Tuesday, September 30, 2014

हम मन से गुलाम

हिंदुस्तान अखबार में 
ये खबर पढ़कर समझना मुश्किल है कि जयललिता इतनी महान नेता हैं या मरने, अस्पताल जाने वाले इतने बड़े मूर्ख थे, हैं। लेकिन, इतना तो आसानी से समझ में आ जाता है कि हम गजब गुलाम मन वाले देश में रहते हैं। जयललिता किसी भी तरह के महान कर्म की वजह से जेल नहीं जा रहीं थीं। जयललिता तमिलनाडु के उन लोगों के लिए भी जेल नहीं गईं, जो उनके लिए जान दे रहे हैं, देने को तैयार हैं। जयललिता भ्रष्टाचार की वजह से जेल गई हैं। और ये पहली बार नहीं हुआ है। इसके पहले भी कई बार देश के नेताओं की जान गई है या वो जेल गए हैं तो गुलाम मनस वाली जनता ने उनके लिए जान दी है। अब इसको आप चाहे जैसे मानें। मुझे तो ये सिर्फ और सिर्फ हमारी गुलाम मानसिकता का ही परिचय देता है।

YSR रेड्डी भी बहुत बड़े नेता थे। इतने बड़े कि उनकी दुखद मृत्यु के बाद राज्य के अलग-अलग हिस्सों से 150 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान दे दी। सवाल ये नहीं है कि किसी नेता की लोकप्रियता कितनी हो। और उसकी अभिव्यक्ति के तरीके क्या हों। लेकिन, अगर किसी नेता की मौत पर उसका समर्थक समाज आत्महत्या कर रहा है। तो, ये समझना आसान हो जाता है कि उस नेता ने अपनी नेतृत्व क्षमता का इस्तेमाल उनके व्यक्तित्व विकास के बजाय व्यक्तित्व खत्म करने में किया है। इस कदर खत्म कर दिया कि एक नेता के मरने, जेल जाने, उसका बंगला खाली होने के बाद वो जान देने, लेने को तैयार हो जाते हैं। गुलाम, अपनी गुलामी साबित करने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते हैं और वो छोड़ते भी नहीं हैं। यही गुलामी है। और अगर ये गुलामी नहीं है तो फिर गुलामी क्या है। लॉर्ड और वायसराय का राज।

Monday, September 29, 2014

थप्पड़ ने खोली राजदीप के अपराधों की पोटली

राजदीप सरदेसाई को लेकर दुनिया भर की जा बातें हो रही हैं वो अपनी जगह। लेकिन, राजदीप सरदेसाई के अपराध बहुत हैं। इस थप्पड़ से सारे अपराधों की बात होगी। इससे कम से कम मैं तो खुश हूं। और कम से कम आज की तारीख तक किसी की चवन्नी भी मैंने बेईमानी के एवज में नहीं ली है। मैं भी ये मानता रहा कि राजदीप बड़े और ईमानदार पत्रकार हैं। देश के जाने कितने पत्रकारिता पढ़ने वाले बच्चे राजदीप को देखकर पत्रकारिता करते हैं। उन सबको राजदीप ने ठगा है। उन सबके साथ राजदीप सरदेसाई ने बेईमानी की है। किसी पत्रकार के साथ धक्कामुक्की या मारपीट पहली बार नहीं हुई है। रिपोर्टिंग करते समय कई बार होती है। लेकिन, राजदीप ने जो इरादतन टाइप की मारपीट अपने साथ करवाई उसकी वजह से पूरे देश की छवि को जो बट्टा लगा। उसकी भरपाई किसके हिस्से से होगी। राजदीप को अगर सचमुच की पत्रकारिता करनी होती तो क्या डॉक्टर ने बताया था कि करीब दो दशक से संपादक रहने के बाद उन्हें फिर से किसी संस्थान में नौकरी करनी पड़े। क्या दोनों पति-पत्नी पत्रकार देश में सचमुच की पत्रकारिता करने की शुरुआत नहीं कर सकते थे।

सीएनएन आईबीएन और आईबीएन सेवन के संपादक की नौकरी छोड़नी पड़ी तो फिर से संपादक की कुर्सी ही चाहिए। क्या ये साबित करना चाहते हैं कि बिना संपादक हुए पत्रकारिता नहीं हो सकती। क्या राजदीप सरदेसाई और सागरिका घोष हेडलाइंस टुडे और टाइम्स ऑफ इंडिया की नौकरी करने के बजाय स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर देश की सरकार के खिलाफ असल मुहिम छेड़ने का साहस कर सकते थे और अगर नहीं कर सकते थे तो मलाईदार संपादकी और मोटी रकम के साथ पत्रकार बनने की इच्छा रखने वाली पूरी पीढ़ी बरगलाने का अधिकार इन्हें किसने दिया। पत्रकारिता, देश दोनों के साथ ये बेईमानी नहीं कर रहे थे। इस वीडियो को देखकर समझिए कि राजदीप सरदेसाई ने ऐसा क्यों किया होगा। किसी दलाली या किसके लिए बेईमानी कर रहे थे राजदीप सरदेसाई। आज तक पर जब मैंने राजदीप को मैडिसन स्क्वायर से रिपोर्टिंग करते देखा तभी समझ गया था कि वो एजेंडे पर थे। राजदीप सरदेसाई के मन में शायद ये इच्छा रही होगी कि वो अमेरिका में ये बेहूदगी करके दुनिया के सबसे सेक्युलर पत्रकार बन जाएंगे। उनकी इच्छा शायद यूएन में मुकदमा चलाकर नरेंद्र मोदी को अब दागी साबित करने की होगी या फिर अमेरिका की किसी अदालत में। देश, देश की जनता, देश सम्मानित संस्थाओं को अपमानित करने की नीयत से ये राजदीप सरदेसाई अमेरिका गया था।

