गाजियाबाद में हज हाउस की शुरुआत करते अखिलेश, आजम खां |
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सुनिए तो ऐसा लगता है कि
उत्तर प्रदेश मानो सचमुच उत्तम प्रदेश बन गया हो। अखिलेश यादव चुनौती देते से नजर
आते हैं कि दम है तो विकास पर चुनाव लड़ो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय
जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह भी सिर्फ विकास पर ही चुनाव लड़ने को आतुर नजर
आते हैं। यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती भी कहती है कि सर्वजन
समाज का विकास करना है तो बीएसपी को सत्ता में लाना पड़ेगा। मायावती नोएडा-ग्रेटर
नोएडा और लखनऊ के सड़क, पार्क के विकास को अपने मॉडल के तौर पर दिखाती हैं। अखिलेश
यादव कह रहे हैं कि रिकॉर्ड समय में आगरा से लखनऊ का ग्रीनएक्सप्रेस वे तैयार हो
रहा है। नोएडा से लेकर लखनऊ और लखनऊ से बलिया तक वो शानदार सड़कों से जोड़ने का
दावा कर रहे हैं। कह रहे हैं कि मेट्रो भी रिकॉर्ड समय में उत्तर प्रदेश में चलेगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाजियाबाद से शुरू होकर हापुड़ तक जाने वाले 14 लेन
के एक्सप्रेस वे की प्रक्रिया शुरू कर दी है। नेशनल हाईवे के जरिए केंद्र तेजी से
सड़के बनाने की बात कर रहे है और ये भी सही है कि उनमें से सबसे ज्यादा एक्सप्रेस
वे उत्तर प्रदेश से ही गुजर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय लड़ाई में दिखने
वाली हर पार्टी यूपी के विकास की ही बात कर रही है। लंबे समय से सत्ता से बाहर
कांग्रेस भी 27 साल यूपी बेहाल नारे के साथ ही चुनाव में है। अगर सिर्फ इन नेताओं
के भाषण से देखा जाए तो लगता है कि भगवान राम की अयोध्या वाले उत्तर प्रदेश में
सचमुच रामराज आ गया है। ऐसा लगता है जैसे उत्तर प्रदेश से सुखी राज्य शायद ही कोई
हो। अच्छा भी लगता है कि देश के सबसे बड़े प्रदेश में हर पार्टी विकास पर चुनाव
लड़ना चाह रही है। लेकिन, इसी विकास को हटाकर अगर रोजगार को चुनावी मुद्दा बना
दिया जाए तो शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी ठसके के साथ चुनावी मैदान में टिक पाएगी।
बदल रहा है उत्तर प्रदेश का नारा समाजवादी पार्टी खूब प्रचारित कर रही
है। अब जरा बानगी देखिए। उत्तर प्रदेश में अगस्त महीने में 40 हजार सफाईकर्मियों
के पदों पर भर्ती के लिए विज्ञापन निकला। लाखों लोगों ने इसके लिए आवेदन किया है।
बरसों से काम करते आ रहे वाल्मीकि समाज के लोगों से ज्यादा सामान्य वर्ग और पिछड़े
वर्ग के लोग सफाईकर्मी बनने के लिए मुकाबले में हैं। मेरठ में 2355 पदों को लिए
80000 लोगों ने आवेदन किया है और इसमें से करीब 50000 सामान्य और पिछड़े हैं।
अमरोहा में सिर्फ 114 पदों के लिए 19000 लोगों ने आवेदन किया है। इनमें एमबीए से
लेकर इंजीनियर तक हैं। और ये सिर्फ एकाध मामले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में
बेरोजगारी इतनी गंभीर समस्या बन चुकी है कि उतना शायद राजनेताओं की सोच में आता ही
