दुनिया के सबसे जवान देशों में से भारत के जवान तरक्की कर रहे हैं। इंजीनियर बन रहे हैं, डॉक्टर बन रहे हैं, बीपीओ में रात-रात भर जागकर अंग्रेजी बोलने की नौकरी कर रहे हैं। मैनेजमेंट कोर्स कर रहे हैं, मीडिया में किस्मत आजमा रहे हैं। सरकारी नौकरी के लिए आधा जीवन बिता दे रहे हैं। बड़े-बड़े बिजनेस कर रहे हैं। यानी वो सबकुछ कर रहे हैं जिससे उनको लग रहा है कि तरक्की की जा सकती है। लेकिन, शायद ही कोई लड़का या लड़की नेता बनना चाहता है। चाहता भी है तो, सोचता है और फिर उस रास्ते की दुश्वारियां देखकर रास्ते से ही लौट आता है।
सवाल ये कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में जहां चुने हुए लोग ही देश चलाते हैं। कायदे-कानून बनाते हैं देश में रहने वालों के लिए शर्तें तय करते हैं। सरकार, इंडस्ट्री, किसी भी बिजनेस के लिए पॉलिसी बनाते हैं, वहां कोई युवा नेता क्यों नहीं बनना चाहता है। और, ये तब है जब देश की हर समस्या के लिए नेता ही जिम्मेदार माना जाता है। यहां तक कि हर कोई ये भी दुहाई देता मिल जाता है कि अगर नेता सुधर जाएं तो, देश सुधर जाएगा। फिर कोई लड़का-लड़की नेता क्यों नहीं बनना चाहता। सुधार में खुद शामिल क्यों नहीं होना चाहता। साठ साल के आजाद भारत में आधे से भी ज्यादा नौजवान हैं यानी 30 साल से कम उम्र के हैं। इसलिए ये और भी जरूरी हो जाता है कि ये नई उम्र के लोग राजनीति में जाएं। लेकिन, शायद ही नेतागिरी करने वाले किसी लड़के-लड़की की हिम्मत घरवाले, रिश्तेदार, समाज के लोग बढ़ाते हैं।
राजनीति की शुरुआत करने वाले हर युवा को घर वालों से लेकर आसपास के लोग पहले ही एक ऐसा प्राणी घोषित कर देते हैं जिसका कोई भविष्य नहीं है। दरअसल राजनीति में किसी को तरक्की का रास्ता नहीं दिखता। इसलिए लोग तरक्की वाले करियर तो अपना लेते हैं, राजनीति में नहीं जाना चाहते हैं। मैं भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान राजनीति से जुड़ा रहा। आंदोलन भी किए, छात्र संगठन से जुड़कर हर तरह के रचनात्मक काम किए। सेमिनार कराए। लेकिन, इसके बावजूद आसपास के लोग सिर्फ ये कहकर कि ठीक है थोड़ा बहुत लोगों से जान पहचान के लिए ठीक है, किसी ने इसी में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। यहां तक कि लोगों को यही लगता था कि अब तो ये लड़का क्या कर पाएगा। इसका दबाव घर पर मेरे पिताजी पर भी पड़ता रहा होगा। ये अलग बात है कि मुझे आज भी ये लगता है कि मेरे व्यक्तित्व का बेहतर विकास छात्र राजनीति के दौरान ही हुआ।
यही समाज की वो मानसिकता है जिसकी वजह से शायद युवा पीढ़ी एकदम से ही राजनीति से दूर होती चली गई है। देश के दूसरे राज्यों के लोग तो, यूपी-बिहार के लोगों का इसलिए भी मजाक उड़ाते हैं कि इन दोनों राज्यों के लड़के-लड़कियों का राजनीति से कुछ न कुछ रिश्ता होता ही है। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि देश में इंदिरा सरकार के खिलाफ आंदोलन में जय प्रकाश नारायण के साथ इन राज्यों के लोगों ने पूरी शिद्दत से हिस्सा लिया। और, इंदिरा की सत्ता उलट देने से इन राज्यों के युवाओं को कुछ ज्यादा भरोसा भी है कि इस रास्ते से भी बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन, जब इंदिरा की सत्ता उलटने के बाद सत्ता में आए जेपी आंदोलन के लोग ही युवाओं को रास्ते दिखाने में असफल हो गए तो, युवाओं का राजनीति से नैतिक मनोबल टूट गया। इसके अलावा उन लोगों ने भी छात्रों-युवाओं के राजनीति में आने का रास्ता बंद कर दिया जो, इस रास्ते से लोकप्रिय हुए लेकिन, छात्र संघ की राजनीति को आगे की राजनीति का जरिया न मानकर उसे ही पैतृक व्यवसाय समझने लगे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की राजनीति के दौरान मैंने देखा है कि 40-42 साल की उम्र तक चुनाव
