ऐसा हुआ
तो निश्चित तौर पर इसका पूरा श्रेय अरविंद केजरीवाल को जाएगा। दिल्ली में चुने हुए
प्रतिनिधियों के अधिकारों को लेकर स्पष्टता की बड़ी सख्त जरूरत है। अरविंद
केजरीवाल चाहते हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाए और वो भी इसलिए कि
दिल्ली की पुलिस से वो केंद्रीय मंत्रियों और यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री के
खिलाफ भी सीधी कार्रवाई करा सकें। महत्वाकांक्षाओं के साथ इस तरह की राजनीति की
मिसाल अरविंद केजरीवाल ही पेश कर रहे हैं। न भूतो न भविष्यति जैसा उदाहरण दिखता
है। दिल्ली उच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद ये बहस और तेज हो गई है कि दिल्ली
में चुने प्रतिनिधियों के अधिकार क्या हैं। कमाल ये कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने
संवैधानिक व्याख्या के आधार पर साफ कर दिया कि दिल्ली केंद्रशासित होने की वजह से
केंद्र सरकार के अधीन आता है और इसीलिए केंद्र के प्रतिनिधि के नाते उप राज्यपाल
का ही फैसला अंतिम होगा। अब सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर इस तरह की जरूरत क्यों आ
पड़ी। दरअसल दिल्ली के लोकतांत्रिक ढांचे को लेकर हमेशा से उलझन रही है। और ये
उलझन ही थी कि 1952 में बनी दिल्ली विधानसभा 1966 आते-आते दिल्ली मेट्रोपॉलिटन
काउंसिल बन गई। और फिर से राजनीतिक
समायोजन की व्यवस्था के लिए 1991 में 69वें
संविधान संशोधन की जरूरत बन गई। इसके बाद दिल्ली में बाकायदा 1993 में दिल्ली
विधानसभा का चुनाव हुआ और भारतीय जनता पार्टी की सरकार चुनकर आई। जाहिर है जब
मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, तो उस राजनीतिक दल को मुख्यमंत्री को ज्यादा
अधिकार देना याद रहा। जिस चुनाव में अरविंद केजरीवाल प्रचंड बहुमत से जीतकर आए,
उसमें भारतीय जनता पार्टी ने भी पूर्ण
राज्य का वादा किया था। मुझे लगता है कि राजनीतिक बढ़त लेने के लिए किसी भी
राजनीतिक दल के द्वारा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की सोच ही संविधान
विरोधी है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का सीधा सा मतलब हुआ, देश की
राजधानी में ढेर सारे केंद्रीय सरकार और विदेशी प्रतिष्ठानों की कानून-व्यवस्था का
जिम्मा दिल्ली की राज्य सरकार के हाथ में दे देना।
फिलहाल ये
संभव नहीं दिखता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दें। गलती
से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला, तो क्या अनर्थ हो सकता है इसकी कल्पना
करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कैसे सोचते हैं मुझे
नहीं पता लेकिन, यही
दिल्ली पुलिस जिसकी वजह से नोएडा से मयूर विहार पहुंचते ही सीट बेल्ट लग जाती है।
डी पी यादव जैसों की गुंडई खत्म हो जाती है। मीडिया बताकर हम पत्रकार भी यातायात
नियम नहीं तोड़ सकते। गलत हो गया तो विधायक,
सांसद सब दिल्ली पुलिस से बचते हैं। फिर इसे आम
आदमी पार्टी के विधायकों
की कृपा पर कैसे छोड़ा जा सकता है। वही आम आदमी पार्टी जिसके अपरिपपक्व विधायक
जाने किस-किस काम में पुलिस थाने के चक्कर लगाते पाए जा रहे हैं। फिर क्या होगा एक
झटके में दिल्ली के गृहमंत्री का फोन आएगा और किसी भी आरोप में फंसता दिखने वाला
आम आदमी पार्टी विधायक दिल्ली पुलिस को बेइज्जत करके थाने से बाहर आएगा। दिल्ली की
