Wednesday, November 30, 2011

बंटवारे की राजनीति !

सूट पहने आधुनिक मुहम्मद अली जिन्ना
राजनीति भी गजब है। अलग-अलग संदर्भों में एक ही बात किसी को अच्छी या बुरी लगती है। मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान में उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल है। हो भी क्यों ना। आखिर पाकिस्तान की पैदाइश तो, उन्हीं के बूते हुई। बूते इसलिए कि बड़ी मेहनत मशक्कत करके भारत से अलग पाकिस्तान बनवा लिया। वैसे, जो ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं वो, यही हैं कि जिन्ना को अगर सत्ता सुख मिलने की गुंजाइश दिखती तो, वो सांप्रदायिक न होते। जिन्ना तो, सांप्रदायिक थे भी नहीं। ठीर नेहरू जैसे थे। जवाहर लाल नेहरू को तो, लोग सेक्युलर ही मानते हैं ना। तो, जिन्ना भी सेक्युलर ही थे। जिन्ना भी विलायती थे। सिगार पीते थे। सूट पहनते थे। अतिआधुनिक थे। ये कहां से इस्लामिक हो गया। लेकिन, जब सत्ता नहीं मिली तो, जिन्ना घोर मुसलमान हो गए। पाकिस्तान बना दिया। 
जिन्ना बड़ा बदमाश था। ऐसा हम भारतीय मानते हैं- सबसे बड़ी वजह उसने अपने राजनीतिक फायदे के लिए भारत-पाकिस्तान का बंटवारा करा दिया। लेकिन, अगर इस कसौटी पर कसेंगे तो, बड़ी मुश्किल होगी। आज के नेताओं को ले लीजिए। क्या कहेंगे। मायावती राजनीतिक फायदे के लिए यूपी 4 टुकड़े में करना चाहती हैं। ठीक यूपी चुनाव के पहले याद आया है। करीब पांच साल होने जा रहे हैं। पूर्ण बहुमत की मायावती जी की सरकार है। फिर भी कह रही हैं  कि बड़ा राज्य होने से प्रशासन और विकास में मुश्किल आ रही है। सत्ता में आते ही बांट दिया होता। अब तक 4 टुकड़े हुए यूपी का कुछ विकास भी हो गया होता।

शीला दीक्षित दिल्ली को 3 टुकड़ों में बांट रही हैं। बहाना, बहनजी की तरह ही शीला दीक्षित का भी है 3 टुकड़े MCD हुई तो, प्रशासन सुधरेगा, विकास होगा। ऐसे ही तो, राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे, बाल ठाकरे भी बोलते हैं कि सिर्फ मराठी रहेगा तो, मुंबई के विकास का ज्यादा हिस्सा उन्हें मिलेगा। क्षेत्रवादी घोषित हैं। लीजिए अब यूपी चुनाव आया तो, राहुल गांधी भी कह रहे हैं कि यूपी के लोग भिखारी क्यों बने रहना पसंद कर रहे हैं। पता नहीं शायद वो, ये कहना चाह रहे हैं कि भिखारी ही बने रहना है तो, कांग्रेस राज में बने रहो। वो, भूल जाते हैं देश पर उन्हीं के हाथ वाली पार्टी और उन्हीं के पिता, नानी, परनाना का शासन लंबे समय तक रहा है। सत्ता ही है जो, नहीं मिल रही है तो, यूपी में राहुल गुस्सा जाते हैं। दिल्ली में ठंडा जाते हैं गुस्से से। बांटना ये सब चाहते हैं सत्ता मिली रहे तो, बांटना कोई नहीं चाहेगा। फिर जिन्ना और इन आज के नेताओं में कितना फर्क है।

Friday, November 18, 2011

काटजू और मीडिया को एक दूसरे का दोस्त ही बनना होगा

बड़ी मुश्किल होती है जब, आप किसी व्यक्तित्व के बेहद प्रभाव में रहें और उस व्यक्तित्व की बेबाकी की तारीफ करते रहें। और, अचानक ऐसा मौका आए जब वो, व्यक्ति आपकी भी कमियों पर बेबाक टिप्पणी करने लगे। उसकी बात सही होते हुए भी आप उस बेबाकी के खिलाफ ढेर सारे कुतर्क लाने की कोशिश करने लगते हैं। यहां संदर्भ है जस्टिस मार्कंडेय काटजू का। जो, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के ताजा-ताजा अध्यक्ष बने हैं। अध्यक्ष बनते ही जस्टिस काटजू का अदालत में फैसला सुनाने वाला अंदर का न्यायाधीश जग गया और उन्होंने अपने मन  में बनी और समाज के मन में तेजी से बसती जा रही इस धारणा के आधार पर बयान दे डाला कि मीडिया में कम जानकार लोग हैं। कुछ भी लिखते-दिखाते रहते हैं। अब तो, वो मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाने की बात भी कर रहे हैं।

फिर क्या टीवी वाले पहले गरजे कि काटजू होते कौन हैं, उन पर टिप्पणी करने वाले। सबको पता है न कि अब काटजू साहब जज तो रहे नहीं जो, अवमानना होगी। काटजू साहब भी जितनी जल्दी ये समझ लें, उतना बेहतर है। मार्कंडेय काटजू ने यहां तक कह दिया है कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दायरे में टीवी मीडिया भी लाया जाना चाहिए। खैर, टीवी के संपादक तो, पहले से बीईए, एनबीए जैसी संस्थाएं बनाकर खुद को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के बराबर खड़ा कर चुके हैं। अब टीवी तो, छोड़िए प्रेस यानी प्रिंट के घरानों को भी काटजू की बेबाकी बर्दाश्त नहीं हो रही है। उनकी अध्यक्षता में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की पहले बैठक में काउंसिल के चार सदस्यों संजय गुप्ता (दैनिक जागरण), डॉक्टर आर लक्ष्मीपति (दिनामलार), वी के चोपड़ा (फिल्मी दुनिया) और पंजाब केसरी ने काटजू के वक्तव्य कि मीडिया कम जानकार लोग हैं, पर कड़ा विरोध जताया है।

ये वही टीवी, प्रिंट मीडिया है जो, न्यायाधीश रहते काटजू के ऑबजर्वेशंस का कायल था। सिस्टम पर काटजू की टिप्पणी मीडिया के लिए बहस का विषय देती थी और मीडिया से प्रशंसा भी पाती थी। लेकिन, अब जब वही काटजू मीडिया को आइना दिखा रहे हैं तो, मीडिया तिलमिला रहा है। मैं मीडिया में हूं और जानता हूं कि कई बार अपनी स्थिति बचाए रखने के लिए लोगों के बीच मीडिया की न बातों पर भी समर्थन करना पड़ता है जिसका मैं खुद विरोधी होता हूं। काटजू की टिप्पणी के मामले में भी ऐसा ही है। काटजू ने जो बातें कही हैं वो, ज्यादातर सही है। लेकिन, मीडिया शायद डर इसी बात रहा है कि अगर काटजू को तुरंत नहीं टोंका तो, आगे भी किसा मौके पर मीडिया, खासकर टीवी मीडिया की स्व नियंत्रण की अवधारणा को काटने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। काटजू मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाने की बात इस आधार पर कहे हैं कि न्यायाधीश पर स्वनियंत्रण नहीं करते। उन पर भी महाभियोग चलाया जाता है। लेकिन, काटजू साहब को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया स्वनियंत्रण की बात इसलिए भी कहता है कि मीडिया पर नियंत्रण की कोशिशें अगर एक बार सफल हुईं तो, सरकार से लेकर हर तरह के प्रभावी लोग कैसे इस पर नियंत्रण की बेजा कोशिश करेंगे। ये सबको पता है। सरकार बार-बार मीडिया को चेतावनी देती ही रहती है। सच्चाई ये भी है मीडिया और न्यायपालिका पर नियंत्रण इसीलिए ठीक नहीं होता कि ये लोकतंत्र बचाने के लिए सचमुच जरूरी स्तंभ हैं।

अच्छी बात ये है कि काटजू साहब ये भी कह रहे हैं कि मीडिया के वो दोस्त हैं। उन्होंने टाइम्स नाऊ पर 100 करोड़ रुपए के जुर्माने को आदरपूर्ण तरीके से नकारते हुए इसका सबूत भी दे दिया कि काटजू वही वाले काटजू हैं जो, मीडिया को बड़े अच्छे लगते थे। जरूरत ये है कि इस बात को मीडिया भी समझे। क्योंकि, मीडिया तो, सरकार से लेकर सिस्टम में हर किसी का परम आलोचक ही होता है। और, इसी आलोचना के बूते समाज को स्वस्थ रखने का दावा भी करता है। इसलिए निंदक नियरे राखिए ... लागू करते हुए अच्छा है कि काटजू जैसा निंदक प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का चेयरमैन है। और, अगर काटजू कुछ कह रहे हैं तो, उनकी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया सुधार करके देनी चाहिए। यानी, खोखली बयानबाजी से नहीं काटजू की टिप्पणी का जवाब कार्रवाई से देना चाहिए।

और, ऐसा नहीं है। मीडिया पर भी दबाव है इसीलिए बीईए ने इस बार जो, निर्देश जारी किए उसके बाद टीवी चैनलों ने ऐश्वर्या के बच्चे को पैदा होते ही देश का सबसे चर्चित बच्चा नहीं बनाया। इसके लिए अमिताभ बच्चन ने मीडिया का धन्यवाद भी किया। इसलिए मीडिया और काटजू दोनों को एक दूसरे का दोस्त ही सचमुच बनना होगा। वरना तो, टिप्पणी और प्रति टिप्पणी में लोकतंत्र की शक्लो सूरत बिगाड़ने की कोशिश में लगे सत्ता से जुड़े लोग इसका फायदा उठा लेंगे।

Tuesday, November 15, 2011

अगर नरेंद्र मोदी-राहुल गांधी की टक्कर हुई तो ...

