एक
परिचित के यहां शाम के खाने पर गया था वो एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करते हैं।
चर्चा शुरू हुई तो उन्होंने अपना दुख दर्द बताना शुरू कर दिया कि किस तरह उनकी
इंडस्ट्री में ग्रोथ नहीं रह गई है। इस चर्चा के बाद मेरा ये साहस ही नहीं हुआ कि
मीडिया इंडस्ट्री में आए ठहराव या उल्टी ग्रोथ यानी मिल रही तनख्वाह में गिरावट की
चर्चा कर सकूं। लेकिन, ये हाल सिर्फ मीडिया या आईटी इंडस्ट्री का नहीं है। ज्यादा
क्षेत्रों में ऐसा ही माहौल है। 2008 की मंदी के बाद से अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था
उबर नहीं सकी है। दरअसल 2008 की मंदी के समय जब अमेरिका और यूरोप धराशायी हो रहे
थे तब भी भारतीय काम भर की खरीदारी कर रहे थे। त्यौहार मना रहे थे। नई गाड़ियां
(कार-मोटरसाइकिल) खरीद रहे थे और नए नए कपड़े भी। उस समय भारतीयों को एक शब्द
सुनने को मिला था जिससे समझ में आया कि आखिर दुनिया के बड़े बैंकों और भारत के
बैंकों में मूल रूप से अंतर क्या है। वो अंतर था पारंपरिक बैंकिंग सिस्टम और
इनवेस्टमेंट बैंकिंग सिस्टम का। भारत पूरी तरह से पारंपरिक बैंकिंग सिस्टम पर चलता
है। इसका मतलब ये कि बैंक अपनी बचत को कुछ तय ब्याज पर रखने की जगह है और कभी आपकी
जरूरत पड़े तो बैंक बचत पर मिलने वाले ब्याज से कुछ ज्यादा ब्याज पर आपको घर,
गाड़ी और दूसरी छोटी-मोटी जरुरतों के लिए कर्ज देता है। जबकि, दुनिया में प्रचलित
इनवेस्टमेंट बैंकिंग सिस्टम ये कहता है कि किसी को उसकी हैसियत से कुई गुना ज्यादा
कर्ज देना और उस पर मुनाफे के तौर पर तगड़ा ब्याज कमाना। उस समय प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह और बड़े बैंकरों की तरफ से भी ये बयान आए थे कि भारत दुनिया की मंदी
के दौर में भी अगर ठीक रह गया तो उसकी सबसे बड़ी वजह भारत के लोगों की बचत करने की
आदत थी। यानी सच बात ये थी कि सरकार की नीतियों ने नहीं लोगों की आदतों ने इस देश
को 2008 की भयानक मंदी से लड़ने की ताकत दी थी।
मंदी
में भारतीयों की बचत की आदत से देश को कैसे ताकत मिली थी इसको समझिए। 2008 की मंदी
के साल यानी वित्तीय वर्ष 2007-08 की बात करें तो भारतीयों की बचत की आदत चरम पर
थी। 2007-08 में भारत घरेलू बचत दर 36.9 प्रतिशत थी। और जब 2008 की मंदी आई
नौकरियां गईं। जिनकी नौकरियां बचीं भीं उन्हें कम तनख्वाह पर समझौते करने पड़े तो
यही बचत काम आई। लेकिन, अब डराने वाले आंकड़े आ रहे हैं। बचत बढ़ाने का जुगाड़
भारतीयों के पास इसलिए नहीं है क्योंकि, जेब में आने वाली रकम बढ़ी नहीं और उस पर
महंगाई लगातार बढ़ी है। पिछले करीब तीन सालों से अगर खाने पीने के सामानों की
महंगाई दर देखें तो ये औसत दस प्रतिशत के ऊपर रही है। अगर दूसरे जरूरी सामानों की
भी बात करें तो ये महंगाई दर औसतन आठ प्रतिशत के ऊपर ही रही है। अब जरा समझिए कि
महंगाई कैसे हमारी आपकी बचत खा रही है। 2007-08 में 36.9 प्रतिशत घरेलू बचत दर
वाला भारत 2012 आते-आते तेजी से गिरकर 30.8 प्रतिशत ही बचा पा रहा था। ऐसा नहीं कि
भारतीय अचानक बड़े शाहखर्च हो गए या फिर उनकी आदतें यूरोप और अमेरिका के लोगों
जैसी हो गईं। दरअसल सच्चाई ये है कि भारतीय की बचत उनकी जरूरतों की महंगाई की भेंट
चढ़ गई। 2012 में भारतीयों की बचत पिछले दस सालों में सबसे कम रह गई। क्योंकि,
प्रति व्यक्ति आय वित्तीय वर्ष 2012 में सही मायने में सिर्फ 4.7 प्रतिशत ही बढ़ी
है जो करीब अड़तीस हजार रुपये होती है। जबकि, 2011 के वित्तीय वर्ष में प्रति
व्यक्ति आय बढ़ने की दर 7.2 प्रतिशत थी। मतलब 2008 की मंदी के बाद 2011 में लोगों
की कमाई थोड़ी बेहतर हुई लेकिन, 2012 आते आते फिर वही ढाक के तीन पात।
और
ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें सिर्फ नौकरीपेशा लोगों के संदर्भ में हैं दरअसल
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में जबरदस्त गिरावट देखने को
मिली है। कारों के सबसे बड़े बाजार बनने की तरफ बढ़ रहे भारत में इस दीपावली वाले
समय में भी कारें उतनी नहीं बिक सकीं। कई कंपनियों ने तो अपनी कारों का उत्पादन ही
घटा दिया। सितंबर महीने में देश की सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति के पास 5 हफ्ते से
ज्यादा की इनवेंट्री थी। वो भी तब जब मारुति ने जून में आठ दिनों के लिए प्लांट
बंद कर दिया था। इसका मतलब ये हुआ कि अगर मारुति उत्पादन बंद भी कर दे तो पांच
हफ्ते की कारें उसके गोदामों या फिर डीलरों के शोरूम पर खड़ीं थीं। दीपावली भी
मारुति का खास भला नहीं कर सकी और इनवेंट्री घटकर चार हफ्ते की रह गई। पिछले साल
अक्टूबर में मारुति ने 96002 कारें बेचीं थीं। मारुति इस साल की दीपावली में सिर्फ
60 कारें ही ज्यादा बेच सकी। ये आंकड़े साफ बताते हैं कि लोगों के पास कारें
खरीदने के लिए रकम ही नहीं बची है। जबकि, दीपावली पर कंपनियों ने जमकर तोहफे
बांटे, छूट दी। शेयर बाजार भी पिछले तीन साल से वहीं का वहीं है। मतलब लोगों के
लिए कमाई बढ़ाने के साधन कम हुए हैं। लेकिन, महंगाई तो कम होने का कोई इशारा भी
नहीं कर रही है।
उद्योग
संगठन एसचैम का ताजा सर्वे हमारी चिंता और बढ़ाता है। सर्वे में सामने आया है कि
बढ़ती महंगाई, महंगे ईंधन और शिक्षा-स्वास्थ्य पर बढ़ते खर्च की वजह से मिडिल
क्लास भारतीय परिवारों की कमाई गायब हो रही है। और इस महंगाई की वजह से मिडिल
क्लास भारतीय परिवार की बचत पिछले तीन सालों में चालीस प्रतिशत से ज्यादा घटी है।
ये आंकड़ा स्तब्ध कर देने वाला है। मतलब ये कि अगर महीने में किसी परिवार में दस
हजार बचते थे तो अब वो छे हजार रुपये ही बचा पा रहा है। इसे आगे जाएं तो किसी भी
आपात स्थिति से निपटने के लिए भारतीय परिवारों के पास रकम तीन साल पहले की करीब
आधी ही बच रही है। जनवरी से मार्च 2013 के बीच कराए गए इस सर्वे में ज्यादातर
लोगों का यही कहना था कि वो किसी तरह अपने खर्चे घटाने और कमाई बढ़ाने के उपाय खोज
रहे हैं। सर्वे में शामिल हर चौथा व्यक्ति बेहतर नौकरी तलाश रहा है। यहां तक कि एक
साथ दो नौकरियां और ओवरटाइम करके अपने खर्चे पूरे करने की कोशिश में लगा है। सबसे
बड़ी बात कि मनमोहिनी अर्थव्यवस्था का सपना बुरी तरह से ध्वस्त हो रहा है। मेट्रो
शहरो में रहने वाले 82 प्रतिशत लोग कह रहे हैं कि उनका जीवन स्तर कम से कम पचीस
प्रतिशत गिरा है। और ये कहानी देश के उन शहरों की है जो तरक्की, जीवन स्तर के
मामले में भारत का चेहरा हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद,
पुणे, चंडीगढ़ और देहरादून जैसे शहरों में सर्वे में भारत की तरक्की की ये तस्वीर
दिखी है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम समय समय पर ये कहते रहते हैं कि वित्तीय घाटा घट
रहा है। शेयर बाजार में विदेशी निवेशक फिर आ रहे हैं। करीब चार लाख करोड़ की
बुनियादी परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई है। सब कुछ पटरी पर आ रहा है। लेकिन,
वित्त मंत्री जी ये सब सरकार के लिए दुनिया में अपनी रेटिंग बचाने के लिए जरूरी
होगा। इन आंकड़ों के बावजूद यूबीएस ने भारत की रेटिंग गिरा दी। और हम तो मिडिल
क्लास इंडियन फेमिली हैं जिसने मनमोहन सरकार के उदारीकरण के सपने को उड़ने की ताकत
दी थी। हमारी जेब खाली हो रही है। जरूरी खर्च इतना महंगा हो गया है कि उसे करने के
लिए पैसे नहीं हैं। सरकार कुछ करो ये महंगाई हमारी बचत भी खा रही है। अब अगर 2008
दोबारा हुआ तो किसकी बचत के सहारे दुनिया में सिर उठाके घूम पाओगे।