबंधित है। इसलिए इन देशों के लोग सीधे भारत का रुख कर रहे हैं। हालांकि, अब भारत भी कमर्शियल सरोगेसी प्रतिबंधित करने वाले देशों में शामिल हो गया है। लेकिन, भारत में अभी सरोगेसी हो सकती है। लेकिन, वो विदेशियों के लिए और एलजीबीटी, सिंगल पैरेंट के लिए पूरी तरह से प्रतिबंधित है। हां, सरकार ने ऐसे दंपतियों के लिए जो किसी स्वास्थ्य वजहों से अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते, उन्हें इस बात की इजाजत दी है कि वो किराए की कोख से अपना बच्चा पैदा कर सकते हैं। उसका भी बाजार न खड़ा हो जाए इसके लिए सरकार ने ढेर सारे नियम लगाए हैं। बच्चा किसी नजदीकी रिश्तेदार की कोख से ही पैदा सकता है। हालांकि, सरकार से ये संकेत साफ मिल रहे हैं कि नजदीकी रिश्तेदार की परिभाषा को विस्तार दिया जाएगा। और ये ठीक भी है।

प्रगतिशीलता और विकसित समाज की बात करने वाले भूल जाते हैं कि फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, बुल्गेरिया और स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देशों में सरोगेसी पूरी तरह से प्रतिबंधित है। इसलिए भारत जैसे देश में जो पहले से ही बढ़ती आबादी और ढेर सारे अनाथ बच्चों वाला देश है, वहां पर किराए की कोख से अपना बच्चा चाहने की बात शायद मानवता पर दूसरी बहस की जरूरत बताती है। विदेशियों को या फिर किसी भी गैरभारतीय को भारत आकर किसी की कोख से बच्चा लेकर जाना किस तरह की सभ्यता की ओर ले जा रहा है। बार-बार ये दलील दी जाती है कि गरीब महिलाओं के लिए अपनी जरूरत भर के पैसे कमाने का एक जरिया था, जो सरकार ने इस कानून के जरिए बंद कर दिया। नियंत्रित बाजार ज्यादातर मामलों में जरूरी और बेहतरी करने वाला होता है। लेकिन, किराए की कोख के बाजार की वकालत और भारत जैसे देश की छवि कुछ ऐसे कर देना कि यहां की गरीब महिलाएं अपनी कोख बेचकर जरूरत भर का कमा पा रही है। पता नहीं, इसे कैसे प्रगतिशीलता कहा जा सकता है। और ये अपने ही शुक्राणु से पैदा हुआ बच्चा पाने की चाहत पुरुषवादी मानसिकता का चरम ही तो है। जहां महिला तो अपने पति के शुक्राणु से पैदा बच्चे को अपना मान ले। लेकिन, पुरुष किसी भी बच्चे को अपनाकर उसे अपने बच्चे का दर्जा देने से बचना चाहता है। इसलिए मुझे लगता है कि एक बेहतर कानून बन रहा है। जरूरत हो तो इसमें कुछ नियम-शर्तों में ढील दी जाए। लेकिन, किराए की कोख के बाजार को महिमामंडित करना न तो सभ्य समाज के हक में है, न महिलाओं के और न ही देश के। और सबसे बड़ा सवाल ये कि अनाथ होते बच्चों को गोद लेने में आई कमी शायद इस कानून के बनने के बाद कुछ बेहतर हो। इसलिए किराए की कोख के कानून के बनने और इस बाजार के नियंत्रित होने का स्वागत कीजिए। हां, जो जरूरी है, वो संशोधन होना चाहिए और सरकार भी इसके लिए तैयार दिख रही है। मानवता का स्तर ऊंचा उठाने में मदद कीजिए। अनाथ बच्चों की चिंता कीजिए। बेटी हो या बेटा बच्चा एक ही अच्छा से आगे बढ़िए। अगर नहीं है अपना बच्चा तो एक अनाथ बच्चे के सिर पर हाथ रखिए। समाज में जिन महिलाओं को किसी वजह से मातृत्व सुख नहीं मिल सकता, उनके प्रति नजरिया सुधारने का भी एक मौका है ये किराए की कोख का कानून।

Saturday, August 27, 2016

बेटी हो या बेटा, खिलाड़ी शानदार हैं, दरअसल इस देश में सिस्टम बिगड़ा है

योगेश्वर दत्त भी बिना सोना-चांदी जीते निकल लिए हैं। अब तो हिंदुस्तान के बेटों की इज्जत बचना नामुमकिन है। पहले भी कहां बची थी। बेटों की बेइज्जती जाने-अनजाने लगभग पूरा का पूरा हिंदुस्तान बेटियों की इज्जत बढ़ाते कर रहा था। व्हाट्सएप पर अब नारी सशक्तिकरण के कुछ और नए चुटकुले, जुमले ईजान होंगे। लेकिन, सवाल क्या इस देश में खेल में बेटी-बेटा के मुकाबले का है। क्योंकि, मुझे तो लगता है कि बेटी हो या बेटा, खेल के मैदान में मजबूत होने के लिए गैर खिलाड़ी खेल संघों के धुरंधर, जमे-जमाए कोचों और सरकारी व्यवस्था से सबका मुकाबला होता है। उस कठिन मुकाबले से जीतकर बाहर निकलने वाले आपको दिख जाते हैं। दीपा कर्माकर की आज पूरे देश में चर्चा है। लेकिन, दीपा कर्मकार के कोच बता रहे हैं कि कैसे एक दूसरे गैरजिम्नास्ट कोच ने दीपा का भविष्य खत्म करने की पूरी योजना तैयार कर ली थी। दीपा के कोच बिशेस्वर नंदी ने 9 फरवरी 2012 को त्रिपुरा खेल संघ के सचिव को लिखी एक चिट्ठी में दीपा के खिलाफ की जा रही साजिश के बारे में लिखा था। कमाल की बात ये कि दीपा के खिलाफ ये साजिश करने का आरोप जिम्नास्टिक फेडरेशन ऑफ इंडिया के जीवन पर्यंत मुख्य कोच गुरदयाल सिंह बावा पर है। सोचिए ये साजिश सफल हो जाती, तो भारतीय प्रोदुनोवा की सफलता की कहानी दुनिया को कतई न पता चलती। ये एक साजिश सफल नहीं हुई। लेकिन, भारतीय खेलों में ऐसी हजारों साजिशें सफल हो जाती हैं। और बेटियों को कोख में मारने से जितने पदक कम हुए हैं, उससे कहीं ज्यादा ऐसी साजिशों के जाल में फंसकर खिलाड़ियों- बेटा हो या बेटी- की खेलमृत्यु हो जाती है। अच्छा हुआ कि दीपा कर्मकार, पी वी सिंधु और साक्षी मलिक ने इस देश को बहुत सलीके से ये अहसास कराया कि खेल और भी हैं क्रिकेट के सिवाय। ऐसा नहीं है कि इससे पहले ये अहसास इस देश को कभी हुआ ही नहीं। पीटी ऊषा से शुरू हुआ ये अहसास इस देश में लगातार होने लगा है। अच्छा है कि ये अहसास बढ़ने लगा है। दीपा कर्मकार, पी वी सिंधु और साक्षी मलिक ने वो कर दिखाया, जो कोई नहीं कर सका था। कोई नहीं मतलब- कोई नहीं। न देश का कोई बेटा, न बेटी। बेटियों को लेकर इस देश में बहुत से पूर्वाग्रह हैं और इसीलिए जब बेटी ऐसे मेडल के साथ चमकती दिखती है, तो मेडल अनमोल हो जाता है। और इस बार बेटियों ने सचमुच भारतीय खेल स्थितियों के लिहाज से चमत्कार जैसा कर दिखाया है। अच्छा है कि बेटियों ने ये चमत्कार किया है। लेकिन, खेल के मामले में हिंदुस्तान में बेटों की कहानी आम जीवन की बेटियों से खास अलग नहीं है। आपको लग रहा होगा, ये क्या तुलना मैं कर रहा हूं। क्रिकेट में नेताओं की दिलचस्पी और प्रभुत्व इतनी ज्यादा है कि देश की सर्वोच्च अदालत से लेकर आमजन तक खेल में सुधार मतलब क्रिकेट में सुधार मान लेते हैं और इसीलिए लगता है कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें लागू हो गईं, तो देश में खेल सुधर जाएगा। दरअसल ये मानना उसी तरह का है जैसे इस देश में क्रिकेट के अलावा कोई और खेल खेला ही नहीं जाता। इसीलिए और कहीं सुधार की भी जरूरत नहीं है।


