Monday, October 26, 2015

छद्म सरोकारी साहित्यकार बनाम पूर्ण बहुमत की सरकार

इतिहास ने कभी साहित्यकारों को इस तरह से दुनिया की किसी सरकार के खिलाफ लामबंद होते हुए शायद ही देखा होगा। सबसे ज्यादा चेतन, सृजन का जिम्मा रखने का दावा करने वाले साहित्यकारों के साथ हिंदुस्तान में ऐसा क्या हो गया। जो, उन्हें इस तरह से सरकार के पैसे से चलने वाली लेकिन, स्वायत्त संस्था साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने के लिए बाध्य करने लगा। क्या सचमुच हिंदुस्तान की सरकार ने साहित्य, कला या फिर एक शब्द में कहें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली है। क्या सचमुच इस देश में ऐसा कुछ नरेंद्र मोदी की सरकार ने गलत कर दिया है, जो पहले किसी सरकार ने नहीं किया था। क्या सचमुच इस समय देश के हालात आपातकाल, सिख दंगे या फिर देश के अलग-अलग हिस्से में हुए दंगों के समय के हालात से भी ज्यादा खराब हैं। क्या सचमुच इस भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार के समय में अल्पसंख्यक- ईसाई और मुसलमान ही पढ़ें- खतरे में है। इन सवालों का जवाब खोजना इसलिए जरूरी है कि यही सवाल उठाकर जवाब में कुछ साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किए हैं।

अब ये भले ही सारे लोग कह रहे हैं कि उदय प्रकाश की शुरुआत को धार देने वाली नयनतारा सहगल से लेकर अशोक वाजपेयी और फिर सारे साहित्यकारों ने अलग-अलग अपनी अंतरात्मा की आवाज पर साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किए हैं। लेकिन, ध्यान से देखिए। सब साफ हो जाएगा। नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश खाए-पिए-अघाए का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। हर तरह से इतना खाए हैं कि उल्टी करने से थोड़ा स्वास्थ्य ठीक होगा। मन हल्का रहेगा। और सबसे बड़ी बात कि आगे उससे भी अच्छा खाने का जुगाड़ होगा। ढेरों पाए तो कभी-कभी कुछ-कुछ लौटाए। जब एकदम न पाए, तो कैसे-क्या लौटाए। अब उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी या फिर उसके बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वालों की जन्मकुंडली खंगालें। इससे बेहतर है कि पद्मश्री पुरस्कार लौटाने वाली पंजाबी लेखिका की सुन लें। बस उनका बयान ही छद्म धर्मनिरपेक्षता और किसी भी हद तक जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के विरोध की कहानी कह देता है। पंजाबी लेखिका दलीप कुमार तवाना ने पद्मश्री लौटाने की जो वजह बताई है। उसे सुनने-पढ़ने के बाद समझ में आ जाता है कि क्या हो रहा है। दलीप कौर ने कहा है कि बुद्ध और गुरु नानक की धरती पर सिखों को खिलाफ 1984 में ज्यादती हुई और मुसलमानों के खिलाफ बार-बार ज्यादती हो रही है। इसकी वजह समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता है। ये तो था, जो उऩ्होंने पद्मश्री लौटाते कहा है। मतलब 1984 से लेकर 2015 तक जो सिखों, मुसलमानों पर ज्यादतियां हो रही थीं। वो शर्म का पानी अब जाकर उनके नाक में घुसने लगा था। इसलिए पिछले कई दशकों तक बेशर्म रहने के बावजूद अब वो शर्मसार साबित होना चाहती हैं। यही सच है पुरस्कार लौटाने का। समझ रहे हैं न। आजादी के बाद किसी भी धर्मनिरपेक्ष सरकार में जो कुछ भी गलत हुआ है। उस सबका हिसाब मांगने के लिए एक तय कर दी गई सांप्रदायिक सरकार मिल गई है।

मुझे याद है कि पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में ही ये समझ में आ गया कि वामपंथी पत्रकार ठोंककर कहेगा कि मैं वामपंथी हूं। फिर भी बेहतर पत्रकार, सरोकारी पत्रकार बना रहेगा। लेकिन, राष्ट्रवाद, दक्षिणपंथ की बात ठोंककर छोड़िए, तर्क के साथ करने वाला भी पत्रकार नहीं, सिर्फ संघी या उससे भी आगे सांप्रदायिक संघी कहलाएगा। यही इस देश के साहित्यकार और सरकार के फर्जी धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ का सच है। ये बेहद घिनौना सच है। इन साहित्यकारों को डर अब यही है कि ये सच उघड़कर सबके सामने आ जाएगा। काफी हद तक सामने भी आ चुका है। न आता तो पूर्ण बहुमत की बीजेपी की सरकार की कल्पना इस देश में कोई कर सकता था क्या।

