कम से कम मेरे अनुमान को बीजेपी ने ध्वस्त कर दिया। मुझे ये लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में 11 विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर कहीं लड़ाई में नहीं है। दो घोर शहरी सीटों- नोएडा और लखनऊ पूर्वी - को छोड़कर बीजेपी के लिए हर जगह मुश्किल दिख रही थी। शहरी से भी ज्यादा ये दोनों सीटें ऐसी हैं जहां तरक्की, जेब में कमाई, विकास टाइप के शब्द पर भी राजनीति की जा सकती है। ये उम्मीद मैंने इसके बावजूद लगा रखी थी कि भारतीय जनता पार्टी ने लखनऊ पूर्वी और नोएडा में भी प्रत्याशी ऐसे और इतनी देर से चुने कि जिनके ऊपर दांव लगाना सही नहीं ही था। आशुतोष टंडन उर्फ गोपाल की सारी राजनीति हैसियत पिता लालजी टंडन की वजह से रही है। खबरें ये है कि अपनी राज्यपाल की कुर्सी दांव पर लगाकर लालजी टंडन ने बेटे को आखिरकार विधायक बनवा ही दिया। और बीजेपी ने उससे ज्यादा प्रदर्शन करते हुए सहारनपुर भी जीत लिया। वो भी योगी आदित्यनाथ को चेहरा बनाने के बावजूद। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में योगी आदित्यनाथ के साथ मीडिया भी पूरा सहयोग करने में जुट गया था। उस योगी आदित्यनाथ को जो पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो चुनावों- 2007 विधानसभी और 2009 लोकसभा - में लगभग अगुवा होने के बावजूद पार्टी की झोली थोड़ी भी नहीं भर सका।
इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव की तीसरी पीढ़ी भी संसद में पहुंच गई। अब पूरे देश का राजनीतिक विश्लेषण करने की इस समय कोई खास वजह नहीं है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की चर्चा जरूरी है। इसी उत्तर प्रदेश को 2012 में मुलायम-अखिलेश ने लगभग पूरा जीता। उसके बाद 2014 में मोदी-अमित शाह-लक्ष्मीकांत बाजपेयी की टीम ने लगभग पूरा जीता। अब फिर मामला भ्रम का हो गया है। जिस उत्तर प्रदेश में बीजेपी के छुटभैया नेता भी इस दंभ में बात करने लगे थे जैसे 2017 के लिए उन्हें अभी से राज्य की सत्ता सौंप दी गई हो। वही दंभ बीजेपी नेताओं का टिकट बंटवारे में भी दिखा। और वही दंभ टिकटों के बंटवारे के समय में भी। वहीं दंभ भारी पड़ गया। अतिआत्मविश्वास और अहंकार का अंतर अकसर सफलता के समय समझ नहीं आता। असफलता इसीलिए होती है कि ये समझ में आए। अच्छे दिन, बुरे दिन की बात करते रहिए। कौन मना कर रहा है। आखिर में ये भी कि अच्छे दिन किसके थे, किसके आ गए हैं। इस पर बात करते रहेंगे। बस एक छोटा सा तथ्य ध्यान आया। पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान सारे राजनीतिक दल सांप्रदायिक ताकत के खिलाफ एकजुट होने की बात करते रहे। नरेंद्र मोदी ने उसे सिरे नहीं चढ़ने दिया। विकास, सबके लिए मौके, तरक्की की बात करके दूसरों के लिए "आरक्षित" सीटें बीजेपी के पाले में डाल दीं। अब जब उत्तर प्रदेश में सारी अपनी ही सीट जीतने का प्रश्न था तो बीजेपी के नेता लव जेहाद के प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे। उत्तर ये मिला कि उत्तर प्रदेश समाजवादी हो गया।
इस चुनाव में मुलायम सिंह यादव की तीसरी पीढ़ी भी संसद में पहुंच गई। अब पूरे देश का राजनीतिक विश्लेषण करने की इस समय कोई खास वजह नहीं है। लेकिन, उत्तर प्रदेश की चर्चा जरूरी है। इसी उत्तर प्रदेश को 2012 में मुलायम-अखिलेश ने लगभग पूरा जीता। उसके बाद 2014 में मोदी-अमित शाह-लक्ष्मीकांत बाजपेयी की टीम ने लगभग पूरा जीता। अब फिर मामला भ्रम का हो गया है। जिस उत्तर प्रदेश में बीजेपी के छुटभैया नेता भी इस दंभ में बात करने लगे थे जैसे 2017 के लिए उन्हें अभी से राज्य की सत्ता सौंप दी गई हो। वही दंभ बीजेपी नेताओं का टिकट बंटवारे में भी दिखा। और वही दंभ टिकटों के बंटवारे के समय में भी। वहीं दंभ भारी पड़ गया। अतिआत्मविश्वास और अहंकार का अंतर अकसर सफलता के समय समझ नहीं आता। असफलता इसीलिए होती है कि ये समझ में आए। अच्छे दिन, बुरे दिन की बात करते रहिए। कौन मना कर रहा है। आखिर में ये भी कि अच्छे दिन किसके थे, किसके आ गए हैं। इस पर बात करते रहेंगे। बस एक छोटा सा तथ्य ध्यान आया। पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान सारे राजनीतिक दल सांप्रदायिक ताकत के खिलाफ एकजुट होने की बात करते रहे। नरेंद्र मोदी ने उसे सिरे नहीं चढ़ने दिया। विकास, सबके लिए मौके, तरक्की की बात करके दूसरों के लिए "आरक्षित" सीटें बीजेपी के पाले में डाल दीं। अब जब उत्तर प्रदेश में सारी अपनी ही सीट जीतने का प्रश्न था तो बीजेपी के नेता लव जेहाद के प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे। उत्तर ये मिला कि उत्तर प्रदेश समाजवादी हो गया।
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