नसीब बदनसीब की बड़ी
चर्चा हुई दिल्ली विधानसभा के चुनाव में। वैसे तो ‘नसीबवाला’ कौन कितना है, ये समझना बड़ा मुश्किल है। लेकिन, कम से कम आज
केंद्रीय सरकार के बजट के बाद मध्यम वर्ग तो खुद को बदनसीब ही महसूस कर रहा होगा।
बदनसीबी इस बात की कि बजट महीने के अंत में क्यों आता है। फरवरी में ही क्यों आता
है। फरवरी की बजाए दूसरा महीना होता तो शायद 2 दिन और मिलते तेल कंपनियों को कच्चे
तेल की कीमतों की समीक्षा के लिए। लेकिन, 28 दिन की फरवरी, सुबह अरुण जेटली ने कम
समझ में आने वाला बजट पेश किया तो, शाम को तेल कंपनियों ने रहा सहा मध्यवर्ग को
समझा दिया। समझा दिया कि कोई छूट नहीं जेटली साहब कह रहे हैं कि मध्यवर्ग को अपने
पैसे की चिंता खुद करनी है। इसलिए अपने ऊपर जरा सा भी बोझ न बढ़ाते हुए जल्दी से
मध्यवर्ग पर तीन-तीन रुपये से ज्यादा पेट्रोल-डीजल महंगा कर दिया। अच्छा है अब
चाहे डीजल गाड़ी हो या पेट्रोल- दोनों को समान तनाव मिल रहा है। अब भले ही ये
पेट्रोल-डीजल महंगा कच्चे तेल के महंगे होने से हो रहा है। लेकिन, चूंकि दिल्ली
चुनाव के समय खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोल गए हैं कि नसीब का बड़ा महत्व
होता है तो लोग नसीब, बदनसीब की चर्चा करने लगे हैं। अब बीजेपी के लोग ये समझाने
की कोशिश करेंगे कि पेट्रोल-डीजल कच्चे तेल के महंगा होने से हुआ है तो जनता फिर,
समझ रहे हैं ना। और ये ट्रैक गड़बड़ाने की शुरुआत है जिसे उम्मीद करते हैं कि
प्रधानमंत्री जी संभाल लेंगे। क्योंकि, फिर से देश को दस प्रतिशत की तरक्की की
रफ्तार का सपना आने लगा है। या यूं कहें कि देश के नेताजी लोग फिर से वो वाला सपना
धो-मांजकर दिखाने लगे हैं। किस्मत कर्म के साथ चले तो बडा मजा देती है। कर्म कसके
किया तो किस्मत ऐसे साथ दे देती है कि लगता है कि सारी दुनिया किए को सच साबित
करने की साजिश में साथी हो गई है। सिर्फ किस्मत के भरोसे हुए तो फिर वही साजिश
करने वाले विरोधी पाले में चले जाते हैं। इसलिए कर्म-किस्मत के संतुलन को समझना
होगा ठीक वैसे ही जैसे गरीब और अमीर का संतुलन बजट बनाने में समझना जरूरी होता है।
जिस तरफ भी पलड़ा झुकेगा, न्याय का तराजू गलत तौलेगा। किस्मत उस ग्रह की तरह है कर्म के मजबूत होने पर उसे और मजबूत करता है। कर्म कमजोर हुआ तो वही किस्मत की मजबूती शीर्षासन करा देती है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Saturday, February 28, 2015
Friday, February 27, 2015
गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस
भारतीय जनता पार्टी
के संदर्भ में पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा ही सबसे मजबूत पहचान हुआ करती थी।
लेकिन, अब तो खुद भारतीय जनता पार्टी के नेता भी मुश्किल से ही इस नारे को इस्तेमाल
करते देखे जा रहे हैं। क्या सचमुच भारतीय जनता पार्टी अब भारतीय राजनीति की पार्टी
विद द डिफ्रेंस नहीं रह गई है। क्या भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का ही थोड़ा
भिन्न रूप हो गई है। मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले
की पूर्वाग्रही सोच अब और ज्यादा पूर्वाग्रही हो गई है। इसीलिए ऐसा लगने लगा है। इसीलिए
नरेंद्र मोदी की सरकार के ढेर सारे सबसे अलग, बेहतर फैसलों के बावजूद बीजेपी को
पार्टी विद द डिफ्रेंस मानने को तैयार नहीं है। और इसमें बड़ी बात ये भी है कि खुद
बीजेपी के नेता, कार्यकर्ता इस नारे के साथ उतनी मजबूती से खड़े नहीं हो रहे हैं।
और ये सब इसके बावजूद है कि ये सब मान रहे हैं कि काफी कुछ बदला है लेकिन, सिर्फ 9
महीने की हुई इस सरकार से लोग जाने क्या उम्मीद लगाए बैठे हैं जो पूरी होती नहीं
दिख रही। किसी से भी बात करिए तो वो केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के एक भी गलत
फैसले के बारे में मुश्किल से ही बता पाता है। और अगर बता भी पाता है तो वो आलोचना
निजी व्यवहार या फिर ज्यादा मजबूत नेता के तौर पर तानाशाही होते व्यवहार की ही
होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम लिखे सूट की आलोचना हो रही है। नीतिगत
फैसले के तौर पर या फिर नीतिगत व्यवहार के तौर पर आलोचना करने के लिए तथ्य खोजना लोगों
को मुश्किल हो रहा है। आलोचना सिर्फ पूर्वाग्रह के आधार पर हो रही है। सिर्फ 9
महीने की अभी मोदी सरकार हुई है। ये समय बीते यूपीए 1-2 के दस साल के शासन के
दसवें हिस्से से भी कम है। फिर भी कड़ी समीक्षा हो रही है। होनी भी चाहिए।
लोकतंत्र में ये बड़ा जरूरी है। मुझे लगता है कि चूंकि भारतीय नजता पार्टी अब
सरकार में है इसलिए उसे पार्टी विद द डिफ्रेंस से गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस के
पैमाने पर कसा जाना चाहिए।
गवर्नमेंट विद द
डिफ्रेंस का एक और बड़ा उदाहरण है पेट्रोलियम मंत्रालय से गोपनीय दस्तावेजों की
चोरी में पकड़े गए लोग। ये बहुत बड़ा फैसला था। ये गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस की
नरेंद्र मोदी की मंशा का ही नतीजा है कि पेट्रोलियम मंत्रालय का जिम्मा अपेक्षाकृत
कनिष्ठ धर्मेंद्र प्रधान को दिया गया। और जिस तरह से पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र
प्रधान ने इस जासूसी कांड के बाद टीवी चैनलों पर बयान दिया। उससे साफ है कि
नरेंद्र मोदी निजी तौर पर इस पूरे मामले पर नजर रखे हुए थे। और इसीलिए इतने बड़े
मामले को दिल्ली पुलिस बिना किसी राजनीतिक दबाव के आसानी से सुलझाने में लगी हुई है।
वरना तो ये माना जा रहा था कि रिलायंस का कोई भी कर्मचारी सीधे पीएमओ अधिकारी की
तरह काम करेगा। ये गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का ही उदाहरण है। अभी एक और ताजा
फैसला लिया गया है। पेट्रोलियम मंत्रालय ने ओएनजीसी के टेक्नोलॉजी और फील्ड सर्विस
डायरेक्टर शशि शंकर को निलंबित कर दिया है। शशि शंकर पर ठेके देने में अनियमितता
का आरोप है। जांच पूरी होने तक शशि शंकर निलंबित रहेंगे, जिससे वो निष्पक्ष जांच
में बाधा न बन सकें। यानी नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से संदेश साफ है कि निजी हो
या सरकारी किसी भी तरह की कंपनी और किसी भी स्तर के अधिकारी की गड़बड़ी बर्दाश्त
नहीं होगी। कम से कम अब नरेंद्र मोदी के न खाऊंगा न खाने दूंगा पर पहले से ज्यादा
भरोसा किया जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषक ये भी मानते हैं कि दिल्ली में जिस तरह
से अरविंद केजरीवाल की सरकार आई है उसके पीछे एक बड़ी वजह मोदी का सरकार
कर्मचारियों, अधिकारियों को ताकत देने के साथ उनको जवाबदेह बनाने की कोशिश भी है।
विश्लेषक मानते हैं कि समय पर दफ्तर पहुंचने के दबाव ने दिल्ली के सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों को बीजेपी के पक्ष में मत देने से रोका। अब इसमें कितनी
सच्चाई है ये तो पक्का पता कर पाना मुश्किल है। लेकिन, इतना तो तय ही है कि देश
में पहली बार ऐसा प्रधानमंत्री आया है जो समय पर सरकारी बाबुओं के दफ्तर पहुंचने
को अपनी प्राथमिकता में रखता है। सफाई को लेकर प्रधानमंत्री का आग्रह भी गवर्नमेंट
विद द डिफ्रेंस की अवधारणा को ही मजबूत करता है।
नरेंद्र मोदी की सरकार ने गणतंत्र दिवस की परेड में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मुख्य अतिथि के तौर पर बुला लिया। ये बहुत बड़ी बात थी। लेकिन, मैं जब गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस की बात कर रहा हूं तो साझा प्रेंस कांफ्रेंस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक जवाब को मैं उसमें शामिल करूंगा। एक पत्रकार ने पर्यावरण पर भारत के अमेरिका के दबाव में आने को लेकर सवाल पूछा था। जिसका जवाब नरेंद्र मोदी ने पूरी कड़ाई के साथ ये कहते हुए दिया था कि भारत किसी भी व्यक्ति या देश के दबाव में कोई फैसला नहीं लेगा। बराक ओबामा के सामने दुनिया को ये बताना कि भारत किसी के दबाव में फैसले नहीं लेगा, गवर्ऩमेंट विद द डिफ्रेंस का बड़ा उदाहरण है। नरेंद्र मोदी ने पिछली सभी भारत सरकारों से अलग रुख चीन के मामले में भी अपनाया है। इससे पहले चीन के साथ भारत का रिश्ता दुश्मनी का और डरे हुए भारत का रहा है। जबकि, नरेंद्र मोदी ने इसे अलग तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है। चीन के राष्ट्रपति को संपूर्ण सम्मान दिया। और भारत-चीन के बेहतर कारोबारी रिश्तों की वकालत भी। लेकिन, ये भी बता दिया कि भारत-चीन के रिश्ते अगर सीमा पर बेहतर नहीं होते हैं तो मुश्किल बनी रहेगी। इसे और आगे बढ़ाते हुए नरेंद्र मोदी अरुणाचल प्रदेश