अब जरा देखिए समाज में जैसे बेटियों के साथ ढेर सारे भेदभाव होते हैं। वैसे ही खेल में खिलाड़ियों को- बेटी हो या बेटा- कितनी तरह की मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। रियो ओलंपिक शुरू होने से पहले ही पहलवान नरसिंह यादव का डोप टोस्ट पॉजिटिव हुआ। इसका मतलब ये कि नरसिंह यादव ने प्रतिबंधित दवाई लेकर अपनी क्षमता बढ़ाने की कोशिश की। नरसिंह यादव के मामले में मीडिया रिपोर्ट्स के साथ खेल संघ से आ रही आवाजें भी यही बता रहीं थीं कि नरसिंह के साथ साजिश हुई है। नरसिंह यादव का मामला मीडिया में आया। सरकार, खेल मंत्री सब नरसिंह के समर्थन में थे। नरसिंह यादव ओलंपिक तक पहुंच गया। लेकिन, भारतीय खेल का तंत्र कितना बिगड़ा इसका अंदाजा लगाइए कि ओलंपिक तक पहुंच जाने के बाद भी नरसिंह अपना मुकाबला नहीं खेल सका। अपने वर्ग में नरसिंह यादव पदक के पक्के दावेदार के तौर पर देखा जा रहा था। दूसरा उदाहरण देखिए- शॉट पुटर इंदरजीत सिंह। इंदरजीत सिंह को भी रियो ओलंपिक में पदक के पक्के दावेदार के तौर पर देखा जा रहा था। इसकी पक्की बुनियाद थी। इंदरजीत ने 2015 में हुई एशियन एथलेटिक चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल किया था। पिछले साल दो मुकाबलों में इंदरजीत ने स्वर्ण पदक जीता है। इसीलिए इंदरजीत की ओलंपिक में पदक दावेदारी तगड़ी मानी जा रही थी। लेकिन, इंदरजीत खेल संघों के खिलाफ काफी मुखर रहा। अमेरिका प्रशिक्षण के लिए अपने कोच को ले जाने के लिए इंदरजीत को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। इंदरजीत खेल संघ और उसके तंत्र की खामियों को बार-बार इंगित करता रहता था। इंदरजीत ने कई बार खेलों में फैले भ्रष्टाचार की बात मंत्रालय तक पहुंचाई। इसीलिए इंदरजीत को पहले से ही अपने खिलाफ होने वाली साजिश का शक था। और वही हुआ। ओलंपिक से ठीक पहले 22 जून की टेस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई। नरसिंह यादव को सरकार और मीडिया से मिले समर्थन ने रियो तक पहुंचाया। लेकिन, रियो में खेलने से पहले ही उसे पटक दिया गया और इंदरजीत तो रियो तक भी नहीं पहुंच पाया। खेल संघों में बैठे ताकतवर लोगों ने पदक के दावेदार शॉट पुटर को लंगड़ी मार दी। इंदरजीत के खिलाफ ये साजिश है। इसे साबित करने के लिए ये एक तथ्य ही काफी है। 22 जून को इंदरजीत की टेस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आती है। जबकि, 29 जून की रिपोर्ट निगेटिव। कुल मिलाकर 28 अप्रैल से 11 जुलाई के बीच इंदरजीत का 6 बार टेस्ट लिया गया। इंदरजीत ओलंपिक के लिए करीब एक साल पहले ही क्वालीफाई कर गया था। ऐसे में सवाल ये उठता है कि उसे क्या जरूरत थी कि ओलंपिक के करीब एक महीने पहले वो प्रतिबंधित दवाओं का इस्तेमाल करके अपने भविष्य को दांव पर लगाता। 15 जुलाई 2016 को मुंबई में एक प्रेस कांफ्रेंस में इंदरजीत ने कहा था- किसी एथलीट को खत्म करने का एकमात्र तरीका ये है कि उसे डोप टेस्ट में फंसा दो। दिक्कत इस देश के बेटे या बेटी में नहीं है। दिक्कत देश के बिगड़े, भ्रष्ट तंत्र की है। मुकाबला हर बात में हम चीन से करते हैं। अमेरिकी बनना, दिखना चाहते हैं। ओलंपिक की पदक सूची हमें अहसास दिलाती है कि अमेरिका और चीन के तंत्र ने उन खिलाड़ियों के साथ छोटी-बड़ी साजिशें नहीं रचीं। प्रधानमंत्री जी आप फिर मन की बात करेंगे। निवेदन है, इस बार मेरे और करोड़ों देशवासियों के मन की बात बोलिए। बोलिए कि किसी खिलाड़ी के साथ साजिश न होगी। और बोलने के साथ साजिश करने वालों के खिलाफ कुछ कर भी दीजिए। 

Thursday, August 25, 2016

गैर जाटव वोटों के लिए बीजेपी इस “आरक्षण” के खिलाफ है

लोकसभा चुनावों के पहले दिल्ली में यूपी भवन में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने एक कार्यकर्ता को पैर छूने से रोका, तो उस भाजपा कार्यकर्ता ने कहा- आप ब्राह्मण हैं और हमारे अध्यक्ष भी। लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने जवाब दिया- मैं हिंदू हूं, बस। उस समय लोकसभा का चुनाव चढ़ाव पर था और किसी को ये कल्पना भी नहीं थी कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में इस तरह का चमत्कार करने जा रही है। लगभग हर जिले में खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी रैली कर रहे थे। उस समय समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर कैसे नरेंद्र मोदी और तब के उत्तर प्रदेश के प्रभारी अमित शाह को ये भरोसा है कि उत्तर प्रदेश में सभी जातियों के लोग कमल के फूल पर मुहर लगाने जा रहे हैं। दरअसल, भारतीय जनता पार्टी ने गैर जाटव छोड़ सभी दलित जातियों और गैर यादव छोड़ सभी पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की मुहिम चुपचाप चला रखी थी। यही वजह रही कि जब उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित तौर पर बयालीस प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले। अब ये कोई रहस्य नहीं है कि मायावती की अपनी जाति के लोगों को छोड़कर काफी दलितों और मुलायम सिंह यादव की जाति के लोगों को छोड़कर काफी पिछड़ों ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लोकसभा में मतदान किया। यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी किसी भी हाल में लोकसभा 2014 में साथ आई दूसरी दलित और पिछड़ी जातियों को किसी भी हाल में छूटने नहीं देना चाहती। गैर जाटव दलितों का भी भारतीय जनता पार्टी पर भरोसा बेहतर है। इसका उदाहरण देखने को तब मिला, जब पूरे प्रदेश में चालीस हजार सफाईकर्मियों की नौकरी निकली। आरक्षण व्यवस्था के आधार पर निकली सफाईकर्मियों की नौकरी में सबसे ज्यादा किसी का हक मारा जा रहा है, तो वो दलितों में खासकर वाल्मीकि समाज के लोगों का। और इनकी लड़ाई लड़ने के लिए आगे आए हैं यूपी बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और मेरठ से विधायक लक्ष्मीकांत बाजपेयी। बाजपेयी ने नगर विकास मंत्री आजम खान को चिट्ठी लिखकर सफाई कर्मचारियों की भर्ती में ढेर सारी विसंगतियां गिनाई हैं और इसे दूर करने को कहा है। बाजपेयी का कहना है कि सबसे पहले तो जो लोग पहले से लंबे समय से संविदा पर काम कर रहे हैं। उनका हक मारा जा रहा है। शासनादेश के मुताबिक, 18-40 साल के लोग ही इसमें आवेदन कर पाए हैं। आखिर जो लोग बरसों से ये काम कर रहे हैं और उनकी उम्र 40 साल से ज्यादा हो गई है, अब वो कहां जाएंगे। और लक्ष्मीकांत बाजपेयी एक गंभीर समस्या की तरफ भी इशारा करते हैं। वो कहते हैं कि सामान्य और पिछड़ी जातियों के लोग सरकारी नौकरी के लिए सफाईकर्मी बन जाएंगे। लेकिन, वो सफाई काम करने के बजाए वाल्मीकि समाज के लोगों को कम पैसे देकर उन्हीं से काम करवाएंगे और शोषण करेंगे।
ब्राह्मण नेता के रूप में स्थापित होने के बावजूद बाजपेयी खुद को हिंदू नेता कहलाना ही पसंद करते हैं। इसका लाभ उन्हें मेरठ में अपनी विधानसभा में तो मिलता ही है। प्रदेश अध्यक्ष रहते चमत्कारी सांसद संख्या जिताने का श्रेय भी इसी वजह से दिखता है। अब विधानसभा चुनाव नजदीक देखकर वाल्मीकि समाज को अपने पाले में बनाए रखने के लिए बीजेपी के लिए ये राजनीति का अच्छा मौका दिखता है। लेकिन, बाजपेयी जिस गंभीर समस्या की तरफ इशारा करते हैं। वो अनायास नहीं है। मेरठ नगर निगम में सफाईकर्मी के लिए 80000 लोगों ने आवेदन किया है और इसमें से करीब 55000 सामान्य जातियों के लोग हैं। वजह ये कि सफाईकर्मी को महीने के 15000 रुपये से ज्यादा मिलेंगे। पहले से संविदा पर काम कर रहे सफाईकर्मियों से बात करने पर आसानी से पता चल जाता है कि आरक्षण कैसे वाल्मीकि समाज के अच्छे दिन की राह में रोड़ा बना हुआ है। 
2006 में विनेश विद्यार्थी को मेरठ नगर निगम में संविदा पर सफाईकर्मी का काम मिला, तो उम्मीद यही थी कि एक दिन वो नियमित कर्मचारी के तौर पर अच्छी तनख्वाह और सरकारी नौकरी में मिलने वाली हर सुविधा का लाभ उठा पाएंगे। लेकिन, एक दशक बाद जब राज्य सरकार ने 40000 सफाईकर्मियों के लिए भर्ती निकाली, तो विनेश अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। इसीलिए सफाईकर्मियों की भर्ती में आरक्षण का वो विरोध कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश सफाई कर्मचारी संघ के प्रदेश सचिव विनेश विद्यार्थी बताते हैं कि 2006 में जब उन्होंने काम शुरू किया था, तो सिर्फ वाल्मीकि समाज के ही लोग सफाई के काम में थे। संविदा पर काम करने वाले सफाईकर्मियों को नियमित करने की लड़ाई वो लंबे समय से लड़ रहे हैं। लेकिन, इस लड़ाई का परिणाम ये हुआ कि सरकार ने संविदा की नौकरी ही खत्म कर दी। सितंबर 2015 के बाद विनेश मेरठ नगर निगम के संविदा सफाईकर्मी भी नहीं रह गए और अक्टूबर 2015 में जब फिर से मेरठ नगर निगम में विनेश ने काम किया, तो उनके और नगर निगम के बीच में एक कंपनी थी। दरअसल संविदा पर सफाईकर्मी रखने के बजाए प्रदेश सरकार ने हर नगर निगम को आउटसोर्सिंग करने को कह दिया। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि अब सफाईकर्मी किसी कंपनी के जरिए वही काम कर रहे थे। और इस संविदा से ठेके पर कराए जा रहे काम का कितना बड़ा नुकसान दलितों में भी वाल्मीकि समाज के लोगों को झेलना पड़ा, इसे कुछ आंकड़ों से आसानी से समझा जा सकता है।
विनेश विद्यार्थी ने 2006 में 1928 रुपये महीने पर सफाई का काम शुरू किया था। उसके बाद विनेश को 3030 रुपये महीने मिलने लगे और बाद में आउटसोर्सिंग कंपनी के जरिए अंतिम तनख्वाह महीने की 7106 रुपये रही। अब इसमें समझने वाली बात ये है कि जब विनेश को 7106 रुपये महीने मिल रहे हैं, उस समय तक शासनादेश के जरिए सफाईकर्मियों की महीने की तनख्वाह 13380 रुपये हो चुकी थी। विनेश जैसे 2215 ऐसे लोग हैं जो, संविदा पर मेरठ नगर निगम में पिछले कई बरस से काम पर लगे थे। 4 जुलाई को जब सरकार ने मेरठ में 2355 नियुक्तियां निकालीं और उसमें पहले से काम कर रहे लोगों को वरीयता देने की बात कही, तो इन लोगों को उम्मीद की किरण नजर आई। लेकिन, इन 2355 में अनुसूचित जाति के लोगों के लिए सिर्फ 495 पद देखकर इनकी सारी उम्मीद धरी की धरी रह गई।
और विनेश साफ कहते हैं कि इससे वाल्मीकि समाज के लोगों का हक मारा जा रहा है। अगड़ी और पिछड़ी जातियों के लोग सरकारी नौकरी के लिए सफाईकर्मी भी बनने को तैयार हैं। विनेश कहते हैं कि जब हर जगह प्रशिक्षित को वरीयता मिलती है, तो यहां गैरप्रशिक्षित को आरक्षण क्यों दिया जा रहा है। दरअसल आधुनिकीकरण से सफाई का स्वरूप बदला है, काम बेहतर हुआ तो दूसरी जातिया भी सफाई के काम में आना चाहती हैं। क्योंकि, मशीन से सफाई बढ़ रही है। विनेश आरोप लगाते हैं कि दलितों की नेता के नाम पर राज्य की कई बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती तो वाल्मीकि समाज के लोगों के साथ खड़ी ही नहीं होती। वो संपूर्ण दलित जाति की नेता नहीं है। वो सिर्फ जाटव की नेता हैं। मेरठ नगर निगम सफाई कर्मचारी संघ के महासचिव कैलाश चंडोला कहते हैं कि कम वेतन था तो हम लोग काम करते थे। जब ज्यादा वेतन हो गया तो हर कोई नौकरी करना चाहता है। हमारी लड़ाई सरकार से ये है कि हमने गंदगी उठाई। जब 3000 मिलते थे तो हम काम करते थे। अब 18000 मिलेगा तो दूसरे लोगों को मौका। वैसे भी दूसरी जाति के लोग काम करने वाले नहीं हैं, वो कम पैसे देकर काम तो हमसे ही कराएंगे। और हमारे पास कोई विकल्प न होने से कम पैसे में काम करना हमारी मजबूरी होगी।

