Friday, November 13, 2009

इलाहाबाद का रिक्शा बैंक


उत्तर भारत से तरक्की के विचार, आइडियाज हमेशा देश की तरक्की के काम आते रहे हैं। लेकिन, इसने एक बुरा काम ये किया कि उत्तर भारत के राज्य खासकर उत्तर प्रदेश-बिहार बस विचार भर के ही रह गए। और, यहां के लोग विचार और श्रम के साथ तालमेल नहीं बिठा सके। लेकिन, अब धीरे-धीरे यहां से निकलकर बाहर विचार का प्रयोग करने के बजाए लोग यहीं प्रयोग कर रहे हैं। और, इस पर तो शायद ही किसी को संदेह हो कि उत्तर भारत की तरक्की के बिना देश की तरक्की संभव नहीं है। बिटिया की वजह से मैं भी इलाहाबाद में हूं। जिस हॉस्पिटल में बिटिया हुई है उसी के सामने किसी को छोड़ने के लिए खड़ा था कि एक नए किस्म का रिक्शा देखकर उसे समझने की जिज्ञासा मन में जोर मार गई। ये रिक्शा थोड़ा ज्यादा सुविधाजनक है दूसरे रिक्शों से ऊंचा है और इसमें जगह भी ज्यादा है।



मैंने उस रिक्शे वाले को रोका और, पहले तो, आगे-पीछे से उस रिक्शे की तस्वीरें अपने मोबाइल कैमरे से उतार लीं। फिर मैंने उससे पूछा तो, चौंकाने वाली बात पता चली। सिर्फ 25 रुपए रोज पर वो रिक्शे का मालिक बन गया था। जबकि, रिक्शे की कीमत थी करीब तेरह हजार रुपए।


इलाहाबाद के जारी गांव के मोहित कुमार ने मुस्कुराते हुए बताया कि सिर्फ फोटो और 500 रुपए जमाकर रिक्शा बैंक से उन्हें ये रिक्शा मिल गया है। मैंने कहा 25 रुपए रोज। तो, मोहित ने तुरंत बताया कि 25 रुपए रोज में हम इस रिक्शे के मालिक बन रहे हैं जबकि, बगल में खड़ा साधारण रिक्शा जो, दस हजार रुपए का आता है इसके लिए 35 रुपए रोज का किराया देना पड़ता है। जैसा आप भी देख सकते हैं इस रिक्शे में मोहित को सर्दी-गर्मी-बारिश से भी बचत होती है। आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक की ओर से मोहित को दिया गया रिक्शा नंबर 135 है और, कई रिक्शे के मालिक इसी तरह तैयार हो रहे हैं सिर्फ 25 रुपए रोज पर।



दिन में घूमते-घूमते 259 नंबर का रिक्शा भी मिल गया। उसी रिक्शे वाले ने बताया करीब 500 ऐसे रिक्शे शहर में चल रहे हैं। पता ये भी चला कि पंजाब नेशनल बैंक और इलाहाबाद बैंक आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक के जरिए जरूरतमंदों को रिक्शा मालिक बनने में मदद कर रहा है। रोज के रिक्शे के किराएदार से किराए से भी कम पैसे में करीब डेढ़ साल में रिक्शे के मालिक बन रहे हैं।



सिर्फ रिक्शा ही नहीं ट्रॉली भी मिल रही है। बढ़िया लाल-पीले रंग में रंगी। विचारों की धरती पर रंगीन विचार के साथ रंगीन रिक्शे-ट्रॉली भी कम कमाने वालों की जिंदगी रंगीन कर रहे हैं।

9 comments:

  1. चलिये एक बात का तो आश्वासन हो गया कि चूरन चटनी बेच कर अगर पच्चीस रुपये रोज बचा लिये तो रिक्शा तो अपना हो जाएगा। हमारे जैसे खानाबदोशों के लिये नया शब्द हो जाएगा "रिक्शाबदोश"
    सुन्दर पोस्ट रही

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  2. ये हुई पत्रकारिता सटीक..

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  3. बहुत अच्छा लगा, जानकर, पढ़कर।

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  4. बड़ा सार्थक प्रयास है....अच्छा लगा जानकर!! आभार आपका इस समाचार को हम तक पहुँचाने का.

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  5. is achhi khabar ke liye dhanyavaad. isne mujhe yaad dila di edinburgh,UK aur franfurt germany me dekhe padal rickshaw ki. mere paas uski tasweer bhi hai, aur kabhi post karoonga
    dhanyawaad
    rakesh ravi

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  6. दिल्ली में ऐसे रिक्शे काफी समय से चल रहे हैं बल्कि सच्चाई तो ये है पुरानी तरह के रिक्शे तो अब दिखाई ही नहीं देते...रिक्शेवाले इन्हें मज़ाक से CNG रिक्शा कहते हैं.

    1984 में, इस तरह की रिक्शा-फाइनेंस स्कीम की एक कमी यह थी कि इसमें सरकार 33% सब्सिडी देती थी जिसके चलते लोग 1000 रूपये के रिक्शे को 900 रूपये में बेच अगले ही दिन बैंक में 666 रूपये जमा कराने चले आते थे. जिससे रिक्शाचालक को बैठे-बिठाए ही 234 मिल जाते थे व रिक्शामाफिया को हर नए रिक्शे पर 100 रूपये का मुनाफ़ा होता था. बैंक बाले के टारगेट पूरे हो जाते थे. लेकिन करदाता मूर्खों की तरह बगलें झांका करता था...

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  7. आज देश को ऐसे ही विकासोन्मुखी वास्तविक प्रयासों की जरूरत है. साथ ही यह ख़याल भी रखना होगा कि इसमें भ्रष्टाचार का दीमक न लगने पाए.

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  8. इस चमत्कारी योजना के बारे में ज्ञान जी ने पहले बताया था। इस प्रकार की विकासशील सोच ही समाज में शान्तिपूर्ण तरीके से क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम हो पाती है।

    इस योजना की परिकल्पना जिसने तैयार की हो उसे सलाम। बैंकों ने पहले भी सूदखोरों पर लगाम लगायी है, अब मुनाफाखोरों को भी चेतना होगा।

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  9. यह एक अच्‍छी पहल है

    ऑकुट पर पता चला कि आपके यहाँ लक्ष्‍मी जी का आगमन हुआ है, और सिद्धार्थ भाई से पता चला कि आप इलाहाबाद में है किन्‍तु गृह निर्माण में व्‍यस्‍तता की मजबूरी के कारण घर से निकलना नही हो पा रहा है।

    आपको बहुत बहुत बधाई

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