Tuesday, September 23, 2014

विकल्पहीनता

किसी से भी पूछकर देखिए। ज्यादातर का जवाब यही आएगा कि विकल्प ही नहीं है। विकल्प होता तो ये थोड़े न करते। नौकरी कर रहे हैं तो कारोबार की बात करेंगे। कारोबार कर रहे हैं  तो नौकरी की बात करेंगे। राजनीति कर रहे हैं तो कुछ समय बाद वही भाव कि विकल्प ही नहीं है। विकल्प बन जाए तो राजनीति छोड़ दें। ऐसे ही कोई दूसरा बोल सकता है कि विकल्प मिल जाए तो कल से राजनीति करनी शुरू कर दें। बात करिए तो ऐसे लगता है कि पूरा समाज ही विकल्पहीनता का शिकार है। 95 प्रतिशत लोगों को विकल्प मिले तो कुछ और करने लगें। फिर इससे दूसरे तरह की भी विकल्पहीनता की बात आती है। लंबे समय तक इस देश में ये सामान्य धारणा बनी रही कि इस देश में राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस का विकल्प नहीं है। देश बचाना है तो संघ का विकल्प नहीं है। पिछड़ों की राजनीति जारी रखनी है तो लालू-मुलायम-शरद यादव का विकल्प नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के लिए चौधरी साहब की विरासत का विकल्प नहीं है। दलित राजनीति में उत्तर में मायावती तो दक्षिण में करुणानिधि का विकल्प नहीं है।

ये विकल्पहीनता भी गजब की है। हर दिन विकल्प मिलता जाए तो भी विकल्पहीनता ही रहती है। हमारा भारत गजब विकल्पहीन देश है। ये विकल्पहीनता का भ्रम इस कदर है कि महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के जीवित रहते ही कांग्रेस से टूटकर एक और विकल्प राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तैयार हो गया। लेकिन, बाल ठाकरे को लगता रहा कि महाराष्ट्र में उनका कोई विकल्प ही नहीं है। वो भ्रम फिर टूटा। भतीजा राज ठाकरे, बेटे उद्धव ठाकरे से ज्यादा ताकतवर हो गया फिर भी ये भ्रम बना रहा कि शिवसेना का महाराष्ट्र में कोई विकल्प नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय राज ठाकरे को वही बाल ठाकरे वाला भ्रम हो गया कि मराठी माणुष वाली राजनीति के लिए बाल ठाकरे के बाद वही विकल्प हैं। उनका विकल्पहीनता का भ्रम टूटा तो उनके चचेरे भाई उद्धव ठाकरे को ये विकल्पहीनता वाला भ्रम हो गया कि महाराष्ट्र में बीजेपी के पास उनसे गठबंधन के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे ही विकल्प बिहार में नीतीश को हुआ था लोकसभा चुनाव के समय। फिर नरेंद्र मोदी की अगुवाई में ऐसी जीती बीजेपी को उसे भी विकल्पहीनता का भ्रम हो गया। वही वाला भ्रम कांग्रेस के आसपास वाला। तो विधानसभा उपचुनावों में गजब-गजब विकल्प दिखे। हर राज्य में अद्भुत विकल्प। 2012 में ही तो उत्तर प्रदेकी जनता ने ऐसे वोट दे दिया कि लगा समाजवाद के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। ये वही उत्तर प्रदेश की जनता थी जिसने पांच साल पहले ऐसे ही मायावती की दलित-सवर्ण गठजोड़ वाली राजनीति के आगे सबको विकल्पहीन कर दिया था।

ये विकल्पहीनता वाला भ्रम इस देश में इतनी तेजी से फैलता है। उसकी सबसे शानदार उदाहरण हैं अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी। लगा कि अब इस पार्टी की राजनीति का देश में कोई विकल्प ही नहीं है। कुछ इसी तरह बंगाल में वामपंथी सोचते थे। उनका विकल्प ममता बनर्जी हो ही गईं। वहां तक तो फिर भी ठीक था विकल्पहीन बंगाल की राजनीति में ममता के विकल्प के तौर पर भी कोई वामपंथ को जगह देने को तैयार नहीं दिख रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी हम सोचते हैं कि विकल्प ही नहीं है। हम भी ऐसे ही सोचते हैं कि हमारे पास पत्रकारिता के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है। वो भी किसी न किसी की नौकरी करते हुए पत्रकारिता। लेकिन, जब इतने भ्रम टूटे हैं तो विकल्पहीनता का ये भ्रम भी टूटेगा। हालांकि, फिर मैं विकल्पहीनता पर ही आ गय। अब मुझे लगता है कि रोटी का जुगाड़ मजे भर का हो जाए तो स्वतंत्र पत्रकारिता का कोई विकल्प नहीं है। अरे मैं अब कुछ ज्यादा भ्रमित हो रहा हूं। फिलहाल इस लेख को यहीं खत्म करने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।

Monday, September 22, 2014

डॉक्टर हर्षवर्धन त्रिपाठी!

ये एतिहासिक शोध मैंने पूरा किया है। इसे मैं नए माध्यम यानी कि ब्लॉग पर पेश कर रहा हूं। मेरे शोध का विषय रहा- बीमारी की हद तक वामपंथ से ग्रसित व्यक्ति स्वस्थ होने की हद तक दक्षिणपंथी कैसे बन सकता है। इस शोध का परिणाम भी एक ही लाइन का है। परिणाम है देश में दक्षिणपंथी विचारधारा वाली सरकार का होना। अब इस शानदार शोध के लिए मुझे डॉक्टरेट मिले ना मिले। वैसे तो राह चलते कई विश्वविद्यालय बुलाकर बड़े लोगों को बिना शोध ही डॉक्टरेट की उपाधि दे देते हैं। बड़ा आदमी न होने से इतना महत्वपूर्ण शोधपत्र प्रस्तुत करने के बाद भी शायद ही कोई विश्वविद्यालय अदालतों की तरह स्वत: संज्ञान ले। बीमारी से ग्रसित ढेर सारे वामपंथियों के स्वस्थ दक्षिणपंथी में बदलने की कुछ कहानियां भी मैं यहां लिख सकता हूं। लेकिन, इसकी कोई जरूरत नहीं है। अपने आसपास के बीमारी की हद तक वाले वामपंथी पर नजर रखिए। खुद सब साफ हो जाएगा।

(नोट- मैं तो आलसी, अगंभीर किस्म का शोधार्थी हूं। इसलिए ऐसे ही इतना महत्वपूर्ण शोध कर लिया। लेकिन, कोई गंभीर, सक्रिय, कामकाजी शोधार्थी चाहें तो सचमुच इस विषय पर शोध कर सकते हैं। और पक्का उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि भी मिल सकती है।)

Saturday, September 20, 2014

हर बार कमतर आंके जाते हैं मोदी!


