Tuesday, July 29, 2014

ईद

ईदगाह कहानी कुछ दिन पहले स्कूल से आई। अमोली के स्कूल से। मैंने पढ़ाया उसे। हालांकि, ईदगाह की कहानी पढ़ाने के लिए मुझे स्कूल से आए उस डेढ़ पन्ने को पढ़ने की जरूरत नहीं थी। बचपन में पढ़ी ईदगाह एकदम से याद है। बिना कई बार पढ़े भी। मैंने एक बार प्रेमचंद को याद करते हुए ईदगाह को ही याद किया था। संदर्भ अलग थे। लेकिन, ईदगाह से काफी कुछ रिश्ते सहेजने वाली बात समझ में आती है। दादी, बच्चे का रिश्ता। संवेदना, कम में संतुष्टि, समाजशास्त्र, सामाजिक संतुलन। हामिद का चिमटा तो यही सिखाता है। आज ईदगाह की कहानी याद आई ईद की वजह से। बिटिया कल से ही ईद मनाना चाह रही है।

सवाल ये है कि हम ईद कैसे मनाएं। बचपन से ही कभी ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि, हम किसी ऐसी जगह रहे नहीं जहां बगल में मुसलमान रहते हों। बगल में न रहने पर भी कुछ लोग, कुछ लोगों के यहां जाकर हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई कर लेते हैं। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि कहां हिन्दू मुसलमान एक साथ रह पाते हैं। रहते हैं तो दंगा करते हैं। मारकाट करते हैं। तो फिर कैसे ईद पता हो अमोली को। और शायद मैं भी डरूंगा ऐसी वाली हिन्दू मुसलमान की सोहबत से। ऐसा पड़ोस जो सहारनपुर, मुरादाबाद और मुजफ्फरनगर बना दे। हालांकि, अच्छी बात ये है कि हमारी सोसाइटी में हमारे घर के ठीक नीचे ही मुसलमान परिवार रहता है। और जब कई दिनों के लिए घर छोड़कर जाना हुआ तो मेरी पत्नी को ही वो धीरे-धीरे ये कहकर गईं कि आते-जाते नजर रख लीजिएगा। यही सच भी है। हम सबसे ज्यादा भरोसा अपने पड़ोसी, आसपास पर ही कर पाते हैं। लेकिन, जब आसपास, पड़ोस ऐसे ईंट-पत्थर फेंकने लगें, घर, दुकान जलाने लगें तो कौन ऐसा पड़ोस चाहेगा। हर कोई डरेगा क्या हिन्दू, क्या मुसलमान। अमोली बड़ी होगी तो धीरे-धीरे ये सब समझ जाएगी। लेकिन, मैं डर ये रहा हूं कि क्या सवाल तब भी वही रहेगा। जहां तक ईद की सेंवई की बात रही तो शाम को घर पर सेंवई ही बनेगी।

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