ये बड़े काबिल अधिकारी हैं। नाम है Srivats Krishna ये कर्नाटक कैडर के IAS अधिकारी हैं। 1995 बैच के टॉपर हैं। इनका मत है कि अंग्रेजी न जानने वाले को देश में आईएएस बनना ही नहीं चाहिए। अंग्रेजी का देश का सबसे बड़ा अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया इनकी इस सोच को संपादकीय में जगह देता है। ये हिन्दी वाले आईएएस जो जाने कितने सालों तक टॉपर रहे होंगे, काबिल भी होंगे। कहां मरे बैठे हैं। या फिर हिन्दी, अंग्रेजी का कोई अखबार हिन्दी के काबिल आईएएस अधिकारी का मत अपने संपादकीय पन्ने पर छापने से बचते हैं। श्रीवत्स कृष्ण अकसर टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए संपादकीय लिखते हैं। इनकी काबिलियत पर अखबार ने इन्हें दूसरे अधिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बताया था। पूरी खबर इनके ऊपर थी। इनकी उपलब्धियों पर। इस तरह से सोचने समझने वाले देश, समाज, मीडिया के लिए अपने देश, अपनी भाषा, अपना समाज बचाना कहीं प्राथमिकता में होता ही नहीं है। ऐसे में कहां यूपीएससी में हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ हो रहे अन्याय कोई सरकार हरकत में आएगी। सचमुच हिन्दी के लिए फैसला लेना हिंदुस्तान में बड़ा कठिन है।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
Thursday, July 31, 2014
Wednesday, July 30, 2014
मैं जातिवाद के खिलाफ हूं!
मैं
ब्राह्मण (बाभन) हूं
बुद्धि
का ठेका (आरक्षण) सिर्फ मेरे पास है
उसी
आरक्षण के बलपर मैं सबको देने की क्षमता रखता हूं
मैं
उस बुद्धि के बल पर बिना राजा हुए राज करना चाहता हूं
सब
जातियां मुझसे नीची हैं
सब
जातियों के लोग मुझसे आशीर्वाद लेते हैं
फिर
भी मैं सदियों की श्रेष्ठता त्याग रहा हूं
क्योंकि,
मैं जातिवाद के खिलाफ हूं
मैं
क्षत्रिय (ठाकुर) हूं
राज
करने का ठेका (आरक्षण) सिर्फ मेरे पास है
रजवाड़ा
हो ना हो राज करने के अधिकारी तो हम ठाकुर ही हैं
हमारी
प्रजा बनकर कोई भी जाति रह सकती है
सब
जातियों को आदेश मेरा ही मानना होता है
फिर
भी मैं रजवाड़े छोड़ रहा हूं
क्योंकि,
मैं सच कह रहा हूं कि मैं जातिवाद के खिलाफ है
मैं
वैश्य (बनिया) हूं
कोई
कितनी भी बुद्धि लगा ले
कोई
कैसे भी सत्ता हासिल कर ले
सत्ता
चलती मेरे पैसे से ही है
पैसा
कमाना सिर्फ मुझे आता है
इसलिए
सत्ता चलाना भी मुझे आता है
इसके
बाद भी मेरा मन बहुत बड़ा है
मैं
भी जातिवाद के खिलाफ हूं
मैं
शूद्र (ऊपर की तीनों जातियों को छोड़ सारी जातियां) हूं
सब
सहने का ठेका (आरक्षण) मेरा ही है
मेरा
ही तो शोषण होता है
मेरी
ही बुनियाद पर बाभन की बुद्धि लगती है
मेरी
ही बुनियाद पर ठाकुर की सत्ता चलती है
मेरी
ही बुनियाद पर बनिया को समृद्धि मिलती है
मैं
भी जातिवाद के खिलाफ हूं
दूसरी
जातियों के बरसों के अत्याचार को मैं भूलने को तैयार हूं
लेकिन,
अब मुझे सच का आरक्षण मिल गया है
मैं
वोटबैंक हो गया हूं
मैं
जातिवाद के खिलाफ होना चाहता हूं
लेकिन,
कोई बाभन, कोई ठाकुर, कोई बनिया या कोई अपनी ही जाति का नेता मुझे जाति भूलने नहीं
देता
मैं
क्या करूं, मैं सच कह रहा हूं कि मैं भी उन तीनों के जितना ही जातिवाद के खिलाफ हूं
Tuesday, July 29, 2014
कतार का कष्ट
नोएडा के सेक्टर 119 में रहता
हूं। वहीं एक सोसाइटी के अंदर सुपर मार्केट है। मतलब काम के सारे सामान यहां मिल
जाते हैं। दूध लेने के लिए सुबह सुपरमार्केट में गया। एक बिलिंग काउंटर ही काम कर
रहा था। लंबी कतार हो गई थी। एक मैडम सीधे आकर हमसे आगे कतार में अनजान बनकर खड़ी
हो गईं। हम लोगों ने उन्हें पीछे भेज दिया लेकिन उनके चेहरे पर भाव जरा भी गलती के
अहसास के नहीं थे। क्योंकि गलती हुई नहीं थी। जानबूझकर की गई थी। ऐसा करने वालों
को भी अपने लिए सब व्यवस्थित की उम्मीद होती है।
इसी सुपर मार्केट की एक दूसरी घटना। दफ्तर
से लौटते हुए दूध लेकर जाना था। कतार में था। मेरे आगे जो सज्जन लगे थे उनका भुगतान
होता। इससे पहले ही दो शरीर से बलिष्ठ नौजवानों में से एक ने अपना सामान काउंटर पर
रख दिया। जल्दी से बिल बना दो। बहुत गुस्सा आने के बावजूद मैं चुप रहा। मेरे आगे
वाले का भुगतान पूरा हुआ तो मैंने पूरी कड़ाई से उसकी ओर देखा और बोला पीछे आइए
लाइन में। लेकिन, वो पूरी बेशर्मी से मुझे डराने का प्रयास करता रहा। और काउंटर पर
खड़े लड़के से बोला जल्दी से कर दे, जाना है। फिर अमूल दूध के पैकेट को देखकर
बोला। यू पिन्नी में क्या है दूध। खैर, मेरी कड़ाई से मेरे पीछे खड़ी महिला को भी
बल मिला। उन्होंने कहाकि आप लाइन में आइए। मैंने अपना भुगतान किया, फिर पीछे की
महिला का भी भुगतान कराया और फिर वहां से निकला। अब मुझे नहीं पता कि मेरे पीछे
कतार में खड़े कितने लोगों ने उन्हें रोका होगा। यही सबसे बड़ी समस्या है। और कमाल
ये कि कतार तोड़ने वाले उन लोगों को भी नोएडा में सब अच्छा-अच्छा और व्यवस्थित
चाहिए होगा। पहली महिला होने का लाभ लेना चाहती थीं। दूसरे नौजवान अपने स्थानीय
होने और बलिष्ठ होने के आधार पर कतार तोड़ देना चाहते थे।
ईद
ईदगाह कहानी कुछ दिन पहले स्कूल से आई।
अमोली के स्कूल से। मैंने पढ़ाया उसे। हालांकि, ईदगाह की कहानी पढ़ाने के लिए मुझे स्कूल से आए उस डेढ़ पन्ने को पढ़ने की
जरूरत नहीं थी। बचपन में पढ़ी ईदगाह एकदम से याद है। बिना कई बार पढ़े भी। मैंने
एक बार प्रेमचंद को याद करते हुए ईदगाह को ही याद
किया था। संदर्भ अलग थे। लेकिन, ईदगाह से काफी कुछ
रिश्ते सहेजने वाली बात समझ में आती है। दादी, बच्चे का रिश्ता। संवेदना, कम में संतुष्टि, समाजशास्त्र, सामाजिक संतुलन। हामिद का चिमटा तो यही सिखाता है। आज ईदगाह की कहानी याद
आई ईद की वजह से। बिटिया कल से ही ईद मनाना चाह रही है।
सवाल ये है कि हम ईद कैसे मनाएं। बचपन से
ही कभी ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि, हम किसी ऐसी जगह रहे
नहीं जहां बगल में मुसलमान रहते हों। बगल में न रहने पर भी कुछ लोग, कुछ लोगों के यहां जाकर हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई कर लेते हैं। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि कहां हिन्दू मुसलमान एक साथ रह पाते हैं। रहते हैं तो
दंगा करते हैं। मारकाट करते हैं। तो फिर कैसे ईद पता हो अमोली को। और शायद मैं भी
डरूंगा ऐसी वाली हिन्दू मुसलमान की सोहबत से। ऐसा पड़ोस जो सहारनपुर, मुरादाबाद और मुजफ्फरनगर बना दे। हालांकि, अच्छी बात ये है कि हमारी सोसाइटी में हमारे घर के ठीक नीचे ही मुसलमान
परिवार रहता है। और जब कई दिनों के लिए घर छोड़कर जाना हुआ तो मेरी पत्नी को ही वो
धीरे-धीरे ये कहकर गईं कि आते-जाते नजर रख लीजिएगा। यही सच भी है। हम सबसे ज्यादा