मूल पहचान देश की राजधानी के तौर पर है, ये हमें अच्छे से समझना चाहिए। और अगर
सर्वोच्च न्यायालय इस व्याख्या को थोड़ा और साफ करे, तो देश का, देश की राजनीति का
भला हो जाएगा। इसको ऐसे समझिए दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे का मतलब होगा,
दुनिया के किसी राष्ट्राध्यक्ष के भारत की राजधानी आने पर हर तरह की मंजूरी का
फैसला एक राज्य सरकार के हाथ में होगा। और अरविंद केजरीवाल जैसा मुख्यमंत्री अपने
इस अधिकार के तहत क्या-क्या करेगा, इसकी कल्पना के घोड़े दौड़ाने की जरूरत नहीं
है। अरविंद मौके बे मौके वो सब करते ही रहते हैं। दरअसल ये दिल्ली को आधे राज्य से
पूर्ण राज्य बनाने की लड़ाई अरविंद के अधूर सपने को पूरा करने की बुनियाद है।
अरविंद चाहते हैं कि इस अधूरे, बिना जिम्मेदारी वाली राज्य के मुख्यमंत्री के तौर
पर सारे अधिकार ले लें। और फिर देश के प्रधानमंत्री के मुकाबले में ज्यादा
अधिकारों के साथ खड़े दिखें।
कांग्रेस
के शासनकाल में भ्रष्टाचार का घड़ा इस कदर फूटा कि दिल्ली की जनता को लगा कि
ईमानदारी का नायक आ गया है। लेकिन, ये नायक कितना ईमानदार है, इसका अंदाजा अब सबको
लग गया है। वीआईपी सुख-सुविधाओं, संस्कृति के खिलाफ लड़ाई का एकमात्र नेता खुद को
घोषित करने वाले अरविंद ने वीआईपी सुख-सुविधा, संस्कृति पर अपना कब्जा जमाने के हर
रास्ते पर अपने कब्जे का बोर्ड लगाने की कोशिश की है। इस कदर कि औकात से ज्यादा
विधायक जीत गए, तो उन्हें वीआईपी बनाने के लिए संसदीय सचिव की नई व्यवस्था ईजाद कर
ली। दरअसल अरविंद के सोशल मीडिया खाते पर लिखा नारा ईमानदारी से सब कह देता है।
वहां लिखा है कि राजनीतिक क्रांति शुरू हो गई है। भारत जल्द बदलेगा। दरअसल अपने हर
किए को क्रांति कहते रहे हैं और इसीलिए जब-जब वो जितना ताकतवर होते जाएंगे, भारत
में उतनी ही राजनीतिक क्रांति होती जाएगी। उदाहरण देखिए जब तक उन्हें
धरना-प्रदर्शन से सत्ता हासिल होनी थी, तब तक धरना प्रदर्शन उसी राजनीतिक क्रांति
का हिस्सा रहा। जैसे ही वो मुख्यमंत्री बन गए, मुख्यमंत्री के बंगले के बाहर पूरे
महीने भर धरना-प्रदर्शन पर रोक का आदेश जारी हो गया। याद है ना मुख्यमंत्री अरविंद
केजरीवाल अपने पहले जनता दरबार से कैसे निकल लिए थे। ये अरविंद मार्का राजनीतिक
क्रांति है। इसीलिए अरविंद केजरीवाल के आंदोलनकारी राजनीति के बहाव में दिल्ली को
पूर्ण राज्य का दर्जा देने की वकालत करने वालों से गुजारिश है कि वो दिल्ली के मूल
चरित्र को समझें। दिल्ली एक शहर है। दिल्ली देश का राजधानी वाला शहर है। दरअसल
राज्यों की राजधानी शहर होती है। इस सामान्य व्याकरण के आधार पर देश की राजधानी को
राज्य कह देना, बना देना बड़ी बेवकूफी होगा। देश की राजधानी के नाते ही सही, देश
का कम से कम एक शहर तो ऐसा हो किसी राज्य की क्षेत्रीयता से ऊपर हो। जहां देश से
कोई भी देश की राजधानी में आने जैसा अहसास पाए, न कि किसी राज्य में जाने जैसा। एक
विश्वस्तरीय शहर बने दिल्ली। जहां दुनिया में कही से भी आने वाले को लगे कि ये
भारत की राजधानी है, दुनिया का विश्वस्तरीय शहर है। इसीलिए जरूरत इस बात की है कि
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के बजाए पूर्ण शहर का दर्जा दिया जाए। तत्काल
प्रभाव, बिना किसी बहस के। बहस के लिए अदालत में अरविंद केजरीवाल की पार्टी जा ही
रही है।
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