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार फरीद जकारिया ने उनका साक्षात्कार किया है। और फरीद जकारिया को ऐसा साक्षात्कार हुआ कि वो नरेंद्र मोदी के मुरीद हो गए। वो कह रहे हैं कि हमने मोदी को कम आंका था। उनकी तारीफ में वो और क्या कह रहे हैं सुनिए। ये सुनना और समझना बेहद जरूरी है। कम से कम मुझे तो याद नहीं आ रहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दुनिया में इतनी बेसब्री कब थी और कभी थी भी क्या। पहली बार मुझे ये दिख रहा है कि दुनिया को अपने लिहाज से किसी भारतीय नेता ने इस्तेमाल करना शुरू किया था। वरना अब तक या तो भावनाओं को भड़काने, सहलाने के लिहाज से विदेश नीति तय होती थी या तो गुटनिरपेक्ष के नाम पर पीछे की कतार में भारतीय नेता भी खड़ा होता था और दुनिया के नेता फैसला सुना देते थे।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण में सार्क देशों के सभी नेताओं को बुलाया और तिब्बत के निर्वाचित प्रधानमंत्री को भी। ये पहली शुरुआत थी। विदेश नीति की शुरुआती चाल में नरेंद्र मोदी ने पहले खुद को सार्क देशों का नेता दिखाया। फिर शुरुआत की भूटान से। भारत का पड़ोसी ये छोटा सा देश काफी हद तक भारत की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा हुआ है। और सबसे अच्छी बात ये है कि ये ऐसा पड़ोसी देश हैं जहां से भारत को किसी भी तरह की मुश्किल आज तक नहीं हुई है। दुनिया के सारे देशों को दरकिनार करके भूटान की यात्रा करने का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेहद सोची समझी रणनीति का नतीजा है। प्रधानमंत्री ब्राजील गए विश्व की बदलती व्यवस्था में भारत की भूमिका तय करने। और काफी हद तक गैर अमेरिकी नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद ब्राजील में रखी गई। लेकिन, नरेंद्र मोदी के विदेश नीति के कौशल का सबसे शानदार उदाहरण देखने को मिला उनकी जापान की यात्रा में। जापान, भारत का भावनात्मक सहयोगी रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी ने सबसे ज्यादा किसी देश के साथ अपने रिश्ते बेहतर रखे तो वो जापान ही रहा। और सबसे बड़ी बात कि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भी दक्षिणपंथी नेता हैं। दोनों देशों के मुखिया जब मिले तो वो मिसाल साबित हुआ। दोस्ती जैसे माहौल में भला दुनिया के कितने नेता आपस में मिल पाते हैं। जापान को जो अच्छा लगे वो सब वो करते रहे। लेकिन, अंत में जब वो लौटे तो ये साफ हुआ कि दरअसल जो उन्हें अच्छा लग रहा था और जो भारत के लिए इस समय जरूरी था, वो सब नरेंद्र करवाकर लौटे। नरेंद्र मोदी को जापान के उद्योगपतियों को ये समझाने में कामयाबी मिली कि जो काम वो जापान में 10 साल में करेंगे वो भारत में 2 साल में हो सकता है। इसीलिए मोदी ने 35 बिलियन डॉलर को रुपये में बदलकर बताया कि 2 लाख 10 हजार करोड़ रुपये साझा कार्यक्रम जापान की मदद से भारत में पूरे होंगे। शहर सुधारने से लेकर बुलेट दौड़ाने, गंगा साफ करने से लेकर शोध तक। नरेंद्र मोदी शिंजो आबे को गीता भी दे आए। आबे गीता पढ़ें ना पढ़ें, मोदी ने भारत में अपने प्रति आस्थावान लोगों को काफी कुछ पढ़ा दिया।