ये आरक्षण का दूसरा पहलू है। सफाईकर्मी पिछले कई दिन से मेरठ नगर निगम के दरवाजे पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि आरक्षण दिया जाए। लेकिन, पहले जो लोग काम करते आ रहे हैं, उनको नियमित किया जाए। उसके बाद ही दूसरे लोगों को ये मौका दिया जाए। एक और सफाई कर्मचारी नेता राजू धवन कहते हैं कि दरअसल हमारे पास तो ना के बराबर मौके हैं और अब इसमें भी अच्छे दिन आने लगे, तो दूसरी जातियों के लोग आरक्षण का सहारा लेकर रोड़ा बन रहे हैं। अलग-अलग समय पर आई ढेर सारी रिपोर्ट का हवाला देते हुए ये लोग कहते हैं कि दरअसल वाल्मीकि समाज को आरक्षण का कोई लाभ अनुसूचित जाति का होने के नाते नहीं मिला। हां, आज आरक्षण की वजह से वाल्मीकि समाज के परिवार में बेहतरी की एक गुंजाइश जरूर खत्म होती दिख रही है। जाहिर है जब वोटबैंक और आरक्षण दोनों साथ दिख रहे हों, तो नेताओं को राजनीति की उर्वर जमीन दिख ही जाती है। और वो भी तब जब 6 महीने में ही प्रदेश में विधानसभा चुनाव होंना है।  
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

Monday, August 22, 2016

बाबू सिंह कुशवाहा की तरह दिखने लगे हैं स्वामी प्रसाद मौर्या

बीजेपी में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्या (bjp.org)
बीएसपी के एक पूर्व सांसद ब्रजेश पाठक भी बीजेपी में शामिल हो गए हैं। दिल्ली में उन्होंने मायावती को छोड़कर अमित शाह को अपना नेता मान लिया। कल तक वो आगरा में थे, बहन जी की रैली के संयोजक थे। आगरा से बढ़िया एक्सप्रेस वे मिला, तो सीधे 11 अशोक रोड पहुंच गए। आगरा से दिल्ली डेढ़ घंटे का ही रास्ता है और उन्होंने बीएसपी से बीजेपी की दूरी भी डेढ़ दिन से कम में तय कर ली। दिल्ली के बीजेपी कार्यालय से आ रही तस्वीरें ठीक वैसी ही हैं, जैसी 2012 में थीं। 2012 के विधानसभा चुनावों के पहले भी दूसरे दलों से भारतीय जनता पार्टी में हो रही भगदड़ से ऐसा लगने लगा था कि भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ रही है। लगभग ऐसा ही दृष्य बना था। बहुजन समाज पार्टी के कद्दावर नेता बाबू सिंह कुशवाहा भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। बाबू सिंह कुशवाहा के अलावा बादशाह सिंह, दद्दन मिश्रा, अवधेश वर्मा और जिलों में तो जाने कितने छोटे बड़े नेता हाथी से उतरकर कमल का फूल पकड़ने को बेताब हो रहे थे। हालांकि, 2012 और 2017 के बीच में 2014 भी आया था। 2014 के बाद की भारतीय जनता पार्टी एकदम अलग है। पार्टी पूरी तरह से नेतृत्व के पीछे एकजुट है। मोदी-शाह के फैसलों पर जरा भी किंतु-परंतु नहीं है। नितिन गडकरी के लिए फैसले पर फिर भी कई नेता किंतु-परंतु लगा देते थे। इस समय सरकार में नरेंद्र मोदी और संगठन में अमित शाह चुनावी प्रबंधन के बड़े उस्ताद हैं। लेकिन, जिस तरह से दूसरे दलों से नेता कूदकर भारतीय जनता पार्टी के पाले में आ रहे हैं, उससे एक खतरा तो बढ़ रहा है। वो खतरा है पार्टी में 2014 के पहले से और 2014 के बाद भी अभी तक मजबूती से अपने लिए जमीन बना रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं की बढ़ती कुंठा। ये बड़ा खतरा है। क्योंकि, बाहर से आने वाला हर नेता सीधे टिकट की दावेदारी ही जता रहा है। और सिर्फ दावेदारी ही नहीं जता रहा है। बल्कि, भारतीय जनता पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता पर अमर्यादित टिप्पणी भी कर रहा है।


बाबू सिंह कुशवाहा की ही तरह मायावती के बेहद नजदीकी नेताओं में शुमार स्वामी प्रसाद मौर्या भारतीय जनता पार्टी के नेता बन चुके हैं। लेकिन, उनका अपना संगठन भी काम कर रहा है। ये  वो संगठन है, जो स्वामी प्रसाद मौर्या ने बहन जी को नेता न मानने और आखिरकार अमित शाह को नेता मान लेने के बीच बनाया है। उसी संगठन लोकतंत्र बहुजन मंच की 20 सितंबर को लखनऊ में रैली है। इलाहाबाद में मौर्या उसी रैली की तैयारी के सिलसिले में मंडलीय बैठक कर रहे थे। अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को रैली के लिए तैयार करते, जोश भरते स्वामी प्रसाद मौर्या ने बीजेपी कार्यकर्ताओं का जोश ठंडा कर दिया। अगले दिन इलाहाबाद के अखबारों में सुर्खियां बीजेपी कार्यकर्ताओं के लिए अपमानजनक टिप्पणी की तरह थी। इलाहाबाद में स्वामी प्रसाद मौर्या ने कहाकि जो लोग बाहर से आकर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वालों का विरोध कर रहे हैं, वो भाजपा के दुश्मन हैं। स्वामी प्रसाद मौर्या ने और आगे जाते हुए कहाकि इन्हीं लोगों की वजह से भाजपा पिछले बीस सालों से सत्ता से बाहर है। मौर्या ने कहाकि बीजेपी की दशा बाहरी का विरोध करने की मानसिकता की वजह से ही खराब है। उन्होंने कहाकि जिसमें ताकत होगी वो टिकट ले लेगा। हालांकि, चुनाव लड़ने और प्रचार करने पर मौर्या ने कहाकि जो नेतृत्व तय करेगा, वही करेंगे। आने वाली सरकार भाजपा की है और वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काम करेंगे। सवाल यही है कि क्या बिना निष्ठावान बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं के, बाहरी नेता, कार्यकर्ता के बूते बीजेपी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ रही है। इसका जवाब तो चुनाव के बाद आएगा। लेकिन, परिस्थितियों से तुलना करें तो 2012 याद आता है। इलाहाबाद के एक बीजेपी नेता ने कहा जब अभी ये हाल है, तो टिकट बंटवारे के समय क्या होगा। इलाहाबाद की तीन सीटों पर स्वामी प्रसाद मौर्या के विश्वस्त बसपाई ताल ठोंक रहे हैं और पहले से बीजेपी के निष्ठावान नेताओं के पसीने छूट रहे हैं। इससे स्वामी प्रसाद मौर्या के अपने पुराने साथी बाबू सिंह कुशवाहा की गति प्राप्त करने की आशंका बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद की शहर उत्तरी विधानसभा, जहां बीजेपी बहुत मजबूत मानी जाती है, वहां भी टिकट की दावेदारी बीएसपी से बीजेपी में हाल में शामिल नेता मजबूती से कर रहे हैं। बीजेपी में माना जाता है कि प्रत्याशी चयन में अंतिम मुहर तो सर्वे के आधार पर ही पक्की लगती है। ये भी एक छोटा सा सर्वे माना जा सकता है, बीजेपी में बाहर से आए नेताओं पर करीब डेढ़ दशक से बिना सत्ता की बीजेपी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं, नेताओं की राय। दूसरे सैनिकों को तो अपने सेनापति के पीछे कितना भी खड़ा किया जा सकता है। लेकिन, दूसरे के सेनापतियों के पीछे अपनी सेना खड़ा करना शायद नई राजनीतिक रणनीति है। 
(ये लेख quint Hindi पर छपा है)

Friday, August 19, 2016

650 किलोमीटर बाद भी एक जैसा अहसास!

कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी। ये हिन्दुस्तान की विविधता को लेकर कहा जाता है। लेकिन, मुझे लगता है कि हिंदुस्तान में चार कोस तो क्या कितना भी लंबा सफर तय कर लिया जाए, एक जैसा ही है। और ये एक जैसा पानी या बानी नहीं, उससे भी बढ़कर हर हिन्दुस्तानी की वीआईपी बनने की ललक है। और ये वीआईपी या वीवीआईपी बनने की ललक बेवजह नहीं है। इसकी बड़ी पक्की टाइप की वजह है। क्योंकि, बिना वीआईपी या वीवीआईपी बने धौंस नहीं जमती। यहां तक चौराहे पर खड़े ट्रैफिक वाला शायद नियम कानून से चलने वाले पर तो फटकार लगा देगा। लेकिन, अगर वीआईपी, वीवीआईपी टाइप का कोई बिल्ला, पट्टा स्टिकर की शक्ल में कार, SUV पर चिपका है, तो फिर कहां किसी की मजाल। यही वो अहसास है जिसने पूरे हिन्दुस्तान को एक सूत्र में बांध रखा है और इसी मसले पर देश की सारी विविधता, एकता में अद्भुत तरीके से बदल जाती है। रक्षाबंधन पर घर जाना था। 17 की रात प्रयागराज एक्सप्रेस से जाना और 18 की रात प्रयागराज एक्सप्रेस से आना। 16 तारीख दफ्तर से लौटते बोटैनिकल गार्डन वाले चौराहे के पहले एक स्कॉर्पियो में Press के साथ VIP का स्टिकर लगा देखा। लेकिन, जब उसी के नीचे VVIP का भी स्टिकर लगा देखा, तो मुझे लगा कि ये तो अतिमहत्वपूर्ण होने के अहसास से जितना लदे हैं, इनके इस अहसास की तस्वीर तो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए। आखिर 48 घंटे से भी कम समय में ऐसा राष्ट्रव्यापी वीआईपी अहसास मिला रहा है।


18 की सुबह इलाहाबाद पहुंचे। छोटे भाई के साथ स्टेशन से घर के रास्ते में थे कि सिविललाइंस वाले हनुमान मंदिर चौराहे के आगे एक साहब की कार दिखी। पहली नजर में भारतीय जनता पार्टी के किसी विधानसभा टिकट के इच्छुक टाइप की कार लगी। थोड़ा नजदीक से देखने पर समझ आया कि कोई जनकल्याण पार्टी के महासचिव हैं। नंबर प्लेट पर नजर पड़ी, तो समझ में आया कि ये तो वकील भी हैं। हाईकोर्ट का स्टिकर जो चस्पा था। मतलब डिग्री है। साथ ही ये भी मतलब कि वकालत अच्छी चल रही होती, तो ऐसे जन कल्याण पार्टी में क्यों जाना पड़ता और असली झटका मुझे तब लगा, जब मैंने देखा कि वो कार तो OLACabs के साथ जुड़ी हुई है। वाह रे वीआईपी हिन्दुस्तान। 

Sunday, August 14, 2016

GST के शुद्ध राजनीतिक मायने

(GST पर ऑस्ट्रेलिया के SBS RADIO से बातचीत भी आप सुन सकते हैं।)
आर्थिक सुधारों की बुनियाद पर कर सुधार के साथ देश की एक शानदार आर्थिक इमारत तैयार करने की कहानी को आगे बढ़ाने का नाम है गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स। जीएसटी मंजूरी पर और इसके लंबी प्रक्रिया के बाद कानून बन जाने के बाद तक ढेर सारे आर्थिक विद्वान इसके अच्छे और अच्छे की राह में आने वाली बाधाओं पर बहुत कुछ बताएंगे। लेकिन, राज्यसभा में जीएसटी बिल पर हुए संशोधनों के लोकसभा में मंजूरी की बहस सुनते मुझे इसके विशुद्ध राजनीतिक मायने दिखे। और इसीलिए मैं जीएसटी बिल राज्यसभा और लोकसभा दोनों से बिना किसी विरोध के मंजूर होने को विशुद्ध रूप से राजनीतिक संदर्भों में ही देख रहा हूं। दिल्ली दरबार यानी दिल्ली के उच्चवर्ग वाले क्लब को सीधे चुनौती देकर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी के लिए इस जीएसटी के मंजूर होने के गजब के संदर्भ हैं। इसलिए ये संदर्भ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि इसी बिल को मुख्यमंत्री रहते खुद नरेंद्र मोदी ने किसी भी कीमत पर मंजूर न होने देने की बात की थी। शायद यही वजह रही होगी कि राज्यसभा में प्रधानमंत्री जीएसटी पर चर्चा के समय नहीं रहे। और जब लोकसभा में इस पर चर्चा हुआ, तो सारे सवालों का जवाब देते समय उन्हें इस बात का खूब ख्याल था कि जीएसटी मंजूर होने का मतलब कितना बड़ा है। और इसीलिए जब प्रधानमंत्री ने कहा कि जीएसटी का संदेश साफ है कि कंज्यूमर इज किंग। लेकिन, ये आर्थिक भाषा थी, इसका राजनीतिक तर्जुमा ये हुआ कि नाउ नरेंद्र मोदी इज किंग। और ये साफ दिखा जब पूरी बहस में कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दलों के लोग कोई भी तीखी टिप्पणी करने से बचते दिखे। नतीजा ये रहा कि लोकसभा में 434 हां के मुकाबले कोई ना नहीं थी। राज्यसभा में भी 203 हां के सामने कोई ना नहीं रही। दरअसल देश के नए राजनीतिक मानस के मजबूत होने के संकेत है।

1991 के आर्थिक सुधारों के बाद देश के राजनीतिक चिंतन में हमेशा ये द्वंद रहा कि क्या आर्थिक सुधारों से ही देश की तरक्की हो सकती है। और इन आर्थिक सुधारों का सीधा सा मतलब था, देश की आर्थिक गतिविधियां दुनिया में चल रहे व्यवहार के लिहाज बनें, बदलें। उदारीकरण या सुधार जब कहा जाता था तो इसका सीधा सा मतलब यही होता था कि भले ही 1991 में देश के प्रधानमंत्री पामुलवर्ती वेंकटपति नरसिंहा राव ने देश में आर्थिक सुधारों का सबसे बड़ा कदम उठाया और वित्त मंत्री के तौर पर डॉक्टर मनमोहन सिंह ने भारत की आर्थिक नीतियों को दुनिया के लिहाज से व्यवहारिक बनाने की हरसंभव कोशिश की हो, सच्चाई यही थी कि भारतीय राजनीतिक मानस पूरी तरह से सुधार के खिलाफ था। उदारीकरण को भारतीय संसाधनों पर दुनिया के कब्जे के तौर पर देखा जा रहा था। और उसी तरह देश में टैक्स सुधार के सबसे बड़े कदम जीएसटी को लंबे समय तक राज्यों पर केंद्र के बढ़ते अधिकार के तौर पर देखा जा रहा था। लेकिन, जीएसटी कानून के बनने की तरफ बढ़ते कदम ये साबित कर रहे हैं कि आर्थिक सुधार के साथ देश का राजनेता भी दुनिया के व्यवहार के लिहाज से सुधरें हैं, परिपक्व हुए हैं। ये कह सकते हैं कि जीएसटी बिल का इस तरह से मंजूर होना देश के राजनीतिक चिंतन ने आर्थिक सुधारों को आत्मसात कर लिया है। भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे गिने-चुने मौके रहे हैं, जब किसी मौके पर खासकर किसी आर्थिक कानून पर सभी राजनीतिक पार्टियां एक सुर में बोल रही हैं। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि 1991 से शुरू हुए आर्थिक सुधारों पर अब देश के राजनेताओं की समझ बेहतर हुआ है। क्या भाजपा और क्या वामपंथी इस मुद्दे पर सब एक रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये अच्छे से पता है कि ये कितना महत्वपूर्ण और नाजुक वक्त है। क्योंकि, पहले मुख्यमंत्री के तौर पर और अब प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि आर्थिक सुधारों के साथ या कहें कि एक कदम आगे चलने वाले राजनेता के तौर पर विकसित कर ली है। और इसीलिए जीएसटी का इस तरह से मंजूर होना दरअसल नरेंद्र मोदी की राजनीति की भी मंजूरी है। हालांकि, पूरी तरह से सावधान मोदी इसीलिए ये कहना नहीं भूले कि ये किसी एक दल की जीत नहीं है, ये सबकी विजय है। उन्होंने बड़े सलीके से इसे धार्मिक दृष्टांत के जरिये समझाने की कोशिश की। मोदी ने कहाकि जन्म कोई दे, पालन कोई करे। कृष्ण को जन्म किसी ने दिया और बड़ा किसी ने किया। हालांकि, भगवान कृष्ण के साथ मां देवकी को कितने लोग याद करते हैं और मां यशोदा को कितने लोग याद करते हैं, इसी से समझ में आ जाता है कि दरअसल नरेंद्र मोदी क्या कह रहे हैं।


