नदियों की
रिपोर्टिंग भी किसी चौपाल, संगोष्ठी में चर्चा का विषय है। ये बड़ी सुखद स्थिति बन
रही है। वरना, तो नदी और नदियों की रिपोर्टिंग में चर्चा सिर्फ और सिर्फ तब होती
है। जब किसी नदी से जुड़े किसी कार्यक्रम में मंत्री, मुख्यमंत्री या किसी बड़े
नेता का जुड़ना हो पाए। इसको थोड़ा सा और सही मैं करूं तो मुझे लगता है कि नदियों
की रिपोर्टिंग- विविध पक्ष की बजाए, इस चर्चा सत्र को कहना चाहिए, पानी की
रिपोर्टिंग या पानी की कहानियां- विविध पक्ष। पानी की रिपोर्टिंग या पानी की
कहानियों क्यों ब्लॉगरों, पत्रकारों, संचारकों को समझनी चाहिए। ये मैं 3-4 अपने
निजी उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। वैसे तो भारत और भारत ही क्या दुनिया ही
पानी के इर्द गिर्द बसी है। और पानी की रिपोर्टिंग का महत्व न समझने से ही दुनिया
बहुत सी मुश्किलों से जूझ रही है। विडंबना देखिए कि शहरों में पानी की रिपोर्टिंग
कब होती है। मोटे तौर पर तीन बार। एक बार जब गर्मियों में भयानक पानी की किल्लत
होती है। यानी नगर पालिका, महानगर पालिका के पाइप से घरों तक पहुंचने वाले पानी की
सप्लाई रुक जाती है या कम हो जाती है। दूसरी तब होती है जब घरों में बोरिंग करने
और कंस्ट्रक्शन साइट पर लगातार जलादोहन से उस इलाके में पानी का स्तर तेजी से घटने
लगता है। तीसरी बार पानी की बात तब होती है जब शहर की जीवनदायिनी नदी लोगों का
जीवन लेने लगती है। यानी उसमें प्रदूषण बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। मैं बात शहर की
कर रहा हूं। लेकिन, अब पहले मैं अपने गांव चलूंगा। गांव इसलिए कि वहां तो पानी की
समस्या होनी ही नहीं चाहिए। नदी की भी नहीं। क्योंकि, न कोई रास्ता रोक रहा है। न
ही शहरी प्रदूषण नदियों को गंदा करके उनकी अविरल धारा में बाधा पहुंचा रहे हैं।
फिर गांव में पानी की किल्लत क्यों होने लगी। दरअसल वो इसीलिए होने लगी कि पानी की
बजाए नदियों की कहानी बताने की बात ज्यादा समझ में आती है। अब सोचिए अगर जमीन से
पानी गायब होने लगा। तो, तालाब-नदी या ऐसे किसी भी पानी से जुड़े प्रवाह की कल्पना
की जा सकती है क्या। बिल्कुल नहीं की जा सकती। 2008 में मैं अपने गांव गया था।
मेरा गांव उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पड़ता है। ये सबसे लंबा अंतराल था
मेरा गांव जाने का। उस समय मुंबई में नौकरी करने की वजह से इलाहाबाद तक जाना तो हो
जाता था। लेकिन, वहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी तय करके गांव जाना नहीं हो
पाता था। खैर, पांच साल बाद गांव गया, तो समझ में आया कि गांव के किनारे के कई
छोटे तालाब तालाबों से सबसे नजदीक के घर का दुआर बन गए थे। यानी अपने घर के आगे के
तालाब को धीरे-धीरे मिट्टी से पाटकर तालाब के पानी को खत्म किया गया। और धीरे-धीरे
तालाब ही गायब हो गए। इस पानी के कम होने की कहानी कोई कह नहीं रहा था। ये कोई
मेरे गांव के तालाबों के पानी कम होने की कहानी नहीं है। ये पूरे देश के गांवों के
तालाबों के पानी के कम होने और फिर गायब हो जाने की कहानी है। ये कम होते पानी का
कहानी नहीं कही गई। इसलिए एकदम से गायब होते तालाब कि रिपोर्टिंग हुई। लेकिन, अब
ये रिपोर्टिंग लकीर पीटने जैसी ही रही। क्योंकि, नया तालाब खुदवाने का प्रयास तो
बड़ा कठिन है। मायावती की सरकार ने कुछ इस ओर प्रयास किए थे। लेकिन, वो खास सफल
नहीं हो सके। दरवाजे के सामने के तालाब पटते गए, तो गांव के बगल से गुजरने वाली
नदी का पानी खत्म होता गया। अब तो हाल ये है कि बारिश के दिनों में भी पुल से जाने
की जरूरत नहीं पड़ती।
दूसरी घटना 2007 गुजरात
विधानसभा चुनावों की। गुजरात गया था मैं सीएनबीसी आवाज के लिए आर्थिक दृष्टिकोण से
चुनाव की रिपोर्टिंग करने। वहां एक गांव की कहानी मिल गई। राजकोट से 22 किलोमीटर
दूर राजसमढियाला गांव के प्रधान ने कई दशक पहले पानी का महत्व जान लिया था। पता
नहीं उस पानी की कहानी कितनी कही गई। लेकिन, प्रधान के पानी के महत्व समझ लेने से
गांव में आई समृद्धि की वजह से उस गांव की कहानी खूब कही गई। मैंने भी शायद उस
गांव की समृद्धि की ही वजह से राजसमढियाला गांव की कहानी चैनल के लिए की। जबकि, उस
गांव के प्रधान ने कैसे खेतों में पानी की कमी दूर करने के लिए सैटेलाइट से जमीन
का नक्शा तैयार कराया। और कैसे-कैसे छोटे तालाब बनाए जिससे पूरे इलाके की जमीनों
को खेती के लिए पर्याप्त पानी मिल सके। कहानी यही होनी चाहिए। पानी की कहानी का एक
और निजी अनुभव। मैं पिछले 6 सालों से नोएडा में रहता हूं। यहां आते ही जो सबसे
पहली जरूरत समझ में आई। वो थी साफ पानी पीने के लए RO लगवाना। कमाल ये कि जो वॉटर प्योरीफायर मैंने
मुंबई में लगवाया था। वो नोएडा में काम नहीं कर रहा था। अब RO लगवाना था। लगवाया। लेकिन, उससे
तो सिर्फ पीने का पानी मिलता है। अब जरूरत इस बात की भी बन रही है कि घर में नहाने
और कपड़े धोने के लिए पानी को ठीक करने के लिए भी मशीन लगनी चाहिए। इस पानी की
कहानी कहने की कोशिश करनी होगी। बात इतनी सी नहीं है। बात ये भी है कि जब रिवर्श
ऑस्मोसिस सिस्टम वाला वॉटर प्योरीफायर घर में लगाया, तो इससे पानी बर्बाद होने की
गति कई गुना बढ़ जाती है। कुछ इस तरह से अपने सबसे नजदीक के अनुभव के आधार पर अगर
पानी की कहानी पत्रकार, ब्लॉगर सीख सकें, तो ही शायद नदियों का जीवन बच सके। और,
उनके साथ हमारा जीवन भी। संचार क्रांति ने सबको उस इंटरनेट तक पहुंच दे दी है। इससे
हर कोई पत्रकार है। ब्लॉगर है। सोशल मीडिया पर दो लाइन तो लिख ही सकता है। अगर ये
हो सके, तो पानी की कहानी से आर्थिक, सामाजिक पक्षों को दुरुस्त किया जा सकता है।
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