भरोसा अपने पड़ोसी, आसपास पर ही कर पाते हैं। लेकिन, जब आसपास, पड़ोस ऐसे ईंट-पत्थर फेंकने लगें, घर, दुकान जलाने लगें तो कौन ऐसा पड़ोस चाहेगा। हर कोई डरेगा क्या हिन्दू, क्या मुसलमान। अमोली बड़ी होगी तो धीरे-धीरे ये
सब समझ जाएगी। लेकिन, मैं
डर ये रहा हूं कि क्या सवाल तब भी वही रहेगा।
जहां तक ईद की सेंवई की बात रही तो शाम को घर पर सेंवई ही बनेगी।
Wednesday, July 23, 2014
‘अधर्मी’ अखबार, टीवी चैनल
अखबार के सभी संस्करणों की ये पहली खबर है |
इसी पर इंडियन एक्सप्रेस में भी संपादक रह चुके वरिष्ठ पत्रकार बी जी वर्गीज
ने प्रभाष परंपरा न्यास के कार्यक्रम में व्याख्यान देते हुए कहा कि The media in India is currently in
crisis and has suffered a severe loss of credibility. Managers have taken over
from editors and gossip and sensation have supplanted news. If the print media
is in trouble, sections of the electronic media have gone out of control. आगे बी जी वर्गीज फिर कहते हैं कि In the media of today, the one who “breaks” the story,
whatever its veracity, sets the stage. The rest follow as a pack creating a
subjective reality that may be far removed from the objective truth. बी
जी वर्गीज साहब को ये चिंता जताते समय शायद ही इंडियन एक्सप्रेस का ध्यान रहा हो। लेकिन,
इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार नियमित तौर पर ये कर रहे हैं। अब बताइए किसी राज्य के
दिल्ली में स्थित सदन में कैंटीन का अगर इस कदर बुरा हाल है कि सांसद, विधायक को
ढंग का खाना नहीं मिल पा रहा है तो ये गंभीर सवाल है या नहीं। क्या इंडियन
एक्सप्रेस अखबार या उसके बाद मुस्लिम का रोजा तोड़वाकर खेल रहे टीवी चैनल
महाराष्ट्र सदन और दूसरे राज्य अतिथि गृहों के खाने पर पहले स्टोरी कर लेते। आखिर
हर साल रेल बजट के समय तो यही काम करते ही है ना। उस घटना के साथ मैं खड़ा नहीं
हूं। कोई भी नहीं खड़ा होगा। लेकिन, जरा बताइए ना खाना ही खराब मिले तो कितने लोग
हैं जो संयम रख पाते हैं। जो वीडियो मैं देख सका और जितना देख सका। उसके आधार पर
मुझे लगता है कि ये पूरी तरह से घटना को कट्टर हिंदूवादी पार्टी शिवसेना और
मुस्लिम के बीच का मामला बनाने की गंदी कोशिश है। हिंदू, मुस्लिम या कोई भी हो
उसके साथ कोई इस तरह की बद्तमीजी करे उस पर मामला बनाइए। खबर दिखाइए। इंडियन
एक्सप्रेस अखबार का मैं खुद बड़ा प्रशंसक रहा हूं। या यूं कहें कि पत्रकारिता शुरु
करते समय हर पत्रकार को अंग्रेजी में इंडियन एक्सप्रेस पढ़ना बेहतर लगता है। मुझे
तो कई बार ये भी लगता है कि ये बड़े ब्रांड के जो रिपोर्टर होते हैं उनमें से
ज्यादातर तक खबरें खुद चलकर पहुचती हैं। खासकर ऐसी खबरें जिसमें लोगों के हित
जुड़े होते हैं। अब ज्यादा समय नहीं बचा है कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने
में। पहले से ही जिस तरह का माहौल है उसमें हिंदू-मुस्लिम करने की बहुत गुंजाइश
दिख नहीं रही है। तो इसका फायदा किसको होगा। इसलिए हिंदू-मुस्लिम करो। कुछ मुस्लिम
वोट शिवसेना-बीजेपी के खिलाफ एकजुट करो। वरना बताइए सत्रह जुलाई की घटना। वो भी
बाकायदा इतने सांसद, पत्रकार, टीवी कैमरे और एक स्टाफ के साथ इस तरह की बदसलूकी।
फिर भी इतने समय बाद ये खबर इतनी बनाकर क्यों चली। जाहिर है वर्गीज साहब जो कह रहे
थे कि मैनेजरों ने खबर मैनेज कर ली। और जब पूरी तरह से मुसलमान का रोजा रोटी
खिलाकर तोड़ने की पक्की बुनियाद तैयार कर ली गई तो, खबर सबको कर दी गई। ये खेल बंद
करना होगा। उसके खिलाफ आवाज उठानी होगी।
Sunday, July 20, 2014
उस ऑटो वाले की मैं तस्वीर नहीं ले सका
साझा ऑटो से मैं चला लेकिन, अकेला ही था। रास्ते में एक और यात्री उसने बैठाया। हमसे पहले वो यात्री उतर गया। 7 रुपये हुआ था। लेकिन, उसने कहा 3 रुपये छुट्टा नहीं है और ये कहकर 10 रुपये रख लिए। मैंने कहा ये अच्छा किया। तो उसने कहा- कल कम देंगे तो वो भी ले लूंगा। वो जो सामने घर दिख रहा है। उसी के पीछे के घर में रहते हैं। मैंने हंसते हुए कहा तुम तो अपने यात्रियों पर गजब नजर रखते हो। उसने कहा रखना पड़ता है सर। ये जहां खड़े थे वहां से आने के बाद कौन क्या कर जाए, क्या पता। मैंने कहा - कहां खड़े थे। उसने कहा शराब की दुकान के सामने थे। उसने कहा कुछ हो गया तो मैं बता तो सकूंगा। मुझे लगा अगर उस ऑटो वाले जैसे सारे शहरी जागरूक हो जाएं तो पुलिस का आधा काम ही न रह जाए। समाज में बढ़ते अपराध, नौजवानों का गलत राह पर जाना। ये सब इस वजह से भी ज्यादा हो रहा है कि शहरी समाज में अपने पड़ोसी की भी न तो चिंता है। और न ही उसके अच्छे, बुरे से कोई फर्क पड़ता है। समाज ने नजर बंद कर ली है तो, भला समाज का भला कैसे हो सकता है। समाज की आंखें बंद है और समाज चल भी रहा है तो जाहिर है दुर्घटना तो होगी है। जाहिर है दुर्घटना से बचने के लिए समाज को आंख खोलनी होगी और समाज हम सब हैं। उस ऑटो वाले की तरह।
Saturday, July 19, 2014
पूरब की रोशनी दुनिया में फैलाएगा ब्रिक्स
वैदिक जी के प्रताप के आगे BRICS की महिमा भी फीकी पड़ गई है। अभी तक दुनिया में इस बात की चर्चा होती रही है कि भारत के अपने पड़ोसियों के साथ तनावपूर्ण संबंध हैं। पाकिस्तान से इस तरह कि वो छोटा देश होने के बाद भी आंख दिखाता है और आतंकवादी भेजकर और सीमा पर जब तब फायरिंग करके तनाव फैलाता है। और चीन भारत से ताकतवर है तो सीधे अपनी सेना ही भारतीय सीमा में भेज देता है। चीन के सैनिक आते हैं और भारत में मौज मस्ती करके चले जाते हैं। अब दुनिया अगर BRICS की चर्चा न कर रही हो तो कोई मुश्किल नहीं लेकिन, अगर भारतीय मीडिया में इतने महत्वपूर्ण मौके की चर्चा न हो रही हो तो ये कचोटता है। कम से कम मुझे तो ये कचोट रहा है। क्योंकि, ये मौका बन रहा है जिसमें भारत सहित गैर पश्चिमी देशों की बढ़ती ताकत नजर आ रही है। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका की बराबरी की भागीदारी वाला ये मंच दुनिया की तस्वीर और देखने का नजरिया बदल रहा है। कुछ भारत-चीन के पुराने अनुभव और कुछ पश्चिमी दुनिया की चाहत का असर रहा कि भारत और चीन कभी एक दूसरे के साथ नहीं दिख सके। लेकिन, अभी समीकरण बदले हैं। और अच्छी बात ये है कि ये समीकरण तब बदल रहा है जब वामपंथी, तानाशाही शासन वाला चीन है और दक्षिणपंथी, लोकतांत्रिक शासन वाला भारत है। ये बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग से मिले। और उस मौके पर जिनपिंग ने जो कहा वो दुनिया को सुनना, समझना होगा। जिनपिंग ने कहाकि अगर दोनों देश एक सुर में बोलेंगे तो दुनिया ध्यान से सुनेगी और अगर दोनों देश हाथ मिलाकर चले तो दुनिया देखेगी। और ये सिर्फ बयान भर नहीं था। सबकुछ व्यवहार में भी दिख रहा था। जी जिनपिंग यहीं नहीं रुके, उन्होंने कहा कि द्विपक्षीय, क्षेत्रीय या फिर अंतर्राष्ट्रीय परिदृष्य में भारत और चीन एक दूसरे के दोस्त हैं, दुश्मन नहीं। जिनपिंग ने नरेंद्र मोदी को एपीईसी की नवंबर में होने वाली बैठक के लिए भी आमंत्रित किया। साथ ही जिनपिंग ने एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक में भी शामिल होने का न्यौता दिया। हालांकि, इसकी अगुवाई चीन कर रहा है। लेकिन, न्यौता बराबरी का है। ये खबर इस तरह से कम से कम भारतीय मीडिया में तो मुझे देखने को नहीं मिली है।