फूलपुर, इलाहाबाद में सभा के दौरान राहुल गांधी
राहुल गांधी ने फूलपुर में 14 नवंबर को जो, बोला वो, पार्टी की 22 सालों से सत्ता से जो, दूरी हैं उसे कम करने के लिए बोला। लेकिन, जवानी का जोश ऐसा रहा कि सब उल्टा पड़ता दिख रहा है। सब राशन-पानी लेकर चढ़ दौड़े। राहल गांधी ने फूलपुर में यूपी के लोगों को उत्तेजित करने की गरज से बोला दिया कि कब तक महाराष्ट्र में जाकर भीख मांगोगे। कब तक पंजाब में जाकर मजदूरी करोगे। राहल समझ ही नहीं पाए होंगे कि ये बयान किस तरह से लिया जा सकता है। उत्तर प्रदेश पिछड़ा है। उत्तर प्रदेश के लोग महाराष्ट्र, पंजाब में जाकर नौकरियां, मजदूरी कर रहे हैं। ये सब जानते हैं। जरूरत भी है। क्योंकि, आज के समय में जहां बेहतर रोजी-रोटी का बंदोबस्त होगा, वहीं जाएगा। लेकिन, राहुल जोश में भूल गए कि किसी की एक आंख की रोशनी जा रही हो तो, उसे काना कहकर उसे और पीड़ा नहीं देते हैं। उसे कोशिश करके ऐसे समझाते हैं कि दोनों आंखों की रोशनी जरूरी है। ये बात राहुल नहीं समझा पाए। और, यही वजह है कि बार-बार ये सवाल खड़ा होता रहता है कि राहुल राजनीति में अभी नौसिखिए ही हैं या परिपक्व हो गए हैं। क्षेत्रवाद की राजनीति पर फले-फूले शिवसेना जैसे दल भी कहने लगे कि राहुल प्रांतवाद फैला रहे हैं। दरअसल, राजनीति में तरह-तरह के वाद के सहारे अपना वोटबैंक बढ़ाने की कोशिश हर कोई करता है लेकिन, कुछ शिवसेना की तरह एक ही वाद में सिमटकर रह जाते हैं। तो, कुछ मायावती की तरह दलितवाद से दलित-ब्राह्मणवाद तक चले जाते हैं। मायावती ठसके से मंच से ब्राह्मण सम्मेलन में कह देती हैं कि कांग्रेस, बीजेपी की सरकार बनी तो, ठाकुर ही मुख्यमंत्री होगा।

2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान
खैर, बात मैं राहुल की कर रहा था। बार-बार ये चर्चा होती है कि 2014 के चुनाव में राहुल गांधी ही कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। और, बीजेपी में भले ही इस पद की दावेदारी को लेकर पटकापटकी मची हो। लेकिन, अभी के हालात में 2014 में बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की ही दावेदारी बनती दिख रही है। अब अगर ये परिदृश्य बना तो, राहुल- नरेंद्र मोदी जैसे नेता के सामने कितनी देर टिक पाएंगे। मैं ये इसलिए कह रहा हूं कि 2012 के चुनाव के लिए राहुल गांधी यूपी के लोगों की जिस भावना को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं वो, काम नरेंद्र मोदी 2007 के चुनाव में ही कर चुके हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव में हमारे मित्र मनीष शुक्ला जौनपुर की खुटहन विधानसभा से चुनाव लड़ रहे थे। नरेंद्र मोदी को सभा के लिए आना था। नरेंद्र मोदी ने भी भावनाएं भड़काईं। मोदी ने कहा- आप लोगों से मेरा बड़ा नजदीकी रिश्ता है। गुजरात की तरक्की में आपकी पसीने की खुशबू आती है। लेकिन, गंगा, जमुना और सरस्वती मइया की इस धरती से जब लोग गुजरात में आते हैं तो, मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि, ये वो धरती है जिसने देश का रास्ता दिखाया है। माया-मुलायम जैसे राहु-केतु इस उर्वर धरती पर ग्रहण की तरह हैं। मेरे गुजरात में तो, सिर्फ एक नर्मदा मइया हैं। उनके भरोसे मैंने गुजरात को लहलहा दिया है। अगर, गंगा-यमुना की उर्वर जमीन मेरे पास होता तो, सोचिए क्या हो सकता था। और, मुझे उस दिन अच्छा लगेगा जब कोई उत्तर प्रदेश का नौजवान आकर मुझसे कहेगा कि मैं यूपी छोड़कर नहीं जा सकता। यही फरक है, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में।

Monday, November 14, 2011

सुशील कुमार के ब्रांड अबैंसडर बनने से क्या होगा ?

सुशील कुमार मनरेगा के ब्रांड अबैंसडर बने

ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश दुखी हैं कि मनरेगा की चर्चा पत्रकार, मीडिया सिर्फ गलत संदर्भों में करते हैं। जयराम रमेश ने पत्रकारों से पूछा कि आप लोग मनरेगा की अच्छी बातों की चर्चा क्यों नहीं करते।
ये बातें उन्होंने तब कहीं जब वो सुशील कुमार को मनरेगा का ब्रांड अंबैसडर बना रहे थे।

सुशील कुमार वही हैं जो, कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन के पूछे सवालों का जवाब देकर 5 करोड़ जीत गए हैं। सुशील कुमार चूंकि इत्तेफाक से मनरेगा में डाटा एंट्री ऑपरेटर हैं। बस इसी मौके को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने लपक लिया है। लेकिन, सवाल ये है कि 5 करोड़ रुपए की लॉटरी जीतने वाला ब्रांड अंबैसडर बनकर 100 रुपया रोजाना 100 दिन पक्के तौर पर कमाने की गारंटी वाले लोगों को कैसी प्रेरणा देगा। कौन बनेगा करोड़पति में दे दनादन मैसेज भेजकर केबीसी की हॉट सीट पर बैठने की प्रेरणा और तुक्के पे तुक्का मारकर 5 करोड़ जीतने की प्रेरणा। जयराम रमेश विद्वान मंत्रियों में हैं लेकिन, उनका ये दर्शन मुझे तो समझ में नहीं आया।

सुशील कुमार  भी दार्शनिक हो गए हैं। जब उनसे ये पूछा कि आप मनरेगा का ब्रांड अबैंसडर बनकर उसके लिए कैसे मददगार होंगे तो, उनका जवाब ऐसा था कि दर्शन की किताबें कम पड़ें। आखिरी लाइन लिख रहा हूं। मनरेगा में काम करना ईश्वर की अराधना जैसा है।

Friday, November 11, 2011

इन मदेरणाओं का क्या कुछ बिगड़ेगा?

राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा और भंवरी देवी
राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा की नर्स भंवरी देवी के साथ रंगरेलियां मनाते चर्चित सीडी अब मीडिया के जरिए सबके सामने आ गई। और, शायद यही सबूत रहा कि अब तक भंवरी को न जानने की बात करने वाले मदेरणा ने माना कि भंवरी से उनके संबंध थे। लेकिन, अब वो कह रहे हैं कि भंवरी के गायब होने में उनका हाथ नहीं है। शक ये भी मजबूत हो रहे हैं कि भंवरी की हत्या हो गई है। कहा ये भी जा रहा है कि भंवरी देवी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने भी गुहार लगाई थी। फिर भंवरी कहां गई और किसने भंवरी को मरवाया या फिर क्या भंवरी अभी जिंदा भी हो सकती है।

खबरें हैं कि भंवरी कांग्रेस के टिकट के लिए मदेरणा पर दबाव बना रही थी। तो, क्या किसी महिला के लिए राजनीति में जाने का बिस्तर के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा है। या इन नेताओं की फितरत ऐसी है क्योंकि, भंवरी की महत्वाकांक्षा रही होगी वो, टिकट चाहती होगी। नारायण दत्त तिवारी, अमरमणि से लेकर आनंदसेन तक ऐसी सेक्स स्कैंडल की ढेरों कहानियां है जिसमें नेताओं ने दूसरी महिलाओं के साथ संबंध बनाए और अपने राजनीतिक हित पर जब उन्हें भारी पड़ता देखा तो, उनसे कन्नी काट ली या उनकी जिंदगी की डोर काट दी।

गहलोत के बारे में है कि वो भले मुख्यमंत्री हैं तो, फिर क्या उन्होंने भंवरी देवी और महिपाल मदेरणा के अनैतिक संबंधों को मदेरणा को दबाने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। एक और बात इस मामले से साफ होती है कि राजनीति में गुनाह तब तक छिपे रहते हैं जब तक नेता ताकतवर है। महिपाल मदेरणा के पिता परसराम मदेरणा भी अपने समय में राजस्थान की जाट राजनीति और कांग्रेस के बड़े नेता था। उनकी सत्ता में महिपाल को अदालत ने हत्या का भी दोषी पाया था। सवाल यही है कि ऐसे आदमी को इतने दिनों तक कांग्रेसी सत्ता क्यों पालती रही। और, ये भी कि भंवरी देवी जैसी अतिमहत्वाकांक्षी महिलाएं क्या देह के इस्तेमाल से कुछ भी करती रहेंगी। क्योंकि, कहा ये भी जाता है कि इस साधारण सी नर्स के आगे इसी ताकत की वजह से राजस्थान के बड़े-बड़े अधिकारी नतमस्तक रहते थे।

सवाल मीडिया पर भी है क्योंकि, खबरें ये भी हैं कि कई राजस्थान के मीडियाकर्मियों ने इस सीडी को उजागर करने के बजाए उसे दबाने  के लिए पैसे खाए।

Thursday, November 03, 2011

राहुल जी गुस्से में हैं !

यूपी दौरे पर राहुल गांधी

 आजकल राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में हैं। बड़े गुस्से में थे। यूपी के लोगों से पूछ रहे थे माया सरकार के खिलाफ उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता। दिल्ली रहते हैं, पता नहीं उनकी बोलती क्यों बंद हो जाती है। गुस्सा कहां चला जाता है। जबकि, देश की जनता दिल्ली (यूपीए) की सरकार से बड़ी गुस्से में है। राहुल गांधी जी गुस्सा सबको आता है और गुस्से का परिणाम भी देर सबेर दिखता है। अच्छा है आपने पूछ लिया कि यूपी के लोगों को गुस्सा क्यों नहीं आता।

Monday, October 17, 2011

ये अन्ना की जीत तो बिल्कुल नहीं है!

रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के दौरान एक समर्थक
हिसार में मिले वोट- कुलदीप बिश्नोई 355941, अजय सिंह चौटाला 349618, जय प्रकाश 149785। बिश्नोई चुनाव जीते। भजनलाल के बेटे हैं। हरियाणा के गैर जाट नेता। बीजेपी के समर्थन के बिना बिश्नोई नहीं जीतते, अब तो ये साफ है। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जूझ रहे चौटाला करीब साढ़े तीन लाख वोट पा गए। और, अन्ना का तो सारा आंदोलन ही भ्रष्टाचार विरोधी है। कैसे कोई कह रहा है कि अन्ना की जीत है। कांग्रेस के जयप्रकाश भी डेढ़ लाख पा गए। अब भी लोग कह रहे हैं कि अन्ना इफेक्ट है। अरे कहिए अन्ना की इज्जत बच गई। यूपी में इज्जत बचानी है तो, पहले से तैयारी कर ले टीम अन्ना।

Friday, October 14, 2011

अन्ना को ये फैसला तुरंत लेना होगा

कश्मीर बयान पर प्रशांत की पिटाई
विजय चौक पर हम लोग खड़े थे। तभी खबर आई कि सुप्रीमकोर्ट के चैंबर में कुछ लड़कों ने वकील प्रशांत भूषण को पीट दिया है। तब तक किसी बीजेपी कवर करने वाले पत्रकार ने कहा- अरे तेजिंदर बग्गा ने तो मारा है। वही भारतीय जनता युवा मोर्चा वाला। हम लोग जितने लोग थे सभी पत्रकारों के मुंह से निकला- अब तो बीजेपी का बेड़ा गर्क हो जाएगा। आडवाणी की यात्रा की खबर गई काम से। अब तो, सिर्फ यही चलगा फासीवादी भाजपा का असली चेहरा। लेकिन, हमारा ये आंकलन जल्दबाजी का था। प्रशांत को पीटने वालों के पर्चे में साफ लिखा था- कश्मीर हमारा था, है और रहेगा। दरअसल ये अन्ना टीम के सदस्य अन्ना की पिटाई हुई ही नहीं थी। ये अरुंधति रॉय के दोस्त अन्ना की पिटाई हुई थी।
अन्ना हजारे के साथ की वजह से भले ही प्रशांत भूषण की छवि दूसरी हो गई। और, उन्हें सम्मानित नजरों से देखा जाने लगा। लेकिन, ज्यादा समय नहीं हुआ जब प्रशांत भूषण को देखने के लिए सिर्फ विवादित नजरों का ही सहारा लेना पड़ता था। क्योंकि, बिना विवाद के प्रशांत भूषण का मतलब ही नहीं था। हाईप्रोफाइल मामलों के पीआईएल का विवाद हो या फिर। अमर सिंह सीडी विवाद। और, टीम अन्ना के सहयोगियों में अकेले अन्ना ही थे जिन्हें हमने कभी भी रामलीला मैदान या अन्ना आंदोलन की दूसरी कवरेज के दौरान तिरंगा लहराते नहीं देखा था। मतलब साफ है प्रशांत भूषण वैसे, तो तिरंगा लहराने का जिम्मा लेने की जरूरत रामलीला मैदान में किसी को थी ही नहीं। क्योंकि, भ्रष्टाचार से त्रस्त भारत बोल रहा था- मैं अन्ना हूं और वो, तिरंगा दूसरी आजादी के लिए लहरा रहा था। फिर भी किरन बेदी का लगातार 4-6 घंटे तक तिरंगा लहराना और जोर से अपनी खास आवाज में बोलना भारत माता की जय, वंदेमातरम् लोगों को अजब सा सम्मोहित कर रहा था।
·         आंदोलन बड़ा हो गया तो, कई तरह के विवाद आए कि ये संघ समर्थित था या नहीं। दिग्विजय सिंह फुल फॉर्म में आ गए। लगा इसी से कमाल कर देंगे। पुरानी आदत के मुताबिक, वो, कभी वो बात साबित करने की कोशिश करते हैं जिसका कोई पक्का सबूत उन्हें मिल नहीं रहा। वो, ये कि संघ आतंकवादी संगठन है। फिर कभी वो ये बात साबित करने की कोशिश करते हैं कि संघ, अन्ना के आंदोलन में शामिल है। जो, सब जानते हैं। उसके समर्थन में जो, चिट्ठी वो आज दिखा रहे हैं वो, पहले से ही मीडिया में है। और, चिट्ठी क्या, संघ प्रमुख से लेकर कई संघ नेताओं ने बाकायदा अन्ना आंदोलन का खुलेआम समर्थन किया था। अन्ना की दी गई सलाह अब सही लगने लगी है।

इस सबके बीच हिसार का लोकसभा उपचुनाव। यहां पहले से ही हवा ये बता रही थी कि लगभग तय है कि कुलदीप बिश्नोई ही जीतेंगे। हां, अन्ना टीम के आंदोलन से शायद उन्हें ज्यादा फायदा हो जाए। लेकिन, अचानक टीम अन्ना का हर मुद्दे पर टिप्पणी करने की लालसा आंदोलन पर भारी पड़ती दिख रही है। एक और बात जो, पहले दिन से खटकती थी कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण पिता-पुत्र दोनों को अपने साथ टीम में रखना कितना सही है। लेकिन, सरकारी चालबाजियों और सरकारी वकीलों की टीम से निपटने के लिए ये फैसला ठीक लगने लगा था। जबकि, शांति भूषण और प्रशांत भूषण के अलावा टीम अन्ना का कोई सदस्या ऐसे विवाद में कभी नहीं रहा। जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में जरा सा भी बाधा दिखी हो।
किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल की ख्याति सबको पता है। ये दोनों चेहरे जाने ही जाते हैं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए। दोनों अपने पेशे में जब तक रहे ईमानदारी से जिया है। प्रशांत भूषण के साथ एक और जो, बड़ी वाली समस्या है वो, अन्ना को आगे और परेशान कर सकती है। क्योंकि, अन्ना को वो वाली बीमारी है जो, देश के कई तथाकथित बुद्धिजीवियों को बुरी तरह परेशान करती रहती है। और, इस परेशानी को दूर करने के लिए वो, सोचते हैं कि देश की जनता के खिलाफ कुछ ऐसा बोलते-करते रहा जाए जिससे उन्हें देश की जनता, मौका पड़ने पर लतियाए, जूतियाए और इस जूतियाए जाने से ग्लोबल इंडियन, बुद्धिजीवी बनकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जगह और पुरस्कारों की सूची में उनका नाम भी जुड़ जाए। ऐसा नहीं है कि ये बुद्धिजीवी हमेशा ही गलत बोलते हैं। ये सही मुद्दों पर भी आवाज उठाते रहते हैं जिससे लोग उनकी बात सुनते भी रहें। अरुंधति रॉय से लेकर प्रशांत भूषण तक यही जमात है।
·         खैर, अब तो, मुद्दा ये है कि प्रशांत भूषण की अतिबुद्धिजीवीपना और अरुंधति रॉय का दोस्ती, अन्ना के आंदोलन पर भारी पड़ चुकी है। अच्छा खासा भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में माहौल बना है। इसमें क्या जरूरत थी प्रशांत भूषण को अतिबुद्धिजीवीपना दिखाने की। अन्ना ने भूषण के बयान से साफ किनारा कर लिया। सैनिक रहे अन्ना ने साफ कर दिया कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा था, है और रहेगा। प्रशांत को मारने वाले के पर्चे में भी यही लिखा था। और, ये मारने वाले पिछले काफी समय से मैं अन्ना हूं की टोपी लगाए भ्रष्टाचार मुक्त, सशक्त भारत के लिए लड़ाई भी लड़ रहे थे। इसलिए मीडिया कृपया अब ये दिखाने से बचे कि अन्ना समर्थकों को श्रीराम सेना समर्थकों ने पीटा। और, अन्ना के लिए कठिन समय आ पड़ा है। उन्हें कुछ समय के लिए मीडिया का मोह छोड़ देना चाहिए और इस बात पर गंभीर विचार करना चाहिए कि प्रशांत भूषण जैसे ग्लोबल बुद्धिजीवी का साथ लंबे समय में उनकी लड़ाई में काम आएगा या नुकसान पहुंचाएगा।

Tuesday, October 04, 2011

50 घंटे, 12313 फीट की ऊंचाई चूमकर वापस

ये यात्रा बिल्कुल तय नहीं थी। सच तो ये था कि ये यात्रा हमारे मित्र मनीष शुक्ला की वजह से हुई। बहुत दिनों से मनीष कह रहे थे कि बद्रीनाथ दर्शन को जाना है। इच्छा हमारी भी थी लेकिन, परिवार के साथ। समस्या इसमें ये थी कि परिवार के साथ जाने के लिए समय ज्यादा चाहिए था। और, छोटे बच्चों को लेकर जाने के लिए अपनी मन:स्थिति के साथ बच्चों की स्थिति का भी ख्याल रखना था। तो, तय हुआ और हम दोनों मित्र निकल पड़े। शुक्रवार की रात 11.55 पर नई दिल्ली स्टेशन से दिल्ली-देहरादून एसी एक्सप्रेस से निकले। टिकट भी जुगाड़ डॉट कॉम से पक्का हुआ। ठीक चार बजे हम लोग हरिद्वार स्टेशन पर थे। अचानक नींद खुली तो, उठकर देखा तो, हरिद्वार आ गए थे। जल्दी से मनीष को भी जगाया और सीधे पहुंचे वेटिंग रूम में। टैक्सी वाला समय का पक्का था। फोन किया और वहीं वेटिंग रुम में फ्रेश हुए और चाय पीकर शुरू हो गई यात्रा।
बद्रीनाथ के रास्ते में भूस्खलन के बाद रास्ते की सफाई
ऋषिकेश से ऊपर डराने वाली सड़कों का डर मनोहारी दृश्य काफी कम कर देते हैं। हम लोग चूंकि समय से करीब पांच बजे हरिद्वार से निकल चुके थे इसलिए रास्ता खाली मिल रहा था। लेकिन, प्राकृतिक बाधाओं के निशान निरंतर मिल रहे थे। हां, अच्छी बात ये रही कि कहीं भी प्राकृतिक व्यवधान 5-10 मिनट से ज्यादा का नहीं रहा। सीमा सड़क संगठन के लोग किस तरह से काम कर रहे हैं। और, उनके काम की वजह से ही पहाड़ों में लोगों की सुखद, सुरक्षित यात्राएं संभव भी हैं। उनके काम को सलाम।
जेपी हाइड्रोप्रोजेक्ट के आसपास शानदार सड़कें
लेकिन, एक और बात जो, ज्यादातर गलत नजरिये से ही देखी जाती है। वो, है निजी कंपनियों को दिया जाने वाला काम। उत्तराखंड में जेपी ग्रुप कई बड़ी परियोजनाओं पर काम कर रहा है। जेपी के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के आसपास पहुंचते ही खतरनाक पहाड़ों पर भी चिकनी मैदानों जैसी शानदार सड़क नजर आने लगती है। शायद उसके पीछे बड़ी वजह ये होगी कि छोटा हिस्सा उनके पास प्रबंधन के लिए है और वहां से मिलने वाले मुनाफे की वजह से वो, लगातार उसे बनाते रहते होंगे। लेकिन, मुझे लगता है कि अगर सरकारें निजी कंपनियों को प्रोजेक्ट देने के साथ उन पर ये दबाव भी निरंतर बनाए रखें कि वो, उस इलाके का बेहतर प्रबंधन करें और उन्हें सामाजिक सुरक्षा के साथ आधारभूत सुविधाएं देने की भी शर्त रखें तो, शायद सच में पब्लिक प्राइवेंट पार्टनरशिप का मतलब निकलकर आएगा। क्योंकि, प्राकृतिक संसाधनों से युक्त उत्तराखंड जैसे राज्य में पर्यटन ही वहां के लोगों की रोजी-रोटी का जरिया बनता है। अब अगर निजी कंपनियां आधारभूत सुविधाएं बेहतर करेंगी तो, निश्चित है पर्यटक भी ज्यादा आएंगे और स्थानीय लोगों की कमाई भी बढ़ेगी। वैसे, उत्तराखंड सरकार वहां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में कमी नहीं छोड़ रही है। शायद जरूरत भी होगी। जेपी के अलावा जीवीके, जीएमआर और दूसरी कई कंपनियों के बोर्ड बद्रीनाथ के ही रास्ते में हमें दिख गए। ज्यादातर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट वाले ही थे। सरकारी कंपनी एनटीपीसी तो है ही।
बद्रीनाथ जाते समय श्रीनगर से आगे बन रहा बड़ा बांध
श्रीनगर के पास भी एक बड़ा बांध बन रहा है। समय की कमी की वजह से ये तो मैं नहीं जान पाया कि ये किसी निजी कंपनी के मुनाफे का जरिया बन रहा है या फिर सिर्फ सरकार और लोगों के सचमुच के साधन जुटाने की कोशिश है। वैसे, जितना बड़ा बांध बन रहा है जाहिर है, अबाध वेग से आती नदी को ऐसे रोकेंगे तो, भूस्खलन और दूसरी प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण मिल ही जाएगा।