नहीं। क्योंकि, उनकी रैली में तो गला फाड़कर नारा लगाने वाले सबसे ज्यादा नौजवान
ही होते हैं। अखिलेश यादव के उत्तर प्रदेश में जब 2015 में जब चपरासी की नियुक्ति
के लिए आए आवेदनों से बेरोजगारी का खतरा साफ दिख जाता है। 368 पदों के लिए 23 लाख
लोग कतार में थे। इसमें से 150000 के पास स्नातक की डिग्री और करीब 25000 के पास
परास्नातक की डिग्री है। ढेर सारे डॉक्टरेट भी हैं। यानी उत्तर प्रदेश के करीब
200000 नौजवान एमए, बीए की डिग्री लेकर चपरासी बनना चाहते हैं। ये उत्तर प्रदेश के
नौजवानों की निराशा और हताशा साफ दिखाता है। 2017 में नई सरकार बन जाएगी। और उस
सरकार के सामने बेरोजगारी की समस्या कितनी बड़ी होगी, इसे समझिए। नेशनल सैंपल
सर्वे ऑर्गनाइजेशन का आंकड़ा बता रहा है कि 2017 तक 1 करोड़ नए बेरोजगार होंगे। ये
5 साल यानी 2012-2017 के बीच नौकरी के लिए कतार में आने वाले नए बेरोजगार हैं। यही
5 साल हैं जब प्रदेश का मुख्यमंत्री विकास पर अपनी सरकार के काम गिनाते नहीं थक
रहा है। और इस एक करोड़ में पुराने करीब 42 लाख बेरोजगार जोड़ दें तो उत्तर प्रदेश
में जो भी नई सरकार आएगी। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती इन्हीं 1.5 करोड़ नौजवानों
को नौकरी देना होगा।
नौकरी के लिए कतार में लगे 1.5 करोड़ नौजवानों के बावजूद उत्तर प्रदेश
के चुनावों में रोजगार मुद्दा नहीं है। विकास पर पार्टियां लड़ने और चुनाव लड़ने
को तैयार हैं। लेकिन, रोजगार पर नहीं। इसकी बड़ी वजह ये है कि तेजी से बदलते
रोजगार के परिदृष्य में मशीनों ने रोजगार के मौके घटाए हैं। और उत्तर प्रदेश में
तो कई वजहें एकसाथ हैं।
लंबे समय से प्रदेश के किसी हिस्से में कोई नया, बड़ा निवेश नहीं हुआ
है।
देश में निजीकरण की नीतियों को उत्तर प्रदेश की सरकारें राज्य के
लिहाज से तब्दील करने में बुरी तरह नाकाम रहीं।
नोएडा-ग्रेटर नोएडा में नाममात्र का ही नया निवेश हुआ। उसमें भी कोई
बड़ी संख्या में रोजगार देने वाली कंपनी नहीं आई।
खेती से तेजी से उत्तर प्रदेश के लोगों का मोहभंग हुआ है। इसकी सबसे
बड़ी वजह खेती से कई बार लागत का भी न निकल पाना है। अखिलेश सरकार के इन 5 सालों
में ही 49 लाख लोग खेती से बाहर हुए हैं। खेती में उत्तर प्रदेश में अब 53% से भी कम लोग लगे
हैं। जबकि, उत्तर प्रदेश में पहले 78% लोग खेती से जुड़े थे।
बेहतर जीवनस्तर के लिए खेती पर कम लोगों की निर्भरता अच्छी खबर हो
सकती थी। लेकिन, खेती से बाहर हो रहे इन लोगों के पास रोजगार का कोई दूसरा मौका
नहीं बन सका। खेती से बाहर हुए लोगों में से 10% लोगों को ही दूसरा बेहतर काम मिल सका है। एक समय
में उत्तर प्रदेश का कानपुर देश के बड़े कारोबारी शहरों में से एक था। कलकत्ता और
कानपुर दोनों के उद्योग की देश में बड़ी पहचान थी। दोनों ही शहरों में उद्योगों
में ट्रेड यूनियन ने बुरा हाल कर दिया। अब हाल ये है कि लाल इमली जैसे मशहूर
ब्रांड की फैक्टरी पर ताला लग चुका है। टेक्सटाइल और चमड़े दोनों का कारोबार अब
