प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका
यात्रा से ठीक पहले भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार फरीद जकारिया ने उनका
साक्षात्कार किया है। और फरीद जकारिया को ऐसा साक्षात्कार हुआ कि वो नरेंद्र मोदी
के मुरीद हो गए। वो कह रहे हैं कि हमने मोदी को कम आंका था। उनकी तारीफ में वो और
क्या कह रहे हैं सुनिए। ये सुनना और समझना बेहद जरूरी है। कम से कम मुझे तो याद
नहीं आ रहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दुनिया में इतनी बेसब्री कब थी और
कभी थी भी क्या। पहली बार मुझे ये दिख रहा है कि दुनिया को अपने लिहाज से किसी
भारतीय नेता ने इस्तेमाल करना शुरू किया था। वरना अब तक या तो भावनाओं को भड़काने,
सहलाने के लिहाज से विदेश नीति तय होती थी या तो गुटनिरपेक्ष के नाम पर पीछे की
कतार में भारतीय नेता भी खड़ा होता था और दुनिया के नेता फैसला सुना देते थे।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने
अपने शपथ ग्रहण में सार्क देशों के सभी नेताओं को बुलाया और तिब्बत के निर्वाचित
प्रधानमंत्री को भी। ये पहली शुरुआत थी। विदेश नीति की शुरुआती चाल में नरेंद्र
मोदी ने पहले खुद को सार्क देशों का नेता दिखाया। फिर शुरुआत की भूटान से। भारत का
पड़ोसी ये छोटा सा देश काफी हद तक भारत की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा हुआ है। और
सबसे अच्छी बात ये है कि ये ऐसा पड़ोसी देश हैं जहां से भारत को किसी भी तरह की
मुश्किल आज तक नहीं हुई है। दुनिया के सारे देशों को दरकिनार करके भूटान की यात्रा
करने का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बेहद सोची समझी रणनीति का नतीजा है।
प्रधानमंत्री ब्राजील गए विश्व की बदलती व्यवस्था में भारत की भूमिका तय करने। और
काफी हद तक गैर अमेरिकी नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद ब्राजील में रखी गई। लेकिन,
नरेंद्र मोदी के विदेश नीति के कौशल का सबसे शानदार उदाहरण देखने को मिला उनकी
जापान की यात्रा में। जापान, भारत का भावनात्मक सहयोगी रहा है। गुजरात के
मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी ने सबसे ज्यादा किसी देश के साथ अपने रिश्ते बेहतर
रखे तो वो जापान ही रहा। और सबसे बड़ी बात कि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे भी
दक्षिणपंथी नेता हैं। दोनों देशों के मुखिया जब मिले तो वो मिसाल साबित हुआ।
दोस्ती जैसे माहौल में भला दुनिया के कितने नेता आपस में मिल पाते हैं। जापान को
जो अच्छा लगे वो सब वो करते रहे। लेकिन, अंत में जब वो लौटे तो ये साफ हुआ कि
दरअसल जो उन्हें अच्छा लग रहा था और जो भारत के लिए इस समय जरूरी था, वो सब नरेंद्र
करवाकर लौटे। नरेंद्र मोदी को जापान के उद्योगपतियों को ये समझाने में कामयाबी
मिली कि जो काम वो जापान में 10 साल में करेंगे वो भारत में 2 साल में हो सकता है।
इसीलिए मोदी ने 35 बिलियन डॉलर को रुपये में बदलकर बताया कि 2 लाख 10 हजार करोड़
रुपये साझा कार्यक्रम जापान की मदद से भारत में पूरे होंगे। शहर सुधारने से लेकर
बुलेट दौड़ाने, गंगा साफ करने से लेकर शोध तक। नरेंद्र मोदी शिंजो आबे को गीता भी
दे आए। आबे गीता पढ़ें ना पढ़ें, मोदी ने भारत में अपने प्रति आस्थावान लोगों को
काफी कुछ पढ़ा दिया।
जब नरेंद्र मोदी जापान में थे। तो भारतीय