हेमकुंडसाहिब से श्रद्धालुओं को लेकर लौटता हेलीकॉप्टर

वैसे, उद्यमिता स्वभाव का हिस्सा होती है। कैप्टन गोपीनाथ याद हैं ना। अरे वही सबसे सस्ते हवाई सफर की शुरुआत करने वाले या यूं कहें कि रेल और बस से सफर करने वाले को हवाई सफर कराने वाले। कैप्टन गोपीनाथ की डेक्कन एयरवेज हालांकि, लिवलाइफ किंग साइज वाले वियज माल्या ने खरीद ली और उसे किंगफिशर रेड बनाकर लो कॉस्ट एयरलाइन बनाए रखा। अब सुन रहे हैं माल्या साहब को कम दाम वाली एयरलाइन शान पर धब्बा लग रही है इसलिए उसे खत्म कर रहे हैं। लेकिन, उद्यमी गोपीनाथ ने पहले कार्गो सेवा डेक्कन 360 शुरू की। और, अब बद्रीनाथ यात्रा के दौरान जब हवा में उड़ता हेलीकॉप्टर दिखा तो, गाड़ी रुकवाकर मैंने जानना चाहा कि किस कंपनी ने कहां के लिए ये हवाई सफर शुरू किया है। उतरते ही हेलीपैड के पास डेक्कन का बोर्ड दिखा। पूछा तो, पता चला वही बंगलुरू वाले कैप्टन गोपीनाथ हैं। अब छोटे जहाज से यात्रियों को करीब चार हजार में हेमकुंड साहिब के और नजदीक ले जाते हैं और वापसी का टिकट डिस्काउंट पर ढाई हजार में ही मिल जाता है। गोपीनाथ उद्यमी हैं। उन्हें पता है हेमकुंड साहिब के दर्शन को आने वाले लोगों के पास पैसे ज्यादा हैं और वक्त कम। देखिए कैप्टन साहब बद्रीनाथ, केदारनाथ कब तक लो कॉस्ट में हवाई सफर कराते हैं।

पाण्डुकेश्वर गेट पर केसर,शिलाजीत बेचता 14 साल का दिलीप
धंधा तो, फिर धंधा होता है। छोटा हो या फिर बड़ा। कैप्टन हवाई जहाज से आसमान तक हैं तो, पाण्डुकेश्वर में एक और उद्यमी मिला। 14 साल का दिलीप। वो, भी हवाई सफर कराने का यकीन दिलाता है। हालांकि, उसका धंधा थोड़ा अलग है। वो, केसर और शिलाजीत बेचता है। हमने गाड़ी का शीशा उतारा तो, दिल्ली कहने लगा- शिलाजीत जोड़ों और कमर के दर्द से मुक्ति दिलाता है। ये मार्केटिंग फंडा काम नहीं आया तो, उसने तुरंत अमोघ अस्त्र छोड़ा। मजा आ जाएगा साहब शिलाजीत खाने के बाद सेक्स पावर बढ़ जाता है। खैर, हमें तो सेक्स पावर बढ़ाने की इच्छा थी नहीं इसलिए बच गए। लेकिन, बहुतेरे होंगे जो, ये बिना सोचे कि अगर ये सच का केसर-शिलाजीत होता तो, ये इतने बुरे हाल में इसे बेचते क्यों फिरते, खरीद लेते होंगे। दिलीप ने हमारा सामान्य ज्ञान बढ़ाया कि शिलाजीत मतलब- पत्थर का पसीना। जाहिर है पत्थर का पसीना होगा तो, फिर ... । वैसे, पाण्डुकेश्वर में पुलिस वाले जानबूझकर गेट लगा देते हैं जिससे वहां के दिलीप जैसे धंधेबाजों को थोड़ा कमाई का मौका मिल जाए। इस गेट पर शॉल, कंबल सब मिलता है।
पीछे दिख रही इसी धर्मशाला में हम रुके
बद्रीनाथ किसी का स्थाई घर नहीं है। क्योंकि, जैसे ही बर्फ पड़नी शुरू होती है। बद्रीनाथ के कपाट बंद हो जाएंगे और, सेना वहां की धर्मशालाओं, घरों और दुकानों को सील करके अपना कैंप बना लेती है। वैसे, हर तरह के खाने, रहने का इंतजाम वहां है। ज्यादातर अच्छे आश्रम हैं जो, सचमुच उचित दर पर रहने का इंतजाम कर देते हैं। लेकिन, कई आश्रम ऐसे भी हैं जिनको सरकार ने वहां बड़ी जमीन आवंटित कर दी है और वो, डीलक्स, सुपर डीलक्स कैटेगरी के कमरे के किराए भक्तों से ग्राहक के अंदाज में ले रहे हैं। इस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। खैर, हमें सचमुच के आश्रम में जगह मिली। सुबह 5 बजे हरिद्वार से हम लोग निकले थे और रास्ते में एक जगह चाय और पीपलकोटी में खाना खाने के अलावा हम कहीं रुके नहीं थी। पाण्डुकेश्वर गेट पर थोड़ा और एकाध जगह तस्वीरें लेने में भले थोड़ी देर रुके हों या फिर भूस्खलन की वजह से। इस सबके बाद भी हम 5 बजते-बजते बद्रीनाथ पहुंच गए थे।
बद्रीविशाल के दर्शन के बाद मंदिर के बाहर
आश्रम में गए। फ्रेश हुए। फ्रेश होने के बाद तक वहां ठंड बढ़ चुकी थी। जैकेट तो, पहले ही हम पहन चुके थे। इनर की भी सख्त जरूरत महसूस होने लगी। पानी जहां भी छू रहा था लग रहा था वो, जगह सुन्न हो गई है। जल्दी से एक चाय पी गई और सीधे चल पड़े मंदिर की ओर। मंदिर के सामने तप्तकुंड का पानी कुछ ज्यादा ही गरम था। क्योंकि, शाम की वजह से लोग कम थे। वैसे, इस कुंड के बारे में मान्यता यही है कि ये पानी गरम कितना भी हो। शरीर जलता नहीं है और न ही छाले पड़ते हैं। हमें भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। हम लोगों ने स्नान किया। प्रसाद की थाली लेकर मंदिर में पहुंच गए। ऑफ सीजन होने से भीड़ नहीं थी। आराम से बद्रीविशाल के दर्शन हुए।
सुबह के दर्शन के बाद
दर्शन से लौटकर थोड़ी देर सामने की बाजार में घूमे और फिर सोने की कोशिश में लेट गए। जिससे सुबह जल्दी उठकर सुबह का एक दर्शन और कर लें। सुबह की आरती का रेट ज्यादा था तो, हम लोगों ने तय किया कि सामान्य दर्शन ही सुबह का करेंगे। साढ़े छे बजे के बाद सामान्य दर्शन शुरू हो जाता है। लेकिन, नींद सुबह करीब तीन बजे से ही खुल गई। क्योंकि, हम मंदिर के सबसे नजदीक की धर्मशाला/आश्रम में थे। सुबह तीन बजे से ही घंटे और मंत्रोच्चार से नींद खुल गई। लेकिन, हमें पता था कि साढ़े छे के पहले मंदिर पहुंचने का फायदा नहीं। इसलिए साढ़े पांच बजे उठे। ठंड भगाने के लिए एक चाय और फिर तप्तकुंड में स्नान और सुबह का भव्य दर्शन हुआ। दर्शन के बाद वापस आकर सामने के रेस्टोरेंट में आकर चाय पी और इडली सांभर नाश्ता किया। और, ठीक साढ़े सात बजे बद्रीनाथ से हरिद्वार के लिए निकल पड़े।
एकाधन जगह चाय पीने के बाद इस बार भोजन हम लोगों ने किया श्रीनगर में। श्रीनगर बड़ा सेंटर। विश्वविद्यालय होने की वजह से नौजवान नजर आते हैं। रौनक बनी रहती है। छात्र राजनीति के जरिए आगे बढ़ने की चाह रखने वाले छात्रनेताओं के पोस्टर भी दिखे। वहां से चले तो, ऋषिकेश के पहले एक और चाय पी। और, पांच बजे तक हरिद्वार में प्रवेश हो गया। हरिद्वार घुसते ही तेज बारिश। अब मुझे दिल्ली लौटना था और हमारे मित्र मनीष को लखनऊ। उन्हें वहां से जौनपुर लौटना था। पता किया गया। दिल्ली के लिए रात दस बजे की वॉल्वो थी और लखनऊ के लिए 9.50 की दून एक्सप्रेस। वॉल्वो का मैंने टिकट बुक कराया और जीआरपी सीओ की मदद से दून एक्सप्रेस का एक पक्का टिकट। रात ढाई बजे वॉल्वो ने मुझे वसुंधरा के सामने एनएच 58 पर उतार दिया। शुक्रवार की रात 11.55 पर दिल्ली से निकले और रविवार की रात 2.37 मिनट पर वसुंधरा गाजियाबाद वापस।
दरअसल, हरिद्वार में एक बार रुकने की इच्छा भी हो रही थी थकान की वजह से। लेकिन, अगले दिन सोमवार को शहर में 32 रुपए और गांव में 26 रुपए रोजाना से ज्यादा कमाने वाले को गरीबी रेखा से ऊपर बताने वाले अपने हलफनामे पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के साथ मिलकर सफाई पेश करने वाले थे। इसलिए हरिद्वार रुकने का जो, थोड़ा मन भी बना था वो, रद्द हुआ। हालांकि, मोंटेक, जयराम की सफाई और भ्रम फैला गई।

Friday, September 30, 2011

जल्दबाजी मोदी को भारी पड़ेगी?