लड़ना तो, अधिकार ही समझा जाता था। और, इस कैंपस में बुढ़ाते युवा नेता को पाला पोसा,
विधानसभा-लोकसभा में बैठे उन नेताओं ने। जिनको डर था कि अगर ये ताकतवर नेता विश्वविद्यालय परिसर से बाहर निकलकर विधानसभा-लोकसभा का रास्ता देखने की सोचने लगा तो, उनकी ताकत खत्म हो जाएगी। और, अगर कम उम्र में ही ये कायदे-कानून बनाने वाली जगह पहुंच गया तो, शायद सत्ता के विरोध वाली उसकी आदत की वजह से चुपचाप चल रहे सहूलियत वाले भ्रष्ट सिस्टम पर भी चोट होने लगेगी।
विश्वविद्यालयों से निकले नेताओं में से कुछ भले ही बुढ़ाते-बुढाते कुछ ऊपर की राजनीतिक पायदान पर पहुंचे। लेकिन, ज्यादातर असफल होकर आसपास समाज में असफलता की मिसाल बन गए। जमाना बदल रहा था, जरूरतें बदल रही थीं। और, युवा पीढ़ी के पास इतना समय भी नहीं कि वो, सफल होने के लिए 40-50 साल का होने का इंतजार करे। वो, मार्केटिंग मैनेजमेंट का कोर्स करके झोला उठाकर चार हजार की नौकरी करने लगा, रात-रात भर जागकर जुबान टेढ़ी-मेढ़ी करके विदेशियों से बात करके तरक्की करने लगा। लेकिन, राजनीति के जरिए तरक्की के लिए उसका धैर्य-साहस मर गया।
वैसे आजकल कहा जा रहा है जवान भारत की संसद लोकसभा में भी आने वाले जवान बढ़े हैं। प्रिया दत्त, सचिन पायलट, उमर अब्दुल्ला, मानवेंद्र सिंह, राहुल गांधी जैसे ढेरों चमकते चेहरे वाले सांसदों का नाम गिनाकर चर्चा की जाती है कि देश बदल रहा है, राजनीति बदल रही है, युवा राजनीति में दिलचस्पी ले रहा है। लेकिन, क्या ये वो युवा है जिसकी राजनीति में जरूरत है। इनके आने से किसी को गुरेज नहीं है। लोकिन, ये वो सारे नाम हैं जिनके लिए राजनीति कुछ समझने-करने का नहीं पैतृक व्यवसाय को चलाना भर है। राजनीति का ये पैतृक व्यवसाय अच्छे से चला तो, राजनीतिक विरासत आगे भी मजबूती से जाएगी नहीं तो, उसके बाद वाली पीढ़ी को थोड़ी मुश्किल झेलनी पड़ेगी। अब राजनीति में इन युवाओं की टोली कितना बदलाव कर पाएंगे जिनके लिए पिता-माता की राजनीतिक विरासत को संभालना ही सबसे बड़ी काबिलियत है।
भारत में जिन भी क्षेत्रों में बदलाव हुए हैं। वहां पैतृक घरानों के अलावा नए लोगों ने आगे बढ़कर नए क्षेत्र में जोखिम उठाया। नारायण मूर्ति, धीरूभाई अंबानी, किशोर बियानी ऐसे ही लोग थे। इन लोगों ने जिस उम्र में अपने-अपने क्षेत्रों में कुछ करने की कोशिश की थी। वहां इनके लिए कुछ नहीं था। ऐसा युवा वर्ग राजनीति में क्यों नहीं आ रहा है। कॉलेज में किसी छात्र संगठन के सदस्य छात्रों की संख्या क्यों लगातार कम होती जा रही है।वैसे बिना किसी पृष्ठभूमि के राजनीति में आना इतना आसान भी नहीं है।