के राज्य स्थापना दिवस के मौके पर भी गए। चीन इस पर लाल हो गया है लेकिन, भारत सरकार ने उसको वैसा ही जवाब दिया है। ये गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का शानदार मामला है। एक और जो बड़ी बात नरेंद्र मोदी की सरकार सबसे अलग कर रही है, वो है सही व्यक्ति के लिए कुछ भी करना। जब नृपेंद्र मिश्र को प्रधानमंत्री का प्रमुख सचिव बनाने का फैसला लिया गया तो उसकी जमकर आलोचना हुई। लेकिन, आलोचना तरीके को लेकर थी। कहीं से भी कोई आलोचना नृपेंद्र मिश्र की काबिलियत को लेकर नहीं रही। इसी को थोड़ा आगे जाकर समझें तो नरेंद्र मोदी की गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का एक और उदाहरण सामने दिखता है। वो है सुरेश प्रभु को रेल मंत्री बनाना। सुरेश प्रभु शिवसेना के नेता रहे। शिवसेना के ही कोटे से सुरेश प्रभु वाजपेयी सरकार में मंत्री बने थे और बेहद शानदार काम के बावजूद शिवसेना की ही जिद से सरकार से बाहर भी हुए थे। लेकिन, अब नरेंद्र मोदी ने सुरेश प्रभु को बेहतर काम करके दिखाने का पूरा मौका दे दिया है। उनकी बड़ी चुनौती बेहतर रेल बजट पेश करना है। और नरेंद्र मोदी का गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का एक और शानदार उदाहरण था विज्ञान भवन में सभी धर्मों की बराबरी की बात करना। हालांकि, मीडिया में मोदी के उस बयान को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों, खासकर विश्व हिंदू परिषद को चेतावनी देने के संदर्भ में देखा गया। लेकिन, उस बयान को ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि वो बयान किसी भी धर्म के उग्र विचारों, कार्यों के खिलाफ था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ-साफ कहा कि हमारी सरकार बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक किसी को भी दूसरे धर्म के खिलाफ घृणा का माहौल बनाने की इजाजत नहीं देगी। और हमारे लिए सभी धर्म समान हैं। यहां भी गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस साफ दिखता है। ज्यादा समय नहीं बीता है जब हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक देश के अल्पसंख्यकों का है। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि सरकार गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस है। सरकार को भी ये समझना होगा कि गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस की छवि को बनाए रखना और उसके मुताबिक फैसले लेते रहना कठिन काम है।
अभी देश का बजट मोदी
सरकार पेश करने वाली है। और वो शायद बीजेपी की इस पूर्ण बहुमत वाली सरकार के गवर्नमेंट
विद द डिफ्रेंस के नारे को मजबूती देगा। लेकिन, इस नौ महीने में नरेंद्र मोदी ने
प्रधानमंत्री के तौर पर जो फैसले लिए जो, बीजेपी की इस पूर्ण बहुमत वाली सरकार में
पार्टी विद द डिफ्रेंस को आगे बढ़ाते हुए, गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस के नारे को
मजबूत करेगा। सबसे बड़ी बात तो यही है कि सरकार प्रधानमंत्री चला रहा है और पूरी
सरकार उसके पीछे है। अब ये तर्क आसानी से आ सकता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन, फर्क पड़ता है। पिछली दस साल की सरकार में प्रधानमंत्री के सरकार न चलाने
का नुकसान देश को किस कदर हुआ है। इसका हिसाब एक बार में ठीक ठीक लगा पाना मुश्किल
है। नरेंद्र मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत में है। इसके बावजूद प्रधानमंत्री के तौर
पर नरेंद्र मोदी ने अभी तक कोई ऐसा फैसला नहीं लिया है, जिससे ये कहा जाए कि वो
राज्यों के अधिकारों में दखल दे रहे हैं या फिर राज्यों के अधिकारों में कटौती की
कोशिश कर रहे हैं। बल्कि, नरेंद्र मोदी की सरकार ने गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का
शानदार उदाहरण पेश करते हुए चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राज्यों को
केंद्रीय करों में ज्यादा हिस्सेदारी देने का फैसला किया है। ये कोई छोटा फैसला
नहीं है। क्योंकि, केंद्रीय फंड में हिस्सेदारी के आधार पर ही लंबे समय से ढेर
सारे राजनीतिक समीकरण सधते या बनते-बिगड़ते रहे हैं। इसलिए अगर नरेंद्र मोदी की
सरकार ने राज्यों को केंद्रीय खाते से मिलने वाली रकम बत्तीस प्रतिशत से बढ़ाकर
सीधे बयालीस प्रतिशत करने का फैसला कर लिया है। तो वो गवर्नमेंट विद दद डिफ्रेंस
की बड़ी बुनियाद साबित हो सकती है।
गवर्नमेंट विद द
डिफ्रेंस का एक और शानदार उदाहरण है कच्चे तेल की कीमतों का फैसला। नरेंद्र मोदी
की सरकार को पूरी तरह से देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी की जेब की सरकार
के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। जो नरेंद्र मोदी के प्रति पूर्वाग्रही सोच का ही
परिणाम था। ये अब सरकार के एक के बाद एक फैसलों से साबित भी होता जा रहा है। यूपीए
के शासनकाल में ही कच्चे तेल की कीमतें 4.22 एमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश
थर्मल यूनिट) से बढ़ाकर 8.44 एमएमबीटीयू करने का फैसला ले लिया गया था। जिसे
लोकसभा चुनावों की वजह से लागू करने से रोक दिया गया था। इसके बाद नरेंद्र मोदी की
सरकार से ये पूर्वाग्रही अपेक्षा थी कि नरेंद्र मोदी सबसे पहले कच्चे तेल की
कीमतें ही बढ़ाएंगे, जिससे रिलायंस को सीधा फायदा होगा। लेकिन, मोदी ने ऐसा कुछ
नहीं किया। बल्कि, समीक्षा करके अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के आधार पर एक नई कीमत तय
कर दी। जो यूपीए 2 में तय की गई कीमत से कम थी। साथ ही केजी बेसिन में रिलायंस के
पक्ष में फैसले की उम्मीद भी नरेंद्र मोदी से लोग लगाए बैठे थे। वो भी उम्मीद पूरी
नहीं हुई। और सरकार ने रिलायंस को किसी भी तरह का लाभ देने वाला फैसला नहीं
लिया।
नरेंद्र मोदी की सरकार ने गणतंत्र दिवस की परेड में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मुख्य अतिथि के तौर पर बुला लिया। ये बहुत बड़ी बात थी। लेकिन, मैं जब गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस की बात कर रहा हूं तो साझा प्रेंस कांफ्रेंस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक जवाब को मैं उसमें शामिल करूंगा। एक पत्रकार ने पर्यावरण पर भारत के अमेरिका के दबाव में आने को लेकर सवाल पूछा था। जिसका जवाब नरेंद्र मोदी ने पूरी कड़ाई के साथ ये कहते हुए दिया था कि भारत किसी भी व्यक्ति या देश के दबाव में कोई फैसला नहीं लेगा। बराक ओबामा के सामने दुनिया को ये बताना कि भारत किसी के दबाव में फैसले नहीं लेगा, गवर्ऩमेंट विद द डिफ्रेंस का बड़ा उदाहरण है। नरेंद्र मोदी ने पिछली सभी भारत सरकारों से अलग रुख चीन के मामले में भी अपनाया है। इससे पहले चीन के साथ भारत का रिश्ता दुश्मनी का और डरे हुए भारत का रहा है। जबकि, नरेंद्र मोदी ने इसे अलग तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है। चीन के राष्ट्रपति को संपूर्ण सम्मान दिया। और भारत-चीन के बेहतर कारोबारी रिश्तों की वकालत भी। लेकिन, ये भी बता दिया कि भारत-चीन के रिश्ते अगर सीमा पर बेहतर नहीं होते हैं तो मुश्किल बनी रहेगी। इसे और आगे बढ़ाते हुए नरेंद्र मोदी अरुणाचल प्रदेश के राज्य स्थापना दिवस के मौके पर भी गए। चीन इस पर लाल हो गया है लेकिन, भारत सरकार ने उसको वैसा ही जवाब दिया है। ये गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का शानदार मामला है। एक और जो बड़ी बात नरेंद्र मोदी की सरकार सबसे अलग कर रही है, वो है सही व्यक्ति के लिए कुछ भी करना। जब नृपेंद्र मिश्र को प्रधानमंत्री का प्रमुख सचिव बनाने का फैसला लिया गया तो उसकी जमकर आलोचना हुई। लेकिन, आलोचना तरीके को लेकर थी। कहीं से भी कोई आलोचना नृपेंद्र मिश्र की काबिलियत को लेकर नहीं रही। इसी को थोड़ा आगे जाकर समझें तो नरेंद्र मोदी की गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का एक और उदाहरण सामने दिखता है। वो है सुरेश प्रभु को रेल मंत्री बनाना। सुरेश प्रभु शिवसेना के नेता रहे। शिवसेना के ही कोटे से सुरेश प्रभु वाजपेयी सरकार में मंत्री बने थे और बेहद शानदार काम के बावजूद शिवसेना की ही जिद से सरकार से बाहर भी हुए थे। लेकिन, अब नरेंद्र मोदी ने सुरेश प्रभु को बेहतर काम करके दिखाने का पूरा मौका दे दिया है। उनकी बड़ी चुनौती बेहतर रेल बजट पेश करना है। और नरेंद्र मोदी का गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का एक और शानदार उदाहरण था विज्ञान भवन में सभी धर्मों की बराबरी की बात करना। हालांकि, मीडिया में मोदी के उस बयान को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों, खासकर विश्व हिंदू परिषद को चेतावनी देने के संदर्भ में देखा गया। लेकिन, उस बयान को ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि वो बयान किसी भी धर्म के उग्र विचारों, कार्यों के खिलाफ था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ-साफ कहा कि हमारी सरकार बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक किसी को भी दूसरे धर्म के खिलाफ घृणा का माहौल बनाने की इजाजत नहीं देगी। और हमारे लिए सभी धर्म समान हैं। यहां भी गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस साफ दिखता है। ज्यादा समय नहीं बीता है जब हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक देश के अल्पसंख्यकों का है। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि सरकार गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस है। सरकार को भी ये समझना होगा कि गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस की छवि को बनाए रखना और उसके मुताबिक फैसले लेते रहना कठिन काम है।
