Tuesday, May 06, 2008

टिप्पणियों ने 2 पोस्ट को 7 पोस्ट बना दिया

कई बार ब्लॉगरों में ये चर्चा होती है कि हम स्वांत: सुखाय के लिए लिखते हैं। कुछ लोग कहते रहे हैं कि हमें टिप्पणियों से भी खास लेना-देना नहीं हैं। लेकिन, मेरा मानना है कि टिप्पणी एक नई ऊर्जा देती हैं जो, ब्लॉगर को आगे लिखने में मदद करता है। मैं अभी छुट्टियों में इलाहाबाद अपने घर गया था। वहां से गांव भी गया और एक मित्र की शादी में जौनपुर भी। लौटकर सोचा कि एक पोस्ट लिख मारूंगा। फिर पोस्ट लंबी होने की वजह से इसे दो कड़ियों में लिखने की सोचा। लेकिन, पहली पोस्ट पर मिली टिप्पणियां और मेरे लेख के साथ लोगों के जुड़ाव ने मुझे दूसरी, .... सातवीं कड़ी तक लिखने को प्रेरित कर दिया। अब टिप्पणियां कितनी महत्वपूर्ण हैं इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है। टिप्पणियां भी बहुत अच्छी आई हैं लेकिन, समय के अभाव के चलते टिप्पणियों और टिप्पणी करने वालों के अलग-अलग देने के बजाए मैं फिर से सातों पोस्ट के लिंक दे रहा हूं। सभी का आभार जिन्होंने मुझे ये सीरीज लिखने को प्रेरित किया।


ज्ञानदत्तजी, समीर भाई, दिनेशराय द्विवेदीजी, लावण्याजी, रवींद्र प्रभात, ममताजी, संजय शर्मा, अनिल रघुराज, सिद्धार्थजी, विमलजी, प्रमोद सिंहजी, सौरभ, अविनाश वाचस्पति, डॉ. चंद्र कुमार जैन, चंद्रभूषणजी, अभय तिवारी, नीरज गोस्वामी, रंजय, आशा जोगेलकरजी, भुवन भास्कर, अभिषेक ओझा, डॉ. अनुराग आर्या, कुश एक खूबसूरत ख्याल, चौराहा की टिप्पणियों ने मझे ये लिखने का संबल दिया।


कहीं कुछ बदल तो रहा है लेकिन, अजीब सा ठहराव आ गया है

बाजार से बदलता गांव में प्यार और दुराव का समीकरण

सरकती जींस के नीचे दिखता जॉकी का ब्रांड और गांव में आधुनिकता

टीटी-जेई सब मेरे गांव में ही रहते हैं कहीं नहीं जाते

गांवों में सूखती-सिकुड़ती जमीन का जिम्मेदार हम-आप

लखनऊ की सत्ता से गांवों में बदलती सामाजिक-आर्थिक हैसियत

यूपी रोडवेज से सफर, एसी सलून और एटीएम की लाइन

19 comments:

  1. ओह्ह लगता है हम सारी सात पोस्ट तक सोते रह गये...हमारा नाम ही नही आया...:(

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  2. अब इतना उम्दा यात्रा संस्मरण लिखोगे तो टिपणियाँ तो आयेंगी ही. हाँ, मगर इनसे हौसला बढ़्ता है, यह मैं मानता हूँ. शुभकामनायें.

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  3. मुझे तो लगा आप की यात्रा अभी और चलेगी। कम से कम चौदह कड़ियाँ तो होतीं। वास्तव में गांव कस्बों के बारे में बहुत कम लिखा जा रहा है। कुछ और भी विस्तार होता तो अच्छा लगता। हम विसंगतियों की चर्चा करते हैं, लेकिन जो सुसंगतियाँ हैं उन्हें और सत्मूल्यों को छोड़ देते हैं। इन पर भी लिखा जाना चाहिए। आप ने बहुत ही अच्छे से इसे अभिव्यक्त किया। अब बताएं अब की गांव कब जा रहे हैं?

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  4. " जो सुसंगतियाँ हैं उन्हें और सत्मूल्यों को छोड़ देते हैं। इन पर भी लिखा जाना चाहिए। "
    ये दिनेश जी ने बहुत सही कहा -- आप की सभी प्रविष्टीयाँ उम्दा लिखी गयीँ -
    इसी तरह लिखते रहियेगा
    - लावण्या

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  5. Anonymous11:28 PM

    ek hi vaar mein hum saath post padh gaye,behad umada gaon ka chitran,shahar ki daud bhag mein raahatbahut khub.sab pasand aaye.sunitaji ki tarah hum bhi bahut late latif hai:);)

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  6. Anonymous12:28 AM

    आपकी सात कड़ियाँ ग्राम्याञ्चल का सतरंगी इंद्रधनुष बना गयीं। कुछ रंग छूट गये होंगे तो इसलिए कि ग्रामीण जीवन के आयाम इतने विस्तृत हैं कि उन्हे समेटने के लिये प्रेमचंद जैसे महान कथाकर को करीब तीन सौ कहानियाँ और दर्जन भर उपन्यास लिखने पड़े। फिर भी चित्र पूरा हुआ क्या? ‘राग दरबारी’ ने क्या सबकुछ दिखा दिया? नहीं न? फिर …??