उत्तर प्रदेश में आईआईटी के कुछ छात्रों ने मिलकर लोक परित्राण नाम से राजनीतिक दल भी बनाया। कुछ सीटों पर चुनाव भी लड़ा। लेकिन, सफलता हाथ नहीं लगी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में ही बीजेपी ने भी कई सीटों पर ABVP से निकले कई युवा नेताओं को टिकट दिया था। जिनके पास कोई भी राजनीतिक विरासत नहीं थी। इन युवाओं ने अच्छे से चुनाव लड़ा। ये अलग बात है कि बीजेपी की जमीन पहले से ही खिसक चुकी थी। और, उत्तर प्रदेश में मायावती के जादुई समीकरण के आगे आईआईटी से निकले युवाओं की ही तरह बीजेपी के टिकट पर लड़े युवाओं को भी सफलता नहीं मिल पाई लेकिन, इनमें से ज्यादातर ऐसे थे जो, राजनीति को विश्वविद्यालय के दिनों से ही करियर की तरह संवार रहे हैं। बेईमान नहीं हैं। अब आगे इनका क्या भविष्य होगा मैं नहीं जानता। मुझे नहीं पता आईआईटी से निकले छात्रों की पार्टी अब क्या कर रही है। और, कितनी गंभीरता से अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही है। लेकिन, इसी तरह की कोशिश की जरूरत है। आजादी के साठ साल बाद जवान भारत के लिए ये भी जरूरी है कि वो राजनीति को भी उसी गंभीरता से ले।
जिस गंभीरता से आईटी, बीपीओ, मैनेजमेंट या फिर दूसरे किसी सेक्टर में अपना करियर बनाने की कोशिश करता है। नेताओं पर जिस तरह से लोगों का भरोसा उठ रहा है, उसमें ये और भी जरूरी हो जाता है। क्योंकि, भारत को कोई तो दिशा दे ही रहा होगा। और, अगर ये दिशा देने वाले अब भी आजादी के समय की आजाद भारत के बचपन वाली सोच के लोग ही रह गए तो, फिर देश का लोकतांत्रिक ढांचा भी कमजोर होगा।
किसी भी पार्टी में पार्टी के ही बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों-बहुओं को छोड़ दें तो, शायद ही एक भी चमकता चेहरा ऐसा मिले जिसकी उम्र 50 साल से कम हो। इस जवान देश के लिए इस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है। और, कैंपस में राजनीति में शामिल होने वाले दूसरे क्षेत्रों में असफल हो जाते हैं, ये मिसाल देने वालों को मैं बस इतना ही बताना चाहूंगा कि देश में बैंकिंग की सूरत बदल देने वाले ICICI बैंक के चेयरमैन के वी कामत खुद भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान यूनियन के सेक्रेटरी थे।
सवाल ये कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में जहां चुने हुए लोग ही देश चलाते हैं। कायदे-कानून बनाते हैं देश में रहने वालों के लिए शर्तें तय करते हैं। सरकार, इंडस्ट्री, किसी भी बिजनेस के लिए पॉलिसी बनाते हैं, वहां कोई युवा नेता क्यों नहीं बनना चाहता है। और, ये तब है जब देश की हर समस्या के लिए नेता ही जिम्मेदार माना जाता है। यहां तक कि हर कोई ये भी दुहाई देता मिल जाता है कि अगर नेता सुधर जाएं तो, देश सुधर जाएगा। फिर कोई लड़का-लड़की नेता क्यों नहीं बनना चाहता। सुधार में खुद शामिल क्यों नहीं होना चाहता। साठ साल के आजाद भारत में आधे से भी ज्यादा नौजवान हैं यानी 30 साल से कम उम्र के हैं। इसलिए ये और भी जरूरी हो जाता है कि ये नई उम्र के लोग राजनीति में जाएं। लेकिन, शायद ही नेतागिरी करने वाले किसी लड़के-लड़की की हिम्मत घरवाले, रिश्तेदार, समाज के लोग बढ़ाते हैं।
राजनीति की शुरुआत करने वाले हर युवा को घर वालों से लेकर आसपास के लोग पहले ही एक ऐसा प्राणी घोषित कर देते हैं जिसका कोई भविष्य नहीं है। दरअसल राजनीति में किसी को तरक्की का रास्ता नहीं दिखता। इसलिए लोग तरक्की वाले करियर तो अपना लेते हैं, राजनीति में नहीं जाना चाहते हैं। मैं भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान राजनीति से जुड़ा रहा। आंदोलन भी किए, छात्र संगठन से जुड़कर हर तरह के रचनात्मक काम किए। सेमिनार कराए। लेकिन, इसके बावजूद आसपास के लोग सिर्फ ये कहकर कि ठीक है थोड़ा बहुत लोगों से जान पहचान के लिए ठीक है, किसी ने इसी में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। यहां तक कि लोगों को यही लगता था कि अब तो ये लड़का क्या कर पाएगा। इसका दबाव घर पर मेरे पिताजी पर भी पड़ता रहा होगा। ये अलग बात है कि मुझे आज भी ये लगता है कि मेरे व्यक्तित्व का बेहतर विकास छात्र राजनीति के दौरान ही हुआ।