जब नरेंद्र मोदी जापान में थे। तो भारतीय टेलीविजन चैनलों पर सबसे ज्यादा चिंता चीन के साथ सामान्य रिश्ते को बचाने को लेकर जताई जा रही थी। सब कह रहे थे कि जापान ने जो भारत को दिया, उसकी कीमत भारत को चीन के साथ संबंध बिगाड़कर चुकानी पड़ सकती है। और कमाल ये जापान के साथ रिश्ते की बुनियाद नरेंद्र मोदी बुद्ध को ही बताते रहे। किसी को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि उन्हीं बुद्ध की विरासत को सहेजते हुए वो चीन को भी साध लेंगे। इसके तुरंत बाद ऑष्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबोट का भारत आना उनता सुर्खियों में नहीं रहा। लेकिन, ऑष्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भी मोदी की विदेश नीति का एक अहम पड़ाव रहे। जापान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गए थे तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत आना था। जिनपिंग भारत आए। अपनी खूबसूरत पत्नी के साथ आए। और वौ सौंदर्य निखरकर दिखा जब नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग और उनकी पत्नी के आवभगत के लिए अहमदाबाद के साबरमती रिवरफ्रंट में अद्भुत इंतजाम किए। अद्भुत इसलिए कि इतने सामान्य से माहौल में चीन के राष्ट्रपति के साथ भारत के प्रधानमंत्री की मुलाकात-हंसी मजाक हो रहा था। वही भगवान बुद्ध की शांति की प्रेरणा की बात वो चीन के साथ भी कर रहे थे। जिस चीन को लेकर लंबे समय से भारतीयों के मन में छुरी घोंपने वाला भाव ही है। दरअसल हम भारतीय 1962 में चीन से एक लड़ाई क्या हारे। हमारे लिए चीन सबसे बड़ा दुश्मन हो गया है। हमारे घर-गांव में भी तो जमीन का कब्जा ही सबसे बड़ा मुद्दा होता है। और उस पर ये कि चीन जब चाहता है हमारी सीमा में घुस आता है। आंख दिखाता है, डराता है और मजे से लौट जाता है। कुल मिलाकर चीन के साथ भारत के रिश्ते बड़े असहाय किस्म के रहे। डरे-डरे से रहे। उस पर सीमा के साथ कारोबार में भी चीन ने भारत की अर्थव्यवस्था की ऐसी की तैसी कर रखी है। मेड इन चाइना या चाइनीज ब्रांड की सबसे खराब छवि भारत में है। फिर भी हम भारतीयों के घर में ब्रांड चाइना ऐसे घुस गया है। जैसे भाषा में अंग्रेजी। इसीलिए जैसे हम भारतीय अंग्रेजी, अंग्रेजी दां लोगों से डरते हैं वैसे ही चीन, मेड इन चाइना के सामानों से। इस ग्रंथि के साथ जी रहे भारतीयों के घर में चीन का राष्ट्रपति शी जिनपिंग आ रहा था। ताकतवर, तानाशाह चीन का मुखिया। उस पर सीमा पार चीन के सैनिक भारतीय सीमा में घुसे हुए हैं, ये खबरें भी आ रही थीं। ऐसे माहौल में नरेंद्र मोदी के ऊपर कितना दबाव रहा होगा ये समझने की बात है। नरेंद्र मोदी के चुनावी माहौल में बताए गए छप्पन इंच के सीने पर दे दनादन गोलियां चल रही थीं। चीन, भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साथी है। लेकिन, ये साथी उस तरह का है जो हिसाब लगाने पर पता चलता है कि सब लेकर चला गया। कुछ ऐसा ही कारोबारी साथी है चीन। चीन से कारोबार करने पर करीब 30 बिलियन डॉलर का घाटा है भारत को। मतलब चीन के साथ कारोबार करने में हम आयात करके चीन को, वहां की कंपनियों को 30 बिलियन डॉलर दे दे रहे हैं। यानी उनकी अर्थव्यवस्था हम ऐसे मजबूत कर रहे हैं। दुनिया कर रही है लेकिन, हमारा करना चिंताजनक इसलिए है कि बाजार से लेकर सस्ते श्रमिक तक हम चीन से बेहतर हो चले हैं। इस कारोबारी असंतुलन को ठीक करने की बात यूपीए दो में भी होने लगी थी लेकिन, अब शायद इस पर कुछ ठोस हो सके। अब 30 बिलियन डॉलर के घाटे वाले भारत में आकर चीन के राष्ट्रपति अगर 20 बिलियन डॉलर के निवेश की बात कर रहे हैं तो ये पचता नहीं है। इससे तो कारोबारी घाटा तक पूरा नहीं होगा। तो क्या नरेंद्र मोदी चीन के साथ कारोबारी मामले पर जापान जैसी सफलता हासिल नहीं कर सके। मौटे तौर पर इसका जवाब हां में है। क्योंकि, शी जिनपिंग की यात्रा से पहले ये बहुप्रचारित था कि चीन भारत में जापान से तीन से पांच गुना ज्यादा निवेश करेगा। कुछ माध्यमों से तो ये रकम 100 से 300 बिलियन डॉलर तक बताई जा रही थी। इसलिए जब सिर्फ 20 अरब डॉलर के समझौते हुए तो ये कम सफल ही माना जाएगा। लेकिन, जब चीन के राष्ट्रपति के साथ हुई बातचीत को थोड़ा अच्छे से समझें तो ये असफलता कम होती जाती है। जैसे चीन के राष्ट्रपति के साथ बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार के पुराने कारोबारी रास्ते खोलने, उस रास्ते से ज्यादा से ज्यादा कारोबार करने की सैद्धांतिक सहमति बड़ी सफलता है। भले ही समझौते जापान के साथ हुए समझौतों से कम रकम के हैं लेकिन, ये महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि ये सब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस चीन के साथ करने में सफल हो रहे थे, जो चीन हर बात में हमसे दादागीरी करता दिखता रहा है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे क्योटो के हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगवानी में पहुंचे थे। इसके बाद ये बात कही जा रही थी कि नरेंद्र मोदी भी प्रोटोकॉल तोड़कर शी जिनपिंग की अगवानी के लिए अहमदाबाद हवाई अड्डे पर जा सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोटोकॉल तोड़ा लेकिन, वो हवाई अड्डे नहीं गए। होटल में जरूर चीन के राष्ट्रपति और उनकी पत्नी की अगवानी की। अच्छी बात ये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतिहास से सबक लिया है। इतिहास को रास्ते की बाधा नहीं बनाया है। वरना तो एक दक्षिणपंथी लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए भारतीय प्रधानमंत्री के लिए तानाशाह, वामपंथी चीन के राष्ट्रपति के साथ ऐसा दोस्ताना माहौल खोज पाना कहां संभव था। भारत और भारतीयों में चीन के विश्वासघात का डर इस कदर है कि अखबार, चैनल बार-बार कह रहे थे कि मोदी जी बड़े धोखे हैं इस राह में। लेकिन, मुझे लगता है कि इतिहास सबक लेने के काम आए तो बेहतर। इतिहास रास्ता बंद करने की वजह न बने। 1962, 2014 में भी फर्क है। तब के चीन-भारत और अब के भारत-चीन में भी फर्क है। नेहरू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कितना फर्क है, ये भी साफ दिख रहा है। इसके अलावा जैसे भारत की मुश्किलें हैं। वैसे ही चीन की भी ढेर सारी मुश्किलें हैं। विदेश नीति के तौर पर तिब्बत, वियतनाम, जापान, अमेरिका की मुश्किलें चीनी ड्रैगन को भारतीय हाथी के साथ सलीके का व्यवहार करने को मजबूर भी करती है। ऐसे ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत के साथ विवादों को इतिहास की बात नहीं बता दिया। इतना ही नहीं हुआ जब भारत की सड़कों पर तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर चीन विरोधी नारे लग रहे थे। पोस्टर, बैनर दिख रहे थे। उसी समय तिब्बतियों के पूज्य दलाई लामा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जता रहे थे। वो शी जिनपिंग को खुले दिमाग वाला बता रहे थे और सलाह दे रहे थे कि चीन, भारत से सीखे। बुद्ध की सिद्धांत काम कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से साफ-साफ कहा कि बिना सीमा विवाद सुलझाए काम नहीं बनेगा। ये बड़ी बात थी। नरेंद्र मोदी ने कहा कि सीमा नए सिरे से तय करनी होगी। क्योंकि, सीमा पर तनाव रहेगा तो संबंध सामान्य नहीं रह सकेंगे। शी जिनपिंग ने भी इस पर सहमति जताई है। और अगले पांच साल तक के कारोबारी संबंधों पर दोनों देशों के बीच बनी सहमति इस बात को पुख्ता करती है।

