किसान अब कर्ज के बोझ से आत्महत्या नहीं करेंगे। अब वो खेती के लिए पैसा न मिलने से आत्महत्या करेंगे। ये सुनने बहुत कड़वा लग रहा है। लेकिन, कड़वी सच्चाई यही है। आज के अखबारों में ये खबर है जो, कल से ही मुझे पता थी क्योंकि, मेरे चैनल पर ये स्टोरी चल रही थी। देश के सबसे बड़े बैंक (ये सरकारी बैंक है) स्टेट बैंक ऑफ इंडिया यानी SBI ने सर्कुलर जारी करके अपनी शाखाओं को कहा है कि वो, किसानों को नए कर्ज न दें। सर्कुलर साफ कह रहा है कि सरकार ने किसानों के कर्ज माफ कर दिए हैं इसलिए नए कर्ज न दिए जाएं क्योंकि, वो वापस आने की उम्मीद नहीं है।
सूत्रों के मुताबिक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से लिए गए किसानों के कर्ज 7,000 करोड़ रुपए से ज्यादा के हैं जो, वापस नहीं आने हैं। ये बैंक के कुल NPA यानी वापस न आने वाले कर्ज का 17 प्रतिशत है। लेकिन, मुझे समझ में नहीं आता कि कोई सरकारी बैंक क्या सरकार की बिना मर्जी के इस तरह से किसानों को कर्ज देना रोक सकता है। वो, भी ठीक मॉनसून के पहले। जब किसानों को कर्ज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। बुआई-खेती का ये अहम समय होता है। और अगर माननीय वित्त मंत्री चिदंबरम साहब बैंकों को किसानों की कर्जमाफी का पूरा पैसा दे रहे हैं तो, फिर बैंकों को तो, ऐसा पैसा मिल रहा है जो, वापस नहीं आने वाला था। यानी वो, NPA नहीं रह जाता। फिर, बैंक किसानों को कर्ज क्यों नहीं दे रहे हैं। इसका मतलब कि वित्तमंत्री के बजट भाषण, उसके बाद टीवी चैनलों और अखबारों में दिए गए बयान - कि बैंकों पर कर्जमाफी का कोई बोझ नहीं पड़ेगा उसकी भरपाई सरकार करेगी - में कुछ गड़बड़झाला है।
साफ है कि कांग्रेस चुनाव के ठीक पहले लोकलुभावन बजट पेश करके चार करोड़ किसानों का वोटबैंक पक्का करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कर्जमाफी का एलान कर तो दिया लेकिन, बैंकों को अब तक कर्जमाफी का पैसा बैंकों को नहीं मिला। अब सरकार की आंख इस बात पर क्यों नहीं खुल रही है कि अगर किसानों को मॉनसून के पहले खेती के लिए जरूरी पैसा नहीं मिला तो, वो कर्जमाफ होने के बाद भी बिना खेती के भूखों मर जाएंगे।
दरअसल, ये पूरी तरह से हावी होता बाजारवाद है जो, साफ कहता है कि कर्ज उसको दो जो, उस पर ढेर सारा ब्याज लगाकर उनको लौटाता रहे। ठीक सूदखोर महाजन की तरह उन्हें मूल की नहीं। उस पर आने वाले ब्याज की होती है। इसीलिए बैंक कर्ज भी या तो बहुत बड़े देना पसंद कर रहे हैं। या फिर ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत यावत जीवेत सुखम जीवेत के सिद्धांत वाले कमाऊ खर्चीले कुंवारों या फिर कमाऊ खर्चीले दंपति को ही कर्ज दे रही है।