सोचिए सारी सांसारिक तिकड़मों को आजमाकर सत्ता में आए लोग इस देश में सरोकारी, समाजवादी बने रहे। लेकिन, विशुद्ध रूप से विकास के मुद्दे पर मई 2014 में चुनाव जीतने वाली पार्टी आज भी इन साहित्यकारों के तय खांचे में सांप्रदायिक बनी रही। मई 2014 में जाति हार गई थी। अब ये 2015 में जाति जिंदा कर देना चाहते हैं। वैसे ये कहते हैं कि जातिप्रथा तो संघ और दक्षिणपंथ ने पाल रखी है। ये अभी तक ये कहते रहे कि इनको तो जनता वोट तक नहीं देती। अब जब जनता वोट देकर सत्ता दे चुकी है। तो ये कह रहे हैं कि जनता भ्रमित हो गई है। यानी हर तरह के प्रमाणपत्र का ठेका सिर्फ इन्हीं के पास है। अब ये ठेका छिन रहा है। डर लग रहा है कि ये बने रहे, तो आगे किसी तरह का पुरस्कार इन जैसे छद्म धर्मनिरपेक्षता की जमीन पर रचनाकार बने लोगों को नहीं मिलने वाला। इसलिए ये पूरा जोर लगा रहे हैं। इतना कि ठीक बिहार चुनाव के समय ये सबकुछ हो रहा है। ठीक है पांच साल की मोदी सरकार का तो अब कुछ कर नहीं सकते। बिहार में भाजपा हारी, तो मोदी पर ही ठीकरा फोड़ेंगे। इस समय साहित्यकारों के दर्द और लालू प्रसाद यादव के दर्द जोड़कर देखिए। लालू जी कह रहे हैं कि बिहार चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी को इस्तीफा देना पड़ेगा। नहीं देंगे, तो हम आंदोलन करेंगे। बताइए समाजवाद के नाम पर, जेपी के नाम पर बिहार का क्या हाल लालू प्रसाद यादव ने किया। इसको समझने के लिए देश के किसी राज्य की राजधानी से एक बार पटना जाइए। समझ में आ जाएगा बिहार को कहां टिकाए रखने की इच्छा है। मैं उन तर्कों की बात ही नहीं कर रहा कि कहां-किसकी हत्या हुई। और जवाब किस सरकार से मांगा जा रहा है। मैं तो बात बड़े षडयंत्र की बुनियाद की तरफ कर रहा है। छद्म सेक्युलर सिंडिकेट टूट रहा है। सरोकार के नाम पर दुकान चलाने वालों की ये ग्राहक तैयार करने, बचाने की आखिरी कोशिश है। इन छद्म धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों की चिंता ये भी है कि अभी तक सिर्फ इनके जैसे ही पुरस्कृत होते थे। ये सिर्फ अपने जैसों को ही साहित्य की विधा में बर्दाश्त कर पाते हैं।

ये नामवर सिंह और मुनव्वर राना को भी बर्दाश्त नहीं कर सके। ये कह रहे हैं कि मेरे जैसे बनो या तुम्हारा अस्तित्व ही मिटा देंगे। उदाहरण देखिए 14 अक्टूबर को मुनव्वर राना ने कहा जो पुरस्कार लौटा रहे हैं। उनको अपनी कलम पर भरोसा नहीं है। वे थक चुके हैं। हालांकि, तीन दिन बीतते-बीतते राना की भी कलम पर थकने का दबाव बन ही गया। और उन्होंने एक टीवी चैनल के लाइव शो में पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया। तब मैंने मुनव्वर राना के ऊपर कुछ लिखा। हालांकि, मैं वामपंथी नहीं हूं, तो ये कविता या साहित्य नहीं हो सकता।

ए राना तेरी तो बड़ी शोहरत थी 
फिर ये पुरस्कार वापसी का लाइव तमाशा क्यों किया तूने

मुनव्वर राना की रायबरेली में नालियों में बहती थी सत्ता
सड़ती रही, बदबू करती रही
राना उस सत्ता पर फक्र करता रहा, सत्ता की सड़ांध पर
इत्र डालकर खुशबू का अहसास करता रहा 

अच्छी बात ये है कि राना शायद इतने बेगैरत और नासमझ नहीं थे। जो उन्हें समझ में न आता कि देश में कितने खराब हालात हैं। और इस तरह भारतीय जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ तयकर की जा रही पुरस्कार वापसी से देश कितना बचेगा। छद्म धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों के पतन की कहानी जारी है। कुछ लोग पतनशील साहित्य लिखते थे। अब कुछ लोग नामवर सिंह को पतनशील साहित्यकार कह रहे हैं। वजह। अरे वही। संघियों से मिल गया लगता है। मेरे जैसे नहीं, तो नहीं चलोगे। बदनाम कर देंगे। गैरसरोकारी बना देंगे। इनका यही मूल मंत्र है। वजह सिर्फ ये नामवर सिंह ने कह दिया कि सम्मान लौटाना गलत है। क्योंकि, ये पुरस्कार सरकार नहीं साहित्यकारों की संस्था साहित्य अकादमी देती है। लेकिन, ये कोई सोए थोड़े ना हैं। जो इनको कोई जगा सकता है। ये इस अंदाज में हैं कि तुम हमारे पुरस्कार वापसी को मौकापरस्ती बताओगे, तो हम तुम्हें दंगाई कह देंगे। अब बोलो। बोलती बंद हो गई। 