यही समाज की वो मानसिकता है जिसकी वजह से शायद युवा पीढ़ी एकदम से ही राजनीति से दूर होती चली गई है। देश के दूसरे राज्यों के लोग तो, यूपी-बिहार के लोगों का इसलिए भी मजाक उड़ाते हैं कि इन दोनों राज्यों के लड़के-लड़कियों का राजनीति से कुछ न कुछ रिश्ता होता ही है। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि देश में इंदिरा सरकार के खिलाफ आंदोलन में जय प्रकाश नारायण के साथ इन राज्यों के लोगों ने पूरी शिद्दत से हिस्सा लिया। और, इंदिरा की सत्ता उलट देने से इन राज्यों के युवाओं को कुछ ज्यादा भरोसा भी है कि इस रास्ते से भी बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन, जब इंदिरा की सत्ता उलटने के बाद सत्ता में आए जेपी आंदोलन के लोग ही युवाओं को रास्ते दिखाने में असफल हो गए तो, युवाओं का राजनीति से नैतिक मनोबल टूट गया। इसके अलावा उन लोगों ने भी छात्रों-युवाओं के राजनीति में आने का रास्ता बंद कर दिया जो, इस रास्ते से लोकप्रिय हुए लेकिन, छात्र संघ की राजनीति को आगे की राजनीति का जरिया न मानकर उसे ही पैतृक व्यवसाय समझने लगे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की राजनीति के दौरान मैंने देखा है कि 40-42 साल की उम्र तक चुनाव
लड़ना तो, अधिकार ही समझा जाता था। और, इस कैंपस में बुढ़ाते युवा नेता को पाला पोसा,
विधानसभा-लोकसभा में बैठे उन नेताओं ने। जिनको डर था कि अगर ये ताकतवर नेता विश्वविद्यालय परिसर से बाहर निकलकर विधानसभा-लोकसभा का रास्ता देखने की सोचने लगा तो, उनकी ताकत खत्म हो जाएगी। और, अगर कम उम्र में ही ये कायदे-कानून बनाने वाली जगह पहुंच गया तो, शायद सत्ता के विरोध वाली उसकी आदत की वजह से चुपचाप चल रहे सहूलियत वाले भ्रष्ट सिस्टम पर भी चोट होने लगेगी।
विश्वविद्यालयों से निकले नेताओं में से कुछ भले ही बुढ़ाते-बुढाते कुछ ऊपर की राजनीतिक पायदान पर पहुंचे। लेकिन, ज्यादातर असफल होकर आसपास समाज में असफलता की मिसाल बन गए। जमाना बदल रहा था, जरूरतें बदल रही थीं। और, युवा पीढ़ी के पास इतना समय भी नहीं कि वो, सफल होने के लिए 40-50 साल का होने का इंतजार करे। वो, मार्केटिंग मैनेजमेंट का कोर्स करके झोला उठाकर चार हजार की नौकरी करने लगा, रात-रात भर जागकर जुबान टेढ़ी-मेढ़ी करके विदेशियों से बात करके तरक्की करने लगा। लेकिन, राजनीति के जरिए तरक्की के लिए उसका धैर्य-साहस मर गया।
वैसे आजकल कहा जा रहा है जवान भारत की संसद लोकसभा में भी आने वाले जवान बढ़े हैं। प्रिया दत्त, सचिन पायलट, उमर अब्दुल्ला, मानवेंद्र सिंह, राहुल गांधी जैसे ढेरों चमकते चेहरे वाले सांसदों का नाम गिनाकर चर्चा की जाती है कि देश बदल रहा है, राजनीति बदल रही है, युवा राजनीति में दिलचस्पी ले रहा है। लेकिन, क्या ये वो युवा है जिसकी राजनीति में जरूरत है। इनके आने से किसी को गुरेज नहीं है। लोकिन, ये वो सारे नाम हैं जिनके लिए राजनीति कुछ समझने-करने का नहीं पैतृक व्यवसाय को चलाना भर है। राजनीति का ये पैतृक व्यवसाय अच्छे से चला तो, राजनीतिक विरासत आगे भी मजबूती से जाएगी नहीं तो, उसके बाद वाली पीढ़ी को थोड़ी मुश्किल झेलनी पड़ेगी। अब राजनीति में इन युवाओं की टोली कितना बदलाव कर पाएंगे जिनके लिए पिता-माता की राजनीतिक विरासत को संभालना ही सबसे बड़ी काबिलियत है।