चीन के साथ भारत के हुए समझौतों में सबसे ऊपर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए एक नया रास्ता है। जिससे सीधे सड़क रास्ते से कैलाश मानसरोवर यात्रा संभव हो सकेगी। इसके अलावा रेलगाड़ियों की तेज रफ्तार, आधुनिक शहरों के बनाने में सहयोग भी बेहद अहम हैं। एक अनुमान ये भी है कि चीन जानबूझकर भारत के साथ ऐसे समय पर सीमा विवाद खड़ा करता है जब उसके राष्ट्राध्यक्ष भारत में होते हैं। कोशिश ये कि इस दबाव से दूसरे समझौते अपने पक्ष में कराए जा सकें। लेकिन, इस बार ये शायद असरकारक नहीं रहा। और भारत-चीन के बीच के रिश्तों को हर वक्त संदेह से देखने वाले ये तो मानते ही होंगे कि शायद ही हाल के वर्षों में चीन की सेना की भारतीय सेना के साथ कोई ऐसी मुठभेड़ हुई है जिसमें किसी भारतीय सैनिक की जान गई हो। दोनों देशों के बीच पहले गोली न चलाने का जो समझौता है, ये उसी की वजह से है। सीमा में घुस आने का ये खेल दबाव बनाने का ही तरीका है। जो अब शायद अमल में लाना मुश्किल होगा। नरेंद्र मोदी की शी जिनपिंग से बात के बाद चीन की सेना भारतीय सीमा से पीछे भी हट गई। शायद जिनपिंग भी ये सोचकर आए होंगे कि रिश्तों को बेहतर बनाने के चक्कर में शायद ही भारतीय प्रधानमंत्री भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों की घुसपैठ का मुद्दा उठाएंगे। लेकिन, मोदी ने वो मुद्दा उठाया और उस पर कार्रवाई भी कराई। शायद यही मोदी के व्यक्तित्व का सबसे मजबूत पक्ष है। नरेंद्र मोदी हर उस बात का भी इस्तेमाल खुद को मजबूत बनाने में कर लेते हैं, जिसे उनकी कमजोरी के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए सिरे से विदेश नीति परिभाषित कर रहे हैं। उनकी बातों में वही बुद्ध, वही शांति की बात है लेकिन, इस मजबूती के साथ कि दुनिया के दूसरे देशों को ये अहसास हो रहा है कि भारत के साथ शांति का संबंध बनाए रखना ही बेहतर है। नरेंद्र मोदी को भारतीय बाजार की ताकत भी पता है। और इसीलिए हर कोई, जिसकी नजर भारत के इस बाजार पर है, मोदी उससे आखिरी हद तक जाकर मोलभाव कर रहे हैं। हालांकि, सौदा टूट न जाए, इसका भी ख्याल मोदी रख रहे हैं। अब मोदी अमेरिका के दौरे पर हैं। सीएनएन चैनल पर शो करने वाले फरीद जकारिया ने उनका साक्षात्कार लिया और उस साक्षात्कार के बाद वो कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी विश्व नेता बनने की क्षमता रखते हैं, मैंने उन्हें कम करके आंका। अब भले ही जकारिया के पुराने विश्लेषणों के आधार पर इसकी विश्वसनीयता को कसौटी पर खरा न माना जाए लेकिन, मोदी के व्यक्तित्व और उसके तथ्यों के आधार पर ये तय है कि दुनिया में भारत की ताकत देखने का नजरिया बदल रहा है। बाकी बातें अमेरिका दौरे के बाद ...

Wednesday, September 17, 2014

बीजेपी का उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन!

कम से कम मेरे अनुमान को बीजेपी ने ध्वस्त कर दिया। मुझे ये लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में 11 विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर कहीं लड़ाई में नहीं है। दो घोर शहरी सीटों- नोएडा और लखनऊ पूर्वी - को छोड़कर बीजेपी के लिए हर जगह मुश्किल दिख रही थी। शहरी से भी ज्यादा ये दोनों सीटें ऐसी हैं जहां तरक्की, जेब में कमाई, विकास टाइप के शब्द पर भी राजनीति की जा सकती है। ये उम्मीद मैंने इसके बावजूद लगा रखी थी कि भारतीय जनता पार्टी ने लखनऊ पूर्वी और नोएडा में भी प्रत्याशी ऐसे और इतनी देर से चुने कि जिनके ऊपर दांव लगाना सही नहीं ही था। आशुतोष टंडन उर्फ गोपाल की सारी राजनीति हैसियत पिता लालजी टंडन की वजह से रही है। खबरें ये है कि अपनी राज्यपाल की कुर्सी दांव पर लगाकर लालजी टंडन ने बेटे को आखिरकार विधायक बनवा ही दिया। और बीजेपी ने उससे ज्यादा प्रदर्शन करते हुए सहारनपुर भी जीत लिया। वो भी योगी आदित्यनाथ को चेहरा बनाने के बावजूद। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में योगी आदित्यनाथ के साथ मीडिया भी पूरा सहयोग करने में जुट गया था। उस योगी आदित्यनाथ को जो पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो चुनावों- 2007 विधानसभी और 2009 लोकसभा - में लगभग अगुवा होने के बावजूद पार्टी की झोली थोड़ी भी नहीं भर सका।

इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव की तीसरी पीढ़ी भी संसद में पहुंच गई। अब पूरे देश का राजनीतिक विश्लेषण करने की इस समय कोई खास वजह नहीं है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की चर्चा जरूरी है। इसी उत्तर प्रदेश को 2012 में मुलायम-अखिलेश ने लगभग पूरा जीता। उसके बाद 2014 में मोदी-अमित शाह-लक्ष्मीकांत बाजपेयी की टीम ने लगभग पूरा जीता। अब फिर मामला भ्रम का हो गया है। जिस उत्तर प्रदेश में बीजेपी के छुटभैया नेता भी इस दंभ में बात करने लगे थे जैसे 2017 के लिए उन्हें अभी से राज्य की सत्ता सौंप दी गई हो। वही दंभ बीजेपी नेताओं का टिकट बंटवारे में भी दिखा। और वही दंभ टिकटों के बंटवारे के समय में भी। वहीं दंभ भारी पड़ गया। अतिआत्मविश्वास और अहंकार का अंतर अकसर सफलता के समय समझ नहीं आता। असफलता इसीलिए होती है कि ये समझ में आए। अच्छे दिन, बुरे दिन की बात करते रहिए। कौन मना कर रहा है। आखिर में ये भी कि अच्छे दिन किसके थे, किसके आ गए हैं। इस पर बात करते रहेंगे। बस एक छोटा सा तथ्य ध्यान आया। पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान सारे राजनीतिक दल सांप्रदायिक ताकत के खिलाफ एकजुट होने की बात करते रहे। नरेंद्र मोदी ने उसे सिरे नहीं चढ़ने दिया। विकास, सबके लिए मौके, तरक्की की बात करके दूसरों के लिए "आरक्षित" सीटें बीजेपी के पाले में डाल दीं। अब जब उत्तर प्रदेश में सारी अपनी ही सीट जीतने का प्रश्न था तो बीजेपी के नेता लव जेहाद के प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे। उत्तर ये मिला कि उत्तर प्रदेश समाजवादी हो गया।

Tuesday, September 16, 2014

लाइफ इन अ मेट्रो!