Sunday, October 25, 2015

बिहार के भले की सरकार बननी जरूरी

बिहार में किसी सरकार बनेगी, ये आठ नवंबर को तय होगा। लेकिन, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह रहे हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश में बीजेपी विरोधी मंच और मजबूत होगा। साथ ही नीतीश ये भी दावा कर रहे हैं कि ये नतीजे बिहार का भी भाग्य बदल देंगे। पहली बात सही हो सकती है कि अगर महागठबंधन की सरकार बनती है, तो देश में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी विरोधी ताकतें एकजुट होंगी और पहले से मजबूती से होंगी। लेकिन, क्या महागठबंधन की जीत बिहार के लोगों, खासकर नौजवानों का भला कर पाएगी। इस सवाल का जवाब आंकड़ों से समझें, तो ना में ही मिलता है। नीतीश कुमार की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी के साथ चला एनडीए का बिहार देश का सबसे तेजी से तरक्की करना वाला राज्य बन गया था। 2012-13 में बिहार की तरक्की की रफ्तार पंद्रह प्रतिशत थी। जो, देश के किसी भी राज्य से ज्यादा थी। गुजरात, महाराष्ट्र जैसे देश के विकसित राज्य भी बिहार से पीछे छूट गए थे। जून 2013 में नीतीश कुमार ने बिहार में भारतीय जनता पार्टी से अलग होने का फैसला कर लिया। वजह गुजरात के उस समय के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने का बीजेपी का फैसला था। नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनावों के पहले अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार को सबसे बड़ी उपलब्धि बताया। उसी रिपोर्ट में राज्य की बेहतर होती कानून व्यवस्था का भी जिक्र है। नीतीश कुमार के रिपोर्ट कार्ड के आधार पर देखें, तो मार्च 2013 तक पंद्रह प्रतिशत की तरक्की की दर मार्च 2015 तक दस प्रतिशत के नीचे आ गई है। सीधा सा मतलब है कि बिहार की तरक्की की रफ्तार में तेजी से कमी आई है। यही वो समय है जब नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़कर लालू प्रसाद यादव का साथ किया था।

नीतीश-बीजेपी गठबंधन टूटने के बाद से राज्य में अपराध के मामले तेजी से बढ़े हैं। सांप्रदायिक तनाव के मामले कई गुना बढ़े हैं। जनवरी 2010 से जून 2013 तक 226 सांप्रदायिक तनाव के मामले दर्ज हुए थे। जबकि, जून 2013 से 2015 के दौरान साढ़े छे सौ से ज्यादा सांप्रदायिकक तनाव के मामले दर्ज हुए हैं। सुशासन बाबू की छवि पर ये तगड़ा धक्का था। बिना बीजेपी के नीतीश की सरकार में बढ़ रहे अपहरण के मामले लालू प्रसाद यादव के जंगलराज की याद दिलाने लगते हैं। बिहार पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2010 में 924, 2011 में 1050, 2012 में 1188 अपहरण के मामले दर्ज हुए। 2013 से अपहरण के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2013 में 1501, 2014 में 1982 और 2015 अगस्त महीने तक ही 1694 अपहरण के मामले दर्ज किए गए हैं। लेकिन, कमाल की बात ये है कि बिहार के चुनाव में तरक्की की रफ्तार या फिर अपराध, अपहरण के मामले चुनावी मुद्दा नहीं हैं। चुननावी मुद्दा पूरी तरह से जाति है। आरक्षण है। इस बहस में ये पूरी तरह से गायब है कि तरक्की रफ्तार बेहतर नहीं होगी और कानून-व्यवस्था की हालत दुरुस्त नहीं होगी तो, नौजवान को रोजगार कैसे मिल पाएगा। काबिल होने के बावजूद रोजगार न मिल पाना ही बिहार से पलायन की सबसे बड़ी वजह है। जो नौजवान बिहार में हैं। उनमें करीब आधे के लिए कमाई का जरिया सिर्फ और सिर्फ खेती ही है। बिहार में खेती की तरक्की की रफ्तार चार प्रतिशत से भी कम है। तो इसी से समझा जा सकता है कि खेती से नौजवान कितनी कमाई कर पा रहे होंगे। बचे-खुचे नौजवानों को कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में मजदूरी का काम मिल रहा है।

खेती में खास तरक्की है नहीं और नए उद्योग भी नहीं लग रहे हैं। 2013 के आखिर के आंकड़ों के आधार पर पूरे राज्य में छोटे-बड़े सभी उद्योगों को जोड़ें, तो ये संख्या साढ़े तीन हजार से भी कम बैठती है। जो देश के उद्योगों का सिर्फ डेढ़ प्रतिशत है। देश के तेजी से तरक्की करने वाले राज्यों- तमिलनाडु (16.6%), महाराष्ट्र (13.03%), गुजरात (10.17%)- में ये दस प्रतिशत से ज्यादा है। विश्व बैंक के उद्योग लगाने के लिए भारत के बेहतर राज्यों की सूची में बिहार का स्थान इक्कीसवां आता है। इसलिए बिहार में उद्योगों का ना के बराबर होना चौंकाता नहीं है। गुजरात इस सूची में पहले स्थान पर है। झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का स्थान इसके बाद है। जाहिर है खेती में तरक्की की रफ्तार बेहद कम होने और उद्योगों के ना के बराबर होने से बिहार के नौजवानों के पास अपना घर, जमीन छोड़ने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। देश भर में उद्योगों में करीब तेरह करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। बिहार में सिर्फ एक लाख सोलह हजार लोगों को उद्योगों में रोजगार मिला है। इसी से समझा जा सकता है कि बिहार में उद्योगों का हाल कितना बुरा है। इस वजह से बिहार पलायन कर रहा है। इस पलायन का भी सबसे दुखद पहलू ये है कि बिहार में ज्यादा पढ़ लेने का मतलब है कि बिहार में रोजगार मिलना मुश्किल है। बार-बार ये बात होती है कि बिहारी बिहार में नहीं टिक रहा है। लेकिन, इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बिहार का नौजवान अगर अच्छे से पढ़ने के बाद रोजगार का बेहतर मौका खोज रहा है। तो उसे बिहार छोड़ना ही होगा। नीतीश कुमार भले ही दस साल के राज में देश के सबसे तेजी से तरक्की करने वाले राज्य का दावा पेश कर रहे हों। लेकिन, आंकड़े साफ बता रहे हैं कि बिहार एक राज्य के तौर पर अपने राज्य के नौजवानों को बेहतर जिंदगी देने का काम नहीं कर पाया है।


