केंद्र
सरकार को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि लंबे समय से बिना किसी नियंत्रण के चल
रहे किराए की कोख के बाजार को नियंत्रित करने के लिए एक कानून बनाने की कोशिश की
है। हालांकि, कानून बनने से पहले ही किराए की कोख के कानून पर ढेर सारे मोर्चे खुल
गए हैं। हालांकि, सरकार ने बड़ी मशक्कत करके काफी सावधानी से सरोगेसी पर कानून
बनाने की कोशिश की है। लेकिन, इसपर पार्टी के भीतर भी दोफाड़ है। खासकर इस बात पर
बहुत ज्यादा विवाद है कि अगर कोई गोद ले सकता है, तो उसे किराए की कोख की इजाजत
क्यों नहीं होगी। प्रगतिशील जमात सिंगल पैरेंट और एलजीबीटी समुदाय के लोगों के लिए
भी सरोगेसी कानूनी करने की मांग कर रही है। एक बहस ये भी खड़ी हो रही है कि आखिर
जिस महिला का शरीर है, उसकी कोख है, उसके अलावा सरकार कौन होती है, ये तय करने वाली।
बहस है कि किसी में भी ममत्व और बापत्व जग सकता है। ऐसे में विज्ञान ने अगर ऐसी
तरक्की कर ली है कि कोई अपना शुक्राणु के जरिये किसी दूसरे की कोख में अपना बच्चा
पैदा कर सकता है और अगर उस कोख को देने वाली को एतराज नहीं है, तो फिर सरकार को
क्या बीच में आना चाहिए। कई लोग तो विदेशियों और भारत के अमीरों से किराए की कोख
के बदले में मिलने वाले धन से गरीबी खत्म होने तक की शानदार दलीलें दे रहे हैं। लेकिन,
इन सबमें एक बड़ा सवाल छूट रहा है। ये सारी चिंता किसी के अपना बच्चा पैदा करने की
इच्छा की तो हो रही है। लेकिन, कोई ये सवाल नहीं खड़ा कर रहा है कि आखिर जिस बच्चे
के सिर से मां-बाप का साया हट गया हो। वो क्या करे? वो क्या मां-बाप पैदा कर सकता है। कमाल है कि हम
पहले से सभ्य होने की बात कर रहे हैं। लेकिन, इस सभ्य होने में धरती पर जो आया
नहीं है, इसके लिए तो कानून पर बहस हो रही है। हां, जो पहले से ही धरती पर है और
जिसकी किस्मत ने दगा दिया और मां-बाप नहीं रहे। उनके लिए हमारा ये सभ्य समाज शायद
ही संवेदनशील होता दिख रहा हो।
अगले 10
महीने बाद किराए की कोख का कानून लागू हो जाएगा, तो हो सकता है कि फिर से बच्चों
को गोद लेने वालों की संख्या कुछ बढ़ जाए। लेकिन, इसके पहले तक किसी तरह का कोई
कानून न होने का दुष्परिणाम ये है कि देश में अनाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं
है। न सरकार और न ही तथाकथित तौर पर पहले से ज्यादा सभ्य हुआ हमारा समाज। सूचना के
अधिकार के तहत सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स एजेंसी से आई जानकारी बताती है कि पिछले
पांच सालों में गोद लेने वालों की संख्या आधी रह गई है। चाहे वो देश में गोद लेने
के इच्छुक रहे हों या फिर विदेशी। महिला एवं बाल विकास मंत्री ने इस पर गहरी चिंता
जताते हुए गोद लेने के कानूनों को काफी सरल कर दिया। हालांकि, गोद लेने वालों में सिंगल
पैरेंट ज्यादातर सेलिब्रिटी ही नजर आते हैं। उस देश में जहां हर साल लगभग पचास
हजार बच्चे अनाथ हो जाते हों और उनमें से बमुश्किल 800 से 1000 बच्चों को गोद लिया
जाता हो। किराए की कोख का कानून बनने पर मचने वाला हल्ला थोड़ा चौंकाता है। बेटी
हो या बेटा बच्चा एक ही अच्छा के नारे को लागू करने वाला सभ्य भारतीय समाज अनाथ
बच्चों को गोद लेने की बहस की बजाए किराए की कोख में बच्चा पैदा करने के अधिकार की
बहस कर रहा है। कमाल की बात ये है कि अभी तक देश में सरोगेसी यानी किराए की कोख का
कोई कानून ही नहीं था। उसकी वजह से दुनिया भर के किसी भी वजह से अपना बच्चा न कर