भले ही कर सुधारों के लिए कांग्रेस ने बहुत प्रयास किया हो। लेकिन, जीएसटी जैसा ऐतिहासिक कर सुधार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते ही मंजूर हो रहा है। प्रधानमंत्री ने कहाकि दरअसल देश की संसद ने टैक्स आतंकवाद से मुक्ति के लिए ये बड़ा कदम उठाया है। योजना आयोग को नीति आयोग बनाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीएसटी के भी नए मायने देश को बताने का प्रयास किया। जीएसटी को ग्रेट स्टेप बाई टीम इंडिया, ग्रेट स्टेप टुवर्ड्स ट्रांसफॉर्मेशन और ग्रेट स्टेप टुवर्ड्स ट्रांसपैरेंसी बताया। उन्होंने कहा यही जीएसटी है। ऐसा नहीं है कि जीएसटी के पहले सरकार ने कोई बड़ा आर्थिक सुधार नहीं किया। मोदी सरकार लगातार ढेर सारे आर्थिक सुधारों का एलान कर चुकी है। रक्षा क्षेत्र तक विदेशी निवेश की मंजूरी दे दी। जो हर लिहाज से मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती थी। कारोबार में आसानी करने को नरेंद्र मोदी ने इतना ब्रांड किया कि दुनिया की रेटिंग एजेंसियां इसी आधार पर भारत की रेटिंग बेहतर कर देती हैं। लेकिन, प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी विपक्ष को साथ न लेकर चल पाने वाले नेता के तौर पर देखे जा रहे थे। यही उनकी सबसे बड़ी आलोचना भी रही। GST के राज्यसभा और लोकसभा से बिना किसी विरोध के मंजूर होने और लोकसभा में नरेंद्र मोदी के बोले से उन पर लगने वाले इस आरोप में अब दम नहीं रह जाएगा। प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता सभी दलों में बढ़ने का संकेत है। सबसे बड़ी बात ये भी कह सकते हैं कि कांग्रेस और पूरे विपक्ष ने ढाई साल बाद आखिरकार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री मान लिया है। अब भाजपा सरकार की तरह और कांग्रेस विपक्ष की तरह व्यवहार कर रही है। जीएसटी के विशुद्ध राजनीतिक मायने कितने बड़े हैं, इसी से समझा जा सकता है। 

Friday, August 12, 2016

अब ब्राह्मणों के भरोसे नहीं हैं बहनजी

एक क्षत्राणी ने बहन मायावती को पूरी चुनावी रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है। हालांकि, अकेली स्वाति सिंह नहीं हैं, जिनकी वजह से मायावती को अपनी चुनावी रणनीति बदलनी पड़ी हो। लेकिन, सबसे बड़ी वजह स्वाति सिंह ही हैं। उत्तर प्रदेश में 2017 में फिर से सत्ता में आने का रास्ता ब्राह्मणों या कह लीजिए कि सवर्णों के जरिये खोज रही मायावती को स्वाति सिंह ने ऐसा झटका दिया है कि ब्राह्मणों की बहन जी अब मुसलमानों की माया मैडम ही बनने की कोशिश में लग गई हैं। दरअसल 2007 में मायावती का ब्राह्मण भाईचारा बनाओ समिति का फॉर्मूला अद्भुत तरीके से कामयाब रहा। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि उसके बाद 2012 और फिर 2014 में तो वो भाईचारा पूरी तरह से टूट गया। इसीलिए बसपा का ताजा समीकरण DM (दलित+मुसलमान) ही हो गया है। बहुजन समाज पार्टी अब पूरी तरह से दलित और मुसलमान के भरोसे ही 2017 की चुनावी वैतरणी पार करने की योजना बना रही है। इसकी ताजा झलक तब मिली, जब लखनऊ में बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने प्रेस कांफ्रेंस करके बताया कि कांग्रेस के तीन मुस्लिम विधायक अब हाथी की सवारी करेंगे। समाजवादी पार्टी का भी एक मुस्लिम विधायक अब हाथी की सवारी करेगा। पार्टी महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी अब बीएसपी के अकेले बड़े नेता कहे जा सकते हैं। हालांकि, बीएसपी में बहनजी को छोड़कर कोई नेता नहीं है। ये बात पार्टी के दूसरे महासचिव और ब्राह्मण चेहरा सतीश मिश्रा ने कह ही दिया है। सतीश मिश्रा ने ये बयान मीडिया में तब दिया था जब पार्टी के एक और महासचिव रहे स्वामी प्रसाद मोर्या ने टिकट बेचने का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी थी। सतीश मिश्रा के इतने निष्ठा भरे बयान के बाद भी मायावती की तरफ से कहीं भी किसी मंच पर फिलहाल मिश्रा को मान्यता नहीं मिली। यहां तक कि जब बीजेपी के उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह ने मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाने में बेहद शर्मनाक तुलना कर दी और उसके बाद लखनऊ में बहुजन समाज के लोगों ने लखनऊ में बड़ा प्रदर्शन किया। उस प्रदर्शन की अगुवाई भी नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही कर रहे थे। सतीश मिश्रा की भूमिका खास नहीं रही।

सतीश मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को बहनजी कैसे आगे रखती हैं। दरअसल यही साफ कर देता है कि अब बहुजन समाज पार्टी की ताजा चुनावी रणनीति क्या है। पूर्वांचल में एक सीट से बीएसपी का टिकट हासिल कर चुके सवर्ण प्रत्याशी ने बताया कि, मुश्किल तो बढ़ गई है। हमने बीएसपी का टिकट इसीलिए लिया कि सवर्ण जातियों के साथ दलितों का वोट मिलेगा और जीत पक्की हो जाएगी। लेकिन, स्वाति सिंह और उनकी बेटी के खिलाफ लखनऊ में हुई बीएसपी की रैली में अपशब्दों के प्रयोग ने सिर्फ ठाकुरों का ही नहीं पूरे सवर्ण समाज का मन बीएसपी के लिए खट्टा कर दिया है। इस कदर कि प्रदेश में ज्यादातर सवर्ण प्रत्याशी बीएसपी के टिकट पर सवर्णों को वोट दूर जाता हुआ देख रहे हैं। अचानक लड़ाई भाजपा-सपा में होती दिखने लगी है। हालांकि, अभी भी बीएसपी के टिकट पर 50 से ज्यादा ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव लड़ते दिख रहे हैं। लेकिन, बदली परिस्थितियों में बीएसपी दलित और मुसलमानों को ज्यादा से ज्यादा देगी, ऐसी खबरें हैं। नवाब काजिम अली खान, मुस्लिम खान, दिल नवाज खान और नवाजिश आलम खान भले ही कांग्रेस और सपा से टूटकर आए विधायक हैं। लेकिन, दरअसल ये बहनजी की ताजा चुनावी रणनीति के चेहरे हैं। इसका सीधा सा गणित है। अभी तक ब्राह्मण और पूरे सवर्ण वोटों के लिए मायावती को भारतीय जनता पार्टी को ही ध्यान में रखकर रणनीति बनानी थी। जो 2007 में 89 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने साध लिया था। लेकिन, 2012 में 74 ब्राह्मणों और 2014 के लोकसभा चुनाव में 21 ब्राह्मणों को टिकट देने के बाद भी मायावती को अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही बीएसपी ने ये तय कर लिया था कि दलित-मुसलमान के गठजोड़ को ही पक्का करना है। इस गठजोड़ को स्वाभाविक तौर पर अभी देश भर में चल रहे गाय-दलित बहस से भी समर्थन मिल रहा है। और देश में एक दलित-मुस्लिम वोटबैंक बनाने की कोशिश तेजी से चल रही हैं। बीएसपी इसी उभार को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेना चाह रही है। इसीलिए दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटी के खिलाफ शर्मनाक टिप्पणी करने के आरोपी नसीमुद्दीन पर कोई कार्रवाई करने के बजाए मायावती सिद्दीकी को और प्रमुखता से आगे कर रही हैं।


मायावती के चुनावी रणनीति बदलने के पीछे एक बड़ी वजह ये भी है कि कांग्रेस पूरी तरह से ब्राह्मणों, सवर्णों को साधने में लगी है। शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बनाकर कांग्रेस ने एक लॉलीपॉप तो फेंक ही दिया है। खबर ये भी है कि कांग्रेस दो दशक पहले छात्र राजनीति में आगे रहे सवर्ण नेताओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने का मन बना रही है। बीएसपी को ये अच्छे से पता है कि ऐसे में ब्राह्मण और सवर्णों की पसंद के विकल्प के तौर पर भाजपा के बाद कांग्रेस भी सामने है। दूसरा मुसलमान और दलित का गठजोड़ अगर बेहतर हो तो बीएसपी के लिए तारनहार हो सकता है। उत्तर प्रदेश में दलितों का मत 21 प्रतिशत और मुसलमानों का करीब 18 प्रतिशत है। 14 प्रतिशत ब्राह्मण प्रदेश की करीब डेढ़ सौ सीटों पर खेल बदल सकता है। लेकिन, ये भी सच है कि 18 प्रतिशत मुसलमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित के साथ मिलकर मायावती को बड़ी बढ़त दिला सकता है। कुल मिलाकर स्वाति सिंह के पक्ष में भावनात्मक रूप से सवर्णों का जुड़ना, कांग्रेस का भी सवर्ण वोटों के लिए हर कोशिश करना और दलितों पर हो रहे हमलों के बाद दलित-मुसलमान गठजोड़ की नई राष्ट्रीय परिकल्पना ने मायावती को विधानसभा चुनाव की रणनीति सर्वजन से मुस्लिम और बहुजन करने का बड़ा स्वाभाविक आधार दे दिया है। 
(ये लेख QuintHindi पर छपा है)

Thursday, August 11, 2016

सरकारी योजनाएं बेहतर करेंगी मजदूरों का जीवन?