स्वास्थ्य के मामले में भी बिहार के हालात बहद खराब हैं। बच्चों का जीवन नहीं बच पा रहा है। बिहार में दस लाख लोगों पर एक भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। बिहार में कुल 533 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 2009 में थे। दुखद बात ये है कि 2014 तक एक भी नया सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं बना है। लेकिन, इन बातों में से कोई भी बिहार के चुनावी मुद्दे में शामिल नहीं है। वहां जातीय भावना उभारने की लड़ाई हो रही है। रोजगार, स्वास्थ्य, कानून-व्यवस्था कोई मुद्दा दिख नहीं रहा। लेकिन, बिहार में रह रहे बिहारी और बाहरी बिहारियों के लिए ये मुद्दा जरूर होगा। और आठ नवंबर को जिसकी भी सरकार बनेगी। इन्हीं मुद्दों के इर्द गिर्द बनेगी। बिहार की सरकार बिहार के भले के लिए बनेगी। 

Thursday, October 22, 2015

बिहारी कि बाहरी

‪#‎BiharVotes‬ के समय बिहार में रहा। लेकिन, बिहार के बारे में बिहारी ही तय करेगा, बाहरी नहीं। एक जगह भोजन पर जाना हुआ। जगह है दसरथा। दसरथा और सिपारा दोनों पुराने गांव हैं, जो 1980 आते आते शहर में शामिल होने के फेर में लोग घर बनाने लगे। पटना सचिवालय, स्टेशन से ये जगह सिर्फ 3 किलोमीटर है। अब वोट यहां किस आधार पर पड़ना चाहिए। ये बिहारियों को बताने की जरूरत है क्या। तस्वीरें देखिए इन्हीं रास्तों से हम पहुँचे। ‪#‎PrideOfBihar‬

Wednesday, October 21, 2015

दलितों की आजादी और उनका विवेक

आजादी और विवेक के हक में ये प्रतिरोध सभा जिन्होंने कराई। उन सबका नाम साफ-साफ दिख रहा है। जिनको इन्होंने सिर्फ दिखावे के लिए शामिल किया। उनका नाम भी नहीं दिख रहा है। कमाल की बात ये भी है कि दलित लेखक मंच का कोई प्रतिनिधि भी यहां पर नहीं था। इतने ही ईमानदार हैं ये। दलितों की आजादी और विवेक के हक में बस इतना ही हैं ये।

कल आजादी और विवेक के हक में प्रेस क्लब में प्रतिरोध सभा थी। शुरुआत में ही प्रेस क्लब के सचिव नदीम ने साफ कह दिया कि मंच हमारा है। हम जैसे चाहेंगे, चलाएंगे। आप लोग सवाल पूछ सकते हैं। लेकिन, विचार नहीं रख सकते। सवाल भी भटके, तो हम आपको तशरीफ ले जाने के लिए कह देंगे। समझ रहे हैं ना ये आजादी और विवेक के हक में प्रतिरोध सभा थी।

अब हिंदुओं को सचमुच चिंतित होने की जरूरत है। क्योंकि, वो हिंदुओं की चिंता कर रहे हैं। भारतीयता की भी। इतने सालों तक उन्होंने मुसलमानों की चिंता की थी। क्या हाल किया मुसलमानों का। बताने की जरूरत है क्या। आज ये सब प्रेस क्लब में हिंदुओं और भारतीयता की चिंता करने जुटे थे।

ये कमाल है कि विरोधियों के लिए संघ,बीजेपी अब तक मुसलमान विरोधी था। बात नहीं बनी, तो अब वो संघ, बीजेपी को हिंदू, भारतीयता विरोधी कहने लगे हैं। कमाल है न कि अब वो हिंदू, भारतीय संस्कृति को बचाने की बात कर रहे हैं। #IntellecualHippocracy

Wednesday, October 14, 2015

प्रीमियम- संसद मार्ग या नई दिल्ली रेलवे स्टेशन?

प्रीमियम पार्किंग के नाम पर मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर लूटा गया। कल्पना कीजिए कि आप कार पार्क करके सिर्फ दो दिनों के लिए कहीं बाहर जाएं। लौटने पर पता चले कि पार्किंग भुगतान 4200 रुपये करना है। अब इससे ज्यादा बड़ी लूट क्या होगी। पता नहीं किस रेलवे के अधिकारी ने ये प्रीमियम पार्किंग का सुझाव सरकार को दिया। और सरकारें इसे जस का तस लागू किए हैं। मैंने दिल्ली की दूसरी प्रीमियम जगहों की पार्किंग का पता लगाया। संसद मार्ग से ज्यादा प्रीमियम इलाका दिल्ली में कोई क्या होगा। वहां NDMC की पार्किंग है। पार्किंग का बोर्ड साफ-साफ बता रहा है कि 20 रुपया प्रति घंटे का पार्किंग चार्ज है। और सुबह 6 बजे से रात 12 बजे तक के लिए कोई कार खड़ी करता है, तो उसे 100 रुपये अधिकतम ही देने होंगे। पूरे महीने कोई इस पार्किंग में कार खड़ी करना चाहता है, तो भी उसको 2000 रुपये का ही भुगतान करना होगा।
और, सोचिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर प्रीमियम के नाम पर 100 रुपये प्रति घंटा लिया जा रहा है। जबकि, संसद मार्ग पर 100 रुपया पूरे दिन का है। इससे बड़ी लूट क्या होगी। पूरीघटना यहां पढ़ें 