स्पर्श सुख
वो दोनों शायद इसी इंतजार में केवल महिलाओं के लिए लिखे के नीचे वाली सीट पर बैठे थे। एक स्टेशन बाद ही उनकी इच्छा पूरी हो गई। पिट्ठू बैग लादे हाथ में मोबाइल और इयर फोन कान में लगाए लड़की तेजी से लड़कियों के लिए आरक्षित सीट की तरफ बढ़ी। इसी इंतजार में पहले से बैठे दोनों लड़कों में से एक उठा और दूसरे ने अपने पृष्ठ भाग को थोड़ा तिरछा करते हुए इतनी जगह बना दी कि वो लड़की उसी में समाती हुई बैठ जाए। लड़की धक्कामुक्की करती आई थी। तेजी से वो उस जगह में अपनी जगह बनाने लगी। लेकिन, उसी दौरान उसने शायद उन दोनों लड़कों की आंखें पढ़ लीं। उसने कहा कोई बात नहीं मैं खड़े-खड़े ही ठीक हूं। और खड़े, तिरछे बैठे लड़कों की कोशिश के बाद भी वो नहीं बैठी। दोनों लड़कों की शातिर नजरें, एक दूसरे से मिलकर मुस्कुरा रही थीं। लड़की मेट्रो के दरवाजे के पास की जगह पर टिककर अपने स्मार्टफोन में व्यस्त हो गई। दो स्टेशन बाद। एक अधेड़ उम्र महिला आई। वही महिलाओं के लिए आरक्षित सीट निशाने पर थी। तिरछे बैठे लड़के को महिला ने थोड़ा धकियाया और अपने लिए जगह ज्यादा बनाई। दोनों लड़कों की मुस्कुराहट में से शातिर भाग खड़ा हुआ था। तिरछे से सीधे बैठे लड़के को हालांकि, स्पर्शसुख अब भी मिल रहा था। बिना चाहा।

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आगे बढ़ने का मंत्र

सोनी का बड़ा सा स्मार्टफोन उसके हाथ में था। फोन की घंटी बजी। हां मां। ... मेट्रो में हूं। ... अरे मां सीनियर के पास चला गया था। इसीलिए देर हो गई। ... मां तुम नहीं समझोगी। सीनियर के पास समय बिताना जरूरी होता है। आगे बढ़ने में सीनियर ही तो मदद करते हैं।

Monday, September 08, 2014

संविधान पर श्रीराम!

बहस शुरू हुई थी इस बात पर कि कल्याण सिंह के शपथ ग्रहण में जय श्रीराम के नारे लगना क्या ठीक है। या फिर ये संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। उस बहस में एक सज्जन ने कहाकि संविधान के खिलाफ कैसे हो सकता है। जब श्रीराम की तस्वीर संविधान की मूल प्रति के पन्ने पर है तो राज्यपाल के शपथ ग्रहण में जय श्रीराम का नारा कैसे गलत हो सकता है। फिर उन सज्जन के पास संविधान की मूल प्रति की कॉपी उपलब्ध होने की जानकारी मिली। तुरंत उनसे कहा गया कि वो कॉपी उपलब्ध कराएं। थोड़ी ही देर में संविधान की मूल प्रति की कॉपी आ गई। उसे देखते ही हम सभी ने उसकी तस्वीरें ले लीं। और उन तस्वीरों को साझा इसलिए कर रहा हूं कि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्ष होने की बात का मतलब यही था कि सभी धर्मों का सम्मान होगा। सरकार किसी एक धर्म के लिए दूसरे धर्म, पंथ, संप्रदाय के खिलाफ विद्वेष की भावना से काम नहीं करेगी। ये धर्मनिरपेक्ष कब हिंदू आराध्यों के खिलाफ हो गया पता ही नहीं चला। संविधान के पन्ने पर श्रीराम हैं। संविधान के पन्ने पर श्रीकृष्ण हैं। संविधान के पन्ने पर महावीर, बुद्ध भी हैं। और भी बहुत कुछ है। संविधान को तैयार करने वाले सभी विद्वानों की सहमति के दस्तखत भी हैं। कुछ तस्वीरें जो मैंने उतारीं, उसे साझा कर रहा हूं। बहुत से लोग ये बात पहले से जानते होंगे। बहुत से लोग अब भी नहीं मानेंगे।











Saturday, September 06, 2014

साईं की मूर्ति निकाल फेंको!

साईं की मूर्ति कहीं मंदिर से निकालकर विसर्जित की जा रही है। कहीं साईं मंदिर पर ताला जड़ा जा रहा है। साईं को लेकर मेरे मन में तटस्थ भाव ही है। बस कुछ संदर्भ जोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। निष्कर्ष पर आप खुद पहुंचिए।
कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था। संघ और संघ के स्वयंसेवक की देश में आज क्या स्थिति है, सबको पता है। और साईं के खिलाफ मुहिम कांग्रेसी कहे जाने वाले शंकराचार्य स्वरूपानंद ने शुरू की है। यही वो थे जिन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना वाले सवाल पर पत्रकार को चांटा जड़ दिया था।

Friday, September 05, 2014

शिक्षक दिवस की उलझन

मुश्किल होता है मेरे लिए। हमेशा ये शिक्षक दिवस हमारे लिए अजीब सी उलझन खड़ी कर देता है। मैं बहुत ध्यान से सोचता हूं तो भी शिशु से लेकर डिग्री लेने की आखिरी कक्षा तक मुझे ऐसा कोई शिक्षक याद नहीं आता, जिसे यादकर मैं ये कह सकूं कि ये वो शिक्षक थे, जिन्होंने मेरे जीवन में शिक्षक की भूमिका अदा की। सब कक्षाओं के शिक्षक की तरह आए-गए। शुरुआती शिक्षा यानी सरस्वती शिशु मंदिर के शिक्षकों (आचार्य जी और दीदी जी) को याद करता हूं तो जरूर कुछ चेहरे आंखों के सामने घूमते हैं, जो बेहद अच्छे लोग थे। लेकिन, मेरे शिक्षक के तौर पर उन्होंने क्या किया - ये मुझे याद नहीं आता।