Thursday, February 26, 2015
रेल बजट - गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस
रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने नई ट्रेन का एलान नहीं किया।
मन में एक सवाल आ रहा है कि क्या इससे पहले कोई ऐसा रेल बजट था जिसमें किसी नई
ट्रेन का एलान नहीं हुआ। ये छोटा सवाल नहीं है। जिस देश में एक हैंडपंप देने से
लोगों की राजनीति चलती, बनती, बिगड़ती रही हो, वहां रेल बजट में एक भी नई ट्रेन न
चलाने के एलान मतलब आसानी से समझा जा सकता है। मुझे तो रेलमंत्री ने पूरी तरह से
खुश कर दिया है। राजनीतिक नहीं रेल बजट है ये। पहली बार रेल बजट पेश हुआ है वरना
तो राजनीतिक वोट बजट पेश किया जाता था। वरना कितना बेहूदा बजट होता था। इलाके की
ट्रेन का एलान और उस पर संसद मस्त। कब चलेगी, किस
पटरी पर चलेगी, कुछ पता नहीं होता था। उस पर रेल
मंत्री इस अंदाज में नई ट्रेन या रेलवे से जुड़ी नई परियोजनाओं का एलान करते, जैसे
कोई राज प्रजा को देता है। धन्यवाद सुरेश प्रभु रेल बजट पेश करने के लिए। वरना तो
राजनीतिक वोट बजट बनकर ही रह जाता था रेल बजट। एक बात और साफ हो जाए तो ठीक। अगले
बजट में करिए कि कितना कमाकर कितना बचाया और उससे कितना कुछ बढ़ाया। जो चल रही हैं
वो ट्रेनें समय से चलें, रफ्तार
बढ़े, खाना अच्छा मिले, साफ सुथरा बिस्तर मिले, सुरक्षा
रहे।
रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने पहले के रेल
मंत्रियों की तरह मुस्कुराते हुए श्रद्धा भाव से रेलवे के लिए ज्यादा फंड देने पर
वित्त मंत्री का शुक्रिया नहीं अदा किया। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने वित्त मंत्री
अरुण जेटली की ओर देखते हुए कहा कि वित्त मंत्री से मदद मांगते रहना व्यवहारिक
नहीं है। हमें अपना संसाधन तैयार करना होगा। संपत्ति बेचेंगे नहीं, उससे कमाई करेंगे। बहुत बड़ा बदलाव है ये। इस सरकार के
गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस का बड़ा प्रमाण है ये। वैसे तो ढेर सारी ऐसी बातें हैं
जिस पर मैं विस्तार से लिख सकता हूं। लेकिन, मैं मोटे तौर पर रेल बजट के गवर्नमेंट
विद द डिफ्रेंस के मुख्य बिंदुओं पर चर्चा करूंगा। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने लंबे
समय की दृष्टि के साथ बजट पेश किया। अगले पांच साल में साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये
के निवेश की योजना बताई है। बिना किसी नई योजना के दबाव के साथ रेल मंत्री सुरेश
प्रभु ने बताया कि ट्रैक 14% बढ़ाकर 138000 किलोमीटर किया जाएगा। रेल मंत्री ने बताया कि
नई रेल पटरियां बिछाने के लिए जमीन लेने का भी सीधा सा प्रस्ताव है। सुरेश प्रभु बता
चुके हैं कि जमीन के लिए राज्यों के साथ और नई लाइन बिछाने के लिए सरकारी कंपनियों
के साथ साझा योजना लागू करेंगे। मैं निजी तौर पर मानता हूं कि #LandAquisiton की
आधी मुश्किल तो इसी से खत्म हो जाएगी।
रेल मंत्री सुरेश प्रभु को ये अच्छे से पता
है कि योजनाओं के एलान में तो पहले भी कमी नहीं थी। कमी थी तो उसके क्रियान्वयन
में। इसीलिए बेहतर, समय पर डिलीवरी के लिए रेलवे के
सांगठनिक ढांचे को दुरुस्त करने की बात रेल मंत्री ने की है। नई ट्रेन, योजना में
फंसे पुराने रेल मंत्री कभी रेलवे को इक्कीसवीं सदी के लिहाज से बेहतर बनाने का
सही खाका ही सोच नहीं पाए। रेल मंत्री ने देश के चार विश्वविद्यालयों में रेलवे
रिसर्च सेंटर बनाने का एलान किया है। बबनारस हिंदू विश्वविद्यालय की IIT में मालवीय चेयर फॉर रेलवे टेक्नोलॉजी बनाने का भी
एलान किया गया है। वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का
संसदीय क्षेत्र है।
सुरेश प्रभु ने देश में 9 हाई स्पीड कॉरीडोर बनाने की बात कही है। मुंबई अहमदाबाद
बुलेट ट्रेन की रिपोर्ट साल के मध्य तक आने की बात रेल मंत्री ने बताई है। उन्होंने
कहा कि दिल्ली-मुंबई, दिल्ली-कोलकाता
रात भर की यात्रा होगी। पहली बार किसी रेल मंत्री ने साफ साफ बताया कि डेडीकेटेड
फ्रेट कॉरीडोर यानी DFC के 1300 किलोमीटर का ठेक इसी साल
दे दिया जाएगा। उत्तर पूर्व के लिए विशेष योजना की बात रेल
मंत्री ने बताई है जो, सुखद है। कश्मीर को तेज रफ्तार ट्रेनों से जोड़ेंगे। ये
सुखद होगा अगर ये चमत्कार हो गया। रेल मंत्री का कहना है कि देश में एक्सप्रेस ट्रेनों
में यात्रा का समय बीस प्रतिशत कम होगा। इसको उदाहरण से समझें तो इलाहाबाद जो 9.30 घंटे में पहुंचते हैं,
7.30 घंटे में पहुंचेंगे। और ये इसी ट्रैक पर संभव है ऐसा रेल
मंत्री ने बताया है। 67% ज्यादा
खर्च यात्री सुविधा पर बढ़ाया जाएगा। सांसद, NGO, उद्योगपति, संस्थाओं से यात्री सुविधाओं में मदद की अपील रेल मंत्री
सुरेश प्रभु ने की है।
अब उन छोटी छोटी बातों की चर्चा कर लेते हैं
जिस पर हर रेल यात्री की चिंता निरंतर रहती है। डिजिटल इंडिया का नारा तो बार बार
सुनाई देता है। ये अमल में कैसे आएगा। साफ साफ पता कर पाना मुश्किल होता है। अब
सोचिए सामान्य डिब्बों में मोबाइल चार्जिंग के प्वाइंट क्या है। अगर स्मार्टफोन हर
कोई ले सकता है तो यात्रा में स्मार्टफोन का मजा हर कोई क्यों नहीं ले सकता। इसके
लिए एसी क्लास में यात्रा क्यों करनी जरूरी हो। रेलवे में सब एक बराबर। एक जैसी तकनीकी
सुविधा। सामान्य डिब्बों में भी चार्जिंग प्वाइंट। एक ये प्रयास भी बहुत पहले से
चल रहा है। अब लग रहा काफी हद तक पटरी पर आएगा। टीटीई के हाथ की मशीन से टिकट चेक
होगी। पेपरलेस रेलवे की कोशिश। साथ ही ट्रेन की देरी की स्थिति में आधा
घंटा पहले उसके समय की जानकारी SMS के जरिए
यात्री को मिल जाएगी। ए श्रेणी के स्टेशनों के साथ बी श्रेणी के स्टेशनों पर भी
वाई फाई की सुविधा होगी। ऐसे 400 स्टेशन हैं। 200
और
स्टेशन मॉडल स्टेशन बनेंगे। बिना कर्मचारियों वाली रेलवे क्रॉसिंग सुरक्षित करने
को भी सुरेश प्रभु ने अपनी प्राथमिकता में बताया है। और उसके लिए सड़क परिवहन
मंत्रालय के साथ मिलकर काम करने की योजना बनाई है।
और कुछ बातें शानदार हैं। ऊपर की सीट पर आसानी
से पहुंचा जा सके इसके लिए नए तरह की सीढ़ियां बनाने की बात है। बुजुर्ग, महिलाओं को नीचे की सीट देने की प्राथमिकता होगी। 108 ट्रेनों में मनपसंद खाने की बात भी रेल
मंत्री सुरेश प्रभु ने बताई। स्थानीय खाना मिलेगा। ये सुनते अरसा हो गया है। लागू
होते देखा तो ये भी चमत्कारिक होगा। रेल मंत्री ने Operation
5 minutes जैसी योजना की भी बात की है जिसमें अनारक्षित टिकट सिर्फ 5 मिनट में मिलेगा। कैसे हो पाएगा वो बता रहे हैं लेकिन, कैसे हो पाएगा ये देखना चमत्कारिक होगा। इस्तेमाल करिए, फेंक दीजिए। मतलब डिस्पोजेबल बेडशीट। ये सबसे जरूरी है
स्वच्छ भारत के लिए। रेल मंत्री ने कहा है कि स्वच्छ रेल, स्वच्छ
भारत रेलवे का नया नारा होगा।
रेल बजट में गवर्नमेंट विद द डिफ्रेंस को देखकर
मैंने अच्छी बातें कीं। लेकिन, अब वो जिसमें पिछली सरकारों से जरा सा भी बदलाव
नहीं दिख रहा है। सुरेश प्रभु को मैं बहुत पसंद करता हूं। उनके पहले के काम की वजह
से। मैं बहुत खुश हुआ था जब उन्हें रेलमंत्री बनाया गया। वो अच्छा करेंगे, ये भी अच्छे से जानता हूं। लेकिन, आज लोकसभा में रेल बजट भाषण अंग्रेजी में
पढ़ते अच्छे नहीं लग रहे। हिंदी-मराठी मिलाकर भी बोलते तो मुझे बहुत अच्छे लगते।
डिस्क्लेमर - इसे #RailBudget2015पर टिप्पणी नहीं माना जाए।
Wednesday, February 25, 2015
मौकापरस्त अन्ना हजारे और उनके शिष्य!