Monday, October 12, 2015

पार्किंग के नाम पर भारतीय रेल की खुली लूट

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पार्किंग का बिल
मुझे नहीं पता कि इस पर रेल मंत्री सुरेश प्रभु @sureshpprabhu और रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा  @manojsinhabjp कुछ करेंगे या नहीं करेंगे। कोशिश करूंगा इन लोगों से मिलकर भी ये बताने की। फिलहाल अभी आप लोगों से साझा कर रहा हूं। एक तो सबको ये पता हो इसके लिए। और दूसरा जितने ज्यादा लोग इसके खिलाफ आवाज बुलंद कर सकें, उसके लिए। मीडिया चौपाल में शामिल होने 10 अक्टूबर की सुबह भोपाल शताब्दी से ग्वालियर जाना था। और 11 की रात भोपाल शताब्दी से ही वापसी थी। मैंने सोचा टैक्सी से स्टेशन जाने से बेहतर है कि खुद की कार से चला जाए और स्टेशन पर ही कार खड़ी कर दी जाए। सुबह 5 बजे मेट्रो भी नहीं मिलती। सो अपनी कार से ही चला गया और स्टेशन पर एक प्रीमियम पार्किंग है। उसी में खड़ी कर दी। 100 रुपये उसका चार्ज है। सोचा अधिकतम कितना लगेगा। खैर, मेरी गलती ये कि न मैंने पर्ची देखी और न ही पूछा। गाड़ी लगाई। सीधे ट्रेन की ओर। दो दिन तो ग्वालियर की मीडिया चौपाल में इसका ख्याल भी नहीं रहा। जब वापस की, तो एक बार ध्यान में आया कि पर्ची देख लें। पर्ची देखी, तो होश उड़ गए। पहले दो घंटे के 100 रुपये, उसके बाद के हर घंटे के लिए 100 रुपये। अपना पर्स देखा, तो कुल जमा करीब ढाई हजार रुपया।

नोएडा में कई लोगों से कार्ड छीनकर जबर्दस्ती एटीएम से पैसे निककलाने की घटनाओं के बाद मैंने कार्ड रखना बंद कर दिया है। भली बात ये थी कि ग्वालियर से हम ढेर सारे लोग लौट रहे थे। इसलिए पैसे दूसरे से ले लिए। लेकिन, फिर भी लगा कि ये तो सीधी लूट है। खैर, पार्किंग में आए। पूछने पर पता चला कि 4200 रुपये पार्किंग के देने होंगे। शताब्दी समय पर आ जाती, तो 100 रुपये कम हो जाते। लेकिन, शताब्दी की करीब 25 मिनट की देरी ने मेरे पार्किंग बिल में 100 रुपये और जोड़ दिए। पार्किंग वसूल रहे लोगों से बात करने की कोशिश की, तो उन्होंने हाथ जोड़ लिया। साहब हम तो खुद ही 400 रुपये में 12 घंटे काम करते हैं। एक रुपया भी छोड़ा, तो वो हमारी जेब से जाएगा। मैंने कहा- किसी जिम्मेदार से बात कराओ। उसने कहा इतनी रात में किससे बात होगी। खैर, अपने पत्रकार होने का हवाला देते हुए जब मैंने कहाकि किसी से तो बात करानी ही होगी। तो, उसने पार्किंग मैनेजर पप्पू सिंह से फोन पर बात कराई। उसको बताया, तो उसने कहाकि सर मेरे हाथ में जो है वो मैं कर देता हूं। आप पत्रकार हैं। 4200 रुपये की जगह 3700 रुपये दे दीजिए। मैंने कहा पार्किंग जिसकी है। उससे बात हो सकती है। उसने भी हाथ खड़ा कर दिया।


पत्रकार मित्र अनिल पांडे और ऋषभ भी हमारे साथ थे। मैंने कहा इस पर तो रेलवे मंत्री से बात करनी होगी। ये तो विशुद्ध लूट है। ये सुनकर वहां पार्किंग वसूलने वाले तीनों ने कहा- आपकी बहुत कृपा होगी। यहां तो सर एक लड़के को 69000 रुपये भरना पड़ा। बेचारे के पिताजी की तबियत खराब थी। गाड़ी खड़ी करके चला गया। लौटकर आया तो, 69000 रुपये का बिल हो चुका था। बहुत से लोग इसमें फंसते हैं। हजारों रुपये पार्किंग फीस भरकर जाते हैं। अनिल पांडे ने कहा- ये तो रेलवे लोगों पर दबाव बना रही है कि वो टैक्सी से ही आएं। स्टेशन पर पार्किंग करके कहीं न जाएं। उसके बाद जब मैंने पूछा सामान्य पार्किंग का क्या चार्ज है। उसने जो बताया। वो ज्यादा खतरनाक है। उसने कहा- पहले 20 रुपये घंटा थी। अब पचास रुपया घंटा हो गई है। अब रेलवे मंत्री जी आप ही बताइए, ये लूट नहीं तो क्या है। और ये कोई निजी कंपनी नहीं कर रही है। आपके विभाग के ठेके पर निजी व्यक्ति वसूली कर रहा है। change.org पर मैंने ये याचिका डाली है। इसे आप समर्थन देंगे, तो बात आगे बढ़ेगी।