भारतीय मीडिया में अधिकतम जो दिखा है वो है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ब्रिक्स देशों के दूसरे राष्ट्राध्यक्षों की मिलते-मिलाते तस्वीरें। और एक बात जो जरा ज्यादा दिखी है जो, दिखनी भी चाहिए। वो है ब्रिक्स बैंक का बनना। इसे भी अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार की ये विफलता है या सफलता कि ब्रिक्स बैंक का मुख्यालय शंघाई में होगा। दरअसल इस खबर को अच्छे से समझें तो ब्रिक्स की इस छठवीं बैठक से ब्रिक्स देशों और खासकर भारत को बहुत कुछ मिला है। ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ताकतवर नेतृत्व ही है कि ब्रिक्स बैंक का मुख्यालय भले शंघाई में होगा लेकिन, इसका अध्यक्ष या सीईओ भारतीय ही होगा। और वो भी पूरे पांच साल के लिए। इसके बाद ब्राजील और रूस इसकी अगुवाई करेंगे। यानी ब्रिक्स बैंक की बुनियाद रखने का काम भारत को ही करना है। भारत और चीन के बीच मुख्यालय और अध्यक्षी को लेकर काफी रस्साकशी हुई। और चीन का प्रभाव बैंक पर एकांगी न हो इसके लिए ही ये तय किया गया कि अगले दो दशक तक बैंक की अध्यक्षी चीन के पास नहीं रहेगी। साथ ही बैंक में लगने वाली पूंजी भी चीन के बराबर ही भारत और ब्राजील भी लगाएंगे। सौ अरब डॉलर के इस ब्रिक्स बैंक की योजना विश्व बैंक पश्चिम परस्त विकास नीतियों के उलट ब्रिक्स देशों की विकास की जरूरतों के लिहाज से फंडिंग का इंतजाम करना। इसे विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक फंड (आईएमएफ) की नीतियों के खिलाफ ब्रिक्स देशों का विद्रोह भी माना जा सकता है। ब्रिक्स देशों ने साफ तौर पर ये मांग की है कि आईएमएफ में विकासशील देशों को भी वोटिंग अधिकार देने होंगे। क्योंकि, बदलती विश्व अर्थव्यवस्था की ये मांग है। 2006 में ब्रिक्स की कल्पना रूस ने की थी। औपचारिक तौर पर ब्रिक्स बैठकों की शुरुआत ही 2009 में हुई थी और करीब पांच सालों में ये कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। ब्रिक्स बैंक ये पक्की बुनियाद भी तैयार करेगा जिससे अमेरिका के विकासशील देशों से स्टिमुलस वापस लेने का असर उन देशों की अर्थव्यवस्था पर न पड़े। ब्रिक्स के इन पांच देशों को आज के संदर्भ में देखना समझना बड़ा जरूरी है। ये पांच देश दुनिया की आधी आबादी हैं। आर्थिक नजरिये से देखें तो ये पांच देश मिलकर दुनिया का पांचवा हिस्सा हैं। ब्रिक्स बैंक 2016 से कर्ज देना शुरू करेगा। इसकी शुरुआत पचास अरब डॉलर से की जाएगी जिसे पांचों सदस्य देश मिलकर देंगे।
ब्रिक्स की इस छठवीं सालाना बैठक में एक और बड़ा काम हुआ है। जो पूरी तरह से पश्चिम के वर्चस्व को तोड़ता है। यूक्रेन और क्रीमिया को लेकर अमेरिका और पश्चिमी देश रूस के खिलाफ खड़े हैं। उस स्थिति में ब्रिक्स के मंच पर रूस को भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का साथ मिला है। ब्रिक्स में रूस की आलोचना नहीं हुई। बल्कि इस बात को मजबूती से कहा गया कि सबकुछ शांति से तय होना चाहिए। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि अमेरिका की अगुवाई में पश्चिम का अब ये तय करना आसान नहीं होगा कि किसी देश पर वो अपनी सहूलियत से आर्थिक प्रतिबंध लगा दे। आर्थिक तौर पर कैसे दुनिया बदल रही है। इसका अंदाजा वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन के एक आंकड़े से आसानी से लगाया जा सकता है। इसके मुताबिक, दो हजार एक से दो हजार ग्यारह के दौरान ब्रिक्स देशों का निर्यात पांच गुना बढ़ा है जो, विश्व के औसत से दोगुना है। इन पांच देशों की जीडीपी चार गुना बढ़ी है। यही पांच देश हैं जो दुनिया का प्राकृतिक संसाधनों में पचास प्रतिशत हिस्सा रखते हैं। ये कुछ बड़े कारण हैं जो इक्कीसवीं शताब्दी में बदलती विश्व संरचना की बुनियाद तैयार कर चुके हैं और अब इस पर इमारत खड़ी करने का काम ब्रिक्स के जरिए होगा। धीरे-धीरे ब्रिक्स में दूसरे देश भी शामिल किए जाएंगे। पिछले तीन दशक से हाशिए पर पड़ा रूस इस मंच के जरिए दुनिया में फिर से अपनी मजबूत दखल बनाना चाहेगा। कुल मिलाकर सूरज पूरब से भले उगता रहा है लेकिन, लंबे समय से दुनिया को राजनीतिक, आर्थिक रोशनी पश्चिम से ही मिलती रही है। अब ये ब्रिक्स का नया मंच दुनिया को पूरब की रोशनी की ताकत दिखाएगा।
भारतीय मीडिया में अधिकतम जो दिखा है वो है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ब्रिक्स देशों के दूसरे राष्ट्राध्यक्षों की मिलते-मिलाते तस्वीरें। और एक बात जो जरा ज्यादा दिखी है जो, दिखनी भी चाहिए। वो है ब्रिक्स बैंक का बनना। इसे भी अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार की ये विफलता है या सफलता कि ब्रिक्स बैंक का मुख्यालय शंघाई में होगा। दरअसल इस खबर को अच्छे से समझें तो ब्रिक्स की इस छठवीं बैठक से ब्रिक्स देशों और खासकर भारत को बहुत कुछ मिला है। ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ताकतवर नेतृत्व ही है कि ब्रिक्स बैंक का मुख्यालय भले शंघाई में होगा लेकिन, इसका अध्यक्ष या सीईओ भारतीय ही होगा। और वो भी पूरे पांच साल के लिए। इसके बाद ब्राजील और रूस इसकी अगुवाई करेंगे। यानी ब्रिक्स बैंक की बुनियाद रखने का काम भारत को ही करना है। भारत और चीन के बीच मुख्यालय और अध्यक्षी को लेकर काफी रस्साकशी हुई। और चीन का प्रभाव बैंक पर एकांगी न हो इसके लिए ही ये तय किया गया कि अगले दो दशक तक बैंक की अध्यक्षी चीन के पास नहीं रहेगी। साथ ही बैंक में लगने वाली पूंजी भी चीन के बराबर ही भारत और ब्राजील भी लगाएंगे। सौ अरब डॉलर के इस ब्रिक्स बैंक की योजना विश्व बैंक पश्चिम परस्त विकास नीतियों के उलट ब्रिक्स देशों की विकास की जरूरतों के लिहाज से फंडिंग का इंतजाम करना। इसे विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक फंड (आईएमएफ) की नीतियों के खिलाफ ब्रिक्स देशों का विद्रोह भी माना जा सकता है। ब्रिक्स देशों ने साफ तौर पर ये मांग की है कि आईएमएफ में विकासशील देशों को भी वोटिंग अधिकार देने होंगे। क्योंकि, बदलती विश्व अर्थव्यवस्था की ये मांग है। 2006 में ब्रिक्स की कल्पना रूस ने की थी। औपचारिक तौर पर ब्रिक्स बैठकों की शुरुआत ही 2009 में हुई थी और करीब पांच सालों में ये कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। ब्रिक्स बैंक ये पक्की बुनियाद भी तैयार करेगा जिससे अमेरिका के विकासशील देशों से स्टिमुलस वापस लेने का असर उन देशों की अर्थव्यवस्था पर न पड़े। ब्रिक्स के इन पांच देशों को आज के संदर्भ में देखना समझना बड़ा जरूरी है। ये पांच देश दुनिया की आधी आबादी हैं। आर्थिक नजरिये से देखें तो ये पांच देश मिलकर दुनिया का पांचवा हिस्सा हैं। ब्रिक्स बैंक 2016 से कर्ज देना शुरू करेगा। इसकी शुरुआत पचास अरब डॉलर से की जाएगी जिसे पांचों सदस्य देश मिलकर देंगे।