तेरह दिनों के
रामलीला मैदान में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कवरेज करते-करते कब मैं अन्ना
भक्त जैसा कुछ हो गया था। इसका मुझे अंदाजा ही नहीं लगा। और शायद मेरे जैसे हजारों
लोग इसी भक्ति की अवस्था में पहुंच गए थे। ये स्वाभाविक था। अगर ये नहीं होता तो
अस्वाभाविक होता। मनुष्य वृत्ति के खिलाफ होता। इसीलिए जब मैं अन्ना की भक्ति की
अवस्था में पहुंचा तो मैं मानता हूं कि मुझमें मनुष्य वृत्ति ही है। देश से
भ्रष्टाचार मिटाने के लिए चल रहे उस आंदोलन की कमान अन्ना के हाथ में थी। लगता था
जैसे एक बूढ़े में महात्मा गांधी का पुनर्जन्म जैसा कुछ हो गया है। अनशन की हालत
में भी तिरंगा झंडा हाथ में थाम लेना। अनशन से शरीर भले ही कमजोर हो लेकिन, अन्ना
का मानस हर क्षण मजबूत होता दिखता था। और वही ताकत थी कि अन्ना हजारे के पीछे देश
का नौजवान टूटकर खड़ा था। टूटकर खड़ा था मतलब उस समय की व्यवस्था से पूरी तरह
हताश, निराश लेकिन, अन्ना हजारे के प्रति पूरी निष्ठा से उनके पीछे खड़ा। हर कोई
मैं हूं अन्ना चौबीस घंटे चौकन्ना, का नारा बुलंद कर रहा था। लोग अपना काम-धंधा
छोड़कर, उसकी कमाई निस्वार्थ भाव से अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के
लिए देने को तैयार थे। सचमुच लग रहा था कि महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धि के इस
बूढ़े को देश ने वो सम्मान नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए था। वो अन्ना जो सेना में
ट्रक ड्राइवर था लेकिन, अपने गांव में लौटकर सारी बुराइयों को खत्म करके उस गांव
को आदर्श गांव बनाने का महान काम कर डाला था। वो अन्ना जो अविवाहित था। वो अन्ना
जो किसी प्रकार का लोभ नहीं रखता। वो अन्ना जो हर बार ये बताता था कि कैसे अन्ना
हजारे के आंदोलन से ढेर सारे मंत्रियों की कुर्सी चली गई। वो खुद ही ये भी बताते
थे कि गांव के मंदिर में ही एक कमरे में वो रहते हैं। एक गिलास, कटोरी, थाली।
इतना कमाल का
व्यक्तित्व कैसे इतने समय तक महाराष्ट्र की बुराइयों के बीच छिपा रहा। सवाल मेरे
मन में भी ये बार-बार आता रहा कि इतने अद्भुत व्यक्तित्व के अन्ना कभी महाराष्ट्र
में विदर्भ के किसानों के लिए इस तरह से क्यों नहीं खड़े हुए कि लोकपाल से पहले
वही देश का आंदोलन बन जाता। सवाल मेरे मन में ये भी आता है कि आखिर क्या वजह रही
होगी कि शरद पवार का भ्रष्टाचार अन्ना के लिए आंदोलन की वजह कभी क्यों नहीं बन
सका। समझ में तो ये भी मुझे नहीं आया कि आखिर अन्ना हजारे की वो बुलंद आवाज राज
ठाकरे के खिलाफ तब क्यों नहीं उठी, जब मुंबई और महाराष्ट्र के कुछ दूसरे हिस्सों
में क्षेत्रीय आधार पर मारपीट हो रही थी। मुझे लगा कि रही होगी कोई वजह। लेकिन, अब
अन्ना हजारे जागे हैं। शायद महाराष्ट्र में इतने सालों तक भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ
न कर पाने की कसक रही होगी कि वो देश से भ्रष्टाचार हटाने की लड़ाई लड़ने दिल्ली आ
गए हैं। इसीलिए मेरी अन्ना में भक्ति कम नहीं हुई। भक्ति जैसी तो नहीं लेकिन, गजब
के प्रभावी अन्ना हजारे के आसपास तिरंगा झंडा लहराने वाला हर कोई लगने लगा। जाहिर
है अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी सबसे आगे तिरंगा लहरा रहे थे तो अन्ना के बाद सबसे
ज्यादा प्रभाव भी वही दोनों लोगों पर डाल रहे थे। लेकिन, किसे पता था कि ये दोनों
ही सिर्फ दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की आकांक्षा में अन्ना के अनशन के मंच पर हैं।
इन्हीं महत्वाकांक्षाओं में पहले अन्ना हजारे का मंच टूटा। फिर तो अन्ना हजारे भी
टूट गए। बोल दिया कि राजनीतिक चेलों से दूरी ही बनाए रखेंगे। दिल्ली का पूरा चुनाव
बीत गया। अन्ना ने वही भूमिका निभाई जो वो बरसों से निभा रहे थे। वो भूमिका थी
मौकापरस्ती वाली। वो भूमिका थी मौका देखकर चौका मारने वाली। वो भूमिका थी श्रेय
मिलने वाली जगह पर मुझे कुछ नहीं चाहिए का नारा बुलंद करने वाली। वो भूमिका थी
भीड़ जुटने का जुगाड़ न हो तो दिल्ली आने से बचने वाली। वो भूमिका थी मौके के
लिहाज से बयान बदलने वाली। विचार करता रहता हूं इसलिए किसी की भी भक्ति तो लंबे
समय तक मुझसे होती नहीं। विचार करता हूं तो सामने वाले के विचार बदलने की वजह पर
भी विचार कर लेता हूं। विचार करता हूं तो ये सोचा कि आखिर ये क्या था कि अरविंद
केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनते ही अन्ना हजारे के वो प्रिय फिर से कैसे हो गए। इसका
मतलब तो यही हुआ कि अगर किरन बेदी मुख्यमंत्री हो गई होतीं तो वो पहले किरन बेदी
और धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के भी गुण गाते।
अन्ना के ताजा भूमि
अधिग्रहण बिल विरोधी आंदोलन को लेकर तमाम तरह की खबरें हैं। खबरें हैं कि एनडीटीवी
के पूर्व पत्रकार और पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के कम्युनिकेशन
एडवाइजर रहे पंकज पचौरी रालेगण से अन्ना को लेकर दिल्ली आए। खबरें ये भी हैं कि
अन्ना चार्टर्ड प्लेन से आए और वो भी कांग्रेस नेता का। खबरें ये भी हैं कि
तिरंगा, वंदेमातरम और भारत माता की जय वाले रामलीला मैदान के मंच से इस बार
जंतर-मंतर का मंच लाल सलाम की पैरोकारी में बदल गया है। ये सब खबरें मैं झूठी
मानता हूं। फिर भी मेरा भरोसा ये बनता है कि अन्ना हजारे और उनकी शिष्य मंडली
मौकापरस्त है। अन्ना हजारे फिर कह सकते हैं कि मेरा क्या, मुझे कोई लोभ नहीं। मैं
तो सब निस्वार्थ कर रहा हूं। जाहिर है पत्नी, बच्चे हैं नहीं। धन की कामना अन्ना
को है नहीं तो, मेरा अन्ना को मौकापरस्त कहना मेरे ही पूरे व्यक्तित्व पर सवाल
खड़ा करता है। लेकिन, अगर ऐसा है तो फिर जिसने भी विवाह नहीं किया। जिसके भी