    आपका प्रयास कुछ नये शिल्पियों को रास्ता बताने वाला है। नये ही क्यों, कुछ पुराने सिद्धहस्त भी इस ओर आगे बढ़ें तो अच्छी बातें सामने आयेंगी। पुनः साधुवाद।

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  7. अब देखो, चोन्‍हा रहे हो. चोन्‍हाने की बजाय इस फिराक में रहो कि कैसे इस लिखे को ज़रा व्‍यवस्थित करके पचास पेजी पुस्तिकाकार शक्‍ल में छपवा सको..

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  8. नमस्कार हर्ष जी। अपनी पिछली नौकरी के दौरान हमने उत्तर प्रदेश के 30 जिले देखे और उनके कई गाँव भी, पर ग्रामीण परिवेश को भरपूर जीने का मौका कभी नहीं मिला। हाँ, अपने शहर इलाहाबाद को ही बहुत बदलते देखकर अन्दाजा लगा सकता हूँ कि ये हवा आसपास भी जरूर चली होगी।
    छोटे-छोटे कपड़ों में घूमती लड़कियाँ और घुटने छूकर आदर करने का 'एहसान' करने वाले लड़के भी इसी हवा का नतीजा हैं। खैर ! है तो हवा ही, हमारे आपके रोकने से तो रुकने को रही, हाँ खुद को इस चक्रवात से जितना दूर रख सकें, वही बेहतर है।
    वैसे हैं तो आप खबरों के आदमी, पर ब्लॉग लिखते समय कई बार भाषा साहित्यिक हो जाती है.. बहुत अच्छी बात है। इस मंच पर आकर तो प्रेरणा भी द्विदिशी हो जाती है, आपके लेखों से सभी को, और उनकी टिप्पणियों से आपको!
    सभी लेख बेहतरीन रहे।

    आपके नये ब्लॉग की प्रतीक्षा में..

    नीरज चड्ढा

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  9. This comment has been removed by a blog administrator.

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  10. हर्ष जी अच्छा हुआ जो आपने सारे लिंक दे दिए है क्यूंकि बीच मे हमसे कुछ कडियाँ छूट गई थी।

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  11. इतना बढिया लिखेंगे तो और क्या होगा?? अब कमेंटस की बौछाड़ तो झेलना ही होगा ना.. :)

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  12. हर्ष जी
    आप ने संस्मरण लिखे ही इस निराले अंदाज़ में हैं की टिप्पणी दिए बिना कोई बच के निकल ही नहीं सकता है. भाषा और कथ्य की दृष्टि से आप के सारे लेख विलक्षण थे. गावं की मिटटी की महक से ओतप्रोत थे आप के लेख.याद रखिये:
    टिप्पणी भीख में नहीं मिलती
    टिप्पणी हक से मांगी जाती है
    नीरज

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  13. टिपण्णी से तो हौसला मिलता ही है, पर आपकी इस श्रृंखला में एक और बात थी... कहीं न कहीं ये अपने कहानी लग रही थी, ये बदलाव आपकी नज़र से देखना अच्छा लगा...

    और पाठक उस पोस्ट पर टिपण्णी किए बिना नहीं जाते, जिससे वो अपने आप को जोड़ पाते हैं और जहाँ उन्हें अपनापन सा दिखता है....

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  14. Anonymous9:46 PM

    This comment has been removed by a blog administrator.

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  15. वास्तव में टिप्पणी नयी उर्ज़ा देती है

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  16. हर्षभाई क्षमा करना अति व्यस्तता के चलते पहली कड़ी के बाद एक भी नहीं देख पाया था और फिर बात जेहन से निकल गई। सारे लिंक एक जगह दे देकर भला किया । जल्दी ही सारे पढ़कर लिखता हूं।

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  17. घटनावों को जिवंत बनाना , लेखन की एक विशेष शैली हैं ,जिसमे आपने महारत hasil कर ली हैं । बेहद रोचक ,और सजीव चित्रण के लिए आप को धन्यवाद

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  18. क्रम बनाए रखें, लिखते रहें.

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