ब्रिक्स की इस छठवीं सालाना बैठक में एक और बड़ा काम हुआ है। जो पूरी तरह से पश्चिम के वर्चस्व को तोड़ता है। यूक्रेन और क्रीमिया को लेकर अमेरिका और पश्चिमी देश रूस के खिलाफ खड़े हैं। उस स्थिति में ब्रिक्स के मंच पर रूस को भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का साथ मिला है। ब्रिक्स में रूस की आलोचना नहीं हुई। बल्कि इस बात को मजबूती से कहा गया कि सबकुछ शांति से तय होना चाहिए। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि अमेरिका की अगुवाई में पश्चिम का अब ये तय करना आसान नहीं होगा कि किसी देश पर वो अपनी सहूलियत से आर्थिक प्रतिबंध लगा दे। आर्थिक तौर पर कैसे दुनिया बदल रही है। इसका अंदाजा वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन के एक आंकड़े से आसानी से लगाया जा सकता है। इसके मुताबिक, दो हजार एक से दो हजार ग्यारह के दौरान ब्रिक्स देशों का निर्यात पांच गुना बढ़ा है जो, विश्व के औसत से दोगुना है। इन पांच देशों की जीडीपी चार गुना बढ़ी है। यही पांच देश हैं जो दुनिया का प्राकृतिक संसाधनों में पचास प्रतिशत हिस्सा रखते हैं। ये कुछ बड़े कारण हैं जो इक्कीसवीं शताब्दी में बदलती विश्व संरचना की बुनियाद तैयार कर चुके हैं और अब इस पर इमारत खड़ी करने का काम ब्रिक्स के जरिए होगा। धीरे-धीरे ब्रिक्स में दूसरे देश भी शामिल किए जाएंगे। पिछले तीन दशक से हाशिए पर पड़ा रूस इस मंच के जरिए दुनिया में फिर से अपनी मजबूत दखल बनाना चाहेगा। कुल मिलाकर सूरज पूरब से भले उगता रहा है लेकिन, लंबे समय से दुनिया को राजनीतिक, आर्थिक रोशनी पश्चिम से ही मिलती रही है। अब ये ब्रिक्स का नया मंच दुनिया को पूरब की रोशनी की ताकत दिखाएगा।
Friday, July 18, 2014
भारत में गाजा का बाजा!
मेरे लिए बड़ा मुश्किल है इस मामले पर लिखना।
सबसे बड़ी वजह तो यही है कि मैं इस मामले में अल्पज्ञानी हूं। मुझे असल जानकारी
नहीं है। गूगल अंकल की शरण में दोनों तरफ के अतिवादी ज्ञान दिखते हैं। और दूसरी
बात ये रही कि भारत, भारतीय समाज की अच्छाइयों, बुराइयों को ही ठीक से समझने भर का
जब मैं लिखना-पढ़ना-घूमना-समझना नहीं कर पाता हूं तो, गाजा और इस्राइल पर कितना
पढ़ूं। इराक में शिया सुन्नी संघर्ष पर कितना पढ़ूं। चीन में मुसलमानों के हालात
पर कितना पढ़ूं। अफगानिस्तान में तालिबान पर कितना पढ़ूं। रूस, यूक्रेन, क्रीमिया
पर कितना पढ़ूं। सीरिया पर कितना पढ़ूं। अमेरिका पर कितना पढ़ूं। यूरोप की खराब
हालत पर कितना पढ़ूं। लेकिन, जब हमारे माननीय सांसद मुझ पर ये जबर्दस्ती करते हैं
तो मैं क्या करूं। जब हमारे तथाकथित बुद्धि के माननीय परंपरागत ठेकेदार मुझे पर ये
सब पढ़ने-समझने की जबर्दस्ती करते हैं तो मैं क्या करूं। अब बताइए ऐसी जबर्दस्ती
करने वाले माननीय सांसद जी लोग राज्यसभा चलने ही नहीं दे रहे हैं। क्यों भाई। इसलिए
कि गाजा पर बहस करो। इसलिए कि इस्राइल जो हमले कर रहा है उस पर बहस करो। इसलिए कि
गाजा में बच्चे, महिलाएं मर रहे हैं, उस पर बहस करो। पहली बात तो इस्राइल और गाजा
के बीच हो रहे युद्ध में भारतीय संसद के किसी उच्च या निम्न सदन में बहस को मैं
ठीक नहीं मानता। अब मान लो बहस कर भी लें तो क्या होगा। हमारी बहस के बाद इस्राइल
मान जाएगा, शांति हो जाएगी। या फिर फिलिस्तीन मान जाएगा। हमास मान जाएगा। अब कोई
माननीय ये भी सवाल कर सकते हैं कि बेहद सांप्रदायिक किस्म का व्यक्ति हूं मैं। या
मानव ही नहीं हूं। जो इतनी हत्याओं पर बहस के भी पक्ष में नहीं हूं। हां मैं इस
मामले में मानवीय नहीं हूं। मैं स्वार्थी भी हूं। मुझे बड़ा अच्छा लगा था जब सरकार
हरकत में आई थी। संसद हरकत में आई थी। सब एक सुर में थे। राजनीति भी कर रहे थे तो
सभी भारतीयों को सुरक्षित भारत वापस लौटाने के लिए राजनीति कर रहे थे। सब एक साथ
थे। बेवजह की बात नहीं कर रहे थे। सारे भारतीय (जो भी वापस आना चाहते थे) सुरक्षित
इराक से वापस आ गए। दुनिया के इस सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठन के कब्जे से वापस आ
गए। यहां हमारा हस्तक्षेप जायज था। हमारी संसद का हस्तक्षेप जायज था। अब फिलिस्तीन
और इस्राइल में हमारा हस्तक्षेप कहां से जायज हो गया। कुछ माननीय सांसद सिर्फ
इसलिए इस पर राज्यसभा में बहस चाहते हैं कि भारत के उस क्षेत्र में जो इस्राइल के
साथ फिलिस्तीन से भी बेहतर रिश्ते हैं वो सिर्फ किसी एक देश से रह जाएं। या फिर ये
बहस इसलिए करना चाह रहे हैं कि मोदी सरकार के इस्राइल के साथ रिश्तों को आधार पर
बनाकर नरेंद्र मोदी को भी किसी खांचे में फिट कर देना चाहते हैं। और फिर उस बहाने
से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को और फिर उसके बाद उस पूरे विचार को। आखिर पिछले साठ
साल से ज्यादा समय से यही तो हो रहा है।
इस बहस के बीच एक और घटना हुई है। रूस यूक्रेन की सीमा पर मलेशिया के एक जहाज को मार गिराया गया। अब जो खबरें आ रही हैं। उसकी गंभीरता समझिए। खबरें हैं कि यूक्रेन रूस के राष्ट्रपति पुतिन को मार गिराना चाहता था। हालांकि,यूक्रेन रूसी विद्रोहियों पर ये आरोप लगा रहा है। दुनियाभर में आतंकवाद से सबकुछ चलाने की कोशिश हो रही है। इराक, ईरान, सीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और चीन तक। और भी जाने कहां-कहां। इसको समझने की जरूरत है। गाजा में जो कुछ हो रहा है। या कहीं भी जो किसी
की हत्या हो रही हो। अनर्थ है। हम भारतीय इसके साथ कभी खड़े नहीं होते, न खड़े
होंगे। राज्यसभा में हम बहस भी करा लें। जेएनयू के छात्र इस्राइल दूतावास के सामने
प्रदर्शन भी कर लें। गलती से गाजा पर भारतीय संसद में बहस न समझ पाने वाले हम जैसे
लोगों को भी वहां हो रहे हर नरसंहार के लिए दोषी ठहरा लें। बस, एक सवाल मन में आता
है कि चीन में रमजान तक की मंजूरी नहीं है। इस पर ये सारे लोग बहस की इच्छा क्यों
नहीं रखते। मैं सचमुच कोई अंतर्राष्ट्रीय मामलों का विशेषज्ञ नहीं हूं। अतिसामान्य
ज्ञान है। फिलिस्तीन, इस्राइल के बारे में। इराक के बारे में, ईरान के बारे में।
अफगानिस्तान के बारे में। हमारी चिंता पहले हमारे देश की होती तो ज्यादा बेहतर