फिर धीरे-धीरे आगे की कक्षाओं में बढ़ते गए। लेकिन, शिक्षक कोई मेरा रहा, मुझे मिला - इस पर मैं आज तक भ्रम में हूं। न तो मैं बहुत तोड़ विद्यार्थी रहा और न ही बहुत कमजोर। एक अच्छा छात्र, विद्यार्थी रहा। 5 से 8 तक जिन शिक्षकों के नाम भी याद आते हैं तो कान उमेठने के संदर्भ में या फिर डरावने शिक्षक के रूप में। लेकिन, कोई भी शिक्षक मुझे ऐसा नहीं याद आ रहा है, जिसने मुझे कुछ अलग से समझाने, बनाने की कोशिश की हो। सरस्वती शिशु मंदिर शिशु से पंचम तक और छ: से आठ तक स्वामी विवेकानंद विद्याश्रम में। हर जगह मेरी पहचान एक अच्छे विद्यार्थी के रूप में ही रही। इसके बाद इंटर कॉलेज में पहुंचा तो शहर का एक ऐसा कॉलेज जिसकी इमारत शहर की सबसे खूबसूरत इमारत थी। शानदार खेल का मैदान था। लेकिन, छवि केपी कॉलेज की बहुत अच्छी नहीं थी। यानी पढ़ने वाले बड़े कम थे। इतने बड़े क्लासरूम थे कि दिल्ली एनसीआर में उतनी शानदार इमारत और कक्षाओं वाला विद्यालय बीस हजार रुपये महीने की फीस तो उसी को दिखाकर वसूल ले। 9, 10, 11 और 12 की पढ़ाई मेरी इसी कॉलेज से हुई। पढ़ाई क्या हुई सिर्फ यहां से पंजीकरण के आधार पर यूपी बोर्ड की परीक्षा में बैठने की अर्हता मिल गई और पास होने का प्रमाणपत्र भी। 

शिक्षक तो यहां का भी कोई मुझे याद नहीं आ रहा है। सिवाय एक एम एम सरन के। एम एम सरन भौतिक विज्ञान पढ़ाते थे। शानदार पीएलटी यानी फिजिक्स लेक्चर थियेटर में सरन सर की क्लास चलती थी। सरन सर बच्चों की पीटते भी गजब थे। हालांकि, उनकी क्लास अच्छी होती थी और वो फिजिक्स के मास्टर टीचर थे। 12वीं में सरन सर की कक्षा में एक दिन आगे की सीट पर मैं बैठा हुआ था। वो पढ़ा रहे थे और मैं बगल के बच्चे से बात कर रहा था कि उन्होंने देख लिया। आदेश आया खड़े हो जाओ। बेंच पर खड़े हो जाओ। मैं सिर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा लेकिन, बेंच पर नहीं खड़ा हुआ। गुस्से में सरन सर ने पूछा तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं। मैंने कहा मैनेजर हैं। इतना सुनते ही सरन सर ने गुस्से में कहा तुम चपरासी भी नहीं बन पाओगे। मैंने भी पलटकर जवाब दिया- मैं चपरासी तो नहीं ही बनूंगा। और वैसे तो हमेशा सेकेंड डिवीजनर ही रहा। लेकिन, फिजिक्स में मेरे 100 में से 74 नंबर आए। और इतने नंबर आने के बाद जब मैंने सरन सर को मार्कशीट जाकर दिखाई तो सरन सर ने मेरी पीठ ठोंकी। लेकिन, उससे पहले जब घर जाकर मैंने अपने पिताजी को ये बात बताई कि सरन सर ने मुझे कहा कि तुम चपरासी भी नहीं बन पाओगे, तो पिताजी ने तुरंत कहा सरन के घर चलना है। पिताजी बैंक के बाद यूनियन दफ्तर चले जाते थे। उस दिन करीब आठ बजे यूनियनबाजी करके लौटे थे। लेकिन, तुरंत उन्होंने फिर से अपनी यजदी मोटरसाइकिल स्टार्ट की। मुझे लिया और चल पड़े सरन सर के यहां। काफी खोजने के बाद उनका घर मिला। पिताजी पहुंचते ही सरन सर पर फट पड़े। उन्होंने कहा आप डांटते, मारते, समझाते - लेकिन आपने ये कैसे कह दिया कि तुम चपरासी भी नहीं बन पाओगे। चपरासी बनने के लिए ये आपके पास पढ़ने आता है। पिताजी इतने गुस्से में थे और बात भी उनकी सही थी। कोई शिक्षक अपने ही छात्र को चपरासी भी न बन पाने का आशीर्वाद कैसे दे सकता है। सरन सर बैकफुट पर चले गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान मैंने जीवन सीखा। बहुत कुछ सीखा। और वहां मैं खुद बहुत ज्यादा कक्षाओं में शामिल नहीं हो पाया। इसलिए विश्वविद्यालय के शिक्षकों के ध्यान में न आने की बड़ी वजह मैं खुद हूं। इसके बाद भी विश्वविद्यालय में कक्षाओं, शिक्षकों की स्थिति बहुत अच्छी तो नहीं कही जा सकती।

इन बातों का जिक्र मैं दरअसल इसलिए कर रहा हूं कि आज जो हर तरफ इस बात की चर्चा होती है कि महंगी फीस वसूल रहे निजी स्कूलों ने कैसे पूरी भारतीय शिक्षा को चौपट कर दिया है। बाजारू बना दिया है। दरअसल उसमें सबसे गंदी भूमिका इन्हीं शिक्षकों की रही। जिन्होंने बस ऐसे ही शिक्षक की भूमिका निभाई। कभी नहीं तय किया कि कक्षा के बच्चों में कौन सा बच्चा क्या कर सकता है, उसे आगे बढ़ाया जाए। विद्यालयों ने बच्चों के आने-जाने की संख्या और हर साल पास होने वाले बच्चों के आधार पर खुद का प्रमाणपत्र पेश किया। सबसे बड़ी मुश्किल भी यही रही। इसीलिए जब आज मैं जिंदगी के इस पड़ाव पर शिक्षक दिवस के लिए एक शिक्षक को याद करने की कोशिश करता हूं तो मुझे कोई शिक्षक याद नहीं आता है।