महात्मा गांधी ने देश में फैली असमानता पर अपने जीवन के आखिरी दिनों में जो कुछ लिखा। उसी में से कुछ पंक्तियां हैं कि मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूं। जब तुम्हें भ्रम होने लगे। तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो, इस आजमाकर देखो। उस आदमी या औरत का चेहरा याद करो। जो तुम्हें अब तक सबसे कमजोर, गरीब दिखा हो। और सोचो कि जो तुम करने जा रहे हो, उससे उसका क्या कुछ भला हो सकेगा। महात्मा गांधी ने ये पंक्तियां कतार में खड़े आखिरी व्यक्ति को ध्यान में रखकर लिखी होंगी। देश की सामाजिक असमानता को ध्यान में रखकर लिखी होंगी। लेकिन, आज के संदर्भ में ये पंक्तियां असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर एकदम सटीक बैठती हैं। और मुझे लगता है कि ये ताबीज देश की सरकार को भी इस्तेमाल करनी चाहिए। देश में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को लेकर ढेर सारी रिपोर्ट अब तक आ चुकी हैं। इससे इतना तो पता लगता है कि दरअसल देश की जीडीपी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के ही बूते चल रही है। लेकिन, शायद ही आजाद भारत में कोई सरकार आई हो जिसने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की दशा सुधारने के लिए कोई ऐसा कदम उठाया हो जिससे उनके जीवनस्तर में सकारात्मक बदलाव हो सके। मनरेगा जैसी योजनाएं असंगठित क्षेत्र के ग्रामीण मजदूरों के जीवन में एक तय मजदूरी को सुनिश्चित करने के लिए आईं। लेकिन, इससे कितने ग्रामीण मजदूरों के जीवनस्तर में बेहतरी हुई, इस पर बहुतायत विवाद है। बल्कि, ज्यादातर मामलों में ये राजनीतिक बढ़त का एक बेहतर जरिया भर ही साबित हुई है। इसीलिए बार-बार ये सवाल खड़ा होता है कि क्या किसी सरकार को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए कोई योजना बनाते समय महात्मा गांधी का वो ताबीज ध्यान में रहता है या नहीं। ये समझना इसलिए जरूरी है कि भारत में रोजगार की चुनौतियों पर 2004 बनी डॉक्टर अर्जुन के सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट कहती है कि देश में 2017 तक 55 करोड़ से ज्यादा बेरोजगार होंगे। अगर देश 9 प्रतिशत की रफ्तार से भी तरक्की करता है, तो देश में कुल रोजगार के मौके 49 करोड़ से भी कम होंगे। और इसमें से भी करीब 92 प्रतिशत यानी 50 करोड़ मजदूर असंगठित क्षेत्र में होंगे। अब अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट 2009 में आई थी इसलिए 9 प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार का अनुमान लगाया गया था। जो अब साढ़े सात से आठ प्रतिशत के बीच ही दिख रही है। इससे लोगों को रोजगार मिलने का आंकड़ा भले बदल जाएगा लेकिन, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हिस्सेदारी नब्बे प्रतिशत से ज्यादा ही रहने वाली है। और इनकी सबसे बड़ी तीन समस्याएं हैं जिससे छुटकारा मिलने का रास्ता बमुश्किल ही दिख रहा है।






पहली असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए फिलहाल कोई तय रकम नहीं है। बेहद कम रकम इन मजदूरों को मिल रही है और ज्यादातर उसका मिलना भी तय नहीं होता। न तो इन मजदूरों की छुट्टी पक्की होती है और न ही ज्यादातर नियोक्ता उनको काम के तय घंटे से ज्यादा काम करने पर अतिरिक्त मजदूरी देते हैं। दूसरी बड़ी समस्या है असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सुरक्षा की। ज्यादातर असंगठित क्षेत्र के मजदूर निर्माण के काम में लगे हुए हैं और किसी भी क्षेत्र में ऐसे मजदूरों की सुरक्षा का कोई पक्का बंदोबस्त नहीं दिखता है। तीसरी सबसे बड़ी मुश्किल असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की खराब होती स्वास्थ्य समस्या की है। कठिन हालात में मजदूरी की वजह से ज्यादातर मजदूरों का स्वास्थ्य हर बीतते दिन के साथ खराब होता जाता है।

सवाल ये है कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की इन तीन सबसे बड़ी परेशानी को लेकर अभी की सरकार ने क्या कुछ किया है। इस लिहाज से बेहतर मजदूरी दिलाने को लेकर अभी बहुत ठोस कदम फिलहाल तो नहीं दिखता है। लेकिन, सुरक्षा और स्वास्थ्य को लेकर इस सरकार ने संजीदगी दिखाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को ध्यान में रखकर बनाई गई कई योजनाएं जीवनस्तर में बेहतरी में कुछ मदद तो करती दिख रही हैं। पेंशन तो अब धीरे-धीरे सभी क्षेत्रों में खत्म हो रही है। लेकिन, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सबसे बड़ी चिंता यही रहती है कि इतनी कम और अनियमित कमाई में कैसे एक उम्र के बाद गुजारा हो पाएगा। इस लिहाज से अटल पेंशन योजना एक बेहतर पहल दिखती है। एक हजार रुपये से पांच हजार रुपये महीने तक की पेंशन के लिए कोई भी इसमें शामिल हो सकता है। बस उम्र 18 से 40 साल के बीच होनी चाहिए। 1000 रुपये महीने की पेंशन हासिल करने के लिए 18 साल के नौजवान को 40 साल तक 42 रुपये हर महीने और 40 साल के व्यक्ति को 291 रुपये हर महीने जमा करना होगा। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना भी असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए बेहद उपयोगी है। इसमें दुर्घटना में मृत्यु और अपाहिज होने पर 2 लाख रुपये तक मिल सकते हैं। सिर्फ 12 रुपये सालाना प्रीमियम पर सरकार ने ये बीमा योजना शुरू की है। इसके लिए किसी बैंक में खाता होना जरूरी है। प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना भी इसी तरह की योजना है। इसमें भी दो लाख रुपये तक दुर्घटना बीमा राशि मिलती है। इसके लिए 330 रुपये सालाना का प्रीमियम जमा करना होता है। 18 से 70 साल का कोई भी व्यक्ति बैंक में बचत खाते के जरिए इस योजना का लाभ ले सकता है।

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए एक सबसे बड़ी मुश्किल होती है कि बीमारी के समय उनके पास इलाज के लिए रकम ही नहीं होती है। इसके लिए सरकारी बीमा कंपनियों की स्वास्थ्य बीमा योजजना अस्पताल में होने वाले खर्च का बोझ कम करने में मददगार हो सकती है। इसमें 700-800 रुपये सालाना के प्रीमियम पर 50 हजार रुपये तक का हेल्थ कवर लिया जा सकता है। अब ये योजनाएं महात्मा गांधी की ताबीज के जैसा असर करेंगी या नहीं, इसका अंदाजा तो कुछ समय बाद मिलेगा। वैसे सरकार के स्तर पर असंगठित मजदूरों के जीवनस्तर में बेहतरी सिर्फ इन योजनाओं से ही नहीं होने वाली। इसके लिए जरूरी है कि सरकार सलीके से श्रम सुधारों को लागू करे और महंगाई के लिहाज से किसी जगह काम करने वाले मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन दिलाने का बंदोबस्त करे। क्योंकि, ऐसे तो उद्योग असंगठित मजदूरों को अच्छा जीवन जीने लायक वेतन देने से रहा। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को ज्यादा रकम देने में उद्योग भले ही आगे आने में संकोच करे लेकिन, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की कमाई पर देश के हर उद्योग की तगड़ी नजर है। अब अगर सरकार की तरह निजी क्षेत्र और असंगठित मजदूरों से काम लेने वाले लोगों को भी अगर महात्मा गांधी की ये ताबीज याद रहे, तो इन मजदूरों का जीवन काफी बेहतर हो सकता है।
(ये लेख सोपान स्टेप पत्रिका में छपा है।)

Wednesday, August 10, 2016

रहम करो बाबा रहम!

हे बाबा! रहम करो रहम। वइसहीं बाबा लोगन पर भरोसा उठ सा गया है। थोड़ा बहुत स्वस्थ होने के चक्कर में योग के जरिए आप पर जम गया। अब आप पतंजलि उत्पाद बेचने के चक्कर में सब कंपनी को चोर साबित करने पर तुले हो। दरअसल आपने टीवी चैनलों, अखबारों में चौड़े से 10 हजार का लक्ष्य तय कर लिया। अब मार्केटिंग वाले लड़के-लड़कियों की तरह दूसरे के सामान को खराब प्रोडक्ट और अपने वाले को बढ़िया उत्पाद बता रहे हैं। अंग्रेजों भारत छोड़ो टाइप का आंदोलन खड़ा कर दे रहे हो। बाबा जी रेडियो पर सुन रहे थे तो हंसी आई। अब टीवी पर देखा तो बहुत जोर गुस्साए रहे हैं। सुन लो, समझ लो। नै तो बाबा जी बस इत्ता बताए दे रहे हैं। भारत में लोगों की बजार सेंसेक्स से तेज चढ़ती है, तो उतरती भी है। बाबा जी समझ रहे हो ना। रहम कर दो बाबा जी ई वाला विज्ञापन वापस ले लो। क्योंकि, हम तो चड्ढी से लेकर कार तक सब विदेशी कंपनी की पहन/इस्तेमाल कर रहे हैं। कर तो आप भी रहे होगे बाबा जी। बताते नहीं होगे। अपनी दुकान के चक्कर में देशी और स्वदेशी टाइप का गाल बजावन बंद करो। बंद करो बाबा, बंद करो। वरना अपना तो बुरा करोगे ही, देश की जनता का भी बुरा करोगे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी मेक इन इंडिया का भी। 

Monday, August 08, 2016

पूर्ण राज्य से बेहतर होगा दिल्ली का फिर से पूर्ण शहर बनना

ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर इसका पूरा श्रेय अरविंद केजरीवाल को जाएगा। दिल्ली में चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकारों को लेकर स्पष्टता की बड़ी सख्त जरूरत है। अरविंद केजरीवाल चाहते हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाए और वो भी इसलिए कि दिल्ली की पुलिस से वो केंद्रीय मंत्रियों और यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ भी सीधी कार्रवाई करा सकें। महत्वाकांक्षाओं के साथ इस तरह की राजनीति की मिसाल अरविंद केजरीवाल ही पेश कर रहे हैं। न भूतो न भविष्यति जैसा उदाहरण दिखता है। दिल्ली उच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद ये बहस और तेज हो गई है कि दिल्ली में चुने प्रतिनिधियों के अधिकार क्या हैं। कमाल ये कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने संवैधानिक व्याख्या के आधार पर साफ कर दिया कि दिल्ली केंद्रशासित होने की वजह से केंद्र सरकार के अधीन आता है और इसीलिए केंद्र के प्रतिनिधि के नाते उप राज्यपाल का ही फैसला अंतिम होगा। अब सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर इस तरह की जरूरत क्यों आ पड़ी। दरअसल दिल्ली के लोकतांत्रिक ढांचे को लेकर हमेशा से उलझन रही है। और ये उलझन ही थी कि 1952 में बनी दिल्ली विधानसभा 1966 आते-आते दिल्ली मेट्रोपॉलिटन काउंसिल बन गई। और फिर से राजनीतिक समायोजन की व्यवस्था के लिए 1991 में 69वें संविधान संशोधन की जरूरत बन गई। इसके बाद दिल्ली में बाकायदा 1993 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव हुआ और भारतीय जनता पार्टी की सरकार चुनकर आई। जाहिर है जब मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, तो उस राजनीतिक दल को मुख्यमंत्री को ज्यादा अधिकार देना याद रहा। जिस चुनाव में अरविंद केजरीवाल प्रचंड बहुमत से जीतकर आए, उसमें भारतीय जनता पार्टी  ने भी पूर्ण राज्य का वादा किया था। मुझे लगता है कि राजनीतिक बढ़त लेने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के द्वारा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की सोच ही संविधान विरोधी है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का सीधा सा मतलब हुआ, देश की राजधानी में ढेर सारे केंद्रीय सरकार और विदेशी प्रतिष्ठानों की कानून-व्यवस्था का जिम्मा दिल्ली की राज्य सरकार के हाथ में दे देना।