होता। गाजा पर बहस कराकर क्या हम दुनिया के सारे विवादित क्षेत्रों, नरसंहार पर
बहस के लिए अपनी संसद में मंच तैयार करेंगे। और फिर हमारे विवादों पर चर्चा के लिए
दुनिया के दूसरे देशों की संसद और दूसरे मंचों पर चर्चा का अधिकारी भी सौंपेंगे।
उदाहरण के लिए कश्मीर और बांग्लादेश के साथ हमारे सीमा विवाद पर कोई और टिप्पणी
करे। चीन से सीमा विवाद पर अमेरिकी सीनेट कुछ बताए। नक्सलियों पर कार्रवाई से पहले
बान की मून से सहमति प्रमाणपत्र लिया जाए। कुछ ऐसा ही हो ना। अगर बहुतायत में इसका
जवाब हां में है। तो फिर चिंता की कोई बात नहीं। महंगाई, विकास या देश की दूसरी
सारी समस्याओं के बारे में हमें या हमारी सरकार को चिंतित होने की जरूरत नहीं।
दूसरे देशों की संसद, दूसरे मंचों पर बहस से हमारा भी सब ठीक हो जाएगा। आइए मेरे बुद्धिजीविता के ठेकेदार मित्रों,
गरियाइए।
Wednesday, July 16, 2014
पप्पू के बच्चे का मजे से पढ़ने का जुगाड़ हो जाए
अकसर ये कहा जाता है कि भारत देखना है तो भारतीय रेल के दूसरे दर्जे में सफर करो। और मुझे ये लगता है कि दुनिया, अपने अगल-बगल का समाज देखना समझना है तो जितना उसके साथ, उसके पास रह सकते हो रहो। अभी संयोग से गाड़ी सर्विसिंग के लिए गई है। तो दो दिनों से ऑटो से ऑफिस आना हो रहा है। अपनी आदत है तो बात होने लगी। ये पप्पू हैं। बिहार के हैं। पप्पू से बात शुरू हुई तो पप्पू ने बताया कि अभी तक तो हम एक बिल्डर के यहां गाड़ी चलाते थे। ऑटो तो इधर चलानी शुरू की है। अच्छी तनख्वाह मिल जाती थी। सोलह हजार रुपया महीना तनख्वाह थी। ओवरटाइम भी मिल जाता था। बिल्डर था तो उसने रहने के लिए घर भी दे रखा था। लेकिन, एक जमीन ले ली नोएडा के एक गांव में। जमीन के चक्कर में यहां आना पड़ा। अब नोएडा से मालवीय नगर तो आना जाना संभव नहीं था। एक छोटा भाई भी यहां साथ में आ गया है। वो भी ऑटो चलाता है। कुछ दिन बच्चे भी साथ में थे। लेकिन, नोएडा के गांव में रहकर बच्चे बर्बाद हो रहे थे। बदमाशी सीख रहे थे। इसलिए बच्चों को हॉस्टल में डाल दिया। इसके बाद जो लाइन पप्पू ने बोली उससे मेरे कान सुन्न हो गए। उसने बताया- महीने का बारह हजार बच्चों को पढ़ाने में जाता है। अब आखिर सबकुछ इसीलिए न कर रहे हैं कि बच्चे पढ़ लिखकर बेहतर हो जाएं। अब सोचिए देश तरक्की करेगा। देश के लोगों की कमाई बढ़ेगी। लेकिन, सबसे ज्यादा कमाएगा स्कूल चलाने वाला। निजी स्कूल चलाने वाला। क्योंकि, सरकारी स्कूल बेहतर होंगे नहीं। और निजी स्कूलों पर सरकार का कोई नियंत्रण होगा नहीं। बताइए कौन सा देश बनेगा इससे। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी इस तरफ भी ध्यान दीजिए। सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ें और सब पढ़ सकें, इतनी फीस हो। तो फिर ये अच्छे स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए आरक्षण की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। बड़ा बदलाव हो जाएगा। काम कठिन है। लेकिन, मोदी जी आप तो कठिन काम ही करते हैं। हालत तो बच्चों की फीस से मेरी भी खराब है। लेकिन, पप्पू के बच्चों की अच्छी पढ़ाई का सस्ते में इंतजाम कर दीजिए। बस। मान लेंगे देश बेहतर हो गया है।
Tuesday, July 15, 2014
वैदिक वैदिक वेद प्रतापा!
वेद
प्रताप तो खैर इनका नाम इनके माता-पिता ने ही रखा होगा। मुझे लगता है कि इनके नाम
के आगे लगा वैदिक इन्होंने स्वयं लगाया होगा। किस उम्र में ये इतने “वैदिक”
हुए होंगे, पता नहीं। वेद प्रताप वैदिक का नाम बहुत है। मुझे तो अभी पत्रकारिता
करते ही कुल डेढ़ दशक के आसपास हुए हैं लेकिन, वैदिक जी तो कब से कर रहे हैं,
हमारे जैसे लोग तो नहीं ही बता सकते। इतना जरूर है कि वैदिक जी भी बड़े पत्रकार
हैं, ऐसी धारणा पक्की होती रही। दिल्ली आने पर किसी मौके पर इनसे मुलाकात हो गई।
उसी में शायद फोन नंबर और ईमेल लिया, दिया गया। और, ये ईमेल का आदान प्रदान वेद
प्रताप वैदिक के बारे में और ज्यादा जानने के लिए गजब का साधन साबित हुआ। हर दूसरे
चौथे वैदिक जी देश के किसी भी अखबार में या किसी दूसरी जगह पर भी जो “गंध” फैलाते
थे वो हवा मुझ तक भी उस ईमेल के जरिए पहुंच आती थी। एकाध-दो लेख तो मैंने पढ़े
लेकिन, फिर समझ में आया कि ये पढ़ने लायक बिल्कुल नहीं है। क्योंकि, वैदिक जी के
किसी लेख में कोई बहुत विश्लेषण या ऐसा कुछ तथ्य भी नहीं होता जिससे कम से कम मेरे
जैसा अल्पबुद्धि वाला पत्रकार थोड़ा बहुत अपनी बुद्धि में वृद्धि की संभावना तलाश
पाता। इसलिए मैंने उसे स्पैम किया और धीरे-धीरे उस विश्वव्यापी वैदिक गंध से मुझे
मुक्ति मिल गई। वैदिक जी की अपार क्षमता का मैं अंदाजा भी नहीं लगा पाता अगर उनके बारे में फेसबुक की कृपा से उनकी अपार प्रतिभा के बारे में पता न लगा होता। वैदिक जी जो सबसे बड़ी ताकत है कि जो लोग आजकल के कुछ पत्रकारों के लिए कहते हैं कि वो तो दलाल है, अंग्रेजी में लायजनिंग करता है, वैदिक जी उससे कहीं बहुत आगे रहे हैं। वैदिक जी ने एक साथ सभी दलों के सत्तासीन लोगों के साथ अपने निजी संबंधों को बेहद ताकतवर बनाने का गजब का नुस्खा खोज रखा है।
वैदिक जी मेरी नजर में इस देश की उस प्रजाति के लोग हैं जो, इस देश में रहते हुए विदेशों से निजी स्तर पर अपने संबंध स्थापित करते हैं और उस आधार पर देश में प्रतिष्ठा पाते हैं। और धीरे-धीरे उन संबंधों के स्थापित करने का सरकारी आधार भी तैयार कर लेते हैं। वैसे इस कला में ज्यादातर माहिर पत्रकार अंग्रेजी के ही रहे हैं। एनडीटीवी की बरखा दत्त जैसे लोग उसमें सबसे आगे पाए जाएंगे। लेकिन, हिंदी के वैदिक जी ने जब ये किया तो गड़बड़ा गए, जो अब जाहिर हो चुका है। विकीपीडिया पर लिखी जानकारी के मुताबिक, वैदिक जी 1944 की पैदाइश हैं जो करीब 70 साल जाकर बैठता है। यानी वैदिक जी भी उसी जमात के हैं जिसके बारे में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर जिक्र करते हैं कि आजादी की लड़ाई में कुछ को मौका मिला और कुछ को देश बदलने का मौका अब मिल रहा है। मुझे जो दिख रहा है कि वैदिक जी उम्र आजादी की लड़ाई में तो शामिल होने की थी नहीं। और अब वो जो कर रहे हैं वो देश की आजादी के साथ समझौता है। एक पत्रकार के तौर पर प्रतिष्ठा लेकर वो कितने पत्रकारीय कर्म कर रहे हैं ये भी बड़े शोध का विषय हो सकता है। तयशुदा आतंकवादी हाफिज सईद से मुलाकात करके अगर वो आते और उस साक्षात्कार को किसी टीवी चैनल या फिर किसी अखबार में अच्छे से दिखाते, छपवाते तो शायद पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के इस कार्य पर किसी को एतराज न होता। लेकिन, सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के साथ वो पाकिस्तान जाते हैं। किसी जरिये से हाफिज सईद से मुलाकात का जुगाड़ बिठाते