टेलीविजन चैनलों पर सबसे ज्यादा चिंता चीन के साथ सामान्य रिश्ते को बचाने को लेकर
जताई जा रही थी। सब कह रहे थे कि जापान ने जो भारत को दिया, उसकी कीमत भारत को चीन
के साथ संबंध बिगाड़कर चुकानी पड़ सकती है। और कमाल ये जापान के साथ रिश्ते की बुनियाद
नरेंद्र मोदी बुद्ध को ही बताते रहे। किसी को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि उन्हीं
बुद्ध की विरासत को सहेजते हुए वो चीन को भी साध लेंगे। इसके तुरंत बाद
ऑष्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबोट का भारत आना उनता सुर्खियों में नहीं रहा।
लेकिन, ऑष्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भी मोदी की विदेश नीति का एक अहम पड़ाव रहे। जापान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गए थे तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत आना था।
जिनपिंग भारत आए। अपनी खूबसूरत पत्नी के साथ आए। और वौ सौंदर्य निखरकर दिखा जब
नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग और उनकी पत्नी के आवभगत के लिए अहमदाबाद के साबरमती
रिवरफ्रंट में अद्भुत इंतजाम किए। अद्भुत इसलिए कि इतने सामान्य से माहौल में चीन
के राष्ट्रपति के साथ भारत के प्रधानमंत्री की मुलाकात-हंसी मजाक हो रहा था। वही
भगवान बुद्ध की शांति की प्रेरणा की बात वो चीन के साथ भी कर रहे थे। जिस चीन को
लेकर लंबे समय से भारतीयों के मन में छुरी घोंपने वाला भाव ही है। दरअसल हम भारतीय
1962 में चीन से एक लड़ाई क्या हारे। हमारे लिए चीन सबसे बड़ा दुश्मन हो गया है।
हमारे घर-गांव में भी तो जमीन का कब्जा ही सबसे बड़ा मुद्दा होता है। और उस पर ये
कि चीन जब चाहता है हमारी सीमा में घुस आता है। आंख दिखाता है, डराता है और मजे से
लौट जाता है। कुल मिलाकर चीन के साथ भारत के रिश्ते बड़े असहाय किस्म के रहे।
डरे-डरे से रहे। उस पर सीमा के साथ कारोबार में भी चीन ने भारत की अर्थव्यवस्था की
ऐसी की तैसी कर रखी है। मेड इन चाइना या चाइनीज ब्रांड की सबसे खराब छवि भारत में
है। फिर भी हम भारतीयों के घर में ब्रांड चाइना ऐसे घुस गया है। जैसे भाषा में
अंग्रेजी। इसीलिए जैसे हम भारतीय अंग्रेजी, अंग्रेजी दां लोगों से डरते हैं वैसे
ही चीन, मेड इन चाइना के सामानों से। इस ग्रंथि के साथ जी रहे भारतीयों के घर में
चीन का राष्ट्रपति शी जिनपिंग आ रहा था। ताकतवर, तानाशाह चीन का मुखिया। उस पर सीमा
पार चीन के सैनिक भारतीय सीमा में घुसे हुए हैं, ये खबरें भी आ रही थीं। ऐसे माहौल
में नरेंद्र मोदी के ऊपर कितना दबाव रहा होगा ये समझने की बात है। नरेंद्र मोदी के
चुनावी माहौल में बताए गए छप्पन इंच के सीने पर दे दनादन गोलियां चल रही थीं। चीन,
भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साथी है। लेकिन, ये साथी उस तरह का है जो हिसाब लगाने
पर पता चलता है कि सब लेकर चला गया। कुछ ऐसा ही कारोबारी साथी है चीन। चीन से
कारोबार करने पर करीब 30 बिलियन डॉलर का घाटा है भारत को। मतलब चीन के साथ कारोबार
करने में हम आयात करके चीन को, वहां की कंपनियों को 30 बिलियन डॉलर दे दे रहे हैं।
यानी उनकी अर्थव्यवस्था हम ऐसे मजबूत कर रहे हैं। दुनिया कर रही है लेकिन, हमारा
करना चिंताजनक इसलिए है कि बाजार से लेकर सस्ते श्रमिक तक हम चीन से बेहतर हो चले
हैं। इस कारोबारी असंतुलन को ठीक करने की बात यूपीए दो में भी होने लगी थी लेकिन,