फिलहाल ये संभव नहीं दिखता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दें। गलती से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला, तो क्या अनर्थ हो सकता है इसकी कल्पना करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कैसे सोचते हैं मुझे नहीं पता लेकिन, यही दिल्ली पुलिस जिसकी वजह से नोएडा से मयूर विहार पहुंचते ही सीट बेल्ट लग जाती है। डी पी यादव जैसों की गुंडई खत्म हो जाती है। मीडिया बताकर हम पत्रकार भी यातायात नियम नहीं तोड़ सकते। गलत हो गया तो विधायक, सांसद सब दिल्ली पुलिस से बचते हैं। फिर इसे आम आदमी पार्टी के विधायकों की कृपा पर कैसे छोड़ा जा सकता है। वही आम आदमी पार्टी जिसके अपरिपपक्व विधायक जाने किस-किस काम में पुलिस थाने के चक्कर लगाते पाए जा रहे हैं। फिर क्या होगा एक झटके में दिल्ली के गृहमंत्री का फोन आएगा और किसी भी आरोप में फंसता दिखने वाला आम आदमी पार्टी विधायक दिल्ली पुलिस को बेइज्जत करके थाने से बाहर आएगा। दिल्ली की मूल पहचान देश की राजधानी के तौर पर है, ये हमें अच्छे से समझना चाहिए। और अगर सर्वोच्च न्यायालय इस व्याख्या को थोड़ा और साफ करे, तो देश का, देश की राजनीति का भला हो जाएगा। इसको ऐसे समझिए दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे का मतलब होगा, दुनिया के किसी राष्ट्राध्यक्ष के भारत की राजधानी आने पर हर तरह की मंजूरी का फैसला एक राज्य सरकार के हाथ में होगा। और अरविंद केजरीवाल जैसा मुख्यमंत्री अपने इस अधिकार के तहत क्या-क्या करेगा, इसकी कल्पना के घोड़े दौड़ाने की जरूरत नहीं है। अरविंद मौके बे मौके वो सब करते ही रहते हैं। दरअसल ये दिल्ली को आधे राज्य से पूर्ण राज्य बनाने की लड़ाई अरविंद के अधूर सपने को पूरा करने की बुनियाद है। अरविंद चाहते हैं कि इस अधूरे, बिना जिम्मेदारी वाली राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर सारे अधिकार ले लें। और फिर देश के प्रधानमंत्री के मुकाबले में ज्यादा अधिकारों के साथ खड़े दिखें।


कांग्रेस के शासनकाल में भ्रष्टाचार का घड़ा इस कदर फूटा कि दिल्ली की जनता को लगा कि ईमानदारी का नायक आ गया है। लेकिन, ये नायक कितना ईमानदार है, इसका अंदाजा अब सबको लग गया है। वीआईपी सुख-सुविधाओं, संस्कृति के खिलाफ लड़ाई का एकमात्र नेता खुद को घोषित करने वाले अरविंद ने वीआईपी सुख-सुविधा, संस्कृति पर अपना कब्जा जमाने के हर रास्ते पर अपने कब्जे का बोर्ड लगाने की कोशिश की है। इस कदर कि औकात से ज्यादा विधायक जीत गए, तो उन्हें वीआईपी बनाने के लिए संसदीय सचिव की नई व्यवस्था ईजाद कर ली। दरअसल अरविंद के सोशल मीडिया खाते पर लिखा नारा ईमानदारी से सब कह देता है। वहां लिखा है कि राजनीतिक क्रांति शुरू हो गई है। भारत जल्द बदलेगा। दरअसल अपने हर किए को क्रांति कहते रहे हैं और इसीलिए जब-जब वो जितना ताकतवर होते जाएंगे, भारत में उतनी ही राजनीतिक क्रांति होती जाएगी। उदाहरण देखिए जब तक उन्हें धरना-प्रदर्शन से सत्ता हासिल होनी थी, तब तक धरना प्रदर्शन उसी राजनीतिक क्रांति का हिस्सा रहा। जैसे ही वो मुख्यमंत्री बन गए, मुख्यमंत्री के बंगले के बाहर पूरे महीने भर धरना-प्रदर्शन पर रोक का आदेश जारी हो गया। याद है ना मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने पहले जनता दरबार से कैसे निकल लिए थे। ये अरविंद मार्का राजनीतिक क्रांति है। इसीलिए अरविंद केजरीवाल के आंदोलनकारी राजनीति के बहाव में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की वकालत करने वालों से गुजारिश है कि वो दिल्ली के मूल चरित्र को समझें। दिल्ली एक शहर है। दिल्ली देश का राजधानी वाला शहर है। दरअसल राज्यों की राजधानी शहर होती है। इस सामान्य व्याकरण के आधार पर देश की राजधानी को राज्य कह देना, बना देना बड़ी बेवकूफी होगा। देश की राजधानी के नाते ही सही, देश का कम से कम एक शहर तो ऐसा हो किसी राज्य की क्षेत्रीयता से ऊपर हो। जहां देश से कोई भी देश की राजधानी में आने जैसा अहसास पाए, न कि किसी राज्य में जाने जैसा। एक विश्वस्तरीय शहर बने दिल्ली। जहां दुनिया में कही से भी आने वाले को लगे कि ये भारत की राजधानी है, दुनिया का विश्वस्तरीय शहर है। इसीलिए जरूरत इस बात की है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के बजाए पूर्ण शहर का दर्जा दिया जाए। तत्काल प्रभाव, बिना किसी बहस के। बहस के लिए अदालत में अरविंद केजरीवाल की पार्टी जा ही रही है। 

Saturday, August 06, 2016

भाजपा की हिंदू राजनीति का तुरुप का पत्ता हैं विजय रूपानी

गुजरात के नए मुख्यमंत्री विजय रुपानी, उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई
पटेल से उनके घर पर आशीर्वाद लेते हुए
2013 के आखिर में भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह से बदल गई। ये अंदाजा शायद ही किसी को लगा हो। ये अंदाजा इसलिए नहीं लगा क्योंकि, नरेंद्र मोदी के भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने के एलान के बाद अंदाजा लगाने वाले सारे राजनीतिक पंडित तो यही अंदाजा लगाने में फंसे रह गए कि गुरु-चेले की ये लड़ाई भाजपा को दो फाड़ करेगी क्या? इस अंदाजा लगाने में राजनीतिक पंडितों को ये कतई समझ में नहीं आया कि दरअसल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदूओं को एकजुट करने के लिए सामाजिक अभियान के साथ राजनीतिक दांव भी चलने जा रहा है। एक ऐसा दांव जो मंडल-कमंडल से बहुत आगे का था। ये दांव था देश में अनुमानित राजनीति को ध्वस्त करने का। और इस राजनीति के लिए विशुद्ध हिंदुत्व वाले चेहरे लालकृष्ण आडवाणी से बहुत बेहतर चेहरा था नरेंद्र मोदी का। नरेंद्र मोदी का इसलिए क्योंकि, मोदी उस घांची तेली समाज से आते थे जो, किसी भी तरह से किसी जातीय ताकत का केंद्र नहीं बन सकता था। इसलिए नरेंद्र मोदी संघ की उस हिंदू संगठन की कल्पना के सटीक वाहक थे। साथ ही नरेंद्र मोदी हिंदू हृदय सम्राट से बड़े सलीके से विकास पुरुष बन चुके थे। नरेंद्र मोदी पहले ऐसे राज्य के नेता थे जिनकी चर्चा दुनिया के मंचों पर होती थी। हैदराबाद को साइबराबाद बना देने के बाद भी दुनिया के मंच पर चंद्रबाबू नायडू भी कभी उस तरह से हाथोंहाथ नहीं लिए गए। इसीलिए जब 2014 में देश को चौंकाने वाला नतीजा आया तो, लोग विकास और हिंदुत्ववादी छवि की ही राजनीति को समझने में लगे रहे। जबकि, सच्चाई ये रही कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे तरीके से हिंदू समाज को एकसाथ लाने के काम में बखूबी लगे हुए थे। इसीलिए किसी भी राज्य में तय जातीय समीकरण के लिहाज से मई 2014 के बाद भारतीय जनता पार्टी का कोई भी नेता प्रतिष्ठित नहीं होता दिखेगा।