परिवार नहीं है। और जिसको भी धन का लोभ नहीं है वो सब महान हैं, संत हैं। देश के
सारे गृहस्थ ही इससे मुक्त नहीं हो पाते। लेकिन, पुत्रेष्णा और वित्तेष्णा के
अलावा लोकेष्णा भी होती है। और अन्ना हजारे यश की इसी कामना में मौकापरस्त हो रहे
हैं। वरना इस तरह से अन्ना हजारे भूमि अधिग्रहण बिल के बहाने सरकार पर हमला करने
की मौकापरस्ती में दिल्ली के जंतर-मंतर न आते। अन्ना हजारे देश भर में भ्रष्टाचार
के खिलाफ आंदोलन चला रहे होते तो आज भी शायद मैं अन्ना भक्ति में ही होता। तब
अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के मसले पर नरेंद्र मोदी का जमकर विरोध करते तो भी मैं
अन्ना हजारे के साथ ही होता। लेकिन, अन्ना आप मौकापरस्त हो गए हैं इसलिए मैं भूमि
अधिग्रहण बिल पर सरकार के साथ हूं और अन्ना के विरोध में हूं।
Thursday, February 19, 2015
ये मोदी सरकार की तारीफ का वक्त है
पेट्रोलियम मंत्रालय से जरूरी कागज, जानकारी लीक करने वाले पकड़े गए हैं। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान @dpradhanbjp कह रहे हैं पहले की सरकार में ये सब खुलेआम होता था। हमने इंतजाम करके पकड़ा है। सलाह है कि संभलकर करें इस पेट्रोलियम मंत्रालय में दलालों का इतना जबर्दस्त कब्जा है कि कई मंत्री इसमें निपट चुके हैं। ये पूरी सरकार हिलाने की ताकत रखते हैं। इसलिए करिए संभलकर। और सही हो रहा है तो ये जमकर प्रचारित भी करें। कि आखिर इस सरकार के आने से क्या सही फर्क आ रहा है।
@dpradhanbjp इतना आसान नहीं है। पेट्रोलियम मंत्रालय के दस्तावेज चुराने के मामले में दिल्ली पुलिस ने RIL रिलायंस के एक कर्मचारी को गिरफ्तार किया है। आपके मंत्रालय का चपरासी और एक क्लर्क भी दिल्ली पुलिस की हिरासत में है। मामला संगीन है। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान @dpradhanbjp न्यूज चैनलों पर मंत्रालय की जासूसी पर जिस तरह से बोल रहे हैं। वो बधाई के पात्र हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि जिस तरह से इस सरकार ने पेट्रोलियम मंत्रालय में चल रहे गड़बड़झाले को पकड़ने के लिए बाकायदा पक्का प्रयास किया है, वो बिना प्रधानमंत्री @narendramodi के पक्के आदेश के नहीं हो सकता। @PMOIndia को फिलहाल खुले दिन से बधाई का वक्त है। कंजूसी मत करिए। मौका लगेगा तो दूसरे मौके पर गरिया लीजिएगा, मोदी विरोधियों। @OilBoil
@dpradhanbjp इतना आसान नहीं है। पेट्रोलियम मंत्रालय के दस्तावेज चुराने के मामले में दिल्ली पुलिस ने RIL रिलायंस के एक कर्मचारी को गिरफ्तार किया है। आपके मंत्रालय का चपरासी और एक क्लर्क भी दिल्ली पुलिस की हिरासत में है। मामला संगीन है। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान @dpradhanbjp न्यूज चैनलों पर मंत्रालय की जासूसी पर जिस तरह से बोल रहे हैं। वो बधाई के पात्र हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि जिस तरह से इस सरकार ने पेट्रोलियम मंत्रालय में चल रहे गड़बड़झाले को पकड़ने के लिए बाकायदा पक्का प्रयास किया है, वो बिना प्रधानमंत्री @narendramodi के पक्के आदेश के नहीं हो सकता। @PMOIndia को फिलहाल खुले दिन से बधाई का वक्त है। कंजूसी मत करिए। मौका लगेगा तो दूसरे मौके पर गरिया लीजिएगा, मोदी विरोधियों। @OilBoil
Tuesday, February 17, 2015
काम पूरा हुआ अब निकल लो
पता नहीं पत्रकार इस सवाल का जवाब बार-बार क्यों खोजने में लग रहते हैं। इस बार फिर वो इसी सवाल का जवाब खोज रहे हैंकि हर बार की तरह इस सरकार को भी पत्रकार बेकार क्यों नजर आने लगे हैं। अब इसका जवाब अगले चार साल तक तो ठीक से मिलने से रहा। वैसे भी वो आम आदमी की सरकार है। और उनके प्रति पाँच साल के लिए जवाबदेह है। तो इसमें पत्रकारों की जवाबदेही कहां से साबित हो गई। वैसे ये लोकतंत्र के लिए बेहद सुखद स्थिति है कि हर पत्रकार को ध्यान में रहे कि पत्रकार सरकार का कभी नहीं हो सकता। बोलेंगे अंहकार नहीं आने देना है। इत्ते से मीडिया का काम चल जाना चाहिए। वैसे भी अरविंद को ढेर सारे पत्रकार परदे के पीछे से और ढेर सारे पूर्व पत्रकार पार्टी पदाधिकारी के तौर पर सलाह दे रहे हैं। तो मीडिया के बारे में वो अच्छे से जानते होंगे। इसीलिए सरकार बनने के बाद अरविंद सरकार को पत्रकार से बचा रहे है। और फिर सबसे बड़ी बात जब काम पूरा हो गया तो उठाओ, हटाओ अपनी कलम, कैमरा। काम पूरा होने के बाद मजदूरों को कोई सरकार बर्दाश्त करती है क्या? इत्ता आसान सा जवाब भी पत्रकार खोज नहीं पा रहे। कमाल है।
Saturday, February 14, 2015
जय हो भारतीय लोकतंत्र
कई बार मैं सोचता था
कि एक साथ देश के सारे चुनाव हों। और 5 साल तक चुनावी चकल्लस से मुक्ति रहे। देश अच्छे से चले। लेकिन,
अब मुझे ये लगता है कि देश अच्छे से
चलने के लिए जरूरी है कि अलग-अलग समय पर अलग-अलग चुनाव होते ही रहें। अब मेरी ये
धारणा धीरे-धीरे मजबूत हुई है कि लोकतंत्र की असल खूबसूरती ही यही है कि जनता को
सबको ठीक रखने का अवसर मिलता रहे। और एक समय में जीते चुनाव की समीक्षा के लिए या
फिर जीत हार के आनंद या दुःख के लिए 6 महीने का भी समय नहीं मिले। देखिए न भाजपाई बौराने लगे तो
दिल्ली में साफ हो गए। लेकिन, जब
दिल्ली के बहाने पूरे देश के सड़े-गले, राजनीति में अस्तित्व खोजने वाले भी मोदी लहर
की समाप्ति का एलान कर बैठे तो असम के स्थानीय निकायों में कमल जबरदस्त तरीके से
खिल गया। यही लोकतंत्र है। और खूबसूरत है। पूरे कार्यकाल के बीच में प्रतिनिधि
वापस बुलाने के कानून की जरूरत ही नहीं। वैसे ही जनता सबका बल-मनोबल तोड़ती-जोड़ती
रहती है और रहेगी। राजनीति में साबित करने का दबाव निरंतर बना रहना चाहिए।
Friday, February 13, 2015
28 फरवरी बीजेपी की घर वापसी की तारीख!