हैं और फिर पूरे देश में खुद को सर्वाधिक प्रचार-प्रसार वाला पत्रकार साबित कर जाते हैं। ऐसा प्रचार-प्रसार की देश की संसद में दो दिन से वही चर्चायमान हैं। और ऐसा चर्चायमान हुए कि एकदम शांत स्वभाव के और कभी-कभी या सिर्फ चुनावी लिहाज से बोलने वाले कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी बोल पड़े। संसद परिसर में वो बोले कि पता लगाया जाना चाहिए कि भारतीय दूतावास ने हाफिज से वैदिक की मुलाकात तय तो नहीं कराई। किसके इशारे पर वैदिक हाफिज से मिले। फिर ये भी बोले कि वेद प्रताप वैदिक तो आरएसएस के आदमी हैं। हालांकि, संघ की तरफ से तुरंत प्रतिक्रिया भी आ गई कि वैदिक कभी संघ से जुड़े नहीं रहे। लेकिन, जब राहुल गांधी बोल चुके हों और इस विवाद में संघ का नाम जुड़ा हो तो कांग्रेस और दूसरी कुछ विपक्षी पार्टियां वैदिक की गिरफ्तारी की मांग करने से पीछे कैसे रहते। राहुल गांधी के ये कहने के बाद न्यूज चैनलों के लिए ये सहूलियत हो गई कि वो वेद प्रताप वैदिक के लिए अब रामदेव के सहयोगी के अलावा “आरएसएस के आदमी” का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
वैदिक जी मेरी नजर में इस देश की उस प्रजाति के लोग हैं जो, इस देश में रहते हुए विदेशों से निजी स्तर पर अपने संबंध स्थापित करते हैं और उस आधार पर देश में प्रतिष्ठा पाते हैं। और धीरे-धीरे उन संबंधों के स्थापित करने का सरकारी आधार भी तैयार कर लेते हैं। वैसे इस कला में ज्यादातर माहिर पत्रकार अंग्रेजी के ही रहे हैं। एनडीटीवी की बरखा दत्त जैसे लोग उसमें सबसे आगे पाए जाएंगे। लेकिन, हिंदी के वैदिक जी ने जब ये किया तो गड़बड़ा गए, जो अब जाहिर हो चुका है। विकीपीडिया पर लिखी जानकारी के मुताबिक, वैदिक जी 1944 की पैदाइश हैं जो करीब 70 साल जाकर बैठता है। यानी वैदिक जी भी उसी जमात के हैं जिसके बारे में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर जिक्र करते हैं कि आजादी की लड़ाई में कुछ को मौका मिला और कुछ को देश बदलने का मौका अब मिल रहा है। मुझे जो दिख रहा है कि वैदिक जी उम्र आजादी की लड़ाई में तो शामिल होने की थी नहीं। और अब वो जो कर रहे हैं वो देश की आजादी के साथ समझौता है। एक पत्रकार के तौर पर प्रतिष्ठा लेकर वो कितने पत्रकारीय कर्म कर रहे हैं ये भी बड़े शोध का विषय हो सकता है। तयशुदा आतंकवादी हाफिज सईद से मुलाकात करके अगर वो आते और उस साक्षात्कार को किसी टीवी चैनल या फिर किसी अखबार में अच्छे से दिखाते, छपवाते तो शायद पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के इस कार्य पर किसी को एतराज न होता। लेकिन, सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के साथ वो पाकिस्तान जाते हैं। किसी जरिये से हाफिज सईद से मुलाकात का जुगाड़ बिठाते हैं और फिर पूरे देश में खुद को सर्वाधिक प्रचार-प्रसार वाला पत्रकार साबित कर जाते हैं। ऐसा प्रचार-प्रसार की देश की संसद में दो दिन से वही चर्चायमान हैं। और ऐसा चर्चायमान हुए कि एकदम शांत स्वभाव के और कभी-कभी या सिर्फ चुनावी लिहाज से बोलने वाले कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी बोल पड़े। संसद परिसर में वो बोले कि पता लगाया जाना चाहिए कि भारतीय दूतावास ने हाफिज से वैदिक की मुलाकात तय तो नहीं कराई। किसके इशारे पर वैदिक हाफिज से मिले। फिर ये भी बोले कि वेद प्रताप वैदिक तो आरएसएस के आदमी हैं। हालांकि, संघ की तरफ से तुरंत प्रतिक्रिया भी आ गई कि वैदिक कभी संघ से जुड़े नहीं रहे। लेकिन, जब राहुल गांधी बोल चुके हों और इस विवाद में संघ का नाम जुड़ा हो तो कांग्रेस और दूसरी कुछ विपक्षी पार्टियां वैदिक की गिरफ्तारी की मांग करने से पीछे कैसे रहते। राहुल गांधी के ये कहने के बाद न्यूज चैनलों के लिए ये सहूलियत हो गई कि वो वेद प्रताप वैदिक के लिए अब रामदेव के सहयोगी के अलावा “आरएसएस के आदमी” का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
सोचिए जो
आदमी खुद को पत्रकार बता रहा हो उसे देश का कोई भी टीवी न्यूज चैनल पत्रकार नहीं
लिख पा रहा। कुछ तो गंभीर वैदिक संकट होगा वैदिक जी के लिए पत्रकार लिखने पर। अब
मुझे लगता है कि विपक्षी पार्टियों की मांग भले नाजायज हो। लेकिन, वैदिक जी से
पूछा तो जाना ही चाहिए कि ये सब उन्होंने क्यों किया, और किसके कहने पर हाफिज सईद
का मनपरिवर्तन करने चले गए। यानी वैदिक जी की जो मंशा रही होगी, वो सब हो रहा है।
अच्छा है कि सरकार ने बहुत कड़े शब्दों में राहुल गांधी के बताए “आरएसएस के आदमी वैदिक” से पूरी तरह से किनारा कर लिया। वैदिक की
मंशा कितनी विचित्र रही होगी इसका अंदाजा लगाइए कि वैदिक-हाफिज साक्षात्कार कही
नहीं है। सिवाय कुर्सी पर बैठे हाफिज-वैदिक की एक तस्वीर के। लेकिन,
भारत-पाकिस्तान के चैनल वैदिकमय हैं। धन्य हो वैदिक जी। इस देश में एक बड़ी जमात
है जिसकी उम्र हो गई और जो किसी-किसी वजह से ढेर सारी जगहों पर रहा, पाया गया या
फिर ठेला गया। वो इसी रहने, पाए जाने और ठेले जाने को अपनी योग्यता बना ले गया है।
उसी संप्रदाय के अग्रदूत वैदिक जी हैं। अब वैदिक जी ये सब करें किसी को क्या एतराज
हो सकता है। लेकिन, उनकी इस बेहूदगी भरी प्रवृत्ति की वजह से जिस तरह से हाफिज सईद
ने पूरे देश का मजाक बनाने की कोशिश की उसके लिए तो वो दोषी हैं। और इस मामले पर
कड़ाई से उनसे पूछताछ होनी चाहिए। क्योंकि, देश जो दूसरी ढेर सारी बातों के लिए
तैयार हो रहा था, हो गया था। जिस समय देश में बात ब्रिक्स पर होनी चाहिए। जिस समय
बात इस पर होनी चाहिए थी कि महंगाई दर चार महीने के सबसे निचले स्तर पर है। जिस
समय बात इस पर होनी चाहिए थी कि सरकार विकास की प्राथमिकता कितनी तय कर पा रही है।
जिस समय बात होनी चाहिए थी कि बजट का क्या-क्या असर कहां-कहां हो रहा है। चर्चा तो
इस पर भी नहीं हो पाई कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के राष्ट्रपति जी
जिनपिंग से मिले हैं। वेद प्रताप वैदिक के इस आत्मप्रतापी कृत्य की वजह से ये सब
बात पीछे रह गई। हां, टीवी चैनल जरूर लाइव हैं। वैदिक जी का ये आत्मप्रताप देश पर
भारी पड़ रहा है। इसलिए जरूरी है कि आत्मप्रतापी कृत्य को आत्मप्रलाप तक ही सीमित
रहने दिया जाए। ये इतने भूखे हैं कि किसी भी ईमेल आईडी के मिलने भर ये उसमें घुसकर
अपनी विशिष्ट वैचारिक गंध फैलात रहते हैं। इनको वही रहने दिया जाए। इससे ज्यादा
लायक ये नहीं हैं। और नरेंद्र मोदी के लिए ये सलाह कि ऐसे आत्मप्रतापी,
आत्मप्रलापी लोगों को किसी भी कीमत पर सरकार के आसपास न फटकने दें। वरना सारा
एजेंडा ही बदल जाएगा। और अच्छी बात ये कि नरेंद्र मोदी इस सलाह के पहले से ही ये
काम बड़े सलीके से कर चुके हैं।
Friday, July 11, 2014
हम सभ्य रहे बेहूदा तो बस ड्राइवर था!