नरेंद्र मोदी के उपवास के दौरान लालकृष्ण आडवाणी
 गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में अब तक जो, दिखता रहा है कि वो, हर फैसला बड़ा सोच-समझकर लेते हैं। इसी से ताकतवर भी हुए। लेकिन, अब लालकृष्ण आडवाणी का ये विरोध नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी मुसीबत बनता दिख रहा है। इतनी हड़बड़ी ठीक नहीं। दिल्ली फिर दूर हो जाएगी।

और, सबसे बड़ी बात ये है कि नरेंद्र मोदी को ये समझना होगा कि अगर उन्हें 6 करोड़ गुजरातियों से आगे बढ़कर 120 करोड़ से ज्यादा हिंदुस्तानियों का नेता बनना है तो, उस अंतर के लिहाज से व्यवहार करना होगा। अगर ये अंतर नरेंद्र मोदी की समझ में नहीं आया तो, बस गुजरात को परिवारों को घूमने की जगह या फिर ऑटो हब बनाकर ही खुश रहना होगा।

नरेंद्र मोदी को तो, वैसे भी अच्छे से पता है कि विद्रोही तेवर दिखाने वाले भाजपाई नेता कितने भी बड़े हों। उनका हश्र क्या होता है। कुछ को तो, उन्होंने ही निपटाया है। और, उन्हें ये तो, अच्छे से पता होगा कि निपटा इसीलिए पाए कि पार्टी उनके साथ थी। एक जमाने के दिग्गज कल्याण सिंह आज जबरन ये बयान देते घूम रहे हैं कि वो, बीजेपी में किसी कीमत पर नहीं लौटेंगे। वो, ये नहीं बता पाते कि कीमत देने के लिए उन्हें खोज कौन रहा है। या उनके पास कीमत देने गया कौन था। कल्याण उस वक्त देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री थे और नरेंद्र मोदी से ज्यादा बड़े हिंदू हृदय सम्राट थे। उमा भारती तो, मध्य प्रदेश तक में जाकर बीजेपी की सरकार बनवा आईं थीं। आखिरकार उन्हें पार्टी की गति से ही चलते हुए लौटना पड़ा।

और, ये नरेंद्र मोदी और बीजेपी के हित में होगा कि ऐसी नौबत न आए कि मोदी की तुलना कल्याण, उमा (जैसे वो बाहर गई थीं) के साथ हो। अभी मोदी को शांत रहने की जरूरत थी। मोदी ने जिस तरह से उपवास के दौरान सबको छोटा दिखाने की कोशिश की वो, किसी को कैसे पचेगा। जबकि, आडवाणी अब कितने दिन। ये समझकर मोदी को फैसला लेना चाहिए। आडवाणी के बाद बीजेपी की स्वाभाविक पसंद वो बन जाते। और, ऐसे समय में नरेंद्र मोदी की ये राजनीति नीतीश कुमार जैसे लोग और बीजेपी में कम जनाधार वाले आडवाणी के पीछे घूमने वाले नेताओं की राजनीति चमकाने में मददगार होगी। क्योंकि, चमत्कार हो जाए और अभी सरकार गिरे, जो होने वाला नहीं है, तो, भले आडवाणी पीएम इन वेटिंग स प्रधानमंत्री बन पाएं। 2014 तक तो, उनकी दावेदारी किसी सूरत में नहीं बचेगी। और, ये बात नरेंद्र मोदी और उनके सभी शुभचिंतकों को समझना होगा।

क्योंकि, ये महज संयोग नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच जंग काफी समय से चल रही है। अभी लोकसभा चुनाव को दो साल से ज्यादा बचे हैं। पिछली बार भी 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात के चुनाव के समय ही ये घोषणा हो गई थी कि लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। और, करीब पांच साल बाद फिर वैसा ही दृष्य है। गुरु गुड़ रह गए चेला चीनी हो गया की देसी कहावत चरितार्थ होती दिख रही है।

Wednesday, September 14, 2011

राम धीरज (तीसरा और आखिरी हिस्सा)