भारतीय जनता पार्टी
के लिए इससे तगड़ा झटका कुछ नहीं हो सकता। वो भी ऐसे समय में जब कुछ ही समय पहले
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को भारत बुलाकर और उन्हें अपना बचपन टाइप का
दोस्त बताकर नरेंद्र मोदी ने सबको चकाचौंध कर दिया था। लग रहा था कि नरेंद्र मोदी
ने जग जीत लिया है। लेकिन, ये क्या जगत छोड़िए, नरेंद्र मोदी और उनके सफलतम
अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा दिल्ली ही हार गई। ये वो दिल्ली है, जिसे
आप कितना भी नकारने की कोशिश करें। देश को समझ में यही दिल्ली आती है। ये दिल्ली
चुनावी सर्वे के सैंपल साइज की तरह है। हालांकि, चुनावी सर्वे की ही तरह कई बार
दिल्ली के चुनावी नतीजे भी गलत साबित होते हैं। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि गलत
साबित होने तक अबब इसी दिल्ली के चुवनावी नतीजे देश की दशा-दिशा बताएंगे। इस लिहाज
से तो भारतीय जनता पार्टी की दशा-दिशा बेहतर खराब हो गई। लेकिन, क्या ऐसा सचमुच
है। मेरी नजर में ऐसा बिल्कुल नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की इतनी करारी हार की
ढेर सारी समीक्षाएं हो रही हैं, होती रहेंगी। लेकिन, मैं समीक्षा नहीं करूंगा। मैं
वो बात करने जा रहा हूं जो, देश के तौर पर भारत के लिए और उसी देश की मजबूती के
लिए भारतीय जनता पार्टी के लिए बेहद जरूरी हैं।
फरवरी के महीने में
दिल्ली की जबरदस्त हार भाजपा के सामने आई है। और हार क्या पूरी सफाई हो गई है। उस
पर दिल्ली की इस हार के लिए जिम्मेदार जो भी ठहराया जाए। सच्चाई यही है कि दिल्ली
की चुनावी कमान पूरी तरह से इस समय की भाजपा की शीर्ष तिकड़ी मोदी-शाह-जेटली के ही
हाथ में था। और ये सब अच्छे से जानते हैं। इसलिए इस चुनाव के नतीजे सिर्फ विपक्षी
दलों को ही नहीं भारतीय जनता पार्टी के भीतर का भी संतुलन बिगाड़ेंगे। लेकिन, ये
बीजेपी के लिए घर वापसी का शानदार मौका है। बीजेपी के लिए घर वापसी मतलब आजकल
चर्चा में आई घर वापसी नहीं बल्कि, लोगों का बीजेपी में 2014 की गर्मियों जैसा
भरोसा वापस लौटने का है। जब दिल्ली के चुनाव हो रहे थे तो आम आदमी पार्टी एक बात
बहुत जोर शोर से चिल्ला रही थी। वो ये था कि जब देश का वित्त मंत्री दिल्ली
विधानसभा के चुनाव में ही सारी ऊर्जा, समय लगाएगा तो देश के बजट का क्या होगा।
सीधे तौर पर ये बात लोगों को समझ में भी आती है। और भारतीय जनता पार्टी को भी ये
बात समझनी होगी। क्योंकि, दिल्ली विधानसभा के चुनाव भले ही नरेंद्र मोदी और भारतीय
जनता पार्टी की नीतियों की हार न हों।
लेकिन, अगर देश का बजट उस रास्ते पर जाता न दिखा तो देश का भरोसा निश्चित तौर पर
नरेंद्र मोदी और पूर्ण बहुमत की भारतीय जनता पार्टी की सरकार से डिग सकता है।
इसलिए इस फरवरी महीने के आखिर में पेश होने वाले बजट को अगर वित्त मंत्री अरुण
जेटली संभाल पाए तो महीने के दूसरे हफ्ते में मिली हार आखिरी हफ्ते तक जीत में बदल
सकती है। और ये बेहद आसान है। आसान इसलिए कि देश का संवैधानिक ढांचा ऐसा है जिसमें
राष्ट्रीय नीतियों के क्रियान्वयन में राज्यों की हिस्सेदारी भले महत्वपूर्ण हो
लेकिन, इसे बनाने का काम पूरी तरह से राष्ट्रीय सरकार यानी संसद को ही करना होता
है। और अगले साल भर के लिए देश की दुनिया में छवि क्या होगी, इसी को पुख्ता करने
का काम नरेंद्र मोदी-अरुण जेटली को 28 फरवरी को पेश होने वाले बजट के जरिए करना
है। दिल्ली के चुनावों में अरविंद केजरीवाल ने भले ही मुफ्त बिजली, पानी, वाई-फाई
का ऐसा हल्ला किया है कि लग रहा है दिल्ली ने मुफ्तउवा मूड में ही आम आदमी पार्टी
को इतनी शानदार जीत दे दी है। लेकिन, ऐसा है नहीं। सच्चाई ये है कि आम आदमी पार्टी
की शानदार जीत में पिछले विधानसभा से इस विधानसभा चुनाव के दौरान जुड़े दस लाख नए
मतदाता (सीधा मतलब 18 साल के नौजवान) और पहले से ही नरेंद्र मोदी और अरविंद
केजरीवाल दोनों को एक साथ नायक मानने वाले नौजवान का ही पूरा योगदान है। दूसरा
मतदाता वर्ग तो नौजवानों के साथ लगे-लगे पांच साल केजरीवाल के संयुक्त गान में
शामिल हो गया। और कम से कम ये नौजवान मतदाता मुफ्तउवा नहीं देश की तरक्की के सपने
देखने वाला है। इसका कतई ये मतलब नहीं है कि महंगाई पर सरकार काबू न करे। महंगाई
पर काबू तो जरूरी है लेकिन, अगर ये मतदाता मुफ्त और सस्ते के चक्कर वाला होता तो
बीजेपी को शानदार सफलता दिल्ली में मिलनी चाहिए थी। पेट्रोल-डीजल वैसे तो सस्ता हो
ही रहा था। लेकिन, दिल्ली चुनावों के दौरान कच्चे तेल के चढ़ते भाव के बीच भी
केंद्र ने तेल कंपनियों को इशारा करके शायद इसी नीयत से पेट्रोल-डीजल सस्ता कराया
था। इसका सीधा सा मतलब है कि नए भारत को मुफ्त या सस्ता नहीं चाहिए। उसे अपनी जेब
की ताकत बबढ़ती हुई दिखनी चाहिए। इसके लिए उसे रोजगार के मौके, कारोबार के मौके
चाहिए। इसके उसे दस प्रतिशत की तरक्की सपना सच होने का रास्ता तेजी से तय होता
दिखना चाहिए। इसके लिए उसे अपने भारत की ताकत दुनिया में बढ़ती हुई दिखनी चाहिए।
इसके लिए उसे दिखना चाहिए कि देश की कंपनियां दुनिया की बड़ी कंपनियों के मुकाबले
में बराबरी से खड़ी हैं। इसके लिए उसे दिखना चाहिए कि देश के बड़े प्रतिष्ठित
शिक्षा संस्थानों की गिनती दुनिया के बड़े शिक्षा संस्थानों के आसपास हो। इसके लिए
उस नौजवान को ये दिखना चाहिए कि देश का बुनियादी ढांचा दुनिया के दूसरे देशों के
बुनियादी ढांचे के मुकाबले में जरा सा भी कमजोर नहीं है।
अब ये सब एक बजट में
आखिर होगा कैसे। ये हो सकता है। बल्कि, सही मायने में हो रहा है। पिछले 9 महीने
में नरेंद्र मोदी की सरकार ने देश की ताकत बढ़ाने वाला हर काम किया है। चाहे वो
विदेश कूटनीति का मोर्चा हो या फिर देश की कारोबारी इज्जत दुनिया में बढ़ाने का
मसला हो। दुनिया भारत की बढ़ती ताकत देख रही है और इस बढ़ती ताकत वाले भारत के साथ
खड़ी हो रही है, दिखना चाह रही है। दुनिया का संतुलन भारत के लिहाज से तय हो रहा
है। चीन के अखबार, थिंकटैंक ये बताने में लगे हैं कि अमेरिका के साथ भारत के कौन
से विरोधाभास हैं जिनकी वजह से भारत का चीन के नजदीक आना ज्यादा स्वाभाविक है। ऐसा
ही तर्क पश्चिमी मीडिया भारत और चीन के गठजोड़ पर दे रहा है। इसका मतलब सबको भारत
चाहिए। इसलिए भारत अपनी शर्तें भी तय कर सकता है। ये अद्भुत समय है जब दुनिया में
भारत अपनी शर्तें मनवाने की स्थिति में है और भारत का नौजवान देश की पहचान बदलने
के लिए सरकार के हर उस फैसले के साथ खड़ा होता दिख रहा है जो देश की ताकत बढ़ाए।
इसलिए नरेंद्र मोदी-अरुण जेटली का बजट इस दिशा में कड़े और बड़े फैसलों वाला बजट
होना चाहिए। पिछला बजट तो कामचलाऊ था। ये अरुण जेटली का पहला पूर्ण बजट है। दुनिया
में कारोबारी संतुलन ने अवसर दिया है कि सरकारी खजाने का घाटा बहुत कम हो गया है।
डॉक्टर मनमोहन सिंह की ढेर सारी नीतियों को अच्छे से लागू करने से उन कड़वे फैसलों
के सिर्फ अच्छे असर इस सरकार के हिस्से में आए हैं। अभी पूरे चार साल से ज्यादा इस
सरकार के पास हैं। बजट ऐसा हो जिसकी अगली कड़ी अगले साल के बजट में दिखे। बजट
साफ-साफ बताए कि कैसे पुरानी सरकार में नीतियों के रुके रहने की वजह से भारत की
तरक्की की रफ्तार पर दुनिया की बड़ी संस्थाओं को संदेह था। बजट बताए कि कैसे अब इस
सरकार में तेजी से फैसले लेने से दुनिया को भारत की ही तरक्की सबबसे तेज होती नजर
आ रही है। ये बजट बताए कि बुनियादी सुविधाओं के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी की