भारत में जिन भी क्षेत्रों में बदलाव हुए हैं। वहां पैतृक घरानों के अलावा नए लोगों ने आगे बढ़कर नए क्षेत्र में जोखिम उठाया। नारायण मूर्ति, धीरूभाई अंबानी, किशोर बियानी ऐसे ही लोग थे। इन लोगों ने जिस उम्र में अपने-अपने क्षेत्रों में कुछ करने की कोशिश की थी। वहां इनके लिए कुछ नहीं था। ऐसा युवा वर्ग राजनीति में क्यों नहीं आ रहा है। कॉलेज में किसी छात्र संगठन के सदस्य छात्रों की संख्या क्यों लगातार कम होती जा रही है।वैसे बिना किसी पृष्ठभूमि के राजनीति में आना इतना आसान भी नहीं है।
उत्तर प्रदेश में आईआईटी के कुछ छात्रों ने मिलकर लोक परित्राण नाम से राजनीतिक दल भी बनाया। कुछ सीटों पर चुनाव भी लड़ा। लेकिन, सफलता हाथ नहीं लगी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में ही बीजेपी ने भी कई सीटों पर ABVP से निकले कई युवा नेताओं को टिकट दिया था। जिनके पास कोई भी राजनीतिक विरासत नहीं थी। इन युवाओं ने अच्छे से चुनाव लड़ा। ये अलग बात है कि बीजेपी की जमीन पहले से ही खिसक चुकी थी। और, उत्तर प्रदेश में मायावती के जादुई समीकरण के आगे आईआईटी से निकले युवाओं की ही तरह बीजेपी के टिकट पर लड़े युवाओं को भी सफलता नहीं मिल पाई लेकिन, इनमें से ज्यादातर ऐसे थे जो, राजनीति को विश्वविद्यालय के दिनों से ही करियर की तरह संवार रहे हैं। बेईमान नहीं हैं। अब आगे इनका क्या भविष्य होगा मैं नहीं जानता। मुझे नहीं पता आईआईटी से निकले छात्रों की पार्टी अब क्या कर रही है। और, कितनी गंभीरता से अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही है। लेकिन, इसी तरह की कोशिश की जरूरत है। आजादी के साठ साल बाद जवान भारत के लिए ये भी जरूरी है कि वो राजनीति को भी उसी गंभीरता से ले।
जिस गंभीरता से आईटी, बीपीओ, मैनेजमेंट या फिर दूसरे किसी सेक्टर में अपना करियर बनाने की कोशिश करता है। नेताओं पर जिस तरह से लोगों का भरोसा उठ रहा है, उसमें ये और भी जरूरी हो जाता है। क्योंकि, भारत को कोई तो दिशा दे ही रहा होगा। और, अगर ये दिशा देने वाले अब भी आजादी के समय की आजाद भारत के बचपन वाली सोच के लोग ही रह गए तो, फिर देश का लोकतांत्रिक ढांचा भी कमजोर होगा।
किसी भी पार्टी में पार्टी के ही बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों-बहुओं को छोड़ दें तो, शायद ही एक भी चमकता चेहरा ऐसा मिले जिसकी उम्र 50 साल से कम हो। इस जवान देश के लिए इस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है। और, कैंपस में राजनीति में शामिल होने वाले दूसरे क्षेत्रों में असफल हो जाते हैं, ये मिसाल देने वालों को मैं बस इतना ही बताना चाहूंगा कि देश में बैंकिंग की सूरत बदल देने वाले ICICI बैंक के चेयरमैन के वी कामत खुद भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान यूनियन के सेक्रेटरी थे।
सकारात्मक छात्र राजनीति जरूरी है। वहीं से निकली पौध देश की सूरत बदलने का जरिया बन सकती है।
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