इसे हिंदी की लड़ाई कहा जा रहा था। कुछ तो हिदुस्तान की लड़ाई तक इसे बता रहे थे। देश टूटने का खतरा भी दिख रहा था। लेकिन, क्या सचमुच वो हिंदी की, हिंदुस्तान की लड़ाई थी। दरअसल ये राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी।
अब सोचिए भला देश अबू आजमी को लेकर संवेदनशील इसलिए हो गया कि हिंदी के नाम पर आजमी ने चांटा खाया। सोचिए हिंदी की क्या गजब दुर्गति हो गई है कुछ इधर कुआं-उधर खाई वाले अंदाज में। उसको धूल धूसरित करने खड़े हैं राज ठाकरे और उसको बचाने खड़े हैं अबू आजमी। जबकि, सच्चाई यही है कि न तो राज ठाकरे की हिंदी से कोई दुश्मनी है न अबू आजमी को हिंदी से कोई प्रेम।
ये दो गंदे राजनेताओं की अपनी जमीन बचाने के लिए एक बिना कहा समझौता है जो, समझ में खूब ठीक से आ रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।
हिंदी न इनकी बेहूदी हरकतों से मिटेगी न बचेगी। कभी-कभी कुछ सरकारी टाइप के लगने वाले बोर्ड बड़े काम के दिखते हैं। रेलवे स्टेशन पर हिंदी पर कुछ महान लोगों के हिंदी के बारे में विचार दिखे जो, मुझे लगता है कि जितने लोग पढ़ें-सुनें बेहतर। उसमें सबसे जरूरी है भारतीय परंपरा के हिंदी परंपरा के मूर्धन्य मराठी पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का हिंदी पर विचार। पराड़कर जी की बात साफ कहती है हिंदी हमारे-आपके जैसे लोगों की वजह से बचेगी या मिटेगी। बेवकूफों के फेर में मत पड़िए।
भाई हर्षवर्धन जी बिल्कुल सही कह रहे हैं । मैं आपकी बात से 100 प्रतिशत सहमत हूं । महाराष्ट्र की विधानसभा एवं विधान परिषद में लंबे समय से हिंदीभाषी नेता आते और बोलते रहे हैं । इससे पहले कोई क्यों नहीं पीटा गया । इस पर विचार किया जाना चाहिए ।
ReplyDeleteभैया !
ReplyDeleteआपका विचार संतुलित है और
समस्या को सिर्फ भावुकता-पूर्ण ढंग से नहीं देख रहा है |
अच्छा लगा ... ...
अच्छी रचना। बधाई।
ReplyDeleteहर्षवर्धन जी बहुत ही बेबाकी से लिखा है आपने, मन प्रसन्न हो गया..सच्ची..बेहतरीन लेख..!
ReplyDeleteइन देश के दुश्मनों को अब सभी पहचानने लगे हैं। मुश्किल यह है कि इनका राजनैतिक गणित इनसे यह सब करा है जो शायद इनकी आत्मा, य़दि वास्तव में बची हो तो उसे भी कचोटता होगा।
ReplyDeleteaapki baat se poori tarah sahmat hoon,vastuth hindi vivado aur vidroh se nahi varan prem bhaw se aage badhti jayegi.
ReplyDeleteये दोनों हिंदी की आड़ में अपनी टी.आर.पी. बडवा रहे है ...सब राजनीति का फंदा है . अपने बहुत सटीक और बेबाकी से लिखा है बधाई ....
ReplyDeleteना जी ऐसे लोगो के फैर में कौन पड़ता है... यह देखें:
ReplyDeletehttp://www.tarakash.com/joglikhi/?p=1403
राज के पास भाषा पर राजनीति करने के अलावा कुछ है भी नहीं।
ReplyDeleteसब समझ में आता है हर्ष भाई मगर कौन किसे कहाँ तक समझायेगा। ऊचलने कूदने और बवाल मचाने वाले कुछेक तो इन्ही नेताओ कें चमचे ही होंगे, बाकी ऎसे लोग जो बिना सोचे समझे भेड़ चाल चलते हैं।
ReplyDeleteअच्छा और सार्थक लेख है।
हिंदी को सम्हालना और सही सम्मान देना तो आम जन का ही है | पर दुर्भाग्यवास अब आम जन हिंदी बोलने-लिखने, और हिंदी मैं सोचने :) से मुह मोड़ने लगा है | दर्द तब और बढ़ जाता है जब अपने ही घर मैं खासकर महिलायें अंग्रेजी के ज्यादा से ज्यादा शब्द बोलकर आपने को गौरवान्वित समझने लगते हैं |
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