इसीलिए देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक (देश में बैंकिंग की तसवीर बदलने वाला प्राइवेट बैंक ICICI बैंक ) ने भी चुपचाप स्मॉल टिकट लोन यानी छोटे कर्जे देना बंद कर दिया है। हां, चालाकी ये कि इसके लिए बैंक ने फिलहाल कोई सर्कुलर नहीं जारी किया है। लेकिन, लाख-पचास हजार रुपए का कर्ज अब नहीं दे रही है। इसके पीछे चिदंबरम की कर्जमाफी नहीं है। इसके पीछे है अदालतों का वो आदेश जो, आए दिन रिकवरी एजेंटों के जरिए बैंकों की होने वाली दादागिरी पर लगाम लगाने की बात कहता है। RBI ने भी साफ कहा है कि बैंक दादागिरी नहीं कर सकते। मुंबई के ICICI बैंक से पचास हजार रुपए का लोन लेने वाले प्रकाश सरवंकर को बैंक के रिकवरी एजेंटों ने धमकाया तो, सरवंकर ने आत्महत्या कर ली और मीडिया, अदालत के दबाव में बैंक को सरवंकर के परिवार को 16 लाख रुपए देना पड़ा। बस, अब बैंक छोटे कर्ज नहीं देना चाहता।
बैंकिंग एक्सपर्ट भी कहते हैं कि छोटे कर्ज वसूलना बैंकों के लिए मुश्किल भी होता है और खर्चीला भी। कभी-कभी तो, कर्ज वसूलने में बैंक का खर्च वसूले गए कर्ज से भी ज्यादा हो जाता है। इसी वजह से क्रेडिट कार्ड सबसे ज्यादा बिक रहे हैं। बैंक क्रेडिट कार्ड दिल खोलकर देते हैं। ऑफिसेज के बाहर बैंक के एग्जिक्यूटिव्स क्रेडिट कार्ड के फॉर्म का बंडल लेकर खड़े रहते हैं कि कोई ऑफिस का पट्टा लटकाए निकले और उसे एक कार्ड बेचकर अपना कमीशन पक्का और टार्गेट पूरा कर लें। इसी में एक जमात ऐसी भी पैदा हो गई है जो, क्रेडिट कार्डों के भरोसे जीना सीख गई है।
ये जमात पैसे की मोहताज नहीं है। इसे किसानों की तरह खेती के लिए या सरवंकर की तरह अपना परिवार चलाने के लिए कर्ज की जरूरत नहीं है। इसे मेट्रो में हर रोज खुल रहे मॉल्स के स्टोर्स से नया ब्रांड खरीदना है। गुची का चश्मा, मार्क एंड स्पेंसर के कपड़े, नाइके के जूते पहनने हैं। मल्टीप्लेक्स में पिक्चर देखनी है। और, ये जमात चालाक हो गई है। सरवंकर की आत्महत्या इनको हिम्मत दे गई है। ये बैंक के क्रेडिट कार्ड का कर्ज नहीं चुका रहे हैं। ये बैंक को सरवंकर की तरह आत्महत्या करने की धमकी दे रहे हैं। ये 4-4 क्रेडिट कार्ढ बनवाकर उस पर लिमिट भर का पैसा खर्च करके उसे तोड़कर फेंक रहे हैं। बैंक इनसे सलीके से बात करते हैं। क्योंकि, ये बिना जरूरत वाले कर्जधारी हैं। जरूरत वाले किसान और सरवंकर जैसे कर्जधारी बैंक के लिए NPA बन गए हैं। इसीलिए बैंक किसानों को और सरवंकर जैसे लोगों को कर्ज नहीं देंगे खामखां आत्महत्या करेंगे ये नामुराद और इज्जत जाएगी बैंक और सरकार की। क्रेडिट कार्ड लेने वाले आत्महत्या नहीं करते इसलिए इनके कर्ज अब भी बंट रहे हैं। आखिरकार चिदंबरम साहब की ग्रोथ स्टोरी बढ़ाने में ऐसे खर्च करने वाले कंज्यूमर भी तो शामिल हैं। अच्छा है अब सरवंकर और किसान कर्ज के बोझ से तो आत्महत्या नहीं ही कर पाएंगे। वाह रे चिदंबरम चमत्कार ..
