लोकतंत्र में हार जीत होती रहती है। इसलिए
दिल्ली कौन जीतेगा का जवाब है- कोई भी जीत सकता है। ये भी ठीक है कि सत्ता का नशा
ऐसा होता है कि उसमें अहंकार बढ़ना पक्का है। ये भी ठीक है कि अहंकार बढ़ने से
तानाशाही आ जाती है। इसलिए भाजपा का दिल्ली में चुनाव जीतना ठीक नहीं है। इसलिए
लोकतंत्र बचाने के लिए जरूरी है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जीत जाए।
अरविंद के जीत जाने से लोकतंत्र बच जाएगा। ऐसा बताने वाले बुद्धिजीवियों की
बहुतायत है। मैं भी इस विचार से प्रभावित होता हूं। लेकिन, इसी
विचार को जब मैं आगे ले जाता हूं तो मैं ठिठक जाता हूं। तब मुझे समझ आता है कि देश
में बिना वजह की राजनीति चमकाने वाली ताकतें शायद इसी इंतजार में हैं। ये वही
ताकतें हैं जिनके चलते न देश सुधारवादी हो पाया, न
समाजवादी। न सीधे गरीबों के साथ खड़ा होकर उनका पेट भर पाया और न ही अमीरों के साथ
खड़ा होकर उनकी फैक्ट्री, कारोबार को आगे बढ़ा पाया। जिससे
अमीरों के जरिए ही गरीबों का पेट भर पाता। लालू, मुलायम,
मायावती और देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इंतजार ही सिर्फ इस बात
का कर रही हैं कि किसी भी तरह अरविंद केजरीवाल दिल्ली में जीत जाए। दरअसल उन्हें अरविंद
की राजनीति से प्रेम नहीं है। उन्हें अरविंद की सफलता भी नहीं पचेगी। बल्कि,
सही मायने में तो ये सारी ताकतें अरविंद की राजनीति की घोर विरोधी
हैं। लेकिन, इस समय उनका महत्व खत्म है। और ये महत्वहीन हुए
हैं नरेंद्र मोदी की लगातार जीत से। ये हारे रहें लेकिन, अगर
नरेंद्र मोदी एक बार हार गया तो ये जीतने की बुनियाद बनाने लगेंगे। ये उत्तर
प्रदेश, बिहार बनाने लगेंगे। और फिर कहेंगे कि लोकतंत्र
की ताकत यही है कि किसी भी दल को कुछ करने का अधिकार न हो। अधिकार हर किसी को
सबकुछ करने का हो। इससे होगा ये कि इन परिवार, पालकों
को सत्ता की चाभी मिली रहेगी। लोकतंत्र के जीवित रहने के बहाने देश के लोगों के
जीवनस्तर बेहतर होने को ही ये दांव पर लगा देना चाहते हैं। इसीलिए दिल्ली में देश
की उन सारी ताकतों को अरविंद केजरीवाल की जीत से ज्यादा नरेंद्र मोदी की हार
चाहिए। ये सारी ताकतें वही हैं जो दस साल की यूपीए सरकार के किसी भी फैसले को
राजनीतिक मोलभाव के आधार पर तोल-मोल के फैसले पर हां या ना करती रहीं। ये वो
राजनीतिक ताकतें हैं जो सिर्फ इस आधार पर राजनीति करती रही हैं कि किसी का विरोध
करना है। इन पार्टियों में से किसी के पास भी कोई एजेंडा नहीं है। इनके पास किसी
खास मसले पर किसी के विरोध का एजेंडा होता है। और यही एजेंडा राजनीतिक ब्लैकमेलिंग
की ताकत देता है। यही एजेंडा देश में भ्रष्टाचार को छिपाने की राजनीति करता है।
यही एजेंडा देश में बेईमानी की बुनियाद और मजबूत करता है। यही एजेंडा देश में
परिवारवाद को समाजवाद या फिर एक जाति के उत्थान से जोड़ देता है। यही एजेंडा देश
की तरक्की को सबसे निचले पायदान पर रख देता है। यही एजेंडा धर्मनिरपेक्ष होने
राजनीतिक वोटबैंक का सबसे बड़ा हथियार बना देता है।
सबसे कमाल की बात ये है कि अरविंद केजरीवाल की
राजनीति शुरू ही इसलिए हुई थी कि भ्रष्टाचार, परिवारवाद को खत्म किया जा सके। एक
एजेंडा था जो अन्ना के पीछे किरन बेदी और अरविंद केजरीवाल को खड़ा करता था। वो
एजेंडा था लोकपाल का। वो एजेंडा था देश से भ्रष्टाचार खत्म करने का। वो एजेंडा था
देश में नई राजनीति की शुरुआत का। वो एजेंडा था परंपरागत राजनीति के नाम पर देश की
जनता को वोटबैंक समझने वालों की राजनीति ध्वस्त करने का। अब दिल्ली की सत्ता के
लिए अरविंद केजरीवाल की जीत की कामना के बहाने उस सारी राजनीति का शीर्षासन करने
की कोशिश हो रही है। कोशिश ये हो रही है कि अरविंद की जीत हो जाए और अरविंद की
राजनीति के सारे पैमाने ध्वस्त हो जाएं। और इस सबके बाद देश के हर कोने से आवाज
आएगी कि नरेंद्र मोदी हार गया। नरेंद्र मोदी हार गया। मतलब देश में जाति, धर्म की
राजनीति ही होगी। विकास की राजनीति कभी नहीं चलेगी। फिर हम कहेंगे कि ये देश ऐसे
ही चलता है। इस देश की राजनीति ही ऐसे चलती है। इसीलिए अरविंद केजरीवाल को दिल्ली
में जिताना, लोकतंत्र को जिताने से जोड़ दिया गया है। इसीलिए मुझे लगता है कि अरविंद ने अपनी पार्टी का नाम ईमानदार आदमी पार्टी नहीं रखा।
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