यहां से तेजी से हटा है। लगभग यही हाल उत्तर प्रदेश के हर औद्योगिक क्षेत्र का है।
फिर वो इलाहाबाद का मशहूर नैनी औद्योगिक क्षेत्र हो जौनपुर का सतहरिया हो या फिर
गोरखपुर का गीडा। कहने को तो उत्तर प्रदेश के लगभग हर बड़े शहर के बाहर एक
औद्योगिक क्षेत्र है। लेकिन, खराब बुनियादी सुविधाओं और कानून व्यवस्था के बुरे
हाल की वजह से उद्योगपति आने को तैयार नहीं हैं। और ये सच भी है कि कानपुर को छोड़
दें तो उत्तर प्रदेश के बने नए औद्योगिक क्षेत्रों की ताकत निजी कंपनियां नहीं
थीं। दरअसल सरकारी कंपनियों की वजह से ही इन औद्योगिक क्षेत्रों की पहचान थी। उदाहरण
के लिए गंगा, यमुना से घिरे इलाहाबाद के एक ओर यमुना के पार नैनी इंडस्ट्रियल
इस्टेट में पचास के दशक में कई सरकारी और गैर सरकारी कंपनियों को लगाकर ये कोशिश
की गई कि इलाहाबाद के और इसके आसपास के लोगों को यहीं पर रोजगार मिल सके। आईटीआई, बीपीसीएल, रेमंड, जीई, त्रिवेणी ग्लास जैसी
प्रतिष्ठित कंपनियां नैनी में लगीं। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, हालात खराब होने लगे
यहां नौकरी करने वाले ज्यादातर लोग स्थानीय थे,
इस वजह से यूनियन में राजमीति हावी होने लगी और
वो राजनीति भी ऐसी कि किसी भी सही परिवर्तन को लागू होने से रोकना ही राजनीति मानी
जाती थी। मुझे याद है कि मैंने बचपन से एक कांग्रेसी नेता को देखा जो, सिर्फ इसीलिए जाने
जाते थे कि वो फैक्ट्री में नेता थे और राजनीति कांग्रेस की करते थे। यमुनापार में
नैनी तो गंगापार में फूलपूर औद्योगिक क्षेत्र में इफको। लेकिन, जब 90 के दशक में
देश के दूसरे राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक निजी
निवेश के लिए हरसंभव कोशिश करने में जुट गए थे। तब उत्तर प्रदेश 5 प्रधानमंत्री
देने के अपने दंभ में डूबा हुआ था। हां, ये जरूर हुआ कि ढेर सारे निजी
इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज खुल गए। बीए, एम, बीएड की डिग्री थोक में बांटने वाले
निजी संस्थान भी खुल गए। लेकिन, यहां से डिग्री लेकर निकलने वालों को रोजगार देने
का कोई इंतजाम सरकारें नहीं कर सकीं। नतीजा ये कि कोई भी बड़ी निजी कंपनी उत्तर प्रदेश
में अपना कारोबार लगाने नहीं आई। दिल्ली से लगे होने की वजह से नोएडा-ग्रेटर नोएडा
में भले कुछ कंपनियां आईं हों लेकिन, वो ज्यादातर बीपीओ और आईटी क्षेत्र की
कंपनियां थीं या फिर शिक्षा के बड़े ब्रांड। इनमें उतना रोजगार संभव नहीं था जो,
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के नौजवानों की क्षमता का इस्तेमाल कर पाता। दुख की
बात ये है कि उत्तर प्रदेश के नौजवानों के लिए सबसे बड़ा रोजगार का जरिया किसी
राजनीतिक दल से जुड़ना ही रह गया है। और उससे भी बड़े दुख का विषय ये कि 2017 के
चुनाव में भी किसी राजनीतिक दल के लिए रोजगार मुद्दा नहीं है।
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)
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