अब शायद इस पर कुछ ठोस हो सके। अब 30 बिलियन डॉलर के घाटे वाले भारत में आकर चीन
के राष्ट्रपति अगर 20 बिलियन डॉलर के निवेश की बात कर रहे हैं तो ये पचता नहीं है।
इससे तो कारोबारी घाटा तक पूरा नहीं होगा। तो क्या नरेंद्र मोदी चीन के साथ
कारोबारी मामले पर जापान जैसी सफलता हासिल नहीं कर सके। मौटे तौर पर इसका जवाब हां
में है। क्योंकि, शी जिनपिंग की यात्रा से पहले ये बहुप्रचारित था कि चीन भारत में
जापान से तीन से पांच गुना ज्यादा निवेश करेगा। कुछ माध्यमों से तो ये रकम 100 से
300 बिलियन डॉलर तक बताई जा रही थी। इसलिए जब सिर्फ 20 अरब डॉलर के समझौते हुए तो
ये कम सफल ही माना जाएगा। लेकिन, जब चीन के राष्ट्रपति के साथ हुई बातचीत को थोड़ा
अच्छे से समझें तो ये असफलता कम होती जाती है। जैसे चीन के राष्ट्रपति के साथ
बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार के पुराने कारोबारी रास्ते खोलने, उस रास्ते से
ज्यादा से ज्यादा कारोबार करने की सैद्धांतिक सहमति बड़ी सफलता है। भले ही समझौते
जापान के साथ हुए समझौतों से कम रकम के हैं लेकिन, ये महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि
ये सब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस चीन के साथ करने में सफल हो रहे थे, जो
चीन हर बात में हमसे दादागीरी करता दिखता रहा है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे
क्योटो के हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगवानी में पहुंचे थे। इसके
बाद ये बात कही जा रही थी कि नरेंद्र मोदी भी प्रोटोकॉल तोड़कर शी जिनपिंग की
अगवानी के लिए अहमदाबाद हवाई अड्डे पर जा सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
प्रोटोकॉल तोड़ा लेकिन, वो हवाई अड्डे नहीं गए। होटल में जरूर चीन के राष्ट्रपति
और उनकी पत्नी की अगवानी की। अच्छी बात ये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतिहास
से सबक लिया है। इतिहास को रास्ते की बाधा नहीं बनाया है। वरना तो एक दक्षिणपंथी
लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए भारतीय प्रधानमंत्री के लिए तानाशाह, वामपंथी चीन
के राष्ट्रपति के साथ ऐसा दोस्ताना माहौल खोज पाना कहां संभव था। भारत और भारतीयों
में चीन के विश्वासघात का डर इस कदर है कि अखबार, चैनल बार-बार कह रहे थे कि मोदी जी
बड़े धोखे हैं इस राह में। लेकिन, मुझे लगता है कि इतिहास सबक लेने के काम आए तो बेहतर। इतिहास
रास्ता बंद करने की वजह न बने। 1962, 2014 में भी फर्क है। तब के चीन-भारत और अब के
भारत-चीन में भी फर्क है। नेहरू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कितना फर्क है, ये भी साफ दिख रहा है। इसके अलावा जैसे
भारत की मुश्किलें हैं। वैसे ही चीन की भी ढेर सारी मुश्किलें हैं। विदेश नीति के
तौर पर तिब्बत,
वियतनाम, जापान, अमेरिका की मुश्किलें चीनी ड्रैगन को
भारतीय हाथी के साथ सलीके का व्यवहार करने को मजबूर भी करती है।
ऐसे ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत के साथ विवादों को इतिहास की बात नहीं बता
दिया। इतना ही नहीं हुआ जब भारत की सड़कों पर तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर
चीन विरोधी नारे लग रहे थे। पोस्टर, बैनर दिख रहे थे। उसी समय तिब्बतियों के पूज्य
