साझा ऑटो से मैं चला लेकिन, अकेला ही था। रास्ते में एक और यात्री उसने बैठाया। हमसे पहले वो यात्री उतर गया। 7 रुपये हुआ था। लेकिन, उसने कहा 3 रुपये छुट्टा नहीं है और ये कहकर 10 रुपये रख लिए। मैंने कहा ये अच्छा किया। तो उसने कहा- कल कम देंगे तो वो भी ले लूंगा। वो जो सामने घर दिख रहा है। उसी के पीछे के घर में रहते हैं। मैंने हंसते हुए कहा तुम तो अपने यात्रियों पर गजब नजर रखते हो। उसने कहा रखना पड़ता है सर। ये जहां खड़े थे वहां से आने के बाद कौन क्या कर जाए, क्या पता। मैंने कहा - कहां खड़े थे। उसने कहा शराब की दुकान के सामने थे। उसने कहा कुछ हो गया तो मैं बता तो सकूंगा। मुझे लगा अगर उस ऑटो वाले जैसे सारे शहरी जागरूक हो जाएं तो पुलिस का आधा काम ही न रह जाए। समाज में बढ़ते अपराध, नौजवानों का गलत राह पर जाना। ये सब इस वजह से भी ज्यादा हो रहा है कि शहरी समाज में अपने पड़ोसी की भी न तो चिंता है। और न ही उसके अच्छे, बुरे से कोई फर्क पड़ता है। समाज ने नजर बंद कर ली है तो, भला समाज का भला कैसे हो सकता है। समाज की आंखें बंद है और समाज चल भी रहा है तो जाहिर है दुर्घटना तो होगी है। जाहिर है दुर्घटना से बचने के लिए समाज को आंख खोलनी होगी और समाज हम सब हैं। उस ऑटो वाले की तरह।
देश की दशा-दिशा को समझाने वाला हिंदी ब्लॉग। जवान देश के लोगों के भारत और इंडिया से तालमेल बिठाने की कोशिश पर मेरे निजी विचार
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राजनीतिक संतुलन के साथ विकसित भारत का बजट
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