राम धीरज के गांव के हर घर से लोग इलाहाबाद में थे। और, राम धीरज भी चाहता था कि इलाहाबाद में तरक्की करने वाले लोगों के आसपास ही सही वो खड़ा हो सके। राम धीरज के गांव के ही मैनेजर साहब भी थे। बैंक में मैंनेजर। दारागंज में ही अच्छा घर था। गांव के सबसे व्यवस्थित लोगों में थे। राम धीरज की पट्टीदारी के बड़े भाई लगते थे। गांव में भले ही मैनेजर साहब और राम धीरज के घर में खाबदान (यानी दावत-निमंत्रण का संबंध) बीच-बीच में टूटता रहा हो। लेकिन, राम धीरज मैनेजर भैया के यहां से कभी टूट नहीं पाया। वजह भी साफ थी वही  दो मंजिला भैया का मकान पोर्टिको में खड़ी कार दिखाकर तो, वो अपनी हीरो पुक के जरिए फरफराती इज्जत को थोड़ा ठोस आधार भी दे पाता था।
लेकिन, गजब का था राम धीरज। अपनी परेशानी, चिंता दूर करने से ज्यादा उसका समय दूसरों को परेशान, चिंतित करने में बीतता था। अब राम धीरज के गांव-देहात से हर घर से बच्चे पढ़ने इलाहाबाद ही पहुंचते थे। और, राम धीरज के समय में इलाहाबाद पढ़ने आए बच्चों के लिए वो, बड़ी मुसीबत बनता था। गांव में मां-बाप बच्चे के फेल होने पर भी उसकी तारीफ करते रहते। लेकिन, राम धीरज से ये कैसे बर्दाश्त होता। राम धीरज अपना पैसा लगाकर गांव के हर इलाहाबाद में पढ़ने वाले बच्चे की मार्कशीट की डुप्लीकेट कॉपी निकलवा लेता था। और, जिसने भी बेवजह की हवा-पानी बनाई। उसके दरवाजे के सामने मार्कशीट की डुप्लीकेट चिपक जाती थी।
इलाहाबाद में रहने वाले मैनेजर साहब को छोड़कर किसी घर का कोई बच्चा इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच भी नहीं पाया था। सब संबद्ध कॉलेजों तक ही पहुंचते। और, उसमें भी ज्यादातर कॉलेजों से बिना पूरी डिग्री लिए ही निकलते। उन सबकी डुप्लीकेट मार्कशीट राम धीरज के पास जरूर होती। यही वजह थी कि उससे पूरा गांव चिढ़ता था। लेकिन, उसके ऊपर इस सबका कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैनेजर साहब के अलावा वो, सबका मजाक बना देता था। चुनावी राजनीति से बड़ा बनने की महत्वाकांक्षा कुछ इस कदर उस पर हावी थी कि वो, खुद को राजनीतिक गतिविधियों से दूर नहीं रख पाता था। राम धीरज एक राजनीतिक पार्टी का वॉर्ड अध्यक्ष बन गया था। और, जब इलाहाबाद से एक राष्ट्रीय नेता चुनाव लड़ने आए तो, राम धीरज की महत्वाकांक्षा हुई कि उसे भी प्रचार के लिए गाड़ी चाहिए।
जब किसी जतन से गाड़ी प्रचार के लिए नहीं मिली तो, उसने प्रचार गाड़ी ही अपने नाम पर इश्यू करा ली। और, फिर पूरा प्रचार दारागंज में ही होता रहा। कुछ समय दारागंज में संकरी गली में उसके किचन वाले कमरे के सामने प्रचार गाड़ी खड़ी रहती तो, कभी मैनेजर साहब के घर के सामने। और, ये सब करके राम धीरज की हवा-पानी कुछ तो, बन ही गई थी। तभी तो, दारागंज की दो सड़कों- उसके घर के सामने की गली और मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क- की बिजली-सफाई की व्यवस्था चकाचक रहने लगी। उसके किराए के कमरे और मैनेजर साहब के दोमंजिला मकान के सामने के खंभों पर नगर निगम से इश्यू कराए गए बड़े हैलोजन भी लग गए। यहां तक कि पूरे दारागंज में सफाई के हालात चाहे जितने खराब हों उसके कमरे के सामने की गली और मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क चमकती रहती थी।
राम धीरज की महत्वाकांक्षा बड़ा बनने की थी। और, बड़ा बनने के लिए यूपी-बिहार में नेतागीरी से बेहतर कोई रास्ता नहीं होता। इसीलिए जब विश्वविद्यालय में उसे प्रकाशन मंत्री शॉर्ट फॉर्म में प्र मं बनने में सफलता हाथ नहीं लगी। तो, राम धीरज ने सोचा कि जब मोहल्ले में एक अपने कमरे के सामने की गली और एक मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क की सफाई और बिजली का इंतजाम मैं करा लेता हूं तो, और कुछ न सही सभासद का चुनाव तो जीता ही जा सकता है। और, चुनाव न भी जीते तो, कम से कम मोहल्ले का एक प्रतिष्ठित नेता तो बन ही जाऊंगा। और, यही प्रतिष्ठित होना ही उसके लिए सबसे बड़ा लक्ष्य था क्योंकि, लाख तिकड़म के बावजूद उसे कोई प्रतिष्ठा नहीं देता था। और, इसी प्रतिष्ठा को पाने के लिए उसने सभासदी का चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली। लेकिन, मुश्किल ये कि जिस राष्ट्रीय पार्टी से वो जुड़ा था। उस पार्टी की सभासद पहले से वहां थी। जातिगत समीकरण के लिहाज से उसका टिकट कटना संभव नहीं था। इसलिए टिकट मिल ही नहीं सकता था और न मिला। लेकिन, राम धीरज को तो, चुनाव लड़ना था। प्रतिष्ठा जो, हासिल करनी थी। इसलिए राम धीरज ने निर्दल चुनाव लड़ा। चुनाव तो, लड़ा। लेकिन, चुनाव हारा क्योंकि, जीत जाता तो, राम धीरज के जीवन में एक ऐसी बात हो जाती जो, उसे असमय इस दुनिया से जाने से रोकती।
राम धीरज चुनाव तो, हारा ही। इस दौरान नियमित खर्चे बढ़े और उन नियमित तौर पर बढ़े अनियमित खर्चों को नियमित करना तो, राम धीरज को आता ही नहीं था। खर्चे बढ़ते गए और वो, इधर-उधर की दिखा-बताकर लोगों से कर्ज लेता रहा। इसमें उसका मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क की सफाई और हैलोजन लगवाने का निवेश बड़ा काम आता रहा। हर किसी को मैनेजर साहब दोमंजिला मकान दिखाकर वो, बैंक गारंटी टाइप की देता रहा। लेकिन, खोखली बैंक गारंटी कब तक काम आती। आखिरकार, कर्ज देने वालों को जब बैंक गारंटी के बजाए अपनी रकम की चिंता बढ़ी तो, उन्होंने राम धीरज पर दबाव बढ़ाना शुरू किया।
अचानक राम धीरज गांव में ज्यादा रहने लगा। गांव वाले सोचने लगे कि क्या हुआ राम धीरज तो, गांव में रात रुकता ही नहीं। अचानक क्यों हफ्ते भर से यहीं पर पड़ा है। राम धीरज गांव में रुकता नहीं था। तो, उसकी वजह भी थी। वही कम सुंदर अपनी पत्नी से दूर रहने की मंशा। वैसे, वो अपनी सुंदर भाभी के पास घंटों बेवजह बात बनाते-बतियाते बैठा रहता। खैर, राम धीरज के गांव में इतने दिन रुकने का भंडाफोड़ एक दिन हो ही गया। जिन लोगों ने मैनेजर साहब की अनकही बैंक गारंटी के आधार पर राम धीरज को कर्ज दिया था। वो, मैनेजर साहब के दरवाजे पहुंच गए। दारागंज में रहते मैनेजर साहब को भी समय हो गया था। और, लोगों में प्रतिष्ठा भी थी। वही प्रतिष्ठा जिसका दशांश पाने के लिए राम धीरज आजीवन तरसता रहा। इस प्रतिष्ठा की वजह से राम धीरज को कर्ज देने वालों को मैनेजर साहब के दरवाजे से जाना पड़ा।
राम धीरज ने धीरे से कमरा भी छोड़ दिया था। लेकिन, वही पत्थर की गली वाला कमरा, जिस पत्थर पर राम धीरज का नाम लिखा था। वो, कमरा उसने छोड़ दिया। न छोड़ता तो, शायद उसी वक्त दुनिया छोड़नी पड़ती। लेकिन, कमरा तो छोड़ा। लोग कैसे छोड़ पाता। कमरे के मकान मालिक की यामाहा पर बैठकर तो, वो अपने गांव तक हो आया था। बस फिर क्या था राम धीरज को कर्ज देने वाले उसी मकानमालिक के सहारे गांव तक पहुंच गए। गांव में धड़धड़ाते दो बुलेट पर 4 लोग पहुंच गए। राम धीरज छिप गया। या यूं कह लें कि गांव में 4 लोगों का इतना तो, दावा बनता नहीं था कि वो, सर्च वारंट लेके राम धीरज को गांव में खोज पाते। वो, लौट आए लेकिन, ये कहके अगर राम धीरज इलाहाबाद में दिख गया तो, खैर नहीं।
खैर, जब खैर नहीं थी तो, राम धीरज भला क्यों इलाहाबाद में दिखता। बेचारे को अपनी एकमात्र उपलब्धि वो, पत्थर वाली गली छोड़कर जाना पड़ा। उस पत्थर पर जिस पर उसका ना खुदा था। बिना कुछ हुए। और, गली ही नहीं, मोहल्ला क्या इलाहाबाद शहर ही छोड़ना पड़ गया। वो, चुपचाप नोएडा भाग गया। नोएडा, यूपी का वो, शहर जो, यूपी का अकेला शहर बना। और, यूपी के भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी कहानियां भी यहीं से निकलती हैं। खैर, रीम धीरज की तिकड़मों से वाकिफ लोगों को लगा कि अब नोएडा में जाकर तो, वो कुछ ऐसा कर ही लेगा कि उसके जीवन में थोड़ी प्रतिष्ठा तो, जुड़ ही जाए। लेकिन, बेचारा राम धीरज। न प्रतिष्ठा जुड़नी थी न जुड़ी। अब नोएडा में न तो, सभासदी का चुनाव था। न विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का शॉर्ट फॉर्म बनने का मौका। यहां तो, उसके लिए संकट आ गया था आजीविका चलाने का। उस पर गांव में उसकी पत्नी को भी कोई रखने को तैयार नहीं था। पत्नी को भी लेकर आना था।
तो, राजनीति के जरिए प्रतिष्ठा पाने की राम धीरज की कोशिश नोएडा आकर पूरी तरह धूमिल हो गई। और, राम धीरज को नोएडा के हजारों मजदूरों की तरह एक कपड़ा कंपनी में मजदूरी करनी पड़ी। लेकिन, राम धीरज को आदत थी। इसलिए यहां भी उसने स्टोर का काम पकड़ा और धीरे-धीरे स्टोर इंचार्ज हो गया। यानी, उसके लिहाज से फिर थोड़ा प्रतिष्ठा का काम उसे मिल गया था। लेकिन, अपने नाम लिखे पत्थर वाली गली से दूरी राम धीरज को इस कदर सालती रही कि उसे धीरे-धीरे बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया।
बीमारी कोई ऐसी नहीं थी जो, इस जमाने में दूर न होती। लेकिन, उसे जो सबसे गंभीर बीमारी लगी थी। वो, थी अपने नाम लिखे पत्थर वाली गली से दूरी। आखिर वही एक पत्थर तो, उसकी जिंदगी की उपलब्धि था। खैर, टीबी की बीमारी ने धीरे-धीरे राम धीरज की शक्ल कुछ ऐसी बना दी कि कम सुंदर दिखने वाली उसकी पत्नी अब उसके मुकाबले में आ गई। लेकिन, वो भी गजब की मिट्टी का बना था। जिस बड़े भाई ने उसकी पत्नी को गांव में रहने नहीं दिया। जो, उसे नियमित तौर पर कोसता था। उसे पैसे नहीं देता था और न ही जब तक उसके पिता रहे, उन्हें देने देता था। जैसे ही राम धीरज थोड़ा कमाने लगा उसी, बड़े भाई के बेटे को नोएडा ले आया।
भाई का बेटा भी जैसे-तैसे ही था पढ़ने में। जैसे-तैसे ही रहा। मैनेजर साहब, अरे वही दारागंज वाले, उनका बेटा भी नोएडा आ गया था। नोएडा में एक बड़ी कोठी किराए पर लेकर रहता था। राम धीरज उससे भी विश्वविद्यालय के दिनों से ही इस कदर प्रभावित था कि उसे अपनी हीरो पुक अकसर देकर चला जाता था। तो, जब राम धीरज को पता लगा कि मैनेजर साहब का बेटा नोएडा आ गया है तो, एक दिन वो, मिलने आया। लेकिन, प्रतिष्ठा का उसे खूब ख्याल था। इसलिए पता नहीं किसको पटाकर उसकी फोर्ड आइकॉन से ही आया। आखिर मैनेजर साहब के बेटे से जो, मिलना था। उधारी की फोर्ड आइकॉन का दबाव था इसलिए जल्दी में भागना पड़ा। लेकिन, ये सफल कोशिश की कि किसी तरह मैनेजर साहब का बेटा बाहर आकर देख ले कि राम धीरज फोर्ड आइकॉन से आया है।
उधारी की फोर्ड आइकॉन और ऐसी ही उधारी की प्रतिष्ठा पर राम धीरज पूरे जीवन चलता रहा। मन में इच्छा थी कि किसी तरह कुछ असल प्रतिष्ठा भी हाथ लग जाए। लेकिन, असल प्रतिष्ठा उसके लिए मृग मरीचिका ही बनी रही। धीरे-धीरे राम धीरज की तबियत ज्यादा खराब होने लगी। इतनी कि उसे कपड़ा कंपनी की नौकरी छोड़नी पड़ी। फिर उसके पास पैसे ही नहीं थे कि वो, अपनी टीबी की बीमारी का इलाज करा पाता। राम धीरज के अपने कोई बच्चे भी नहीं हुए कि वो, बीमारी से लड़ने का उत्साह बना पाता। आखिरकार, उसका चक्र पूरा होता गया और एक दिन नोएडा से वापस उसे प्रतापगढ़ के अपने उसी गांव लौटना पड़ा। जहां से उसने प्रतिष्ठा की चाह में सफर शुरू किया था।
जिस गांव को उसने छोड़ा ही इसीलिए था कि उसे प्रतिष्ठा चाहिए थी। गांव में रह रहे लोगों और गांव से निकलकर बाहर बसे लोगों से ज्यादा। सारी जिंदगी वो, गांव में रह रहे लोगों का और मौका मिलने पर तो, गांव के बाहर बसे लोगों का भी मजाक उड़ाता रहा। यहां तक कि उनको भी उसने नहीं बख्शा जिन्होंने जीवन में उससे कई गुना ज्यादा प्रतिष्ठा बनाई उनका भी मजाक बनाने से वो, नहीं चूकता था। मैनेजर साहब इसमें अपवाद थे। अब जब राम धीरज को भले ही टीबी की बीमारी की वजह से फिर से उस गांव में लौटना पड़ा। और, उसने देखा कि इन दो एक डेढ़ दशकों में तो, गांव के बच्चे भी काफी आगे निकल गए हैं तो, उसकी टीबी की बीमारी लाइलाज होती गई।
टीबी की बीमारी क्या लाइलाज होती गई। दरअसल, तो वही अपने नाम लिखे पत्थर से दूरी उसे बीमार करती गई। उस पर कुछ न कर पाने की कसक। प्रधानमंत्री के शॉर्ट फॉर्म की तो, छोड़िए कुछ नहीं कर पाया। और, उसी अपने प्रतापगढ़ के गांव में लौटना पड़ा। राम धीरज अब धीरज खो रहा था। टीबी की बीमारी ने उसकी शक्ल अपनी कम सुंदर पत्नी से कई गुना बदसूरत कर दी थी। राम धीरज न तो अच्छा बेटा बन सका। न अच्छा भाई। और, सबसे महत्वपूर्ण कि न ही अच्छा पति। फिर पिता कैसे बन पाता। वैसे, जरूरी नहीं कि अच्छा पति न बन पाने वाले लोग पिता ही न बन पाएं। बनते हैं बहुत से अच्छा पति न बन पाए लोग भी खूब पिता बने हैं। लेकिन, शायद उसके जीवन में कुछ भी ऐसा दर्ज नहीं होना था। इसीलिए जब अच्छा क्या, कामचलाऊ पति बनने की कोशिश भी की तो, शायद दूसरी परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया होगा। और, राम धीरज ऐसे ही निकल लिया, इस दुनिया से।
समाप्त

Tuesday, September 13, 2011

राम धीरज (दूसरा हिस्सा)