डिग्री पाने की शिक्षा के दौरान बेहतर शिक्षक हमेशा मेरे आसपास के लोग रहे। हमेशा मेरे पिताजी रहे। हमेशा मेरे पिताजी के पिताजी रहे। मेरी मां रहीं। मेरे घर-परिवार वाले रहे। मेरे दोस्त रहे। मेरी पत्नी रहीं। मेरे साथ काम करने वाले लोग रहे। यात्रा के दौरान मिलने वाले लोग रहे। सबने बिना शिक्षक की पदवी के कुछ न कुछ शिक्षा दी। अब भी मुझे लगता है कि मेरे शिक्षक ऐसे ही राह चलते मिलते रहते हैं। बिना पदवी वाले शिक्षक ही मेरी जिंदगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे और निभाते रहेंगे। लेकिन, शिक्षक अगर ये तय नहीं कर पाता कि हर शिक्षक किसी एक छात्र के लिए चाणक्य, द्रोणाचार्य, संदीपनी जैसे याद नहीं किया जा पा रहा तो, मेरी चिंता जायज है। हो सकता है कि शिक्षक दिवस पर हर किसी को अपना कोई शिक्षक महान लगने लगे या फिर ऐसा बताना उसकी मजबूरी हो जाए।  लेकिन, मुश्किल ही है कि सच में कितने छात्र अपने जीवन के एक शिक्षक को भी श्रद्धाभाव से देख पाते हैं या उसके बारे में सचमुच बता सकते हैं कि आखिर उस शिक्षक ने उसके जीवन में क्या बदला, बेहतर किया है। यही सबसे बड़ी समस्या है। इसी का समाधान मिल जाए तो शिक्षक दिवस सार्थक हो सके। ये मेरी बदनसीबी रही। लेकिन, खुशनसीब छात्र कितने होंगे।  

Wednesday, September 03, 2014

रियल एस्टेट रेगुलेटर लाओ मोदी जी

लोगों को घर की जरूरत बहुत ज्यादा है। इसलिए घर बनाने वाले हमेशा रहेंगे। लेकिन, सवाल ये है कि क्या घर के नाम पर लोगों की भावनाओं, सुरक्षा, कमाई सबके साथ समझौता करने की मजबूरी भी बिकेगी। या कहें कि मजबूरी में घर खरीदने वाले को जीवन दांव पर लगाने को तैयार रहना होगा। अभी मेरे अपार्टमेंट में हुई मौत की खबर का जिक्र मैंने किया था। आज टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर ये बड़ी अच्छी खबर पढ़ी। अच्छा है कि भारतीय लोकतंत्र में अदालतें इधर अपना काम अच्छे तरीके से कर रही हैं। लेकिन, इसी के साथ ये सवाल भी कि आखिर कितने लोग उच्चतम अदालत तक बिल्डर से लड़ाई लड़ पाते हैं। सोचिए 11 साल से बिल्डर सोसाइटी के लोगों की जिंदगी को दांव पर लगाए था।

कितने लोग अपनी रोज की नौकरी, बीवी-बच्चे और रोज की दूसरी जीने की किचकिच के बीच बिल्डर से लड़ सकते हैं। ये लोगों का काम नहीं है। लोगों को घर मिले ये तय करना सरकार का ही काम है। अगर सरकार सीधे घर नहीं दे पा रही है तो ये सरकार की कमी है। इसलिए कम से कम सरकार इतना तो तय करे कि बिल्डरों पर शिकंजा से। कम से कम घर लेने वालों का सुख चैन गिरवी तो न रखा जाए। सरकार रेगुलेटर लाए, कुछ भी करे लेकिन, सबसे ज्यादा लोगों के जीवन को बेचैन करने वाले बिल्डरों पर लगाम लगनी जरूरी है। ये कैसे होगा ये आप देखिए, करिए मोदी जी 

Monday, September 01, 2014

गैर इरादतन हत्या

ये तस्वीर कह रही है कि इस लिफ्ट को फिलहाल बंद कर दिया गया है। और इसके पीछे की वजह ये है कि ज्यादा वजन के साथ ये लिफ्ट नहीं चल पा रही है। ये लिफ्ट हमारी सोसाइटी की लिफ्ट है। जो शुरू होने के दिन से ही लगातार खराब चल रही थी। कई बार इस लिफ्ट में सोसाइटी में रहने वाले हम सारे लोग फंसे। फिर अलार्म के चीखने के बाद बाहर निकाले गए। हर बार ये कि लिफ्ट का सेंसर खराब हो जाता है लेकिन, इससे कोई चिंता की बात नहीं है। लिफ्ट फंस जाए तो परेशान होने की जरूरत नहीं। लेकिन, एक दिन जब पता चला कि किसी की मौत हो गई है तो समझ नहीं आया क्या किया जाए। बाद में पता चला कि टावर में काम कर रहे एक पेंटर ने नीचे आने के लिए लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट तो नहीं आई लेकिन, लिफ्ट का दरवाजा खुल गया और उसमें से नीचे गिरकर उसकी जान चली गई।

अखबारों में वो खबर भी आईलापरवाही से जान जाने का मामला भी दर्ज हुआ। लेकिन, सवाल वही है कि हमारे शहर या बहुमंजिली इमारत रहने के लिहाज से सुरक्षित हैं। और उस पर भी क्या जो मजदूर हैं उनकी सुरक्षा को लेकर किसी तरह के कोई नियम काम करते हैं। हालांकि, ये मौत मेरी भी हो सकती था या हमारे टावर में रहने वाले या फिर हमारे आने वाले किसी मेहमान की भी हो सकती थी। क्या इस मौत के बाद भी कोई नियम कानून काम करेगा या फिर आसानी से लापरवाही, गैरइरादतन जैसे कानूनी दांवपेच से ही बिल्डर या ऐसे काम करने वाली एजेंसी किसी भी तरह की कार्रवाई से बच जाएंगी। असंगठित क्षेत्र में मजदूरों के इस तरह से चोटिल होने, मरने की हर रोज ढेर सारी खबरें आती रहती हैं। अखबार छापता भी है। लेकिन, जब तक खुद ये मजदूर इस मामले में संगठित नहीं होंगे शायद ही इस तरह की खबरें कभी आनी बंद हों। और सबसे गंभीर ये है कि ऐसे मामलों में मुआवजा तक नहीं मिल पाता। 

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...