मीडिया का दबाव
मीडिया में ये खबरें आने के दो दिन बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने सभी अखबारों-टीवी चैनलों को रिलीज जारी करके सफाई दी कि उन्होंने ट्रैक्टर के लिए लोन न देने का सर्कुलर वापस ले लिया है। लेकिन, अभी भी ये साफ नहीं है कि खेती के लिए दूसरे कर्ज मिलेंगे या नहीं।
सूत्रों के मुताबिक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से लिए गए किसानों के कर्ज 7,000 करोड़ रुपए से ज्यादा के हैं जो, वापस नहीं आने हैं। ये बैंक के कुल NPA यानी वापस न आने वाले कर्ज का 17 प्रतिशत है। लेकिन, मुझे समझ में नहीं आता कि कोई सरकारी बैंक क्या सरकार की बिना मर्जी के इस तरह से किसानों को कर्ज देना रोक सकता है। वो, भी ठीक मॉनसून के पहले। जब किसानों को कर्ज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। बुआई-खेती का ये अहम समय होता है। और अगर माननीय वित्त मंत्री चिदंबरम साहब बैंकों को किसानों की कर्जमाफी का पूरा पैसा दे रहे हैं तो, फिर बैंकों को तो, ऐसा पैसा मिल रहा है जो, वापस नहीं आने वाला था। यानी वो, NPA नहीं रह जाता। फिर, बैंक किसानों को कर्ज क्यों नहीं दे रहे हैं। इसका मतलब कि वित्तमंत्री के बजट भाषण, उसके बाद टीवी चैनलों और अखबारों में दिए गए बयान - कि बैंकों पर कर्जमाफी का कोई बोझ नहीं पड़ेगा उसकी भरपाई सरकार करेगी - में कुछ गड़बड़झाला है।
साफ है कि कांग्रेस चुनाव के ठीक पहले लोकलुभावन बजट पेश करके चार करोड़ किसानों का वोटबैंक पक्का करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कर्जमाफी का एलान कर तो दिया लेकिन, बैंकों को अब तक कर्जमाफी का पैसा बैंकों को नहीं मिला। अब सरकार की आंख इस बात पर क्यों नहीं खुल रही है कि अगर किसानों को मॉनसून के पहले खेती के लिए जरूरी पैसा नहीं मिला तो, वो कर्जमाफ होने के बाद भी बिना खेती के भूखों मर जाएंगे।
दरअसल, ये पूरी तरह से हावी होता बाजारवाद है जो, साफ कहता है कि कर्ज उसको दो जो, उस पर ढेर सारा ब्याज लगाकर उनको लौटाता रहे। ठीक सूदखोर महाजन की तरह उन्हें मूल की नहीं। उस पर आने वाले ब्याज की होती है। इसीलिए बैंक कर्ज भी या तो बहुत बड़े देना पसंद कर रहे हैं। या फिर ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत यावत जीवेत सुखम जीवेत के सिद्धांत वाले कमाऊ खर्चीले कुंवारों या फिर कमाऊ खर्चीले दंपति को ही कर्ज दे रही है।