राम धीरज, वो भी ऐसे ही लोगों में था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं मिला। दाखिला मिला, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध सीएमपी डिग्री कॉलेज में (चौधरी महादेव प्रसाद महाविद्यालय)। कमरा लिया दारागंज में। घर से कम ही पैसा मिलता था। इसीलिए वो, दारागंज की उस गली में छोटे-छोटे कमरे वाले मकान के भी किचेन में रहता था। लेकिन, बहुत महत्वाकांक्षा थी। बहुत कुछ बनना-करना चाहता था। इसीलिए जिस घर में किराए पर रहता था उसी के मालिक के बेटे को भी इतना कुछ बता-समझा दिया कि उसकी यामाहा 100 उसकी सवारी बन गई। बाद में यही यामाहा 100 की सवारी उसकी मुसीबत भी बनी। जिसकी वजह से उसे अपने नाम खुदी हुई पत्थर वाली गली छोड़कर जाना पड़ा।
महत्वाकांक्षा कुछ इस कदर थी कि उसने सोचा कि उसकी किस्मत में भी लोकतंत्र में कोई न कोई चुनाव तो जीतना लिखा ही होगा। इसकी शुरुआत हुई सीएमपी डिग्री कॉलेज में नामांकन करने से। खैर, चुनाव जीते न जीते। उसे तो नेता बन जाने की धुन थी। और, ये बात तो सही ही है कि सारे नेता चुनाव जीतते ही थोड़े हैं। बस इसी धुन में खैर। सीएमपी से बीए की डिग्री लेने के दौरान वो, इतना तेज हो चुका था कि किसी तरह से लंद-फंद जुगाड़ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला करा ही लिया। अब दाखिला कोई पढ़ाई पूरी करने के लिए तो, कराया नहीं था। दाखिला कराया था कि किसी तरह नेता बनने का मौका मिल जाए। और, नेता बनने के लिए चुनाव लड़ना तो जरूरी ही था।
लेकिन, चुनाव लड़ने के लिए उसे ऐसा पद चाहिए था जो, जीता जाए न जाए। देश के सर्वोच्च पद से मेल जरूर खाता हो। देश के सर्वोच्च पद हैं प्रेसिडेंट या फिर प्राइम मिनिस्टर। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रेसिडेंट का तो, चुनाव होता था। लेकिन, प्राइम मिनिस्टर या प्रधानमंत्री का कोई पद तो था ही नहीं। उसने इसका भी तोड़ निकाल लिया। ऐसे लोगों में दिमाग भी गजब की दिशा में 100 मीटर की रेस दौड़ता रहता है। इसी 100 मीटर की रेस में से उसे विचार सूझा कि प्राइम मिनिस्टर या प्रधानमंत्री का शॉर्ट फॉर्म प्र मं या पीएम होता है। बस प्रकाशन मंत्री का चुनाव लड़ने का उत्तम विचार अमल में लाया गया। अंग्रेजी में भी जोड़ा ठीक बैठ रहा था- पब्लिकेशन मिनिस्टर यानी शॉर्ट फॉर्म में पीएम। बस फिर क्या था- चुनाव तक राम धीरज पूरे शहर की दीवारों पर पीएम बन गया।
जेब में पैसे भी नहीं और उसके ऊपर कोई चुनाव के लिए पैसे लगाने वाला भी नहीं। लेकिन, दिमाग तेज था। इसीलिए इसका भी तोड़ निकल आया। 100 रुपए का गेरुआ रंग, ब्रश। घोल बनाया और हीरो पुक (पता नहीं पुक या पुच) पर निकल पड़े राम धीरज शहर को ये बताने कि वो, पीएम बनने की तैयारी में हैं। खैर, असल में शहर को नहीं धीरज को तो, गांव के लोगों में अपनी इज्जत बढ़ानी थी। इसलिए प्रतापगढ़ से इलाहाबाद को आने वाले रास्ते के हर पड़ाव पर खोज-खोजकर राम धीरज गेरुए रंग से खुद को पीएम बनाते रहे। ये सिलसिला रात को चलता था। सुबह तो, नेताजी हीरो पुक पर सफेद कुर्ता और पैंट पहने गमछा लटकाए घूमते थे। उसके गांव से हर किसी का घर इलाहाबाद में भी था। वजह भी साफ थी- इलाहाबाद तो, पढ़ाई से लेकर हर जरूरत के लिए बड़ा केंद्र था। और, कई गांव के लोग इलाहाबाद में नौकरी भी करते थे। उन सबके इलाहाबाद में आने का रास्ता फाफामऊ, तेलियरगंज होकर ही आता था। बस फाफमऊ, तेलियरगंज की दीवारों, होर्डिंग पर बड़े जतन से राम धीरज खुद पीएम बन गए। उसकी लाल रंग की हीरो पुक पर भी सफेद रंग से लिखा जा चुका था- राम धीरज, प्र मं। कोई नजदीकी पूछता- चुनाव लड़ रहे हो। कम से कम पद का ना तो पूरा प्रकाशन मंत्री लिखो। लेकिन, न चुनाव प्रकाशन मंत्री का जीतने की संभावना भी नहीं थी और राम धीरज की महत्वाकांक्षा भी नहीं। इसलिए वो, हमेशा प्रधानमंत्री का शॉर्ट फॉर्म ही रहा।

दरअसल वो ज्यादातर का शॉर्ट फॉर्म ही रहा। हीरो पुक भी राम धीरज की खुद की खरीदी नहीं थी। शादी गांव-देहात में जैसे होती है। वैसे ही समय से पहले हो गई थी। यानी, पढ़ाई चलते-चलते ही। बीवी, राम धीरज के मुताबिक, सुंदर नहीं थी। वैसे, राम धीरज भी कोई मायानगरी का हीरो टाइप नहीं दिखता था। लेकिन, गांव से इलाहाबाद आने की सफलता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध सीएमपी डिग्री कॉलेज में बीएम में दाखिला मिलने की सफलता। राम धीरज को इस सबसे और इलाहाबाद आने पर सुंदर लड़कियों को देखते रहने भर से अपनी बीवी की सुंदरता घटती और अपनी हीरोगीरी बढ़ती दिखने लगी। और, इसमें उसकी बीवी बिना दोषी होते हुए भी सजा भुगतती रही। भारतीय परिवारों की तरह बीवी रहती उसके घर में ही थी। लेकिन, वो इलाहाबाद के दारागंज मोहल्ले में रहने लगा। जबकि, बीवी उसके मां-बाप और भाई-भाभी की सेवा में लगी रही। राम धीरज को एक और कष्ट था कि उसकी भाभी सुंदर है। इसीलिए जब वो इलाहाबाद से प्रतापगढ़ अपने गांव जाता भी था तो, अपनी बीवी से बेरुखी और भाभी से ही संवाद करता था।
लेकिन, इलाहाबाद पहुंचे राम धीरज को साइकिल से हीरो पुक – वही जिस पर बाद में राम धीरज त्रिपाठी, प्र मं लिखाकर घूमता था- तक पहुंचाया भी उसी बीवी ने। राम धीरज ने अपने ससुर को बीवी से प्रेम करने के भरोसे के आधार पर उससे मोटरसाइकिल की मांग कर दी। खैर, बेचारा मोटरसाइकिल तो, नहीं दहेज के तौर पर शादी के कई साल बाद हीरो पुक देने से नहीं बच पाया। क्योंकि, उम्मीद थी कि कम से कम इसी हीरो पुक के बहाने तो राम धीरज अपनी पत्नी के करीब आएगा। हीरो पुक आ तो, गई लेकिन, राम धीरज को न पत्नी के पास आना था न वो, आया। वो. हीरो पुक सीएमपी से इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे राम धीरज के लिए राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में मददगार हो गई।
जारी है ...

Monday, September 12, 2011

राम धीरज (पहला हिस्सा)

उसने जीवन में ऐसा कुछ नहीं किया कि उसके ऊपर कुछ लिखा-पढ़ा जाए। आखिर उसके बारे में लिखना-पढ़ना चाहेगा भी कौन। किसी का आदर्श तो, क्या छोटा-मोटा उदाहरण भी बनने के काबिल नहीं बन पाया था वो। न तो अच्छा बेटा बन सका। न अच्छा भाई। और, सबसे महत्वपूर्ण कि न ही अच्छा पति। फिर पिता कैसे बन पाता। वैसे, जरूरी नहीं कि अच्छा पति न बन पाने वाले लोग पिता ही न बन पाएं। बनते हैं बहुत से अच्छा पति न बन पाए लोग भी खूब पिता बने हैं। लेकिन, शायद उसके जीवन में कुछ भी ऐसा दर्ज नहीं होना था। इसीलिए जब अच्छा क्या, कामचलाऊ पति बनने की कोशिश भी की तो, शायद दूसरी परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया होगा। और, राम धीरज ऐसे ही निकल लिया, इस दुनिया से।
ऐसा नहीं है कि राम धीरज में महत्वाकांक्षा नहीं थी। दिमाग नहीं था या फिर कुछ करना नहीं चाहता था। वो, बहुत कुछ करना चाहता था। काफी कुछ किया भी। किया न होता तो, उसके नाम का पत्थर अभी तक कैसे लगा रह पाया होता। बिना कुछ हुए, मतलब बिना किसी राजनीतिक या अधिकारिक पद के मिले, गली के मुहाने पर उसके नाम का पत्थर अभी भी इलाहाबाद के गंगा से सटे पुराने मोहल्ले दारागंज की एक गली में लगा है। लेकिन, वही ना कि राम धीरज की किस्मत भी उसकी जितनी करनी थी, उसका भी साथ नहीं दे रही थी। इसीलिए राम धीरज के नाम का पत्थर गली के मुहाने पर चिपक तो, गया लेकिन, फूलवाली बुढ़िया के तखत के नीचे छिप गया है। क्योंकि, पत्थर गली की जिस शुरुआत पर चिपका था। वहीं पर मंदिर था कोने में। लिहाजा बिना बुढ़िया के जाने राम धीरज के नाम वाला पत्थर छिप गया, तख्त के नीचे। जाहिर है, फूलवाली बुढ़िया की कोई राम धीरज से न तो पहचान रही होगी और न ही कोई दुश्मनी। राम धीरज दरअसल किसी से दुश्मनी की हद तक वाला कोई काम करता ही नहीं था।
फिर भी उसके बड़े दुश्मन थे। दुश्मन ऐसे हो गए कि उसे वो, गली ही छोड़नी पड़ गई जिसके मुहाने पर बड़ी मेहनत-मशक्कत से वो, पत्थर लगवा पाया था। एक वो, पत्थर ही तो था उसके जीवन की एक मात्र कमाई जिसे वो, होता तो, शायद लोगों को बताता। लेकिन, उस पत्थर से दूर रहकर वो, क्या जी पाता। ज्यादा समय जी पाया भी नहीं।
पत्थर वाली गली। दारागंज मोहल्ले की एक संकरी गली। उसी गली में एक छोटे-छोटे कमरों वाले मकान में वो, रहने आया था। प्रतापगढ़ के एक गांव से। ये छोटे-छोटे कमरे वाले मकान इलाहाबाद के हर मोहल्ले में ऐसे ही होते हैं कि बस कोई प्रतापगढ़, जौनपुर, सुल्तानपुर, फैजाबाद से लेकर गोरखपुर और बिहार से लेकर कोलकाता तक से आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के नाम पर। और, किराए का कमरा लेकर रहे। अब इतने लोगों के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीट तो कभी थी नहीं। और, हमेशा दूसरे शहरों से इलाहाबाद आने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्थानों या पत्राचार संस्थानों में दाखिला लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने का एक गर्वीला अहसास लिए कई साल बिता देते थे।
…. जारी है

Saturday, September 10, 2011

और, किसी में दम भी तो नहीं?

सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के दौरान आडवाणी के साथ अटल, गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह
भ्रष्टाचार के खिलाफ लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को पीएम बनने का आखिरी दांव मान रहे हैं। काफी हद तक सही भी है। लेकिन, बड़ी सच्चाई ये है कि बीजेपी में आडवाणी के अलावा कोई ऐसा राष्ट्रीय नेता भी तो नहीं है जो, पूरे देश में एक समान दमदारी से रथयात्रा कर सकता हो। इस बार की रथयात्रा की भी असली परीक्षा उत्तर प्रदेश में ही होगी। वैसे, अच्छी खबर ये है कि उमा भारती लौट आईँ हैं और अपने पिता समान आडवाणी की रथयात्रा को सफल बनाने के साथ अपनी राजनीतिक जमीन सुधारने की भी बड़ी चुनौती उनके सामने होगी।

लेकिन, अब कई मुश्किले हैं। प्रमोद महाजन नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेयी नहीं जैसे ही हैं। गोविंदाचार्य होते हुए भी नहीं हैं। और, कल्याण सिंह हैं भी तो, उल्टे हैं। कौन चलेगा इस बार आडवाणी के साथ। राज्यों में मंच पर कौन से नेता होंगे जो, दहाड़ेंगे। आडवाणी के अलावा किसकी शक्ल देखकर बीजेपी कार्यकर्ता या आम जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में पूरे मन से जुटेगी। कई सवाल हैं। देखिए, इनके जवाब रथयात्रा के बाद कैसे आते हैं।

Wednesday, September 07, 2011

भारत में ये रुटीन है!


एक और धमाका। जगह वही दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर जहां 25 मई को कोई नहीं मरा था। अब कितने मरे, किस तरह से धमाका हुआ। सरकार की आपात बैठक। इस संगठन की चिट्ठी। अगले धमाके का इंतजार। बस ना कि और कुछ।

हां, जब धमाके न हों तो, बहस ये कर लें कि आतंकवादियों को भी फांसी देना क्या ठीक है। अब पूरा हो गया।

Tuesday, September 06, 2011

बेईमानी से कुछ और लोग डरे होंगे

ईमानदार लोगों को अब भारत में थोड़ा बल तो मिल रहा होगा। अन्ना का भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार आंदोलन और उसके सामने दंडवत सरकार। कल रेड्डी जेल में, आज अमर सिंह। कलमाड़ी से लेकर राजा तक पहले से हैं। बिहार में भ्रष्ट आईएएस का घर स्कूल बनेगा। मैं बेईमान बनने से पहले से डरता था। अब बेईमान भी डरने लगे होंगे।

जब अमर सिंह के जेल जाने की खबर मैंने सुनी तो, सचमुच मैं बहुत खुश हुआ। अमर सिंह से मेरी कोई निजी दुश्मनी नहीं है न ही दोस्ती। इत्तफाक से पत्रकारिता में होने के बाद भी कभी अमर सिंह नामक प्राणी से मिलने का अवसर नहीं मिला। लेकिन, पत्रकारिता में जो, जानने वाले कभी अमर सिंह के संपर्क में आए वो, अमर लीला बताते रहते हैं। किस तरह अमर सिंह हर किसी को दलाली के नाना प्रकार के तंत्र से वश में करने की क्षमता रखता-दिखाता रहता था ये कोई छिपी बात तो है नहीं। किसी ने कुछ बोला तो, उसके खिलाफ रुपए से लेकर रूपसियों तक का सचित्र विवरण अमर सिंह के लिए ब्रह्मास्त्र जैसा काम करता रहा। यही वजह रही कि मुलायम सिंह यादव का साथ छूटने के बाद भी यही लगता था कि ये अमर सर्वाइव कर जाएगा। अमर सिंह ने दलाली की सारी सीमाएं लांघ ली थीं। अमर सिंह की खूबी ही यही थी कि मुश्किल में फंसे बड़े आदमी को गलत तरीके से मदद करके उस मदद के अहसान के तले दबा दो। फिर चाहे वो, मुलायम सिंह यादव रहे हों, अमिताभ बच्चन या फिर अनिल अंबानी। वैसे, सच्चाई देखी जाए तो, जिसके साथ अमर सिंह जुड़े उसे बर्बाद ही किया। अमर प्रभाव में मुलायम की समाजवादी पार्टी सिर्फ अभिनेता और अभिनेत्रियों की पार्टी रह गई। हां, अमर प्रभाव से धन की कमी मुलायम को कभी नहीं हुई।

अमिताभ बच्चन का चाहे जितना जलवा रहा हो। अमर प्रभाव में उसका तेज भी खत्म नहीं तो, कम तो हुआ ही। अमिताभ चूंकि पुराने जमाने में कांग्रेसी हथकंडों से वाकिफ रहे हैं। इसलिए अमर प्रभाव से थोड़ा बच गए। और, अपनी जमीन बनाए-बचाए रहने में कामयाब रहे। लेकिन, छोटे अंबानी को कैसे अमर प्रभाव ने बर्बाद किया वो, तो सबको पता है। उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में दादरी से गुजरते हर व्यक्ति को समझ में ये जरूर आता होगा। अमर सिंह जैसे लोग जिस तरह से नीचे से ऊपर पहुंच गए वो, सीध रास्ते से तो संभव ही नहीं था। इसीलिए एक बार मैंने भी लिखा कि आखिर अमर सिंह, मायावती ये न करें तो, क्या करें लेकिन, इन लोगों  ने तो, ऐसा कर दिया कि सब पीछे छूट गया। और, अब पीछे छूटे लोग तो, ये भी करके आगे की कतार में पहुंचने लायक नहीं रहे।

कुछ ऐसा ही कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं ने किया। दक्षिण में पहली भगवा सरकार के भ्रम में बीजेपी भी इस कदर उनके जाल में फंसती गई कि अंदाजा ही नहीं लगा कि कितनी तेजी से कांग्रेस बनने की कोशिश वो कर रहे हैं। हालांकि, बेल्लारी के बीजेपी वाले रेड्डी बंधुओं की कामयाबी के पीछे सारी ताकत कांग्रेस वाले दिवंगत वाईएसआर रेड्डी की ही है। यहां तक कि बेल्लारी के रेड्डी का धन आंध्र के रेड्डी के सहारे ही तेजी से बढ़ा। कांग्रेस वाले रेड्डी ने गुलामी की परंपरा ऐसे लोगों में भर दी थी कि वहां के लोग अभिमान के साथ रेड्डी के लिए जीवन देने को तैयार थे। बेटे जगनमोहन भी उसी फॉर्मूले को आजमा रहे हैं। और, बीजेपी वाले रेड्डी बंधुओं ने अनाप-शनाप पैसे की ताकत पर ऐसे सब कुछ ढेर कर दिया था कि हवाला डायरी में नाम भर आने से इस्तीफा देने वाले लालकृष्ण आडवाणी और बड़ी सी बिंदी लगाए हिंदुस्तानी महिला की ब्रांड सुषमा स्वराज भी बस इन्हें आशीर्वाद भर देने के ही लायक बचे रह गए।


लेकिन, एक बात जो, अभी होनी है कि अमर सिंह किसके लिए ये पैसे जुटाकर बीजेपी के सांसद खरीद रहे थे। मुलायम सिंह यादव को तो, उससे प्रधानमंत्री बनाया नहीं जा सकता था। जाहिर है सरकार कांग्रेस की ही थी और विश्वासमत भी उसी सरकार को जीतना था। फिर पैसा लेते-देते तो, समाजवादी के सांसद रेवती रमण सिंह ही दिखे थे। वो, जेल क्यों नहीं गए। कोई कांग्रेसी जेल जाने की लिस्ट में क्यों नहीं है। बीजेपी के सांसद रिश्वत लेकर घर तो गए नहीं। तो, उनके अभियान को भ्रष्टाचार मिटाने में सहयोग मानने के बजाए उन्हें भी दोषी क्यों माना गया। हो, सकता है कि आगे अदालत इस बात पर ध्यान दे। लेकिन, फिलहाल तो, मैं और मेरे जैसे लोग खुश इसीलिए होंगे कि बेईमान होने से अब ईमानदारों को ही बेईमानों को भी डर लगेगा।

Saturday, September 03, 2011

मायावती के दलित उत्थान की एक बानगी

मायावती की सरकार में दलित उत्थान हो रहा है। सचमुच काफी हद तक हुआ भी है। मायावती मनुवाद को गाली देतीं हैं। मायावती ने शादी नहीं की है। परिवारवाद का आरोप कम ही लगेगा। लेकिन, मायावती के खासमखास स्वामी प्रसाद मौर्य देखिए क्या मिसाल पेश कर रहे हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य प्रतापगढ़ जिले से हैं। अब बेटे  को ऊंचाहार विधानसभा से चुनाव लड़ाना चाह रहे हैं। भतीजे को पहले ही प्रतापगढ़ जिला पंचायत का अध्यक्ष बना चुके हैं। हमें इस सबसे कोई एतराज नहीं है। लेकिन, देखिए लोकतंत्र में कितने ठसके से ऊंचाहार विधानसभा के लोगों से अपील कर रहे हैं। पूरी होर्डिंग पढ़िए सब साफ हो जाएगा। ये साहस तो सोनिया गांधी भी बेटे राहुल के लिए नहीं कर पाएंगी।

Tuesday, August 23, 2011

टीवी देखने से काफी कुछ साफ रहता है, दिमाग भी!

रामलीला मैदान पर अन्ना का एक मुस्लिम समर्थक 
जो लोग इस आंदोलन में मुसलमानों की गैरमौजूदगी की बात कर रहे हैं। उन्हें टीवी चैनलों को ध्यान से देखना चाहिए। मेरे कैमरे पर भी कई मुसलमानों ने बुखारी की बददिमागी को नकारा है।

इस आंदोलन में दलितों की हिस्सेदारी कितनी ज्यादा है। ये रामलीला मैदान में एक बार आंख खोलकर घूमने से पता चल जाएगा। कल करोलबाग के अंबेडकर टोले से 400 दलित आए थे। सबसे मैंने कैमरे पर ये पूछा कि क्या आप लोग सिर्फ भावनाओं में बहकर यहां चले आए हैं। जबकि, तथाकथित दलित नेता तो, कह रहे हैं ये शहरी, इलीट सवर्णों का आंदोलन है। तो, सबका जवाब था- अन्ना को गरियाने वाले बेवकूफ हैं।

मैंने उनसे नाम के साथ वो, क्या कर रहे हैं। ये सब पूछा है। कुछ भी भुलावे में रखकर नहीं। ये तथाकथित एक धर्म, वर्ग, जाति के नेताओं को दुकान बंद होने का खतरा हमेशा ही सताता रहता है। और, उसमें ये बेवकूफियां भी करते रहते हैं।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...