मुश्किल होती है अगर मैं अपनी बेटी के साथ हूं। क्योंकि, खाली भी है रास्ता लेकिन, बत्ती लाल है तो सड़क पार करने पर बहुत कड़ाई से सुनना पड़ता है। उसे मैंने ही सिखाया था शुरू में नर्सरी के लिए स्कूल छोड़ते वक्त। बताया था कि लाल बत्ती मतलब रुकना, हरी बत्ती मतलब चलना। अब कई बार तो ऐसा भी होता है कि हरी बत्ती रही आखिरी 3-4 सेकेंड में गाड़ी निकालने की कोशिश की और बीच चौराहे पर दूसरी कारों से गुंथ गया। बिटिया मुझे ही समझा देती है कि लाल बत्ती थी गाड़ी क्यों निकाली। अगर उसकी गवाही हो तो मेरा चालान कटना पक्का। आमतौर पर मैं भी लाल बत्ती को अनदेखा नहीं करता। लेकिन, आज सुबह दफ्तर आते समय एक चौराहे पर लाल बत्ती पर मैं रुका। तेजी से आती बस के 'बेहूदे' ड्राइवर ने जैसे कुछ देखा ही नहीं। सीधे चौराहा पार करा दिया। उसकी बहुत बड़ी बस के सामने छोटी-बड़ी कारें चुपचाप हरी बत्ती पर भी रुक गईं। और उस 'बेहूदे' ड्राइवर की बड़ी बस की आ़ड़ में हम जैसे लोग भी अपनी सभ्यता छिपाए चौराहा पार कर गए। उसकी 'बेहूदगी' दिख गई हमारी 'सभ्यता' बच गई।
Wednesday, July 09, 2014
रेल बजट में नया कुछ नहीं!
ठीक किया। रेल बजट में राज्यों को ये, राज्यों को वो टाइप चलाने को नहीं दिया। लेकिन, ये बताते कि कितने समय में क्या करेंगे। और यूपीए की जो योजनाएं नहीं लागू हो पाईं उसे कैसे, कब तक लागू करेंगे तो, बेहतर होता। आखिर इतनी उम्मीद तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की जा सकती है। क्योंकि, वो पूरे चुनावी भाषणों में और उसके बाद भी बड़ी समय सीमा की बात करते रहे हैं। खुद डी वी सदानंद गौड़ा ने पिछली सरकार की जो सबसे बड़ी नाकामी बताई वो भी यही रही कि उन्होंने दस साल में 99 योजनाएं बताईं लेकिन, सिर्फ एक लागू कर पाई। अब जब समयसीमा खुद नहीं बताया तो उस पर सवाल तो उठेगा ही। और इसीलिए रेल बजट का भरोसा दिलाने के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संदेश प्रसारित हुआ। वरना ये जिम्मा सिर्फ और सिर्फ रेल मंत्रियों के लिए सर्वाधिकार सुरक्षित था। इसके पीछे वजह यही होगी कि @narendramodi को पता है कि भरोसा बनना या टूटना सब उन्हीं के मत्थे जाने वाला है। नरेंद्र मोदी को पता था कि राज्यों को क्या मिला, क्या नहीं इस पर बहस होगी ही। इसलिए उन्होंने कहाकि पहली बार समग्र राष्ट्र के लिए रेल बजट पेश हुआ है।
लेकिन, राज्यों के लिहाज से सरकार के हर फैसले को देखने समझने के आदी रहे लोग कहां मानने वाले हैं। जाने माने संपादक ओम थानवी जी दुखी हैं कि @narendramodi गुजरात के प्रधानमंत्री हैं या पूरे देश के। अभी हमारे एक साथी भी दुखी थे कि मुंबई से अहमदाबाद क्यों बुलेट ट्रेन की बात की। ये दिल्ली से पटना भी तो हो सकती थी। अरे भाई इस तरह की प्रतिक्रिया देने से पहले ये सोचिए कि बुलेट ट्रेन के टिकट बिकें इसके लिए अभी मुंबई से अहमदाबाद से बेहतर कौन सी जगह हो सकती थी। और जानकारी बढ़े इसके लिए इसी रूट पर सर्वे यूपीए की सरकार के समय भी हुआ था।
एक और चमत्कारिक काम हुआ है। नरेंद्मार मोदी की सरकार पूरी तरह से उद्योगपतियों की हितैषी है। ये आरोप जमकर लगते रहे हैं। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले रेल बजट को बाजार ने ठीक नहीं समझा। आमतौर पर माना यही जाता है कि जनकल्याणकारी योजनाओं पर ज्यादा रकम देने से बाजारू ताकतें दुखी होती हैं। फिर रेल बजट के बाद बाजार क्यों टूटा। दरअसल हुआ ये कि बाजार को भी कुछ नहीं मिला। जनकल्नयाणकारी एलान न होने से न नई रेल कोच फैक्ट्री मिली, न डिब्बा। पहले की घोषित योजना पूरी करने से बाजार का क्या भला होता। क्योंकि, उसकी तो वो पहले ही खा चुका है। तो ये है बाजार। इसलिए 31000 का सेंसेक्स इसी दिवाली खोजने वालों थोड़ा धैर्य रखो। वैसे सामाजिक न्य़ाय के ज्यादातर पक्षधर लोग सबसे ज्यादा नाराज बुलेट ट्रेन से ही हैं। वो खुलकर नहीं कह पाते वरना वो ट्रेनों को बेहतर करने का भी जमकर विरोध करते। ऐसे विरोधी लोगों का तर्क ये है कि भारतीय रेल गरीबों का साधन है। कमाल की बात ये है कि ऐसा कहने वाले ज्यादातर चलते एसी क्लास में ही है। भइया तो का करें भारतीय रेल को और गरीब बना दें कि वो खुद ही गरीब हो जाए और गरीबों को सफर कराने लायक भी न रह जाए। होना यही चाहिए कि भारतीय रेल इस हालत में पहुंचे कि गरीबों को भी अमीरों जैसी सुविधाएं दे सके।
और अगर ध्यान से देखें तो मोदी सरकार बातें भले नई-नई करे। बुलेट, पीपीपी, विश्व स्तरीय स्टेशन, साफ सफाई, सुरक्षा। बस यही सब। सच्चाई ये है कि सब पुराना है। कुछ नया पेश नहीं कर पाई है @narendramodi की सरकार। नया बस ये है कि वोट बैंक वाली ट्रेनें, योजनाएं बजट में घोषित नहीं हुई हैं। जिससे वो पुरानी बातें लागू हो सकती हैं। जिससे रेलवे की सूरत बदल सकती है। बस यही नया है। इसलिए इंतजार करते हैं इस नए का।
लेकिन, राज्यों के लिहाज से सरकार के हर फैसले को देखने समझने के आदी रहे लोग कहां मानने वाले हैं। जाने माने संपादक ओम थानवी जी दुखी हैं कि @narendramodi गुजरात के प्रधानमंत्री हैं या पूरे देश के। अभी हमारे एक साथी भी दुखी थे कि मुंबई से अहमदाबाद क्यों बुलेट ट्रेन की बात की। ये दिल्ली से पटना भी तो हो सकती थी। अरे भाई इस तरह की प्रतिक्रिया देने से पहले ये सोचिए कि बुलेट ट्रेन के टिकट बिकें इसके लिए अभी मुंबई से अहमदाबाद से बेहतर कौन सी जगह हो सकती थी। और जानकारी बढ़े इसके लिए इसी रूट पर सर्वे यूपीए की सरकार के समय भी हुआ था।