इसीलिए देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक (देश में बैंकिंग की तसवीर बदलने वाला प्राइवेट बैंक ICICI बैंक ) ने भी चुपचाप स्मॉल टिकट लोन यानी छोटे कर्जे देना बंद कर दिया है। हां, चालाकी ये कि इसके लिए बैंक ने फिलहाल कोई सर्कुलर नहीं जारी किया है। लेकिन, लाख-पचास हजार रुपए का कर्ज अब नहीं दे रही है। इसके पीछे चिदंबरम की कर्जमाफी नहीं है। इसके पीछे है अदालतों का वो आदेश जो, आए दिन रिकवरी एजेंटों के जरिए बैंकों की होने वाली दादागिरी पर लगाम लगाने की बात कहता है। RBI ने भी साफ कहा है कि बैंक दादागिरी नहीं कर सकते। मुंबई के ICICI बैंक से पचास हजार रुपए का लोन लेने वाले प्रकाश सरवंकर को बैंक के रिकवरी एजेंटों ने धमकाया तो, सरवंकर ने आत्महत्या कर ली और मीडिया, अदालत के दबाव में बैंक को सरवंकर के परिवार को 16 लाख रुपए देना पड़ा। बस, अब बैंक छोटे कर्ज नहीं देना चाहता।
बैंकिंग एक्सपर्ट भी कहते हैं कि छोटे कर्ज वसूलना बैंकों के लिए मुश्किल भी होता है और खर्चीला भी। कभी-कभी तो, कर्ज वसूलने में बैंक का खर्च वसूले गए कर्ज से भी ज्यादा हो जाता है। इसी वजह से क्रेडिट कार्ड सबसे ज्यादा बिक रहे हैं। बैंक क्रेडिट कार्ड दिल खोलकर देते हैं। ऑफिसेज के बाहर बैंक के एग्जिक्यूटिव्स क्रेडिट कार्ड के फॉर्म का बंडल लेकर खड़े रहते हैं कि कोई ऑफिस का पट्टा लटकाए निकले और उसे एक कार्ड बेचकर अपना कमीशन पक्का और टार्गेट पूरा कर लें। इसी में एक जमात ऐसी भी पैदा हो गई है जो, क्रेडिट कार्डों के भरोसे जीना सीख गई है।
ये जमात पैसे की मोहताज नहीं है। इसे किसानों की तरह खेती के लिए या सरवंकर की तरह अपना परिवार चलाने के लिए कर्ज की जरूरत नहीं है। इसे मेट्रो में हर रोज खुल रहे मॉल्स के स्टोर्स से नया ब्रांड खरीदना है। गुची का चश्मा, मार्क एंड स्पेंसर के कपड़े, नाइके के जूते पहनने हैं। मल्टीप्लेक्स में पिक्चर देखनी है। और, ये जमात चालाक हो गई है। सरवंकर की आत्महत्या इनको हिम्मत दे गई है। ये बैंक के क्रेडिट कार्ड का कर्ज नहीं चुका रहे हैं। ये बैंक को सरवंकर की तरह आत्महत्या करने की धमकी दे रहे हैं। ये 4-4 क्रेडिट कार्ढ बनवाकर उस पर लिमिट भर का पैसा खर्च करके उसे तोड़कर फेंक रहे हैं। बैंक इनसे सलीके से बात करते हैं। क्योंकि, ये बिना जरूरत वाले कर्जधारी हैं। जरूरत वाले किसान और सरवंकर जैसे कर्जधारी बैंक के लिए NPA बन गए हैं। इसीलिए बैंक किसानों को और सरवंकर जैसे लोगों को कर्ज नहीं देंगे खामखां आत्महत्या करेंगे ये नामुराद और इज्जत जाएगी बैंक और सरकार की। क्रेडिट कार्ड लेने वाले आत्महत्या नहीं करते इसलिए इनके कर्ज अब भी बंट रहे हैं। आखिरकार चिदंबरम साहब की ग्रोथ स्टोरी बढ़ाने में ऐसे खर्च करने वाले कंज्यूमर भी तो शामिल हैं। अच्छा है अब सरवंकर और किसान कर्ज के बोझ से तो आत्महत्या नहीं ही कर पाएंगे। वाह रे चिदंबरम चमत्कार ..
मीडिया का दबाव
मीडिया में ये खबरें आने के दो दिन बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने सभी अखबारों-टीवी चैनलों को रिलीज जारी करके सफाई दी कि उन्होंने ट्रैक्टर के लिए लोन न देने का सर्कुलर वापस ले लिया है। लेकिन, अभी भी ये साफ नहीं है कि खेती के लिए दूसरे कर्ज मिलेंगे या नहीं।