सरकार के फैसलों को तेज रफ्तार तरक्की के हाईवे पर ले जाने का ही काम ये सरकार कर
रही है। और पहले से तेजी से कर रही है। 28 फरवरी ये भी तय करेगा कि दिल्ली
विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की हार हुई है या फिर देश अभी भी नरेंद्र मोदी के
साथ है। विश्व गुरू जैसा शब्द सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दिया हुआ नजर आनने
लगेगा। लेकिन, सच्चाई यही है कि बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए 28 फरवरी की तारीख
मजबूती से घर वापसी की तारीख है।
(ये लेख आज दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)Thursday, February 12, 2015
ये नया वीआईपी कल्चर होगा
हालांकि ये संभव नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दें। दे देंगे तो उससे मुझे कोई एतराज भी नहीं है। लेकिन, दिल्ली पुलिस तो देश की ही होनी चाहिए। दिल्ली के होने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कैसे सोचते हैं मुझे नहीं पता लेकिन, यही दिल्ली पुलिस जिसकी वजह से नोएडा से मयूर विहार पहुंचते ही सीट बेल्ट लग जाती है। डी पी यादव जैसों की गुंडई खत्म हो जाती है। मीडिया बताकर हम पत्रकार भी यातायात नियम नहीं तोड़ सकते। गलत हो गया तो विधायक, सांसद सब दिल्ली पुलिस से बचते हैं। इसे आम आदमी पार्टी के विधायकों की कृपा पर नहीं छोड़ा जा सकता। ये नया VIP कल्चर होगा। और अरविंद इसी वीआईपी संस्कृति के खिलाफ तो लड़ते रहे हैं। दिल्ली पुलिस की जेड प्लस सिक्योरिटी नहीं चाहिए लेकिन, पूरी दिल्ली पुलिस की कमान अपने हाथ में चाहिए। ये किस तरह से वीआईपी कल्चर खत्म कर रहे हैं अरविंद केजरीवाल। कृपा करके इसे दूसरे राज्यों की तर्ज पर बताकर तर्क मत देने लगिएगा। #DelhiDecides 7 RCR
Tuesday, February 10, 2015
10% की नई राजनीति
दस प्रतिशत यही वो आंकड़ा होता है जिसके आधार पर तय होता है कि किसी
संसदीय व्यवस्था में औपचारिक तौर पर विपक्षी पार्टी होगी या नहीं। और ये अद्भुत
संयोग बना है कि चुनावी राजनीति की सर्वोच्च संसद और देश की राजधानी दिल्ली की
विधानसभा में जनता ने विपक्ष को चुनने से ही इनकार कर दिया है। कहने को लोकसभा में
भी विपक्षी पार्टियां हैं जो किसी भी मामले पर हल्ला-हंगामा कर सकती हैं। लेकिन,
दस प्रतिशत भी सीटें कांग्रेस को न मिल पाने की वजह से 2014 के चुनावों में लोकसभा
विपक्ष विहीन हो गई है। और दिल्ली विधानसभा के ताजा चुनाव में तो जनता और आगे निकल
गई। उसने लोकसभा चुनाव बंपर तरीके से जीतने वाली भाजपा को पांच प्रतिशत सीटें भभी
देने से इनकार कर दिया। अराजक कही जाने वाली आम आदमी पार्टी को इतनी सीटें दे दी
हैं कि अब कोई अराजकता भी करेगा तो दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के
विधायकों की हंसी में ही दबब जाएगा। वैसे तो ये अन्ना आंदोलन से जन्मी पार्टी है।
सभी परंपरागत पार्टियों को गालियां देकर खड़ी हुई पार्टी है। इसलिए विश्लेषक चाहें
तो इसे भारतीय राजनीति में चमत्कार की शुरुआत कह सकते हैं। लेकिन, सच्चाई ये है कि
आम आदमी पार्टी के इस मतदाता तूफान को भारतीय राजनीति में मतदाताओं के नए पक्के
होते मिजाज की भव्य इमारत देखने की तरह समझना ज्यादा बेहतर होगा।
भारतीय मतदाता अब परंपरागत तरीके से नहीं सोचता। वो परंपरागत खांचों में
भी नहीं बंटा है। वो इतना परिपक्व और बेहतर हुआ है कि वो एक समय में ही दो अलग-अलग
मौकों के लिए अलग तरीके की राजनीति करने वालों को आंखमूंदकर समर्थन दे देता है।
कमाल की बात है कि वो ये सब खुलकर कर रहा है। लेकिन, इसके बाद भी राजनेताओं को ये
सब उतने साफ तरीके से दिखाई नहीं देता। खासकर जिसका समर्थन जनता आंख मूंदकर करती
है तो उस राजनीतिक दल या नेता को ये गलतफहमी हो जाती है कि जनता ने आंखें मूंद ली
हैं। अब चाहे जो करो, चाहे जैसे करो। जनता तो आंख खोलने से रही। लेकिन, जनता गजब
समझदार हो गई है। वो खुद तो आंखें खोलती ही है। आंख ढंकने की कोशिश करने वाले
राजनीतिक दलों की आंख में मिर्ची भर देती है। सोचिए न जनता की पारदर्शिता कितना
जबरदस्त रही है। वो 2013 की सर्दियों में दिल्ली में बीजेपी को मौका देती है।
कांग्रेस को चेतावनी देती है और आम आदमी पार्टी को नई राजनीति करने का आधार देती
है। वही जनता 2014 की गर्मियों में पूरी तरह से मोदीमय हो जाती है। कांग्रेस को
उसके पुराने कर्मों का हिसाब किताब गिनाती है और आम आदमी पार्टी को समझाती है कि
उसको किस नई राजनीति के लिए जनता ने चुना था। कांग्रेस को अपने कर्मों का हिसाब
फिर भी समझ नहीं आता। कांग्रेस उसी धुन में रहती है। आम आदमी पार्टी घर-घर जाकर
माफी मांगने लगती है। और भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को मिले मौके को जनता का
दिया मौका न मानकर व्यक्तिगत उपलब्धि में जोड़ने लगती है। 2013 की सर्दियों से
2014 की गर्मियां बिताकर जनता फिर 2015 की सर्दियों में खड़ी थी। उसके सामने देश
की एक सरकार थी। ये उस पार्टी की सरकार थी। जिसके पास नेता था, नीति थी। जिस भारतीय
जनता पार्टी को राजनीतिक विश्लेषक 160-200 तक की अधिकतम संसदीय सीटों वाली पार्टी
के तौर पर देखते थे। वो 282 सीटें लेकर खड़ी थी। और साथ ही उस बहुमत के आधार पर
जनता को साफ दिख रहा था कि नरेंद्र मोदी वो सब कर रहे हैं जिसके लिए जनता ने
उन्हें चिलचिलाती गर्मी में कतार में लगकर पूर्ण बहुमत दिया था। वो नरेंद्र मोदी
भारत का डंका दुनिया में बजा रहा था। लेकिन, 2015 की सर्दियों में मफलर लपेटे वो
आदमी फिर से आ गया था जो आम आदमी के नाम पर पार्टी चला रहा था। उसकी पार्टी में
सचमुच ही सिर्फ आम आदमी बचे रह गए थे। 2014 की गर्मियों में लोकसभा चुनाव लड़ने के
फैसले की शीर्षासन जनता ने क्या कराया, अपने खास स्टेटस को बचाने के लिए आम आदमा
का मेकअप किए लोग पार्टी छोड़कर भागने लगे। और ये क्या जिस नरेंद्र मोदी की पार्टी
पर जनता ने विश्वास का खून पसीना बहाया था। वहां तो वो सारे लोग नजर आने लगे।
जिनके खिलाफ नरेंद्र मोदी चुनावी रैलियों में दहाड़ते नजर आए थे। वो सारे के सारे
भाजपाई हो जाना चाहते थे। ये नेता जनता का ताकत नहीं समझ रहे थे। ये भाजपा की ताकत
से जुड़ने जा रहे थे। और उधर सर्दियों में, कोहरे में मफलर लपेटे अरविंद केजरीवाल
अकेले आम आदमी की ताकत बढ़ाने का दावा कर रहा था। वो माफी मांग रहा था जनता से कि
अब वो भगोड़ा नहीं बनेगा। और भाजपा मजाक बना रही थी कि वो भगोड़ा निकल गया था। फिर
भाग जाएगा। अरविंद ने जनता से माफी मांगी, समझाया कि वो भागा इसलिए कि न भागने पर
परंपरागत राजनीति की चक्की में उसकी वो नई राजनीति पिस जाती, जिसके आधार पर जनता
ने उसे 28 सीटें देकर राजनीतिक आधार दिया था। जनता समझ गई। जनता ने उसे मौका देने
का ठाना। ये वही जनता थी जिसने नरेंद्र मोदी को भी मौका देने का फैसला किया था।
नरेंद्र मोदी भी भी जनता को ये समझाने में सफल रहे थे कि पूरे देश की, दिल्ली की
तथाकथित राजनीति करने वाले इस दिल्ली से बाहर के नेता को राजनीति के शीर्ष पर नहीं
आने देना चाहते। नरेंद्र मोदी ये भी समझाने में सफल रहे कि बेवजह उन्हें स्थापित
राजनीति, मीडिया ने प्रताड़ित किया। यही अरविंद ने भी समझाया। दोनों अपनी-अपनी जगह
ये समझाने में सफल रहे। जनता ने समझा भी। अरविंद जब दिल्ली विधानसभा में आधार पाने
के तुरंत बाद लोकसभा चुनावों के लिए चल पड़े तो जनता ने झटका दे दिया। नरेंद्र
मोदी भी जब ये समझाने की कोशिश करने लगे कि दिल्ली का चुनाव नहीं जीते तो उनकी