पाने वाले विदेशी दंपतियों के लिए सबसे बेहतर कोख का बाजार भारत ही रहा है। यूके, आयरलैंड, डेनमार्क, ऑस्ट्रेलिया,
न्यूजीलैंड, बेल्जियम, मैक्सिको, थाइलैंड और नेपाल में पहले से ही कमर्शियल
सरोगेसी प्रतिबंधित है। इसलिए इन देशों के लोग सीधे भारत का रुख कर रहे हैं। हालांकि,
अब भारत भी कमर्शियल सरोगेसी प्रतिबंधित करने वाले देशों में शामिल हो गया है। लेकिन,
भारत में अभी सरोगेसी हो सकती है। लेकिन, वो विदेशियों के लिए और एलजीबीटी, सिंगल
पैरेंट के लिए पूरी तरह से प्रतिबंधित है। हां, सरकार ने ऐसे दंपतियों के लिए जो
किसी स्वास्थ्य वजहों से अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते, उन्हें इस बात की इजाजत दी
है कि वो किराए की कोख से अपना बच्चा पैदा कर सकते हैं। उसका भी बाजार न खड़ा हो
जाए इसके लिए सरकार ने ढेर सारे नियम लगाए हैं। बच्चा किसी नजदीकी रिश्तेदार की
कोख से ही पैदा सकता है। हालांकि, सरकार से ये संकेत साफ मिल रहे हैं कि नजदीकी
रिश्तेदार की परिभाषा को विस्तार दिया जाएगा। और ये ठीक भी है।
प्रगतिशीलता
और विकसित समाज की बात करने वाले भूल जाते हैं कि फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन,
पुर्तगाल, बुल्गेरिया और स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देशों में सरोगेसी पूरी तरह से
प्रतिबंधित है। इसलिए भारत जैसे देश में जो पहले से ही बढ़ती आबादी और ढेर सारे
अनाथ बच्चों वाला देश है, वहां पर किराए की कोख से अपना बच्चा चाहने की बात शायद
मानवता पर दूसरी बहस की जरूरत बताती है। विदेशियों को या फिर किसी भी गैरभारतीय को
भारत आकर किसी की कोख से बच्चा लेकर जाना किस तरह की सभ्यता की ओर ले जा रहा है। बार-बार
ये दलील दी जाती है कि गरीब महिलाओं के लिए अपनी जरूरत भर के पैसे कमाने का एक
जरिया था, जो सरकार ने इस कानून के जरिए बंद कर दिया। नियंत्रित बाजार ज्यादातर
मामलों में जरूरी और बेहतरी करने वाला होता है। लेकिन, किराए की कोख के बाजार की
वकालत और भारत जैसे देश की छवि कुछ ऐसे कर देना कि यहां की गरीब महिलाएं अपनी कोख
बेचकर जरूरत भर का कमा पा रही है। पता नहीं, इसे कैसे प्रगतिशीलता कहा जा सकता है।
और ये अपने ही शुक्राणु से पैदा हुआ बच्चा पाने की चाहत पुरुषवादी मानसिकता का चरम
ही तो है। जहां महिला तो अपने पति के शुक्राणु से पैदा बच्चे को अपना मान ले।
लेकिन, पुरुष किसी भी बच्चे को अपनाकर उसे अपने बच्चे का दर्जा देने से बचना चाहता
है। इसलिए मुझे लगता है कि एक बेहतर कानून बन रहा है। जरूरत हो तो इसमें कुछ
नियम-शर्तों में ढील दी जाए। लेकिन, किराए की कोख के बाजार को महिमामंडित करना न
तो सभ्य समाज के हक में है, न महिलाओं के और न ही देश के। और सबसे बड़ा सवाल ये कि
अनाथ होते बच्चों को गोद लेने में आई कमी शायद इस कानून के बनने के बाद कुछ बेहतर
हो। इसलिए किराए की कोख के कानून के बनने और इस बाजार के नियंत्रित होने का स्वागत
कीजिए। हां, जो जरूरी है, वो संशोधन होना चाहिए और सरकार भी इसके लिए तैयार दिख
रही है। मानवता का स्तर ऊंचा उठाने में मदद कीजिए। अनाथ बच्चों की चिंता कीजिए। बेटी
हो या बेटा बच्चा एक ही अच्छा से आगे बढ़िए। अगर नहीं है अपना बच्चा तो एक अनाथ
बच्चे के सिर पर हाथ रखिए। समाज में जिन महिलाओं को किसी वजह से मातृत्व सुख नहीं
मिल सकता, उनके प्रति नजरिया सुधारने का भी एक मौका है ये किराए की कोख का कानून।
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