Monday, August 22, 2016

बाबू सिंह कुशवाहा की तरह दिखने लगे हैं स्वामी प्रसाद मौर्या

बीजेपी में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्या (bjp.org)
बीएसपी के एक पूर्व सांसद ब्रजेश पाठक भी बीजेपी में शामिल हो गए हैं। दिल्ली में उन्होंने मायावती को छोड़कर अमित शाह को अपना नेता मान लिया। कल तक वो आगरा में थे, बहन जी की रैली के संयोजक थे। आगरा से बढ़िया एक्सप्रेस वे मिला, तो सीधे 11 अशोक रोड पहुंच गए। आगरा से दिल्ली डेढ़ घंटे का ही रास्ता है और उन्होंने बीएसपी से बीजेपी की दूरी भी डेढ़ दिन से कम में तय कर ली। दिल्ली के बीजेपी कार्यालय से आ रही तस्वीरें ठीक वैसी ही हैं, जैसी 2012 में थीं। 2012 के विधानसभा चुनावों के पहले भी दूसरे दलों से भारतीय जनता पार्टी में हो रही भगदड़ से ऐसा लगने लगा था कि भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ रही है। लगभग ऐसा ही दृष्य बना था। बहुजन समाज पार्टी के कद्दावर नेता बाबू सिंह कुशवाहा भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे। बाबू सिंह कुशवाहा के अलावा बादशाह सिंह, दद्दन मिश्रा, अवधेश वर्मा और जिलों में तो जाने कितने छोटे बड़े नेता हाथी से उतरकर कमल का फूल पकड़ने को बेताब हो रहे थे। हालांकि, 2012 और 2017 के बीच में 2014 भी आया था। 2014 के बाद की भारतीय जनता पार्टी एकदम अलग है। पार्टी पूरी तरह से नेतृत्व के पीछे एकजुट है। मोदी-शाह के फैसलों पर जरा भी किंतु-परंतु नहीं है। नितिन गडकरी के लिए फैसले पर फिर भी कई नेता किंतु-परंतु लगा देते थे। इस समय सरकार में नरेंद्र मोदी और संगठन में अमित शाह चुनावी प्रबंधन के बड़े उस्ताद हैं। लेकिन, जिस तरह से दूसरे दलों से नेता कूदकर भारतीय जनता पार्टी के पाले में आ रहे हैं, उससे एक खतरा तो बढ़ रहा है। वो खतरा है पार्टी में 2014 के पहले से और 2014 के बाद भी अभी तक मजबूती से अपने लिए जमीन बना रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं की बढ़ती कुंठा। ये बड़ा खतरा है। क्योंकि, बाहर से आने वाला हर नेता सीधे टिकट की दावेदारी ही जता रहा है। और सिर्फ दावेदारी ही नहीं जता रहा है। बल्कि, भारतीय जनता पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता पर अमर्यादित टिप्पणी भी कर रहा है।


बाबू सिंह कुशवाहा की ही तरह मायावती के बेहद नजदीकी नेताओं में शुमार स्वामी प्रसाद मौर्या भारतीय जनता पार्टी के नेता बन चुके हैं। लेकिन, उनका अपना संगठन भी काम कर रहा है। ये  वो संगठन है, जो स्वामी प्रसाद मौर्या ने बहन जी को नेता न मानने और आखिरकार अमित शाह को नेता मान लेने के बीच बनाया है। उसी संगठन लोकतंत्र बहुजन मंच की 20 सितंबर को लखनऊ में रैली है। इलाहाबाद में मौर्या उसी रैली की तैयारी के सिलसिले में मंडलीय बैठक कर रहे थे। अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को रैली के लिए तैयार करते, जोश भरते स्वामी प्रसाद मौर्या ने बीजेपी कार्यकर्ताओं का जोश ठंडा कर दिया। अगले दिन इलाहाबाद के अखबारों में सुर्खियां बीजेपी कार्यकर्ताओं के लिए अपमानजनक टिप्पणी की तरह थी। इलाहाबाद में स्वामी प्रसाद मौर्या ने कहाकि जो लोग बाहर से आकर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वालों का विरोध कर रहे हैं, वो भाजपा के दुश्मन हैं। स्वामी प्रसाद मौर्या ने और आगे जाते हुए कहाकि इन्हीं लोगों की वजह से भाजपा पिछले बीस सालों से सत्ता से बाहर है। मौर्या ने कहाकि बीजेपी की दशा बाहरी का विरोध करने की मानसिकता की वजह से ही खराब है। उन्होंने कहाकि जिसमें ताकत होगी वो टिकट ले लेगा। हालांकि, चुनाव लड़ने और प्रचार करने पर मौर्या ने कहाकि जो नेतृत्व तय करेगा, वही करेंगे। आने वाली सरकार भाजपा की है और वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काम करेंगे। सवाल यही है कि क्या बिना निष्ठावान बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं के, बाहरी नेता, कार्यकर्ता के बूते बीजेपी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ रही है। इसका जवाब तो चुनाव के बाद आएगा। लेकिन, परिस्थितियों से तुलना करें तो 2012 याद आता है। इलाहाबाद के एक बीजेपी नेता ने कहा जब अभी ये हाल है, तो टिकट बंटवारे के समय क्या होगा। इलाहाबाद की तीन सीटों पर स्वामी प्रसाद मौर्या के विश्वस्त बसपाई ताल ठोंक रहे हैं और पहले से बीजेपी के निष्ठावान नेताओं के पसीने छूट रहे हैं। इससे स्वामी प्रसाद मौर्या के अपने पुराने साथी बाबू सिंह कुशवाहा की गति प्राप्त करने की आशंका बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद की शहर उत्तरी विधानसभा, जहां बीजेपी बहुत मजबूत मानी जाती है, वहां भी टिकट की दावेदारी बीएसपी से बीजेपी में हाल में शामिल नेता मजबूती से कर रहे हैं। बीजेपी में माना जाता है कि प्रत्याशी चयन में अंतिम मुहर तो सर्वे के आधार पर ही पक्की लगती है। ये भी एक छोटा सा सर्वे माना जा सकता है, बीजेपी में बाहर से आए नेताओं पर करीब डेढ़ दशक से बिना सत्ता की बीजेपी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं, नेताओं की राय। दूसरे सैनिकों को तो अपने सेनापति के पीछे कितना भी खड़ा किया जा सकता है। लेकिन, दूसरे के सेनापतियों के पीछे अपनी सेना खड़ा करना शायद नई राजनीतिक रणनीति है। 
(ये लेख quint Hindi पर छपा है)

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