दलाई लामा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जता रहे थे। वो शी जिनपिंग
को खुले दिमाग वाला बता रहे थे और सलाह दे रहे थे कि चीन, भारत से सीखे। बुद्ध की
सिद्धांत काम कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी
जिनपिंग से साफ-साफ कहा कि बिना सीमा विवाद सुलझाए काम नहीं बनेगा। ये बड़ी बात
थी। नरेंद्र मोदी ने कहा कि सीमा नए सिरे से तय करनी होगी। क्योंकि, सीमा पर तनाव
रहेगा तो संबंध सामान्य नहीं रह सकेंगे। शी जिनपिंग ने भी इस पर सहमति जताई है। और
अगले पांच साल तक के कारोबारी संबंधों पर दोनों देशों के बीच बनी सहमति इस बात को
पुख्ता करती है।
चीन के साथ भारत के हुए समझौतों में सबसे
ऊपर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए एक नया रास्ता है। जिससे सीधे सड़क रास्ते से
कैलाश मानसरोवर यात्रा संभव हो सकेगी। इसके अलावा रेलगाड़ियों की तेज रफ्तार, आधुनिक
शहरों के बनाने में सहयोग भी बेहद अहम हैं। एक अनुमान ये भी है कि चीन जानबूझकर
भारत के साथ ऐसे समय पर सीमा विवाद खड़ा करता है जब उसके राष्ट्राध्यक्ष भारत में
होते हैं। कोशिश ये कि इस दबाव से दूसरे समझौते अपने पक्ष में कराए जा सकें।
लेकिन, इस बार ये शायद असरकारक नहीं रहा। और भारत-चीन के बीच के रिश्तों को हर
वक्त संदेह से देखने वाले ये तो मानते ही होंगे कि शायद ही हाल के वर्षों में चीन
की सेना की भारतीय सेना के साथ कोई ऐसी मुठभेड़ हुई है जिसमें किसी भारतीय सैनिक
की जान गई हो। दोनों देशों के बीच पहले गोली न चलाने का जो समझौता है, ये उसी की
वजह से है। सीमा में घुस आने का ये खेल दबाव बनाने का ही तरीका है। जो अब शायद अमल
में लाना मुश्किल होगा। नरेंद्र मोदी की शी जिनपिंग से बात के बाद चीन की सेना
भारतीय सीमा से पीछे भी हट गई। शायद जिनपिंग भी ये सोचकर आए होंगे कि रिश्तों को
बेहतर बनाने के चक्कर में शायद ही भारतीय प्रधानमंत्री भारतीय सीमा में चीनी
सैनिकों की घुसपैठ का मुद्दा उठाएंगे। लेकिन, मोदी ने वो मुद्दा उठाया और उस पर
कार्रवाई भी कराई। शायद यही मोदी के व्यक्तित्व का सबसे मजबूत पक्ष है। नरेंद्र मोदी
हर उस बात का भी इस्तेमाल खुद को मजबूत बनाने में कर लेते हैं, जिसे उनकी कमजोरी
के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए सिरे से
विदेश नीति परिभाषित कर रहे हैं। उनकी बातों में वही बुद्ध, वही शांति की बात है
लेकिन, इस मजबूती के साथ कि दुनिया के दूसरे देशों को ये अहसास हो रहा है कि भारत
के साथ शांति का संबंध बनाए रखना ही बेहतर है। नरेंद्र मोदी को भारतीय बाजार की
ताकत भी पता है। और इसीलिए हर कोई, जिसकी नजर भारत के इस बाजार पर है, मोदी उससे
आखिरी हद तक जाकर मोलभाव कर रहे हैं। हालांकि, सौदा टूट न जाए, इसका भी ख्याल मोदी
रख रहे हैं। अब मोदी अमेरिका के दौरे पर हैं। सीएनएन चैनल पर शो करने वाले फरीद
जकारिया ने उनका साक्षात्कार लिया और उस साक्षात्कार के बाद वो कह रहे हैं कि
नरेंद्र मोदी विश्व नेता बनने की क्षमता रखते हैं, मैंने उन्हें कम करके आंका। अब
भले ही जकारिया के पुराने विश्लेषणों के आधार पर इसकी विश्वसनीयता को कसौटी पर
खरा न माना जाए लेकिन, मोदी के व्यक्तित्व और उसके तथ्यों के आधार पर ये तय है कि
दुनिया में भारत की ताकत देखने का नजरिया बदल रहा है। बाकी बातें अमेरिका दौरे के
बाद ...
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