ब्राह्मण
नेता के रूप में स्थापित होने के बावजूद बाजपेयी खुद को हिंदू नेता कहलाना ही पसंद
करते हैं। इसका लाभ उन्हें मेरठ में अपनी विधानसभा में तो मिलता ही है। प्रदेश
अध्यक्ष रहते चमत्कारी सांसद संख्या जिताने का श्रेय भी इसी वजह से दिखता है। अब
विधानसभा चुनाव नजदीक देखकर वाल्मीकि समाज को अपने पाले में बनाए रखने के लिए बीजेपी
के लिए ये राजनीति का अच्छा मौका दिखता है। लेकिन, बाजपेयी जिस गंभीर समस्या की
तरफ इशारा करते हैं। वो अनायास नहीं है। मेरठ नगर निगम में सफाईकर्मी के लिए 80000
लोगों ने आवेदन किया है और इसमें से करीब 55000 सामान्य जातियों के लोग हैं। वजह
ये कि सफाईकर्मी को महीने के 15000 रुपये से ज्यादा मिलेंगे। पहले से संविदा पर
काम कर रहे सफाईकर्मियों से बात करने पर आसानी से पता चल जाता है कि आरक्षण कैसे
वाल्मीकि समाज के अच्छे दिन की राह में रोड़ा बना हुआ है।
2006
में विनेश विद्यार्थी को मेरठ नगर निगम में संविदा पर सफाईकर्मी का काम मिला, तो
उम्मीद यही थी कि एक दिन वो नियमित कर्मचारी के तौर पर अच्छी तनख्वाह और सरकारी
नौकरी में मिलने वाली हर सुविधा का लाभ उठा पाएंगे। लेकिन, एक दशक बाद जब राज्य
सरकार ने 40000 सफाईकर्मियों के लिए भर्ती निकाली, तो विनेश अपने को ठगा सा महसूस
कर रहे हैं। इसीलिए सफाईकर्मियों की भर्ती में आरक्षण का वो विरोध कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश सफाई कर्मचारी संघ के प्रदेश सचिव विनेश विद्यार्थी बताते हैं कि
2006 में जब उन्होंने काम शुरू किया था, तो सिर्फ वाल्मीकि समाज के ही लोग सफाई के
काम में थे। संविदा पर काम करने वाले सफाईकर्मियों को नियमित करने की लड़ाई वो
लंबे समय से लड़ रहे हैं। लेकिन, इस लड़ाई का परिणाम ये हुआ कि सरकार ने संविदा की
नौकरी ही खत्म कर दी। सितंबर 2015 के बाद विनेश मेरठ नगर निगम के संविदा सफाईकर्मी
भी नहीं रह गए और अक्टूबर 2015 में जब फिर से मेरठ नगर निगम में विनेश ने काम
किया, तो उनके और नगर निगम के बीच में एक कंपनी थी। दरअसल संविदा पर सफाईकर्मी
रखने के बजाए प्रदेश सरकार ने हर नगर निगम को आउटसोर्सिंग करने को कह दिया। इसका
सीधा सा मतलब ये हुआ कि अब सफाईकर्मी किसी कंपनी के जरिए वही काम कर रहे थे। और इस
संविदा से ठेके पर कराए जा रहे काम का कितना बड़ा नुकसान दलितों में भी वाल्मीकि
समाज के लोगों को झेलना पड़ा, इसे कुछ आंकड़ों से आसानी से समझा जा सकता है।
विनेश
विद्यार्थी ने 2006 में 1928 रुपये महीने पर सफाई का काम शुरू किया था। उसके बाद
विनेश को 3030 रुपये महीने मिलने लगे और बाद में आउटसोर्सिंग कंपनी के जरिए अंतिम
तनख्वाह महीने की 7106 रुपये रही। अब इसमें समझने वाली बात ये है कि जब विनेश को
7106 रुपये महीने मिल रहे हैं, उस समय तक शासनादेश के जरिए सफाईकर्मियों की महीने
की तनख्वाह 13380 रुपये हो चुकी थी। विनेश जैसे 2215 ऐसे लोग हैं जो, संविदा पर