Saturday, October 10, 2015

पानी की कहानी बताना सीखें पत्रकार

एक बार फिर से चौपाली जुटे। इस बार जुटान की जगह रही ग्वालियर। जुटान की जगह भर बदली है। इस बार भी चौपालियों को जुटाने वाले अनिल सौमित्र ही रहे। उन्होंने बीड़ा उठा रखा है। और भोपाल से दिल्ली से ग्वालियर पहुंची चौपाल में इस बार भी दिल्ली की ही तरह चर्चा का मुख्य बिंदु है नदियां। 10 और 11 अक्टूबर को ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय में ये कार्यक्रम हो रहा है। 10 अक्टूबर को उद्घाटन सत्र के बाद तीन समानांतर चर्चा सत्र हैं। भारत की नदियां- कल आज और कल। मध्य प्रदेश की नदियां- कल आज और कल। नदियों का विज्ञान और पारिस्थितिकी। दूसरे पहर में समानांतर सत्रों की रिपोर्टिंग के बाद फिर से तीन समानांतर सत्रों का होना तय रहा। जनमाध्यमों में नदियां- स्थिति, चुनौतियां और संभावनाएं। नदियों का पुनर्जीवन- संचारकों की भूमिका। नदियों की रिपोर्टिंग- विविध पक्ष। इसके बाद दूसरे पहर के समानांतर सत्रों की रिपोर्टिंग तय है। मोट-मोटा देखा जाए, तो पहले पहर के समानांतर सत्र नदियों की स्थिति, परिस्थिति पर बात करने के रहे। जबकि, दूसरे पहर के समानांतर सत्र इस चर्चा के लिए रहे कि कैसे संचारक (ब्लॉगर, पत्रकार) नदियों का जीवन बनाए रखने में मददगार हो सकता है। मेरे लिए वैसे तो सभी सत्र बेहद रुचिकर हैं। लेकिन, मुझे लगता है कि नदियों की रिपोर्टिंग- विविध पक्ष पर चर्चा करूं, तो बेहतर होगा।

नदियों की रिपोर्टिंग भी किसी चौपाल, संगोष्ठी में चर्चा का विषय है। ये बड़ी सुखद स्थिति बन रही है। वरना, तो नदी और नदियों की रिपोर्टिंग में चर्चा सिर्फ और सिर्फ तब होती है। जब किसी नदी से जुड़े किसी कार्यक्रम में मंत्री, मुख्यमंत्री या किसी बड़े नेता का जुड़ना हो पाए। इसको थोड़ा सा और सही मैं करूं तो मुझे लगता है कि नदियों की रिपोर्टिंग- विविध पक्ष की बजाए, इस चर्चा सत्र को कहना चाहिए, पानी की रिपोर्टिंग या पानी की कहानियां- विविध पक्ष। पानी की रिपोर्टिंग या पानी की कहानियों क्यों ब्लॉगरों, पत्रकारों, संचारकों को समझनी चाहिए। ये मैं 3-4 अपने निजी उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। वैसे तो भारत और भारत ही क्या दुनिया ही पानी के इर्द गिर्द बसी है। और पानी की रिपोर्टिंग का महत्व न समझने से ही दुनिया बहुत सी मुश्किलों से जूझ रही है। विडंबना देखिए कि शहरों में पानी की रिपोर्टिंग कब होती है। मोटे तौर पर तीन बार। एक बार जब गर्मियों में भयानक पानी की किल्लत होती है। यानी नगर पालिका, महानगर पालिका के पाइप से घरों तक पहुंचने वाले पानी की सप्लाई रुक जाती है या कम हो जाती है। दूसरी तब होती है जब घरों में बोरिंग करने और कंस्ट्रक्शन साइट पर लगातार जलादोहन से उस इलाके में पानी का स्तर तेजी से घटने लगता है। तीसरी बार पानी की बात तब होती है जब शहर की जीवनदायिनी नदी लोगों का जीवन लेने लगती है। यानी उसमें प्रदूषण बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। मैं बात शहर की कर रहा हूं। लेकिन, अब पहले मैं अपने गांव चलूंगा। गांव इसलिए कि वहां तो पानी की समस्या होनी ही नहीं चाहिए। नदी की भी नहीं। क्योंकि, न कोई रास्ता रोक रहा है। न ही शहरी प्रदूषण नदियों को गंदा करके उनकी अविरल धारा में बाधा पहुंचा रहे हैं। फिर गांव में पानी की किल्लत क्यों होने लगी। दरअसल वो इसीलिए होने लगी कि पानी की बजाए नदियों की कहानी बताने की बात ज्यादा समझ में आती है। अब सोचिए अगर जमीन से पानी गायब होने लगा। तो, तालाब-नदी या ऐसे किसी भी पानी से जुड़े प्रवाह की कल्पना की जा सकती है क्या। बिल्कुल नहीं की जा सकती। 2008 में मैं अपने गांव गया था। मेरा गांव उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पड़ता है। ये सबसे लंबा अंतराल था मेरा गांव जाने का। उस समय मुंबई में नौकरी करने की वजह से इलाहाबाद तक जाना तो हो जाता था। लेकिन, वहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी तय करके गांव जाना नहीं हो पाता था। खैर, पांच साल बाद गांव गया, तो समझ में आया कि गांव के किनारे के कई छोटे तालाब तालाबों से सबसे नजदीक के घर का दुआर बन गए थे। यानी अपने घर के आगे के तालाब को धीरे-धीरे मिट्टी से पाटकर तालाब के पानी को खत्म किया गया। और धीरे-धीरे तालाब ही गायब हो गए। इस पानी के कम होने की कहानी कोई कह नहीं रहा था। ये कोई मेरे गांव के तालाबों के पानी कम होने की कहानी नहीं है। ये पूरे देश के गांवों के तालाबों के पानी के कम होने और फिर गायब हो जाने की कहानी है। ये कम होते पानी का कहानी नहीं कही गई। इसलिए एकदम से गायब होते तालाब कि रिपोर्टिंग हुई। लेकिन, अब ये रिपोर्टिंग लकीर पीटने जैसी ही रही। क्योंकि, नया तालाब खुदवाने का प्रयास तो बड़ा कठिन है। मायावती की सरकार ने कुछ इस ओर प्रयास किए थे। लेकिन, वो खास सफल नहीं हो सके। दरवाजे के सामने के तालाब पटते गए, तो गांव के बगल से गुजरने वाली नदी का पानी खत्म होता गया। अब तो हाल ये है कि बारिश के दिनों में भी पुल से जाने की जरूरत नहीं पड़ती।