इस बात को जो भी समझेगा, वो आसानी से समझ जाएगा कि विजय रूपानी ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री पद के योग्य क्यों साबित हुए हैं। वैसे तो रूपानी के पक्ष में संघ, अमित शाह और नरेंद्र मोदी तीनों का प्रिय होना सबसे आसानी से समझ में आ जाने वाला  समीकरण है। लेकिन, मामला इतना भर नहीं है। दरअसल विजय रूपानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदू राजनीति के सबसे बड़ा चेहरा बन सकते हैं। हिंदुस्तान में आजादी के बाद से बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए हमेशा ये चिंता की वजह बन जाती थी कि अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमान ही सामने दिखता था। यहां तक कि सिख भी कभी अल्पसंख्यक नहीं हो पाया। हां, 1984 दंगों की याद में भले सिख को अल्पसंख्यक कहकर याद किया जाता हो। इसाई भी सिर्फ चर्च पर हमले के समय ही अल्पसंख्यकों की कतार में खड़े होते थे। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर एक तगड़ा आरोप हमेशा चस्पा रहता था कि संघ अल्पसंख्यक विरोधी है। इसीलिए संघ लंबे समय से देश के दूसरे अल्पसंख्यकों की हिंदू समाज या उससे आगे बढ़कर कहें कि, सनातन समाज में शामिल करने के काम में चुपचाप लगा रहा। बौद्ध, जैन और सिख समाज के लोगों में संघ ने बहुत काम किया। बौद्धों को दलित चेतना और अंबेडकर के बहाने दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने संघ और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की। अभी भी कर रहे हैं। लेकिन, संघ का बौद्धों में प्रभाव ही है कि इस समय यानी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के करीब 6 महीने पहले से धम्म चेतना यात्रा में बौद्ध भिक्षु भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं। इस पर मुख्य धारा की मीडिया का ध्यान शायद ही जाए। और संघ चाहता भी नहीं है कि उसके कामों पर मीडिया बहुत ध्यान दे। इसीलिए जब 2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले यूपीए की सरकार ने जैनियों को पूरे देश में अल्पसंख्यक का दर्जा दिया, तब ये बात सामने आई कि जैन अभी तक अल्पसंख्यक नहीं थे। तत्कालीन अल्पसंख्यक मंत्री के रहमान खान ने बताया था कि मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी की तरह अब जैन भी पूरे देश में अल्पसंख्यक श्रेणी में आएंगे और उन्हें केंद्र से अल्पसंख्यक कोटे से मिलने वाली मदद में हिस्सेदारी मिलेगी। जनवरी 2014 के पहले तक उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ही जैन अल्पसंख्यक थे। लेकिन, सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये रही कि भले ही बीजेपी की सरकार ने हाल में केंद्र के निर्णय के आधार पर राज्य में जैनियों को अल्पसंख्यक दर्जा दिया हो और इसका एलान खुद विजय रूपानी ने गुजरात सरकार के मंत्री के तौर पर किया। लेकिन, विजय रूपानी का एक बयान बताता है कि संघ, मोदी और शाह की हिंदू रणनीति के लिहाज से विजय रूपानी का गुजरात का मुख्यमंत्री बनना कितना बड़ा मास्टरस्ट्रोक है। 25 जून 2016 को अहमदाबाद में अल्पसंख्यकों को जागरूक करने के लिए चलाए जा रहे एक कार्यक्रम में तत्कालीन परिवहन मंत्री और राज्य भाजपा अध्यक्ष विजय रूपानी ने कहा था कि, देश में जैन समाज अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं चाहता। लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस ने वोटों को लिए जैन समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया। देश में कुछ हिंदू विरोधी ताकतें हैं। हमने अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का विरोध किया था। अल्पसंख्यक दर्जा होने के बाद भी जैन समाज हिंदू समाज का हिस्सा है।


वैसे भी मोदी-शाह की राजनीति जातीय दंभ को समाप्त करने वाली राजनीति है। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, झारखंड में रघुबर दास और महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस इसके साक्षात उदाहरण हैं। इन तीनों में से कोई भी जातिगत तौर पर अपने राज्य में जातीय ताकत नहीं पाता है। इसीलिए जब विजय रूपानी का नाम घोषित हुआ, तो मुझे कतई आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि, मुझे ये स्वाभाविक लगा। नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री बनाना दरअसल पटेल समाज को संभाले रहने के दबाव की वजह से जरूर हुआ। अमित शाह ने 2 अगस्त को ही विजय रूपानी को मुख्यमंत्री बनाना तय कर लिया था। उसके बाद ही आनंदीबेन पटेल का फेसबुक इस्तीफा आया। इस पर नरेंद्र मोदी की पहले से स्वीकृति थी। लेकिन, जब आनंदीबेन पटेल ने पटेलों के नाम पर नितिन पटेल का नाम मजबूती से आगे बढ़ाने की कोशिश की, तो संसदीय बोर्ड ने एलान कर दिया कि अमित शाह का फैसला ही आखिरी होगा। आनंदीबेन पटेल को उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी उनके साथ खड़े होंगे। लेकिन, उधर से भी साफ कह दिया गया कि अंतिम फैसला अमित शाह ही लेंगे। अंत में समझौते के तहत विजय रूपानी को मुख्यमंत्री और नितिन पटेल को उप मुख्यमंत्री घोषित किया गया। क्योंकि, एक तरफ अल्पसंख्यक दर्जा मिलने के बाद भी खुद को हिंदू समाज का हिस्सा बताने वाले जैन नेता विजय रूपानी थे, तो दूसरी तरफ अति संपन्न होने के बावजूद हार्दिक पटेल के साथ आरक्षण की मांग करके संघ के हिंदू समाज को एकजुट करने के बड़े हित को ध्वस्त करने वाली जाति के नेता नितिन पटेल थे। ऐसे में फैसला इतना मुश्किल भी नहीं था। वैसे भी मोदी और शाह कठिन फैसले आसानी से लेने के लिए ही जाने जाते हैं। हां, संघ-भाजपा को सिर्फ हिंदू और मुसलमान को लड़ाने वाले संगठन के तौर पर देखने वालों के लिए ये फैसला जरूर चौंकाने वाला है। 
(ये लेख QuintHindi  QuintEnglish और BloombergQuint पर छपा है)

Thursday, August 04, 2016

मंजूर GST हुआ, प्रतिष्ठा इन नेताओं की बढ़ गई

GST बिल राज्यसभा में मंजूर हो गया। हालांकि, इसके कानून में बनने में अभी लंबी प्रक्रिया है। लेकिन, इतना तो तय दिख रहा है GST के कानून बनने से देश की आर्थिक तरक्की की रफ्तार सुधरेगी। देश दुनिया में आर्थिक तौर पर और ताकतवर होगा। ये इसका आर्थिक पहलू हुआ। लेकिन, इसका एक राजनीतिक पहलू भी है। इस GST बिल के मंजूर होने से भाजपा और कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं का कद और बड़ा हो गया है। साथ ही खुद प्रधानमंत्री भी स्वीकार्य हुए हैं। देखिए और कौन से नेता हैं जिनकी प्रतिष्ठा GST बिल राज्यसभा में मंजूर होने से और बढ़ गई।

नरेंद्र मोदी- ढेर सारे आर्थिक सुधारों का इस सरकार ने एलान किया। कारोबार में आसानी से लेकर बहुत सी उपलब्धियां प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के माथे सज सकती हैं। लेकिन, अभी तक यही माना जाता था कि नरेंद्र मोदी अपनी जिद में विपक्ष को साथ लेकर नहीं चलना चाहते। GST के राज्यसभा से मंजूर होने के बाद नरेंद्र मोदी पर ये आरोप हल्का होगा। साथ ही प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता सभी दलों में बढ़ने का संकेत है। ये भी कह सकते हैं कि कांग्रेस ने ढाई साल बाद आखिरकार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री मान लिया है।

अरुण जेटली- ये सवाल बार-बार और मजबूती से उठने लगा था कि आखिर क्या वजह है कि अरुण जेटली के रहते हुए भी GST बिल मंजूर नहीं हो पा रहा है। दबी जुबान से लोग ये चर्चा भी करने लगे थे कि क्या अरुण जेटली चाहते ही नहीं हैं कि GST बिल मंजूर हो। वित्त मंत्री के तौर पर अरुण जेटली के माथे पर पर ये सबसे बड़ी असफलता थी। GST बिल मंजूर होने के बाद अब अरुण जेटली को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तक बधाई मिली है। संकट मोचक की छवि बरकरार है।

अनंत कुमार- लगातार 6 बार से बंगलुरू दक्षिण सीट से सांसद चुनकर आ रहे अनंत कुमार की छवि बेहद विनम्र स्वभाव वाले नेता की है। लालकृष्ण आडवाणी के नजदीक होने के वजह से लंबे समय तक नरेंद्र मोदी की नजदीकी हासिल नहीं कर सके थे। रसायन एवं उर्वरक मंत्री होने के नाते मीडिया की नजरों से दूर रहे। ताजा बदलाव में संसदीय कार्यमंत्री बन जाने से मोदी की गुडबुक में शामिल होने का अहसास पक्का हुआ। GST बिल मंजूर कराने में विपक्षी दलों के सांसदों के साथ अच्छे संबंधों का फायदा मिला। पार्टी, सरकार में स्थिति बेहतर होगी।

गुलाम नबी आजाद- कश्मीर से आने वाले गुलाम नबी आजाद कांग्रेस के उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जो सदाबहार हैं। लेकिन, बहुत लो प्रोफाइल रहते हैं। गांधी परिवार के नजदीकी हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं। GST बिल पर सरकार के साथ मध्यस्थता करने में कांग्रेस की ओर से अगुवा नेता रहे। उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनने  से पहले ही कांग्रेस में उनकी बढ़ती अहमियत का संकेत मिला है। अब GST बिल के राज्यसभा में पास होने के बाद दूसरे मोर्चों पर भी आजाद की अहमियत बढ़ सकती है।

पी चिदंबरम- पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने राज्यसभा में GST बिल मंजूर होने के पहले आम जनता तक ये संदेश पहुंचाने की काफी हद तक सफल कोशिश की कि कांग्रेस GST के विरोध में कभी नहीं रही। चिदंबरम ने सफलतापूर्वक ये बताया कि कांग्रेस की वजह से GST बिल में क्या-क्या जोड़ा-घटाया गया। तमिलनाडु प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनने की कोशिश में राहुल गांधी के अड़ंगा लगाने वाली खबरों के बीच GST बिल पर चिदंबरम की महत्वपूर्ण भूमिका से फिर से दिल्ली के पावर कॉरीडोर में वापसी हुई।

आनंद शर्मा- राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता के तौर पर आनंद शर्मा ने GST बिल पर कांग्रेस का पक्ष तो रखा ही, साथ ही सरकार को कई बार उलझन में भी डाला। आनंद शर्मा का पूरा जोर इसी बात पर रहा कि सरकार ये माने कि GST बिल में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। और माना जा सकता है आनंद शर्मा काफी हद तक सफल रहे।
ये लेख QuintHindi पर छपा है

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...