मेरठ नगर निगम में पिछले कई बरस से काम पर लगे थे। 4 जुलाई को जब सरकार ने मेरठ
में 2355 नियुक्तियां निकालीं और उसमें पहले से काम कर रहे लोगों को वरीयता देने
की बात कही, तो इन लोगों को उम्मीद की किरण नजर आई। लेकिन, इन 2355 में अनुसूचित
जाति के लोगों के लिए सिर्फ 495 पद देखकर इनकी सारी उम्मीद धरी की धरी रह गई।
और
विनेश साफ कहते हैं कि इससे वाल्मीकि समाज के लोगों का हक मारा जा रहा है। अगड़ी
और पिछड़ी जातियों के लोग सरकारी नौकरी के लिए सफाईकर्मी भी बनने को तैयार हैं। विनेश
कहते हैं कि जब हर जगह प्रशिक्षित को वरीयता मिलती है, तो यहां गैरप्रशिक्षित को
आरक्षण क्यों दिया जा रहा है। दरअसल आधुनिकीकरण से सफाई का स्वरूप बदला है, काम
बेहतर हुआ तो दूसरी जातिया भी सफाई के काम में आना चाहती हैं। क्योंकि, मशीन से
सफाई बढ़ रही है। विनेश आरोप लगाते हैं कि दलितों की नेता के नाम पर राज्य की कई
बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती तो वाल्मीकि समाज के लोगों के साथ खड़ी ही नहीं
होती। वो संपूर्ण दलित जाति की नेता नहीं है। वो सिर्फ जाटव की नेता हैं। मेरठ नगर
निगम सफाई कर्मचारी संघ के महासचिव कैलाश चंडोला कहते हैं कि कम वेतन था तो हम लोग
काम करते थे। जब ज्यादा वेतन हो गया तो हर कोई नौकरी करना चाहता है। हमारी लड़ाई
सरकार से ये है कि हमने गंदगी उठाई। जब 3000 मिलते थे तो हम काम करते थे। अब 18000
मिलेगा तो दूसरे लोगों को मौका। वैसे भी दूसरी जाति के लोग काम करने वाले नहीं
हैं, वो कम पैसे देकर काम तो हमसे ही कराएंगे। और हमारे पास कोई विकल्प न होने से
कम पैसे में काम करना हमारी मजबूरी होगी।
ये
आरक्षण का दूसरा पहलू है। सफाईकर्मी पिछले कई दिन से मेरठ नगर निगम के दरवाजे पर
धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि आरक्षण दिया जाए। लेकिन, पहले जो लोग
काम करते आ रहे हैं, उनको नियमित किया जाए। उसके बाद ही दूसरे लोगों को ये मौका
दिया जाए। एक और सफाई कर्मचारी नेता राजू धवन कहते हैं कि दरअसल हमारे पास तो ना
के बराबर मौके हैं और अब इसमें भी अच्छे दिन आने लगे, तो दूसरी जातियों के लोग
आरक्षण का सहारा लेकर रोड़ा बन रहे हैं। अलग-अलग समय पर आई ढेर सारी रिपोर्ट का
हवाला देते हुए ये लोग कहते हैं कि दरअसल वाल्मीकि समाज को आरक्षण का कोई लाभ
अनुसूचित जाति का होने के नाते नहीं मिला। हां, आज आरक्षण की वजह से वाल्मीकि समाज
के परिवार में बेहतरी की एक गुंजाइश जरूर खत्म होती दिख रही है। जाहिर है जब
वोटबैंक और आरक्षण दोनों साथ दिख रहे हों, तो नेताओं को राजनीति की उर्वर जमीन दिख
ही जाती है। और वो भी तब जब 6 महीने में ही प्रदेश में विधानसभा चुनाव होंना है।
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)
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