दूसरी घटना 2007 गुजरात विधानसभा चुनावों की। गुजरात गया था मैं सीएनबीसी आवाज के लिए आर्थिक दृष्टिकोण से चुनाव की रिपोर्टिंग करने। वहां एक गांव की कहानी मिल गई। राजकोट से 22 किलोमीटर दूर राजसमढियाला गांव के प्रधान ने कई दशक पहले पानी का महत्व जान लिया था। पता नहीं उस पानी की कहानी कितनी कही गई। लेकिन, प्रधान के पानी के महत्व समझ लेने से गांव में आई समृद्धि की वजह से उस गांव की कहानी खूब कही गई। मैंने भी शायद उस गांव की समृद्धि की ही वजह से राजसमढियाला गांव की कहानी चैनल के लिए की। जबकि, उस गांव के प्रधान ने कैसे खेतों में पानी की कमी दूर करने के लिए सैटेलाइट से जमीन का नक्शा तैयार कराया। और कैसे-कैसे छोटे तालाब बनाए जिससे पूरे इलाके की जमीनों को खेती के लिए पर्याप्त पानी मिल सके। कहानी यही होनी चाहिए। पानी की कहानी का एक और निजी अनुभव। मैं पिछले 6 सालों से नोएडा में रहता हूं। यहां आते ही जो सबसे पहली जरूरत समझ में आई। वो थी साफ पानी पीने के लए RO लगवाना। कमाल ये कि जो वॉटर प्योरीफायर मैंने मुंबई में लगवाया था। वो नोएडा में काम नहीं कर रहा था। अब RO लगवाना था। लगवाया। लेकिन, उससे तो सिर्फ पीने का पानी मिलता है। अब जरूरत इस बात की भी बन रही है कि घर में नहाने और कपड़े धोने के लिए पानी को ठीक करने के लिए भी मशीन लगनी चाहिए। इस पानी की कहानी कहने की कोशिश करनी होगी। बात इतनी सी नहीं है। बात ये भी है कि जब रिवर्श ऑस्मोसिस सिस्टम वाला वॉटर प्योरीफायर घर में लगाया, तो इससे पानी बर्बाद होने की गति कई गुना बढ़ जाती है। कुछ इस तरह से अपने सबसे नजदीक के अनुभव के आधार पर अगर पानी की कहानी पत्रकार, ब्लॉगर सीख सकें, तो ही शायद नदियों का जीवन बच सके। और, उनके साथ हमारा जीवन भी। संचार क्रांति ने सबको उस इंटरनेट तक पहुंच दे दी है। इससे हर कोई पत्रकार है। ब्लॉगर है। सोशल मीडिया पर दो लाइन तो लिख ही सकता है। अगर ये हो सके, तो पानी की कहानी से आर्थिक, सामाजिक पक्षों को दुरुस्त किया जा सकता है। 

Friday, October 09, 2015

संघ जिम्मेदार है

कमाल है
इस देश में हर बात के लिए
संघ जिम्मेदार है

कमाल है
कि जिनकी सरकार है
वो भी कहते हैं कि संघ जिम्मेदार है

कमाल है
कि जिनकी नहीं सरकार है
वो भी कहते हैं कि संघ जिम्मेदार है

कमाल है
हिंदुस्तान की पिछली सरकारों के घोषित काबिल
पुरस्कार लौटा रहे हैं

कमाल है
पुरस्कार लौटाकर वो
खुद को और काबिल बताना चाहते हैं

कमाल है
पुरस्कारों की इस घर वापसी के लिए भी
संघ जिम्मेदार है

कमाल है
कि हिंदुत्व की सरकार है
इसलिए ये सारा बवाल है

कमाल है
कि हिंदुत्व की सरकार है
इसलिए पुरस्कार का हो रहा तिरस्कार है


कमाल है
कि वो बता रहे हैं
हर बात चुनाव के फायदे से जुड़ी है

कमाल है
बिना चुनाव लड़े भी
हर चुनावी चकल्लस के लिए संघ ही जिम्मेदार है

कमाल है
जम्मू-कश्मीर में बन गई
पीडीपी-बीजेपी की साझा सरकार है

कमाल है
फिर भी हर अलगाव के लिए
संघ जिम्मेदार है

कमाल है
बिहार में हो रहा चुनाव है
यूपी में हुआ बवाल है

कमाल है
इसके लिए भी
संघ ही जिम्मेदार है

कमाल है
लंबे समय बाद आई
पूर्ण बहुमत की सरकार है

कमाल है
जनता को वो बताते
भ्रमित बार-बार हैं

कमाल है
फिर भी वो सरोकारों के
झंडाबरदार हैं

कमाल है
अब क्या इसके लिए भी
संघ ही जिम्मेदार है
कमाल है


Thursday, October 08, 2015

Oxytocin पर प्रतिबंध में क्या मुश्किल?