एक और चमत्कारिक काम हुआ है। नरेंद्मार मोदी की सरकार पूरी तरह से उद्योगपतियों की हितैषी है। ये आरोप जमकर लगते रहे हैं। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले रेल बजट को बाजार ने ठीक नहीं समझा। आमतौर पर माना यही जाता है कि जनकल्याणकारी योजनाओं पर ज्यादा रकम देने से बाजारू ताकतें दुखी होती हैं। फिर रेल बजट के बाद बाजार क्यों टूटा। दरअसल हुआ ये कि बाजार को भी कुछ नहीं मिला। जनकल्नयाणकारी एलान न होने से न नई रेल कोच फैक्ट्री मिली, न डिब्बा। पहले की घोषित योजना पूरी करने से बाजार का क्या भला होता। क्योंकि, उसकी तो वो पहले ही खा चुका है। तो ये है बाजार। इसलिए 31000 का सेंसेक्स इसी दिवाली खोजने वालों थोड़ा धैर्य रखो। वैसे सामाजिक न्य़ाय के ज्यादातर पक्षधर लोग सबसे ज्यादा नाराज बुलेट ट्रेन से ही हैं। वो खुलकर नहीं कह पाते वरना वो ट्रेनों को बेहतर करने का भी जमकर विरोध करते। ऐसे विरोधी लोगों का तर्क ये है कि भारतीय रेल गरीबों का साधन है। कमाल की बात ये है कि ऐसा कहने वाले ज्यादातर चलते एसी क्लास में ही है। भइया तो का करें भारतीय रेल को और गरीब बना दें कि वो खुद ही गरीब हो जाए और गरीबों को सफर कराने लायक भी न रह जाए। होना यही चाहिए कि भारतीय रेल इस हालत में पहुंचे कि गरीबों को भी अमीरों जैसी सुविधाएं दे सके।
और अगर ध्यान से देखें तो मोदी सरकार बातें भले नई-नई करे। बुलेट, पीपीपी, विश्व स्तरीय स्टेशन, साफ सफाई, सुरक्षा। बस यही सब। सच्चाई ये है कि सब पुराना है। कुछ नया पेश नहीं कर पाई है @narendramodi की सरकार। नया बस ये है कि वोट बैंक वाली ट्रेनें, योजनाएं बजट में घोषित नहीं हुई हैं। जिससे वो पुरानी बातें लागू हो सकती हैं। जिससे रेलवे की सूरत बदल सकती है। बस यही नया है। इसलिए इंतजार करते हैं इस नए का।
Sunday, July 06, 2014
पहले जात फिर बात
कहां से रुकेगा जातिवाद। एक ही दिन में दो ऐसी घटनाएं हुईं। जिससे ये रुकना बड़ा मुश्किल लगता है। अब ढेर सारे अंतर्जातीय विवाह होकर नौजवान जातियों को गड्डमड्ड कर दें तो बात अलग है। महंगाई पर चिंतित केंद्र सरकार ने राज्यों को खाद्य मंत्रियों की बैठक दिल्ली में बुलाई थी। विज्ञान भवन में उसी बैठक में उत्तर प्रदेश के खाद्य मंत्री रघुराज प्रताप सिंह भी आए हुए थे। पहली बार मेरी उनसे मुलाकात हुई। हमारे गांव अब उन्हीं की विधानसभा में आता है। पहली बार मैं उनसे मिला और ये परिचय भी दिया कि मैं भी प्रतापगढ़ का हूं। अच्छी खासी बात हुई। महंगाई, उत्तर प्रदेश सरकार और नरेंद्र मोदी के जादू पर। दूसरे कई पत्रकार भी थे। इतने में एक राष्ट्रीय टीवी चैनल के एक पत्रकार जोश में आए और नमस्कार राजा भैया करके तुरंत बताया कि मैं भी ठाकुर हूं बिहार का। रघुराज प्रताप सिंह मुस्कुराए और मैं जोर से हंस पड़ा। वहां से निकल गया। शाम को घर आया तो एक फोन आया। उसने कहा आपका लेख शुक्रवार में पढ़ा। आपसे एक सलाह लेना चाहता हूं। वो लड़का अच्छा काम कर रहा है। गांव-गांव घूमकर वहां की थोड़ी अलग घटनाओं पर डायरी लिखता है। अच्छा काम कर रहा है तो उसे वो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहता है। मैंने उसे इंटरनेट का सहारा लेने को कहा। लेकिन, डरते-सहमते एक बात जो उसने बोली तो मैं हिल गया। उसने कहाकि मैंने आपके नाम में त्रिपाठी देखा तो आपको फोन कर लिया। मैंने उसे समझाया कि तुम जो गांव-गांव घूमकर अच्छा काम कर रहे हो अगर त्रिपाठी देखकर मुझे फोन कर रहे हो तो वो अच्छा काम बेकार हो जाएगा। और तुम्हारे नाम के आगे त्रिपाठी या कुछ भी लगा होता तो भी मैं ऐसे ही बात करता। इतनी ही बात करता। लेकिन, इन दोनों घटनाओं से जाति की मुश्किल और बड़ी होती दिखी।
Saturday, July 05, 2014
NGO की राखी खरीदोगे!
कई बार मैं गंभीरता से सोचता हूं कि पत्रकारिता से मुक्ति लेकर समाज का काम किया जाए। जाहिर सामाजिक काम ठीक से करने के लिए गैर सरकारी संगठन चलाना एक बेहतर रास्ता है। लेकिन, ज्यादातर जिस तरह से एनजीओ चलता रहा है। उससे शंका ज्यादा होती है। फिर लगता है कि इससे बेहतर तो यही किया जाए। अभी एनजीओ वर्करों की एक तगड़ी फौज ने देश में क्रांतिकारी बदलाव किए। और एक पूरी की पूरी पार्टी ही क्रातिकारियों की तैयार कर दी। आम आदमी पार्टी ने सत्ता भी हासिल कर ली। ढेर सारे विवाद खड़े हुए, अन्ना आंदोलन के समय ही। खासकर फंडिंग को लेकर। स्रोत को लेकर कि कहां से एनजीओ को रकम मिल रही है। नरेंद्र मोदी की सरकार आने के साथ ही ये खबरें भी आईं कि कई एनजीओ की फंडिंग पर सरकार नियंत्रण करने जा रही है। क्योंकि, विदेशी ताकतें साजिश कर रही हैं। ये एक विषय हुआ। लेकिन, सुबह ये विज्ञापन मैंने देखा तो मेरी बुद्धि बल खाने लगी। अंग्रेजी के राष्ट्रीय अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा ये विज्ञापन राखी खरीदने के लिए बुला रहा है। निमंत्रण पत्र में बताया गया है कि राखी बेचने का ये काम एक एनजीओ करेगा। ये सबकुछ दिल्ली के मशहूर होटल अशोक में होगा। साथ ही नीचे राखी के साथ कपड़े, तोहफे और दूसरे बिक सकने वाले सामानों की सूची भी बताई गई है। अब मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि राखी बेचना या कपड़े, तोहफे बेचना एनजीओ का काम कैसे हो सकता है। हांलांकि, ये मैं समझ रहा हूं कि किसी न किसी तरीके से इसको गरीब बच्चों के लिए धन जुटाने या दूसरे सामाजिक काम के लिए धन जुटाना साबित किया जा रहा होगा। लेकिन, मुझे लगता है कि ये जरूरी है कि केंद्र सरकार देश भर में एनजीओ का काम करने के लिए जरूरी शर्तें तय करे। कौन-कौन से क्षेत्र होंगे वो तय करे और किसी महंगे होटल में राखी बेचना तो किसी भी तरीके से एनजीओ के काम में शामिल नहीं होगा ये तय करे।
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एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी
Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...
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आप लोगों में से कितने लोगों के यहां बेटियों का पैर छुआ जाता है। यानी, मां-बाप अपनी बेटी से पैर छुआते नहीं हैं। बल्कि, खुद उनका पैर छूते हैं...
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हमारे यहां बेटी-दामाद का पैर छुआ जाता है। और, उसके मुझे दुष्परिणाम ज्यादा दिख रहे थे। मुझे लगा था कि मैं बेहद परंपरागत ब्राह्मण परिवार से ह...
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पुरानी कहावतें यूं ही नहीं बनी होतीं। और, समय-समय पर इन कहावतों-मिथकों की प्रासंगिकता गजब साबित होती रहती है। कांग्रेस-यूपीए ने सबको साफ कर ...