निजी प्रतिष्ठा जाएगी तो जनता ने झटका दे दिया। दरअसल जब हरियाणा, महाराष्ट्र,
झारखंड और जम्मू कश्मीर में नरेंद्र मोदी इस तरह की निजी प्रतिष्ठा वाला निवेदन कर
रहे थे तो जनता को साफ दिख रहा था नरेंद्र मोदी से बेहतर राजनीति वाला कोई मौजूद
नहीं है। जिस परंपरागत राजनीति को नए मतदाता ने बदला था वो उसकी जीत थी।
लेकिन, जब
वही नरेंद्र मोदी उसी तरह की प्रतिष्ठा बचाने का हवाला देने लगे तो जनता चौकन्नी
हो गई। क्योंकि, इस नए मतदाता ने 2014 की गर्मियों में ही साफ-साफ बचा दिया था देश
में नरेंद्र मोदी, दिल्ली में केजरीवाल। दरअसल नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल
दोनों ही भले एक दूसरे के घोर विरोधी दिखते हों। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये दोनों
उस नए मतदाता की पैदाइश हैं जो भारतीय राजनीति के सारे स्थापित पैमानों को उलट
चुका है। ये जो लगातार मत प्रतिशत बढ़ता दिख रहा है। देश का लोकतंत्र मजबूत होता
दिख रहा है। वो उसी नौजवान मतदाता की वजह से है। उस नौजवान मतदाता को अपना सपना
तोड़ने वाला कोई भी बर्दाश्त नहीं है। वही मतदाता तो था जिसने 2009 में डॉक्टर मनमोहन
सिंह के दस प्रतिशत की तरक्की वाले सपने पर मुहर लगाई थी। कांग्रेस को भी अप्रत्याशित
सफलता दे दी थी। लेकिन, जब सुधार करते-करते मनमोहन सिंह की सरकार तीन सस्ते
सिलिंडर को अपनी उपलब्धि बताने लगी और घोटाले, बेईमानी उस सरकार की पहचान बनते
दिखने लगे तो जनता ने उठाकर पटक दिया। इसीलिए देश की राजनीति करने वालों, राजनीतिक
विश्लेषकों, मीडिया को ये अच्छे से समझना होगा कि इस देश का नया मतदाता जागा है।
नई तरह की राजनीति को वो समर्थन दे रहा है। इसीलिए नरेंद्र मोदी और अरविंद
केजरीवाल दोनों ही उसको एक समय में ही अच्छे लगने लगते हैं। वो स्मार्टफोन वाला
मतदाता है। वो स्मार्ट मतदाता है। वो जेब में रकम से बनती बिगड़ती हैसियत समझता
है। वो भारतीय पासपोर्ट की ताकत बढ़ते देखना चाहता है। वो अमेरिका के सपने नहीं
देखता। वो अमेरिका घूम टहलकर लौट आया है। वो भारत को मजबूत देखना चाहता है। वो नया
मतदाता है। नई राजनीति को मजबूत करना चाहता है। उसे दोनों ही अच्छे लगते हैं। उसे
अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी दोनों को देखकर ये लगता है कि मैं भी कभी भी
राजनीति कर सकता हूं। राजनीति करके सफल हो सकता हूं। मुख्यमंत्री बन सकता हूं।
प्रधानमंत्री बन सकता हूं। ये उसी राजनीति और उसी मतदाता की जीत है। इसलिए इसे
अरविंद की जीत और नरेंद्र मोदी की हार साबित करने वाले विश्लेषकों को थोड़ा सावधान
रहने की जरूरत है। और उससे भी ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है नरेंद्र मोदी और
अरविंद केजरीवाल को। क्योंकि, ये जनता ऐसे ही मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बनाती है
और ऐसे ही पैदल भी करती है। ये नया मतदाता है। नई राजनीति को मजबूत कर रहा है। यही
दिल्ली विधानसभा के नतीजों का सबक है।
Tuesday, February 03, 2015
लोकतंत्र की जीत के लिए!
लोकतंत्र में हार जीत होती रहती है। इसलिए
दिल्ली कौन जीतेगा का जवाब है- कोई भी जीत सकता है। ये भी ठीक है कि सत्ता का नशा
ऐसा होता है कि उसमें अहंकार बढ़ना पक्का है। ये भी ठीक है कि अहंकार बढ़ने से
तानाशाही आ जाती है। इसलिए भाजपा का दिल्ली में चुनाव जीतना ठीक नहीं है। इसलिए
लोकतंत्र बचाने के लिए जरूरी है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जीत जाए।
अरविंद के जीत जाने से लोकतंत्र बच जाएगा। ऐसा बताने वाले बुद्धिजीवियों की
बहुतायत है। मैं भी इस विचार से प्रभावित होता हूं। लेकिन, इसी
विचार को जब मैं आगे ले जाता हूं तो मैं ठिठक जाता हूं। तब मुझे समझ आता है कि देश
में बिना वजह की राजनीति चमकाने वाली ताकतें शायद इसी इंतजार में हैं। ये वही
ताकतें हैं जिनके चलते न देश सुधारवादी हो पाया, न
समाजवादी। न सीधे गरीबों के साथ खड़ा होकर उनका पेट भर पाया और न ही अमीरों के साथ
खड़ा होकर उनकी फैक्ट्री, कारोबार को आगे बढ़ा पाया। जिससे
अमीरों के जरिए ही गरीबों का पेट भर पाता। लालू, मुलायम,
मायावती और देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इंतजार ही सिर्फ इस बात
का कर रही हैं कि किसी भी तरह अरविंद केजरीवाल दिल्ली में जीत जाए। दरअसल उन्हें अरविंद
की राजनीति से प्रेम नहीं है। उन्हें अरविंद की सफलता भी नहीं पचेगी। बल्कि,
सही मायने में तो ये सारी ताकतें अरविंद की राजनीति की घोर विरोधी
हैं। लेकिन, इस समय उनका महत्व खत्म है। और ये महत्वहीन हुए
हैं नरेंद्र मोदी की लगातार जीत से। ये हारे रहें लेकिन, अगर
नरेंद्र मोदी एक बार हार गया तो ये जीतने की बुनियाद बनाने लगेंगे। ये उत्तर
प्रदेश, बिहार बनाने लगेंगे। और फिर कहेंगे कि लोकतंत्र
की ताकत यही है कि किसी भी दल को कुछ करने का अधिकार न हो। अधिकार हर किसी को
सबकुछ करने का हो। इससे होगा ये कि इन परिवार, पालकों
को सत्ता की चाभी मिली रहेगी। लोकतंत्र के जीवित रहने के बहाने देश के लोगों के
जीवनस्तर बेहतर होने को ही ये दांव पर लगा देना चाहते हैं। इसीलिए दिल्ली में देश
की उन सारी ताकतों को अरविंद केजरीवाल की जीत से ज्यादा नरेंद्र मोदी की हार
चाहिए। ये सारी ताकतें वही हैं जो दस साल की यूपीए सरकार के किसी भी फैसले को
राजनीतिक मोलभाव के आधार पर तोल-मोल के फैसले पर हां या ना करती रहीं। ये वो
राजनीतिक ताकतें हैं जो सिर्फ इस आधार पर राजनीति करती रही हैं कि किसी का विरोध
करना है। इन पार्टियों में से किसी के पास भी कोई एजेंडा नहीं है। इनके पास किसी
खास मसले पर किसी के विरोध का एजेंडा होता है। और यही एजेंडा राजनीतिक ब्लैकमेलिंग
की ताकत देता है। यही एजेंडा देश में भ्रष्टाचार को छिपाने की राजनीति करता है।
यही एजेंडा देश में बेईमानी की बुनियाद और मजबूत करता है। यही एजेंडा देश में
परिवारवाद को समाजवाद या फिर एक जाति के उत्थान से जोड़ देता है। यही एजेंडा देश
की तरक्की को सबसे निचले पायदान पर रख देता है। यही एजेंडा धर्मनिरपेक्ष होने
राजनीतिक वोटबैंक का सबसे बड़ा हथियार बना देता है।
सबसे कमाल की बात ये है कि अरविंद केजरीवाल की
राजनीति शुरू ही इसलिए हुई थी कि भ्रष्टाचार, परिवारवाद को खत्म किया जा सके। एक
एजेंडा था जो अन्ना के पीछे किरन बेदी और अरविंद केजरीवाल को खड़ा करता था। वो
एजेंडा था लोकपाल का। वो एजेंडा था देश से भ्रष्टाचार खत्म करने का। वो एजेंडा था
देश में नई राजनीति की शुरुआत का। वो एजेंडा था परंपरागत राजनीति के नाम पर देश की
जनता को वोटबैंक समझने वालों की राजनीति ध्वस्त करने का। अब दिल्ली की सत्ता के
लिए अरविंद केजरीवाल की जीत की कामना के बहाने उस सारी राजनीति का शीर्षासन करने
की कोशिश हो रही है। कोशिश ये हो रही है कि अरविंद की जीत हो जाए और अरविंद की
राजनीति के सारे पैमाने ध्वस्त हो जाएं। और इस सबके बाद देश के हर कोने से आवाज
आएगी कि नरेंद्र मोदी हार गया। नरेंद्र मोदी हार गया। मतलब देश में जाति, धर्म की
राजनीति ही होगी। विकास की राजनीति कभी नहीं चलेगी। फिर हम कहेंगे कि ये देश ऐसे
ही चलता है। इस देश की राजनीति ही ऐसे चलती है। इसीलिए अरविंद केजरीवाल को दिल्ली
में जिताना, लोकतंत्र को जिताने से जोड़ दिया गया है। इसीलिए मुझे लगता है कि अरविंद ने अपनी पार्टी का नाम ईमानदार आदमी पार्टी नहीं रखा।
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