ABVP की छात्रा संसद में मेनका गांधी
देश के सबसे बड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद @ABVPVoice की छात्रा संसद में महिला, बाल विकास मंत्री मेनका गांधी से अजब बात पता चली। उन्होंने एक छात्रा के बच्चियों को इंजेक्शन देकर बड़ा करने और Women trafficking के सवाल पर ये बात बताई। Oxytocin नाम का इंजेक्शन है, जिसकी वजह से ढेर सारी बुराइयां हैं। गाय को लगाकर उससे ज्यादा दूध निकालने की कोशश होती है। दूध जहरीला हो जाता है। सब्जियों में लगाकर उसे जल्दी तैयार करते हैं। ज्यादा सब्जी हो जाती है। जहरीली सब्जी खाना होता है। जो, मांस खाते हैं। उन्हें जहरीला मांस खाना होता है। अब Oxytocin का बेहद अमानवीय इस्तेमाल आगे बढ़ा है। अब बच्चियों को ये इंजेक्शन लगाकर उऩ्हें बड़ा किया जा रहा है। अरब देशों में ये बच्चियां बेची जा रही हैं। मुंबई से सटे ठाणे में एक कंपनी है जो इसे आयात करके लाती है। दूसरे कुछ नामों से भी अब ये बिकने लगी है। लेकिन, ये प्रतिबंधित नहीं है। स्वास्थ्य मंत्री @JPNadda से भी उन्होंने इसे प्रतिबंधित करने की मांग की है। इसका आंदोलन होना चाहिए। लेकिन, इसकी चर्चा कहां हो रही है।

Sunday, October 04, 2015

सांप्रदायिकता खत्म करना है या बरकरार रखना है?

लड़ाई सांप्रदायिकता से लड़ने की तय होनी थी। लड़ाई अतिवाद से लड़नी थी। लड़ाई इंसान को बचाने की थी। लेकिन, देखिए क्या हो रहा है। विरोध उन्हें सांप्रदायिकता के नाम पर एक पार्टी बीजेपी का करना है। अतिवाद के नाम पर हिंदू का करना है। आगे बढ़कर हर ऐसे किसी काम के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गरियाना है। लीजिए। अपनी प्रगतिशीलता के चक्कर में उन्होंने हिंदू अतिवादियों को पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर दे दिया है। बहुतायत हिंदू बेचारा सिर्फ इसलिए गरियाया जा रहा है कि उसने भारतीय जनता पार्टी को मत क्यों दे दिया। @narendramodi की सरकार क्यों बना दी। जबकि, बहुतायत हिंदू और बहुतायत मुसलमान बात ही दूसरी करने लगा है। वो तरक्की चाह रहा है। वो अपने जीवन में थोड़ी बेहतरी चाह रहा है। लेकिन, इससे तो उन लोगों की पूरी "Constituency"ही खत्म होती दिख रही है। अब तक वो इंसानियत की बात करते थे। इस देश की तहजीब उन्हें लगती थी कि कभी किसी सांप्रदायिक ताकत का कब्जा नहीं होगा। वो ये रटे हुए थे। समय, सिद्धांत, समाज सब बदल गया। लेकिन, वो तो रटे थे। उन्होंने ठेका भी ले रखा था। सारे सारोकारों का। अभी भी वही पुरानी रटी बात बोल रहे हैं। कोई कह रहा है कि मैं भी गौमांस खाता/खाती हूं। बड़का संपादक से लेकर बड़की मैडम तक नाराज हैं। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर के भाई और इकोनॉमिक टाइम्स के संपादक स्वामीनाथन अय्यर ने तो बाकायदा संपादकीय पृष्ठ पर गोमांस खाने वालों की तरफ से पूरी चिट्ठी लिख मारी है। कोई कह रहा है मुझे मार दो। कोई कह रहा है कि ये देश ही अभागा है। कई तो हो सकता है कि चिकन, मटन बनाकर उसकी तस्वीर लेकर सोशल मीडिया में डाल दें कि देखो मैंने भी गौमांस खाया है। दरअसल ये न सांप्रदायिकता खत्म करना चाहते हैं, न अतिवाद और न ही इंसान बने रहने, इंसानियत बचाने में इनकी कोई दिलचस्पी है। आसान राह से देश के नौजवान को बरगलाकर ये लंबे समय से सरोकारी होते हुए भी सत्ता के मजे ले रहे थे। अब चिरमिटी लग रही है। सब हाथ से निकल गया। सरोकारी तो रहे ही नहीं थे। अब सत्ता का साथ भी नहीं रहा। अब ये विक्षिप्त जैसा व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन, किस ईश्वर, खुदा, गॉड से कहूं कि माफ करना इन्हें। सद्बुद्धि देना इन्हें। ये तो सबको सिगरेट के धुएं में कबका उड़ा चुके हैं। ये अनास्था के वाहक हैं। फिर भी हे ईश्वर माफ कर, सदबुद्धि देना इन्हें। क्योंकि, मेरी तो आस्था है ही।

एक देश, एक चुनाव से राजनीति सकारात्मक होगी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी भारत की संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकार कर लिया था। इसीलिए इस द...